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________________ (२५५) ॥ श्री नवतच विस्तरार्थः ॥ ॥ निर्जरातत्त्व ॥ KAV . .अवतरण-पूर्व गाथाओमां संवरतत्त्वनुं स्वरूप कहीने हवे. निर्जरा अने बन्धतत्वनुं स्वरूप कहे . त्यां प्रथम आ गाथामां सामान्यथी निर्जराना १२ अने बंधतत्वना ४ भेद कहे छे, . ॥ मूळ गाथा ३४ मी, ॥ बारसविहं तवो नि-जरा य बन्धो चउविगप्पो अ । पयइ हिइ अणुभाग--पएसभेएहिं नायव्यो ॥३४॥ ॥ संस्कृतानुवादः॥ . द्वादशक्धिं तपो, निर्जरा च बंधश्चतुर्विकल्पश्च । प्रकृतिस्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदेतिव्यः ॥ ३४ ॥ ॥ शब्दार्थः ॥ वारसविहं-१२ प्रकारनोटिइ-स्थिति (-काळनियम ) तवो-तप अनुभाग-अनुभाग (-रस) निजरा निर्जरातत्त्व पएस-प्रदेश ( कर्मना अणु.) बन्धो-बन्धतत्त्व भेएहि-( ए चार : भेदोवडे, चउविगप्पो-चार प्रकारचं नायव्वो-जाणवो, पयइ-प्रकृति (-स्वभाव ) गाथार्थः-१२ प्रकारनो तप ते निर्जरातत्व छे, अने प्रकृति-स्थिति-रस-अने प्रदेश-ए चार भेदवडे बंध ( तत्व.) चार प्रकारनो जाणवो.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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