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|| मोक्षत श्येनवद्वारस्वरूपम् ॥ (३२३ )
॥ संस्कृतानुवादः ॥
अन्तर्मुहूर्त्त मात्रमपि, स्पर्शितं भवेत् यैः सम्यकूत्वं । तेषामपापुद्गलपरावर्त्तश्चैव संसारः ॥ ५३ ॥
॥ शब्दार्थः ॥
अंतोमुहुत्त — अन्तर्मुहूर्त्त
मित्तं मात्र
ऽपि - पण फासियं - स्पर्यु. हुज्ज - होय
जेहि—- जेओए
सम्मतं सम्यक्तव
तेसिं—तेओने
· अवठ्ठ – अपार्ध (छेल्लो अर्धो ) पुग्गल परियट्टो - पुद्गलपराव
कोळ
चैव निश्चयं
संसारो संसार
HOND
गाथार्थः — जे जीवोए अन्तर्मुहूर्त्त मात्र पण सम्यक्त्व स्पर्यु होय ते जीवाने निश्चय छेल्लो अर्ध पुद्गलपरावर्त्त संसार ( बाकी रहे छे, ने त्यारबाद अवश्य मोक्षे जाय छे. )
विस्तरार्थः - हवे सम्यक्त्व पामवायी शुं लाभ थाय ? ते दर्शावे छे के एक अन्तर्मु० मात्र पण जे जीवोने सम्यक्त्व स्प होय एटले जे जीवोने एक अन्तर्मु० जेटलं अल्पकाळ्नुं सम्यक्त्व प्राप्त थर्यु होय तो ते जीवोने अर्धपुद्गलपरावर्त्त जेटलोज संसार बाकी रहे छे, अर्थात् ते जीवो अर्धपुद्गलपरावर्त्त जेटला अल्प ( पण अनंत ) कालमा मोक्षे अवश्य जाय छे.
अहिं अन्तर्मु० नो काळ ते आंख मीचीने उघाडे तेटला काळना पण असंख्यातमा भाग जेटलो अति अल्प होय छे, अथवा attarai एक तीव्र झवकाराने जेटलो बखत लागे तेथी पण अति अल्प (- असंख्यातमा भाग जेटळा ) वखतने अहिं अन्तर्मु०