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|| संवरतस्ये परिषवर्णनम् ॥
(२३१)
गृहस्थनी आगळ भीक्षा मागतां लज्जा न पामवी ते याचना पहिषह. कां छे के – “ गोचरीए विचरता मुनिने गृहस्थनी आगळ हाथ धरवो युक्त नथी, एथी तो गृहवास श्रेष्ठ छे, एम सुनिन चितवे " मुनिने दरेक वस्तु मागीनेज लेवानी होय छे, अने पाण्याविना जमीन परथी एक तृणखलु के दांत खोतरवानी सळी पण उपाडाय नहि, एवो मुनिनो आचार होवाथी मोटा गृहस्थोए या राजपुत्रो दीक्षा लीधी होय अने पछी घेरेघेर मान अपमान सहन करतां भीक्षा मागवाने भमवु पडे तो तेओने आ परिष विशेष होय छे. कारणके जे राजाओ अने धनवानो गृहस्थपणाम अनेक परजीवोने दान आपी उद्धार करनार हता ते राजाओ अने धनवानोने दीक्षा लीधा बाद बीजानी आगळ हाथ लांब करवो पडे अनेकदाच अपमानादि करे तो ते पण सहन करवु पडे एतेओने दुष्कर होय छे माटे उत्तम वैराग्यवाळाए एम न विचार के हूं बीजानी आगळ हाथ केम धरू ? ए याचना परिषह सहन कर्यो कहेवाय,
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अवतरण- -२२ परिषहमांथो पूर्व गाथामा १४ परिषह कह्या अने हवे आ गाथामां शेष रहेला ८ परिषह कहे छे.
१- दृष्टान्त - कृष्णवासुदेवना भाइ बळभद्रमुनिए चारित्र ली. धाबाद पोताना रुपथी स्त्रीओने मोह पामती जोइ पोते वनमां ज रहेवा लाग्या अने नगरमां नहिं आववानो अभिग्रह कर्यो, त्यां वनमां आवेला सुतारनी पासेथी तेओ गोचरी ग्रहण कर ता हता, परन्तु हुं त्रण खण्डनो मालिक होइ ने आ सुतारनी आगळ भिक्षा केम मागुं ? एवो लेश पण विचार आवतो नहिं. तेथी जेम आ बळभद्रमुनिए याचनापरिषह सहन कर्यो तेम अन्य मुनिओए पण याचना परिषह सहन करवो.