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________________ (६६) ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ गुलना असंख्यातमा भाग जेटले दूरथी आवेला विषयने ग्रहण करी ( अनुभवी) शके. ॥ इन्द्रियोनुं प्राप्यकारी अने अप्राप्यकारी पणु.॥ ' स्पर्शेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-अने श्रोत्रेन्द्रिय ए चार इन्द्रियो पोताने प्राप्त थयेला विषयनेज ग्रहण करी [ जाणी] शके छ माटे प्राप्यकारी छे, कारणके स्पर्शेन्द्रियने उष्ण वा शीत जलनो स्पर्श थया सिवाय ( बन्मेनो परस्पर संबंध थया सिवाय ) जळनी उष्णता अथवा शीतलता मालूम पडती नथी. ए प्रमाणे रसनेन्द्रियादिमां इन्द्रिय अने विषयनो परस्पर संबंध थाय तोज ते विषयनो अनुभव थइ शके छे माटे प्राप्यकारी छे.. तथा चक्षु अने मन ए बे इन्द्रियो अप्राप्त विषयने (एटले पोताने संबंध करीने रहेला विषयने नहिं पण दूर रहेला विषयने ) अनुभवी शके छे ( देखी या चीतवी शके छे ) माटे अप्राप्यकारी छे. कारणके चक्षुमां पडेलु तृणखलं चक्षु देखी शके नहिं, अने मन जे पदार्थने चिंतवे छे ते पदार्थ' मनः पुद्गलोनी साथै आवीने संबंधवाळो थतो नथी, तेमज मनना पुद्गलो पण त्यां जइने लागता नथी, माटे ए बन्ने अप्राप्यकारी छे. ( अहिं प्रकरण इन्द्रियोनुं चाले छे, तोपण अप्राप्यकारीपणाने प्रसंगे मन नोइन्द्रिय होवा छतां पण मननु अप्राप्यकारीपणुं कर्तुं.) ॥ इन्द्रियोना अणु तथा क्षेत्रनुं अल्पबहुत्व. ॥ सर्व इन्द्रियो ( अभ्यन्तर इन्द्रियो ) अनंत परमाणुनी बनेली १ मन ए पुद्गलस्वरूप छे ते संबंध चालु विवेचनमां ज मनोबल वखते कहवाशे.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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