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________________ ॥ निजरातत्त्वे तपःस्वरूपम् ॥ (२५३) मित्त होवाथी तेओने बीजु ज्ञानादिक शुद्ध आलंबन पण न होय (अर्थात् ए कल्प पतितदशाबाळो नथी के जेथी ज्ञानादि आलम्बने पण स्थिर रहे.) अथवा जेनावडे तत्संबंधि अपवाद स्थान सेववा पणुं होय तेवू ज्ञानादि आलम्बन न होय. १८ निष्प्रतिकर्मता-शरीरसंस्कार न करे, आंखमां पडेलं तृण पण बहार न काढे, प्राणांतकप्टे पण अपवाद मार्ग सेवे नही १९ भिक्षा त्रीजे प्रहरे गोचरो तथा विहार करे, शेष वखते काउस्सग्ग करे-निद्रा अति अल्प करे. कदाच जंघाबलनी क्षोणताये विहार न करी शके तोपण अपवाद स्थान न सेवतां कल्पमर्यादाप्रमाणे संपूर्ण पाले, २० बन्ध-परिहारकल्पी कल्प समाप्त थया बाद पुनः ते कल्पमां अथवा गच्छमां प्रवेश करे एटले स्थविरकल्पी थाय लहितर जिनकल्प अङ्गीकार करे, तेमां पुनः ते कल्पमां अगर स्थविरकल्पमा रहेनारा इत्वरपरिहारी, अने जिनकल्प अंगीकार करनारा यावत्कथिक परिहारी कहेवाय, ___अर्थात् आ चारित्र के प्रकारचं छे, त्यां कल्पविधि संपूर्ण थया बाद तुर्तज बीनीवार कल्पने अथवा गच्छने अंगीकार करे ते इ. स्वर परि० वि. चारित्र, अने कल्पसमाप्ति बाद तुर्त जिनकल्प अङ्गीकार करे तो यावत्कथिक परि० वि कहेवाय. ___हवे मूक्ष्मसंपराय चारित्रनुं स्वरूप कहेबाय छे, त्यां उपशम श्रेणिगत वा क्षपकश्रेणिगत मनुष्य नवमे गुणस्थाने लोभकषायने सूक्ष्म करे (-कषायांशनी वर्गणाओनो अनुक्रम तोडी दरेक वर्ग जा घणा अन्तर-व्यवधानवाळी करे अने त्यारबाद दशमे गुणथाने ते मूक्ष्मकषायने उदयमां आणी भोगवे ते सूक्ष्म संपराय चारित्र १० मे गु० स्थाने जाणवू अहिं सूक्ष्म संपराय-कषाय एवो अर्थ जाणवो,
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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