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(२०२) ॥ नवतचविस्तरार्थः ।। जेपफे केटलाएक दर्शनाला आत्मा देहव्यापी छे तोपण एम माने छ के भात्मा आठानी पर्वरेवाप्रमाग व्याप्त छ, अथवा एक तन्दुल मात्र जेटलो छे ए प्रमाणे न्यूनपणे माने छे, अने केटलाएक दर्शनवाळा आत्मा सर्वव्यापी छे, ५०० धनुष्य जेटलो छे इत्यादि अ. विकरणे माने ते ऊनातिरिक्त मिथ्याद०म० क्रिया. अने जेओ आत्मा छ ज नहिं इत्यादि मूळथी विच्छेद माने ते तद्व्यतिरिक्त मिथ्या द०प्र० क्रिया कहेवाय. आ क्रिया सम्य० मोह सिवाय दर्शन छ कना उदयपी होय माटे त्रीजा गुणस्थान सुधी छे.
१० अप्रत्याख्यानिकी क्रिया- जे पदार्थना उपयोगना ज्यां धी त्याग नधी कर्यो त्यां सुधी जे अत्यागवृत्ति संबंधि कर्म प्राप्त थाय छे ते अप्रत्या० क्रिया वे प्रकारनी छे. त्यां सजीववस्त
ओनो त्याग न करे ते जीवअप्रत्या, अने अजीव वस्तुओनो त्याग न होयतो अजीव अप्रत्या० क्रिया कहेलाय. परभवमां जे जे कलेरो छोडयां छे अने जे जे शस्त्रादि जीवोपयातनां साधना नै पार कर्या छे ते ते कलेवरो अने शस्त्रादि निमित्तथो जे जे हिंसादि थाय छे ते ते सर्व कर्मनो आश्रय जीवने आ भवमां पण लागु पडे छे माटे धर्ममार्गना जाणनार जीवोए पूर्वभवोमां करेलां साधनो सबंधि आवता आश्रवनो त्याग करवो तेज श्रेय. स्कर छ, वळी जे जे चीजो आपणा उपभोगमां स्वप्ने पण आवती नथी तेवी तेवी अप्राप्य चीजोनो पण ज्यां सुधी त्याग नथी कर्यो त्यां सुधी तत्संबंधि कर्मबंध आत्माने निरन्तर वर्ती रहयो छे. माटे तेवी अप्राप्य चीजोनो पण त्याग करवो श्रेयस्कर छे. आ क्रिया अविरतिवंत जीवोनेज होवाथी चोथा गुण सुधी होय छे.
११ दृष्टिकी क्रिया- जीव अथवा अजीवने रागादिकथी देखतां जे क्रिया लागे ते अनुक्रमे जीवदृष्टिकी अने अजीव १०