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॥ जीवत्वे काय लप्राणवर्णनम् ॥
( ८१ )
सागरोपम छे, तथा आहारकनो ज० अने उत्कृ० काळ पण अन्तर्मुहूर्त्तज छे, अने जस काणिनो जय० वा उत्कृष्टकाळ भव्यने अनादिसान्त, अभव्य अनादिअनत छे.
॥ पांच शरीरनी प्रत्येकनी समकाळे संख्या ॥
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औदा शरीर एकीखते जघ० थी अने उत्कृष्टथी पण असंख्यज होय, वैक्रियशरीर पण जघ० थी उ० थी एककाळे असंख्य होय, आहारकशरीर एककाळे जघ० थी एक वे अने उत्कृष्टथी ९००० होय, अने ते० का०शरीर सर्वदा अनंतज होय छे.
|| पांच शरीरनो विरहकाळ. ॥
एक जीव आश्रय औदा० शरीरनो जघ० विरह (अभाव काळ) १ समय (वक्रगतिए परभव जत) होय, अने उ० विरहकाळ अन्तमुहूतीधिक ३३ सागर प्रमाण (कोइक चारित्री भवप्रान्ते वै० शरीर करी अन्तर्मु० जीवने अनुत्तरदेव थाय ते अपेक्षाए ) होय. - वैक्रिय शरीरनुं जघ० अन्तर अन्तर्मु० अने उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिमां भमतां (स्पतिनी कार्यस्थिति तुल्य ) आवलिकाना असंख्यातमा भाग जेला पुलपरावर्त्त प्रमाण छे. आहारकनुं ज० अन्तर अन्तर्मु० अने अन्तर अर्धलपरावर्त्त प्रमाण पुनः चरित्र विरहकाळ एटलो होवाथी के अने तै० का० शरीरने अन्तर नथी. अनेक जीवोनी अपेक्षाये चार शरीरनो विरहकाल न होय, अने आहारक शरीरनो जघन्य १ समय उत्कृष्ट छ मास अने जीवसमास मते वर्षपृथकत्व विरहकाल होय छे.