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नवतत्त्वसंक्षेपस्वरूपम्. जीव जेनावडे सुख भोगवे छे ते कर्म पुण्य कहेवाय, अने ते पुण्यनुं ( शुभ कर्मर्नु ) जे लक्षण भेदादि स्वरूप ते पुण्यतत्त्व कहेवाय छे. अहिं जीवने सुख भोगववामां कारणरूप जे शुभ कर्म ते 'द्रव्यपुण्य कहेवाय, अने ते शुभकर्मने उत्पन्न करवामां कारणरूप जे जीवना शुभ अध्यवसाय (परिणाम ) ते 'भावपुण्य कहेवाय. अथवा पुण्यानुवंधिपुण्य अने पापानुबंधिपुण्य ए प्रमाणे पुण्य वे प्रकारे छे. त्यां जे पुण्य भोगवतां बीजं नवं पुण्य बंधाय ते पुण्यानुबंचिपुण्य, एना उदयथी आ भवमां सुख भोगवी आगळ पण मुख ज भोगवे भरतचक्रचत्ती विगेरेनी माफक. आर्यावर्चना महडिक दानेश्वरी अने धर्मी जीवो आ भवमा पुण्यकर्म भोगवी रहया छे, अने ते पुण्य भोगववाद्वारा बीजुं नवं पुण्य पण उपार्जन करे छे, जेथी आ लोकमां अने परलोकमां (परभवमां ) पण तेओने सद्गतिज प्राप्त थाय छे, माटे ते पुण्यानुबंधिपुण्य कहेवाय छे. अने जे पुण्य भोगवतां बीजु नवु पुण्य, न बंधाय परन्तु पाप बंधाय ते पापानुबंधिपुण्य कहेवाय. जेमके आर्यावर्त्तना अने अनार्यदेशना जे महर्डिक जीवो केटलाएक एवा छे के आ भवमा घणा उंचा प्रकारनो अनेक जातनो वैभव भोगवी रया छे, परन्तु ते वैभव ( पुण्यकर्म ) भोगवतां छतां सत्कार्यों-सदाचार प्रवृत्ति नहिं होवाथी बीजं नवं पुण्य उपार्जन नहिं करतां असदाचार प्रवृत्तिथी अनेक प्रकारनां पापकर्म करी पाप मात्रज बांधी रह्या छे जेथी आ भवमां तो पुण्यकर्मथी सुख भोगवी रह्या छे, परन्तु
१ आ स्थाने द्रव्य एटले “ लोकव्यवहारथी, " अथवा " स्थूल दृष्टिए ” एवो अर्थ करवो.
. २ आ स्थाने भाव एटले " वास्तविक रीते" अथवा "तत्त्वदृष्टिए" एवो अर्थ करवो.ए बन्ने शब्दोनोअर्थ आश्रवादिकमां पण एज प्रमाणे जाणवो. ३ महाधनवान.