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________________ (१०६) ॥श्री नवतत्व विस्तरार्थः॥ ल छे. अने ए पदार्थ जगतमा एकज के. वळी भाषा-उच्छ्वास मन-वगेरे पुद्गलनु ग्रहण धर्मा० विना गतिना अभावे न थइ शके, माटे जीवनी गतिक्रियामां अने 'भाषा-उच्छवास-मन-काय योग इत्यादि चळ क्रियाओमा सर्वत्र धर्मास्तिकाय उपकारी छे.॥१॥ ॥अधाऽस्तिकाय ॥ जीव-पुद्गलने स्थिर थवामां जे सहाय करनार द्रव्य ते " अ. धर्माऽस्तिकाय " कहेवाय. अहिं गतिसाहाय्यकगुणथी विपरीत ने स्थिरसाहाय्यक गुण ते " अधर्म," तेनो अस्तिकाय एटले प्रदेशसमूह ते अधर्माऽस्तिकाय. जेम गतक्रिया करता जीवपुगलने उपकारी द्रव्य धर्यास्तिकाय कहेवाय छे. तेम गतिक्रियाथी स्थिर धवा माटे उपकारी द्रव्यने"भार्मास्तिकाय" कहेवामां आवे छे. वटेमाणु (मुसाफर ) ने जेम छायास्थल मत्स्यने जेम द्वीप (बेट) अने उडता पक्षीने स्थिर थवामां जेम भूमि अथवा वृक्ष अथवा गिरिनुं शिखर उपकारी छे, तेम गति करता जीवपुद्गलने स्थिर थ. वा माटे अधर्मास्तिकाय द्रव्य उपकारी छे. जो अधर्मास्तिकाय द्र. व्य न होय तो जोवपुद्गलनी गति ज चालु रहे पण स्थिरता न थाय. पुनः बेसवामां-उभारहेवामां-आलंबनमा(कोइवस्तुने घरीराखवामां)भने चित्तनी स्थिरतादि स्थिरकार्योंमां भा अधर्माकारणरूपछे. शंका-धर्माऽस्तिकायादि ४ द्रव्य पण स्थिर के नो नेओने उपकारी अधर्माप्तिकाय के के नहि ? अने जो ते द्रव्योने स्थिर रहेवामां पण अधर्मा० उपकारी होय तो मात्र जीवपुदलने ज.3. १ जीवानामेव चेष्टामु, गमनागमनादिषु । भाषामनावचः काय-योगादिष्येति हेतुताम ॥१॥[इति द्रव्यलोक द्वितीयसर्ग: ) २.अयं निषदनस्थान-शयनालंदनादिषु । प्रयाति हेतुतां चित्तस्थैर्यादिस्थिरतासु च॥!" (इति द्रव्यलोके द्वितीयमर्गः)
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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