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॥श्री नवतश्वविस्तरार्थः ॥
अवतरण-आ गाथामां नवतत्वने जाणवाथी शुं लाभ थाय
॥ मूळ गाथा ५१ मी॥ जीवाइनव पयत्थे, जो जाणइ तस्स हाइ सम्मत्तं । भावेण सदहतो, अयाणमाणेऽवि सम्मत्तं ॥५१॥
. संस्कृतानुवादःजीवादिनवपदार्थान् यो जानाति तस्य भवति सम्यक्त्वं । भावेन श्रद्दधतो, अज्ञानवत्यपि सम्यक्त्वं ॥५१॥
शब्दार्थः जीवाइ-जीव वगेरे सम्मत्तं-सम्यकूत्व नव-नव (९) . भावेण-भाववडे-भावथी पयत्थे-पदार्थोंने (तत्वोने) सद्दहन्तो-श्रडा करता जो-जे जीव
अयाणमाणे-अज्ञानीने जाणइ-जाणे
अवि-पण तस्स-तेने
सम्मत्तं-सम्यक्त्व होइ-होय-थाय __ गाथार्थः-जे जीव जीवादि नव पदार्थ (-तत्व ) ने जा. णे तेने सम्यक्त्व होय छे, अथवा भावथी ( नवतत्वनी ) श्रद्धा करनार ( नवतत्वने सत्य माननार ) एवा अज्ञानी जीवने (-न वतत्व नहि जाणनारने ) पणः सम्यक्त्व होय छे.
विस्तरार्थः-जीव-अजीव-पुन्य-पाप-आश्रव-संवर-निजरा-अने मोक्ष ए जीवादी नव पदार्थने जे कोइ जाणे तेने समकित होय छे.