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________________ (४) श्रीनवतचविस्तरार्थः - परभवमां तो ब्रह्मदत्तचक्रवर्तीनी माफक दुःखमय दुर्गनिम छे, एवा प्रकारना पुण्यने पापानुबंधि पुण्य कहेवाकां आवे छे. चालु प्रकरणमां - विशेषतः पुण्यानुबंधिपुण्यनेज पुण्य तरीके मानवु योग्य छे. ३ ' जीवने दुःख भोगववामां कारणरुप जे अशुभकर्म ते द्रव्य पाप, अने ते अशुभ कर्मने उत्पन्न करवामां मूळ कारणरुप जे अशुभ अध्यवसाय ( भाव-परिणाम ) ते भावपाप कहेवाय, अने ए पापर्नु जे लक्षण मेदादि स्वरूप ते पापतत्व कहेवाय. अहिं पाप पण ( पुण्यतत्त्वमां कह्या प्रमाणे) बे प्रकारचें छे. त्यां में कसाइ मच्छीमार वगेरे जीवो आ भवमां दरिद्रतादि अनेक दुःखो (पापो) भोगवी रह्या छे ( भोगवे छे) अने एज पाप भोगववाद्वारा बीजु नवु पाप उपार्जन करे छ जेथी आ भवमां तेओने सुख नथी अने परभवमां पण सुख नथी माटे ते पापानुबंधि पाप कहेवाय. तथा जे जीवो आ भवमां दरिद्रतादि दुःख (पाप) भोगवे है, परन्तु आ दरिद्रता ने पूर्वकृत पापनोज प्रभाव छ एम समजी पोतानी शक्ति प्रमाणे धर्मकृत्यो करें छे जेथी आ भवमां तो तेओने सुख नथी पण परभवमां तो अवश्य सुख थायछे ज माटे ते पुण्यानुबंधि पाप चण्डकौशिक सोदिनी माफक कहेवाय छे. अत्रे बन्ने पापने पाप तरीके मानवु योग्य छे, तोपण वास्तविक रीते पापानुबंधि पापने विशेषतः पाप तरीके मानवु योग्य २. ए प्रमाणे पुण्य पापनी चतुर्भगी (चार भांगा-चार प्रकार) नीचे प्रमाणे थया. ४ १ पुण्यानुबंधि पुण्य-'सुख' छे अनेछ -आप्रकार आदरवा योग्यछे. . १ अर्थात् ( पुण्यानुबंधि पुण्यथी ) आ भवमां सुख छ, अने परभवमां पण सुख छे, ए रीते चार प्रकार समजवा. २ वर्तमानकालनी अपेक्षाए. 3 भविष्यकालनी अपेक्षाए.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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