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॥ आश्रवस्वनम् ॥ ॥
(१८९)
खेल-तमासा जोवाथी कर्मबंध थाय छे.
सचित्त शब्द- अचित्त शब्द - अने मिश्र शब्द ए ऋण प्रकारनो शब्द श्रोत्रेन्द्रियनो विषय छे त्यां जीवनुं गान तान वगेरे सचित्त शब्द फोनोग्राफ वगेरेना अवाज अचित्त शब्द अने मृदंगा दिकना शब्द ते जीवप्रयत्नमिश्रित होवाथी मिश्रशब्द कहेवाय, ए त्रणे मकारना मनोहर शब्दो उपर राग अने अमनोहर शब्दो उपर द्वेषभाव थवाथी कर्मनुं जे आगमन थाय ते श्रोत्रेन्द्रियाश्रव गणाय
ए प्रमाणे ५ इन्द्रियोना २३ विषयो प्रशस्तभावे सेवाता होय तो पुण्य (शुभाश्रव) अने अप्रशस्तभावे सेवाता होय तो पाप (अशुभाश्रव) होय छे, जेम के देवगुरुने स्पर्श करी राजी थतां देवगुरुना चरणामृत पान करतां, भगवाननु रूप- प्रतिमा - आंगी वगेरे जोड़ने राजी थतां अने भगवानना गुणग्राम-स्तवन स्वाध्यायादि सांभळी राजी तां अनुक्रमे पांचे इन्द्रियोद्वारा शुभाश्रव थाय ते प्रशस्त भावे कवाय, अने स्त्री पुत्रादिकने प्रेमथी स्पर्श करतां देहपुष्टिने माटे मनोहर रसवती ( भोजन ) जमतां इत्यादि रीते अप्रशस्त भावे पांच इन्द्रियोना विषय सेवनथी अनुक्रमे पांचे इन्द्रियोद्वारा
पाप - अशुभाश्रव थाय.
ए पांच इन्द्रियना अनुकूळ अने प्रतिकूळ विषयो प्राप्त थतां विचार करे के हे आत्मा ! आ सर्व पुद्गलनो स्वभाव छे तो त्हारे मां राजी थवाथी अथवा नाराज थवाथी शुं लाभ छे! इत्यादि भावनापूर्वक जो राजी पण न थाय अने नाराज पण न थाय तो ते जीवने पांच इन्द्रियो संबंधि कर्मनु आवकुं थाय नहि पण कर्मनु रोकाणज थाय.
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॥ ४ कषाय ॥
क्रोध - मान-माया ने लोभ ए चार कषाय के, त्यां क्रोध एटले