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|| आश्रवतत्त्वे अवतवर्णनम् ॥ (२०३) क्रिया एम बे प्रकारे जाणवी. आ क्रिया सकषायी चक्षुरिन्द्रियवाळा जीवोने होय छे माटे १० मा गुण० सुधी छे.
१२ स्पृष्टिकी क्रिया-जीव अथवा अजीवने रागादिके स्पर्श करवो ते जीवस्पृष्ठिकी अने अजीवस्पृष्टिकी ए प्रमाणे बे पकारनी छे. स्त्री वगेरेने रागथी आलिंगन करतां आ वस्तु घणीज सुंबाळी छे आ वस्तु घणीज कोमळ छे ए प्रमाणे रागभावथी स्त्री अश्व तथा बीजी कोइ अजीववस्तुने पंपाळतां- हाथ फेरवतां ऐ क्रिया संबंधि आश्रव आवेछे. अहिं स्पृष्टिकीने बदले पृष्टिकी क्रिया पण जीव अजीवने (वा जीवअजीवसंबंधि) रागद्वेषथी पूछतां बे प्रकारनी गणेली छे. आ क्रिया सरागी जीवने होवाथी १०मा गुण० सुधी छे.
१३ पातित्यकी क्रिया- अन्यने आश्रयि जे कर्मबंध अथवा रागद्वेष उत्पन्न थाय ते प्रातित्यकी क्रिया बे प्रकारनी छे. त्यां अन्यजीवना निमित्तथी आपणने रागद्वेष थाय तो जीवप्रातित्यकी अने (स्तंभादिकमां शीर्ष अफलाता) स्तंभादि अजीव पदार्थना निमित्ते जे रागद्वेष उपजे ते अजीवपातित्यकी क्रिया गणाय.
१४ सामंतोपनिपातिकी क्रिया-समंतात्-चारे बाजुथी उपनिपात एटले लोकनु आवी वु थाय अर्थात जेनावडे सर्वबाजुथी लोक आवी भेगा थाय तेवी क्रिया ते सामंतोप०क्रिया बे प्रकारनी छे. त्यां कोइ सारो सांढ-आखलो-चा बळद वा हस्ति इत्यादिक लावेल होयतो तेने घणा लोको जोवा आवतां सारो होय ने प्रशंसा करे तो तेनो मालीक खुश थाय. अने कोइ
१ नवतत्वभाष्यमां" पूर्वना पापमा उपादान कारण रूप अधिकरणने आश्रयि उत्पन्न थयेली क्रिया ते प्रातित्यकी." पम कहयुं छे.