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॥जीवतत्त्वे पाणवर्णननिःस्यन्दः ॥
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ते भावप्राण कहेवाय. हवे ए ६ भावमाण तो सर्व जीवने सरखाज होय छे. परन्तु प्रस्तुत प्रकरणना १० द्रव्यमाण (बाह्यप्राण ) सवं जीवोने एकसरखा नहिं होवाथी कया जीवने केटला प्राण होय ते कहेवाय छे. .. ॥ कयाजीवने केटला प्राण होय? ॥
एनो उत्तर गाश द्वाराज दर्शाव्योछे के सर्व एकेन्द्रिप जीवोने स्पर्शेन्द्रिय-काय बल -आयुष्य ने श्वासोच्छ्वास ए ? प्राण होय छे. द्वीन्द्रिय जोधोने पूर्वो चार अने एक रसनेन्द्रिय अने वचनबल अधिक होवाथी ६ ाण होय छे त्रीन्द्रियने घाणेन्द्रिय अधिक होवाथी ७ माण, चतुरिन्द्रियने चक्षुरिन्द्रिय अधिक होवाथी ८ पाण, असंज्ञिपंचेन्द्रियने श्रोत्रन्द्रिय अधिक होवाथी ९ माण, अने संक्षिपंचेन्द्रियने मनवल अधिक होवाथी १० प्राण छे.
॥श्रीनवतत्त्वप्रकरणे प्रथमजीवतत्त्व विस्तरार्थः समाप्तः ॥
१ अहिं एकेन्द्रिय अने द्वीन्द्रिय जीवोने जोके नासिका नथी तोपण सर्वांगे श्वासोच्छ्वास लइ शके छे. पुनः द्वीन्द्रिय तो मुखथी पण श्वासोच्छ्वास लइ शके. तथा एकेन्द्रियो शरीर पर्याप्ति थया बाद औदारिक शरीरवडे ज आहारग्रहणादि क्रिया करता होवाथी कायबल प्राण पण तेओने युक्त ज छे. पुनः 'जीवविचारावरिमां' ने 'द्रव्यलोकप्रकाशमां' संमूर्छिम मनुष्यने सात आठ अने 'वृहत्संग्रहणिवृत्ति' तथा 'प्राचीनबालांवबोधमां' नव प्राण कया छे, तेनो हेतु मालुम पडतो नथी, कारणके संमू० मनुष्य अवश्य अपर्याप्ता ज मरण पामे छे. तेन ‘पन्नवा' 'जीवाभिगम' विगेरेमा कर्जा छे माटे नव प्राणो मानतां तेओने पर्याता मानवा जोइये. वझी अपर्याप्त जीवो मात्र त्रण पर्याप्ति ज पूर्ण करे छे. तो तेओने श्वासोच्छवास, भाषा, अने मन ए, त्रण प्राण होइ शकता नथी. जेथी संमू० मनुष्यने ७ ज प्राण