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________________ (३०८) ॥श्री नक्तत्वविस्तरार्थः ॥ तेमांथी सिद्ध परमात्माने क्षायिक अने पारिणामिक ए वे भावज होय, कारणके सिद्धपणु कर्मना क्षयथी प्राप्त थयु छे, माटे सिद्ध परमात्मा क्षायिक भावे छे, जे दुनियाना सर्व पदार्थों स्वस्वभावे परिणत होवाथी पारिणामिक भाव वाला छे,तो सिद्धपरमात्मोपण परिणामिक भाववाळा होइ शके छे. परन्तु औदायिक -औपशमिक-ने क्षायोप० ए त्रणे भाव कर्मजन्य होवाथी सिद्ध परमात्माने होइ शके नहि, हवे सिद्ध परमात्माने जे शायिक अने पारिणा० ए बे भाव छे, तेमां क्षायिकभावना ९ भेद, अने पारिणा० भावना ३ भेद छे, तो सिद्ध परमात्माने तेमांना कया कया भेद होइ शके ? ते संबन्धमां ग्रन्थकार पोतेज कहे छे के खइए भावे तेसिं दसणं नाण-क्षायिकभावे सिद्धपरमात्मने केवळज्ञान अने केवळदर्शन छे, : अने परिणामिए अ पुण होइ जीवत्तंवळी पारिणामिक भावे सिद्ध परमात्माने जीवरख छ, परन्तु भव्य त्व तथा अभव्यत्व नथी ( ते वात प्रथम फुट नोटमांज दर्शाती छे के सिध्धपरमात्मा नोभवा नो अभवा- भव्य नहिं तेम अभव्य पण नहिं.) अहिं जो के इन्द्रियादि १० प्राणरुप द्रव्य जीवत्व सिद्धने नथी परन्तु ज्ञानदर्शनादि भाव प्राणोवडे भावजीवत्व छे. ए प्रमाणे भावद्वार का. १ सिद्धजीवो अभव्यथी अनंतगुण छे, पण सर्वजीवथी अनंतमा भागेछे १ शेष ५ लङधि-क्षा० सम्यक्त्व, ने क्षा० चारित्र सिद्धने कहेलुं नथी त्यां अपेक्षाए छे के दानादि क्रियानी प्रवृत्ति अपेक्षाए ५लब्धि नथी अन्यथा अनन्तदातादिने अनन्तवीर्य लब्धि वास्तविक रीते संभवे छे, कारण के अनंत लब्धिमा अन्तर्गतज गणाय. तथा भा० सभ्यक्त्वछे पण
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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