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________________ (२४४) || श्री नवतश्व विस्तरार्थः ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ पढमं - प्रथम अणिच्चं - अनित्यभावना असरणं - अशरणभावना संसारो - संसारभावना एगया - एकत्वभावना अन्नत्तं - अन्यत्वभावना अमुइतं अशुचित्वभावना आसव-आश्रवभावना संव-संवरभावना य तह तथा वळी निज्जरा - निर्जराभावना नवमी-नवमी गाथार्थ :- पहेली अनित्य भावना, बीजी अशरणभावना त्रीजी ससारभावना, वळी चोथी एकत्वभावना, पांचमी अन्यत्वभावना, छठ्ठी अशुचित्वभावना, सातमी आश्रवभावना, त था आठमी संवरभावना, अने नवमी निर्जराभावना विस्तरार्थः - लक्ष्मी-कुटुंब-यौवन- शरीर - द्रश्य पदार्थों - मुख इत्यादि सर्वभाव क्षणमां उत्पन्न थइ क्षणमां विनाश पामनाराछे इत्यादि अस्थिरता - अनित्यतानुं चितवनकरते पहेली अनित्य भावना. दुःख वखते अने मरण वखते राजा चक्रवर्ति के पोतानां सग व्हाल - तेमानुं कोइपण शरण थाय तेम नथी दुःख पण पोताने भोगववानुं छे, अने आवेला मरणने पण रोकवा कोई सम नथी इत्यादि चिraj ते बीजी अशरण भावना माता होय ते स्त्रो थाय, पुत्र पिता थाय, पिता होय ते पुत्र थाय इत्यादि प्रत्येक जीव आ संसारभ्रमणमां प्रत्येक संबंधवाळो अनन्त वखत थाय छे. इत्यादि चितवनुं ते संसारभावना, आ जीव संसारमा एकलो आव्यो छे, एकलो जवानो छे. अने सुखदुःखादि पण एकलोज भोगवनार छे, परन्तु कोई सहायक के साथ वानुं नथी इत्यादि रूपे चितवकुं ते एकत्यभावना,
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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