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॥ संवरतचे परिषहवर्णनम् ॥
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तृषाने सम्यक् प्रकारे सहन करवी पण सदोष पाणी न वापर, ते तृषापरिषह कहेवाय. श्री उत्तरा०मां का छे के “ एकाते मार्गमां जतो, तृषाथी व्याकुळ थयेलो, सुकाइ गयेला मुखवालो, पण मुनि (पाणी संबंधि शास्त्रोक्त ) मर्यादानुं उल्लंघन ने करे" त्यारे देवमायाथी वृक्षनी अंदरथी नीकळेलो मनष्यनो अलकृत हाथ गोचरी व्होरावे छे. आ प्रमाणे कंडक दिवस व्यतीत थया बाद पुनः तेज मुनिओ विहार करता आ अरण्यमां आव्या, अने आ सर्व बनाव देखी आश्चर्य पामी पुत्रने पिता मरण पाम्या छे, अने निरंतर सदोष एवा देवपिंडनो तू आहार करे छे ए प्रमाणे घणी शिखामण. आपवाथी ते पुत्रमुनि पण पुनः दोषनी आलोचना लइ मुनिओनी साथे रद्या. अहिं केटलाएक आचार्य फळादिक आहार होते छते पण गोचरीनी विधिथी आहार पाणी लीधां माटे पुत्रे क्षुधापरिषह जीत्यो एम कडे छे अने केटलाएक कहे छे के वृद्ध एवा पिता मुनिए अतिकष्ट छतां फलाहारादि नहिं करी मरणं अंगीकार कयु माटे पितामुनिए क्षुधापरिषह जीत्यो एम कहे छे. ( अपेक्षापूर्वक बन्ने घात सत्य छे. )
१ दृष्टान्त-उज्जयिनी नगरीमा धनमित्र नामना वणिके धनशर्मा पुत्र सहित दीक्षा लइ बीजा मुनिओ सहित एलगपुर तरफ विहार करतां मार्गमां मध्यान्हकाळे धनशर्मा बाळमुनि ग्रीष्मऋतुना सख्त तापथी अत्यंत तृषाकुल थया. जेथी चालवानी शक्ति ओछी थतां वारंवार पाछळ रही जाय छे. धनमित्र पिता पोताना पुत्रना प्रेमथी समुदायथी पाछळ रही पुत्र साथे चाले छे. त्यारबाद रस्तामां नदी आवतां पुत्रप्रेमथी कल्यु के हे वत्स हुँ जाणु छ के तने तृषा लागी छे छतां मा री पासे निदोष पाणी नहि होवाथी शु करे ? परन्तु आ नदी. नु पाणी पोतानोजीव बचाववाने माटे पी! कारण के अत्यन्त आपदामां बुद्धिमानो पण निषेध करेल कार्य बिन उपाये अंगीकार करे छे. नीतिशास्त्रमा कहूथु छ के जो श्रेष्ट क्रिया रक्षण कर