________________
॥ संघरतवे परिषहवर्णनम् ॥
(२१७)
मा
शीत ( ठंडी ) ने सम्यक् प्रकारे सहन करवी पण अग्नि वगेरे सदोषाचरणथी निवारवी नहिं ते शीतपरिसह. का छे के " रुक्ष शरीरवाळा अने गामे गाम विहार करता मुनिने कोइ वखत अत्यन्त शीत लागे सोपण शीतना भयथी स्वाध्यायादि अवसरनुं उल्लंघन न करे, तथा मारे शीत निवारणकरवाने मकान विगेरे साधन नथी, कांबळ वस्त्र वगेरे नथी, हूं अग्निए तापू इत्यादि दीन चिं. तवन मुनि ने करे
कारण पूछवाथी देवे पोतानों सर्व वृतांत जणाव्यो, के आ पितामुनिए मने लचित्त अळ पीवानी आज्ञा आपवाथी हुं . दना करती नथी. जो ए आशा प्रमाणे घयों होत तो दुर्गतिमां अनेक भव भ्रमण करत. पळी तेज पिता तेज गुरु अने तेज पूज्य कहेवाय के जे पोताना पुत्रादिने उन्मार्ग न प्रवावे, एप्रमाणे देवनी हकीकत सांभळी लर्व मुनिओ आश्चर्यसहित नगरमां पहोंच्या अने देव पण प्रोताने स्थाने गयो.
१ दृष्टान्त-राजगृहीनगरीमा चार मित्रषणिकोए श्रीभद्र. धाहु स्वामी पासे दीक्षा ला उत्तम योग्यता प्राप्त करी पकाकी विहारप्रतिमा ( अभिग्रह ) अंगीकार करी. ए प्रतिमामां एवी अभिग्रह होय छे के विहार अथवा भोजन श्रीजे प्रहरेज थाय अने त्रीजो प्रहर पूर्ण था चोथा प्रहरमा प्रारंभमां जे ज्यां होय ते मुनिए त्यांज उभा रही बीजा ७ प्रहर सुधी प्रतिमाए ( काउस्सग्गादि ध्यान विशेषमां) रहे. ए प्रमाणे ते चारे मुनिओए एकाकि विहारकल्प अंगीकार करी . विहार करता त्यांज राजगृहनगरमां पधार्या. ए वखते भरशियाळामी हेमंत ऋतु चाले छे. अत्यंत शीत पडे छे. हवे ते चारे मुनिओ वैभारगिरिपर आव्या हता त्यांथी नगरमां श्रीजे प्रहरे गो. चरी करी पुनः वैभारगिरि तरफ जाय छे त्यां एक मुनिने वैभारगिरिनो गुफाने द्वारे आवतां, बीजा मुनिने नगरना उधा. नमा आवतां. त्रीजा मुनिने उद्याननी पासे, अने चोथा