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________________ || मोक्षतत्वे नवद्वारस्वरूपम् ॥ ॥ मूळ गाथा ३७ मी. ॥ फुसणा अहिया कालो इगोसद्ध पहुच साइओ तो | पडिवायाऽभावाश्रो, सिद्धाणं अंतरं नत्थि ॥ ४८ ॥ ॥ संस्कृतानुवादः ॥ स्पर्शना अधिका कालः, एकसिद्ध प्रतीत्य सायनंतः । प्रतिपाताऽभावतः सिद्धानामन्तरं नास्ति ॥ ४८ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ फुसणा-स्पर्शना अहिया - अधिक के (३०३) पडिवाय - पडवाना अभावाओ - अभावथी सिध्याणं - सिध्धोने अंतरं - अन्तर (बच्चे असिध्ध पणु ) नत्थि — नथी गाथार्थ: - ( स्पर्शना द्वारमां ) सिध्धना जीवने स्पर्शना पोताना अवगाह करता ) अधिक छे, ( अने काळ द्वारमां ) एक सिध्धने आश्रय ( - एक सिध्वनी अपेक्षाए ) सादि - अनंत काळ छे. अने ( अन्तर द्वारमां ) पडवाना ( सिध्यपणु मटीने संसारीपणुं प्राप्त थवाना ) अभावथी सिध्वना जीवोने अन्तर ( - बच्चे असिध्धपणं ) नथी. काल- काळ इगसिड - एक सिंध्धने पहुच्च — आश्रयि -- साइओ - सादि तो - अनन्त विस्तरार्थः - अहिं स्पर्शनाद्वारमां सिखने स्पर्शना अधिक छे, एटले एक सिडू जीव जेटला आकाशप्रदेशमां अवगा - हेल छे, तेटला आकाश प्रदेशो तो अवगाहना रुपे स्पर्शेलाज छे, परन्तु ते सिवाय बीजा पण आकाश प्रदेशो आजुबाजूथी अधिक
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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