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________________ - (१०८) ॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ।। धर्मा० अने अधर्मा० रहेल छे तेटला आकाश- नाम लोकाकाश, अने ते शिवायर्नु सर्व अलोकाकाश छे, लोकाका० असंख्य योजन जेटलो सुप्रतिष्ठआकारे छे, अने अलोकाकाश 'पोला गोळा स. रखो छे, वळी पूर्व पश्चिमादि दिशाओ पण आकाश द्रव्यना विभाग रूप ज छे परन्तु नैयायिकादिनी माफक नवीन कल्पित दिशाद्रव्यनथी आकाश विभागथीज "देशिक परत्वापरत्व" व्यवहार थइ शके छे. कारणके गोस्तनाकार आठ रुचक प्रदेशथी विजय दरवाजा तरफ (ज्यां भरत क्षेत्रनो सूर्य उगे छे ते तरफ) बे बे प्रदेशे वधती पूर्व दिशानीकळी छे, एरीते शेष दिशाओ पण वे बे प्रदेशो वधती निकळेली छे. अने विदिशा एकेकपदेशनी पंक्ति रूप(घुटेलामोतीना एकावली हार सरखी ) नीकळी छे. अने अर्ध्व तथा अधोदिशा चार चार प्रदेशनी निकली छे. ए दिशाओनी मर्यादा करनार आ. ठरुचक प्रदेश ( रुचक नामवाला आठ आकाश प्रदेश ) जंबुद्वीपना मेरूपर्वतनी तलहटीए मेरूना अंदरना मध्य मागमां छ. ने त्यांथी दिशा विदिशाओ निकळी छे. वळी ऊर्चलोक विगेरे लोकाकाशना अनेक विभागो छ. लोकाकाश १४ राज लोक प्रमाणे छे. ॥३॥ काळ.॥ द्रव्यना वर्ननादि पर्याय ते नैश्चयिक काळ, अने ज्योतिषच. जना भ्रमणधी उत्पन्नथतो जे समय-आलि--मुहर्तादि ने व्यवहारकाळ ( १३मी गाथामां कह्यो छे.) काळ वे प्रकारे . वाम्नविकरीते तो काळ ए परमाणुओना पिंडरूप पदार्थ नथी, परन्तु सर्व द्रव्योमा वर्तनादि पर्याय साधारण रीने होवाथी उपचारे ते वर्तनादिपर्यायमा उपकारी होवाथी कालने द्रव्य तरीके १ कारण के लोकाकाश जेटलो आकाश अलोकन ग. गाय माटे लोकाकाश जेटलं अंदरना भागमा पोलाण कहेवाय.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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