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________________ ॥ जीवतत्त्वे वचनबळमाणवर्णनम् ॥ (७५) अक्रिय छे, माटे बन्ने भाषामो रूपी एवा पुद्गलनोज विकार छे, पण आकाशनो गुण नथी. पुनः जीवभाषानी उत्पत्ति औदारिक वैक्रिय अने आहारक ए त्रण भव प्रत्ययिक देही होय छे, अने ए देहमांथी जीवप्रयत्न वडे प्रगट थयेली भाषा जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग सुधी, अने वधुमां वधु केवलि समुद्घातनी पेठे प्रथम समये 'दंड' द्वितीय समये कपाट' तृतीय समये मंथान' अने चतुर्थ समये 'अंतर पूर्ति' थवाथी 'सुप्रतिष्ठ आकार सरखा चौदराज लोकमां व्याप्त थाय छे, जेथी जीवभाषानी आकृति सुप्रतिष्ठक सरखी गणाय छे. पुनः जीव भाषापुद्गलोने प्रथम समये ग्रहण करे छे, अने बीजे समये वचनरूपे परिणमावी विसर्जन करे छे, ए हेतुथी भाषानी, स्थिति एक समय मात्रनी छे, अने चालु प्रवाहरूपे तो उत्कृष्टथी अन्तर्मुहर्त सुधीनी छे. पुनः जीव जे दिशा सन्मुख मुख करीने 'उभी होय ते दिशामा रहेल बीजो जीव ते मूळ तथा वासित थयेली भाषा सांभळे छे, अने शेष दिशामा रहेलो जीव ते मूळ भाषा वडे वासित थएली भाषा ( मूळ भाषाना संसर्गथी भाषा रूप थयेल बीजां पुद्गलो) सांभळी शके छे, ए मूळ भाषानी लंबा १ उधावाळेला शरावला ( कोडीआ ) उपर मूकेला शराव संपुट वडे जे आकार थाय ते सुप्रतिष्ठाकार २ श्री. प्रज्ञापनामां भाषापदनी मलयगिरिवृत्तिमा केटलाएक आचार्योना मन्तव्यने उद्देशीने का छे क " बीजा आचार्यों आ प्रमाणे कहे छे के प्रथम भाषा परिणामनी अपेक्षाए एक समय स्थिति वाळां पण भाषा पुद्गलो कह्यां छे, पुद्गल नो परिणाम वि. चित्र छे तेथी एकज प्रयत्न वडे ग्रहण करायला अने मूकायेलां ते पुद्गलोमांनां केटलांएक एक समय भाषापणे रहे छे, के. टलांएक बे समय सुधी यावत् केटलांएक असंख्य समय सुघी पण ( भाषापणे रहे छे-इति शेषः ) ” इति अर्थतः
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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