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________________ ( १४४ ) || श्री नवतवविस्तरार्थः ॥ अवतरण - प्रथमनी १३ गाथा सुधीमां १ जीव द्रव्य अने ५ अजीव द्रव्यनु जूर्दु जूनुं स्वरूप कहीने हवे सामान्यतः छ ए द्रव्य अमुक अमुक द्वार ( परस्पर तफावत वाळी बाबत) जाणवा योग्य छे ते द्वारनi ( बावतीनां ) नाम कहे छे. || मूळ गाथा १४ || परिणामि जीव मुत्तं, सपएसा एगखित्त किरिया य । निश्चं कारण कत्ता, सवगय इयर अप्पवेसे ॥ १४ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ परिणामी जीवो मूर्त्तः सप्रदेशः एकः क्षेत्रं क्रिया च । नित्यः कारणं कर्त्ता सर्व्वगतमितर प्रवेशः ॥ १४ ॥ 9 ॥ शब्दार्थः ॥ परिणामि परिवर्तन पामनार वा लोह अने अग्निवत् परस्पर मळी (जनार) जीव-जीव मुत्तं - मूर्तिमंत रूपी सपएसा - सप्रदेशी एग - एक वित्त क्षेत्र किरिया - क्रियावाळां सक्रिय निचं नित्य- शाश्वत कारण- कारण कत्ता कर्त्ता कत्ता--कर्त्ता सवय - सर्वगत सर्वव्यापी इयर - इतर ( उलट ) अप्पवेसे - अप्रवेशी (तद्रपनहि थनार. ) गाथार्थ:- ६ द्रव्यमां परिणामि जीव-रूपी समदेशी एक क्षेत्र-सक्रिय-नित्य-कारण- कर्त्ता सर्वव्यापी इतरा प्रवेश द्रव्यो नयां क्यों के. विस्तरार्थः एद्रव्योमां परस्पर विशेषता भने अविशेपता जाणवामा प्रकरणकर्त्ताए परिणामी इत्यादि सप्रतिपक्ष १२
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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