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________________ (१०२) ॥ श्रीनवतस्वविस्तरार्थः ॥ ४ वायुनुं स्थान- पनत अने तनवातनां वलयो, पाता ळकळशना उदरभाग, भवनो विमानो, निष्कुटो, इत्यादि सर्वलोकमां ज्या ज्या पोलाणभाग होय त्यां सर्वत्र. • ५ वनस्पतिर्नु स्थान-तिगलोकमां, भवनोना अने विमा नोना वन-बगीचाओ, विगेरे स्थळोमां. (५ थी १०) ६ विकलेन्द्रियोनुं स्थान--लोकनो असंख्यातमोभा ग. कारण के उर्वलोकमां मेरूपर्वतना शिखर सुधी, अधोलोकमां अधोग्राम सुधी, अने तिर्यग्लोकमां सर्वत्र जलाशय स्थाने अने स्थळमां पण उत्पन्न थाय के. (११-१२) असंज्ञिपंचेन्द्रियस्थान-लोकनो असंख्यातमो भाग. असंधितिर्यंच--वियगलोकमां सर्वत्र, ऊर्ध्वलोकमां मेरुना शि खर सुधी, अने अधोलोकमां अप्रोग्राम सुधी. असंज्ञिमनुष्य-अढीद्वीप रूप मनुष्य क्षेत्रमा ज्या ज्यां मनु ष्यनी वसति होय त्यां. १३-१४ संज्ञिपंवेन्द्रियस्थान-लोकनो असंख्यातमो भाग. देव--रत्नप्रभा पृथ्वीमां, ज्योतिष्नां विमानोमां, अने सौ _ धर्मादि विमानमां, तेमज क्वचित् तिर्यगलोकमां पण. नारक-सात पृथ्वीओमां. तिर्यच-असंज्ञि तिर्यंचव. मनुष्य--मनुष्य क्षेत्रमां. आ जीवतत्त्व उपर ज्ञान, दर्शन, संज्ञा, लेश्या, गुणस्थानक, दृष्टि, योग, उपयोग विगेरे अनेक विचारो छ जे अन्य ग्रन्योमां बतावेला के. ॥ इति जीवतत्त्वपरिशिष्टम् ॥
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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