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॥श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः ॥
९ लिंग-द्रव्यलिंग (-मुनिवेष ) अने भावलिंग बन्ने होय
१० लेश्या-कल्प अंगीकार करती वखते ३ शुभ लेश्या अने त्यारवाद छए लेश्या होय. (कर्मपरिणति विचित्र होवाथी अ शुभलेश्याओनो उदय थाय पण ते अत्यंतसंक्लिष्ट न होय अने तेमां पण थोडो कालज रहे छे पछी शुभलेश्यामांज आवे छे.)
१. ध्यान-अंगीकार काळे धर्मध्यान अने त्यार. बाद आत -रौद्र-ने धर्मध्यान पण होय. तीवकर्म परिणामथी अशुभयोगोनी उत्कष्टदशामां अतरौद्र पणुं आवे पण ते निरनुबन्ध होयछे
१२ गण-जघन्यथी ३ गण अने उत्कृष्ट शत संख्यावाळा (सयस उकोसा एवो पाठ होवाथी सोकरतां वधारे समजाय छे)गण अगोकार काळे ( सर्व क्षेत्रमा मळीने) होय, अने अंगीकार कर्याबाद जध० वा उ० समकाळे वर्तता सेंकडो (घणा १००) गण होय तेमां पुरुषसंख्या जय० थी २७ उत्कृष्टथी १००० अंगीकारकाळे होय अने त्यार बाद परि० वि० मां वर्तता जघ० थी सेकडो पुरुष अने उत्कृष्टथी हजारो होय अने प्रवेश करनार तथा निकळनार बन्ने समकाळे जघ० थी एक ने उ० थी पृथक्त्व होय
१३ अभिग्रह-द्रव्यादि कोइपण अभिग्रह न होय कारण ए कल्पज अभिग्रहरूप छे.
१४ प्रज्या-कोइने पण दीक्षा न आप (एज कल्पस्थि. ति छे ) परन्तु यथाशक्ति उपदेश आपे.
१५ मुंडापन--आ मुनि कोइने मुंडे नहिं ( प्रव्रज्यानंतर मुंडन अवश्य होय एवो नियम नथी कारणके अयोग्यने दीक्षा दी. धी होय तोपण पाछळथी अयोग्यता मालूम पडतां मुंडन न करे माटे अहिं मुंडनद्वार भिन्न का.)
१६ प्रायश्चित्तविधि--मनवडे मूक्ष्म अतिचार लागतां पण निश्चय चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त आवे. १७ कारण-आ कल्पनी यथाविधि पालना एज कर्मक्षयर्नु नि