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|| श्री नवतस्त्रविस्तरार्थः ॥
नाति० क्रिया पण पूर्वोक्त प्रकारे स्वहस्तिकी अने परहस्ति की एम वे प्रकारे छे. आ प्राणाति० क्रिया असंयत ( अविरत ) जीवोने होय छे माटे ५ मा गुण सुधी छे. आ क्रिया हणेलो जीव मरण पामे तो ज लागे अन्यथा नहि.
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६ आरंभिक -- आरंभ ( कोइक कार्य करवानी प्रवृत्ति ) थी उत्पन्न थयेली ते आरंभिक क्रिया वे प्रकारनी छे त्यां जीवन घात करवरूप कार्य प्रवृत्तिवाळी जे क्रिया ते जीव आरंभि की, अने चित्र अथवा कोरणी वगेरेथी बनावेला जीवांने घात करवारूपः प्रवृत्ति ते अजीव आरंभिकी. आ क्रिया सर्व प्रमादयोगी जीवोने होय छे माटे ६ ठा गुण० सुधी छे.
७ पारिग्रहिकी क्रिया - परिग्रह ( धनधान्यादिकनो संग्रह वा ममत्वभाव ) थी उत्पन्न थयेली ते पारिग्र० क्रिया वे प्रकारनी छे. त्यां धान्य- ढोर - दास-दासी वगेरे जीवना संग्रहथी जीव पारिग्र०, अने आभूषण वस्त्र इत्यादि अजीवना संग्रहथी अजीवपारिग्र० कहेवाय, आ क्रिया परिग्रहना अत्यागी जीवोने होय छे, माटे ५ मा गुण० सुधी छे,
८ मायाप्रत्ययिकी क्रिया - माया एटले छळ प्रपचथी उत्पन्न थयेली ते माया प्र० क्रिया वे प्रकारनी छे, त्यां अंतरंगमां दुष्ट भाव होय छतां बहारथी शुद्धभाव दर्शाववो. ए प्रमाणे पोतानो भाव विपरीतपणे देखाडवो ते आत्मभाववचनमाया प्र०, अने बीजानी जूठी साक्षी पूरवी, खोटो लेख लखी आपको इत्यादि परभाववंचन मायाप्र क्रिया कहेवाय श्री पन्नवणा
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जीमां पण आ क्रियाने मात्र ७ मा गुण सुधीज कही छे,
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१ माया मोहनीयना उदयनी अपेक्षाए तो ए ९ मा गुण सुधी संभवे, परन्तु अहिं माया प्रपंचनो प्रवृत्ति रूप क्रिया ग गेली छे माटे. तेवी, प्रवृत्ति तो ७मा गुण सुधीज पन्नवणाजी मां संघादिकना कारणथी कहेली छे अने ८-९ मे गुणस्थाने माया उदयरूपे होय पण प्रवृत्ति रूप न होय