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(११०) ॥ श्री नवतत्त्वविस्तरार्थः॥ अने नवापणुं मटीने जूनापणुं थवारूप परावृत्ति ते पर्याय' कहेवाय. कारणके कोइपण द्रव्य सदाकाल जून के नवु रहेतुं नथी. अहिं नवुएटले मेलविनानु चोख्खं एवो अर्थ नहिं, पण नवं एटले अभिनव ( नवा ) पर्यायोनी उत्पतिवाळ एवो अर्थ करवो. काललोकमां का छे के "द्रव्याणां या परिणतिः, प्रयोगवित्रसादिजा । नवत्व. जीर्णताया च, परिणामः स कीर्तितः॥१॥इति, अथवा परिणाम एटले द्रव्यनो अथवा द्रव्यना गुणनो जे स्वभाव ते परिणाम, कथु छे के"धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां स्वभावः स्वतत्वं परिणामः" इति तत्वार्थभाष्यवचनात, ते परिणाम सादिपरिणाम अने अनादि परिणाम एम बे प्रकारे छे, त्यां धर्मा० अधर्मा आआकाशा० अने जीव ए चार अरूपी पदार्थ अनादि परिणाम वाळा छ, अर्थात् ए. द्रव्योना गतिसाहाय्यकत्वादि स्वभाव अनादि अनन्त काळ परिगतिवाला छे, अने पुद्गल द्रव्य सादि परिणामी छे, कारणके पुद्गलनो स्पशपरिणाम--रसपरिणाम वगेरे सर्व परावृत्ति धर्मवाला छे. अहीं अपवाद ए छे के सर्व जीवमा जो के जीवत्वादि अनादि परिणामी छे. परन्तु योग अने उपयोग ए बे ( परावृत्ति धर्मवाला होवाथी) आदि परिणामि छे. इति तत्वार्थभाष्यानुसारेण
३ क्रियापर्याय-द्रव्योनी भूतकाळमां थयेली, भविष्यकाळमा थवानी अने वर्तमान काळमां थती जे चेष्टा ते क्रियापर्याय. ए अर्थ श्री काल लोकप्रकाशनो छे, अने तत्वार्थ भाष्यमां तो "क्रिया गतिः । सा त्रिविधा । प्रयोगगतिवित्र सागतिमिश्रिमति." क्रिया एटले गति ते त्रण प्रकारे छे, प्रयोगगति (परना प्रयत्नथी उत्पन्न थयेली गति ). विश्रसागति (.स्वभाव उत्पन्न थपेलो गति .)--अने मिश्रगति ( उभयथी उत्पन्न थएली गति ) एवो अर्थ छे, त्यां गनि एटले द्रव्योनुं स्वस्वप्रवृत्तिमां गमन ए अर्थ लेवाथी प्रथमना