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________________ . (७४) ॥ श्रीनवतत्वविस्तरार्थः ॥ द्रव्यमन विना भावमन न होय पण भावमन विना द्रव्यमन भवस्थ सर्वज्ञने होय छे, ए मननो जे व्यापार ते मनोबल कहेवाय. अथवा जीवने प्राप्त थयेली जे मनोविज्ञान शक्ति ते मनोबल प्राण कहेवाय. ॥ सातमो वचनबल प्राण. ॥ 66 भाषापर्याप्ति नामकर्मना उदयथी भाषा योग्य पुद्गलवर्गणा काययोगे ग्रहण करीने भाषापणे परिणमाबी अवलंबी ने 'वचन योग वडे विसर्जन करवानी जे शक्ति ते वचनबल कहेवाय. अथवा संक्षेपमा “ जोवने वचनोच्चार करवानी जे शक्ति ते वचनबल प्राण कहेवाय. ए भाषा जीवभाषा कहेवाय. अने अजीव पदार्थमाथी उठतो अवाज ते अजीवभाषा कहेंवाय, ए बन्ने भाषा पुल परमाणुनोज समूह छे, छतां नैयायिक विगेरे जे आकाशनो गुण माने छे ते अयुक्त छे, कारणके भाषा वायु वडे वहन कराती ( खेंचाती ) होवाथी, धूमनी माफक संहरण कराती होवाथी, पाणीनी माफक द्वारनी तरफ अनुसरण करती होवाथी, वायुनी माफक गुफा विगेरेमां अफलाती होवाथी क्रियावाळी छे, अने विचित्र क्रियाओ पुद्गल विना होइ शके नहि, माटे 'रूपीछे. अने अरूपि तथा ( तत्रैव). तत्त्वार्थ अने नन्दोटीका विगेरेमां द्रव्यमन विना पण विकलेन्द्रियो तथा एकन्द्रियोंने सूक्ष्म भावमनोलब्धि मानी छे. क्वचित् सूक्ष्म द्रव्य मनोलब्धि पण विकलेन्द्रियोने मानवामां आवी छे. १ गिन्हइ य काइएणं, निसरइ तह वाइएण जोगेण. इतिवचनात्. २ शब्द फोनोग्राफमां ग्रहण थतो होवाथी अने वायु. जे तरफ विशेष होय ते तरफ वधु संभळातो होवाथी, अने भित्यादिवडे उपघात पामवाथी शब्द पुनलरूप छे. कारण के ग्रहण धनुं, वायुथी खेचा, अने प्रतिघात थवो ते पुद्गलोनोज धर्म छे.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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