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(३२२) ॥श्री नवतश्वविस्तरार्थ ॥ मालि निन्हव ( सत्य वचनने ओळवनार ] अथवा मिथ्यादृष्टि गणायो छे. ___तथा गोष्ठामाहिल्ल आचार्य सर्व पदार्थोंने यथार्थ प्ररूपता पण "जीवप्रदेशने कर्म सर्पनी कांचळीवत् स्पर्शल छ, पण आ. त्मप्रदेशनी अंदर प्रवेशीने रहयु नथी' ए एकज विपरीत अर्थ क. हेवाथी मिथ्यादृष्टि गणाया, एवा आ शासनमा ७ निन्हवो एकेक वचनने असत्य मानवाथी मिथ्यादृष्टि तरीके प्रसिद्ध थया छे, माटे जे प्रमाणिक पुरुषर्नु अनेक वचन सत्य मानीए ने एक वचन असत्य मानीए तो ते पुरुषने आपणे सर्वांशे प्रमाणिक मानीए छीए एम कही शकाय नहि, माटे सर्वज्ञ सरखा प्रमाणिक पुरुषोना सवे वचनो सत्यज मानी शकाय. ___ अथवा जेम न्यायी राजानी सर्व आज्ञाओने , प्रमाण करनार प्रजा के सेवक राजनिष्ठ कही शकाय पण केटलीक आज्ञाओ माने ने केटलीक आज्ञाओ न माने तो ते प्रजा या सेवक द्रोही गणाय तेम सर्वज्ञरूप धर्मराजानी सर्व वचनोने सत्य माननार धर्मनिष्ठ अथवा सम्यक्त्वी गणाय पण केटलांक वचनोनो अनादर करे तो ते धर्मद्रोही अथवा मिथ्याद्रष्टिज गणाय माटे श्री जिनेश्वरनां क. हेलो सर्व वचनो सत्य माननारा जीवनेज निश्चल सम्यक्त्व होइ शके.
अवतरणः-पूर्वगाथामां सम्यक्त्वनु स्वरुप का अने हवे आ गाथामां ते सम्यक्त्व प्राप्तिथी शुं लाभ थाय ? ते कहे छे.
__॥मूळ गाथा ५३ ॥ अंतोमुहुत्तमित्तं--पि फासिय हुन्ज जेहिं सम्मत्त । तेसिं अवठ्ठपुग्गल--परियट्टो चेव संसारो ॥ ५३ ॥