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|| श्री नवतस्व विस्तरार्थः ॥
प० चारित्र कहेवाय. अने चारित्रना मूळगुणनो ( महाव्रतनो ) घात करनारने जे पुनः चारित्र आपवुं पडे ते सातिचार चारित्र कहेवाय,
हवेत्री परिहारविशुद्धि नामर्नु चारित्र छे. त्यां परिहार एटले तप विशेष डे विशुद्धि पटले चारित्रने जे विशुद्ध करं ते परिहार विशुद्धि चारित्र वे प्रकारनुं छे, तेमां प्रथम ९ मुनिनो समुदाय होय छे, तेमां एक वाचनाचार्य होय छे, चार मु नि तप करनार होय, अने चार मुनि ते तपस्वीओनी वैयावच्च ( सारवार ) करनार होय. एमां जेओ तप क्रियामां प्रवर्ते छे ते वखते तेओ निर्विशमानक चारित्री अने तप संपूर्ण कर्या बाद तेज मुनिओ निर्विष्टकायिक चारित्री कहेवाय छे, एओनो तप ग्रीष्मऋतुमां जघन्य उपवास, मध्यम छट्ट अने उत्कृष्ट अट्टम, शिशिरऋतुमां जघ० छह, मध्यम अहम ने उ० दशम, वर्षाकाळमां ज० अहम म० दशम ने उ० द्वादशभक्त होय छे, दरेक पारणे आ बिल, भिक्षामां पांच ग्रहण ने बे ( वस्तुनो ) अभिग्रह होय, ए प्रमाणे ६ मास सुधी तप कर्या बाद सावार करनार मुनिओ एज विधिए ६ मास तप करे, ते वखते निर्विष्टकायिक मुनिओ निर्विशमानकनी सारखार करे, तेओनो पण ६ मास तप पूर्ण थया बाद वाचनाचार्य ६ मास सुधी तप करे अने आठे निर्विष्ट कायिक सुनिओ निर्विशमानक वाचनाचार्यनी सारवारमां रहे ए प्रमाणे ए तप १८ मासे पूर्ण थया बाद इच्छा होय तो जिनकल्पी मार्ग अंगीकार करे अथवा तो पुनः गच्छमां प्रवेश करे, आ परिहारविशुद्धि चारित्र केवली भगवान पासे अंगीकार थाय छे; अ थवा तीर्थकर पासे रहेलागणधरादिकनी पासे अंगीकार कराय छे. पण बीजानी पासे नहिं ए परिहारविशुद्धि चारित्रनां २० द्वार भा प्रमाणे