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(२४) श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः वैज्ञनुं ज्ञान दर्शन एकेक समय होय छे. ए प्रमाणे जीवना मुख्य लक्षण ज्ञान अने दर्शननुं किंचित् स्वरूप कडं. - तथा ज्ञानादि गुणमा (ज्ञान-दर्शनमां) रमणता करवी ते चारित्र कहेवाय, अथवा मोहाधीन प्राणीओ मोह दूर करवाने माटे जे अभ्यास रूप यम नियमादि (व्रतादि) अंगिकार करे ते चारित्र कहेवाय. आ चारित्र गुण पण सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रियादि सर्व जीवोने थोड़े घणे अंशे होय छे, तेमां समोही छमस्थ जीवोने (मोहनी सत्तावाला जीवोने)'अनंतमा अंश जेटलं चारित्र होय छे, अने क्षीणमोही मुनिराजने, भवस्थ ( देहधारी) केवली भगवंतने अने मोक्षमां पहोचेला सिद्धपरमात्माओने सर्वांशे संपूर्ण चारित्र होय छे. ए प्रमाणे सर्व जीवो चारित्र गुण युक्त होवायी अने चारित्र गुण ते जीव सिवाय अन्य पदार्थमां नहिं होवाथी चारित्र ए जीवनुं लक्षण के
.... १ए अनंतमी अंश पण जुदा जुदा जीवोनी अपेक्षाये घणी तारतम्यता वाळो [ होनाधिक ) होय छे, जेमके सू० निगोदने प्रथम समये जे अव्यक्त चारित्र गुण वतै छे ते करतां अन्य सू० निगोद जीवनो चारित्रगुण अनंतगुण अधिक पण होय, अने सर्वोत्कृष्ट चारित्र तो क्षीणमोही मुनिराजने होय. . २ शंका-" सर्व जीवो चारित्र गुणयुक्त छे ” एम कहे युक्त नथी. कारणके मिथ्यादृष्टि वगेरे जीवो अथवा सू० निगोदादि जीवो के जेओए देशविरति गुणस्थान प्राप्त कर्यु नथी सेवा (अनंतानुबंधि-अप्रत्याख्यानीरूप सर्व घाती कषायना उदयवाळा) जीवोने लेश मात्र पण चारित्र गुण संमवतो नथी. कारणके ए ये सर्वघाती कषायोदयवाला जीवोने लेश पण