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________________ (१६०) ॥नयतत्त्व विस्तरार्थः ॥ गाथार्थः-शातावेदनीय-उच्चगोत्र-मनुष्याद्विक ( मनुष्यगति अने मनुष्यानुपूर्वी)-देवद्विक ( देवगति-देवानुपूर्वी )-पंचेन्द्रियजाति, पांचे शरीर-प्रथम त्रण शरीरनां उपांग ( औदारिक उपांग-वैक्रिय उपांग-आहारक उपांग )-प्रथम संघयण (बज्रऋषभनाराच )-अने प्रथम संस्थान ( समचतुरस्र ) ए. सर्व (१७ वस्तु ) पुण्यना उदयथी मले. विस्तरार्थः-पुनाति एटले पवित्र करे ते पुन्य कहेवाय. अर्थात् जे कार्यों करवाथी अशुभ कर्मवडे मलिन थयेलो अत्मा धीरे धीरे पवित्र एटले शुभ कर्मवाळो थइ अनुक्रमे मोक्ष पहोंचे ते कार्य पुन्य कहेवाय छे, तथा ए पुन्यना कार्य करवाथी जे शुभ कभटके छे. ते कर्म घाति-अघाति भेदथी बे प्रकारे छ, घातिकमै ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय, अन्तराय ए चारे प. ण आत्मगुणना घातक होवाथी पापतत्त्वमांज गणाय छे. अने अघातिकर्म-वेदनीय आयु नाम अने गोत्र ए चार शुभ अशुभ उभय स्वरूप छे, तेमां अशुभ प्रकृतिओ जे संक्लिष्ट अध्यव. साय वाळा जीवने बंधाय छे. ते पापमां गणी छे अने शुभप्रशस्त प्रकृतिओ जे विशुद्ध अध्यवसायवाला जीवो बांधे छे. वळी कर्मना बन्ध उदय उदीरणा अने सत्ता विगेरे अनेक अवस्थाओ छे के जेने आश्रयी भेदोमां अनेक विकल्पो पडे छ तेमां अहीं पुण्य-पापतत्त्वमा गणाती प्रकृतिओ बन्धावस्थानी लेवानी छे. ते बन्धमा ५ ज्ञानावरण. ९ दर्शनावरण २६ मो. हनीय. ५ अन्तराय, मळी ४५ घाति प्रकृतिओ पापतत्वमा ग. णवानी छे, १ आशा. वेदनीय. १ नीचैत्र १ नरकायु ए त्रण पण त्रण कर्मनी पापमां छे, शेष ए त्रणनी पांच तथा नाम कर्मनी ६७ प्रकृतिओमां वर्णचतुष्क प्रशस्ताप्रशस्त भेदे बे व. खत गणवान होवाथी ७१ पैकी ३४ अशुभ नाम प्रकृति पापमा छे अने बाकी रहेला ३७ प्रशस्त नाम प्रकृति पुण्यमों गणवी एटले १ वेदनीय, ३ आयुष्य, ३७ नाम प्रकृति, १ गोत्र मली १२ पुण्य प्रकृति जाणवी (सू- वि-उ-उ. ग. )
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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