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________________ ॥ संवरतपे द्वादशभावनास्वरूम् ॥ (२४५) शरीर-धन-कुटुंब इत्यादि अन्य छे, अने आत्मा अन्य पदाथे छे, पण शरीरादि ते हुं आत्मा नथी इत्यादि चितव, ते अन्यत्वभावना, आ शरीर रस रुधिर-मांस-मेद अस्थि-मज्जा-ने शुक्र ए सात अशुचिमय धातुओनुं बनेलं छे. पुरुषना शरीरमा ९ द्वार ( २ चक्षु-२ कान-२ नाक-१ मुख- गुदा-१ लिंग) सदाकाळ अशुचि थी वह्या करे छे, अने स्त्रीनां १२ द्वार ( २ स्तन ने ? योनि अधिक कारणके योनि बे होय छे, ) निरन्तर अशुचीथी वह्या करेछे, वळी अत्तरादिसरना सुगंधी अने शुचीपदार्थों पण आ अशुची देहना संगे अशुची रूप थाय छे, एवी उपरथी सुन्दर देखाती पण अवळी करीने देखे तो त्रास उपजावती आ देह उपर म. मत्व भाव ! दि चिंतवq ते छट्ठी अशुचीभावना. मिथ्यात्व-अविरति-कषाय-ने योग ए चार हेतुओमांना कोइपण एक अथवा अनेक हेतुए कर्मनो आश्रव ( आगमन ) थाग छे. अने ज्यां सुधी कर्मनो आश्रय चालु छे, त्यां सुधी आ आत्मा सर्वथा स्वस्वरूप प्रगटाववा समर्थ नथी इत्यादि चितवन करवू ते ७ मी आश्रवभावना. छे समिति-गुप्ति-परिषह-यतिधर्म-भावना-ने चारित्रवडे नवा आवता कर्मनुं रोकाण थाय छे. इत्यादि स्वरूप चितवq ते आठमी संवर भावना; प्रकारना बाह्य तपथी अने ६ प्रकारना अभ्यन्तर तपथी कर्मनी निर्जरा ( धीरे धीरे क्षय) थाय छे. इत्यादि चिंतववु ते नवमी निर्जराभावना छे,
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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