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॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥
हस्थवेष रह्या ए अपवाद रूप होवाथी भाहिं ग्रहण करवा योग्य नथी.) पुनः तापसादिना वेषमां मोक्ष कयो ते पण ए रीते ज जाणवो, अने ते तापसादि पण केवळज्ञान पाम्या वाद अ. धिक आयुष्य जाणे तो अवश्य साधुवेष अंगीकार करे तेनो पाठ आप्रमोणे__ " यद्वा अन्यलिंगिनां भावतः सम्यक्त्वादि प्रतिपन्नानां केवलज्ञान प्रतिपद्यन्ते तदा अन्यलिंगत्वं द्रष्टव्यं, अन्यथा यदि ' दीर्घमायुष्कमात्मनः पश्यन्ति ज्ञानेन ततः साधुलिंगमेव प्रतिपद्यन्ते" [नवतत्त्वावचूरी] ___ अर्थः-भावथी सम्यक्त्वादि पामेला अन्यलिंगिओने ज्यारे केवळज्ञान अंगीकार कराय (-अन्यलिंगीयो ज्यारे केवळज्ञान अंगीकार करे ) त्यारे अन्यलिंगीपणुं जाणवू, नहिंतर ज्ञानवडे जो पोतार्नु दीर्घ आयुष्य जाणे तो साधुनो वेषज अंगीकार करे) ए पाठ जो के तापसादि वेषवाळाने अंगे छे तोपण तत्व एक होवाथी गृहस्थलिंगना संबंधमां पण उपयोगी छे. .
. माटे सार एज छ के गृहस्थने पण मोक्ष छे एवा विचारथी गृहजंजाळ नहिं छोडी साधुपणुं नहिं स्वीकारनार गृहस्थने मोक्ष होइ शके नहिं.
२ अहिं तापसादिना वेषमां मोक्ष कह्यो ते संबन्ध १ न. बरनी स्फुटनोटमा आपेला शास्त्रपाठथी यथायोग्य विचारवो. अर्थात् सार एज छे के तापसादिना वेषे मोक्ष होवाथी ताप. सादिनी धर्म पण मोक्ष आपनार छ एम न जाणवु.
पुनः आ उपरथी एम पण समजवु जोइए के जैन धर्ममां मात्र (जातिथी) जैनने ज मोक्ष होय एवो आग्रह नथी पण जैन सिवायना बीजा तापस वगेरे अन्य धर्मीओने पण (=अन्यजातिवाळाओने पण ) मोक्ष होय एम मानेलं छे मोटे ए वात प. रथी जनधर्मनु निष्पक्षपातपणु स्पष्टरीते जाहेर थायछे. काछे के
सेयंवरो य आसंबरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा । समभावभाविअप्पा, लहइ मुक्ख न संदेहो ॥ १॥.
( संबोधसप्ततिका )