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जाणवं, अने मन तो अभ्यन्तर करण छे माटे मनःपयोप्ति जूदी कहे'नामां कोई दोष नथी. बन्ने रीते मनःपर्याप्तिनो संभव छे. हवे प. योति एटले समाप्ति अर्थात् विवक्षित क्रियानी समाप्ति तैजस अने कार्मण शरीर वाला आत्मानेज औदारिक विगेरे शरीर प्राप्त करवार्नु होवा छतां प्रथम समये उत्पत्ति वखतेज.ए पर्याप्तिभोनो विचार कराय छे, अर्थात् ए परभव ग्रहण वखतनी छे. वळी ए ६ पयाप्तिओ समकाळे प्रारंभाय छे अने अनुक्रमे समाप्त थाय छे पण समकाळे समाप्त थती नथी. कारण के उत्तरोत्तर पर्याप्तिओनो अनुक्रमे अधिक अधिक काळ छे. ते समाप्त थवाना अनुक्रममा प्रथम आहार पर्याप्ति, अने त्यारवाद अनुक्रमे शरीर, इन्द्रिय, उ. च्छवास, भाषा, अने मनःपर्याप्ति छे. त्यां प्रथम आहारपर्याप्तिन स्वरूप निरूपण करवाने माटे (भाष्यकार) आ प्रमाणे करे छे. - भाष्यार्थ-शरीर, इन्द्रिय, वचन, मन, अने उच्छवास योग्य दलिकद्रव्यने ग्रहण करवा रूप क्रियानी समाप्ति ते आहार पर्याप्ति, ग्रहण करेल ( दलिक) ने शरीरपणे स्थापना रूप क्रियानी समाप्ति ते शरीर पर्याप्ति, अहिं स्थापq एटले रचवू अथवा घडवू एवो अर्थ छे.
टीकार्थ-शरीर इन्द्रिय वचन मन अने उच्छवासनां आगम प्रसिद्ध वर्गणाओना अनुक्रम प्रमाणे जे तत्मायोग्य दलिकद्रव्यो तेनी आहरणक्रिया एटले ग्रहणक्रिया तेनी समाप्ति ते आहारपर्याप्ति ते करण विशेष छे. अहिं मन ग्रहण करवाथी प्रथथ इन्द्रिय ग्रहण वडे मननुं जे ग्रहण कयु हतुं ते स्पष्ट कयु. तथा सामान्य पणे (शरीरादि अमुक रुपेज एम नहिं एवा ) ग्रहण करेल योग्य पु. गल समूहनु शरीर अने ( ते शरीरना) अंगोपांगपणे स्थापवानी क्रिया एटले रचवानी क्रिया तेनी समाप्ति ते शरीरपर्या
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