Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहितं कसा य पा हु डं भाग १५ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ ARHI Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी मथुरा द्वारा प्रकाशित श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वित् श्रीभगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतम् कसाय पाहु डं ( जयधवल, मुहाधवल) श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका [ पञ्चमदशमाधिकारे चारित्रमोहक्षपणानुयोगद्वारम् ] विद्वतर स्व० श्री पं० फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री, सिद्धान्ताचार्य, वाराणसी तयोश्च सम्पादक महाबन्ध, सह सम्पादक धवला आदि भाग - 15 सम्पादक : द्वितीय संस्करण विद्वतरत्न स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्रः सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्ताचार्य सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ, प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी प्रकाशक भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी - मथुरा (उत्तरप्रदेश) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [2] 5.50 5.50 5 60 15 60 5 0 5 0 5 0 5 5 50 50 50 50 5605 05 05 05 05 0 भारतवर्षीय दि० जैन संघ चौरासी - मथुरा (उत्तरप्रदेश) प्रकाशक: कार्यालय दूरभाष : 0565-2420711 : 2468 : 2530 प्रथम संस्करण : 1984 (वीर निर्वाण द्वितीय संस्करण : 2004 (वीर निर्वाण) स फ स [फ बफ बफ बफ बफ फफफफफफ मूसंशोधित मस्य 250/- सानी नरूला ऑफसेट प्रिन्टर्स शाहदरा, दिल्ली मुद्रक : 15 0 15 60 50 50 फ फ फ 56 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफEO 560 फफफफफफफफफफ RA Ga [3] C C Co CO जिनवाणी के प्राचीन शास्त्र जयधवला जी के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग दीजिए हमारे महान पुण्योदय से मूढविद्री (दक्षिण) के शास्त्र भण्डार से बड़ी कठिनाई प्राप्त द्वादशांग श्रुत के मूल अंश 'कषाय पाहुड' की आचार्य वीरसेनकृत विशाल टीका जय धवला के लगभग १६ भागों में जैन संघ मथुरा द्वारा प्रकाशित किया गया था जिसके धीरे-धीरे सभी भाग समाप्त हो गये । गत् ३ वर्ष पूर्व १२ भागों को पुन: प्रकाशित कराया और अब शेष ४ भागों १, १४, १५, १६ को प्रकाशन हेतु प्रेस को भेज दिये हैं । भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ मथुरा ने अपने अनेक महत्वपूर्ण सेवा कार्यों में जैन धर्म आदि सर्वोपयोगी ग्रन्थों के साथ जयधवला के सम्पूर्ण लगभग १६ भागों में से कुछ बचे हुए भागों के एवं कुछ पूर्ण प्रकाशित भागों के पुनः प्रकाशन का भार सम्हाले रखा है। संघ की इस जिम्मेदारी को पूर्ण करने हेतु उदार दानदाताओं के आर्थिक सहयोग की महती आवश्यकता हैं । Ge Co अग्रायणी पूर्व के मूल अंश षटखंडागम् की धवल महाधवल टीकाओं का दो बार प्रकाशन हो चुका है। यह षटखंडागम् आचार्य धरसैन की रचना है जिसकी टीका आचार्य वीरसैन ने की है। आचार्य धरसैन से कुछ पूर्ववर्ती उक्त कषाय पाहुड के ज्ञात आचार्य थे। इसी के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार आदि दृव्य दृष्टि प्रधान ग्रन्थों की रचना की है। संघ के संस्थापक समाज के वरिष्ठ विद्वान स्व० पं० राजेन्द्र कुमार जी सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचंद जी, पं० फूलचंद जी ने ही उक्त जयधवला टीका का हिन्दी अनुवाद किया है। संघ के पूर्व प्रधान मंत्री प्रो० खुशालचंद जी जगन्मोहन लाल जी शास्त्री रहे हैं। वर्तमान में अखिल भारतीय स्तर के समाजसेवी श्री ताराचंद जी प्रेमी, उक्त सभी क्रियाशील विद्वान समर्पित भाव से संघ समाज और साहित्य गोरा वाला, पं० सेवाओं में संलग्न हैं । अंत में जिस प्रकार समाज में पंचकल्याणकों एवं मंदिर निर्माण में उदार दानदाता अपना आर्थिक सहयोग देते हैं, उसी प्रकार उन्हें इस प्राचीन शास्त्र जयधवला जी के प्रकाशन में अपना आर्थिक सहयोग प्रदान करना चाहिए। ddddddddddddddddddddj पं० नाथूलाल जैन शास्त्री, इन्दौर Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ [5] भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ संक्षिप्त इतिहास सन 1933 में महामनीषी विद्वान स्व० पं० राजेन्द्र कुमार जी न्यायतीर्थ के अदम्य उत्साह और विलक्षण सूझ-बूझ ने एक नयी संस्था को जन्म दिया। नाम था शास्त्रार्थ संघ । इस संघ में स्व० लाला सिब्बामल जैन का सहयोग था। 1933 में अम्बाला में स्थापित इस संस्था के द्वारा देश के अनेक नगरों में धर्म-संरक्षण की भावना से जैन धर्म के आलोचकों से सार्वजनिक शास्त्रार्थ किये गये। उसका परिणाम यह हआ कि आलोचकों ने जैन धर्म की आलोचना बन्द कर दी। __ शास्त्रार्थ संघ को सबसे बड़ी विजय तब मिली, जब आलोचकों के प्रमुख सन्यासी स्वामी कर्मानन्द जी ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया और जैन धर्म की प्रमाणिकता में "ईश्वर मीमांसा' नाम की एक पुस्तक लिखी, जिसका प्रकाशन संघ ने किया है। सन् 1940 के लगभग, संघ का स्थान अम्बाला की जगह मथुरा में हो गया । चौरासी स्थित भगवान् जम्बू स्वामी की निर्वाण स्थली के समीप पं० राजेन्द्र कुमार जी और उनके सहयोगियों के द्वारा भव्य-भवन का निर्माण किया गया और संघ का नाम "शास्त्रार्थ-संघ" के स्थान पर "भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ" रखा गया। अब संघ का कार्य धर्म प्रचार था। उस समय संघ भवन में हर समय 10-12 विद्वान रहा करते थे और पूरे देश में होने वाले सामाजिक, धार्मिक उत्सवों में उन विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। उन्हीं दिनों संघ में एक प्रकाशन विभाग की स्थापना हुई, जिसके द्वारा अनेक समाजोपयोगी एवं धार्मिक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जिनमें कैलाश चन्द्र जी शास्त्री द्वारा लिखा गया "जैन-धर्म' नाम का ग्रन्थ अब सातवें संस्करण के रूप में छप गया है। इन्हीं के द्वारा “तत्वार्थ सूत्र" की गौरवपूर्ण हिन्दी टीका लिखी है, जिसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हो चुका है। सन् 1950 के आस-पास संघ ने स्व० पंडित हीरालाल जी शास्त्री, अमरावती (महाराष्ट्र) ए.एन. उपाध्ये की प्रेरणा से “कसायपाहुडं" (जयधवल, महाधवल) ग्रंथराज के प्रकाशन की योजना बनायी। आर्थिक अभावों के होते हुए भी स्वर्गीय पं० फूलचन्द्र जी और पं० कैलाश चन्द्र जी शास्त्री के श्रम और सूझ-बूझ से मूल ग्रन्थ का हिन्दी में सरलीकरण किया गया। जिसे संघ ने 16 भागों में प्रकाशित कराया। उपरोक्त महाग्रन्थ के 12 भागों का द्वितीय संस्करण पर्व में प्रकाशित कर चके हैं एवं शेष चार भागों का द्वितीय संस्करण अब प्रकाशित करा रहे हैं। हमारे वर्तमान अध्यक्ष श्री स्वरूप चन्द्र जी मारसंस, आगरा का इन प्रकाशनों में हमें भरपूर सहयोग मिला है। हमारे अन्य दातारों का भी हमें आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। आज संघ संस्थापक पं० राजेन्द्र कुमार जी तथा उनके सहयोगी पं० फूलचन्द्र जी, पं० कैलाश चन्द्र जी, पं० जगमोहन लाल जी नहीं हैं और अब संस्थानों के संचालन में वो उत्साह भी नहीं रहा, फिर भी हमारी भावना है कि संघ-भवन और उसके प्रकाशन विभाग को किसी न किसी प्रकार संचालित रखा जाये। संघ का मुख पत्र "जैन सन्देश'' पिछले 6 दशक से निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। हमारी भावना है कि समाज के उत्साहीजनों निरन्तर सहयोग मिलता रहे और संघ भवन से यह आलोक निरन्तर प्रकाशमान होता रहे। प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी' भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ चौरासी, मथुरा Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] -: आभार :श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा को प्रमुख आर्ष ग्रन्थ “कसायपाहुडं" जयधवल महाधवल को सोलह भागों में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसके प्रकाशन का शुभारंभ 6 दशक पूर्व हो गया था, जिसके अन्तिम दो भाग 15 और 16 को प्रकाशित करवाने में अर्थाभाव की कमी महसूस की गई। बाद में सोलहवां भाग का प्रकाशन ब्र० श्री हीरालाल खुशालचन्द दोशी, मांडवे (सोलापुर) के आर्थिक सहयोग से किया गया। 16 भागों का वितरण क्रमशः न होने के कारण प्रथम दो और चार भाग को मथुरा में ही पुनर्प्रकाशन कराना पड़ा। जयधवला के 14 भागों का प्रकाशन अनिवार्य समझ कर श्री रतनलाल जी जैन, वन्दना पब्लिशिंग हाउस, अलवर (राज.) के सहयोग और परामर्श से इनका पुनर्प्रकाशन वर्ष 2000 में किया गया। शेष भाग 1, 14, 15 एवं 16 का पुनर्प्रकाशन अब किया जा रहा है। इनके प्रकाशन में आर्थिक योगदान के लिये हमारे निम्न दानदाताओं ने उदारतापूर्वक दान देकर इस कार्य में अपना अमूल्य सहयोग दिया है। इसके लिए संघ इन सभी सधर्मी बन्धुओं का आभार प्रकट करता है। 1. श्री बलवंत राय जैन, भिलाई (म. प्र.) 2. श्री स्वरूप चन्द जैन (मारसंस), आगरा (उ. प्र.) 3. श्री रतन लाल जैन, (वन्दना प्रकाशन) अलवर (राज.) 4. श्री ताराचन्द जैन, अलवर (राज.) 5. श्री ओमप्रकाश जैन, कोसीकलाँ (उ. प्र.) 6. श्री भोलानाथ जैन, आगरा (उ. प्र.) श्री निर्मल कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.) 8. श्री प्रदीप कुमार जैन, आगरा (उ. प्र.) 9. श्री ज्ञानचन्द जी खिन्दूका, जयपुर (राज.) 10. कान्ता बहन मनुभाई शाह, सोजीत्रा (गुजरात) 11. श्री मनुभाई छगन लाल शाह, सोजीत्रा (गुजरात) अब भाग 1, 14, 15 एवं 16 के पुनः प्रकाशन में जैन संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री स्वरुप चन्द जी जैन, मारसंस आगरा के समर्पित सहयोग से निम्न दानदातारों से आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ। इसके लिए संघ परिवार इन सभी दानदातारों का आभार व्यक्त करता है। 62,000/- श्री स्वरूप चन्द जी जैन (मारसन्स), आगरा 62,000/- श्री भोलानाथ जी जैन, आगरा 32,000/- श्री प्रदीप कुमार जी जैन, आगरा 11,000/- श्री निर्मल कुमार जी जैन, आगरा 15,000/- श्री शाह मगनीराम पन्नालाल जी जैन, उदयपुर 1,100/- श्री गुलजारी लाल जैन, फर्म- मुरलीधर गुलजारीलाल जैन, रफीगंज (बिहार) 1,000/- श्रीमती कुसुमलता, धर्मपत्नी डॉ० श्री के० सी० भारिल्ल, सिवनी प्रधानमंत्री ताराचन्द जैन 'प्रेमी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अभी तक कषायप्राभृत जयघवलाके १४ भाग मुद्रित होकर प्रकाशित हो चुके हैं । यह चारित्रमोहकी क्षपणाका कथन करनेवाले अधिकार में कृष्टिकरण और कृष्टिवेदनकाल का कथन करनेवाला पन्द्रहवां भाग है । इसके पूर्व अश्वकर्णकरण अधिकारतक इस अनुयोग द्वारकी प्ररूपणा चौदहवें भागमें सम्मिलित है। इस भाग में कृष्टिकरण और कृष्टिवेदनको प्ररूपणा की गई है । अतः क्षपणा सम्बन्धी प्रकृत विषयको ध्यान में रखकर क्रोधवेदक काल ३ भांग किये गये हैं । उनके नाम हैं-१ अश्वकर्णकरणकाल, २ कृष्टिकरणकाल और ३ कृष्टिवेदककाल | जब क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ हुआ यह जीव पुरुषवेदके पुराने सत्कर्मके साथ छह नोकषायों को क्रोध संज्वलन में संक्रमित करके क्रोधसंज्वलनका वेदन करता है तब उक्त कालको तीन भागों में विभक्त करता है । उनमें से अश्वकर्णकरणका कथन चौदहवें भाग में कर आये हैं, यह हमने प्रारम्भमें ही सूचित किया है । शेष रहे दो भाग कृष्टिकरणकाल और कृष्टिवेदनकाल । उनमेंसे सर्वप्रथम कृष्टिकरणका कथन किया जाता है । १ कृष्टिकरण विधि आगे चूर्णि सूत्र में कृष्टिका अर्थ करते हुए लिखा है- 'किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा किट्टी' ।' यतः संज्वलन कर्म अनुभागकी अपेक्षा कृश किया गया है, अतः उसका नाम कुष्टि है । यहाँ कृष्टिकरणका काल अश्वकर्णकरणके कालसे विशेष हीन है । इसीप्रकार इसके कालसे कृष्टिवेदकका काल विशेषहीन होता है । उसका कथन कृष्टिकरणकी विधिको समाप्त करके करेंगे । जब यह जीव अश्वकर्णकरणको समाप्त करके कृष्टिकरणका प्रारम्भ करता है तब इसके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध दोनों अन्य होते हैं । २ कृष्टियोंके उत्तरभेद और अल्पबहुत्व कृष्टियों के उत्तर भेदोंकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया है कि क्रोधादि चारों संज्वलनोंमेंसे प्रत्येककी तीन-तीन कृष्टियाँ रची जाती हैं, जो संग्रह कृष्टियाँ कहलाती हैं, क्योंकि इनमेंसे प्रत्येककी अन्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं । प्रकृत में लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि सबसे नीचे होती है । उसकी अवान्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं । उससे ऊपर लोभकी दूसरी संग्रहकृष्टि होती है। उसकी भी अवान्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं । इसीप्रकार शेष संग्रह कृष्टियाँ और उनकी अवान्तर कृष्टियां जाननी चाहिये । लोभकी प्रथम कृष्टि स्तोक होती है। दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी होती है। इसीप्रकार उत्तरोत्तर अनन्तगुणे श्रेणी के क्रम से लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । जिस प्रकार लोभकी तीनों संग्रह कृष्टियोंके अल्पबहुत्वका कथन किया है, उसी प्रकार मायाकी तीनों संग्रह कृष्टियों के अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए । यहाँ मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे मानकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होती है । तथा इसीप्रकार मानकी तीनों संग्रह कृष्टियों और क्रोधकी तीनों संग्रह कृष्टियोंका अल्पबहुत्व घटित कर लेना चाहिए। आगे क्रोधकी तीसरी कृष्टिकी जो अन्तिम कृष्टि होती है उससे लोभके आदि स्पर्धकको आदि वर्गणा अनन्तगुणी होती है । इस प्रकार बारह संग्रह कृष्टियों और उनकी अवयव कृष्टियोंका तीव्र-मन्दता विषयक यह अल्पबहुत्व कहा । १. पृष्ठ ६२ । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) ३ कृष्टि अन्तर यहाँ कृष्टि अन्तर कहने से उसका अर्थ इस्टिगुण,वार लेना चाहिये । इन कृष्टि अन्तरोंके दो भेद है-- स्वस्थान गुणकार और परस्थान गुणकार । यहाँ स्वस्थान गुणवारकी कुष्टि अन्तर संज्ञा है तथा परस्थान गुणकारकी संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है । प्रकृत में ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि एक-एक संग्रह कष्टिकी अनम्त अनन्त अवान्तर कृष्टियाँ होती है, इसलिए कृष्टि प्रकार भी अनन्त होते हैं, जो अवान्तर कष्टियोंसे एक कम होते हैं । तथा संग्रह कृष्टियाँ बारह हैं, इसलिए उनके अन्तर (गुणकार) कुल ग्यारह होते हैं । ४ अल्पबहुत्व ___ लोभकी प्रथम संग्रह कष्टिकी जघन्य कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणा करनेपर अपनी दूसरी कृष्टि उत्पन्न होती है वह गुणकार जघन्य कृष्टि अन्तर कहलाता है । उसका प्रमाण सबसे अल्प होता है । उससे दूसरी कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा होता है । यहाँ दूसरी कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणा करनेपर तीसरी. कुष्टि उत्पन्न होती है, यह दूसरी कृष्टि अन्तर कहा जाता है। आगे भो अन्तिम कृष्ट अन्तरके प्राप्त होने तक अनन्तके गणित क्रमसे अल्पबहुत्व प्राप्त कर लेना चाहिये। उसमें भी द्विचरम कडि-को जिस गुणकारसे गुणित करनेपर अन्तिम कृष्टिका प्रमाण प्राप्त होता है वह अन्तिम कृष्टि अन्तर है ऐसा समझना चाहिए । __जो दूसरी संग्रह कृष्टि है उसमें और प्रथम संग्रह कृष्टिमें परस्थान गुणकार होता है जो समस्त स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा होता है । अतः उसे उल्लंघनकर दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । अतः उसे जिस गुणकारसे गुणा करनेपर दूसरी कृष्टि प्राप्त होती है वह गुणकार अनन्तर अधस्तन प्रथम संग्रह कृष्टिके अन्तिम गुणकारसे अनन्तगुणा होता है । यह एक क्रम है । इसे ध्यान में रखकर आगे सभी संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियों के स्वस्थान गुणकारोंको ले आना चाहिये।। इस प्रकार आगे चल कर क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी द्विचरम कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर वहींको अन्तिम कृष्टिको प्राप्त होता है वह अन्तिम कृष्टिका अन्तर होता है। उसे मर्यादा करके यहाँ तक सब अन्तर कृष्टियोंका गुणकार जानना चाहिए। ५ परस्थान गुणकार अल्पबहुत्व एक संग्रह कृष्टिसे दूसरी संग्रह कृष्टिके मध्य जो अन्तर होता है उसकी संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है । आगे इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिको जिस गुणकारसे गणित करने. पर दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टि प्राप्त होती है वह लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर है। यह गणकार स्वस्थान गुणकागेंके अन्तिम गुणकारसे अनन्तगुणा होता है। कारण कि यह परस्थान गणकार है। एक-एक कपायकी जो तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ कही गई हैं उसका कारण यह स्वस्थान गणकारसे भिन्न परस्थान गुणकार ही है। यहाँपर अधस्तन कृष्टिको उपरिम कृष्टिमेंसे घटाकर जो शेष रहे एक कम वह अविभागप्रतिच्छेदके क्रमसे न बढ़ कर युगपत् बढ़ा है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि यहाँ परस्थान गुणकारमें कृष्टि अन्तर नहीं लिया गया है । अन्यथा इसे पूर्व के अन्तिम स्वस्थान कृष्टि अन्तरसे अनन्तगुणा हीन मानना पडेगा । यहाँ प्रथम संग्रह कृष्टि अन्तरको जिस विधिसे स्पष्ट किया है। आगे भी शेष संग्रह कष्ट अन्तगेको उक्त विधिको ध्यानमें रख कर घटित कर लेना चाहिए। आगे अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वीणा कितना प्रमाण है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि क्रोधको अन्तिम कृष्टिसे लोभके अपर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है। ६. दीयमान प्रदेश श्रेणिप्ररूपणा : ___ जो कृष्टिकारक जीव है वह प्रथम समयमें पूर्व और अपूर्व स्पर्धको सम्बन्धी प्रदेश पुंज के असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके जो अपकर्षण करनेसे द्रव्य प्राप्त होता है उसके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको सब Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्टियोंमें देता है और इस प्रकार देता हआ जो लोभसंज्वलनकी जघन्य कृष्टि है उस रूपसे बहुत बहुत पुंजका निक्षेप करता है। आगे क्रोध संज्वलनकी अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक अनन्तवें भागप्रमाण विशेषहीन विशेषहीन द्रव्य होता है । यह अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा कथन है । परम्परोपनिषाकी अपेक्षा विचार करनेपर लोभकी जघन्य कृष्टिको जितना द्रव्य प्राप्त होता है उससे क्रोधवी उत्कृष्टिकृष्टि में अनन्तवें भागप्रमाण विशेषहीन. ही द्रव्य प्राप्त होता है । ऐसा क्यों है इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि १२ संग्रह कृष्टि योकी जितनी भी अवान्तर कृष्टियाँ रची है वे सब मिलाकर एक गुणहानि स्थानान्तर के अनन्त भागप्रमाण होती हैं । आये प्रथम समय में जिस द्रव्यका अपकर्षण करके अवान्तर कृष्टियोंकी रचना की गई है उस अपकर्षित द्रव्य से अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणाको कितना द्रव्य प्राप्त होता है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि क्रोधकी अन्तिम कृषिको जितना द्रव्य प्राप्त होता है उसके अनन्तवें भागप्रमाण द्रव्य ही अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाको प्राप्त होता है। कारणका निर्देश करते हुए बतलाया है कि क्रोधकी अन्तिम कृष्टि में अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी अनन्त आदि वर्गणाप्रमाण द्रव्यको निक्षिप्त करके पुनः अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणामें वहाँ पहलेसे अवस्थित द्रव्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण ही द्रव्य निक्षिप्त होता है। इसलिये उक्त अर्थकी उपलब्धि बिना बाधाके बन जाती है।। किन्तु दृश्यमान द्रव्य क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें बहुत है तथा उससे अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा में अनन्तगुणाहीन है। इसलिए कितने आचार्य यहाँ दोनों पुच्छाओंका निर्देश करते हैं। किन्तु टीकामें उसका निषेध करके पूर्वोक्त अर्थको ही ग्रहण करने का विधान किया गया है । इसप्रकार कृष्टिकरण कालके प्रथम समयमें कृष्टियों में दीयमान प्रदेश पुंजकी श्रेणिप्ररूपणा की। ६. दूसरे समयमें कार्यभेद : . ___अब दूसरे समय में किये जानेवाले कार्य भेदका कथन करते हुए बतलाया है कि प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये द्रव्यसे दूसरे समयमें असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके उससमय कृष्टियोंको करता हुआ प्रथम समय में की गई कुप्टियों के नीचे अन्य अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है। तथा पूर्वमें रची गई कृष्टियोंके सदृश घनरूपसे भी कृष्टियोंकी रचना करता है। किन्तु यहाँ उन अपूर्व कृष्टियोंका प्रमाण प्रथम समयमें रची गई कृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहाँ दूसरे समयमें कृष्टियोंकी रचना करनेवाला उस समय अपकर्षित किये गये सकल द्रव्य के असंख्यातवें भागको अपूर्व कृष्टियोंमें निक्षिप्त करके शेष बहुभाग द्रव्यको पूर्व कृष्टियों में तथा स्पर्धक में यथाविधि निक्षिप्त करता है। किन्तु ये सब अपूर्व कृष्टियों किस स्थानमें रची जाती हैं इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि क्रोधसंज्वलन के पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमेंसे प्रदेश पुंजका आकर्षण करके अपनी-अपनी तीनों संग्रह कृष्टियों के नीचे प्रत्येककी अपेक्षा पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभको अपेक्षा भी जान लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि १२ संग्रह कृष्टियोंकों जघन्य कृष्टियों में नीचे अलग-अलग पूर्व कृष्टियों के असंख्यातवें भाग प्रमाण अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करनेवाले जीवके दूसरे समय में बारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी अपूर्व कृष्टियोंकी रचना हो जाती है । ७. दूसरे समयये दोयमान प्रदेशपुंज श्रेणीप्ररूपणा : लोभकी जघन्य कृष्टिमें बहुत प्रदेशपुंज दिया जाता है। दूसरी कृष्टि में अनन्तवाँ भाग कम दिया जाता है । इसप्रकार लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंमें अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्तवें भागहीन द्रव्य दिया जाता है। उसके बाद प्रथम समय में रची गई जघन्य अपूर्व कृष्टिमें असंख्यातवाँ भागहीन द्रव्य दिया जाता है । उसके बाद प्रथम समयमें निष्पन्न हुई प्रथम संग्रह कृष्टिी अपूर्व कृष्टियों में अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर अनन्तवा भामहीन द्रव्य दिया जाता है। पुनः सन्धिमैं स्थित कृष्टियों में उत्तरोत्तर असंख्यातवा भागहीन द्रव्य दिया जाता है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अब इसके आगे लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिके नीचे निष्पन्न हुई अपूर्व कृष्टियोंकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें असंख्यातवाँ भागहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है। उसके बाद अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर अनन्त भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता जाता है । पुनः आगे प्रथम समय में रची गई कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवें भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है । उसके बाद दूसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक प्रत्येकमें अनन्तवें भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है । इसके बाद दूसरी संग्रह कृष्टिकी जो विधि है वही विधि तीसरी संग्रह कृष्टिको जाननी चाहिये | आगे माया, मान, क्रोध सम्बन्धी जो प्रत्येकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं उनमें प्रदेश विन्यासका क्रम पूर्वविधिको ध्यान में रखकर आगमसे जान लेना चाहिये । अतः उक्त प्रकारसे द्वितोय समय में जो सभी कृष्टियों में प्रदेश विन्यास बनता है उसे देखते हुए उष्ट्रकूटश्रेणिकी रचना हो जाती है । (देखो विशेषार्थ पृ० ३४) । यहाँ ११ संधिस्थान और बारह संग्रह कृष्टिस्थान हैं, अतः उनके अनुसार २३ उष्टकूटश्रेणि बन जाती हैं । ( विशेष मूल में देखो ।) कृष्टियों में प्रतिसमय असंख्यातगुणा असंख्यात गुणा द्रव्य दिया जाता है । यहाँ अन्तमें संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहुर्त अधिक चार माह प्रमाण होता है तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । तथा उसी समय मोहनीयका स्थिति सत्कर्म अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष प्रमाण होता है, तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है तथा गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है । नाम, ८. कृष्टिवेदक काल : कृष्टियों को करनेवाला क्षपकजीव पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकोंका वेदन करता है । जिस समय कृष्टिकरण कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है तब वेद्यमान उदय स्थितिको छोड़कर उसके ऊपर क्रोधसंज्वलनकी एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थिति के शेष रहनेपर कृष्टिकरणकी विधि समाप्त हो जाती है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा कृष्टिकरणके अन्तिन समय में उसकी समाप्ति हो जाती है । परन्तु अनुत्पादानुच्छेदको अपेक्षा तदनन्तर समय में कृष्टियों का वेदन करनेवाले जीवके कालकी अपेक्षा एक आवलि मात्र प्रथम स्थिति के शेष रहनेपर कृष्टिकरण काल समाप्त होता है । इसके बाद वह जीव दूसरी स्थितिमेंसे अपकर्षण करके कृष्टियोंका उदयावलिमें निक्षेप करता है । उस समय संज्वलनों की स्थिति चार माह और स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है । तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण तथा नाम, गोत्र और वेदनीयका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण और स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है । तथा क्रोधसंज्वलनका अनुभाग सत्कर्म एक समय कम जो उदयावलि में उच्छिष्टावलि रूपसे प्रविष्ट है वह सर्वघाति है और चारों संज्वलनोंका जो नवबन्ध दो समय कम दो आवलि प्रमाण शेष है वह देशघाति होकर भी स्पर्धकगत है । शेष सब अनुभाग कृष्टिगत है । अर्थात् कुष्टिवेदक कालके प्रथम समयमें नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर चारों संज्वलनोंका सम्पूर्ण ही प्रदेश पुंज कृष्टिरूपसे परिणम जाता है यह इस कथनका तात्पर्य है । पुनः उसी कृष्टिवेदक कालके प्रथम समय में कृष्टियोंको प्रवेश कराता हुआ क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें से प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है । जो क्रोधवेदक कालके साधिक तीसरे भागप्रमाण होती है । इसका वेदन करनेवाला वह जीव क्रोवसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भागको तथा उसकी उपरिम उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष मध्यम असंख्यात बहुभाग प्रमाण कृष्टिय उदयको प्राप्त होती हैं, क्योंकि मघस्तन और उपरि असंख्यात भागकी विषयभूत सदृश धनवालो कृष्टियोंका परिणाम विशेषका अवलम्बन लेकर मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमकर उदय होता है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) पुनः इस जीवके क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके असंख्यात बहुभागका दन्ध होता है । उस समय शेष दो संग्रह कृष्टियोंका न तो बन्ध ही होता है और न उदय ही, क्योंकि प्रथम संग्रह कृष्टिके उदयकालमें शेष दो संग्रह कृष्टियोंका उदय होना सम्भव नहीं। तथा जिस समय जिस कषायको जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस समय उसका उसी रूपसे ही बन्ध हो । है ऐसा नियम है। आगे इसके अल्पबहुत्वका निर्देश करने के बाद कृष्टिनेदक कालको स्थगित करके कृष्टिकरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाली सूचनाओं का निर्देश करते हैं। ९. गाथासूत्र प्ररूपणा : कृष्टिकरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाली ग्यारह मूल सूत्रगाथाएं हैं। उनमें प्रथम मूल सूत्र गाथा है 'केवदिया किडीओ' इत्यादि । इसके चार अर्थ हैं। कुल कृष्टियाँ और उनकी अवयव कृष्टियां कितनी है। यह प्रथम पृच्छा है । एक-एक, कषायकी कितनी संग्रह और अवयव कुष्टियाँ हैं यह दूसरी पृच्छा है। कृष्टियोंको करनेवाला चारों संज्वलनों के प्रदेशपुंजका क्या अपकर्षणकरण करता है या उत्कर्षणकरण कर यह कर विषयक तीपरी इच्छा है। तथा कृष्टियों को करनेवालेका अनुभाग किस प्रकारका रहता है यह चौथो पृच्छा है । इस प्रकार यह मूलगाथा चार अर्थोंको स्पर्श करती है। इसकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं। उनमेंसे प्रथम भाष्यगाथामें दो अर्थ निबद्ध हैं। यथा-क्रोधके उदयसे जो जीव श्रेणिपर आरोहण करता है उसके १२ संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। मानके उदयवालेके ९, मायाके उदयवालेके ६ और लोभके उदयवालेके ३ संग्रह कष्टियां होती हैं। क्योंकि क्रोधके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करनेवाले जीवके चारों कषायोंकी सत्ता पाई जाती है, इसलिए वह सभी कषायों सम्बन्धी संग्रह कृष्टियाँ और उनकी अवान्तर कृष्टियाँ करता है। मान कषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाला जीव कृष्टिकरणके पहले ही स्पर्धकरूपसे क्रोध संज्वलनका नाश कर देता है । जो मायाके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है वह माया और लोभकी छह संग्रह कृष्टियां करता है, क्योंकि वह कृष्टिकरणके पहले ही स्पर्धक रूपसे क्रोध और मानसंज्वलनका नाश कर देता है । जो लोभके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है वह लोभकी तीन संग्रह कृष्टियां करता है, क्योंकि वह कृष्टिकरणके पहले स्पर्धक रूपसे ही क्रोध, मान और मायासंज्वलनका नाश कर देता है । इससे सिद्ध है कि एक-एक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं और प्रत्येककी अनन्त अवयव कृष्टियाँ होती हैं । कृष्टिकरणके कालमें कौन करण होता है इस अर्थ में १६४ संख्याक एक भाष्यगाथा आई है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि कृष्टिकरणके कालमें क्षपकके उसका संक्रम होने तक संज्वलन कषायकी स्थिति और अनुभागका नियमसे अपकर्षणकरण ही होता है, उत्कर्षणकरण नहीं। किन्तु यह नियम केवल संज्वलन कषायपर ही लागू होता है, ज्ञानावरणादि कर्मोपर नहीं ऐसा यहाँ समझना चाहिये । उपशामककी अपेक्षा जो विशेषता है उसका निर्देश करते हुए लिखा है कि कषाय अवस्थाके अन्तिम समय तक संज्वलन कषायका अपकर्षण ही होता है, उत्कर्षण नहीं । यद्यपि इसके प्रथम स्थिति में आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण कालके शेष रहनेपर ही आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति होती है । तो भी द्वितीय स्थिति में स्थित संज्वलन कषायका स्वस्थानकी अपेक्षा अपकर्षणकरण होता है ऐसा इतना अवश्य है कि जब यह जीव उपशान्त कषायसे गिरता है तब उसके सकषाय अवस्थाके प्रथम समय ही सभी करण सम्भव होनेसे शक्तिकी अपेक्षा उत्कर्षण करण कहा गया है। इतनी विशेषता है कि यहाँ उत्कर्षण और अपकर्षणकी अपेक्षा ही विचार किया है। इसी न्यायसे शेष करणोंके सम्बन्धमें भी विचार कर लेना चाहिए। आगे कृष्टि का क्या लक्षण है इस अर्थको प्ररूपणामें १६५ संख्याक तीसरी भाष्यगाथा आई है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए जयघवला टीकामें कृष्टिके लक्षणका तो स्पष्टीकरण किया ही है । स्पर्धक और Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) कृष्टिमें क्या अन्तर है इसे भी स्पष्ट करके बतलाया है। खुलासा इस प्रकार है-समान अविभाग - प्रतिच्छेदोंको धरने वाले अनन्त कर्मपरमाणओंकी एक वर्गणा होती है। यहां प्रत्येक परमाणका नाम एक वर्ग है । इनसे एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेदोंको धरनेवाले अनन्त कर्मपरमाणु ओंकी दूसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक होकर जो अनन्त वर्गणाएँ होती हैं वे सब वर्गण.एँ मिलकर एक स्पर्धक होता है । यह स्पर्धकका लक्षण है। परन्तु कृष्टिमें स्पर्धकका यह स्वरूप घटित नहीं होता, क्योंकि सबसे जघन्य जो कुष्टि होती है उसमें यद्यपि समान अविभाग प्रतिच्छेदोंको घरनेवाले अनन्त परमाणु होते है । परन्तु दूसरी कष्टि में एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेदोंको घरनेवाले अनन्त परमाणु न होकर नियमसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदोंको धरनेवाले अनन्त परमाणु होते हैं। इसी प्रकार तीसरी आदि सभी कृष्टियोंमें समझना चाहिए । इसलिए ही इनकी कृष्टि संज्ञा है । यह स्पर्धक और कृष्टि में अन्तर . है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। आगे १६६ संख्याक दुसरी मूल गाथा आई है। इस द्वारा सब कृष्टियोंके अनुभाग और स्थितिका विचार किया गया है। इसकी दो भाष्यगाथाएँ है। १६७ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा द्वारा सभी कृष्टियाँ असंख्यात स्थितिविशेषोंमें और अनन्त अनुभाग विशेषोंमें पाई जाती हैं। मात्र वेद्यमान संग्रह कष्टिको कितनी अवयव कृष्टियाँ होती हैं उनका असंख्यात बहुभाग उदय स्थिति में पाया जाता है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए । अनुभागकी अपेक्षा एक-एक कृष्टि अनन्त अनुभागोंमें पाई जाती है । परन्तु जिन अनुभागोंमें एक कृष्टि होती है उनमें दूसरी कृष्टि नहीं रहती। १६८ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि सब संग्रह और अवयव कृष्टियां द्वितीय स्थितिमें होती है । मात्र यह जीव जिसका वेदन करता है उसका एक भाग प्रथम स्थितिमें होता है । शेष कथन प्रथम भाष्यगाथाके समान जानना चाहिए। १६९ संख्याक तीसरी मल गाथा प्रदेशपुंज, अनुभाग और काल की अपेक्षा होनाधिकपने का निर्देश करती है । प्रदेश पुंजका निर्देश करने रूप प्रथम अर्थ में पांच भाष्य गाथाएँ आई हैं । अनुभागका कथन करने रूप दसरे अर्थ में एक भाष्यगाथा आई है तथा कालका निर्देश करने रूप तीसरे अर्थ में छह भाष्यगाथाएँ आई हैं। १७० संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि दूसरीसे प्रथम संग्रह कृष्टि में प्रदेशज संख्यातगुणा होता है। परन्तु दूसरीसे तीसरी आदि संग्रह कृष्टियाँ क्रमसे विशेष अधिक है। विशेष खुलासाके लिये मूलको देखिये। १७१ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि वर्गणा समूहकी अपेक्षा संख्यात गुणो है। किन्तु दूसरी संग्रह कृष्टिसे तीसरी संग्रह कृष्टि वर्गणा समूहको अपेक्षा विशेष अधिक है। इसी प्रकार मान आदिकी संग्रह कृष्टियां भी वर्गणा समूहकी अपेक्षा विशेष अधिक होती हैं। १७२ संख्याक तोसरी भाष्यगाथामें वर्गणाको ध्यानमें रखकर अनुभाग और प्रदेशपुंजकी अपेक्षा अस्पबहत्वका निर्देश किया गया है । बतलाया है कि वर्गणा अनुभागकी अपेक्षा हीन होती है वह प्रदेश पुंजकी अपेक्षा अधिक होती है। १७३ संख्याक चौथी भाष्य गाथा बतलाया है कि क्रोधकी आदि वर्गणामें से उसीको अन्तिम वर्गणाके घटानेपर जो अनन्तवाँ भाग लब्ध आता है वह शुद्ध शेषका प्रमाण होता है। अर्थात् अन्तिम वर्गणासे आदि वर्गणामें उतना प्रदेशपुंज अधिक होता है। १७४ संख्याक पांचवीं भाष्यागाथामें बतलाया है कि कृष्टियोंके विषयमें जो क्रम क्रोधसंज्वलनमें स्वीकार किया गया है वही क्रम मान, माया और लोभके विषय में भी समझना चाहिये । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) १७० संख्याक मूल गाथाका दूसरा पद 'अनुभागग्गेण' है । उसमें १७५ संख्याक एक भाष्यगाथा आई है। इसमें अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है। चारों कषायोंमेंसे प्रत्येक तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं । उनमें प्रत्येक कषायकी अपेक्षा दूसरीसे पहली तथा तीसरीसे दूसरी संग्रह कृष्टि अनुभागपुंजी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणी है । १७० संख्याक मूलगाथाका तीसरा पद है—' का च कालेण' । इसमें छह भाष्यगाथाएँ हैं । उनमें में १७६ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें कृष्टियोंके स्थिति सम्बन्धी कालका विवेचन करते हुए बतलाया है कि जो लोभके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके लोभ कृष्टिके वेदनके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म एक वर्षप्रमाण होता है । जो मायाके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके माया कृष्टियों का वेदन करनेके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म दो वर्ष प्रमाण होता है । जो मानके उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके मान कृष्टियों के वेदनके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म चार वर्ष प्रमाण होता है । जो क्रोध के उदयसे श्रेणिपर चढ़ता है उसके क्रोध कृष्टियोंके वेदन करनेके प्रथम समय में मोहनीयका स्थितिसत्कर्म आठवर्ष प्रमाण होता है । १७७ संख्याक दूसरी भाष्यगाथा में प्रकृतमें यवमध्य कैसे बनता है इसे स्पष्ट किया गया है । अन्तरकरण विधि सम्पन्न हो जानेके कारण यहाँ संज्वलन कर्म दो स्थितियों में विभक्त हो जाता है । अन्तरकरण से नीचे की स्थितिका नाम प्रथम स्थिति है । और अन्तरसे ऊपरकी स्थितिका नाम द्वितीय स्थिति है । इसलिए यहाँ इस दोनों स्थितियों में अन्तरसहित यवमध्यकी रचना बन जाती है यह इस गाथाका भाव है । १७८ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें द्वितीय स्थितिका प्रथम निषेक प्रदेशपुंजकी अपेक्षा उसी स्थिति के अन्तिम निषेककी अपेक्षा कितना अधिक है इसे स्पष्ट करते हुए वह असंख्यातव भाग अधिक है यह स्पष्ट कहा गया है । १७९ संख्याक चौथी भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि यहाँ जो उदयादि गुण श्रेणि होती है। उसमें असंख्यात गुणित श्रेणि रूपसे प्रदेशपुंज दिया जाता है । १८० संख्याक पांचवीं भाष्यगाथा में यह बतलाया है कि प्रथम स्थितिकी जितनी अवान्तर स्थितियाँ होती हैं उन सबसे आदिकी स्थिति में सबमें थोड़ा द्रव्य पाया जाता । तथा उसका उदय होकर निर्जरा होनेपर जो दूसरी स्थितिका उदय होता है उसमें असंख्यात गुणित श्रेणि रूपसे द्रव्य पाया जाता है । इसी प्रकार गुण श्रेणि अन्तिम समय तक जानना चाहिये । १८१ संख्या ५ वीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि अन्तिम कृष्टिसे लेकर प्रथय कृष्टि तक सब कृष्टियों का जो वेदक काल है वह उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक है । यहाँ विशेष अधिक का प्रमाण पिछली कृष्टिके कालसे उत्तरोत्तर संख्यातवाँ भाग अधिक होता जाता है । आगे चौथो मूलगाथाका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि किन-किन गतियोंमें, भवों, स्थितियों, अनुभागों में तथा तत्सम्बन्धी कृष्टियों और उनकी स्थितियों में संचित हुए पूर्व बद्ध कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं । इस मूल सूत्रगाथाकी तीन भाष्यगाथाएँ है । इनमें से १८३ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया गया है कि तिर्यंच और मनुष्य गतिमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । किन्तु नरकगति और देवगति में बांधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी हैं और नहीं भी होते हैं । इसी प्रकार एकेन्द्रिय सम्बन्धी पाँच स्थावर कायिकों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी है और नहीं भी होते । किन्तु पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी कायिकों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाए जाते हैं । यहाँपर सकायिक ऐसा सामान्य रूप से कहने पर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंका ही ग्रहण करना चाहिये । शेषका नहीं, बाँधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी हैं और नहीं भी होते । क्योंकि शेष सकायिकों में Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) जयधवला टीकामें तियंच गतिमें अर्जित किया गया कर्म इस क्षपकके कैसे पाया जाता है इस बात का खुलासा करते हुए बतलाया गया है कि जो जीव तियंच गति से निकलकर शेष दो गतियों में सी पृथक्त्व सागरोपम काल तक रह कर क्षपक श्रेणिपर आरोहण करता है उसके तियंच गतिमें अर्जित होकर कर्म स्थिति में हुए संचयका पूरी तरहसे अभाव नहीं होता और मनुष्य गतिमें आये बिना इस जीवका क्षपक श्रेणिपर आरोहण करना सम्भव नहीं है, इसलिये तियंचगति और मनुष्य गतिमें संचित हुआ कर्म इस क्षपक के नियमसे पाया जाता है ऐसा यहाँ विशेष समझना चाहिये । १८४ संख्याक दूसरी भाष्यगाथा में बतलाया है कि असंख्यात एकेन्द्रिय सम्बन्धी भवों में बाँधे गये कर्म इस क्षपक के नियमसे पाये जाते हैं, क्योंकि कर्म स्थितिके भीतर कमसे कम पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एकेन्द्रिय सम्बन्धी भवोंका ग्रहण नियमसे पाया जाता है तथा एकसे लेकर संख्यात त्रससम्बन्धी भवों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । यदि एकेन्द्रियोंमेंसे आकर और मनुष्य होकर इसी पर्यायसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ता है तो ससम्बन्धी एक भवमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । इस प्रकार अधिक से अधिक संख्यात त्रसभव ग्रहण कर लेने चाहिये । बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियम से पाये जाते हैं । १८५ संख्याक तीसरी भाष्यगाथा में यह बतलाया गया है कि उत्कृष्ट अनुभाग और उत्कृष्ट स्थितियुक्त पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अनियम से पाये जाते हैं, क्योंकि कर्म स्थिति के भीतर उस्कृष्ट अनुभाग और उत्कृष्ट स्थिति विशिष्ट यदि कर्म बाँधे गये हैं तो उनका क्षपकके कदाचित् पाया जाता सम्भव है, और कर्म स्थिति के भीतर अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ कर्मोंका बन्ध करता आया है तो उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग के साथ बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे नहीं पाये जाते हैं । तथा चारों कषायोंमें से प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है, इसलिए चारों कषायों के कालमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । आगे १८६ संख्याक मूल गाथा में पर्याप्त अवस्था, अपर्याप्त अवस्था, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, योग और उपयोग इनमें से किस अवस्था में रहते हुए बाँधे गये कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं यह पृच्छा की गई है । इस मूल सूत्रगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं । उनमें से १८७ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा में बतलाया है कि पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था, मिथ्यात्व नपुंसकवेद और सम्यक्त्व इन मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म मार्गणाएँ नियमसे होती हैं, इसलिये । परन्तु क मंस्थिति के भीतर स्त्रीवेद, इस अपकके नियमसे पाये जाते हैं । कारण कि कर्मस्थितिके भीतर ये इन मार्गणाओं में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं पुरुष वेद और सम्यग्मिथ्यात्व ये मार्गणाएँ होती भी हैं और नहीं भी पूर्व कर्म इस क्षपकके कदाचित् पाये भी जाते हैं और कदाचित् नहीं भी पाये जाते हैं । होती हैं, इसलिए इन मार्गणाओं में १८७ संख्याक प्रथम भाष्यगाथा में बतलाया है कि कर्नस्थिति कालके भीतर पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था नियमसे होती है, क्योंकि कर्मस्थितिका काल बहुत बड़ा है, इसलिए उक्त कालके भीतर इन अवस्थाओं का प्राप्त होना अवश्यंभानी है । मिथ्यात्व और नपुंसकवेद मार्गणाओंके विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए, क्योकि जीव इन मार्गणाओंको प्राप्त न हो और कर्मस्थितिका काल पूरा करले यह सम्भव ही नहीं है । इसलिये पूर्वकथित मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके अभजतीय कहे हैं । मात्र स्त्रीवेद, पुरुषवेद और सम्यग्मिथ्यात्व ये अवस्थाएँ कर्मस्थिति कालके भीतर हों और नहीं भी । इसलिए इन मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय कहे हैं । १८८ संख्याक दुसरी भाष्य गाथामें यह स्पष्ट किया है कि औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रयोग, चारों मनोयोग और चारों वचनयोग इन मार्गणाओं में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५) कारण स्पष्ट हैं शेष रही वक्रियिक काययोग, वक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कामणकाययोग मार्गणाएँ कर्मस्थिति कालके भीतर अवश्य ही होती हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, इसलिए इन मार्गणाओंमें बांधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय कहे हैं। १८९ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें यह स्पष्ट किया है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों उपयोगोंमें बांधे गये कर्म इस क्षपक के नियमसे पाये जाते हैं। इन्हीं में मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानको भी सम्मिलित कर लेना चाहिये । कारण स्पष्ट है। किन्तु अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान साथ ही विभंगज्ञान कर्मस्थिति कालके भीतर हों ऐसा कोई नियम नहीं है, इसलिए इन मार्गणाओंमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय वहा है। १९० संख्याक चौथी भाष्यगाथामें स्पष्ट किया है कि चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन इन दोनों उपयोगोंमें बाँध गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। पर यह स्थिति अवधिदर्शन की नहीं है, इसलिए इस उपयोगमें बांधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय होते हैं यह कहा है। आगे १९१ संख्याक छठवीं मूल गाथा है। इसमें बतलाया है कि किस लेश्यामें, किन कर्मोमें, किस क्षेत्रमें और किस काल में साता, अशाता और किस लिंगके साथ बांधे गये कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं । इस प्रकार इस मूलगाथाद्वारा पृच्छा की गई है। आगे उत्तरस्वरूप इसकी दो भाष्यगाथाएं हैं। उनमेंसे १९२ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि सभी लेश्यायोंमें तथा साता और असातामें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे होते हैं, क्योंकि तिर्यञ्चों और मनुष्यों के इनका सद्भाव पाये जाने में कोई बाधा नहीं आती। अन्तर्मुहूर्तमें ये बदलते रहते हैं। तथा सभी कार्यों और सभी लिंगोमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके पाये भी जाते हैं और नहीं भी पाये जाते, क्योंकि कप स्थिति कालके भीतर इस जीवके ये नियमसे होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है । यहाँ कर्मसे अंगारकर्म, काष्ठकर्म और वनकर्म किये गये हैं। तथा लिंगसे तापस आदि अन्य लिंग लिये गये है। वे कर्मस्थितिकालके भीतर इस जीवके नियमसे होते है ऐसा भी कोई नियम नहीं है। इसलिये यहाँ सभी कर्मों और सभी लिंगों में बांधे गये कर्म इस क्षपकके होते भी हैं और नहीं भी होते हैं, यही बात शिल्पके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिये। यहाँ जो लिंग पदसे सभी लिंगका ग्रहण किया है तो निर्ग्रन्थता कोई लिंग नहीं है वह तो जीवका स्वरूप है, इसलिये लिंग पदसे यहाँ निर्ग्रन्थ लिंगका ग्रहण नहीं होता ऐसा यहाँ समझना चाहिये । क्षेत्र पदसे अधोलोक आदि तीनोंका ग्रहण होता है । सो यहाँ अधोलोक और कललोकको अपेक्षा भजनीयता जाननी चाहिये । क्योंकि कोई जीव तिर्यक् लोकमें पुरे कर्मस्थितिकालतक रहकर अन्त में क्षपक होकर मोक्षवासी बन जाय, इन दोनों लोकोंमें न जाय, इसलिये इन दोनों क्षेत्रों में बांधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय कहे हैं । इसी प्रकार उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालकी अपेक्षा भी समझ लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे हम यहाँ स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं। १९३ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया गया है कि जिन तीन मूलगाथाओंमें अभजनीय पूर्वबद्ध कर्मोकी चर्चा कर आये हैं वे इस क्षपकके सभी स्थितियों में, सभी अनुभागोमें और सभी कृष्टियों में नियमसे पाये जाते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिये। आगे १९४ संख्याक सातवीं मूल गाथामें दो पृच्छाएँ की गई हैं । प्रथम यह पृछा की गई है कि एकएक समयप्रधद्धसम्बन्धी कितने कर्मपरमाणु उदयको न प्राप्त होकर कितने स्थितिके भेदों में और कितने अनुभागोंमें इस क्षपकके पाये जाते है । तथा दूसरी पृच्छा यह की गई है कि एक एक भवमें बाँधे गये कितने कर्म उदयको प्राप्त हुए बिना इस क्षपकके पाये जाते हैं । इसप्रकार ये दो पृच्छाएं हैं जो इस मूलगाथाद्वारा की गई हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) आगे चार भाष्यगाथाओं द्वारा इस विषयको स्पष्ट किया जाता है। उनमें से १९५ संख्याक पहली भाष्यगाथा द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अन्तरकरण करने के बाद छह आवलियों में बाँधे गये कर्म इस क्षपकके अनुदीरित होकर चारों कषायों सम्बन्धी सभी स्थितियों और सभी अनुभागों में पाये जाते हैं। किन्तु भवबद्ध सभी समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयमें संक्षुब्ध रूपसे पाये जाते हैं। १९६ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि बाँधे गये कर्मप्रदेश बन्धावलि कालतक क्रोध संज्वलनकी प्रथम कृष्टि में ही पाये जाते हैं, बन्धावलि कालतक उनका अपकर्षण और परप्रकृति सत्क्रम सम्भव नहीं है। हाँ बन्धावलिके बाद द्वितीयावलिमें स्थित उन नवकबन्धं कर्मप्रदेशोंका आनुपूर्वी संक्रमके कारण क्रोध संज्वलनको प्रथम कृष्टि सहित अनन्तर चार कृष्टियों में संक्रम होकर उनका तद्भाव पाया जाता है। कारण कि बन्धावलि कालतक जो नया बन्ध हुआ है वह तदवस्थ रहता है। पुनः बन्धावलि कालके बाद द्वितीयावलिमें स्थित नवकबन्ध क्रोधकी दो संग्रह कृष्टियोंमें और मानकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होता है। १९७ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया गया है कि तीसरी आवलिमें स्थित वह नवकबन्ध मानकी अन्तिम दो आवलियोंमें तथा मायाको प्रथम आवलिमें संक्रमित होकर सात आवलियोंमें दिखाई देता है । इसी प्रकार चौथी आवलिमें स्थित वह नवकबन्ध मायाकी दो और लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होकर दस आवलियोंमें दिखाई देता है। तथा पांचवीं आवलिमें स्थित वह नवकबन्धी चारों कषायोंकी सभी आवलियों में दिखाई देता है ऐसा यहां समझना चाहिये । १९८ संख्याक भाष्यगाथामें यह कहा गया है कि ये अनन्तर कहे गये समयबद्ध इस भवमें इस क्षाकके उदय स्थिति में नियमसे असंक्षुब्ध रहते हैं या भवबद्ध समयप्रबद्ध नियमसे संक्षुब्ध रहते हैं। .१९९ संख्याक मूलगाथामें यह जिज्ञासा प्रगट की गई है कि कितने एक और नाना समयप्रबद्ध शेष तथा नाना भव द शेष कितने स्थितिभेदों और अनुभागभेदोंमें पाये जाते हैं। एक और नाना कितने समयप्रबद्ध भवबद्ध शेष एक स्थिति विशेष में पाये जाते हैं । तथा एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी एक स्थिति विशेष में एक और नाना कितने समय प्रबद्ध शेष और भयबद्ध शेष पाये जाते हैं । यहाँ शेषसे मलतब भोगनेके बाद जो शेष रहे और तदनन्तर समय में निलेपित (निर्माण) होनेवाले हैं उनसे है। यह अर्थ समयप्रबद्ध और भवबउ दोनोंकी अपेक्षा जान लेना चाहिये । विशेष खुलासा टीकासे कर लेना चाहिये। इसकी चार भाष्यगाथाएं है। २०० संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि एक स्थिति विशेष और अनन्त अनुभागों में भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष नियमसे पाये जाते हैं। यहाँ एक स्थिति विशेषसे मतलब एक समय अधिक उदयावलिसे ऊपर अन्यतर स्थिति विशेष लिया है। विशेष खुलासा टीकासे कर लेना चाहिये। २०१ संख्याक दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि एक वे भवबद्ध शेष और समयबद्ध शेष कमसे कम एक स्थिति विशेष में और अधिकसे अधिक असंख्याक स्थिति विशेष में पाये जाते हैं। तथा नाना भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष जघन्यपनेकी अपेक्षा भी असंख्यात स्थिति विशेषों में पाये जाते हैं। २०२ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष जिन स्थितियों में पाये जाते हैं उन सामान्य स्थितियोंको छोड़कर जिन स्थितियों में ये भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष नहीं पाये जाते हैं वे स्थितियां असामान्य स्थितियाँ होकर भी इस क्षपकके पुनः पुनः निरन्तररूपसे कितने कालतक पायी जाती हैं। इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि वे असामान्य स्थितियां अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और पुनः पुनः निरन्तररूपसे वर्षपृथक्त्व कालतक पायी जाती हैं। आगे प्रकृत विषयको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि एक-एक करके प्राप्त होनेवाली वे असामान्य स्थितियाँ थोड़ी है । दो दो करके प्राप्त होनेवाली वे असामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । इस प्रकार क्रमसे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) जाते हुए वे असामान्य स्थितियाँ आवलिके असंख्यातवें भागमें दूनो हो जाती हैं। यह एक अर्थ है । इसी प्रकार यहाँ आये हुए 'एक क्वेण असामण्णाओ' इत्यादि चणिसूत्रका दूसरा अर्थ करते हुए बतलाया है कि एक एक सामान्य स्थितिसे अन्तरित होकर उन असामान्य स्थितियोंकी शलाकाएं थोड़ी हैं। दो दो सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियां मिलाकर विशेष अधिक है। तोन तीन सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियां मिलाकर विशेष अधिक है। इस प्रकार इस प्ररूपणामें भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर उनकी दूनी वृद्धि होती है। और इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुण वृद्धि होनेपर वहाँपर पहले कर आये प्ररूपणामें और इस प्ररूपणामें दोनोंमें यवमध्य होता है। पुनः उसके बाद विशेष हानिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर द्विगुण हानि होती है। इस प्रकार अन्तिम विकल्पके प्राप्त होनेतक द्विगण हानियाँ होकर जाती हैं। यहाँ जैसे असामान्य स्थितियोंको ध्यानमें रखकर यवमध्यको प्ररूपणा की है उसी प्रकार सामान्य स्थितियोंकी विवक्षामें यवमध्यकी प्ररूपणा जाननी चाहिये। यहाँ जिस प्रकार सामान्य और असामान्य स्थितियोंको अपेक्षा विचार किया उसी प्रकार भवबशेष और समयप्रबद्धशेषकी अपेक्षा भी जान लेना चाहिये। विशेष ऊहापोह मूलमें २०३ संख्याक चौथौं भाष्यगायाकी टीकामें किया हो है, इसलिये इसे वहाँसे जानना चाहिये। ___ यहाँ इन चार भाष्यगाथाओंको प्ररूपणा क्षपक श्रेणीको ध्यानमें रखकर की है। अभव्यजीवोंकी विवक्षामें भी इसी प्रकार कर लेनी चाहिये। इसी प्रसंगसे एक कर्म स्थितिके भीतर कितने निर्लेपन स्थान होते हैं इसे स्पष्ट करते हुए चणिसूत्रमें बतलाया है कि इस विषय में दो उपदेश पाये जाते हैं। एक उपदेश के अनुसार एक कर्मस्थितिके भीतर असंख्यात बहुभागप्रमाण निलेपन स्थान होते हैं। इतने कैसे होते हैं इसका खुलासा करते हुए लिखा है कि जो समयप्रबद्ध विवक्षित कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बन्धको प्राप्त हुआ है उसका प्रदेशपुंज बन्ध समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक नियमसे रहकर उसके अन्तिम समय में निश्शेष हो जाता है। अथवा उससे अगले समयमें वह निःशेष हो जाता है। इस प्रकार एक-एक समय अधिक होकर कर्मस्थितिके अन्तिम समयतक ये निलेपन स्थान होकर जाते हैं। यह एक समयप्रबद्धकी विवक्षामें कथन किया है। इसी प्रकार सभी समयप्रबद्धोंके कर्मस्थितिके भीतर निर्लेपन स्थान जानने चाहिए। __दूसरे प्रवाहमान उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपन स्थान होते हैं। इसका खुलासा करते हुए बतलाया है कि कर्मस्थितिके प्रथम समयमें जो समयप्रबद्ध बन्धको प्राप्त हुआ है वह कर्म स्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण कालतक नियमसे रहकर उसके बाद पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण कर्म स्थितिके शेष रहनेपर उदयको प्राप्त होकर नियमसे निलंपित हो जाता है । अथवा उसके अगले समयमें वह निर्लेपनको प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार ये निर्लेपन स्थान एक-एककर कर्मस्थितिके अन्तिम समयतक जाते है। अतः ये सब मिलाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। आगे जघन्य निर्लेपन स्थानसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपन स्थान तक जितने निर्लेपन स्थान होते हैं उनमेंसे जघन्य निर्लेपन स्थानको अतीत कालमें एक जीवने कितनी बार किया है तत्सम्बन्धी जो समुदित काल है वह सबसे थोड़ा है। एक समय अधिक दसरे निर्लेपनमें रहकर निर्लेपितपूर्व समयप्रबद्धोंका यह काल समुदित होकर एक जीवकी अपेक्षा विशेष अधिक है । इसी प्रकार विशेष अधिक होता हुआ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थानोंके जानेपर वहां प्राप्त निर्लेपनस्थानका काल जघन्य निर्लेपनस्थानके कालसे दूना हो जाता है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुण कृष्टियोंके प्राप्त होनेपर यवमध्यरूपसे निर्लेपनकाल उत्पन्न होता है। किन्तु यह यवमध्यस्थान उत्पन्न होता हुआ निलेपनस्थान सम्बन्धी समस्त स्थानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर ही उत्पन्न हमा है । पुनः इस स्थानसे आगे निर्लेपन काल घटता हुआ जाता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) आगे समय प्रबद्ध शेष सम्बन्धी प्ररूपणा करके भवबद्धशेष सम्बन्धी प्ररूपणाको इसी प्रकारकी जानने की सूचना करने के बाद भगवान यतिवर्षभ आचार्यने जो यह सूचना की है कि यद्यपि प्रकृत में यवमध्य करना चाहिये । परन्तु यहाँ छद्मस्थ होनेके कारण उसे लिखनेका स्मरण नहीं रहा। इसलिये टीकाकारका कहना है कि व्याख्यानाचार्यों को उसका व्याख्यान कर लेना चाहिये। आगे टीकाकार इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि सूत्रकार पूर्वापरके परामर्श करने में कुशल होते हैं, इसलिए उनके द्वारा विस्मरण होना तो सम्भव नहीं। फिर भी जो यह लिखा है कि यहाँ हमें लिखनेका स्मरण नहीं रहा, इसलिए प्रकृत में यवमध्य कर लेना चाहिए सो उनके ऐसा लिखने का यह अभिप्राय रहा है कि प्रकृतमें यवमध्य सुबोध है, वह विस्मरण स्वरूप नहीं हैं। फिर भी उसका विस्मरण हो गया ऐसा मानकर शिष्यों को प्रकृत अर्थक समर्पण करने में कुशल आचार्यपर उक्त दोष लागू नहीं होता, क्योंकि सूत्रकारोंके कथन करने की शैली विचित्र अर्थात अनेक प्रकारकी होती है। आगे उसे ही यहाँ दो उपदेशोंका अवलम्बन लेकर स्पष्ट किया गया है । मूलमें देखो पृ० १९८-२०० । आठवीं मूल गाथाकी २०० संख्याक प्रथम भाष्य गाथामें समय-प्रबद्धशेष और भवबद्धशेषके स्वरूपपर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि कर्मस्थिति के भीतर क्रमसे तेदन किये जानेवाले समय प्रबद्धका वेदन करनेके बाद जो प्रदेश पुंज शेष रहकर तदनन्तर समयमें निर्लेपनके अभिमुख होकर दिखाई देता है उसकी समयप्रबंद्ध शेष संज्ञा है । यहाँ 'उदय समय में विद्यमान' ऐसा न कह कर 'निर्लेपनके अभिमुख होकर दिखाई देता है ऐसा कहनेका कारण यह है कि यहाँ एक स्थिति विशेष में स्थित समयप्रबद्ध शेषको ग्रहण न करके अनेक स्थिति विशेषोंमें सान्तर और निरन्तर रूपसे अवस्थित समयप्रबद्धशेषका ग्रहण किया गया है । यह एक समयप्रबद्धशेषकी अपेक्षा कथन जानना चाहिए । नाना समयप्रबद्धोंकी अपेक्षा भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए । इसी प्रकार एक भव या नाना भवोंकी अपेक्षा भी जानना चाहिए। अन्तर इतना है कि समयप्रबद्धशेषके विचारमें एक या नाना समयप्रबद्धोंकी अपेक्षा विचार करनेकी मुख्यता रही है किन्तु भवबद्धशेषमें एक या नाना भवोंकी विवक्षा मुख्य रही है। यह स्थितिकी अपेक्षा विचार है। अनुभागकी अपेक्षा अनन्त अनुभागोंको ध्यानमें रख कर समयप्रबद्ध शेष और भवबद्ध शेषका स्वरूप जानना चाहिए। यह समयप्रबद्धशेष कितनी स्थितियोंमें उपलब्ध होता है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि वह कदाचित एक स्थिति विशेषमें उपलब्ध होता है, कदाचित् दो स्थिति विशेषों में उपलब्ध होता है । इस प्रकार क्रमसे तीन आदि स्थिति विशेषोंसे लेकर द्वितीय स्थितिके वर्ष पृथक्त्वप्रमाण सब स्थिति विशेषोंमें विवक्षित समयप्रबद्धशेष उपलब्ध होता है । यह केवल द्वितीय स्थितिसम्बन्धी सभी स्थिति विशेषोंमें ही नहीं उपलब्ध होता है । किन्तु किसी एक संज्वलनकी प्रथम स्थिति सम्बन्धी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितियोंको छोड़ कर शेष सब स्थितियोंमें विवक्षित समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहता है। एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितियों के निषेध करनेका कारण यह है कि उदयस्थिति में सो समय प्रबद्धशेषकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि वह अनन्तर समयमें निर्लेप्यमानस्वरूप है। अतः उसका उसी समय निर्लेप्यमान स्वरूप मानने में विरोध आता है। उदयावलि के बाहर प्रथम स्थितिमें भी उसका अवस्थित रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में रहने वाला प्रदेशपुंज अनन्तर समयमें नियमसे उदयावलिमें प्रवेश करनेवाला है । अतः उस समय उसका अपकर्षण होकर उदयमें निक्षिप्त होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार उदयावलिके भीतर शेष स्थितियोंमें भी उसके असम्भव होनेका नियम जानना चाहिए। इतना अवश्य है कि उदयस्थितिसे अनन्तर खो द्वितीय स्थिति है उसमें समय प्रबन्ध शेष अवश्य सम्भव है, क्योंकि अनन्तर समयमें वह उदयरूप होकर निर्लेपनके सन्मुख दिखाई देती है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) आगे ८वीं मुलगाथाकी २०२ संख्याक तीसरी भाष्यगाथामें सामान्यसंज्ञा और असामान्य संज्ञाका विचार करते हए बतलाया है कि जिस किसी एक स्थिति विशेष में जो भवबद्ध शेष और समयप्रबद्ध शेष सामान्य नहीं होते हैं उनकी असामान्य संज्ञा है। वे असामान्य स्थितिविशेष परस्पर संलग्न होकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं और वे वर्ष पृथक्त्वकालके भीतर आवलिके असंख्यातवें भाग बार पुनः पुनः निरन्तर पाये जाते हैं। इस प्रकार सामान्य संज्ञा और असामान्य संज्ञाकी अपेक्षा स्थितिविशेषका विचार करने के बाद आगे वर्षपृथक्त्व प्रमाण स्थिति के भीतर किस रूप में ये पाये जाते हैं और किस स्थानपर जाकर यवमध्य होता है आदिका विशेष विचार पहले ही कर आये है । आगे अन्य उपयोगी विचारके बाद निर्लेपनस्थान आदिके आश्रयसे अल्पबहत्वका विचार करनेके बाद ८वीं मूल गाथा और उसकी भाष्यगाथाओंकी व्याख्या समाप्त की गई है। आगे २०४ संख्याक ९वीं मूलगाथाका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि इस द्वारा कृष्टिवेदक के प्रथम में ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थिति और अनुभागसत्कर्म कितना होता है । साथ ही उनके बन्ध और उदयका भी विचार स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा इस मूल गाथा द्वारा किया गया है । इसको दो भाष्यगाथाएँ हैं । २०५ संख्याक प्रथम भाष्यगाथामें बतलाया है कि कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें नाम. गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है । तथा शेष चार घाति कर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्ष प्रमाण होता है। विशेष इतना है कि उस समय मोहनीयकर्मका स्थिति सत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होनेसे संख्यात वर्ष प्रमाण कहा गया है। २०९ संख्याक दूसरी भाष्यगाथाका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया गया है, कि उस अवस्था में वेदनीय, शुभनाम यशः कोति और उच्चगोत्रका शत सहस्र वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका संख्यात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। तथा मोहनीय कर्मका चार माहप्रमाण स्थितिबन्ध करता है । अनुभागबन्धका विचार करते हुए बतलाया है कि सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका आदेश उत्कृष्ट या ईषत् उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है। तथा तीन घातिको और मोहनीय कर्मका ज्ञत्प्रायोग्य जघन्य अनुभागबन्ध होता है। पहले क्षपकके प्रायोग्य ११ मूल गाथाएँ कही थीं उनमेंसे ९ गाथाओंका व्याख्यान किया। प्रकत में अन्तकी शेष दो गाथाएँ स्थापित की जा रही है, क्योंकि ये कृष्टि वेदकके कालसे सम्बद्ध हैं। इन दो गाथाओंके अतिरिक्त अन्य गाथाओंका सम्बन्ध कृष्टिवेदक कालसे आता है। इसलिये उनका यहाँ व्याख्यान क्यों किया ऐसा प्रश्न होनेपर प्रकृतमें समाधान करते हुए बतलाया है कि उनका सम्बन्ध कृष्टिवेदक कालके साथ होकर भी कृष्टि वेदक कालके साथ भी आता है, इसलिये उनका सामान्य नाम कालके साथ करने में कोई बाधा नहीं आती। आगे कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा सत्त्व और बन्ध कितना होता है इसका उल्लेख करने के बाद अनुभागका विचार करते हए बतलाया है कि यहाँसे लेकर मोहनीय अनुभागकी प्रति समय अनन्त गुणहानिरूपसे अपवतने होने लगती है । खुलासा इस प्रकार है कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें क्रोधकृष्टि उदयमें उत्कृष्ट बहुत होती है। अर्थात् इस समय जिन अनन्त मध्यम कृष्टियोंका उदयमें प्रवेश होता है उनमेंसे जो सबसे उपरिम उत्कृष्ट कृष्टि है वह बहत अर्थात् तीव्र अनुभाग वाली होती है । तथा उस समय बध्यमान जो अनन्त कृष्टियां होती है उनमें जो सबसे उत्कृष्ट होती है वह उदयकी अपेक्षा अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली होती है। इसके आगे बन्धको प्राप्त होनेवाली क्रोध कृष्टिसे दूसरे समयमें उदयको प्राप्त होनेवाली प्रथम समयमें उत्कृष्ट क्रोध कृष्टि अनन्त गुणी हीन होती हैं। तथा उससे बन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्रोषकृष्टि अनन्तगुणी हीन होती है । इसी प्रकार समस्त वेदककालके भीतर जानना चाहिये । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) यह उत्कृष्ट क्रोधकृष्टिकी अपेक्षा विचार है । जघन्यकी अपेक्षा विचार करते हुए बतलाया है कि प्रथम समय में जघन्य क्रोधकृष्टि तीव्र अनुभागवाली होती है । उसकी अपेक्षा उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणे हीन अनुभागवाली होती है । दूसरे समय में बन्धमें जघन्य कृष्टि प्रथम समय में उदयरूप जघन्य कृष्टिकी अपेक्षा अनन्तगुणी होन होती है। उससे उसी समय उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होन होती है । इसी प्रकारका समस्त कृष्टि वेदककालके भीतर जानना चाहिये । यहाँ जो निर्वर्गणाको भी इसी प्रकार जाननेका विधान किया है सो उसका आशय इतना ही है कि बन्ध और उदयरूप जघन्य कृष्टियों की अपेक्षा अनन्तगुणी हानि रूपसे जो अपसरण विकल्प होते हैं उन्हें यहाँ जघन्य निर्वर्गणा कहकर इसी प्रकार जानने की सूचना की है । यह क्रोधसंज्वलन सम्बन्ध बन्ध और उदयरूप जघन्य और उत्कृष्ट कृष्टियोंकी निर्वर्गणा प्ररूपण क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिकी अपेक्षा की गई है । यहाँ इतना विशेष जानना कि कृष्टिवेदक के प्रथम समयमें मान संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका उदय नहीं होता । मात्र बन्ध ही होता है और वह भी अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम बहुभाग रूपसे प्रवृत्त होता हुआ प्रतिसमय अनन्त गुणहानि रूपसे ही प्रवृत्त होता । यहाँ प्रथम समय में क्रोध और मान संज्वलनकी शेष संग्रह कृष्टिका बन्ध नहीं होता । माया और लोभ संज्वलन के विषयमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । अर्थात् इन दोनों कषायोंकी प्रथम संग्रह कृष्टियों के अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम बहुभाग रूपसे ही बन्धकी वृत्ति होती है । यह तो बन्ध और उदयको अपेक्षा विचार है । सत्त्वकी अपेक्षा अनुभागका विचार करनेपर वह प्रतिसमय अपवर्तनारूपसे किस प्रकार प्रवृत्त होता है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि बारह कृष्टियोंकी जो अग्र कृष्टि है उससे लेकर एक एक संग्रहकृष्टिके असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्त कृष्टियोंका अपवर्तनाघातके द्वारा घात करके अधस्तन कृष्टिरूपसे उन्हें स्थापित करता है । इसी प्रकार द्वितीयादि समयों में भी यह अपवर्तना चलती ही रहती है । मात्र प्रथम समय में जितनी कृष्टियोंका विनाश होता है उनसे आगे द्वितीयादि समयों में असंख्यात गुणहानिरूपसे उनका विनाश होता है । इस प्रकार यह कृष्टियों की प्रतिसमय अपवर्तना करता हुआ कृष्टिवेदकके प्रथम समय में ही आरम्भ करके कृष्टिकरण कालमें पहले निष्पन्न की गई कृष्टियोंके नीचे और उनके अन्तरालोंमें अन्य अपूर्व कृष्टियोंको जिस विधिसे निष्पन्न करता है उसका खुलासा इस प्रकार जानना चाहिये (१) क्रोधसंज्वलनकी वेद्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियोंकी रचना नहीं होती । (२) क्रोधसंज्वलनकी बध्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता हुआ प्रथम संग्रह कृष्टिके अन्तरालोंमें उन्हें निष्पन्न करता है । (३) शेष ११ संग्रह कृष्टियोंके संक्रम्यमाण प्रदेशोंके अग्रभाग से अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है । (४) तथा मान, माया और लोभ सम्बन्धी बध्यमान, तीन संग्रहकृष्टियोंके प्रदेश के अग्रभागसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है । इस प्रकार इन अपूर्वकृष्टियोंकी निष्पत्ति कैसे होती है इसका यह विचार है । आगे अल्पबहुत्वका विचार करते हुए बतलाया है कि (५) जो बध्यमान संग्रहकृष्टियोंके प्रदेश के अग्रभागसे अपूर्व कृष्टियों की रचना होती है वे अल्प होती हैं । (६) तथा जो संक्रम्यमाण संग्रहकृष्टियोंके प्रदेशानसे अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है वे असंख्यातगुणी होती हैं । (७) जो बध्यमान संग्रहकूष्टियोंके प्रदेशाप्रसे अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है वे चारों बध्यमान संग्रहकृष्टियों में ही पायी जाती हैं, क्योंकि उस समय अन्य संग्रहकृष्टियोंका बन्ध नहीं होता । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) (८) बध्यमान संग्रहकृष्टियोंसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियां असंख्यात कृष्टियोंको उल्लंघन कर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण कृष्टि अन्तरालों में निष्पन्न होकर प्राप्त होती है । पुनः इतने ही अन्तरालोंको उल्लंघन कर दूसरी अपूर्व कृष्टि निष्पन्न होकर प्राप्त होती है । इस प्रकार क्रमसे इतने-इतने अंतरालोंको उल्लंघन कर ही अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होकर प्राप्ति जानना चाहिये । यहाँ क्रोध संज्वलन की अपेक्षा विचार है, इसी प्रकार मान, माया और लोभ संज्वलन की अपेक्षा भी जानना चाहिये । प्रदेशोंकी अपेक्षा इन कृष्टियोंमें प्राप्त होने वाले प्रदेश-पुंजके अल्प-बहुत्वकी अपेक्षा विचार करने पर बध्यमान जघन्य कृष्टि में बहुत प्रदेश पुंज होता है । दूमरी कृष्टिमें अनन्तवां भाग विशेष हीन प्रदेश पुंज है। तीसरी कृष्टि में अनन्तवां भाग विशेष हीन प्रदेश पुंज होता है। इस प्रकार बध्यमान अंतिम अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक जानना चाहिये । (९) संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे जो अपूर्व कृष्टियाँ निपजती हैं वे कृष्टि-अंतरालोंमें और संग्रह कृष्टिअंतरालोंमें निपजती है । जो संग्रह कृष्टि-अंतरालोंमें निपजती हैं वे थोड़ी होती है। जो कृष्टि-अंतरालोंमें निपजती है वे असंख्यात गुणी होती है। संग्रह कृष्टि-अंतरालों में उत्पन्न होने वाली अपूर्व कृष्टियों की बिधि कृष्टिकरणके समय निष्पन्न होने वाली अपूर्व कृष्टियोंकी विधि जैसी कही है वैसी जाननी चाहिये । कृष्टि-अंतरालोमें निष्पन्न होने वाली कृष्टियों की विधि बध्यमान प्रदेशपुंजसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कष्टियोंकी विधि जैसी कही है बैसी जाननी चाहिये । (१०) कृष्टि-वेदक के प्रथम समयमें क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके असंख्यातवें भागका विनाश होता है। जो कृष्टियां प्रथम समयमें विनाश को प्राप्त होती हैं वे बहुत होती है। जो कृष्टियाँ दूसरे समय में विनाशको प्राप्त होती है वे असंख्यात गुणी हीन होती हैं । उसोप्रकार क्रोध संज्वलन की प्रथम संग्रह कुष्टिके द्विचरम समय तक जानना चाहिये। (११) इस प्रकार क्रोध संज्वलन की प्रथम कृष्टि के वेदन करनेवाले जीवके जब एक समय अधिक एक आवली काल शेष रहता है उस समय यह जीव (१) क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। (२) क्रोध संज्वलन की प्रथम कृष्टि का अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है । (३) संज्वलन अनुभाग सत्कर्मको जो अनुसमय अपवर्तना प्रवृत्त हुई थी वह उसी प्रकारसे प्रवृत होती रहती है (४) चार संज्वलनोंका स्थितिबंध दो महीना और अन्तर्मुहूर्त कम चालिस दिवस प्रमाण होता है । (५) चारों संज्वलनों का स्थिति सत्कर्म छह वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम आठ माह प्रमाण होता है । (६) तीन घातिया कर्मों का स्थितिबंध अन्तर्महर्त कम दस वर्ष प्रमाण होता है । (७) घातिकोका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्षप्रमाण होता है।1८) शेषकर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है। (१२) तदनन्तर क्रोधसंज्वलनको दूसरी कृष्टिको प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उस समय क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका सत्कर्म दो समयकम दो आवलि प्रमाण नवकबन्ध शेष रहता है और जो उदयावलि प्रविष्ट द्रव्य है वह शेष रहता है । तथा उस समय यह क्षपक क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रहकष्टिका वेदक होता है। सो इसकी विधि पहली संग्रहकृष्टिके वेदक जीवके समान जाननी चाहिये। अब यहाँ पर संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजको विधिको बतलाते हुए लिखा है कि क्रोधसंज्वलनको दसरी संग्रहकृष्टिसे प्रदेशपुंज क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें और मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है । तथा क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें ही संक्रमित होता है । मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मानकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टि में तथा मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमिक होता है । मानकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मानकी तीसरी और मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होता हैं। तथा मानकी तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मायाकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टि में तथा लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है । मायाकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मायाकी तीसरी और लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होता है । तथा मायाकी तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है। लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज लोभकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियों में संक्रमित होता है । तथा लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज लोभको तीसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है । लोभको तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज किसी अन्यमें संक्रमित न होकर उसका स्वमुखसे ही विनाश होता है। यह संक्रमणकी परिपाटी क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदक काल के समय भी होती है ऐसा वहाँ जानना चाहिये। साथ ही यह भी एक नियम है कि जिस समय जिस कषायकी जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस समय उस कषायको उग संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है तथा शेष कषायोंकी प्रथम संग्रहकृष्टिका बन्ध करता है। क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करने वाले क्षपक जीवके जो ११ संग्रहकृष्टियां होती हैं उनमें अन्तर कृष्टियोंका अल्प बहुत्व किस प्रकार होता है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि मानकी प्रथम हष्टि में अन्तर कृष्टियां सबसे थोडी होती हैं। मानकी दसरी संग्रह कष्टि में अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं। मानकी तीसरी संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती है। क्रोधको तीरारी संग्रह कृष्टि में अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं। मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टि में अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती हैं। मायाकी दूसरी संग्रह कृष्टि में अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं । मायाकी तीसरी संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती है। लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती है। लोभको दूसरी संग्रहकृष्टिमें अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती है। लोभकी तीसरी संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती हैं । क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टि में दूसरी अन्तर कृष्टियाँ संख्यातगुणी होती हैं । इनमें प्राप्त होनेवाले प्रदेशपुंजका अल्पबहुत्व भी इसी प्रकार जानना चाहिये ।। क्रोधसंज्वलनका दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके जो प्रथम स्थिति होती है उसमें आवलि प्रत्यावलि प्रमाण काल शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है। तथा उसकी एक समय अधिक प्रथम स्थितिके शेष रहने पर क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका अन्तिम समयवृती वेदक होता है । उस समय संज्वलनका स्थितिबंध दो माह और कुछ कम बीस दिवस प्रमाण होता है। तीन घातिकोका स्थितिबंध बर्षपृयक्त्व प्रमाण होता है। शेष कर्मोंका स्थितिबंध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । संज्वलनोंका स्थिति सत्कर्म पाँच वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार माह प्रमाण होता है। तीन घातिकोका स्थितिसकर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है। नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म असंख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है। उसके बाद अनन्तर समयमें क्रोधकी तीसरी कृष्टिमें से प्रदेशजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उस समय क्रोवकी तीसरी संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियोंका असंख्यात बहभाग उदीर्ण होता है । तथा उन्हीं के असंख्यात बहुभागका बंध करता है। इसकी विधि दूसरी कृष्टिका वेदन करने वालेके समान जानना चाहिये। इसकी प्रथम स्थिति आवलि और प्रत्यावलि प्रमाण शेष रहनेपर वह अन्तिम समयवृती वेदक होता है। उस समय वह जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। उस समय संज्वलनोंका स्थिति बन्ध पूरा दो माह प्रमाण होता है । तथा सत्कर्म पूरा चार माहप्रमाण होता है। तदनन्तर समयमें मानकी प्रथम कृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। यहाँपर मान वेदकका जो सम्पूर्ण काल है उस कालके तृतीय भाग प्रमाण प्रथम स्थिति होती है । उसके बाद मानकी प्रथम कृष्टिका वेदन करने वाला वह जीव उस प्रथमकृष्टिको अन्तर कृष्टियोंके असंख्यात बहभागका वेदन करता Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तथा जितमी कृष्टियोंका वेदन करता है उनसे कुछ हीन कृष्टियोंका बन्ध करता है। तथा शेष कषायोंकी प्रथम संग्रहकृष्टियोंका बन्ध करता है। इसकी विधि भी क्रोधकी प्रथम कृष्टिके समान जाननी चाहिये। इसकी प्रथम स्थिति जब एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण शेष रह जाती है तब तीनों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध एक महीना और अन्तर्महर्त कम बीस दिवस प्रमाण होता है। तथा स्थितिसत्कर्म तीन वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार माह प्रमाण होता है । __तदनन्तर समयमें मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है । इसकी भी विधि पूर्वके समान जानना चाहिये। जब कि इस प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहता है तब संज्वलनोंका स्थितिबन्ध एक माह और कुछ कम दस दिवस प्रमाण होता है। और सत्कर्म दो वर्ष तथा कुछ कम आठ माह प्रमाण होता है। उसी समय यह मानका अन्तिम समयवृत्ती वेदक होता है। तब तीनों संज्वलनोंका स्थितिबंध पूरा एक माह प्रमाण होता है। तथा स्थिति सत्कर्म पूरा दो वर्ष प्रमाण होता है। इसके बाद तदनन्तर समयमें मायाका प्रथम संग्रह कृष्टिके प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। इसकी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने तक वही विधि जाननी चाहिये। उस समय दो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध कुछ कम पचीस दिवस प्रमाण होता है। तथा स्थिति सत्कर्म एक वर्ष और कुछ कम आठ माह प्रमाण होता है। तदनन्तर समयमें मायाकी दूसरी संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। इसके एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने तक वही विधि जाननी चाहिये। उस समय इसका स्थितिबन्ध कुछ कम बीस दिवस प्रमाण होता है तथा स्थिति सस्कर्म कुछ कम सोलह माह प्रमाण होता है। तदनन्तर मायाको तीसरी संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उसकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक पूर्ववत् विधि जाननी चाहिये। उस समय मायाका अन्तिम समय वेदक होता है। तब दो संज्वलनोंका स्थितिबंध पूरा आधा माहप्रमाण होता है तथा स्थिति सत्कर्म पूरा एक वर्ष प्रमाण होता। तीन घातिकर्मोका स्थितिबन्ध माहपृथक्त्व प्रमाण होता है तथा उम्हींका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है। शेष कौंका स्थिति सत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है। तदनन्तर समयमें लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टि में से प्रदेश पुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। इसकी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक वही विधि जाननी चाहिये । उस समय लोभ संज्वलनका स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। तथा स्थितिसत्कर्म भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। इन घाति कोका स्थितिबंध दिवसपृथक्त्व प्रमाण होता है। शेष कोका स्थितिबन्ध वर्षपृथकत्व प्रमाण होता है। घातिकर्मों का स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है तथा शेष कर्मोका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है । तदनन्तर समयमें लोभकी दूसरी संग्रहकष्टिमेंसे प्रदेश पंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उसी समय लोभकी दूसरी और तीसरी संग्रहकुष्टियोंमेंसे प्रदेशजका अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको करता है। उनको लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिके नीचे करता है तथा क्रोधकी प्रथम सग्रहकृष्टि जिस प्रकारको है उसी प्रकारकी इसे जानना चाहिये । इसके बाद प्रथम समय में की गई सूक्ष्मसाम्परागिक कृष्टियां कितनी होती हैं और प्रथमादि समयोंमें वे कितनी की जाती है . अल्पबहुत्वविषिसे इसका निर्देश करके उनमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका निर्देश किया Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४) गया है। आगे श्रेणिप्ररूपणाका कथन करते हुए बतलाया है कि अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिसे बादरसाम्परायिक कृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा हीन होता है । उसके बाद सर्वत्र विशेष हीन द्रव्य देता है। दूसरे समयोंमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको करनेवाला क्षपक असंख्यातगुणी हीन सुक्ष्भसाम्परायिक कृष्टियोंको करता है। उन्हें प्रथम समयमें की गई कृष्टियोंके नीचे करता है और अन्तराल में करता है । नीचे की गई कृष्टियोंसे अन्तरालमें असंख्यातगुणी कृष्टियोंको करता है । जो दूसरे समय में जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंज देता है। दूसरी कृष्टिमें अनन्तभागहीन प्रदेशपुंज देता है । इस प्रकार जाकर प्रथम समयमें जो जघन्य सूक्ष्मसाम्पराधिक कृष्टि है उसमें असंख्यात भागहीन द्रव्यको देता है। उसके आगे निर्वर्त्यमान अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होनेतक अनन्तभागहीन द्रव्य देता है। तथा निर्वर्त्यमान अपूर्व कृष्टि में असंख्यात भाग अधिक द्रव्य देता है । पहले निर्वतित कष्टिमें प्रतिपद्यमान प्रदेशपुंज असंख्यात भागहीन होता है। आगे अनन्तभागहीन जानना चाहिये। दूसरे समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजको जो विधि बतलाई है वही विधि बादरसाम्परायिकके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक दिये जानेवाले द्रव्यको सब समयोंमें जाननी चाहिये। आगे इसके वष्टियोंमें दिखने वाले प्रदेशपुंजको प्ररूपणा आदि करके लोभकी अन्तिम बादरसाम्परायिक कृष्टिमेंसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें जो प्रदेशपुंज संक्रमित होता है वह सबसे थोड़ा है। लोभकी दूसरी कृष्टिमेंसे अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिमें जो प्रदेशपुंज संक्रमित होता है वह संख्यातगुणा हैं । लोभकी दूसरी कृष्टिमेंसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि में जो द्रव्य संक्रमित होता है यह संख्यातगुणा है । कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें क्रोधको दूसरी कृष्टिमेंसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह सबसे थोड़ा है । क्रोधकी तीसरी कृष्टि मेंसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि में जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। मानकी प्रथम कृष्टिमेंसे मायाको प्रथम कृष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। मानकी दूसरी संग्रह कृष्टिमेंसे मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। मानकी तीसरी संग्रह कृष्टिमेंसे मायाकी प्रथम संग्रह कष्टियोंमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिमेंसे लोभकी प्रथम संग्रहकुष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है । मायाको दूसरी संग्रह कृष्टिमेंसे लोभको प्रथम संग्रहकृष्टि में जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। मायाकी तीसरी संग्रहकष्टिमेंसे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। लोगकी ही प्रथम संग्रहकष्टिमेंसे लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। लोभकी ही प्रथम संग्रह कृष्टिमेंसे उसीकी तीसरी संग्रहकृष्टि में जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक है। क्रोधकी प्रथम संग्रहकष्टिमेंसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि में जो द्रव्य संक्रमित होता है वह संख्यातगुणा है। क्रोधकी ही प्रथम संग्रह कृष्टिमेंसे क्रोधकी ही तीसरी संहकृष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह विशेष अधिक होता है । क्रोधको ही प्रथम संग्रह कृष्टिमेसे क्रोधकी ही दूसरी संग्रहकृष्टिमें जो द्रव्य संक्रमित होता है वह संख्यातगुणा होता है । यह प्रदेशसंक्रम यद्यपि पहले आ चुका है, परन्तु सूक्ष्मसाम्परायिक कृप्टियोंका आधार होनेसे यहां कहा गया है । . सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें प्रथम समयमें जो द्रव्य दिया जाता है वह सबसे थोड़ा है । दूसरे समयसे लेकर अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा द्रव्य दिया जाता है। इस क्रमसे लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकके जब प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रह जाता है तब वह क्षपक अन्तिम समावर्ती बादर साम्परायिक होता है। और उसी समय लोभकी अन्तिम समयवर्ती बादर साम्परायिक कृष्टि संक्रमित होती हुई संक्रमित हो जाती है। तथा लोभकी दूसरी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) संग्रहकृष्टि के भी एक समय दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध और उदयावलिप्रविष्ट हुए द्रव्यको छोड़कर दूसरी संग्रहकृष्टिमें शेष सब अन्तरकृष्टियाँ संक्रमित होती हुई संक्रमित हो जाती हैं । उसी समय लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता । तीनघातिकर्मो का स्थितिबन्ध दिन-रात के भीतर होता है । तथा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध एक वर्ष के भीतर होता है । अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक के मोहनीयका स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । तीन घातिकर्मो का स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । तथा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है । तदनन्तर समय में यह जीव सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है । उसी समय सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों की स्थितियाँ हैं उन्हें कण्डक घात के लिये ग्रहण करता है । अतः प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके उदयमें थोड़ा द्रव्य देता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा असंख्यात गुणा देता है । उस समय जो गुण श्रेणि निक्षेप करता है उसका काल सूक्ष्मसाम्परायिक के कालसे कुछ अधिक होता है । तथा गुणश्रेणिशीर्षसे जो अनन्तर स्थिति है उसमें असंख्यातगुणा द्रव्य देता है । उसके आगे, पूर्व समय में अन्तर था उस अन्तरको अन्तिम स्थितिके प्राप्त होने तक विशेष ही द्रव्य देता है । उसके बाद पूर्वकी प्रथम स्थिति में दिये जानेवाला द्रव्य संख्यातगुणा हीन होता है । उसके बाद क्रमसे विशेष होन द्रव्य प्रत्येक स्थितिमें देता हुआ वहाँ तक देता जाता है जहाँ जाकर जो स्थिति प्राप्त होती है उससे आगे एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है । अर्थात् अन्तिम जिस स्थिति के द्रव्यका अपकर्षण करता है उसमें नहीं देता और उससे नीचे अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण स्थिति में नहीं देता । शेष सब स्थितियों में देता । इस प्रकार प्रथम स्थितिकाण्डकके निर्लेपित होनेतक यही क्रम जानना चाहिये । दूसरे स्थितिकाण्डकसे अपकर्षण करके जो प्रदेशपुंज उदयमें दिया जाता है वह सबसे थोड़ा होता है । इसके बाद गुणश्रेणीशीर्षसे उपरिम अनन्तर एक स्थितिके प्राप्त होनेतक असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे प्रदेशपुंजको देता है । उसके बाद विशेषहीन क्रमसे देता है । यहाँसे लेकर सूक्ष्मसांपरायिक क्षपकके जबतब मोहनीय कर्मका स्थितिघात होता है तबतक यही क्रम जानना चाहिये। इसके बाद दिखाई देनेवाले प्रदेशपुंजकी प्ररूपणा करके सूक्ष्मसां परायिक क्षपकके प्रथम स्थितिकांडक के प्रथम समय में निर्लेपित होनेपर गुणश्रेणीको छोड़कर शेष स्थितियों में एक गोपुच्छा किस प्रकार से हो गई है इसे स्पष्ट करते हुए अल्पबहुत्व द्वारा बतलाया है कि सूक्ष्मसाम्परायिकका काल सबसे थोड़ा है। उससे प्रथम समय में सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके मोहनीयका गुणश्रेणी निक्षेप विशेष अधिक है । उससे अन्तर स्थितियाँ संख्यातगुणी है । उससे सूक्ष्मसाम्परायिक क्ष कके मोहनीका प्रथम स्थितिकाण्डक संख्यात गुणा है । उससे प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक के मोहनीयका स्थिति सत्कर्म संख्यात गुणा है । इस प्रकार लोभकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपककी जो प्रथम स्थिति होती है उस प्रथम स्थितिका जब तीन आवलिप्रमाण काल शेष रहता है तबतक लोभकी दूसरी कृष्टिसे लोभकी तीसरी कृषि में प्रदेशष्ठुंज संक्रमित होता रहता है । उससे आगे संक्रमित नहीं होता किन्तु सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में समस्त प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है । लोभ की दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके जो प्रथम स्थिति है उसमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहनेपर उस समय जो लोभकी तीसरी कृष्टि है वह पूरी ही सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित हो जाती है । उस समय यह क्षपक जीव अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक होकर मोहनीय कर्मका अन्तिम समयवर्ती बन्ध करनेवाला होता है । तथा तदनन्तर समय में यह क्षपक जीव प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है । उस समय सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागकी उदीरणा करता है । आगे अल्पबहुत्वका कथन करते हुए Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) बतलाया है कि नोचेको अनुदीर्ण हुई सूक्ष्ममाम्परायिक कृष्टियाँ सबसे थोड़ी हैं। ऊपरको अनुदीर्ण हुई सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। मध्य में उदीर्ण हुई सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिय असंख्यातगुणी है । इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर मोहनीयका जो अन्तिम स्थितिकाण्डक है उसके उत्कीर्ण किये जानेपर मोहनीय कर्मका जो गुणश्रेणी निक्षेप है उसके असे संख्यातवें भागको ग्रहण करता है । इस प्रकार उस स्थिति काण्डकके उत्कीर्ण होनेपर उसके बाद मोहनीय कर्मका स्थितिकाण्डकघात नहीं होता । तथा उस समय सूक्ष्मसाम्परायिक जितना काल शेष रहता है मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म उतना ही शेष रहता है जो क्रमसे निर्जराका प्राप्त हो जाता है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची कृष्टिकरणद्धाकी प्ररूपणा क्रोधवेदगद्धा के तीन भाग करके क्रमसे उनकी प्ररूपणा प्रसंगसे अन्य स्थितिबन्ध आदिका निर्देश पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों से कृष्टिकरण विधिका निर्देश अवयव कृष्टियोंके प्रमाणका निर्देश प्रथम समय में रची गई कृष्टियोंकी तीव्र-मन्दता सम्बन्धी अल्पबहुत्वका निर्देश संग्रह कृष्टियोंका निर्देश कृष्टि अन्तरका निर्देश इन दोनों कृष्टियों के अल्पबहुत्वका निर्देश प्रथम समय सम्बन्धी कृष्टियों में प्रदेशों सम्बन्धी श्रेणी प्ररूपणाका निर्देश परंपरोपनिधाकी अपेक्षा श्रेणिप्ररूपणाका निर्देश दृश्यमान द्रव्यकी अपेक्षा उक्त विषयका निर्देश कृष्टि सम्बन्धी ओर स्पर्धक सम्बन्धी गोपुच्छा एक होती है या दो होती है इस विषय में सम्प्रदाय भेदका निर्देश दूसरे समय में कितनी अपूर्व कृष्टियों की जाती हैं इसका निर्देश एक-एक संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंके किये जानेकी सूचना दूसरे समय में दीयमान प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा का निर्देश दूसरे समय में दीयमान प्रदेशपुजकी श्रेणि उष्ट्रकूटश्रेणिके समान होने का निर्देश इस विधि से सब समयोंमें तेईस उष्ट्रकूट श्रेणियाँ बन जानेका निर्देश प्रकृतमें दीयमान प्रदेशपुंजसे दृश्यमान प्रदेशपुंज कितना हीन होता है इसका निर्देश प्रकृतमें दोयमान प्रदेशपुंजके अल्पबहुत्वका निर्देश २७ कुष्टिकरणके अन्तिम समय में स्थितिबन्धका निर्देश १ १ २ ४ ५ ५ ८ १० १२ २२ २४ २५ २५ २५ २६ २७ ३४ ३५ ३६ ३६ ३६ प्रकृत में स्थिति सत्कर्म का निर्देश कृष्टिकारक पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंका वेदन करता है इसका निर्देश प्रथम स्थिति में एक आवलिकाल शेष रहनेपर कृष्टिकरणकाल समाप्तकर उसके अनन्तर समय में कृष्टियोंको उदयावलिमें प्रवेश कराता है इसका निर्देश उस समय होनेवाले स्थितिबन्धका निर्देश प्रकृत में क्रोधसंज्वलन के उदयावलि प्रविष्ट सत्कर्मके सर्वघाति होने का निर्देश उस समय संज्वलनोंके जो नवकबन्ध स्पर्धकगत देशघाति होते हैं उसका निर्देश इनके अतिरिक्त जो अनुभाग सत्कर्म शेष रहता है उसके दृष्टिगत होनेका निर्देश लम्बी क्रोध संज्वलमकी प्रथम संग्रह कृष्टिके प्रथम स्थिति करनेका निर्देश इस समय क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका कितना भाग उदीर्ण होता है इसका निर्देश और कितना भाग बँधता है, इसका निर्देश उस समय इसकी दो संग्रह कृष्टियाँ न बंधती हैं और न वेदी जाती हैं इसका निर्देश आगे एतद्विषयक अल्पबहुत्वका निर्देश आगे कृष्टिवेदक कालको स्थगित करके एतद्विषयक गाथा सूत्रोंके निर्देशकी सूचना प्रथम मूलगाथाका निर्देश इसमें प्रतिपादित चार अर्थोकी सूचनाके साथ तीन भाष्यगाथाओंके कहने की प्रतिज्ञा प्रथम भाष्यगाथा दो अर्थों में निबद्ध है इसकी सूचनाके साथ उसका निर्देश प्रत्येक कषायकी कुल संग्रह कृष्टियों और अन्तर कृष्टिय कितनी होती हैं इसका निर्देश क्रोधसे श्रेणि चढ़ने पर १२ संग्रह कृष्टियाँ होती हैं इसका निर्देश मानसे श्रेणि चढ़ने पर नो संग्रह कृष्टियां होती है इसका निर्देश ३७ ३७ ३८ ३९ ४० ४० ४० ४१ ४३ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ४९ ५० ५१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) ५२ ५४ ५५ ५७ 65 ५ मायासे श्रेणि चढ़ने पर छह संग्रह कृष्टियाँ कालकी अपेक्षा छह भाष्यगाथाओं द्वारा होती हैं इसका निर्देश ५१ मीमांसाका निर्देश ७२ लोभसे श्रेणिसे चढ़नेपर तीन संग्रह कृष्टियाँ प्रकृतमें स्वस्थान और परस्थानकी अपेक्षा अल्पहोती है इसका निर्देश ५१ बहुत्वका निर्देश करनेवाली प्रयम भाष्यगाथा ७३ एक-एक संग्रह कृष्टिकी अनन्त अवयव कृष्टियों कौन संग्रह कृष्टि किससे प्रदेशपुजकी अपेक्षा के होनेका निर्देश कितनी अधिक है इसका निर्देश करनेवाली कृष्टिकरणके कालमें अपकर्षण करण होने के दूसरी भाष्यगाथा नियमकी सूचक भाष्यगाथा एतद्विषयक विशेष खुलासा संग्रहकृष्टियोंमें प्रदेशपुज और अनुभागका उपशामक लोभ वेदकके द्वितीय त्रिभागमें कृष्टियों तुलनात्मक विचार करनेवाली तीसरी भाष्यगाथा ८३ को करता हुआ अपकर्षक ही होता है इसका निर्देश आदिवर्गणामें शुद्ध शेषका विचार करनेवाली चौथी भाष्यगाथा परन्तु गिरनेवाला अपकर्षक और उत्तर्षक दोनों होता है इसका निर्देश . इसी बातको परंपरोपनिधारूप श्रेणिकी अपेक्षा स्पष्ट करनेका निर्देश कृष्टिके लक्षणकी प्रतिपादन करनेवाली तीसरी भाष्यगाथा द्वारा लक्षण का निर्देश । पूर्वमें जो क्रोधकी अपेक्षा कथन किया है वही स्पर्धकके लक्षणका निर्देश कथन शेष कषायोंकी अपेक्षा जाननेकी कृष्टिके लक्षणका निर्देश सूचना करनेवाली पांचवीं भाष्यगाया ८८ कृष्टिगत अनुभागके अल्प बहत्वका निर्देश मूलगाथाके 'अनुभागग्गेण' दूसरे पदके अनुसार कृष्टिके निरुक्त्यर्थका निर्देश क्रोधादि सम्बन्धी द्वितीयादिके अनुभागसे दूसरी मूल गाथाकी सूचनाके साथ उसमें प्रति प्रथमादि संग्रह कृष्टियोंका अनुभाग पादित अर्थका निर्देश अनन्तगुणा होता है इसका प्रतिपादन इसमें आई हुई दो भाष्यगाथाओंकी सूचना करनेवाली एक भाष्यगाथा ६३ मूल गाथाके तीसरे पदका 'च कालेण' के अनुसार मूल गाथाके पूर्वाधिमें निबद्ध प्रथम भाष्यगाया कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें मोहनीय कर्मके द्वारा कितनी स्थितियों और अनुभागोंमें स्थितिसत्त्वका विचार करनेवाली विवक्षित सभी कृष्टियाँ होती है इसका प्रथम भाष्यगाथा निर्देशपूर्वक खुलासा क्षपक जिस कृष्टिको बेदता है उसका सान्तर वेद्यमान संग्रह कृष्टिकी कितनी कष्टियाँ उदय _ स्थिति में होती हैं इसका निर्देश यवमध्य सहित दोनों स्थितियों में अवस्थानअवेद्यमानसंग्रहकृष्टिकी प्रत्येक कृष्टि किस स्थिति को सूचक दूसरी भाष्यगाथा ९८ में रहती है और किसमें नहीं रहती इसका चूमिसूत्रोंमें इसी विषयको अल्पबहुत्व द्वारा निर्देश ६६ सूचित करनेका निर्देश १०० अनभागको अपेक्षा प्रकृतमें विशेष विचार ६७ प्रकतमें सान्तर यवमध्य किस प्रकार घटित दूसरी भाष्यगाथा द्वारा वेद्यमान और भवेद्यमान होता है इसका निर्देश संग्रहकृष्टि सम्बन्धी विशेष विचार ६८ प्रकृतमें शुद्ध शेष असंख्यातवें भागका निर्देश तीसरी मूलगाथा द्वारा प्रदेशपुंज आदिकी अपेक्षा करनेवाली तीसरी भाष्यगाथा १०२ कृष्टियों के हीनाधिकपनेकी सूचनाका निर्देश ७० प्रथम स्थितिमें गुणश्रेणिका निर्देश करनेवाली प्रदेशपुंजकी अपेक्षा पाँच भाष्यगाथाओंद्वारा चौथी भाष्यगाथा १०४ भीमांसाका निर्देश ७१ प्रथमादि समयोंमें उदयमें प्रवेश करनेवाला द्रव्य अनुभागपंजको अपेक्षा एक भाष्यगाथाद्वारा असंख्यात गुणित श्रेणीरूप होता है इसका मीमांसाका निर्देश निर्देश करनेवाली पांचवीं भाष्यगाथा नायगाथा ८९ ७२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चादानुपूर्वीसे कृष्टिवेदक करनेवाली छठी भाष्यगाथा कालका विचार क्षपक के किस गति आदि के पूर्वबद्ध कर्म इस होते हैं इसका निर्देश करनेवाली चौथी मूलगाथा कितने इन्द्रिय सम्बन्धी और कितने त्रस सम्बन्धी भवों द्वारा अर्जित कार्य इस क्षपकके होते हैं इसका निर्देश करने वाली दूसरी भाष्य गाथा ( २९ १०९ गति, इन्द्रिय और कायकी अपेक्षा प्रकृत विषयका विचार करनेवाली प्रथम भाष्यगाथा ११५ ११३ प्रकृत में किस मार्गणा आदिमें बद्ध कर्म इस क्षपक अभजनीय हैं और किस मार्गणा आदिमें बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं इसका विचार करनेवाली प्रथम भाष्य गाथा १२४ स्थिति, अनुभाग और कषायमेंसे किसकी अपेक्षा पूर्व बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं या नहीं हैं इसका विचार करनेवाली तीसरी भाष्यगाथा अन्य मार्गणाओं आदिकी अपेक्षा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके होते हैं इसका निर्देश करनेवाली पांचवीं मूल गाथा १२६ १२८ १२९ योगों की अपेक्षा प्रकृत विषयका विचार करनेवाली दूसरी भाष्यगाथा ज्ञानोपयोगकी अपेक्षा प्रकृत विषयका विचार करनेवाली तीसरी भाष्यगाथा दर्शनोपयोगकी अपेक्षा प्रकृत विषयका विचार करनेवाली चौथी भाष्यगाथा १३५ लेश्या, कर्म, काल और लिंग आदिकी अपेक्षा प्रकृत विषयका निर्देश करनेवाली छठी मूलगाथा १३६ लेश्या, साता, असाता और शिल्प कर्म आदिकी अपेक्षा प्रकृत विषयका विचार करने - वाली प्रथम भाष्यगाथा १३७ १३२ १३३ इस क्षपकके ये पूर्व बद्ध कर्म सब स्थितियों आदिमें नियमसे पाये जाते हैं इसका निर्देश करनेवाली दूसरी भाष्यगाथा भवबद्धकी अपेक्षा प्रकृत करनेवाली सातवीं मूल एक समय प्रबद्ध और विषयका संकेत गाथा अन्तरकरण के बाद छह आवलियों में बद्ध १४३ प्रथम भाष्यगाथा नव बन्धके संक्रमको किस विधिसे करता है इसका विचार करनेवाली दूसरी भाष्य गाथा १४६ १४८ १५३ इसी विषयको स्पष्ट करनेवाली तीसरी भाष्यगाथा कौन समय प्रबद्ध इस क्षपकके असंक्षुब्ध रहते हैं इसका विचार करनेवाली चौथी भाष्य १५७ १५८ गाथा एक और नाना समय प्रबद्ध शेष और भवबद्ध शेष आदि इस क्षपकके पाये जाते हैं इसका संकेत करनेवाली आठवीं मूलगाथा १५९ जिस स्थिति विशेष में और जिन अनुभागों में गाथा भवबद्ध शेष और समय बद्ध शेष होते हैं उसका निर्देश करनेवाली प्रथम भाष्य१६२ उत्तर श्रेणिमें उक्त कर्म नियमसे पाये जाते हैं इसका निर्देश करनेवाली दूसरी भाष्यगाथा १६९ असामान्य कर्म सम्बन्धी विचार करनेवाली तीसरी भाष्यगाथा १७३ प्रकृत में यवमध्य कहाँ होता है इसका निर्देश १७८ उत्कृष्ट अन्तर से युक्त अन्तमें जो असामान्य स्थिति प्राप्त होती है उसके आश्रय से विचार करनेवाली चौथी भाष्यगाथा यहाँ जिन चार भाष्य गाथाओंद्वारा क्षपकके आश्रयसे विचार किया है उनको अभव्यों के प्रायोग्य भी विवेचन करना चाहिये इस बातका निर्देश १८९ निर्लेपन स्थानोंकी प्ररूपणा के विषय में दो उपदेशोंका निर्देश एक उपदेश के अनुसार निर्देश १८४ १९० १९१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे उपदेश के अनुसार निर्देश प्रबाह्यमान उपदेशके अनुसार निर्देश प्रकृत में काल अल्पबहुत्वका निर्देश स्थानोंके अंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है इसका निर्देश मानाद्विगुणहानि आदि सम्बन्धी निर्देश एक स्थितिविशेष समयप्रबद्ध शेष व भवबद्ध शेष सम्बन्धी विचार प्रकृत में यवमध्य सम्बन्धी विशेष सूचना दूसरी भाष्यगाथा आघारसे ऊहापोह तीसरी भाष्यगाथा के आधारसे ऊहापोह चौथी भाष्यगाथा के आधारसे ऊहापोह अभव्यों के योग्य अन्य प्ररूपणाका निर्देश क्षपक या अक्षपकके विवक्षित कर्मोंके निर्लेपन कालको अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्देश एक समयके द्वारा निर्लेपित होनेवाले समय प्रबद्ध और भवबद्ध कम- अधिक कितने होते इसका निर्देश इस विधि से यवमध्यका निर्देश इस अपेक्षा अल्पबहुत्वका निर्देश इस अपेक्षा गुणहानि विचार ( ३० अल्पबहुत्व वेदकालके प्रथम समय में ज्ञानावरणादि कर्मोकी १९२ १९२ १९३ १९५ १९५ १९७ १९८ २०० २०४ २०५ २१० २१८ २२४ २२४ २२४ २२६ २२६ अपेक्षा विचार करनेवाली नौवीं मूल गाथा २३१ वेदकालके प्रथम समय में सब कर्मोंके स्थितिकर्म का विचार करनेवाली प्रथम भाष्यगाथा २३३ उसी समय सातावेदनीय आदिके स्थिति और अनुभागबन्धका निर्देश करनेवाली दूसरी भाष्यगाथा २३४ कृष्टिवेदक सम्बन्धी दो मूलगाथाओंको स्थगित करके सर्वप्रथम कृष्टिवेदककी परिभाषारूप अर्थकी प्ररूपणा करनेकी प्रतिज्ञा २३७ कृष्टिवेदक के प्रथम समयमें संज्वलन आदि किस कर्मका कितना स्थितिबन्ध और स्थिति सत्कर्म होता है इसका निर्देश २३८ कृष्टिवेदक के मोहनीयको अनुसमय अपवर्तना किस विधिसे होती है इसका निर्देश २३९ आगे उसके क्रोध कृष्टिके बन्धोदय सम्बन्धी अल्पबहुत्वप्ररूपणा मान, माया और और लोभ संज्वलनकी अपेक्षा निर्देश २४० २४४ क्रोध के सिवाय अन्य १९ संग्रह कृष्टियों के सम्बन्धसे अपूर्व कृष्टियोंकी रचनाका निर्देश इन अपूर्व कृष्टियोंकी रचना किस अवकाश में करता इसका निर्देश कितने अन्तर के बाद अपूर्व कृष्टियोंकी करता है इसका निर्देश २४५ २४८ रचना २५० २५२ बध्यमान प्रदेशपुंजकी निषेक प्ररूपणा संक्रम्यमाण प्रदेशपुंज से अपूर्व कृष्टियोंकी रचना दो अन्तरालोंमें करता है इसका निर्देश इन्हीं के विषय में विशेष खुलासा उन कृष्टि अन्तरोंकी संख्याका निर्देश प्रथमादि समयों में कितनी कृष्टियाँ विनष्ट होती हैं इसका निर्देश २५५ २५७ २६२ २६३ क्रोधका जघन्य स्थिति उदीरक कब होता है इसका निर्देश अनुभागeeकर्मकी अनुसमय अपवर्तना सम्बन्धी निर्देश २६७ चार संज्वलनोंका स्थितिबन्ध और स्थिति सत्कर्म सम्बन्धी निर्देश २६७ शेष कमौका स्थितिबन्ध और स्थिति सत्कर्मसम्बन्धी निर्देश stant दूसरी संग्रहकृष्टिकी प्रथम स्थिति करनेका विधान उस समय क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि कितनी शेष रहती है इसका निर्देश क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिके वेदककी विधिकी मीमांसा २७० उस समय क्रोध की दूसरी संग्रह कृष्टिके प्रदेशपुंजका संक्रम किसमें होता है इसका निर्देश २७२ क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिसे प्रदेशपुंज किसमें संक्रमित होता है इसका निर्देश मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे प्रदेशपुंज किसमें संक्रमित होता है इसका निर्देश २७२ २७३ २६६ २६८ २६९ २६९ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान की दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रदेशपुंज किस में संक्रमित होता है इसका निर्देश मानक तीसरी संग्रह कृटिसे प्रदेशपुंज किसमें संक्रमित होता है इसका निर्देश क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि के समान जिस समय जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस समय किसका बन्ध होता है एतद्विषयक ( ३१ ) मायाको प्रथमादि संग्रह कृष्टियोसे प्रदेशपुंज किसमें संक्रमित होता है इसका निर्देश २७३ क्रोध की प्रथम और दूसरी संग्रह कृष्टियों से प्रदेशपुंज किसमें सक्रमित होता है इसका निर्देश २७४ प्ररूपणा उस समय संज्वलनोंके स्थितिबन्धका निर्देश उस समय शेष कर्मोंके स्थितिबन्धका निर्देश उक्त कर्मोंके स्थिति सत्कर्मका निर्देश क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिके वेदकभावकी प्ररूपणा आदि २७३ उस समय संज्वलन आदि सब व मौके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मका निर्देश मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि विषयक विशेष प्ररूपणा प्रकृत में उपस्थित शंका-समाधानका निर्देश उस समय शेष कषायों के अनुभागबन्धकी प्रवृत्ति विषयक निर्देश मानको प्रथम संग्रहकृष्टिका किस प्रकार वेदन करता है इसका निर्देश प्रकृत में अन्य आवश्यक प्ररूपणाका निर्देश जब मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी प्रथम स्थिति २७३ प्ररूपणा २७४ ११ संग्रहकृष्टियों सम्बन्धी अन्तरकृष्टियों के अल्पबहुत्वका निर्देश प्रकृत में प्रदेशपुंज विषयक अलाबहुस्त्रका निर्देश २७८ क्रोधको दूसरी संग्रहकृष्टि विषयक अभ्य २७६ २७९ २७९ २८० २८० २८० २८२ २८३ २८४ २८६ २८६ २८७ समयाधिक एक आवलि प्रमाण शेष रहती है तब सभी कर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म कितना होता है इसका निर्देश २८७ मानकी दूसरी संग्रहकृष्टि विषयक विशेष प्ररूपणा मानकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवालेके संज्बनों स्थितिबंत्र और सत्व कितना होता है। इसका निर्देश २८९ मानकी तोसरी कृष्टि विषयक विशेष प्ररूपणा २८९ उस समय तीन संज्वलनोंका स्थितिबन्ध और सत्व कितना होता है इसका निर्देश २९० मायाकी प्रथम कृष्टिका प्रथम स्थितिकरण और वेदनका निर्देश २९० उस समय दो संज्वलनोंके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वका निर्देश २९० मायाके दूसरे कृष्टिकरण और वेदनका निर्देश २९० दोनों संज्वलनोंके स्थितिबन्ध और स्थिति सत्त्वका निर्देश २९० माया के अन्तिम समय वेदनके दोनों संज्वलनों के साथ शेष कर्मोंके स्थितिबन्ध और स्थितिसवका निर्देश २९१ लोमकी प्रथम कृष्टिकी प्रथम स्थितिकरण और वेदनका निर्देश २९२ उस समय लोभके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्वका निर्देश शेष कर्मोके स्थितिबन्ध और स्थिति सत्त्वका निर्देश २८८ २९३ इसका २९४ लोभकी दूसरी कृष्टिका प्रथम स्थितिकरण और वेदनका निर्देश सुक्ष्म कृष्टिकरण विधिका निर्देश सूक्ष्म कृष्टियोंका अवस्थान कहाँ निर्देश सूक्ष्म कृष्टियोंके स्वरूपका निर्देश अन्तर कृष्टियों के अल्प बहुत्वका निर्देश सूक्ष्म कृष्टियाँ किस समय कितनी की जाती हैं। इसका निर्देश ३०० सूक्ष्म कृष्टियो में किस समय कितने प्रदेश दिये जाते हैं इसका निर्देश सूक्ष्म कृष्टियोंकी श्रेणि प्ररूपणाका निर्देश अन्तिम सूक्ष्म कृष्टिसे बादर कृष्टिमें कितना प्रदेश पुंज मिलता है इसका निर्देश २९४ २९५ २९६ २९६ २९८ ३०१ ३०१ ३०२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे समय में की जानेवाली सूक्ष्म कृष्टियों के प्रमाण और अवस्थानका निर्देश तत्सम्बन्धी श्रेणिप्ररूपणाका निर्देश तत्संबन्धी अल्पबहुत्व आदिका निर्देश अन्य समयोंमें क्या विधि है इसका निर्देश प्रकृत में श्रेणिरूपणाका निर्देश सूक्ष्म कृष्टियोंकी रचना बादर कृष्टियों के द्रव्यके संक्रमसे होती है इससे लेकर अल्प बहुत्वका निर्देश कब सक्ष्म कृष्टियों में वितना द्रव्य दिया जाता है इसका निर्देश बादर साम्पराया अन्तिम समय क्या होनेपर प्राप्त होता है इसका निर्देश उस समय लोभ आदि सब कर्मोंके स्थितिबन्ध और स्थिति सत्वका निर्देश उसके अनन्तर समय में सूक्ष्मसाम्पराय होनेका निर्देश तब स्थितिकाण्डकविधि और गुणश्रेणि रचनाके कालका निर्देश ( ३२ ) ३०३ ३०३ ३०४ ३०६ ३०७ ३०९ ३१७ ३१७ ३१८ ३१९ ३२० गुणश्रेणिमें और अन्य स्थितियोंमें दिये जानेवाले द्रव्यका निर्देश ३२१ प्रथमादि समयों में श्रेणिप्ररूपणा के साथ अन्य कार्यका निर्देश ३२४ आगे गुणश्रेणिशीर्षके ऊपर एक स्थिति प्राप्त होनेतक किस विधिसे द्रव्य दिया जाता है इसका निर्देश प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसा परायिक क्षपकके उदय में स्तोक प्रदेशपुंजका निर्देश अन्तिम अन्तरस्थितिके प्राप्त होने तक विशेषहीन द्रव्यका निर्देश ३२८ उसके बाद विशेषहीन द्रव्य देता है इसका निर्देश ३२९ आगे मोहनीय कर्मका स्थितिघात होने तक यही क्रम चलता रहता है इसका निर्देश ३२९ प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परादिकके उत्कर्षण किये जानेवाले प्रदेशपुंजक्की श्रेणिप्ररूपणाका निर्देश ३३० ३३० ३३० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि- जड़वसहाइरिय विरइय- चुण्णिसुत्तसमणिदं सिरि-भगवंतगुणहरमडारोवइट्ठ कसायपाहुडं तस्स सिरि-वीर सेणाइरियविरइया टीका जयधवला तत्थ चारित्तमोक्खवणा णाम पंचदसमो प्रत्थाहियारो O * एत्तो से काले पहुडि किट्टीकरणद्धा । $ १. एत्तो अस्सकण्णकरण द्वासमत्तीवो उवरिमाणंतरसमय पहुडि किट्टीकरणद्धा होदि । तिस्से परूवणमिदाणि कस्सामो त्ति वृत्तं होइ । संपहि एदिस्से अद्धाए पमाणावहारणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो * छसु कम्मे संतेसु संछुद्धेसु जा कोधवेदगद्धा तिस्से कोधवेदगद्धाए तिणि भागा । जो तत्थ पढमतिभागो अस्सकण्णकरणद्धा, विदियो तिभागो किड्डीकरणद्धा,. तदियतिभागो किट्टीवेदगद्धा | २. पुरिसवेदचिराण संतकम्मेण सह छसु कम्मेसु संछुद्धेसु तत्तो पहुडि उवरिमा कोवेदगद्धा तिरसे तिसु भागेसु कदेसु तत्थ जो पढमतिभागो सो अस्सकण्णकरणद्धासरूवेण परुविदो, विदियति भागो एसो किट्टीकरणद्धासरूवेण एव्ह पयट्टदे । तदियतिभागो वि उवरि * हाँसे आगे तदनन्तर समयसे लेकर कृष्टिकरण काल होता है । $ १. 'एत्तो' अर्थात् अश्वकर्णकरण कालके समाप्त होनेसे उपरिम अनन्तर समयसे लेकर कृष्टिकरण काल होता है । अत: इस समय उसकी प्ररूपणा करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस कालके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगे के सूत्रका अवतार करते हैं * छह नोकषायोंके संक्रमण होनेपर जो क्रोधवेदककाल है उस क्रोधवेदक कालके तीन भाग हैं । उनमें जो प्रथम त्रिभाग है वह अश्वकर्णकरणकाल है, दूसरा त्रिभाग कृष्टिकरणकाल है और तीसरा त्रिभाग कृष्टिवेदककाल है । $ २. पुरुषवेदके पुराने सत्कर्मके साथ छह कर्मोंके संक्रमित होनेपर उससे आगे जो क्रोध वेदककाल है उसके तीन भाग करनेपर उनमें जो प्रथम त्रिभाग है वह अश्वकर्णकरणकाल रूपसे कहा गया है, दूसरा त्रिभाग यह कृष्टिकरण काल रूपसे इस समय प्रवृत्त है तथा तीसरा त्रिभाग भी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे किट्टोवेदगखासरूवेण पवत्तिहिदि त्ति सुत्तत्यसमुच्चओ । एवाओ तिष्णि वि अद्धाओ सरिसीओ ण होंति, किंतु पढमतिभागो बहुओ, विदियतिभागो विसेसहोणो, तदियतिभागो विसेसहीणो त्ति घेत्तव्यो । २ ३. संपहि एवंविहाए किट्टीकरणद्धाए पढमसमए जो वावारविसेसो द्विविबंधादिविसओ तप्पदुष्पायणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो * अस्सकण्णकरणे णिट्ठिदे तदो से काले अण्णो द्विदिबंधो । ४. अस्सकण्णकरणद्धाए चरिमसमए पुव्विल्लठिदिबंधे णिट्ठिदे तदो अण्णो द्विविबंधो तत्तो समयाविरोहेणोसरियूण किट्टीकारगपढमसमए बंधिदुमाढत्तो त्ति भणिदं होदि । आगे कृष्टि वेदककाल रूपसे प्रवृत्त होगा यह इस सूत्र का समुच्चय रूप अर्थ है । ये तीनों ही काल सदृश नहीं हैं, किन्तु उनमें से प्रथम त्रिभाग बड़ा है, दूसरा त्रिभाग विशेषहीन है और तीसरा त्रिभाग विशेष हीन है । ऐसा ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ - यहाँ अपूर्वं स्पर्धकोंकी रचना करनेके अनन्तर उनके अनुभागके नीचे उसे उत्तरोत्तर अनन्तगुणा - अनन्तगुणा होन करके कृष्टिरूपसे कैसे परिणमाता है इस विषयपर सांगोपांग विचार किया जा रहा है। इस प्रसंगसे सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि पूर्वस्पर्धक, अपूर्वस्पर्धक और कृष्टिकरण कहते किसे हैं । यह तो हम इसी ग्रन्थ भाग १३ में ही बतला आये हैं कि उपशम श्रेणिमें पूर्वस्पर्धकरूप रचना जो अनादि संसारसे लेकर होती आ रही है उससे नीचे यह अनिवृत्ति उपशमकजीव मात्र लोभ संज्वलनकी सूक्ष्म कृष्टिकरणकी क्रियाको ही सम्पन्न करता है । किन्तु यहां क्षपक श्रेणिमें यह जीव पूर्वस्पर्धकोंके नीचे अश्वकर्णकरण के काल में चारों कषायोंके अपूर्वं स्पर्धकोंको रचना करता है और अश्वकर्णकरणका काल सम्पन्न होनेके अनन्तर समयसे लेकर कृष्टिकरणकी क्रिया सम्पन्न करता है । अतः यहां इनके लक्षणोंपर प्रकाश डाल देना आवश्यक प्रतीत होता है । यथा (१) अनादि संसार अवस्था से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें अश्वकर्णकरण क्रियाके प्रारम्भ करनेके पूर्व तक यह जीव जो अनुभागस्पर्धकोंकी रचना करता है उन्हें पूर्वस्पर्धक कहते हैं । (२) संसार अवस्था में जो स्पर्धक कभी भी प्राप्त नहीं हुए, यहाँ तक कि जो स्पर्धक उपशम श्रेणिमें भी प्राप्त नहीं हुए, मात्र क्षपकश्रेणिमें ही अश्वकर्णकरणके काल में पूर्वस्पर्धकों में से उनके नीचे अनन्तगुणहानिरूपसे अपवर्तित होकर जिन स्पर्धकोंकी रचना यह जीव करता है उन्हें अपूर्व स्पर्धक कहते हैं । (३) जिस प्रकार स्पर्धकोंमें अनुभागकी अपेक्षा क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है उस प्रकार जहाँ अनुभाग रचनामें क्रमवृद्धि और क्रमहानि नहीं पाई जाकर यथासम्भव क्रोधादि चारों संज्वलन कषायों के पूर्व स्पर्धकों और अपूर्वं स्पर्धकों में से उनके नीचे प्रदेशपुंजका अपकर्षण कर उत्तरोत्तर अनन्तगुणित हानिरूपसे अनुभागकी रचना करना उसकी कृष्टिकरण संज्ञा है । यह कृष्टिकरण विधि अश्वकर्णकरण विधिके सम्पन्न होनेके अनन्तर समयसे प्रारम्भ होकर पूर्वोक्त कथन के अनुसार द्वितीय त्रिभाग में सम्पन्न होती है । $ ३. अब इस प्रकारके कृष्टिकरणकालके प्रथम त्रिभागमें जो स्थितिबन्ध आदि विषयक व्यापार विशेष होता है उसका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * अश्वकर्णकरण के समाप्त होनेपर उसके बाद अनन्तर समय में अन्य स्थितिबन्ध होता है । $ ४. अश्वकर्णकरणकालके अन्तिम समय में पूर्वके स्थितिबन्ध के समाप्त होनेपर उसके बाद अन्य स्थितिबन्ध उससे यथासमय कम होकर कृष्टिकरणके प्रथम समय में बाँधने के लिए ग्रहण करता Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए काण्डक परूवणा संजणाणमेय द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तूणटुवस्समेत्तो । सेसाणं कम्माणं पुम्बिलट्ठि विबंधाको संखेज्जगुणहो । तपाओग्गसंखेज्जवस्सस हस्तमेत्तो त्ति बटुव्वो । ३ * अण्णमणुभागखंडयमस्सकण्णकरणेणेव आगाइदं । ५. चदुन्हं संजलणाणमण्णमणुभागखंडय मेदम्मि समये आगाइज्जमाणमस्तकण्णायारेवागावं । तदो खंडय सरूवेणागाइदाणुभागो च लोभे थोवो होवूण मायादिपरिवाडीए जहाकममतगुणकमेण दट्ठव्वो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसम्भावो । नाणावरणादिकम्माणमणुभागद्यादी पुण अस्सकण्णकरण विसेसेण विरहिदो पुग्वद्यादिदसे साणुभागस्स अणंते भागे घेतून पयट्टदि त्ति घेत्तव्वो, अस्सकण्गकरणणियमस्स चदुसंजलणेसु चेव पडिबद्धत्तादो । * अण्णं द्विदिखंडयं चदुण हं घादिकम्माणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६६. कुदो ? तेसि संखेज्जवस्ससह स्सिय द्विविसंतकम्मादो संखेज्जगुणहाणीए पयट्टमाणस्स ट्ठिदिखंडयस्स तप्यमाणत्तविरोहादो । * णामामोद वेदणीयाणमसंखेज्जा भागा । है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । संज्वलनोंका यह स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण होता है। शेष कर्मोंका पूर्वके स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा होता है । अर्थात् शेष कर्मोंका तत्प्रायोग्य संख्यात हजार वर्षं प्रमाण जानना चाहिए । * अन्य अनुभागकाण्डक अश्वकर्णकरणके आकाररूपसे हो ग्रहण किया है। $ ५. इस समय चार संज्वलनोंके अन्य अनुभागकाण्डकको ग्रहण करते हुए अश्वकर्णकरणके आकाररूपसे ही ग्रहण किया है, इसलिए काण्डकरूपसे ग्रहण किया गया अनुभाग लोभमें स्तोक होकर मायादिकी परिपाटीके अनुसार यथाक्रम उत्तरोत्तर अनन्तगुणित क्रमसे जानना चाहिए इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका अर्थ है । पुनः ज्ञानावरणादि कर्मोके अनुभागका घात अश्वकर्णकरणविशेषसे रहित होकर पहले घात करनेसे जो अनुभाग शेष रहा है उसके अनन्त बहुभागको ग्रहण कर प्रवृत्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अश्वकर्णकरणका नियम चार संज्वलनों में ही प्रतिबद्ध है । विशेषार्थ - उक्त सूत्र द्वारा चार संज्वलनोंका अनुभाग ही अश्वकर्णके आकाररूपसे घात के लिए ग्रहण किया जाता है यह स्पष्ट किया गया है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मोंका घात करने के बाद जो अनुभाग शेष रहता है उसका अश्वकर्णकरणके आकाररूपसे रचना न होकर वह प्रति समय अनन्त बहुभागरूपसे घातके लिये प्रवृत्त होता है यह इस सूत्र का तात्पर्य है । * चार घातिकर्मोंका संख्यात हजार वर्ष प्रमाण अन्य स्थितिकाण्डक होता है । ६६. क्योंकि उन कर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है, इसलिए प्रत्येक स्थितिकाण्डक संख्यातगुणी हानिरूपसे प्रवृत्त होता है ऐसा स्वीकार करनेपर उस स्थितिसत्कर्मके तत्प्रमाण माननेमें विरोध आता है । * तथा नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका अन्य स्थितिकाण्डक असंख्यात बहुभागप्रमाण होता है। १. आ. प्रती संजलणाण- इतः प्रभृति संखेजगुणहीणो इति यावत् सूत्ररूपेणोपलभ्यते । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६७. तिण्हमेदेसिमघाविकम्माणं ठिदिखंडयघादो तक्कालभाविओ पुवघादिदावसेसटिदि. संतकम्मस्तासंखेज्जभागा त्ति घेतव्वो तेसिमसंखेज्जवस्सियटिदिसंतविलये पयट्टमाणस्स तस्स तहाभावाविरोहादो। संपहि तत्थेव कोहाविसंजलणाणं किट्टीकरणमाढवेमाणो एदेण विहाणेणाढवेदि ति जाणावण द्वगुत्तरो सुत्तपबंधो____ * पढमसमयकिड्डीकारगो कोधादो पुव्वफदएहितो च अपुव्वफदए हितो च पदेसग्गमोकड्डियूण कोहकिट्टीओ करेदि । माणादो ओकड्डियूण माणकिट्टीओ करेदि । मायादो ओकड्डियूण मायकिट्टीओ करेदि । लोभादो ओकड्डियूण लोभकिट्टीओ करेदि । 5 ८. अपुव्वफद्दयकरणविसयवावारविसेसं सव्वमुवसंहरिय किट्टीकरणाहिमुहो होदूण तप्पारंभपढमसमये वट्टमाणो पढमसमयकिट्टी कारगो गाम । सो कोहादो पुव्वफद्दएहितो अपुवफद्दएहितो च पदेसगस्सा संखेज्जविभागमोकड्डियूण अपुवफद्दयादिवग्गणादो हेट्ठा अणंतिमभागे कोहकिट्टीओ करेदि। एवं माण-माया-लोहावीणं पि अप्पप्पणो पदेसग्गमोकइडियण सगसगाधफयादिवरगणाहितो हेदा बादरकिट्रीओ करेदि ति एसो एत्थ सत्तत्थसमुच्चओ। संपहि एवं कोरमाणाओ ताओ कोहादिसंजलणेसु पडिबद्धाओ किट्टीओ किपमाणाओ त्ति आसंकाए तादयत्तावहारणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं * एदाओ सव्वाओ वि चउबिहाओ किट्टीओ एयफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो। ६७. इन तीन अघातिकर्मोंका तत्काल होनेवाला स्थितिकाण्डकघात पूर्व में घात होनेसे शेष बचे स्थितिसत्कर्मके असंख्यात बहुभागप्रमाण होता है क्योंकि उनका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है, इसलिए उसके उस रूपसे प्रवृत्त होने में विरोधका अभाव है। अब वहीं क्रोधादि संज्वलनोके कृष्टिकरणको आरम्भ करता हुआ इस विधिसे आरम्भ करता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * प्रथम समयमें कृष्टिकारक जीव क्रोधसम्बन्धी पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकोंसे प्रदेश. जका अपकर्षण करके क्रोचकृष्टियोंको करता है। मानसंज्वलनसे अपकर्षण करके मानकृष्टियोंको करता है । मायासंज्वलनसे अपकर्षग करके मायाकृष्टियोंको करता है और लोभ संज्वलनसे अपकर्षित करके लोभकृष्टियोंको करता है ६८. अपूर्वस्पर्धकके करने सम्बन्धी व्यापार विशेषका उपसंहार करके कृष्टिकरणके सम्मुख होकर उनके प्रारम्भ करनेके प्रथम समयमें विद्यमान यह जीव प्रथम समयवर्ती कृष्टिकारक संज्ञावाला होता है। वह क्रोधसम्बन्धा पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकोंसे प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके अपूर्वस्पर्धकोंकी आदि वर्गणासे नीचे अनन्तवें भागमें क्रोधकृष्टियोंको करता है । इसी प्रकार मान, माया और लोभसम्बन्धी भी अपने-अपने प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके अपने-अपने अपूर्वस्पर्धक सम्बन्धो वर्गणाओंसे नीचे बादर कृष्टियोंको करता है यह यहाँ इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब उन्हें इस प्रकार करता हुआ क्रोध आदि संज्वलनसे सम्बन्ध रखनेवाली वे कृष्टियां कितनी हैं ऐसी आशंका होनेपर उनके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र आया है ये सभी चारों प्रकारको कृष्टियां प्रकृष्ट गणनाकी अपेक्षा एक स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण होतो हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए किट्टोणं तिव्वमंददापरूवणा ६९. एदाओ अणंतरणिहिट्ठाओ सव्वाओ वि किट्टिओ होदि कसायसंबंधेण चउम्विहत्तमुवगयाओ संगहकिट्टीभेवेण बारसधा पविभत्ताओ तदवयवकिट्टीगणणाए केत्तियाओ होति त्ति भणिदे एयफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो त्ति तासि पमाणणिद्देसो कवो। १०. तत्य एयफद्दयवग्गणाओ ति वुत्ते एगाणुभागफद्दयस्स अविभागपलिच्छेयुत्तरकमेण णिरंतरमवलम्भमाणाओ पादेक्कमभवसिद्धिएहितो अणंतगृणमेत्तसरिसधणियपरमाणसमहारद्धाओ घेत्तवाओ। एवाओ पुण एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयसलागाहितो अणंतगुणाओ। कुदो एवं परिच्छिज्जदे ? अणंतरमेव परूविक्तप्पडिबद्धप्पाबहुआवो। एवं च परिच्छिण्णपमाणाणमेयफद्दयवग्गणाणमणंतभागमेत्ताओ एवाओ सव्वाओ किट्टीओ होति त्ति णिच्छयो कायम्वो, तप्पाओग्गाणंतरूहि एयफद्दयवग्गणासु ओवट्टिवासु तप्पमाणागमणवंसणावो। ११. एवमेदेण सुत्तेण किट्ठीणं पमाणावहारणं कादूण संपहि तासि चेव सरूवविसेसावहारणटुं तिव्व-मंददाविसयमप्पाबहुअं परूवेमागो सुतपबंधमुत्तरं भणइ * पढमसमए णिवत्तिदाणं किट्टीणं तिब्ब-मंददाए अप्पाबहुअं बत्तइस्सामो। ६९. अनन्तर निर्दिष्ट ये सब कृष्टियां कषायके सम्बन्धसे चार प्रकारकी होकर तथा संग्रह कृष्टियोंके भेदसे बारह भागोंमें विभक्त होकर उनसम्बन्धी अवयवकृष्टियां गणनाकी अपेक्षा कितनी होतो हैं ऐसा कहनेपर प्रकृष्ट गणनाकी अपेक्षा एक स्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं इस प्रकार इस सूत्र द्वारा उनके प्रमाणका निर्देश किया गया है। ६१०. वहां सत्रमे 'एगफयवग्गणाओ' ऐसा कहनेपर अनभागसम्बन्धी एक स्पर्धकके एक-एक अविभागप्रतिच्छेदके वृद्धिक्रमसे निरन्तर प्राप्त होनेवाली तथा प्रत्येक अभव्योंसे अनन्तगुणे सदृश धनवाल परमाणु समूहसे आरम्भ को गयो वर्गणाएं ग्रहण करनी चाहिए। पुनः ये एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धकशलाकाओंसे अनन्तगुणो होती हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान-अनन्तर हो कहे गये उससे सम्बन्ध रखनेवाले अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। और इस प्रकार प्रत्येक वर्गणाके प्रमाणको जानकर एक स्पर्धकसम्बन्धी एनके अनन्तवें भागप्रमाण ये सब कृष्टियां होती हैं ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि तत्प्रायोग्य अनन्त संख्यासे एक स्पर्धकसम्बन्धो वर्गणाओंके भाजित करनेपर उन कृष्टियोंके प्रमाणका आगमन देखा जाता है । विशेषार्थ-जैसा कि टोकामें स्पष्ट किया गया है यह कृष्टिकरणको प्रक्रिया मात्र चार संज्वलनोंको ही होती है, सत्तामें स्थित शेष कोको नहीं। चार संज्वलनोंकी होती हई भी अपर्व स्पर्धकोंमें जो सबसे जघन्य स्पर्धक है और उसको जितनी वर्गणाएँ हैं उनके मात्र अनन्त भागप्रमाण होकर भी ये सब कृष्टियाँ सबसे जघन्य वर्गणाके नीचे रची जाती हैं। इस प्रकार रची गयीं ये सब कृष्टियां संग्रह कृष्टि और अन्तर कृष्टिके भेदसे दो भागोंमें विभक होकर नामानुरूप ही इनके लक्षण है। क्रोधादि प्रत्येक संज्वलन कषायको ३-३ संग्रह कृष्टियां होती हैं और एक-एक संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियां अनन्त होता हैं। यहाँ एक कृष्टिसे दूसरो कृष्टिका जो गुणकार है, उसकी कृष्टि अन्तर संज्ञा है और एक संग्रह कृष्टि से दूसरा संग्रहकृष्टिक मध्य जो गुणकार है उसको संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है इतना विशेष जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है। ६११. इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा कृष्टियोंके प्रमाणका निश्चय करके अब उनके ही स्वरूप विशेषका अवधारण करने के लिए तीव्रता और मन्दता विषयक अल्पबहुत्वका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब प्रथम समयमें निष्पन्न हुई कृष्टियोंके तोवता-मन्दता विषयक अल्पबहुत्वको कहेंगे। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६ १२. सुगममेदं पयदप्पाबहुअपरूवणाविसयं पइण्णासुतं । * तं जहा। ६ १३. सुगममेदं पि पुच्छावक्कं । एत्य ताव कोहादिसंजलणकिट्टीओ पादेक्कं तोहिं पविभागेहिं रचेदव्वाओ। एवं रचणाए कदाए एक्केक्कस्स कसायस्स तिण्णि तिणि संगहकिट्टीओ होदूण सव्वसमासेण बारह संगहकिट्टीओ। तत्थ सव्वहेट्ठिमा लोभस्स पढमसंगहकिट्टी णाम । तिस्से अवांतरकिट्टीओ अणंताओ जादाओ । तत्तो उवरिमा लोभस्स चेव विवियसंगहाकट्टी णाम । तिस्से वि पमाणं पुव्वं व वत्तव्वं । एवं सेस-संगहकिट्टीणं पि समयाविरोहेण विण्णासो कायय्वो जाव कोहस्स चरिमसंगहकिट्टि ति । एवमेदासि किट्टीणं रचणं काढूण संपहि तिव्वमंदवाए अप्पाबहुअं सुताणुसारेण वत्तइस्सामो।। * लोहस्स जहणिया किट्टी थोवा । $१४. कुदो सव्वमंदाणुभागेण परिणदत्तादो। * विदिया किट्टी अणंतगुणा | ६ १५. कोगुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो। एवमुवरि वि सव्वत्य गुणगारपरूवणा कायव्या। * एवमणंतगुणाए सेढीए जाव पढमाए संगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । 5 १६. एवमेदेण विहाणेण लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए अवयवकिट्टीसु चरिमकिट्टीपज्जंतासु अणंतगुणाए सेढीए अप्पाबहुअभेदं णेवव्वमिदि वुत्तं होइ। णवरि सव्वत्थ हेट्ठिमहेट्ठिमगुणगारादो ६ १२. प्रकृत अल्पबहुत्वका प्ररूपणाविषयक यह अल्पबहुत्व सम्बन्धी प्रतिज्ञावचन सुगम है। * वह जैसे। १३. यह पृच्छासूत्र भी सुगम है। यहां सर्वप्रथम क्रोषादि संज्वलनों सम्बन्धी कृष्टियों में से प्रत्येककी तीन भागोंमें रचना करनी चाहिए । इस प्रकार रचना करनेपर एक-एक कषायकी तीनतीन संग्रह कृष्टियां होकर सबका योग बारह संग्रह कृष्टियां हो जाता है। उनमें से सबसे नीचे लोम संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टि है। उसकी अवान्तर कृष्टियां अनन्त हैं। उससे ऊपर लोभकी ही दूसरी संग्रह कृष्टि है। उसका भो प्रमाण पहलेके समान कहना चाहिए। इसी प्रकार शेष संग्रह कृष्टियोंकी भी क्रोषसंज्वलनको अन्तिम संग्रह कृष्टिके प्राप्त होने तक यथागम रचना करनी चाहिए। अब सूत्रके अनुसार तीव्रता-मन्दतासम्बन्धी अल्पबहुत्वको बतलायेंगे के लोभको जघन्य कृष्टि सबसे स्तोक है। १४. क्योंकि वह सबसे मन्द अनुभागसे परिणत होती है। * उससे दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी है। ६१५. गुणकार कितना है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र गुणकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए। * इस प्रकार अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टि तक जानना चाहिए। $१६. इस प्रकार इस विधिसे लोभको प्रथम संग्रह कृष्टि सम्बन्धी अन्तिम कृष्टि पर्यन्त अवयवकृष्टियोंमें अनन्त गुणित श्रेणिरूपसे यह अल्पबहुत्व होता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaraढोए किट्टीणं गुणगारपरूवणा रिमरिम किट्टी गुणगारो अनंतगुणो त्ति वत्तथ्यो। कुदो एवं परिचिछज्जदे ? उवरि भणिसमा किट्टी अप्पा बहुप्रदो । * तदो विदियाए संगह किट्टीए जहण्णिया किट्टी अनंतगुणा । $ १७. तदो लोभपढमसंगह किट्टीए चरिमकिट्टी दो तस्सेव विदियसंगह किट्टीए पढमकिट्टी अनंतगुणा त्ति भणिदं होदि । केम्महंतो एत्थ गुणगारो त्ति आसंकाए इदमाह * ऐस गुणगारो बारसहं पि संगह किट्टीणं सत्थाणगुणगारेहि अनंतगुणो । $ १८. जेण गुणगारेण लोभपढमसंगह किट्टी चरिमकिट्टीए गुणिदाए लोभस्स विदियसंगहकिट्टीए जहणकिट्टी समुप्पज्जदि सो परस्याणगुणगारो ति भण्णदे, संगह किट्टी भेवपणादो एसो बारसहं पि संगह किट्टीणमवयव किट्टीसु पडिबसत्यागगुणगारेहि सोहितो वि अनंतगुणो, कोहत दियसंग्रह किट्टि चरिमसत्याणगुणगारादो वि एदस्साणंतगुणत्तदंसणावो । अदो चैव संगहfight for विरुझ, गुणगारमाहप्पमस्सियूग तदुत्रवतोदो। एतो उवरि लोभविदियसंग्रह - किट्टीए अवयव किट्टी सत्याणगुणगारेणानंतगुणंत्तं पढमसंगह किट्टीभंगेण णेवव्यमिवि पटुप्पायणफलमुत्तरसुत्तं— * विदियाए संगकिट्टीए सो चेव कमो जो पढमाए संगह किट्टीए । १९. गयत्यमेदं सुत्तं । ७ इतनी विशेषता है कि नीचे-नीचेके गुणकारसे उपरिम- उपरिम कृष्टियोंका गुणकार अनन्तगुणा होता है ऐसा कहना चाहिए। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आगे कहे जानेवाले कृष्टिसम्बन्धी अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । * उससे दूसरी संग्रह कृष्टिको जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है । $ १७. उससे अर्थात् लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टिसे उसीकी दूसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी प्रथम कृष्टि अनन्तगुणी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहांवर गुणकार कितना बड़ा है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्र को कहते हैं * यह गुणकार बारहों संग्रह कृष्टियोंके स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा है । १८. जिस गुणकारसे लोभ संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तिम कृष्टिके गुणित करनेपर लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टि उत्पन्न होती है उसे परस्थान गुणकार कहते हैं, क्योंकि संग्रह कृष्टियोंकी भेद विवक्षासे यह गुणकार बारहों संग्रह कृष्टियोंसम्बन्धी अवयव कृष्टियों में प्रतिबद्ध स्वस्थान गुणकारोंको अपेक्षा सभीसे अनन्तगुणा होता है। कारण कि क्रोध की तीसरी संग्रह कृष्टिके अन्तिम स्वस्थान गुणकारसे भी यह गुणकार अनन्तगुणा देखा जाता है और इसीलिए संग्रह कृष्टिसम्बन्धी भेद भी विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि गुणकारके माहात्म्यका आश्रय करके उसकी उत्पत्ति होती है । इससे आगे लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिका गुणकार अवयव कृष्टियों में स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणापना प्रथम संग्रह कृष्टिके समान जानना चाहिए इस प्रकार इस कथन के फलस्वरूप आगेके सूत्रको कहते हैं * दूसरी संग्रह कृष्टिमें वही क्रम है जो प्रथम संग्रह कृष्टिमें स्वीकार किया गया है। ६ १९. यह सूत्र गतार्थ है । १. आ. प्रतौ एत्य इति पाठः । २. ता. आ. प्रत्योः अवयवसंगह किट्टोसु इति पाठः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जधवलासहिदे कसायपाहुडे * तदो पुण विदियाए च तदियाए च संगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव । ६ २०. जारिसं पढम-विदियसंगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव विविय-तदियसंगहकिट्टीणं पि अंतरमवहारेयव्वं, परत्थाणगुणगारमाहप्पेणेवस्स वि पुठवुत्तरासेससत्थाणगुणगारेहितो अणंतगुणत्तं पडि तत्तो भेदाभावादो। गवरि पुटिवल्लादो संगहकिट्टीअंतरावो एदमंतरमणंतगुणमिवि उवरिमपरूवणादो णिण्णयो कायव्वो। एस्थ गुणगारो चेव अंतरमिदि घेत्तव्यं, किट्टीगुणगारस्सेव किट्टीअंतरत्तेण विवक्खियत्तादो । एतो उवरि लोभस्स सदियसंगहकिट्टीए अवयवकिट्टीणं सत्थाणगुणगाराणुसारेण पुव्वं व पयदप्पाबहुअजोयणा कायव्वा, विसेसाभावादो। * एवमेदाओ लोभस्स तिण्णि संगहकिट्टीओ। - २१. णेदं सुत्तमाढवेयवं, अणुत्तसिद्धत्तादो त्ति णासंका कायठवा, संगहकिट्टीविसए अगहिदसंकेदाणं सिस्साणं तस्विसयणिच्छयउप्पायणटुमोइणस्सेदस्स सुत्तस्स सयलत्तोडलंभादो। ___* लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमा किट्टी तदो मायाए जहण्णकिट्टी अणंतगुणा। 5 २२. एत्थ गुणगारो सत्थाणगुणगारेहितो सम्वेहितो अणंतगुणो परत्याणगुणगारो। * मायाए वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ। * पुनः इससे आगे दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियोंका अन्तर वैसा ही है। २०. जैसा प्रथम और द्वितीय संग्रह कृष्टियोंका अन्तर है वैसा ही दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियोंका भी अन्तर है ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि परस्थान गुणकारके माहात्म्यवश यह भी पूर्व और उत्तर समस्त स्वस्थान गणकारोंसे अनन्तगणा है इस अपेक्षा उससे इसमें कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि पूर्वके संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तरकी अपेक्षा यह अन्तर अनन्तगुणा है इस प्रकार इसका उपरिम प्ररूपणासे निर्णय करना चाहिए। यहाँ गुणकार ही अन्तर है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रकृतमें कृष्टि गुणकार ही कृष्टि अन्तररूपसे विवक्षित है। इससे आगे लोभको तृतीय संग्रह कृष्टिसम्बन्धी गुणकारको, अवयव कृष्टियोंके स्वस्थान गुणकारके अनुसार, पहलेके समान प्रकृत अल्पबहुत्वको योजना करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * इस प्रकार ये लोभको तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं। $ २१. शंका-इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि बिना कहे ही इसकी सिद्धि हो जाती है? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिन शिष्योंने संग्रह कृष्टियोंके विषयमें संकेत ग्रहण नहीं किया है उनको एतद्विषयक निश्चय उत्पन्न करके लिए आये हुए इस सूत्रको सफलता उपलब्ध होती है। * लोभको तीसरी संग्रह कृष्टिको जो अन्तिम कृष्टि है उससे मायाको जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। २२. यहाँपर गुणकार सभी स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा परस्थान गुणकार है। आशय यह है कि यह परस्थान गुणकार है, इसलिए सभी स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा है। * मायाको भी उसी क्रमसे तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढिए किट्टीणं गुणगारपरूवणा $ २३ जहा लोभस्स तिण्हं संगहकिट्टीणमप्पाबहुअपरूवणा कदा तहा मायाए वि तिण्हं संगहकिट्टीणं पयदप्पाबहुअजोयणा कायन्वा ति वुत्तं होइ । सेसं सुगमं। * मायाए जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो माणस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा। ६२४. परत्याणगुणगारमाहप्पमेत्य वि पुठ्वं व बट्रव्यं । * माणस्स वि तेणेव कमेण तिणि संगहकिट्टीओ। * माणस्स जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो कोधस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा। * कोहम्म वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ। २५. एनाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * कोधरम तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमकिट्टी तदो लोभस्स अपुव्वफयाणमादिवग्गणा अणंतगुणा। ६२६. कुदो ? किट्टीगदाणुभागावो फद्दयगदाणुभागस्साणंतगुणत्तसिद्धीए बाहाणुवलंभादो। २३. जिस प्रकार लोभकी तीन संग्रह कृष्टियोंके अल्पबहुत्वको प्ररूपणा की है उसी प्रकार मायाको भी तीन संग्रह कृष्टियोंके भी प्रकृत अल्पबहुत्वको योजना करनी चाहिए यह उका कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है। * मायाको जो तीसरी संग्रह कृष्टि है उसको अन्तिम कृष्टिसे मानको जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। २४. परस्यान गणकारके माहात्म्यका यहां भी पहलेके समान कथन जानना चाहिए । * मानकी भी उसी क्रमसे तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं। के मानको जो तीसरी संग्रह कृष्टि है उसको अन्तिम कृष्टि से क्रोधको जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। * क्रोधको भी उसी क्रमसे तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। $२५. ये सूत्र सुगम हैं। ॐ क्रोधको तीसरी संग्रह कृष्टिकी जो अन्तिम कृष्टि है उससे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंको आदि वर्गणा अनन्तगणी है। ६२६. क्योंकि कृष्टिगत अनुभागसे स्पर्धकगत अनुभाग अनन्तगुणा है ऐसा सिद्ध होने में बाधा नहीं पायी जाती। विशेषार्थ-पूर्व में जिन क्रोधादि कषाय सम्बन्धी १२ संग्रह कृष्टियों और उनमें से प्रत्येककी अनन्त अवान्तर या अवयव कृष्टियोंका निर्देश कर आये हैं उनमेंसे प्रत्येक कृष्टि किस अनुभागस्वरूप होती है, क्या उनमें से प्रत्येकको सदृश अनुभाग प्राप्त होता है या न्यूनाधिक अनुभागरूपसे उनकी रचना होती है इसी शंकाके उत्तरस्वरूप यहां अनुभागकी अपेक्षा तीव्र-मन्दताका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि सबसे नीचे लोभ संज्वलनसम्बन्धी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जो सबसे जघन्य अवान्तर कृष्टि है उसमें प्राप्त हुआ अनुभाग सबसे स्तोक होता है। उससे दूसरी कृष्टि अनन्तगुणे अनुभागस्वरूप होती है। यहां गुणकार अभव्योंसे अनन्तगणा और सिद्धोंके अनन्तवें Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $२७. एवमेत्तिएण पबंधेण बारसण्हं पि संगहकिट्टीणं तदवयवकिट्टीणं च तिव्व-मंददाए अप्पाबहुअं परूविय संपहि एक्स्सेव थोवबहुत्तस्स फुडीकरणटुं किट्टीअंतराणमप्पाबहुअं परूवे. माणो उवरिमं पबंधमाढवेइ * किट्टीअंतराणमप्पाबहुअंवत्तइस्सामो। २८. एत्थ किट्टीअंतराणि ति वुत्ते किट्टीगुणगारा घेत्तव्वा, किट्टीगुणगारस्सेव तदंतरण विवक्खियत्तादो। तेसि किट्टीअंतराणमप्पाबहुअमेत्तो भणिस्सामो त्ति वुत्तं होइ । ताणि पुण किट्टीअंतराणि दुविहाणि-सत्थाण-परत्याणगुणगारभेदेण । तत्थ सत्याणगुणगारस्स किट्टीअंतरमिदि सण्णा। परत्थाणगुणगाराणं संगहकिट्टीणं अंतराणि ति सण्णा। एसोच सण्णाभेदो जाव ण जाणाविदो ताव किट्टीअंतराणमिदमप्पाबहुअं परूविज्जमाणं सुहावगम्मं ण होदि ति तदुभयसण्णाभेदमेव ताव परुवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइभाग प्रमाण है । इसका भाव यह है कि उक्त जघन्य कृष्टिको अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकारसे गुणित करनेपर दूसरी कृष्टि उत्पन्न होतो है। जो यह गुणकार है उसे ही यहां अन्तर कहा गया है यह इसका आशय है। पुनः इस दूसरी कृष्टिसे तीसरी कृष्टि अनन्तगणी है। यहां गणकारका प्रमाण पूर्वके गणकारसे अनन्तगणा है। पुनः इस तीसरी कृष्टिसे चौथी कृष्टि अनन्तगुणो है। यहांका गणकार भी पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है। इस प्रकार इस विधिसे लोभ संज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक इस अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए। यहाँपर प्रथम और द्वितीय संग्रह कृष्टियोंका अन्तररूप परस्थान गुणकार सब अन्तर कृष्टियोंके स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा है, इसलिए उसे उल्लंघनकर दूसरी संग्रह कृष्टिको प्रथम अन्तर कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर अपनी दूसरी कृष्टिको प्राप्त होती है वह गुणकार अनन्तगुणा है। यह प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे अनन्तगुणा है। आगे इस दूसरी अन्तर कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर तोसरी कृष्टि प्राप्त होती है वह गुणकार भी पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है। यह एक क्रम है जिसके अनुसार आगे क्रोध संज्वलनको तीसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक सर्वत्र उक्त विधिसे तीव्रमन्दता जान लेनी चाहिए। पुनः इससे आगे अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणा अनन्तगुणी होती है। यह गुणकार भी पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है ऐसा जानना चाहिए। ६२७. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा बारहों संग्रह कृष्टियोंकी और उनकी अवयव कधियोंकी तीव्रता-मन्दताविषयक अल्पबहुत्वका कथन करके अब इसी अल्पबहुत्वका स्पष्टीकरण करनेके लिए कृष्टियोंके अन्तरोंके अल्पबहुत्वका कथन करते हुए आगेके प्रबन्धको प्रारम्भ करते हैं * अब कृष्टियोंके अन्तरसम्बन्धी अल्पबहुत्वको बतलायेंगे। $ २८. यहाँ सूत्रमें 'किट्टीअन्तराणि' ऐसा कहनेपर कृष्टियोंका गुणकार ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि कृष्टियोंका गुणकार ही उनके अन्तररूपसे विवक्षित है। कृष्टियोंके उन अन्तरोंके अल्पबहुत्वको आगे कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु वे कृष्टि अन्तर स्वस्थानअन्तर और परस्थानअन्तरके भेदसे दो प्रकारके हैं। उनमें से स्वस्थान गणकारकी कृष्टि अन्तर यह संज्ञा है और परस्थान गुणकारोंकी संग्रह कृष्टि अन्तर यह संशा है । इस प्रकार इस संज्ञाभेदका जब तक ज्ञान नहीं कराया जाता तब तक कृष्टि अन्तरोंके इस अल्पबहुत्वका कथन करनेपर सुखपूर्वक ज्ञान नहीं होता, इसलिए सर्वप्रथम उन दोनों संज्ञाओंमें क्या भेद ( अन्तर ) है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए किट्टीअप्पाबहुअपरूवणा * अप्पाबहुअस्स लहुआलावसंखेवपदत्थसण्णाणिक्खेवो ताव कायव्यो। 5 २९. पयदप्पाबहुअस्स बहुवित्थरपरिहारेण लहुमालावसंखेवविहाणटुमेसो ताव पयदत्थस्स सण्णाविसेसणिक्खेवो कायबो, अण्णहा एक्स्सप्पाबहुअस्स संखेवेण परूवणोवायाभावादो ति भणिदं होइ । एवमेदं पइण्णाय संपहि तं चेव सण्णाभेदं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तं जहा। $३०. सुगमं। * एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ। तासि अंतराणि वि अणंताणि । तेसिमंतराणं सण्णा किट्टी-अंतराइ णाम । संगहकिट्टीए च संगहकिट्टीए च अंतराणि एकारस । तेसि सण्णा संगहकिट्टीअंतराइ णाम । ६३१. एक्स्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-एक्केकस्स कसायस्स तिणि तिण्णि संगहकिट्टीओ होदूण बारस संगहकिट्टीओ भवंति । तासिमेक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अवंतरकिट्टीओ अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणसिद्धाणंतभागमेतीओ भवंति । तासिमंतराणि वि अणंताणि चेव, किटीगणणाए चेव रूवणाए तासिमंतरभावेण समवलंभादो। तदंतरुप्पत्तिणिमित्तगुणगारा वि अंतराणि त्ति भण्णते, कारणे कज्जुवयारादो। तेसिमेत्थ गहणं कायव्वं । तदो तेसिमंतराणं गुणगारसरूवाणं किट्टोअंतराणि ति सणा। पुणो संगहकिट्टीए च संगहकिट्टीए च हेट्टिमोवरिमाए जाणि अंतराणि एक्कारससंखाविसेसिदाणि तेसिं सण्णा संगहकिट्टीअंतराणि ति । एत्थ वि पुव्वं व तप्पडिबद्धगुणगाराणं चेव संगहो कायव्यो। तदो * सर्वप्रथम अल्पबहुत्वके लघु आलापरूप संक्षेप पदोंके अर्थसम्बन्धी संज्ञाओंका निक्षेप करना चाहिए। ६२९. प्रकृत अल्पबहुत्व के बहु विस्तारके परिहार द्वारा लघु आलापका संक्षेपसे कथन करनेके लिए सर्वप्रथम प्रकृत अर्थसम्बन्धी संज्ञाओंमें जो भेद है उसका यह निक्षेप करना चाहिए, अन्यथा इस अल्पबहुत्वका संक्षेपसे कथन करनेका दूसरा कोई उपाय नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इसकी प्रतिज्ञा करके अब इसी संज्ञाभेदका कथन करते हुए आगेका सूत्र कहते हैं * वह जैसे। 5३०. यह सूत्र सुगम है। * एक-एक संग्रह कृष्टिको अनन्त कृष्टियाँ हैं तथा उनके अन्तर भी अनन्त हैं। उन अन्तरोंको कृष्टि अन्तर संज्ञा है और संग्रहकृष्टि संग्रहकृष्टिके अन्तर ग्यारह हैं। उनको संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है। ३१. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-एक-एक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियां होकर बारह संग्रह कृष्टियां होती हैं। उनमें से एक-एक संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियां अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं तथा उनके अन्तर भी अनन्त होते हैं, क्योंकि कृष्टियोंको गणनामें से एक कम करनेपर उनके अन्तर उपलब्ध हो जाते हैं। अतः उन कृष्टियोंके अन्तरोंकी उत्पत्तिके निमित्तभूत गुणकार भी अनन्त कहे जाते हैं, क्योंकि यहां कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। उनका यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अतः गुणकारस्वरूप उन अन्तरोंकी कृष्टि अन्तर यह संज्ञा है। पुनः संग्रहकृष्टि संग्रहकृष्टिके आगे-पीछे ग्यारह संख्यासे Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे परत्थाणगुणगाराणं संगहकिट्टीअंतरसण्णा। सत्थाणगुणगाराणं च किट्टीअंतरसण्णा त्ति एसो एत्य सुत्तत्थसंगहो। * एदीए णामसण्णाए किट्टीअंतराणं संगहकिट्टीअंतराणं च अप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। ३२. एदीए अणंतरपरूविदाए णामसण्णाए सुणिग्णीदसरूवाणं दुविहाणं पि किट्टीअंतराणमेण्हिमप्पाबहुअमोदारइस्सामो त्ति भणिदं होइ। * तं जहा। $ ३३. सुगमं। * लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए जहण्णय किट्टीअंतरं थोवं ।। $ ३४. लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए जहण्णकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा अप्पणो विदियकिट्टीपमाणं पावदि सो गुणगारो जहाणकिट्टीअंतरं णाम । तं सव्वत्थोवमिदि वुत्तं होइ। विशेषताको प्राप्त हुए जो अन्तर हैं उनकी संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है। यहाँपर भी पहले के समान उनसे सम्बन्ध रखनेवाले गुणकारोंका संग्रह करना चाहिए। इस कारण परस्यान गुणकारोंको संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है और स्वस्थान गुणकारोंकी कृष्टि अन्तर संज्ञा है यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। विशेषार्थ-यह पूर्व में ही बतला आये हैं कि चारों संज्वलनोंमें से प्रत्येक कषायको तीनतोन संग्रह कृटियां होकर भी प्रत्येक संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियां अनन्त होती हैं। इस प्रकार जो ये सब कृष्टियां हैं उनमें दो संग्रह कृष्टियोंके मध्य जो गुणकार पाया जाता है उनके उस गुणकारको ही संग्रहकृष्टि अन्तर कहते हैं । यतः यह गुणकार गुणित क्रमसे ही प्राप्त होता है, अतः उनके गुणकार भी उतने ही जानने चाहिए। कुल संग्रह कृष्टियां बारह हैं अतः उनके मध्यमें प्राप्त होनेवाले इन संग्रह कृष्टियोंके अन्तरोंका प्रमाण ग्यारह होता है। अतः इनको यह संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है। यहां इतना पुनः स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि एक संग्रहकृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर दूसरी संग्रहकृष्टिको प्राप्त होती है उसकी परस्थान गुणकार संज्ञा और एक अन्त९ कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर दूसरी कृष्टिको प्राप्त होती है उसकी स्वस्थानगुणकार संज्ञा है। इसीलिए प्रकृतमें गुणकारको कारण और अन्तरको कार्य कहा गया है। के इस प्रकार की गयो इस नामसंज्ञाके द्वारा कृष्टि अन्तरों और संग्रह कृष्टि अन्तरोंके अल्पबहुत्वको बतलावेंगे। ६३२. इस प्रकार अनन्तर पूर्व कही गयो इस नामसंज्ञाके द्वारा जिनके स्वरूपका अच्छी तरहसे निर्णय हो गया है ऐसे इन दोनों ही प्रकारके कृष्टिअन्तरोंके अल्पबहुत्वका इस समय अवतार करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * वह जैसे 5३३. यह सूत्र सुगम है। के लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका जघन्य अन्तर सबसे अल्प है। ३४. लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिको जघन्य कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर वह अपनी दूसरी कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है वह गुणकार जघन्य कृष्टि अन्तर संज्ञावाला होता है । वह सबसे स्तोक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए किट्टोअप्पाबहुअपरूवणा १३ * विदियं किट्टीअंतरमणंतगुणं । $३५. एत्थ वि विदियकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा तदियकिट्टीपमाणं पावदि सो गुणगारो विदियकिट्टीअंतर मिदि भण्णदे । एसो पुविल्लादो अणंतगुणो, तप्पाओग्गाणंतरूवेहि तम्मि गुणिदे एदस्स समुप्पत्तीदो। * एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ३६. एवं तदियचउत्थाविकिट्टीअंतराणं पि लोभपढमसंगहकिट्टीपडिबद्धाणमणंतराणंतरावो अणंतगुणकमेण अप्पाबहुअमेवमणुगंतव्वं जाव चरिमकिट्टीअंतरं पत्तं ति । तत्थ चरिमकिट्टी. अंतरमिदि वुत्ते दुचरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा चरिमकिट्टीपमागं पावदि सो गुणगारो चरिमकिट्टीअंतरमिदि घेत्तव्वं । एत्थ सव्वत्थ गुणगारो तप्पाओग्गाणंतरूवमेत्तो। * लोभस्स चेव विदियाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ३७. एत्थ पढमविदियसंगहकिट्टीणमंतरभूदो परत्थाणगुणगारो सर्वहितो सत्याणगुणगारेहितो अणंतगुणो ति तमुल्लंघियूण विदियसंगहकिट्टोए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणमिवि भणिदं । तदो विदियसंगहकिट्टीए पढमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिवा अप्पणो विदियकिट्टि पावदि सो गुणगारो अणंतरहेट्टिमपढमसंगहकिट्टीचरिमगुणगारादो अणंतगुणो ति सुत्तत्थो। * उससे दूसरी कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६३५. यहाँपर भी दूसरी कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर तीसरी कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है उस गुणकारको द्वितीय कृष्टि अन्तर कहते हैं। यह गुणकार पूर्वके गुणकारसे अनन्तगुणा है, क्योंकि तत्प्रायोग्य अनन्त संख्यासे उसके गुणित करनेपर इसकी उत्पत्ति होती है। के इस प्रकार उत्तरोत्तर अनन्तर-अनन्तर क्रमसे जाकर जो अन्तमें अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है उसका अन्तर अपनी उपान्त्य कृष्टिके अन्तरसे अनन्तगुणा है। ३६. इस प्रकार लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे सम्बन्ध रखनेवाली तीसरी और चौथो आदि क्रष्टियोंका अन्तर भी उत्तरोत्तर तदनन्तर-तदनन्तर रूपसे अनन्तगणित क्रमसे प्राप्त करते हुए अन्तिम कृष्टिके अन्तरके प्राप्त होने तक यह अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए। वहां अन्तिम कृष्टि का अन्तर ऐसा कहनेपर द्विचरम कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणित करनेपर अन्तिम कृष्टिका प्रमाण प्राप्त होता है वह गुणकार अन्तिम कृष्टिका अन्तर है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहां सर्वत्र गुणकार तत्प्रायोग्य अनन्त संख्याप्रमाण है। * लोभकी ही द्वितीय संग्रह कृष्टिका प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। ३७. यहाँपर प्रथम और द्वितीय संग्रह कृष्टियोंका अन्तररूप परस्थान गुणकार सब अन्तर कृष्टियोंके स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा है, इसलिए उसे उल्लंघन करके 'दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है' यह कहा है, इसलिए दूसरो संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर अपनी दूसरी कृष्टि को प्राप्त होती है वह गुणकार अनन्तर अधस्तन प्रथम संग्रह कृष्टिक अन्तिम गणकारसे अनन्तगुणा है यह इस सूत्रका अर्थ है। विशेषार्थ-यहाँपर प्रथम संग्रह कृष्टि और द्वितीय संग्रह कृष्टिके मध्य जो अन्तर है उसको गोण कर प्रथम संग्रह कृष्टिको जो अन्तिम कृष्टि है उससे दूसरी संग्रह कृष्टिको दूसरो कृष्टिका गुणकार पूर्वके गुणकारसे भी अनन्तगुणा है यह स्पष्ट किया गया है। १. ता. प्रती पढमसंगहकिट्टीअंतरमणं तगुणं इति पाठः। २. ता. प्रतो पढमसंगहकिट्टी इति पाठः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे ६३८. एत्तो उवरिमाणंतराणं विदियसंगहकिट्टीविसयाणं पढमसंगहकिट्टीए भणिदविहाणेण थोवबहुत्तमणंतराणंतरावो अणंतगुणाए सेडीए णेदव्वमिदि जाणावणफलमुवरिमसुत्तं * एवमणंतराणंतरेण जाव चरिमादो त्ति अणंतगुणं । 5 ३९. गयत्थमेदं सुतं । एत्तो लोभस्स विवियतदियसंगहकिट्टीणं परत्याणगुणगारमुलंघियूण तदियसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टोणं जाणि अंतराणि ताणि जहाकममणंतगुणवड्डीए णेदव्याणि त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ - * लोभस्स चेव तदियाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । 5 ४०. एत्थ वि पढमकिट्टीअंतरमिवि वुत्ते पढमकिट्टीदो विदियकिट्टीसमुप्पायणट्ठो गुणगारो घेतव्यो । सुगममणं। * एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ४१. पढम-विदियसंगहकिट्टीसु जेण कमेण किट्टीअंतराणमप्पाबहुअं णीदं तेणेव कमेण संगहकिट्टोए' वि णेदव्वं, विसेसाभावादो त्ति भणिदं होदि । * एत्तो मायाए पढमसंगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६४२. एत्थ वि परत्थाणगुणगारुल्लंघणं पुव्वं व बटुव्वं । सेसं सुगमं। ३८. इससे आगे दूसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी जो उपरिम अनन्तर अन्तर कृष्टियां हैं उनका अल्पबहुत्व, प्रथम संग्रह कृष्टिको कही गयो विधिके अनुसार, तदनन्तर-तदनन्तर क्रमसे अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र आया है * इस प्रकार अनन्तर तदनन्तर क्रमसे अन्तिम कृष्टिके अन्तरके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर अनन्तगुणा-अनन्तगुणा कृष्टि अन्तर जानना चाहिए। ३९. यह सूत्र गतार्थ है। इससे आगे लोभसंज्वलनकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियोंके परस्थान गुणकारको उल्लंघन करके तीसरी संग्रहकृष्टिको अन्तर कृष्टियों के जो अन्तर हैं उन्हें यथाक्रम उत्तरोत्तर अनन्तगुणित वृद्धिरूपसे ले जाना चाहिए इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * लोभको भी तीसरी संग्रह कृष्टिको प्रथम कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६४०. इस सूत्रमें भी 'प्रथम कृष्टिका अन्तर' ऐसा कहनेपर प्रथम कृष्टिसे दूसरी कृष्टिको उत्पन्न करनेके लिए गुणकार ग्रहण करना चाहिए । शेष कथन सुगम है। * इस प्रकार अनन्तर तदनन्तर क्रमसे जाकर अन्तिम कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६४१. प्रथम और दूसरो संग्रह कृष्टियोंमें जिस क्रमसे कृष्टि अन्तरोंका अल्पबहुत्व प्राप्त किया है उसी क्रमसे इस संग्रह कृष्टिका भी ले आना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * इससे आगे मायाको प्रथम संग्रह कृष्टिको प्रथम कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६४२. यहांपर भी परस्थान गुणकारको उल्लंघन कर पहलेके समान कथन करना चाहिए। शेष कथन सुगम है। १. ता. प्रतो पढमसंगहकिट्टीणं इति पाठः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaraढी किट्टी अप्पा बहुअपरूवणा १५ * एवमणंतराणंतरेण मायाए वि तिन्हं संगहकिट्टीणं किट्टीअंतराणि जहाकमेण अनंतगुणाए सेडीए नेदव्वाणि । ४३. लोभस्स तिन्हं संगहकिट्टीणं भणिवविहाणमवहारियूण तेणेव कमेण मायाए वि तिन्हं संगह किट्टीण मणंतर किट्टीसु जहाकममणंतगुणाए सेढीए किट्टीगुणगाराणमप्पाबहुअ मेदं दव्वमिदि वृत्तं होइ । * एत्तो माणस्स पढमाए संगह किट्टीए पढमकिट्टी अंतरमणंतगुणं । ४४. एत्थ वि पुव्वं व परत्याणगुणगारुल्लंघणेण मायाए तदियसंगह किट्टी चरिमंतरादो माणस्स पढमसंग हकिट्टीए पढपस्स किट्टीअंतरस्साणंतगुणत्तमुवइटुं दट्ठव्वं । * माणस्स वि तिडं संगहकिट्टीणमंतराणि जहाकमेण अनंतगुणाए सेढीए दव्वाणि । ४५. माणस्स वि तिष्हं संगह किट्टीणं पुध पुध णिरंभणं काढूण पयदप्पाबहुअं णेदव्यमिदि तं होइ । * एत्तो कोधस्स पढमसंग किटटीए पढमकिट्टी अंतरमणंतगुणं । ६ ४६. सुगमं । * कोहस्स वि तिन्हं संगइकिट्टीणमंतराणि जहाकमेण जाव चरिमादो अंतरादो त अनंतगुणाए सेटीए दव्वाणि । इस प्रकार अनन्तर तवनन्तर क्रमसे मायाकी तीनों संग्रहकृष्टियोंके कृष्टि अन्तरोंको यथाक्रम अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले आना चाहिए । ४३. लोभकी तीनों संग्रह कृष्टियों की कही गयी विधिसे अल्पबहुत्व का अवधारण करके उसी क्रमसे मायासम्बन्धी तीनों ही संग्रह कृष्टियोंकी अनन्त कृष्टियोंके यथाक्रम अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे कृष्टिगुणकारोंका यह अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * इससे आगे मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । ४४. यहाँपर भी पहले के समान परस्थान गुणकारके उल्लंघन द्वारा मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टि के अन्तिम अन्तर कृष्टि अन्तरसे मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है यह उपदिष्ट किया गया जानना चाहिए। * मानकी भी तीनों संग्रह कृष्टियोंका अन्तर यथाक्रम अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए । $ ४५ मानकी भी तीनों संग्रह कृष्टियोंको पृथक्-पृथक् रोककर प्रकृत अल्पबहुत्व ले जाना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * इससे आगे क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । ६४६. यह सूत्र सुगम है । * क्रोधको भी तीनों संग्रह कृष्टियों का अन्तर, यथाक्रम अन्तिम कृष्टि अन्तरके प्राप्त होने तक, अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ___ ४७. कोहस्स तदियसंगहकिट्टीए दुचरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा तत्थतणचरिमकिट्टीपमाणं पावदि तं सवपच्छिमकिट्टीसंतरमवहिं कादूणप्पाबहअमेदमणुगंतव्वमिदि सुत्तत्यसंगहो । एदे च भणिदसवगुणगारा बारसहं पि संगहकिट्टीणमंतरकिट्टीसु पयट्टमाणा सत्थाणगुणगारं णाम । ६४८. एत्तो उवरि परत्थाणगुणगारसण्णिवाणं संगहकिट्टीअंतराणं जहाकमेण थोवबहुत्तावहारणमुत्तरो सुत्तपबंधो। * तदो लोमस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६ ४९. लोभस्स पढमसंगहकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा विदियसंगहकिट्टीए पढमकिष्ट्रि पावदि सो गुणगारो लोभस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरं णाम । एसो गुणगारो सत्थाणगुणगाराणं चरिमगुणगारदो अणंतगुणो भवदि, परत्थाणगुणगारमाहप्पादो। इममेव च गुणगारयिसेसमस्सियूण एक्केतकस्स कसायस्स तिण्णि तिणि साहकिट्टीमो भणिवाओ, अण्णहा संगहकिट्टीणं पविभागाणुव. वत्तीदो। एत्थ हेद्विमकिट्टिमुवरिमकिट्टीदो सोहिय सुद्धसेसं रूवूणमेत्तमविभागपचिडछेदुत्तरकमवड्डीए विणा अक्कमेण वडिवत्तादो। किट्टीअंतरमिनि किण्ण घेप्पदे ? ण, तहा घेप्पमाणे पुग्विल्लचरिमसत्याणकिट्टीअंतरावो एदस्स संगहकिट्टीअंतरस्साणंमगुणहोणत्तप्पसंगादो। तं कधं ? $ ४७. क्रोधको तीसरी संग्रह कृष्टिकी द्विचरम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर वहाँकी अन्तिम कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है उस सब अन्तिम कृष्टि अन्तरको मर्यादा करके यह अल्पबहुत्व जान लेना चाहिए यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । कहे गये ये सब गुणकार बारह संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तर कृष्टियों में प्रवृत्त होते हुए स्वस्थान गुणकार कहलाते हैं । ___विशेषार्थ-गुणकारके स्वस्थान गुणकार और परस्थान गुणकार ये दो भेद पहले ही कह आये हैं। उनमेंसे यहां तक स्वस्थान गुणकारको अपेक्षा अन्तर कृष्टियोंके अन्तरोंको प्राप्त किया गया है । आशय यह है कि उत्तरोत्तर अगली-अगली कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त करनेके लिए स्वस्थान गुणकारका प्रमाण उत्तरोत्तर अनन्तगुणा-अनन्तगुणा होता जाता है और इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रत्येक कृष्टिमें अनुभागशक्तिरूप अविभागप्रतिच्छेद प्राप्त होते जाते हैं । $ ४८. इससे आगे परस्थान गुणकार संज्ञावाले संग्रह कृष्टि अन्तरोंके अल्पबहुत्वका क्रमसे अवधारण करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * उससे लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६४९. लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि जिस गुगकारसे गुणित होकर दूसरो संग्रह कृष्टियोंकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होती है उस गुणकारको लोभको प्रथम संग्रह कृष्टि अन्तर संज्ञा है। यह गुणकार स्वस्थान गुणकारोंके अन्तिम गुणकारसे अनन्तगुणा है। परस्थान गुणकारके माहात्म्यवश इसी गणकार विशेषका आलम्बन लेकर एक-एक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियां कही गयो हैं. अन्यथा संग्रह कृष्टियोंका विशेष विभाग नहीं बन सकता। यहां पर अधस्तन कृष्टिको उपरिम कृष्टियोंमेंसे घटाकर जो शेष रहता है उससे एक कम अविभाग प्रतिच्छेदोंको उत्तर क्रमवृद्धि के विना अक्रमसे वृद्धि हुई है। शंका-यहांपर कृष्टि अन्तर क्यों नहीं ग्रहण किया जाता? समाधान-नहीं, क्योंकि वैसा ग्रहण करनेपर पूर्वोक्त अन्तिम स्वस्थान कृष्टि अन्तरसे इस संग्रह कृप्टि अन्तरके अनन्तगुणे हीन होनेका प्रसंग प्राप्त होता है। १. आ. प्रती णीदाओ इति पाठः । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए संगह किट्टी गुणागारपरूपणा १७ लोभस्स पढमसंग किट्टीए चरिमकिट्टि तस्सेव विदियसंगहकिट्टीए पढमकिट्टीदो सोहिय सुद्ध से सं वर्ण लोहस्स पढमसंगहकिट्टी अंतरं णाम होदि । ५०. संपहि विदियसंगह किट्टीए पढमकिट्टि तिस्से चैव विदियकिट्टीदो सोहिदे सुद्ध सेसरूवूणरासी पुव्विल्लसंगह किट्टी अंतरणिमित्तसुद्ध सेसरासीदो अनंतगुणो होइ, तेण एत्तियमेत्तरासी अविभागपलिच्छेदुत्तरकमेण विणा अक्कमेण वडिदो त्ति पढम-विदियकिट्टीणमेदमंतरं जावं । एवं संते पृथ्विल्लसंगह किट्टीअंतरादो एवं किट्टोअंतरमणंतगुणं जादं । ण च एवं सुत्ते भणिदं, एत्तो अतगुणको हत दियसंग हकिट्टी चरिम किट्टोअंतरादो वि लोभस्स पढमसंगहकिट्टी अंतरमणंत गुण मिदि सुतेणेदेण णिद्दित्तादो | एवं सेससंगहकिट्टी अंतराणं पि किट्टीअंतरादो अनंत गुण होणत्तत्पसंगादो दरसेयव्वो । तेण जाणामो किट्टीअंतरमिदि भणिदे किट्टीगुणगारो चेव सव्वत्थ घेत्तव्वो । ण पुण मिट्टी मिट्टीदो सोहिय समवलद्धसेसरासि त्ति । * बिदिय संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । 8५१. विदियसंगह किट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिवा तदियसंगह किट्टीए पढमकिट्टि पावदि सो गुणगारो विदियसंगह किट्टोअंतरं णाम । एदं पढमसंगह किट्टीअंतरावो अनंतगुणं । को गुणगारो ! तप्पा ओग्गाणं तरूवमेत्तो । * तदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । शंका- वह कैसे ? समाधान - लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिको उसीकी द्वितीय संग्रहकृष्टिकी प्रथम कृष्टिमें से घटा देनेपर जो शेष रहता है एक कम वह लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर होता है । ५०. अब दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिको उसीकी दूसरी कृष्टिमें से घटा देनेपर जो राशि शेष रहती है, एक कम वह राशि पूर्वोक्त संग्रह कृष्टिके अन्तर निमित्तरूप शुद्ध शेष सशिसे अनन्तगुणी होती है, इसलिए इतने प्रमाणरूप राशि अविभागप्रतिच्छेदोंकी उत्तर क्रमवृद्धिके बिना अक्रमसे बढ़ी है, इसलिए प्रथम और दूसरी कृष्टियोंका यह अन्तर हो गया है और ऐसा होनेपर पूर्वके संग्रह कृष्टि अन्तरसे यह कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा हो गया | परन्तु ऐसा सूत्र में कहा नहीं है, क्योंकि इससे क्रोधको अनन्तगुणी तीसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तिम कृष्टि अन्तरसे भी लोकी प्रथम कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है ऐसा इस सूत्रद्वारा निर्दिष्ट किया गया है। इसी प्रकार शेष संग्रह कृष्टियोंके अन्तर के भो कृष्टि अन्तरसे अनन्तगुणे हीन होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ऐसा यहाँ दिखलाना चाहिए। इससे हम जानते हैं कि कृष्टि अन्तर ऐसा कहनेपर कृष्टिगुणकार ही सर्वत्र ग्रहण करना चाहिए, परन्तु अधस्तन कृष्टिको उपरिम कृष्टिमेंसे घटाकर जो शेष रहे वह नहीं । * उससे दूसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । ५१. दूसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर तीसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिको प्राप्त होती है वह गुणकार द्वितीय संग्रह कृष्टिका अन्तर है । यह प्रथम संग्रह कृष्टि अन्तरसे अनन्तगुणा है । शंका- गुणकार क्या है ? समाधान - तत्प्रायोग्य अनन्त संख्या गुणकार है । * उससे तीसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । १. ता. प्रतौ पढमसंगहकिट्टीए इति पाठः । B Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ५२. एत्थ चोदगो भणह-तवियसंगहकिट्रीअंतरमिदि वत्ते कदमस्स अंतरस्स गहणमिह कायठलं, कि ताव लोभस्स तदियसंगविट्रोए चरिमकिट्टीदो तस्सेवापव्वफद्दयादिवग्गणाए पविसमाणगणगारो घेप्पड, आहो लोभम्स तदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टीदो'मायाए पढमसंगहकिट्टीए आदिम्मि पविसमगणगणगारो ति? ण ताव पढमपक्खो, संगह कट्टीअंतराण. मप्पाबहए भण्णमाणे संगहकिट्टीफद्दयंतरगणगारस्स पवेसाणुववत्तीदो। अध केण वि संबंधेण तस्स वि पवेसो ण विरुद्धो त्ति वखाणिज्जदे तो वि एवम्हादो उवरि लोभस्स मायाए च अंतरमणंत गुणमिदि उवरि भण्णमाणसुत्तं ण जुज्जदे, किट्टीफद्दयंतरादो अणंतगणहीणस्स तम्स तत्तो अणंतरणत्तविरोहादो। ण विदिओ वि पक्खो घडतओ, लोभ-मायाणं चरिमपढमसंगहकिट्टीणमंतरस्त तदियसंगहकिट्टीअंतरं तेणेत्य णिद्दे सावलंबणे उवरिमसुत्तेण मृत्तकंठमेव सव्विसए पडिबद्धणेवस्स पुणरत्तदोसप्पसंगादो । तम्हा णिविसयत्तादो गाढवेयध्वमेदं सूत्तमिदि ? एत्थ परिहारो पच्चदे-'लोभस्स तदियसंगहकिट्टीअंतरमिदि वृत्ते लोभस्स विदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिवा लोभस्स चेव तदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि पावेवि सो गुणगारो घेत्तव्यो। पुव्वुत्तविदियसंगहकिट्टीअंतरादो परिप्फुडमेवेदस्साणंतगुणत्तदंसणादो। को एत्थ गुणगारो ? तदियसंगहकिट्टीए पविट्ठासेससत्थाणगुणगाराणमण्णोण्णसंवग्गो । अणुत्तसिद्ध ५२. शंका-यहाँपर शंकाकार कहता है कि 'तदियसंग्रह किट्टीअंतरं' ऐसा कहनेपर यहाँ किस अन्तरका ग्रहण करना चाहिए, क्या लोभकी तीसरी संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिसे उसीके अपर्व स्पर्धककी आदि वर्गणामें प्रविष्ट होनेवाला गुणकार ग्रहण करते हैं या लोभकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे माया संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके आदिमें प्रविष्ट होनेवाला गुणकार ग्रहण करते हैं। उन दोनों पक्षोंमेंसे प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि संग्रह कृष्टियोंके अन्तरोंके अल्पबहुत्वके कहनेपर संग्रहकृष्टि और स्पर्धक अन्तर सम्बन्धी गुणकारका प्रवेश नहीं बन सकता। किसी भी सम्बन्धवश गुणकारका प्रवेश भी विरोधको प्राप्त नहीं होता यदि ऐसा व्याख्यान किया जाता है तो भी इससे आगे 'लोभ और मायाका अन्तर अनन्तगुणा है' इसप्रकार आगे कहा जानेवाला सूत्र नहीं बन सकता है, क्योंकि कृष्टि और स्पर्धकसम्बन्धी अन्तरसे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा हीन है, इसलिए तीसरी संग्रहकृष्टि और स्पर्धकके अन्तरसे उसके अनन्तगुणा होने में विरोध आता है। तथा दूसरा पक्ष भी घटित नहीं होता, क्योंकि लोभको अन्तिम संग्रहकृष्टि और मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिका अन्तर तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर है, इस कारण यहाँपर उसके निर्देशका अवलम्बन करनेपर उपरिम सूत्र स्पष्टरूपसे उस विषयसे सम्बन्ध रखता है, इसलिए इस कथनमें पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है, इसलिए विषयशून्य होनेसे इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए? समाधान यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं-'लोभस्स तदियसंगहकिट्टोअंतरं' ऐसा कहनेपर लोभको दूसरी संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित होकर छोभकी ही तीसरी संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टिको प्राप्त करती है वह गुणकार ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त दूसरी संग्रह कृष्टिके अन्तरसे स्पष्टरूपसे यह अन्तर अनन्तगुणा देखा जाता है। शंका-यहाँपर गुणकार क्या है ? समाधान-तीसरी संग्रह कृष्टि में प्रविष्ट हुए समस्त स्वस्थान गुणकारोंके परस्पर गुणा करनेपर जो लब्ध आवे वह यहांपर गुणकार है। १. आ. प्रती संगहकिट्टीए मायाए इति पाठः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खगसेढी संग्रह किट्टी गुणगारपरूवणा १९ तादो मेत्थ | परूवेयवमिदि चे ? ण, लोभ- मायाणमंतर माहप्पपदंसणटु मेदस्स णिसे, फलोवभादो । तं कथं ? लोभस्स विदियसंगह किट्टी अंतरादो सत्थाणगुणगार संवगामेणानंतगुणमे दं तदियसंगह किट्टी अंतरं पुणो एदम्हादो वि लोभमायाणमंत रमणंतगुणमिदि पदुप्पाइदे सत्याण म्ह पविट्ठा से सगुणगार संवग्गावो अनंतगुणो परत्थाणगुणगारो त्ति जाणिज्जदे । तम्हा एवंविहत्थविसेसपडिबद्धत्तादो णणिव्वसय मेदं सुत्तमिदि सिद्धं । ५३. अथवा तदियसंगह किट्टीए अपुत्रफद्दयादिवग्गणा च अंतरं तदियसंगह किट्टी अंतरमिदि घेत्तव्वं, संगह किट्टी फद्दयंत रस्स वि कथंचि संगहकिट्टोअंतरत्तेण णिद्देसे विरोहाभावादो । ण तहान्भुवगमे एत्तो उवरि माया लोभाणमंतरस्स अनंतगुणत्तविरोहो णेहासंकणिज्जो, लोभस्स सत्याण पाबहुए भण्णमाणे एवं होदि त्ति अप्पणो अपुष्वकद्दएहि संधाणं काढूण पुणो तत्तो णियत्तिण हेट्ठिमपदं चेव घेत्तूण तत्तो लोभ- मायाणमंतरस्साणंत गुणतेण निèसावलंबणे तद्दोंसावलं भादो । ५४. अधवा 'लोभस्स तदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं' इदि वृत्ते लोभमायाणमेव तविय पढमसंगह किट्टीणं संधिगुणगारो गहेयव्वो । ण च तहावलंबिज्जमाणे उवरिमसुत्तेण पुणरुत्तभावो वि, 'तदियसंगह किट्टी अंत रमणंतगुणं' इदि सामण्णणिद्देसेणेदेण तं कदममिदि संदेहे समुपणे 'तण शंका- यह तो अनुक्तसिद्ध है, इसलिए यहाँ पर उसका कथन नहीं करना चाहिए ? समाधान- नहीं, क्योंकि लोभ और मायाके अन्तर के माहात्म्यके दिखलाने के लिए इसका निर्देश करनेपर सफलता उपलब्ध होती है । - शंका- वह कैसे ? समाधान- लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टि के अन्तरसे, स्वस्थान गुणकारोंके परस्पर गुणा करनेपर बो लब्ध आवे उसकी अपक्षा भी यह तोसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । पुनः इससे भी लोभ और मायाका अन्तर अनन्तगुणा है ऐसा कथन करनेपर स्वस्थानमें प्रविष्ट हुए समस्त गुणकारों के परस्पर गुणित करनेपर प्राप्त हुई राशिसे परस्थान गुणकार अनन्तगुणा है ऐसा जाना जाता है, इसलिए इस प्रकार के अर्थविशेषस प्रतिबद्ध होने के कारण यह सूत्र विषयरहित नहीं है यह सिद्ध हुआ । $ ५३. अथवा तीसरी संग्रह कृष्टि और अपूर्वं स्पर्धककी आदि वर्गणाका अन्तर तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि संग्रहकृष्टि और स्पर्धक अन्तरका भी किसी अपेक्षा संग्रहकृष्टि अन्तररूपसे निर्देश करनेमें विरोधका अभाव है । और ऐसा नहीं स्वीकार करनेपर इससे आगे माया और लोभके अन्तर के अनन्तगुणत्वका विरोध आता है, किसीका ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लाभके स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करनेपर इस प्रकार होता है, इसलिए अपने अपूर्व स्पर्धकोंसे सन्धान कर पुनः वहांस निवृत्त होकर और अधस्तन पदको ही ग्रहण कर उससे लोभ और मायाके अन्तरका अनन्तगुणेरूपस निर्देशका अवलम्बन करनेपर वह दोष नही प्राप्त होता । ५४. अथवा 'लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' ऐसा कहने पर लोभका तीसरी और मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टियोंक सान्धविषयक गुणकारको हो ग्रहण करना चाहिए। और इस प्रकार अवलम्बन करनेपर अगले सूत्रको लक्ष्य कर पुनरुक्तपना भी नहीं होता, क्योंकि 'तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' इस प्रकार यह सामान्य निर्देश हानेस वह कौन-सा है १. आ. प्रतौ समुप्पण्णो इति पाठः । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TO जयधवलासहिदे कसायपाहुडे रायरणमुहेण लोभमायाणमंतरमेव तवियसंगहकिट्टीअंतरमिह विवक्खियं, ण तत्तो अण्णमिदि पदुप्पायणट्ठमुवरिमसुत्तारंभे पुणरत्तदोसासंभवादो। * लोभस्स मायाए च अंतरमणंतगुणं । 5 ५५. गयत्यमेदं सुत्तं; अणंतरसुत्ते चे वक्खाणिवत्तादो। * मायाए पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६५६. एवं भणिदे मायाए पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा अप्पणो चेव विदियसंगहकिट्टोए पढ मकिट्टीपमाणं पावदि सो गुणगारो घेत्तव्यो । सेसं सुगम। * विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६५७. सुगमं । * तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६५८. एत्थ वि पुव्वं व तोहिं पयारेहिं सुत्तत्थसमत्थणा कायव्वा, विसेसाभावादो। * मायाए माणस्स च अंतरमणंतगुणं । ६५९. ण तदियसंगहकिट्टीअंतरादो एक्स्स भेदो, किंतु 'तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं' इदि वृत्ते मायाए माणस्स च चरिमपढमसंगहकिट्टीणं जमंतरं तमेव घेत्तव्वं, णाणमिदि पुव्वसुत्त. णिहिस्सेवत्थस्स फुडीकरण?मेर सुत्तमोइण्णमिवि वक्खाणेयध्वं । सेसं सुगमं । ऐसा सन्देह उत्पन्न होनेपर उसके निराकरण द्वारा लोभ और मायाका अन्तर ही तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर यहाँपर विवक्षित है, उससे भिन्न नहीं इस बातका कथन करनेके लिए अगले सूत्रका आरम्भ करनेपर पुनरुक्त दोषका प्राप्त होना असम्भव है। * लोभ संज्वलन और माया संज्वलनका अन्तर अनन्तगुणा है। ५५ यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि इससे अनन्तर पूर्व सूत्रमें ही इसका व्याख्यान कर माये हैं। * उससे मायाको प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६५६. ऐसा कहनेपर मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित की गयो अपनी ही दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है उस गुणकारको ग्रहण करना चाहिए। शेष कथन सुगम है। * उससे दूसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। 5५७. यह सूत्र सुगम है। * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६५८. यहाँपर भी तीन प्रकारोंसे सूत्रके अर्थका समर्थन करना चाहिए, क्योंकि उक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * माया और मानका अन्तर अनन्तगुणा है। ६५९. तीसरी संग्रह कृष्टिके अन्तरसे इसमें कोई भेद नहीं है, किन्तु 'तदियसंग्रहकिट्टीअंतरमणंतगुणं' ऐसा कहनेपर मायाको अन्तिम और मानकी प्रथम संग्रहकृष्टियोंका जो अन्तर है उसे ही ग्रहण करना चाहिए, अन्य नहीं। इस प्रकार पूर्वसूत्रमें निर्दिष्ट किये गये ही अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए यह सूत्र अवतीर्ण हुआ है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। शेष कथन सुगम है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढीए संगह किट्टी गुणगारपरूपणा २१ * माणस्स पढमं संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * विदिय संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * तदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * माणस्स च कोहस्स च अंतरमणंतगुणं । * कोहस्स पढमसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । * विदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । ६०. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * तदिय संगह किट्टी अंतरमणंतगुणं । ६१. एवं भणि कोहतदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा कोहस्स चेव अयादिवग्गणं पावदि सो गुणगारो कोधस्स तदियसंगह किट्टीअंतरमिदि णिद्दिट्ठ दव्वं । एवमेसो सत्थाप्पा हुआ विही भणिदो होदि । पुणो एवं सत्याणपदं मोत्तूण परत्थाणप्पा बहुअर्वारमसुत्ते भणिहिदित्ति एसो एक्को वक्खाणपयारो | अहवा 'तदियसंगह किट्टीअंतरमणंतगुणं' इदि भणिदे विदिय संगह किट्टीदो तदियसंगहकिट्टीए चरिम किट्टी समुप्पायणटुं पविट्ठस्स गुणगारस्स गहणं काय । एवं घेत्तूण पुणो एदम्हादो उवरि लोभस्स अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए पविस्समाणपरत्थाणगुणगारस्स णिद्देसमुवरिमसुत्ते भणिहिदि त्ति एसो विदियो वक्खाणपयारो । अधवा 'तदियसंगह किट्टी अंत रमणंतगुणं' इदि भणिदे कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुब्वफद्दयादिवगणाए परत्थाणगुणगारो चेव गहिदो णाण्णो त्ति पटुप्पायणफलो उवरिमत्तावारो ति * उससे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । * उससे दूसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । * मान संज्वलन और क्रोध संज्वलनका अन्तर अनन्तगुणा है । * उससे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । * उससे दूसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । ६०. ये सूत्र सुगम हैं । * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । $ ६१. ऐसा कहनेपर क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि जिस गुणकार से गुणित होकर क्रोध ही अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गण को प्राप्त होती है वह गुणकार क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर है ऐसा निर्दिष्ट जानना चाहिए। इस प्रकार यह स्वस्थान अल्पबहुत्य विधि कही गयी है । अब उस स्त्रस्थान पदको छोड़कर परस्थान अल्पबहुत्वको अगले सूत्र में कहेंगे यह एक व्याख्यान प्रकार है । अथवा 'तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' ऐसा कहनेपर दूसरी संग्रहकृष्टि से तीसरी संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टिको उत्पन्न करनेके लिए प्रविष्ट हुए गुणकारको ग्रहण करना चाहिए । ऐसा ग्रहण करके पुनः उससे आगे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणा में प्रविष्ट होनेवाले परस्थान गुणकारका निर्देश अगले सूत्र में कहेंगे इस प्रकार यह दूसरा व्याख्यान प्रकार है ? अथवा 'तीसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' ऐसा कहनेपर क्रोध की तीसरी कृष्टिसे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाका परस्थान गुणकार ही ग्रहण किया है, अन्य नहीं । इस प्रकार इस बातका Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे एसो तदियो वक्खाणपयारो, तिसु वि पयारेसु अवलंबिदेसु विरोहाणुवलंभादो। * कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुव्वफयाणमादिवग्गणाए अंतरमणंतगुणं। ६६२. गयत्थमेदं सत्त। एवमेत्तिएण पबंधेण पुव्वपरूविदकिट्टीअप्पाबहुअस्स गुणगार. साहणटुमेदं अप्पाबहुअं पविय संपहि एत्तो पढमसमए णिव्वत्तिज्जमाणियासु किट्टीस दिज्जमाणस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं कुणमाणो सत्तपबंधमुत्तरं भणइ * पढमसमए किट्टीसु पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं वत्तइस्सामो। ६६३. सुगममेदं पइण्णावक्कं । * तं जहा। 5 ६४. सुगमं । * लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं-बहुअं । $ ६५. पढमसमयकिट्टोकारगो पुव्वापुम्वफद्दएहितो पदेसग्गस्सासंखेज्जदिभागमोकड्डियूण पुणो ओकड्डिदसयलदव्वस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं दव्वं किट्टोसु णिविखवदि । एवं च णिक्खिवमाणो लोभस्स जा जहणिया किट्टी तिस्से सरूवेण बहुअं पदेसग्गं णिक्खिवदि, अणंतरपरूविदव्वं कथन करने के लिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है। इस प्रकार यह तीसरा व्याख्यान प्रकार है, क्योंकि तीनों हो प्रकारोंके अवलम्बन करनेपर कोई विरोध नहीं उपलब्ध होता। विशेषार्थ-यहाँपर 'तदियसंग्रहकिट्टोअंतरं अणंतगुणं' इस सूत्रको रचनाके प्रयोजनरूपमें जिन तीन प्रकारोंको ध्यानमें रखते हुए उससे अगले सूत्रकी रचना को गयो है इस तथ्यको सष्ट किया गया है। शेष कथन स्पष्ट ही है। * क्रोधको अन्तिम कृष्टिसे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है। ६६२. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा पूर्वमें कहे गये कृष्टियोंके अल्पबहुत्वके गुणकारोंकी सिद्धिके लिए इस अल्पबहुत्वका कथन करके अब इसके बाद प्रथम समयमें निष्पन्म हुई कृष्टियोंमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब प्रथम समयमें कृष्टियोंमें प्रवेशपुंजके श्रेणिप्ररूपणको बतलावेंगे। 5 ६३. यह प्रतिज्ञावाक्य सुगम है। * वह जैसे। ६६४. यह सूत्र सुगम है। * लोभको जघन्य कृष्टि में प्रदेशपुंज बहुत है। ६६५. प्रथम समय में कृष्टिकारक जीव पूर्व और अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी प्रदेशपंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके पुनः अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यको कृष्टियोंमें निक्षिप्त करता है और इस प्रकार निक्षेपण करता हुमा लोभकी जो जघन्य कृष्टि है उस रूपसे बहुत प्रदेशपुंजका निक्षेपण करता है, क्योंकि अनन्तर पूर्व प्ररूपित किये गये द्रव्यको Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए किट्टोसु णिक्खित्तदव्वसेढिपरूवणा २३ किट्टीअद्धाणेण खंडिय तत्थेयखंडदव्वत्तस्स रूवूणकिट्टोअद्धाणमेत्तवग्गणविसेसेहि समहियस्स जहण्णकिट्टीए णिक्खेवदंसणादो। * विदियाए किट्टीए विसेसहीणं । ६६६. केत्तियमेत्तण ? एयवग्गण विसेसमेतणे । एत्तो उवरिमकिट्टीस वि जहाकममणंत. भागेण विसेसहोणमेव पदेसग्यं णिक्खिवदि जाव ओघुक्कस्सियादो कोहकिट्टीदो त्ति इममत्थविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण जाव कोहस्स चरिमकिट्टि ति। ६६७. एवमेदेण विहाणेण अणंतरोवणिधाए उवरि सव्वत्थ एगेगवग्गणविसेसमेत्तं परिहोणं कादूण णेदव्वं जाव सव्वासि संगहकिट्टीणमंतरकिट्टीओ समुल्लंघियूण सव्वुक्कस्सियं कोहचरिमकिट्टि पत्तो ति। कुदो ? एदम्मि अदाणे अणंतराणंतरादो अणंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। कृष्टियोंके अध्वानसे खण्डित करके वहां जो एक खण्डप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो उसे एक कम कृष्टियों के स्थानप्रमाण वर्गणा विशेषोंसे अधिक करे, क्योंकि उनने द्रव्यका जघन्य कृष्टिमें निक्षेप देखा जाता है। क उससे दूसरी कृष्टिमें प्रदेशपुंज विशेष हीन है। ६६६. शंका-कितना हीन है ? समाधान-एक वर्गणामें विशेषका जितना प्रमाण है उतना हीन है। इससे आगे उपरिम कृष्टियोंमें भी क्रमसे अनन्तवें भागप्रमाण विशेषसे हीन प्रदेशपुंजको हो तब तक निक्षिप्त करता है जब जाकर ओघ उत्कृष्ट क्रोषकृष्टि प्राप्त होती है इस प्रकार इस अर्थविशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस प्रकार अनन्तरोपनिधाको अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्त भागप्रमाण विशेष होन प्रदेशजका निक्षेप क्रोधको अन्तिम कृष्टि तक होता है। ६६७. इस प्रकार इस विधिसे अनन्तरोपनिधाको अपेक्षा आगे सर्वत्र एक-एक वर्गणाविशेषमात्र होन करते हुए तब तक ले जाना चाहिए जब जाकर सब संग्रह कृष्टियोंको अन्तर कृष्टियोंको उल्लंघन करके सबसे उत्कृष्ट क्रोधको अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है, क्योंकि इस अध्वानमें अनन्तर. अनन्तररूपसे अनन्तभागहानिको छोडकर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। विशेषार्थ-यहाँपर लोभको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोधको अन्तिम कृष्टि तक जितनी भी अवान्तर कृष्टियां, पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमेंसे द्रव्यका अपकर्षण कर, निवृत्त होती हैं इनमेंसे किस कृष्टिको कितना द्रव्य प्राप्त होता है और वह समस्त द्रव्य अपूर्व और पूर्व स्पर्धकोंके समस्त द्रव्यका कितने भागप्रमाण है यही तथ्य यहां स्पष्ट किया गया है । यथा-पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें जितना द्रव्य होता है उसमें असंख्यातका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसका अपकर्षण करके उसमें भी असंख्यातका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना द्रव्य सब कृष्टियोंमें निक्षिप्त होता है। तो भी सब कृष्टियोंमें उक्त द्रव्यके निक्षिप्त होनेका क्रम यह है कि सब कृष्टियोंको एक-एक करके जितना द्रव्य प्राप्त होता है उसमेंसे लोभको जघन्य कृष्टिको सबसे अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। पुनः उससे आगे लोभकी दूसरी कृष्टिसे लेकर क्रोधको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक प्रत्येक कृष्टिको उत्तरोत्तर एक-एक विशेष होन द्रव्य प्राप्त होता है। यहाँपर विशेषका प्रमाण सब कृष्टियोंको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके अनन्त भागमात्र है। १. ता-प्रती रूवूणकिट्टीअकरणद्ध-इति पाठः । २. आ-प्रती एयवागणविसेसेण इति पाठः । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे ६८. संपहि परंपरोवणिधाए सव्वजहण्णलोमकिट्टोपदेसग्गादो सवुक्कस्सकोहकिट्टीए पदेस कधमवचिदित्ति आसंकाए णिरागीकरणट्ठमुत्तरसुत्तमाह २४ * परंपरोवणिधाए जहण्णियादो लोभकिट्टीदो उक्कस्सियाए कोधट्टिकीए पसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । ६ ६९. कुदो एवं चे ? किट्टीअद्धाणस्स एयगुणहाणिट्टानंतरस्साणं तिमभागपमाणत्तादो । एत्थ होणा से सदव्यमाणं रूवण किट्टिमद्धाण में त्तवग्गण विसेसा त्ति घेत्तव्वं । ६ ७०. संपहि कोहचरिमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो अव्वफद्दयादिवग्गणाए णिवदमाणपदेसग्गस्स पमाणानुगमं कस्सामो । तं जहा- कोहचरिमकिट्टीए णिसित्त पदेसग्गादो अपुव्वद्दयादिवग्गणाए णिवदमाणपदेसग्गमणंतगुणहोणं होदि । किं कारणं ? कोधचरिमकिट्टीए अनंताओ ६ ६८. अब परम्परोपनिधाकी अपेक्षा सबसे जघन्य लोभ कृष्टिके प्रदेशपुंजसे लेकर सबसे उत्कृष्ट क्रोध कृष्टिमें प्रदेशपुंज किस प्रकार अवस्थित है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करने के लिए आगे सूत्रको कहते हैं * परम्परोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य लोभकृष्टिसे उत्कृष्ट क्रोधकृष्टिमें प्राप्त हुआ प्रवेशपुंज अनन्त भागप्रमाण विशेष हीन है । ९ ६९. शंका - ऐसा किस कारणसे है ? समाधान — क्योंकि कृष्टियोंका अध्वान एक गुणहानि स्थानान्तरके अनन्तवें भागमात्र है । यहाँ पर हीन हुआ समस्त द्रव्य एक कम कृष्टि अध्वान (आयाम) प्रमाण वर्गणाविशेषरूप है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थं - जहाँ अनन्तरोपनिधामें प्रथम कृष्टिके बाद दूसरी कृष्टि में कितने हीन द्रव्यका निक्षेप हुआ है । इसी प्रकार द्वितीयादि प्रत्येक कृष्टिसे तीसरी आदि प्रत्येक कृष्टिमें उत्तरोत्तर कितने हीन द्रव्यका निक्षेप हुआ है इसका निर्देश किया गया है वहीं परम्परोपनिधाको अपेक्षा arrat जघन्य कृष्टिने क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें सब मिला कर कितने हीन द्रव्यका निक्षेप हुआ है यह विचार किया गया है। यहां इतना विशेष समझना चाहिए कि जहाँ अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा एक कृष्टिसे उसके अनन्तरकी दूसरी कृष्टिमें जितना द्रव्य होन होकर दिया गया है उस होन द्रव्यका प्रमाण सब द्रव्य के अनन्तवें भागमात्र है वहां परम्परोपनिधाकी अपेक्षा भी लोभकी जघन्य कृष्टिसे क्रोधकी अन्तिम कृष्टिमें जितना द्रव्य होन होकर निक्षिप्त हुआ है वह होन द्रव्य भी सब कृष्टियोंको प्राप्त होनेवाले सब द्रव्य के अनन्तवें भागप्रमाण है । फिर भी यह एक कृष्टिसे दूसरी कृष्टिमें जितना द्रव्य होन हुआ है उसे एक कम कृष्टि अध्वानप्रमाण वर्गणाविशेषोंसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतना होता है । ७०. अब क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे अपूर्वं स्वधंकोंकी आदि aण में निक्षिप्त होनेवाले प्रदेशपुंजके प्रमाणका अनुगम करेंगे। वह जैसे - क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे अपूर्वं स्पर्धकको आदि वर्गणा में निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपुंज अनन्तगुणा हीन है । शंका- इसका क्या कारण है ? १. मा. प्रतौ कधमिव चिट्ठदि इति पाठः । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए विदियसमए अपुवकिट्टीकरणपरूवणा अपुठवफद्दयादिवग्गणाओ णिक्खिविय पुणो अपुवफद्दयवग्गणाए तत्थ पुव्वावटिददव्वस्सासंखेज्जदि. भागमेत्तं चेव णिक्खिवमाणस्स तदुवलद्धीए बाहाणुवलंभादो। एत्थ दोहं पि दवाणमोवट्टणं ठविय पयदत्यविसये सिस्साणं पडिबोहो कायव्यो। ६७१. दिस्तमाणदव्वं पि कोधचरिमकिट्टीए बहुअं । अपुव्वफद्दयादिवग्गणाए अणंतगुणहोणमिदि दटुव्वं । तदो एत्थ दोगोवुच्छाओ जादाओ-किट्टीसु एया गोवुच्छा, पृथ्वापृथ्वफद्दएसु अण्णा गोवुच्छा त्ति । अण्णे पुण आइरिया किट्टीसु फद्दएसु च एया चेव गोवुच्छा होदि त्ति भणं त । तेसिमहिप्पाएण कोहचरिमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो अपुवफद्दयादिवग्गणाए णिसिंचमाणपदे. सग्गमसंखेज्जगुणहोणं होदि, अण्णहा किट्टोसु फद्दएसु च भिण्णगोवुच्छप्पसंगादो। एदम्मि परखे किट्टीकरणद्धाए चरिमसमयं मोत्तूण हेटिमासेससमएसु किट्टीसु दिस्समाणासेसदश्वमेयसमयपबद्धस्साणंतिमभागमेत्तं चेव जायदे। ण चेदमिच्छिज्जदे, उवसमसेढीए एदस्सत्थस्स बाहोवलंभादो। तम्हा पुव्वुत्तो चेव अत्थो घेतब्वो। एवं किट्टीकरणद्धाए पढमसमए किट्टीसु दिनमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं' कादूण संपहि विदियसमए कोरमाणकज्जभेदपदुप्पायणट्ठमुदरिमं सुत्तपबंधमाह * विदियसमए अण्णाओ अपुवाओ किट्टीओ करेदि पढमसमये णिव्वत्तिदकिट्टीणमसंखेजदिभागमेत्ताओ। समाधान-क्योंकि क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें अपूर्व स्पर्धककी अनन्त आदि वर्गणाओंको निक्षिप्त कर पुनः अपुर्व स्पर्धककी वर्गणामें वहां पूर्वके अवस्थित हुए द्रव्यके असंख्यातवें भागमात्र ही द्रव्यका निक्षेप करनेवालेके उसकी उपलब्धि होने में बाधा नहीं पाई जाती। यहां पर दोनों ही द्रव्योंका अपवर्तन स्थापित करके प्रकृत अर्थके विषयमें शिष्योंको प्रतिबोधित करना चाहिए। ७१. दृश्यमान द्रव्य भी क्रोधकी अन्तिम कृष्टिमें बहुत है तथा उससे अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गमा अनन्तगुणा हीन है ऐसा जानना चाहिए । इसलिये यहां पर दो गोपुच्छाएं हो जाती हैं-कृथ्यिोंमें एक गोपुच्छा तथा पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें एक अन्य गोपुच्छा। किन्तु अन्य आचार्य कृष्टियों और स्पर्धकोंमें एक ही गोपुच्छा होती है ऐसा कहते हैं। उनके अभिप्रायसे क्रोधको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हए प्रदेशपूंजसे अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणामें निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशज असंख्यातगणा हीन होता है, अन्यथा कृष्टियों और गोपूच्छाओंमें भिन्न गोपूच्छाओंका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु इस पक्षके स्वीकार करनेपर कृष्टिकरणके कालमें अन्तिम समयको छोड़कर अधस्तन ( पूर्वके ) समस्त समयसम्बन्धी कृष्टियों में दिखनेवाला समस्त द्रव्य एक समयप्रबद्धके अनन्तवें भागमात्र हो हो जाता है। परन्तु यह स्वोकार नहीं है, क्योंकि उपशम. श्रेणिमें इस अर्थमें बाधा पाई जातो है। इसलिए पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार कृष्टिकरणके कालके प्रथम समय में दोयमान प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा करके अब दूसरे समयमें किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करने के लिए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं * दूसरे समयमें पूर्व समयमें निष्पन्न हुई कृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण अन्य अपूर्व कृष्टियोंको करता है। १. आ. प्रती-सग्गसेढिपरूपणं इति पाठः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ७२. पढमसमयमोकड्डिवदव्वादो असंखेज्जगुणं वध्वमोकड्डियूण किट्टीकारगविदियसमए किट्टीओ करेमाणो पढमसमयणिव्वत्तिदकिट्टीणं हेवा अण्णाओ' अपुवाओ किट्टोओ णिश्वत्तेदि । पुवणि वत्तिदाओ च सरिसणियमुहेण णिवत्तेदि । तासिमपुवाणं किट्टोणं किपमाणमिदि वुत्ते पढमसमए णिव्वत्तिदकिट्रीणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ त्ति तासि पमाणणि सो कदो। पढमसमयणिव्वत्तिदकिट्टीसु तप्पाओग्गपलिवोवमासंखेज्जभागेणोवट्टिवासु तत्थ भागलद्धमत्ताणमपुवकिट्टोणं विवियसमए णिवत्ती होवि त्ति वुत्तं होदि।। ७३. संपहि विवियसमयकिट्टीकारगो तकालोकट्टिक्सयलदम्वस्तासंखेज्जविभागं घेतूणापुवकिट्टीसु णिविखविय सेसबहुभागदध्वं पृथ्वकिट्टीसु फद्दएसु च समयाविरोहेण णिविखवदि त्ति घेत्तव्वं । संपहि तासिमपुल्वाणं किट्टोणं कदमम्मि ओगासे णिवत्ती होदि ति आसंकाए गिरारेगीकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * एकेकिस्से संगहकिट्टीए हेट्ठा अपुवाओ किट्टीओ करेदि । ७४. कोहसंजलणस्स पुवायुवफद्दहितो पदेसगमोकड्डियूण अप्पणो तिण्हं संगहकिट्टोणं हेट्टदो पादेक्कमपुवाओ किट्टीओ पुवकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेतीओ णिव्वत्तेवि । एवं माण-माया ७२. प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये द्रव्य से असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके कृष्टिकारक जीव दूसरे समय में कृष्टियोंको करता हुआ प्रथम समय में निष्पादित की गयी कृष्टियोंके नोचे अन्य अपूर्व कृष्टियों को निष्पादित करता है। तथा पूर्वमें निष्पादित हुई कृष्टियोंको सदृश धनरूपसे निष्पादित करता है । उन अपूर्व कृष्टियोंका क्या प्रमाण है ऐसा कहने पर प्रथम समयमें निष्पादित की गयी कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है इस प्रकार उनके प्रमाणका निर्देश किया है। प्रथम समयमें निष्पादित की गयो कृष्टियोंको तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित करने पर वहां जो भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण अपूर्व कृष्टियों को दूसरे समयमें निष्पत्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-प्रथम समय में जितनी कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है उनके प्रमाणमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो लब्ध आवे, जो कि प्रथम समयमें निष्पन्न की गयो कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, उतनी अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करता है। इसके साथ ही प्रथम समयमें निष्पन्न की गयी कृष्टियों के समान धनवालो कृष्टियोंको भी निष्पादित करता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । 5७३. अब दूसरे समयमें कृष्टिकारक जीव तत्काल अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको ग्रहण करके तथा उसे अपूर्व कृष्टियों में निक्षिप्त करके शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको पूर्वकी कृष्टियोंमें और स्पर्धकों में आगमके अविरोध पूर्वक निक्षिप्त करता है ऐसा प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिये। अब उन अपूर्व कृथ्यिों को किस अवकाश ( स्थान ) में निष्पति होती है ऐसी आशंका होने पर निःशंक करने के लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * एक-एक संग्रह कृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंको करता है। 5७४. क्रोष संज्वलनके पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें से प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके अपनी तोनों संग्रह कृष्टियोंके नीचे पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रत्येक सम्बन्धी अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी भो अपने-अपने प्रदेश१. आ. प्रती-किट्टीणं अण्णाओ इति पाठः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसेढीए विदियसमए किट्टी अप्पा बहुअपरूवणा २७ लोभाणं पि अप्पप्पणो पदेसग्ग मोकड्डियूण सगसग संगहकिट्टीणं पढमसमयणिव्वत्तिदाणं हेट्ठा पादेक्कमसंखेज्जभागमेत्तीओ णिव्वत्तदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्य संगहो । तदो बारसहं पि संगहकिट्टीणं जहष्ण कट्टी हितो हेट्ठा पादेवकं पुण्व किट्टीणमसंखेज्जदिभागमेत्तीओ अपुण्व किट्टीओ णिव्वत्तेमाणस्स बारससु द्वाणेसु अपुष्वाणं किट्टीणं विदियसमये पादुब्भावो जादो त्ति घेत्तव्वं । ७५. संपहि तत्थ दिज्जमानपदेसग्गस्स सेढिपरूवणट्टमुत्तरं सुत्तपबंधमाह - * विदियसमए दिजमाणयस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं बत्तइस्सामो । ६ ७६. सुगमं । * तं जहा । · ७७. सुगमं । * लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिजदि । ६७८. एत्थ लोभस्स जहण्णिया किट्टी त्ति वृत्ते लोभसंजलणस्स पढमसंगह किट्टीदो हेट्ठा व्वित्तिज्जमाणाणमणताणमपृथ्व किट्टीणमादिम किट्टी' घेत्तव्या । तत्थ दिज्जमानपदे सग्गमुवरिमकिट्टीसु दिज्जमानपदे सग्गादो बहुगं होइ, अण्णहा किट्टीगदपदेसग्गस्स पुष्वाणुपुथ्वीए एगगोवुच्छायारेणावणाणुववत्तदो । पुंजका अपकर्षण करके प्रथम समय में निष्पादित अपनी-अपनी संग्रह कृष्टियों के नीचे प्रत्येक सम्बन्धी असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करता है इस प्रकार यह यहाँ पर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । इसलिए बारहों संग्रह कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टियोंसे नीचे प्रत्येक सम्बन्धी पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करनेवालेके बारहों स्थानों में अपूर्व कृष्टियोंका दूसरे समय में प्रादुर्भाव हो जाता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ – सब संग्रह कृष्टियां १२ हैं । उनमें से प्रत्येक संग्रह कृष्टिसे नीचे प्रत्येक संग्रह कृष्टि सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियोंका जितना प्रमाण है उनके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंको दूसरे समय में यह जीव निष्पादित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । $ ७५. अब उनमें दोयमान प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * दूसरे समय में वीयमान प्रवेशपुंजका श्रेणिप्ररूपण बतलावेंगे । ९ ७६. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ ७७. यह सूत्र सुगम है । लोभको जघन्य कृष्टिमें बहुत प्रदेशपुंज दिया जाता है । ७८. यहाँ पर 'लोभको जघन्य कृष्टि' ऐसा कहने पर लोभसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिसे नीचे निष्पादित होनेवाली अनन्त अपूर्व कृष्टियोंकी आदि कृष्टि ग्रहण करनी चाहिये । उसमें दीयमान प्रदेश पुंज उपरिम कृष्टियों में दोयमान प्रदेश पुंजसे बहुत होता है, अन्यथा कृष्टिगत प्रदेशपुंजका पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंकी अपेक्षा एक गोपुच्छाकाररूपसे अवस्थान नहीं बन सकता । १. आ. प्रतौ किट्टीओ इति पाठः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * विदियाए किट्टीए विसेसहीण मणंतभागेण । $ ७९. एत्थानंतभागेणेत्ति वृत्ते एयवग्गणविसेसमेत्तेणेत्ति घेत्तम्वं । तेण पढमकिट्टीए णित्ति देसग्गादो विदियकिट्टीए णिसिचमाणपदेसग्गमेयवरगण विसेसमेत्तेण होणं होदि त्ति सिद्धं । * ताव अनंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादोति । २८ ८०. एगेण वग्गणविसेसमवद्विदपमाणमणं तराणंतरादो हीणं काढूण ताव णेदव्वं जाव विदियसमए लोहस्स पढमसंगह मिट्टीए हेट्ठा णिवत्तिज्जमाणाण नपुत्र किट्टोणं चरिम किट्टीदो त्ति । कुद ? एम्म अद्धा अनंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। एवमेदम्मि विसए अनंत भागहाणी पविणा काढूण तदो पढमसमयणिन्बत्तिदाणं लोभस्स पढमसंगह किट्टीए अंतर किट्टीणं जा जहणिया पुव्व किट्टी तत्थ केरिसं पदेसणिवखेवं करेदित्ति आसंकाए निण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तारंभी * तदो पढमसमए णिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज दिभागेण । $ ८१. तं जहा - पढमसमए किट्टीसु णिसित्ता से सपदे सपिंडादो विदियसमए किट्टीसु निसिच्चमाणसयल पदे सपिंडो असंखेज्जगुणो होदि । किं कारणं ? अनंतगुणविसोहीए ओकड्डियून गहिदत्तादो । तेण कारणेण विदियसमयाम्म अपुव्वाणं चरिमकिट्टीए निसित्तपदेस पडो पढमसमय * दूसरी कृष्टिमें अनन्तवें भाग प्रमाण विशेषहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है । ७९. इस सूत्र में 'अनंतभागेण' ऐसा कहने पर 'एक वर्गणाविशेषमात्रसे' ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इसलिए प्रथम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंज से दूसरी कृष्टि में निक्षिप्यमान प्रदेश पुंज एक वर्गणाविशेषमात्र होन होता है यह सिद्ध होता है । * इस प्रकार तब तक अनन्तवें भागप्रमाण होन द्रव्य दिया जाता है जबतक कि लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे निर्वर्तमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है । ९८० एक वर्गणाविशेषको अवस्थित प्रमाणरूपसे हीन करके अनन्तर तदनन्तर क्रमसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक दूसरे समय में लोभको प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे निवर्तमान अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है, क्योंकि इस स्थानमें अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार असम्भव है । इस प्रकार इस स्थान पर अनन्त भागहानिरूपसे प्रदेशविन्यास करके उसके बाद लोभको प्रथम संग्रह कृष्टिको प्रथम समय में निर्वर्तमान अन्तर कृष्टियोंकी जो जघन्य पूर्व कृष्टि है उसमें किस प्रकारके प्रदशोंका निक्षेप करता है ऐसी आशंका होने पर निर्णयका विधान करने के लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करत हैं * उससे प्रथम समय में निर्वर्तत लाभकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तर कृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिमें असंख्यातवें भागप्रमाण विशेषहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है । ९ ८१ वह जैसे - प्रथम समय में कृष्टियां में निक्षिप्त किये गये समस्त प्रदेशपिण्ड से दूसरे समय में कृष्टियों मे निक्षिप्यमान समस्त प्रदेशविण्ड असंख्यातगुणा होता है । शंका- इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि अनन्तगुणी विशुद्धिवश अपकर्षित करके इस प्रदेशपिण्डका ग्रहण किया है । इस कारण दूसरे समय में अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त किया गया प्रदेशपिण्ड Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए विदियसमए किट्टीअप्पाबहुअपरूवणा जहण किट्टीए पुवावट्टिदपदेसपिंडादो विसोहिपाहम्मेणासंखेज्जगुणो होदि ति दृढव्वं । पुणो पढमसमयणिन्वत्तिदजहण्णकिट्टीए उवरि संपहि णिसिंचमाणदव्वं पि पुध कादूग जोइज्जमाणं तत्थ पुवावट्टिददव्वादो असंखेज्जगुणं चेव भवदि,ओकड्डिददव्वमाहप्पमस्सियूग किट्टि पडि एण्हि णिसिंचमाणदव्वस्स तहाभावदसणादो। एवं होदि त्ति कादूग तत्थ पुरवावट्टिदासंखेज्जविभागमेत्तदव्वेण पुणो अणंतिमभागमेत्तेण च होणो पदेसविण्णासो तत्थ इच्छि पन्नो, अण्णहा पुवापुत्रकिट्टीणमेय. गोवुच्छायारेण समवढाणाणुववत्तीदो। एदेण कारणेणासंखेज्जभागहीणो पदेसविण्णासो एदम्मि संधिविसेसे जादो त्ति घेत्तव्वं । एवमुवरि वि जत्थ जत्थ अपुव्वाणं चरिमादो पुवकिट्टी जहणियाए किट्टीए असंखेज्जदिभागहीणं पदेसणिक्खेवं भणिहिदि तत्थ तत्य एसो चेव अत्थो परवेययो । एवमेदमिम संधिविसए संखेज्जभागहीणं पदेसविण्णासं कादूण तदो एत्तो उवरिमासु सव्वासु चेव लोभसंजलणस्स पढमसंगहकिट्टीए पढमसमयणिवत्तिवासु किट्टीसु अणंतराणंतरादो अणंतभागहीणं चेव पवेसणिसेगमेसो कुणवि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो * तदो विदियाए अणंतभागहीणं । तेण परं पढमसमयणिबत्तिदासु लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए किट्टीसु अणंतराणंतरेण अणंतभागहीणं दिजमाणगं जाव पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । ६८२. कुदो ? एदम्मि विसए अणंतराणंतरं पेक्खियूण एगेगवग्गणविसेसहाणीए पदेस. णिक्खेवं कुणमागस्स तदविरोहादो। संपहि एत्तो उवरि लोभस्स विदियसंगहकिट्टीए हेट्ठा णिव्वत्तिज्जमाणाणमपव्वकिट्टीणं जा जहणिया किट्टी तत्थ किंविधो पदेसविण्णासो होदि ति प्रथम समयसम्बन्धी जघन्य कृष्टिमें पहलेके अवस्थितप्रदेश पिण्डसे विशुद्धिको प्रधानतावश असंख्यातगुणा होता है ऐसा जानना चाहिये । पुनः प्रथम समय में निर्तित जघन्य कृष्टिके कार इस समय सींचे जानेवाले द्रव्य को भी पृथक् करके देखने पर वह वहां पर पूर्वके अवस्थित हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणा ही होता है, क्योंकि अपकर्षित हुए द्रव्यके महत्त्वका आश्रय कर कृष्टिके प्रति इस समय सींचा जानेवाला द्रव्य उस रूपसे देखा जाता है। ऐसा होता है ऐसा करके (समझकर) वहां पहलेके अवस्थित हुए असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यसे और पुनः अनन्त भागमात्रसे हीन प्रदेश विन्यास वहां पर स्वीकार करना चाहिये, अन्यथा पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंका एक गोपुच्छाकाररूपसे अवस्थान नहीं बन सकता। इस कारण इस सन्धि विशेष में असंख्यात भागहीन प्रदेश विन्यास हो गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार आगे भी जहां-जहाँ अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिसे पूर्व कृष्टियोंको जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवां भागहोन प्रदेशविन्यास कहेंगे वहां-वहां यही अर्थ कहना चाहिए। इस प्रकार इस सन्धिस्यानमें संख्यात भागहीन प्रदेशविन्यास करके तदनन्तर इससे उपरिम सभी, लोभसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिकी, प्रथम समयमें निर्तित कृष्टियों में अनन्तर-अनन्तर क्रमसे अनन्तभागहीन ही प्रदेश निक्षेप यह जीव करता है इस बात का ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं * उससे दूसरी कृष्टिमें अनन्त भागहीन प्रवेशपुंज दिया जाता है। उससे आगे प्रथम समयमें निर्वतित लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी कृष्टियोंमें अनन्तर-अनन्तर क्रमसे प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्त भागहीन प्रवेशपुंज दिया जाता है। ६८२. क्योंकि इस स्थान में अनन्तर-अनन्तर कृष्टियोंको दिये जानेवाले प्रदेशपुंजको देखते हुए उत्तरोत्तर एक-एक वर्गणाविशेषको हानि द्वारा प्रदेश निक्षेपको करनेवालेके वैसा होने में विरोधका अभाव है। अब इससे आगे लोभको दूसरी संग्रहकृष्टिके नीचे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुवरिमं पबंधमाह___* लोभस्स चेव विदियसमए विदियसंगहकिट्टीए तिस्से जहण्णियाए किट्टीए दिजमाणगं विसेसाहियमसंखेजदिमागेण । ६८३. पंढमसमए णिव्वत्तिदा जा लोभस्स विदियसंगहकिट्टी तिस्से हेट्ठा विदियसमए णिव्वत्तिज्जमाणा अव्वकिट्टीणं पंती पुवकिट्टोहिं सह विवक्खिया विदियसमए विदियसंगहकिट्टी णाम । तिस्से जा जहणिया किट्टी तत्थ दिज्जमाणयं पदेसग्गं पढमसंगहकिट्टीचरिमकिट्टोए णिसित्तपदेसग्गं पेक्खियूण विसेसाहियं होदि। होतं पिणियमा असंखेजदिभागब्भहियं चेव, अण्णहा तत्तो एदस्स एयवग्गणविसेसमेत्तेण हाइकूण एयगोवुच्छायारेण समवट्ठाणाणुववत्तीदो। तं जहा 5 ८४. पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टिम्मि जेत्तिमो एण्हिं पदेसणिक्खेवो को तेत्तियमेत्तो चेव जइ विदियसंगहकिट्टीए हेट्ठिमाणमपवकिट्टोणं जहण्णकिट्टीए पदेसणिक्खेवो होज्ज तो तत्तो एदस्सासंखेज्जदिभागहोणतं पसज्जदे, तत्थ पुवावट्टिदासखेज्जदिभागमेत्तदव्वस्सेत्य परिहोणतदसणावो । ण चेदमिच्छिज्जदे, सव्वासु किट्टीसु एया गोवुच्छासेढि ति पदण्णाए विघादप्पसंगादो। तम्हा तत्थ पुवावटिददव्वमेत्तेणाणंतभागहोणेण समहिओ पदेसणिक्खेवो एत्थ इच्छियव्यो। अण्णहा तत्तो एगवग्गणविसेसमेत्तेण हाइदूण एत्थतणपदेसग्गस्सावट्ठाणविरोहावो। तदो सिद्धमसंखेज्जविभागुत्तरो पदेसणिसेगो एवम्मि उद्देसे जादो ति। एवमुरि वि जत्थ जत्थ पुवकिट्टीणं चरिमादो अपुव्वाणं जहणकिट्टीए असंखेज्जविभागुत्तरं पदेसणिक्खेवं भणिहिदि तत्य तत्य कारणकृष्टियोंमें जो जघन्य कृष्टि है उसमें किस प्रकारका प्रदेशविन्यास होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * लोभको ही दूसरे समयमें उस दूसरी संग्रह कृष्टिको जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवां भागप्रमाण विशेष अधिक प्रदेशपुंज दिया जाता है। ६८३. प्रथम समयमें लोभकी जो संग्रह कृष्टि निष्पन्न हुई उसके नीचे दूसरे समयमें जो अपूर्व कृष्टियोंकी पंक्ति निष्पन्न हो रही है, पूर्व कृष्टियोंके साथ विवक्षित हुई वह दूसरे समयमें दूसरी संग्रह कृष्टि कहलाती है। उसकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें दिया जानेवाला प्रदेशपुंज प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजको देखते हुए विशेष अधिक होता है। ऐसा होता हुआ भी नियमसे असंख्यातवां भागप्रमाण ही अधिक होता है, अन्यथा उससे इसके एक वर्गणा विशेषमात्र घटकर एक गोपुच्छाके आकाररूप समवस्थान नहीं बन सकता है। वह जैसे ६.८४. प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिमें इस समय जितना प्रदेशनिक्षेप किया है उतना ही यदि दूसरी संग्रह कृष्टिकी अधस्तन अपूर्व कृष्टियोंसम्बन्धी जघन्य कृष्टिमें प्रदेश निक्षेप होवे तो उससे इसके असंख्यातवें भागहीनपनेका प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि उसमें जो पूर्वका असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य अवस्थित है उसकी हानि देखी जाती है। परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि समस्त कृष्टियोंमें एक गोपुच्छा पंक्ति होती है इस प्रतिज्ञाके विघातका प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए उसमें जो पहलेका अनन्तवा भागहीन द्रव्य अवस्थित है उससे अधिक प्रदेश निक्षेप यहाँ स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा उससे एक वर्गणाविशेष मात्र घटकर यहाँके प्रदेशपुंजके अवस्थान माननेमें विरोध आता है, इसलिए सिद्ध हुआ कि असंख्यातवां भाग अधिक प्रदेश निक्षेप इस स्थान में हो गया है । इसी प्रकार आगे भी जहाँ-जहां पूर्व कृष्टियों सम्बन्धी अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवा भाग अधिक प्रदेश निक्षेप कहेंगे वहां-वहां यह कारण कहना चाहिए। अब Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए विदियसमए किट्टीअप्पा बहुअपरूवणा मैवं परूवेयव्यं । संपहि एत्तो उवरिमासु अपव्यकिट्टीसु विदियसंगह किट्टीए हेट्ठा निव्वत्तिज्जमाणिया अतरोवणिधाएं अनंतभागहीणं चेव पदेसणिक्खेवं कुणवि त्ति पटुप्पायनद्रुमुत्तरसुत्तं भणवि * तैण परमणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादोति । ३१ § ८५. किं कारणं ? एदम्मि अद्धाणे अनंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । संपहि एत्थतणाणमपुण्व किट्टीणं चरिमादो पढमसमये णिव्वत्तिदाणं पुञ्चकिट्टीणं लोभविदियसंगहकिट्टीपडिबद्धाणं जहणियाए किट्टीए पदेसविण्णासो एदेण सरूवेण पयट्टवि त्ति पटुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तदो पढमसमयणिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज दिभागेण । ६८६. तत्थ पुण्वावट्टिदासंखेज्ज विभागमेत्तेण पुणो एगवग्गण विसेसमेत्तेंण च परिहीणो पदे णिसेगो एवम्मि संधिविसेसे होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थ संगहो । * तेण परं विसेसहीणमणंतभागेण जाव विदियसंगह किट्टीए चरिमकिट्टि त्ति | ८७. सुगमं । * तदो जहा विदियसंगहकिट्टीए विधी तहा चैव तदियसंगह किट्टीए विधी च । ६ ८८. जहा विaियसंगह किट्टीए आदिम्मि अध्वाणं जहण्ण किट्टीए एगवार मसंखेज्जभागुत्तरपदेसविण्णासो हो तत्तो परमणंतभागहाणीए अपुथ्व किट्टीओ समुल्लंघियूण पुष्व किट्टीणमा दिल्ल इससे उपरि अपूर्व कृष्टियों में दूसरी संग्रह कृष्टि के नीचे निष्पन्न होनेवाली कृष्टियों में अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अनन्तभागहीन ही प्रदेश निक्षेप करता है इस बातका कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * उससे आगे दूसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक अनन्तभागहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है । $ ८५. क्योंकि इस स्थान में अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । अब यहाँकी अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टिसे प्रथम समय में निष्पन्न हुई लोभसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसम्बन्धी पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें प्रदेश निक्षेप इस रूपसे प्रवृत्त होता है इस बातका कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * उससे प्रथम समय में निष्पन्न हुई संग्रह कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातवें भागहीन प्रवेशपुंज दिया जाता है । $ ८६. क्योंकि उसमें पूर्व के अवस्थित असंख्यातवें भागप्रमाण एक वर्गणा विशेषमात्र परिहीन प्रदेश निक्षेप इस सन्धिविशेष में होता है यह यहां इस सूत्रका समुच्चयार्थ है । * उससे आगे दूसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि तक अनन्तवें भागप्रमाण विशेष होन द्रव्य दिया जाता है । ९ ८७. यह सूत्र सुगम है । * तदनन्तर जिस प्रकार दूसरी संग्रह कृष्टिकी विधि कही गयी है उसी प्रकार तीसरी संग्रह कृष्टिकी विधि जाननी चाहिए । $ ८८. जिस प्रकार दूसरी संग्रह कृष्टिके आदिमें अपूर्वं कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें एक बार असंख्यातवें भाग अधिक प्रदेश विन्यास होकर उससे आगे अनन्तभाग हानि द्वारा अपूर्वं कृष्टियों Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जय धवलासहिदे कसायपाहुडे संधीए सइमसंखेज्जभागहाणी होदूण तत्तो परमणंतभागहाणीएं चेव पदेसणिसेगविही परुविदो तहा चेव लोभतदियसंगह किट्टीए वि अणूणाहिओ परूवेयग्वोत्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चयो । संपहि लोभसंजलणस्स तदियसंगह किट्टीए चरिमकिट्टिम्मि णिसित्तपबेसग्गादो मायाए पढमसंगहकिट्टीए हेट्ठा वित्तिज्जमाणाणमपुद किट्टीणं जहणियाए किट्टीए णिसिच्चमाणपदेसग्गमेदेण कमेण पयट्टदित्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं * तदो लोभस्स चरिमादो किट्टीदो मायाए जा विदियसमए जहण्णिया किड्डी तिस्से दिदि पदेसग्गं विसेसाहियमसंखेज दिभागेण । ९ ८९. कारणमेत्य सुगमं, अणंतरमेव परुविदत्तादो । * तदो पुण अनंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो ति । ९०. सुगमं । * एवं जम्हि जम्हि अपुव्वाणं जहण्णिया किट्टी तम्हि तम्हि विसेसाहियमसंखेज दिभागेण अपुव्वाणं चरिमादो असंखेज दिभागहीणं । ९१. एवमणंतरपविदेण कमेण उवरि वि सेढिपरूवणाए कीरमाणाए जम्हि जम्हि उद्देसे पुण्वाणं चरिमादो अपुव्वाणं जहणिया किट्टी भण्णदे तम्हि तम्हि तदणंतरहेट्ठिमपुत्रकिट्टीए निमित्तवदेसग्गादो असंखेज्जद्विभागेण विसेसाहियं काढूण पदेसग्गं णिक्खिवदि । पुणो को उल्लंघन कर पूर्व कृष्टियोंकी आदिम सन्धिमें एक बार असंख्यात भागहानि होकर उससे आगे अनन्तभाग हानिरूपसे ही प्रदेशनिषेकविधि कहनी चाहिए। तथा उसी प्रकार लोभकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी भी न्यूनाधिकता से रहित विधि कहनी चाहिए, यह यहाँ पर सूत्रार्थसमुच्चय है । अब लोभसंज्वलनकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे माया संज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टि के नीचे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें निक्षिप्त होनेवाला प्रदेश पुंज इस क्रम से प्रवृत्त होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र आया है * तत्पश्चात् लोभ संज्वलनको अन्तिम कृष्टिसे माया संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे दूसरे समय में जो जघन्य कृष्टि निष्पन्न होती है उसमें दिये जानेवाला प्रवेश पुंज असंख्यात भागप्रमाण विशेष अधिक होता है । $ ८९. यहाँपर कारणका कथन सुगम है, क्योंकि वह अनन्तर पूर्व ही कह आये हैं । * पुनः इससे आगे अपूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्त भागहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है । ९०. यह सूत्र सुगम है । * इस प्रकार जहाँ-जहाँ पूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियों की जघन्य कृष्टि कही गई है वहाँ वहाँ असंख्यातवाँ भागप्रमाण अधिक प्रदेशपंज दिया जाता है और जहाँ-जहाँ अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टिसे पूर्वं कृष्टियों की जघन्य कृष्टि कही गई है वहाँ वहाँ असंख्यातवाँ भागहोन प्रदेशपुंज दिया जाता है । $ ९१. इस प्रकार अनन्तर पूर्व कहे गये क्रमके अनुसार आगे भी श्रेणिप्ररूपणा करनेपर जिस-जिस स्थान पर पूर्वं कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिसे अपूर्वं कृष्टियोंको जघन्य कृष्टि कही जाती है उस-उस स्थानपर तदनन्तर अधस्तन पूर्व कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे असंख्यातवें भागप्रमाण Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसे ढोए विदियसमए किट्टीटाणेसु दिज्जमानपदेस परूपणा जहि जम्हि अपुव्वाणं चरिमकिट्टीदो पुव्वाणं जहण्णिया किट्टी भण्णदे तम्हि तम्हि पुण्यणिसित्तासंखेज्जविभागमेत्तदव्वेण परिहीणं काढूण पदेसग्गं णिसिचदि । तदण्णत्थ पुण अनंतंराणंतरावो अनंतभागहाणीए पदे णिसेगं कुणदि त्ति एसो एक्स्स सुत्तस्स भावत्यो । एवं च सेढिपरूवणं काढूण जोइज्जमाने के लिए उद्देसेसु असंखेज्जभागहीनो पदेसविण्णासो जादो, केत्तिएसु वा उद्दद्दे से सु असंखेज्जदिभागुत्तरो पदेसणिक्खेवो जादो त्ति इममत्यविसेसं परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदेण कमेण विदियसमए णिक्खिवमाणगस्स पदेसग्गस्स बारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जदिभागहीणं । एकारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेजदिभागुत्तरं दिजमाणगस्स पदे सग्गस्स । ९२. एवमणंतरपरू विदकमेण सेढिपरूवणं काढूण पुणो आदीदो प्पहूडि तम्हि जोइज्जमाणे विदियसमए णिचिचमाणगस्स पदेसग्गस्स बारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जविभागहीणं समवट्टा होवि, बारसहं पि संगह किट्टीणमादिमसंघीसु अपुरुत्राणं चरिमकिट्टीवो पुण्यजहण्ण किट्टीए णिसिचचमाणपवेसगास्स परिष्फुडमेव तहाभावोवलंभादो । पुणो एक्कारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जभागुत्तरं दिज्जमानपदेसग्गावद्वाणं होइ, पुव्वकिट्टीणं चरिमसंघीदो अपुव्वाणं जहण्णकिट्टीसु णियमा असंखेज्जदिभागुत्तरं पदेसणिवखेवं कुणमाणस्स तहाभावसिद्धीए बाहावलंभादो । पुणो एवाणि तेवीस संधिद्वाणाणि मोत्तूण सेसासेस किट्टिट्ठाणेसु अनंतभागहीणो चेव पदेसविण्णासो होइ, तत्थ पारंतर संभवो 'त्ति जाणावण फलमुत्तरसुत्तमो इण्णं ३३ विशेष अधिक करके प्रदेशपुंज निक्षिप्त करता है । तथा जिस-जिस स्थान पर अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टिसे पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि कही जाती है उस उस स्थान पर पूर्व में निक्षिप्त हुए असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको होन करके प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । पुनः उससे अन्यत्र अनन्तर-अनन्तररूपसे अनन्त भागहानि द्वारा प्रदेश निषेकको करता है यह इस सूत्र का भावार्थ है । इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणाको करके देखनेपर कितने ही स्थानोंमें असंख्यात भागहीन प्रदेश विन्यास हो गया है तथा कितने ही स्थानों में असंख्यातवां भाग अधिक प्रदेश निक्षेप हो गया है इस प्रकार इस अर्थ विशेषका कथन करते हुए आगे के सूत्र को कहते हैं * इस क्रमसे दूसरे समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका बारह स्थानों में असंख्यातवें भागहीन अवस्थान होता है तथा दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका ग्यारह स्थानोंमें असंख्यातवें भाग अधिक अवस्थान होता है । ६ ९२. इस प्रकार अनन्तर कहे गये क्रमके अनुसार श्रेणिकी प्ररूपणा करके पुनः प्रारम्भसे लेकर उसके देखने पर दूसरे समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका बारह कृष्टिस्थानों में असंख्यातवें भागहीन अवस्थान होता है, क्योंकि बारह हो संग्रह कृष्टियोंकी प्रारम्भिक सन्धियों में अपूर्व अन्तिम कृष्टिसे पूर्व की जघन्य कृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशपुंज स्पष्ट रूपसे उस प्रकार उपलब्ध होता है । तथा ग्यारह कृष्टि स्थानोंमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका असंख्यातवें भाग अधिक अवस्थान होता है, क्योंकि पूर्व कृष्टियों को अन्तिम कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियों को जघन्य कृष्टियों में नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक प्रदेशोंका निक्षेप करनेवालेके उस प्रकार से सिद्धि होने में बाधा नहीं पायी जाती है । पुन: इन तेईस सन्धि स्थानोंको छोड़कर शेष समस्त कृष्टिस्थानों में उत्तरोत्तर अनन्तवें भागहीन प्रदेशविन्यास होता है, क्योंकि उन स्थानों में प्रकारान्तर सम्भव नहीं है इस प्रकार इस बातका ज्ञान कराने के फलस्वरूप आगेका सूत्र आया है १. ता. आ. प्रत्योः पयारंतरासंभवो इति पाठः । ५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे • सेसेसु किट्टिट्ठाणेसु अणंतभागहीणं दिजमाणगस्स पदेसग्गस्स । ६९३. कुदो ? एगेगवग्गणविसेसमेत्तेण अणंतराणंतरादो होणं कादूण तत्थ पदेसणिसेगं कुणमाणस्स पयारंतराणुवलंभादो। * विदियसमए दिजमाणयस्स पदेसग्गस्स एसा उट्टकूडसेढी । ९४. जदो एवं बारससु किट्टिट्ठाणेस असंखेज्जविभागहाणीए परिहाइदूण एक्कारससु किट्टिट्ठाणेस असंखेजभागुत्तरवड्डीए वडिदूण पुणो सेसासेसकिट्टिट्ठाणेसु.अणंतभागहाणीए विदियसमए दिज्जमाणपदेसग्गस्स समवढाणणियमो तदो एसा विज्जमाणपदेसग्गस्स सेढी उट्टकूडसरिसी जावा। जहा उट्टस्स पुट्ठी पच्छिमभागे उच्चा होदूण पुणो मज्झे णीचा भवदि, पुणो उवरि वि णीचुच्चसरूवेण गच्छवि, एवमिहावि पदेसणिसेगो आदिम्मि बहुगो होदूण पणो थोवो भवदि पुणो वि संघिविसेसेसु थोवो बहुओ च होदूण गच्छवि ति तेण कारणेण उट्टकूडसमाणा सेढी विज्जमाणपवेसग्गस्स जादा त्ति भणिवं होइ। ६९५. संपहि एत्थेव विस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपख्वणमिवमाह* शेष कृष्टिस्थानोंमें दीयमान प्रदेशजका अनन्त भागहीन अवस्थान होता है। ६९३. क्योंकि एक-एक वर्गणाविशेषको अनन्तर-तदनन्तर क्रमसे हीन करके उन कृष्टिस्थानोंमें प्रदेशनिषेकको करनेवालेके अन्य प्रकार नहीं उपलब्ध होता। * इस प्रकार दूसरे समयमें दीयमान प्रदेशजको यह उष्ट्रकूट श्रेणि है। ६९४. यतः इस प्रकार बारह कृष्टि स्थानोंमें असंख्यातवें भागहोनप्रमाण घटकर और ग्यारह कृष्टिस्थानोंमें असंख्यात भाग वृद्धि प्रमाण बढ़कर पुनः शेष सम्पूर्ण कृष्टि स्थानोंमें अनन्तभागहानिरूपसे दूसरे समयमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजके अवस्थानका नियम है, इसलिए दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी यह श्रेणि उष्ट्रकूटके समान हो जाती है। जिस प्रकार ऊंटकी पीठ पिछले भागमें ऊंची होकर पुनः मध्यमें नीची हो जाती है। पुनः आगे भी ऊंची और नीची होकर जाती है इसी प्रकार यहां इस श्रेणिमें भी प्रदेशनिषेक प्रारम्भमें बहत होकर पुनः स्तोक होता है तथा फिर भी सन्धि-विशेषोंमें कम-अधिक होता जाता है, इस कारण दोयमान प्रदेशपुंजकी श्रेणि उष्ट्रकूटके समान हो गयी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-संग्रहकृष्टियां बारह हैं, अतः उनके सन्धिस्थान ग्यारह होते हैं तथा इस कारण अन्तर कृष्टियोंके सन्धिस्थान बारह हो जाते हैं। इन सन्धिस्थानोंको ध्यानमें रखकर निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजका अवस्थान जिस-जिस स्थानपर पूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि कही गयो है वहां-वहाँ तदनन्तर अधस्तन कृष्टि में निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे असंख्यातवें भाग प्रमाण अधिक होता है तथा जिस-जिस स्थानपर अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिसे पूर्वकृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि कही गयो है वहाँ-वहाँ पूर्व निक्षिप्त हुए द्रव्यसे असंख्यातवें भागहीन द्रव्य होता है । तथा इन तेईस स्थानोंको छोड़कर शेष रहे सभी स्थानोंमें अनन्तवें भागहीन प्रदेश विन्यास होता है । इस कारण दूसरे समयमें पूरा प्रदेश विन्यास ऊंटकी पोठके समान हो जाता है। जिस प्रकार ऊँटको पीठ पिछले भागमें ऊंची होकर मध्यमें नीची होती है। पुनः नीची-ऊंची होकर जाती है । उसी प्रकार प्रदेशविन्यास भी आदिमें बहुत होकर पुनः स्तोक होता है। तथा इसके बादमें पुनः स्तोक बहुत होकर जाता है। इस कारण दूसरे समयमें दिये जानेवाले इस प्रदेश विन्यासको प्रकृतमें उष्ट्रकूटश्रेणि कहा गया है। ६९५. अब यहीं पर दिखनेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए सेसमयएसु किट्टीट्ठाणेसु दिज्जमाणपदेसपरूवणा * जं पुण विदियसमए दीसदि किट्टीसु पदेसग्गं तं जहणियाए बहुअं, सेसासु सव्वासु अणंतरोवणिधाए अणंतभागहीणं । ६९६. जहा दिज्जमाणपदेसग्गस्स उट्टकूडागारेण णिसेगविण्णासो जादो ण तहा दिस्समाणगस्स पदेसग्गस्स; किंतु जहण्णियाए किट्टीए बहुअं होदूग सेसासु सव्वासु किट्टीसु जहाकममणंतराणंतरादो अणंतभागहाणीए चेव दिस्समाणपदेसग्गस्सावट्ठाणं होइ, पयारंतरपरि• हारेणेगेगवग्गणविसेसहाणिपदेसग्गावट्ठाणस्स तत्थ परिप्फुडमुवलंभादो। एवमेत्तिएण पबंधेण विदियसमए दिज्जमाण-दिस्समाणपदेसगस्त सेढिपरूवणं समाणिय संपहि तदियादिसमएसु वि एवं चेव सेढिपरूवणा कायव्वा त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह___* जहा विदियसमए किट्टीसु पदेसग्गं तहा सव्विस्से किट्टीकरणद्धाए दिजमाणगस्स पदेसग्गस्स तेवीसमुट्टकूडाणि । ६९७. जहा विदियसमए विज्जमाणपदेसग्गरस तेवीसमुट्टकूडाणि जावाणि तहा सविस्से चेव किट्टीकरणद्धाए परूवेयवाणि, विसेसाभावादो त्ति भणिदं होइ। ६९८. संपहि दिस्समाणयं सम्वत्थोवाणंतभागहाणीए एयगोवुच्छायारेण वटव्वं, तत्य पयारंतरासंभवो' त्ति जाणावणमत्तरसुत्तावपारो * पुनः दूसरे समयमें कृष्टियोंमें जो प्रदेशपुंज दिखाई देता है वह जघन्य कृष्टि में बहुत होता है, शेष सब कृष्टियोंमें अनन्तरोपनिषाको अपेक्षा अनन्त भागहीन होता है। ६९६. जिस प्रकार दोयमान प्रदेशपुंजका उष्ट्रकूटके आकारके समान निषेक विन्यास हो जाता है, दिखनेवाले प्रदेशपुंजका उस प्रकारसे प्रदेशविन्यास नहीं होता है। किन्तु जघन्य कृष्टिमें बहुत होकर शेष सभी कृष्टियों में यथाक्रम अनन्तर-अदनन्तररूपसे अनन्त भागहानि होकर ही दिखनेवाले प्रदेशपुंजका अवस्थान होता है, क्योंकि प्रकारान्तरपनेके परिहार द्वारा एक-एक वर्गणा विशेष की हानि होकर प्रदेशपुंजका अवस्यान वहाँपर स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा दूसरे समय में दोयमान और दिखनेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा समाप्त करके अब तीसरे आदि समयों में भी इसी प्रकार श्रेणिप्ररूपणा करनी चाहिए इस बातका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं .* जिस प्रकार दूसरे समयमें कृष्टियों में दीयमान प्रदेशपुंजको प्ररूपणा की है उसी प्रकार समस्त कृष्टिकरणके कालमें दीयमान प्रदेशपुंजको प्ररूपणा करनेपर तेईस उष्ट्रकूट होते हैं। ६९७. जिस प्रकार दूसरे समयमें दोयमान प्रदेशपुंजके तेईस उष्ट्रकूट हो जाते हैं उसी प्रकार पूरे कृष्टिकरणके कालमें कथन करना चाहिए, क्योंकि पूर्वोक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तासर्य है। . विशेषार्थ-कुल सन्धिस्थान तेईस हैं, इसलिए दूसरे समय में जिस प्रकार दीयमान प्रदेशपुंजको तेईस उष्ट्रकूटश्रेणियां हो जाती हैं उसी प्रकार आगे भो कृष्टिकरणका जितना काल शेष रहा है उसके प्रत्येक समय में दीयमान प्रदेशपुंजको उष्ट्रकूटके समान रचना जान लेनी चाहिए। ६९८. अब दिखनेवाला प्रदेशपुंज सर्वत्र अनन्त भागहानि द्वारा एक गोपुच्छाके आकारसे सबसे स्तोक जानना चाहिए, वहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है१. ता. प्रती-संभवादो इति पाठः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे * दिस्समाणयं सव्वहि अनंतभागहीणं । ९९. यत्थमेवं सुतं । संपहि किट्टीकरणद्धाए समयं पडि ओकडुिज्जमाणदव्व विसेस - जाणावणमुवरिममप्पा बहुअसुत्तमाह - * जं पदेसग्गं सव्वसमासेण पढमसमए किट्टीसु दिजदि तं थोवं । विदियसमए असंखेजगुणं । तदियसमये असंखेजगुणं । एवं जाव चरिमादो त्ति असंखेजगुणं । १००. डिसमयमणंत गुणाए विसोहीए वडमाणो सव्विस्से चेव किट्टीकरणद्धाए असंखेज्जगुणमसंखेज्जगुणं पवेसग्गमोकड्डियूण किट्टीसु णिक्खिवदित्ति एसो एदस्स सुत्तस्स समुदायत् । एवतोमुत्तं किट्टीकरणद्धमणुपालिय कमेण किट्टीकारगचरिमसमये वट्टमाणस्स जो परूवणाविसेसो द्विविबंधाविविसओ तव्विहासणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो * किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए संजलणाणं द्विदिबंधो चत्तारि मासा अंतीमुहुत्तमहिया । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि । १०१. पुम्वुत्तसंधीए संजलणाणं द्विदिबंधो अट्ठवस्तपमाणो होतो कमेण तत्तो परिहाइदूण एत्थुद्दे से अंतो मुहुत्ता हियचतुमासमेत्तो संजावो । सेसाणं पुण कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जवरस सहस्तियादो पुल्लिद्विदिबंधादो संखेज्जगुणहाणीए संखेज्जेहि द्विविबंघोसरणसहस्सेहि ओहट्टिदो वि संतो संखेज्जवस्ससहस्समेत्तो चेव होवूण पयट्टदि ति सुत्तत्य संगहो । * तम्हि चैव किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्मं संखेजाणि वस सहस्साणि हाइदूण अट्ठवस्सिगमंतोमुहुत्तब्भहियं जादं । तिण्डं घादिकम्माणं * परन्तु दिखनेवाला प्रवेशपुंज सभी कालोंमें अनन्त भागहीन है । ६ ९९. यह सूत्र गतार्थ है । अब कृष्टिकरण कालके प्रत्येक समय में अपकर्षित होनेवाले द्रव्य विशेषका ज्ञान कराने के लिए आगे के अल्पबहुत्व सूत्रको कहते हैं * प्रथम समय में जो प्रदेशपुंज समस्तरूपसे कृष्टियों में दिया जाता है वह सबसे स्तोक है। दूसरे समय में असंख्यातगुणा है। तीसरे समय में असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार अन्तिम समय तक दिया जानेवाला प्रदेशपुंज उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा है । १०० प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ यह जीव समस्त कृष्टिकरण के काल में प्रति समय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके कृष्टियों में निक्षिप्त करता है यह इस सूत्रका समुदायरूप अर्थ है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक कृष्टिकरणकालका पालन करके क्रमसे कृष्टिकरणके अन्तिम समय में विद्यमान जीवके स्थितिबन्धादिका जो प्ररूपणा विशेष है उसका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * कृष्टिकरण कालके अन्तिम समयमें संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त अधिक चार माह होता है तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष होता है । १०१ पूर्वोक्त सन्धि संज्वलनोंका स्थितिबन्ध आठ वर्षप्रमाण होता हुआ क्रमसे उससे घटकर इस स्थान में अन्तर्मुहूर्त अधिक चार माह हो गया है । परन्तु शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षरूप बन्धसे संख्यात गुणहानि द्वारा संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरणरूपसे घटकर भी संख्यात हजार वर्षप्रमाण ही होकर प्रवृत्त रहता है यह इस सूत्र का समुच्चयार्थ है । * उसी कृष्टिकरण के कालके अन्तिम समय में मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष घटकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष हो जाता है। तथा तीन घातिकमका स्थिति Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए किट्टीओ करेंतो किट्टीओ ण वेदेदि ठिदिसंतकम्मं संखेजाणि वस्ससहस्साणि । णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेजाणि वस्ससहस्साणि । ३७ १०२. पुत्तसंधीए चदुण्हं संजलणाणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जवस्सस हस्तमेतं होण विं तत्तो कमेण हाइण एव्हिमंतोमुहुत्ता हियअट्ठवस्सपमाणं संजादं । सेसाणं तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्ममज्ज वि संखेज्जवस्ससहस्तियं चेव, मोहणीयस्सेव तेसि सुट्टु विसेसघावाभावादो । तिहमघाविकम्प्राणं पुण द्विवि संतकम्ममसंखेज्जगुणहाणीए जहाकममोवट्टमाणं पि अज्ज वि असंखेज्जवस्तसहस्सपमाणं चेव होह, तेसिमेवम्मि विसये पयारंतरासंभवादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यविणिच्छओ । एवमेवीए परूवणाए किट्टोकरणद्धाचरिमसमए वट्टमाणस्स पुणो वि अइक्कं तत्थविसये किंचि परूवणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * किट्टीओ करेंतो पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च वेदेदि, किट्टीओ न वेदयदि । ६ १०३. जहा अपुव्वफद्दयानि करेमाणो तदवत्थाए चेव पुग्वफद्दएहि सह अनुष्वफद्दयाणि वेवेविण एवमेसो किट्टीकारगो किट्टीओ वेदेवि, किन्तु किट्टीकरणकालभंतरे सव्वत्थेव पुण्वापुवफद्दयाणि चेव पुष्वुतेण कमेण वेदेदित्ति भणिदं होदि । संपहि किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए पुण्यापुण्यफद्दयाणमसंखेज्जदिभागमेंत्तं दव्वं दुचरिमसमयोकड्डिददव्वादो असंखेज्जगुण पमाणमोट्टि व कमेण किट्टीसु णिक्खिवदि । पुम्वापुवफद्दयाणि च ताधे अविणसरुवाणि सत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण तथा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म असंख्यात हजार वर्ष प्रमाण हो जाता है । १०२. पूर्वोक्त सन्धिमें चार संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होकर स्थित रहता है । पुनः उससे क्रमशः घटकर इस समय अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष प्रमाण हो जाता है। शेष तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म अभी भी संख्यात हजार वर्ष प्रमाण ही रहता है, क्योंकि मोहनीय कर्मके समान उनका अच्छी तरह विशेष घात नहीं होता । परन्तु असंख्यात गुणहानि द्वारा क्रमशः अपवर्तनको प्राप्त हुए तीन अघाति कमौका स्थितिसत्कर्म अभी भी असंख्यात हजार वर्षप्रमाण ही रहता है, क्योंकि उनका इस स्थानपर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है यह यहाँपर सूत्रके अर्थका निश्चय है । इस प्रकार इस प्ररूपणा द्वारा कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय में विद्यमान हुए जीवके फिर भी व्यतीत हुए अर्थके विषय में किंचित् प्ररूपणा करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * कृष्टियों को करनेवाला जीव पूर्व स्पधंकों और अपूर्व स्पर्धकों का वेदन करता है, कृष्टियोंका वेदन नहीं करता । ६ १०३. जिस प्रकार अपूर्व स्पधंकों को करनेवाला जीव उस अवस्था में ही पूर्व स्पर्धकोंके साथ अपूर्व स्पर्धकों का वेदन करता है उस प्रकार कृष्टिकारक यह जीव कृष्टियों का वेदन नहीं ही करता है । किन्तु कृष्टिकरण के काल के भीतर सभी समयों में ही पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों का ही पूर्वोक क्रमसे वेदन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब कृष्टिकरण के कालके अन्तिम समय में पूर्व ओर अपूर्व स्पर्धकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य, जो कि उपान्त्य समय में अपकर्षित किये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, उसे अपकर्षित करके पूर्वोक क्रमके अनुसार कृष्टियों में निक्षिप्त करता है तथा पूर्व और अपूर्व स्पर्धक उस समय अविनष्टरूपसे अवस्थित रहते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे चिट्ठति त्ति घेत्तव्यं । संपहि एदम्मि चेव समए किट्टीकरणद्धा समप्यदित्ति पटुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ - * किट्टीकरणद्धा णिट्ठायदि पढमहिदीए आवलियाए सेसाए । १०४. किट्टीकरणद्धा चरिमसमए वेदिज्ज माणमुदयट्ठिदि मोत्तूण तत्तो उवरि आवलियत्ता कोहसंजल पढमट्टिदीए सेसाए किट्टीकरणद्धा कमेण णिट्टायमाणा णिट्टिदा त्ति वृत्तं होइ, उत्पादाणुच्छेदमस्सियूण किट्टोकरणद्धाचरिमसमए चेव तिस्से परिसमत्तिदंसणा दो । अणुप्पादाणुच्छेदविवखाए पुण से काले किट्टीओ वेदेमाणस्स पढमसमए कालं पेक्खिदूणावलियमेत्तसाए पढमदिए किट्टीकरणद्धा समप्पदि त्ति घेत्तम्वं । णवरि सुत्ते एसा विवक्खा ण कया, उप्पादाणुच्छेदस्सेव तत्थ विवक्खियत्तादो । ३८ १०५. एवमेत्य किट्टीकरणद्धाए णिट्टिदाए तदो से काले जो पवृत्तिविसेसो तणिद्देसकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो— * से काले किडीओ पवेसेदि । करना चाहिए। अब इसी समय कृष्टिकरण काल समाप्त होता है इस बातका कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं— * प्रथम स्थिति में एक आवलिप्रमाण काल शेष रहने पर कृष्टिकरण काल समाप्त होता है । १०४. कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय में वेदन की जानेवाली उदय स्थितिको छोड़कर उससे ऊपर क्रोध-संज्वलनकी एक आवलि प्रमाण प्रथम स्थितिके शेष रहनेपर कृष्टिकरण काल क्रमसे समाप्त होता हुआ समाप्त हो गया यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदका आलम्बन लेकर कृष्टिकरण कालके अन्तिम समयमें ही उसकी परिसमाप्ति देखी जाती है । परन्तु अनुत्पादानुच्छेदको विवक्षा करनेपर तदनन्तर समय में कृष्टियोंका वेदन करनेवाले जीवके प्रथम समय में कालको अपेक्षा एक आवलिमात्र प्रथम स्थिति के शेष रहनेपर कृष्टिकरण काल समाप्त होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। परन्तु सूत्र में यह विवक्षा नहीं की गयी है, क्योंकि उत्पादानुच्छेद ही उसमें विवक्षित है । विशेषार्थं - नय दो प्रकारके हैं - द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । उनमें से द्रव्यार्थिक नयी अपेक्षा यहाँ उसे उत्पादानुच्छेदरूप स्वीकार किया गया है । यह नय सत्त्व अवस्था में ही विनाशको स्वीकार करता है, क्योंकि असत्त्व बुद्धिका विषय नहीं होनेसे वह वचनके अगोचर है, इसलिए इस अपेक्षा उसमें अभाव व्यवहार करना अशक्य है । यही कारण है कि प्रकृत में कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय में ही इस नयसे उसका अभाव कहा गया है । तथा पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा उसे अनुत्पादानुच्छेदरूप स्वीकार किया गया है। इस नयको अपेक्षा भाव अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि भाव और अभाव परस्पर विरुद्ध होने से उनमें एकपने का व्यवहार नहीं किया जा सकता । अतः यह नय असत्त्व व्यवस्था में ही अभावको स्वीकार करता है । यही कारण है कि प्रकृत में कृष्टि वेद के प्रथम समय में ही इस नयसे कृष्टिकरण के काल की समाप्ति स्त्रीकार की गयी है । $ १०५. इस प्रकार यहाँपर कृष्टिकरणकाल के समाप्त होने पर तलश्चात् अनन्तर समय में प्रवृत्तिविशेष होता है उसका निर्देश करने के लिए आगे के सूत्र का आरम्भ करते हैं * तदनन्तर समय में कृष्टियों को उदद्यावलिमें प्रवेश कराता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढीए किट्टी वेदणकाले कम्मबन्ध-संतपरूवणा $ १०६. किट्टीकरणद्धाए णिट्टिदाए तदणंतरसमए चैव विदियट्ठिदोदो ओोकड्डियूण किट्टीओ उदयावलियन्तरं पवेसेदि, अण्णहा विदियट्ठिदिसमवट्टिदाणं तासि वेदगभावाणुववत्तदो । एदम्मि समए पढमट्ठिदिसेसमावलियपमाणं होदि, कालपहाणत्ते विवक्खिये तहोवलंभादो । णिसेगपहाणत्ते पुण समयूणावलियमेत्ती होदि, उदयावलियपढमणिसेयस्स त्थिवुक्कसंकमेण तक्कालमेव किट्टी सरूवेण परिणदत्तादो । * ताधे संजलणाणं द्विदिबंधो चत्तारि मासा | ३९ ६१०७ पुब्विल्लसमए द्विदिबंधपमाणं चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तम्भहिया । एहि पुण ततो अंतोमुत्तमोसरियूण ऊष्णं द्विदिबंधं कुणमाणस्स संजलणाणं द्विविबंधो संपुष्णचत्तारिमासमेत संजादोत्ति सुत्तत्यसमुच्चओ । * द्विदिसतकम्मम बस्साणि । १०८. पुब्बिल्लसमए अंतोमृहुत्तम्भहियअटुवस्सपमाणं द्विदिसंतकम्मं होण तत्थेव ट्ठिविखंडयचरिमफालीए अंतोमुहुत्तपमाणाए णिवदिवाए एण्हिमद्ववस्समेतं संजलणाणं द्विदिसंतकम्मं जादमिदि वृत्तं होइ । * तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधा द्विदिसंतकम्मं च संखेजाणि वस्ससहस्साणि । १०६. कृष्टिकरणकालके समाप्त होनेपर तदनन्तर समय में ही द्वितीय स्थितिमेंसे अपकर्षित कर कृष्टियोंको उदयावलिमें प्रवेश कराता है, अन्यथा द्वितीय स्थिति में अवस्थित हुई उनका वेदकपना नहीं बन सकता है । इस समय प्रथम स्थिति शेष आवलिप्रमाण होती है, क्योंकि कालकी प्रधानताकी विवक्षा करनेपर इसकी उस प्रकारसे उपलब्धि होती है । परन्तु निषेकोंकी प्रधानता में एक समय कम आवलि प्रमाण होती है, क्योंकि उदयावलिका प्रथम निषेक स्तिक संक्रमण के द्वारा उसी समय कृष्टिरूपसे परिणत हो जाता है । विशेषार्थं - जिस समय क्रोध संज्वलनको एक आवलि प्रमाण प्रथम स्थिति शेष रहती है उसी समय कृष्टिकरणका काल समाप्त होता है और अगले समय में जब द्वितीय स्थिति में से अपकर्षित होकर कृष्टियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं तब वह कृष्टियों का वेदन काल है । उस समय यद्यपि प्रथम स्थिति कालकी अपेक्षा एक आवलि प्रमाण अवश्य है पर उदयावलिका जो प्रथम निषेक है वह द्वितीय स्थिति में से अपकर्षित हुई कृष्टिका सम्बन्धी न होकर स्तिवुक संक्रमद्वारा निष्पन्न हुआ है, अतः कृष्टियोंके वेदन कालके प्रथम समय में निषेकोंकी प्रधानता कृष्टियों की प्रथम स्थिति एक समय कम एक आवलि प्रमाण हो बनती है । * उस समय संज्वलनोंका स्थितिबन्ध चार माह प्रमाण होता है । १०७. पिछले समय में स्थितिबन्धका प्रमाण अन्तर्मुहूतं अधिक चार माह था । परन्तु इस समय उसमें से अन्तर्मुहूर्तं कम करके अन्य स्थितिबन्ध करनेवाले जीव के संज्वलनोंका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण चार माह प्रमाण हो जाता है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । * स्थिति सत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण है । $ १०८. क्योंकि पिछले समय में अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षं प्रमाण स्थिति सत्कर्म होकर उसी समय स्थितिकाण्डककी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तिम फालिका पतन हो जाने पर इस समय वनों का स्थिति सत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण हो जाता है । * तीन घातिकमा स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे * णामागोदवेदणीयाणं डिदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि । * द्विदिसंतकम्ममसंखेजाणि वस्ससहस्साणि । ६१०९. एवाणि सुत्ताणि सुगमाणि। संपहि एवम्हि चेव समए संजलणाणमणुभागसंतकम्मं केरिसं होदि ति आसंकाए णिण्णयविहाण?मत्तरसुत्तपबंधो * अनुभागसंतकम्म कोहसंजलणस्स जं संतकम्मं समयूणाए उदयावलियाए च्छद्विदल्लिगाए तं सव्वघादी। ११०. कोहसंजलणस्स जमणुभागसंतकम्म समयूणाए उदयावलियाए उच्छिट्ठावलियभावेण च्छट्टिवाए सेसं तं सव्वघादि चेवेत्ति वढव्वं । किं कारणं ? उदयावलियम्भंतरे सव्वघादि. सरूवेणावटिदपुव्वाणुभागसंतकम्मस्सेव संभवदंसणादो। * संजलणाणं जे दोआवलियबंधा दुसमयूणा ते देसघादी । तं पुण फद्दयगदं । १११ चदुण्हं संजलणाणं जे णवकबंधसमयपबद्धा दुसमयूणदोआवलियमेत्ता तेसिमणुभागो णियमा देसघाडी, एयटाणियसरूवत्तादो। होतो वि सो फद्दयसरूवो चेव बटुग्यो। कि कारणं ? किट्टीकरणद्धाए फद्दयगदस्सेवाणुभागस्स बंधवंसणादों। * सेसं किट्टीगदं। * नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण है। * तथा इन तीन कर्मोका स्थितिसत्कर्म असंख्यात हजार वर्ष प्रमाण है। ६१०९. ये सूत्र सुगम हैं। अब इसी समय संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म किस प्रकारका होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * क्रोषसंज्वलनका जो अनुभाग सत्कर्म एक समयकम उदयावलिमें निक्षिप्त है वह सर्वघाति है। ६११०. क्रोध संज्वलनका जो अनुभाग सत्कर्म एक समय कम उदयावलिमें उच्छिष्टावलि रूपसे निक्षिप्त होकर शेष रहा है वह सर्वघाति ही है ऐसा जानना चाहिए। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि उदयावलिके भीतर सर्वघातिरूपसे अवस्थित पहलेका अनुभागसत्कर्म ही सम्भव देखा जाता है। तात्पर्य यह है कि उदयावलिके भीतर जो अनुभाग सत्कर्म शेष रहा है वह पहलेका होनेसे सर्वघाति ही है ऐसा यहां जानना चाहिए। * संज्वलनोंके जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध हैं वे देशघाति हैं। परन्तु वे स्पर्धकस्वरूप हैं। ६१११. चारों संज्वलनोंके जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध समयप्रबद्ध हैं उनका अनुभाग नियमसे देशघाति है, क्योंकि वे एक स्थानीयस्वरूप हैं। ऐसा होते हुए भी वह अनुभाग स्पर्धकस्वरूप ही जानना चाहिए। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि कृष्टिकरणके कालमें स्पर्धक स्वरूप ही अनुभागका बन्ध देखा जाता है। विशेषार्थ-जबतक यह जीव पूर्व और अपूर्व स्पधंकोंमेंसे कृष्टियोंको निष्पन्न करता है तबतक चारों संज्वलनोंका बन्ध स्पर्धकस्वरूप ही होता रहता है ऐसा नियम है । के चारों संज्वलनोंका शेष सब अनुभावसत्त्व कृष्टिस्वरूप है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए कोहकिट्टोपट्टमट्टिदिकरणपरूवणा ६ ११२. चदुण्हं संजलणाणं दुसमयूणदोआवलियमेत्तणवकबंधाणुभागं कोहसंजलणस्सावळियपविट्ठाणुभागं च मोत्तूण सेसं चदुहं संजलणाणमणुभागसंतकम्म सव्वमेव किट्टीसरूवेणेहि परिणदमिदि वृत्तं होइ। तदो किट्टीकरणद्धाए जाव चरिमसमओ ताव किट्टीगदसयलपदेसपिंडादो फद्दयगवसव्वपदेसपिंडमसंखेज्जगुणं होदूण वीसइ तदसंखेज्जविभागस्सेव तत्य किट्टीसहवेण परिणमणसणादो। पूणो किट्टीवेदगडाए पढमसमयम्हि णवकबंधुच्छिट्ठावलियवज्जं सव्वमेव चदुसंजलणपदेसग्गं किट्टीसहवेण परिणवमिदि एसो एक्स्स सुत्तस्स भावत्यो । किट्टीकरणद्धा जाव समप्पदि ताव दिस्समाणे पेक्खिदूण किट्टीओ सत्थाणे एयगोवुच्छायारेण अच्छंति, फद्दयगदं पि पदेसग्गमप्पणो सत्थाणं एयगोवुच्छं होदूण चिटुदि । पूणो किट्टीकरणद्धाए समत्ताए दिस्समाणावेक्खाए सव्वं पि पदेसगमेयगोवुच्छसरूवेण परिणमिय चिट्ठदि त्ति घेत्तव्वं । * तम्हि चेव पढमसमए कोहस्स पढमसंगहकिट्टीदो' पदेसग्गमोकड्डियण पढमद्विदि करेदि। ११३. तम्हि चेव किट्टीवेवगद्धापढमसमए किट्टीओ पवेसेंमाणो कोहसंजळणस्सेव ताव पढमसंगहकिट्ठीए पदेसग्गमोकड्डियूण सगवेदगकालादो आवलियब्भहियं कादूण पढमट्ठिदि. ६११२. चारों संज्वलनोंके दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धस्वरूप अनुभागको और क्रोधसंज्वलनके उदयावलिप्रविष्ट अनुभागको छोड़कर शेष चारों संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म सम्पूर्ण हो इस समय कृष्टिस्वरूप परिणत हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए कृष्टिकरण कालका जबतक अन्तिम समय प्राप्त होता है तब तक कृष्टिगत सम्पूर्ण प्रदेशपिण्डसे स्पर्धकस्वरूप सम्पूर्ण प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा दिखाई देता है, क्योंकि उसके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशपिण्डका हो वहाँपर कृष्टिरूपसे परिणमन देखा जाता है। पुनः कृष्टिवेदककालके प्रथम समयमें नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर चारों संज्वलनोंका सम्पूर्ण ही प्रदेशपुंज कृष्टिरूपसे परिणत हो गया है यह इस सूत्रका भावार्थ है। कृष्टिकरणकाल जबतक समाप्त होता है तबतक दिखनेवाले प्रदेशपुंजको अपेक्षा कृष्टयां स्वस्थानमें एक गोपुच्छाकार. रूपसे अवस्थित रहती हैं तथा स्पर्धकगत प्रदेशपुंज भी अपने स्वस्थानमें एक गोपुच्छारूप होकर अवस्थित रहता है। परन्तु कष्टकरणकालके समाप्त होनेपर दिखनेवाले प्रदेशपुंजको अपेक्षा समस्त ही प्रदेशपुंज एक गोपुच्छाकाररूपसे परिणमन करके अवस्थित रहता है यह यहां ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-कृष्टिकरण कालके अन्तिम समय तक चारों संज्वलनोंका अनुभाग स्पर्धकरूपमें भी अवस्थित रहता है और जो अनुभाग कृष्टिरूप परिणम गया है वह भी अपने रूपमें ध्वस्थित रहता है। इसलिए यहाँपर पूरे अनुभागको दो गोपुच्छाएं बन जाती हैं। इन दोनों गोपुच्छाओंके स्वरूपका निर्देश पहले ही कर आये हैं। किन्तु जिस समय कृष्टिवेदन काल प्रारम्भ होता है उसी समय जितना भी स्पर्धकस्वरूप अनुभाग है वह सब एक गोपुच्छाकाररूपसे परिणत होकर दिखाई देने लगता है यह सूत्रका तात्पर्य है। * उसो कृष्टिवेदक कालके प्रथम समयमें क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। ११३. उसी कृष्टिवेदक कालके प्रथम समयमें कृष्टियोंको प्रवेशित करता हुआ सर्वप्रथम क्रोधसंज्वलनको ही प्रथम संग्रह कृष्टिमें से प्रदेशपुंजको अपकर्षित करके अपने वेदक कालसे एक १. ता. आ. प्रत्योः 'पढमसमयक्ट्ठिीदो' इति पाठः । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मप्पाएदि त्ति भणिदं होइ। एसा पढमट्टिदो एतो उपरि जा कोहवेदगद्धा तिस्से सादिरेय. तिभागमेत्ता त्ति दट्टव्वा । एवं पढमट्टि िकरेमाणो उदए थोवं देवि । तवणंरतद्विदीए असंखेज्जगुणं देदि। एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव पढमसंगहकिट्टीवेदगकालावो आवलियमेतणन्भहियं जादे त्ति । तत्तो विदियट्टिदीए आदिदिदिम्मि असंखेज्जगुणं णिक्खिवदि । तत्तो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणमसंखेजविभागेण । गुणसेढिणिक्खेवो पृण गलिदसेसो सव्वत्थ णादव्यो। एत्थ कोहस्स पढमसंगहकिट्टि त्ति भगिदे जा कारयस्स तदियसंगहकिट्टी सा वेदगस्स पढमसंगहकिट्टि त्ति घेत्तव्वा, तत्तो पहुडि पच्छाणुपुवीए जहाकममेव संगहकिट्टोणमेत्य वेदगभावसणादो। ६११४. जइ पुण किट्टीकारयस्त पढमसंगहकिट्टी एत्थ घेप्पइ तो को तत्य दोसो ? चें वुच्चदे-वेदिज्जमाणियाए संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा बज्झंति वेदिज्जति च । बंधोदया वि समयं पडि अणंतगुणहीणा होदूण गच्छंति त्ति एसो णियमो। संपहि एदम्हि णियमे संते जा अणुभागेण बहगी संगहकिट्टी सा चेव पुवमुदयमागच्छदि त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा घेप्पमाणे पढमसंगहकिट्रीवेदगकाले णिदिवे तदणंतरसमए विदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो तिस्से असंखेज्जे भागे बंदि वेदेति च । तहाच संते तक्काले बंधोदया पविल्लबंधोवीडितो अणंतगणो पाति । ए णेच्छिज्जदे, पडिसमयमणंतगुणकमेण विसोहिपरिणामेसु वडमाणेसु तेसि तहा पवुत्तिविरोहादो । तम्हा कारगस्स तदियसंगहकिट्टी एत्थ वेदगस्स पढमसंगहकिट्टि ति घेत्तव्वा । एवं माणादीणं आवलिप्रमाण अधिक करके प्रथम स्थितिको उत्पन्न करता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । यह प्रथम स्थिति इससे आगे जो क्रोधवेदक काल है उसके साधिक तृतीय भाग प्रमाण जाननी चाहिए । इस प्रकार प्रथम स्थितिको करता हआ अपकर्षित किये गये प्रदेशपंजको उदयमें स्तोक देता है, उससे अगली स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हा प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदक कालसे एक आवलि प्रमाण अधिक करके निक्षिप्त करता है। उससे द्वितीय स्थितिकी आदि स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। उसमे ऊपर सर्वत्र असंख्याता भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है। तथा गुणश्रेणिनिक्षेप सर्वत्र गलित शेष जानना चाहिए। यहाँपर क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टि ऐसा कहनेपर जो कृष्टिकारककी तीसरी संग्रह कृष्टि है वह कृष्टिवेदकको प्रथम संग्रह कृष्टि है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि कृष्टिवेदककालके प्रथम समयसे लेकर पश्चादानुपूर्वोके अनुसार क्रमसे ही संग्रह कृष्टियोंका यहाँपर वेदकपना देखा जाता है। ६११४. पुनः यदि कृष्टिकारकको प्रथम संग्रह कृष्टिको यहाँपर ग्रहण किया जाता है तो उसमें क्या दोष है ऐसा पूछनेपर कहते हैं कि वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुमाग प्रमाण बंधती हैं और वेदी जाती हैं। तथा बन्ध-उदय दोनों ही प्रतिसमय अनन्तगुणे होन होते जाते हैं ऐसा नियम है। अब इस नियमके होने पर जो संग्रहकृष्टि अनुभागकी अपेक्षा बड़ी है वही पहले उदयमें आती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, इससे अन्यथा ग्रहण करनेपर प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदक काल समाप्त होनेपर तदनन्तर समयमें दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला उसके असंख्यात बहुभागको बांधता और वेदता है, और ऐसा होनेपर उस कालमें होनेवाले बन्ध और उदय पूर्वके बन्ध और उदयसे अनन्तगुणे प्राप्त होते हैं। किन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि प्रत्येक समयमें अनन्तगुणित क्रमसे विशुद्धिरूप परिणामोंकी वृद्धि होनेपर उन बन्ध और उदयके उसरूप प्रवृत्ति होने में विरोष आता है। अतएव कृष्टिकारकके जो तीसरी संग्रहकृष्टि है Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aa गढीए किट्टीबंधोदयमीमांसा जत्थ जत्थ वेदगस्स पढमसंगह किट्टि भणिहिवि तत्थ तत्थ किट्टीकरणद्धाए जा तदियसंगकट्टी सा चेव घेत्तव्वा, अण्णहा अणंतरपरूविददोसप्प संगतदो । एवं च पढमसंगह किट्टिमोकड्डिण वेणी किमविसेसेण सव्वाओ चैव तदंतर किट्टीओ उदयं पवेसेदि आहो अस्थि कोइ विसेसो त्ति आसंकाए णिण्णय विहाणद्वमुत्तरसुत्तमाह * ताहे कोहस्स पढमाए संगह किट्टीए असंखेजा भागा उदिण्णा । ४३ ११५. कोहपढमसंग किट्टीए जहण्ण किट्टिप्पहूडि हेट्ठिमासंखेज्जदिभागं पुणो तिस्से चेत्र उक्कस्स किट्टप्प हुडि उवरिमासंखेज्जदिभागं च मोत्तूण सेसमज्झिमा असंखेज्जा भागा तक्कालमुदयमागदा त्ति भणिदं होदि । हेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणं सरिसधणियकिट्टीणं परिणामविसेसमस्तिपूण मज्झिमकिट्टिसरूवेणेव उदयपरिणामो होदि त्ति एसो एदस्स भावत्यो । एवमुदयपरूवणं काढूण संपहि कोहसंजलणस्स अणुभागबंधी कधं पयट्टवित्ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो * एदिस्से चैव कोहस्स पढमाए संगहकिट्टीए असंखेजा भागा बज्झति । $ ११६. कुदो ? उदयादो अनंतगुणहीणसरूवेण पयट्टमाणस्स बंधस्स तहा पवृत्तीए विरोहाभावादो । तदो उदिण्णाओ किट्टीओं बहुगीओ, एदाओ बज्झमाण किट्टीओ विसेसहीणाओ ति घेत्तव्वं, उदिष्णाणं किट्टीणं हेट्टिमोर्वारिमासंखेज्जदिभागं मोत्तूण सेसमज्झिमबहुभाग सरूवेण वह यहाँ कृष्टिवेदक के प्रथम संग्रहकृष्टि है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार, मानादिक की अपेक्षा भी जहाँ-जहाँ कृष्टिवेदक के प्रथम संग्रह कृष्टि कहेंगे वहाँ-वहाँ कृष्टिकरण के कालमें जो तीसरी संग्रह कृष्टि है वही ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा अनन्तर पूर्व कहे गये दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । इसी प्रकार प्रथम संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करनेवाला जीव क्या सामान्यरूपसे अपनी सभी अन्तर कृष्टियोंको उदयमें प्रविष्ट कराता है या कोई विशेषता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करने के लिए आगे के सूत्रको कहते हैं * उस कृष्टिवेदक कालके प्रथम समय में इसी क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुभागप्रमाण वह उदयको प्राप्त होती हैं। $ ११५. क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिकी जघन्य कृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भागमाण तथा उसीकी उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर शेष बीचकी असंख्यात बहुभाग प्रमाण कृष्टियों उस समय उदयको प्राप्त होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषयभूत सदृश धनवालो कृष्टियोंका परिणाम विशेषका अवलम्बन लेकर मध्यम कृष्टिरूपसे हो उदयपरिणाम होता है इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है । इस प्रकार उदयका कथन करके अब क्रोधसंज्वलनका अनुभाग बन्ध किस प्रकार प्रवृत्त होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं* तथा इसी क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके असंख्यात बहुभाग बन्धको प्राप्त होते हैं । - $ ११६. क्योंकि उदयसे अनन्तगुणे हीनरूपसे प्रवृत्त होनेवाले बन्धकी उस रूपसे प्रवृत्ति होने में विरोधका अभाव है । इसलिए उदयको प्राप्त हुई कृष्टियों बहुत हैं। उनसे ये बन्धको प्राप्त होनेवाली कृष्टियाँ विशेष हीन हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उदयको प्राप्त हुई कृष्टियोंके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष मध्यम बहुभागस्वरूपसे बंधने - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बज्झमाणकिट्टीणं पवुत्तिणियमदसणादो। * सेसाओ दोसंगहकिट्टीओ ण बझंति ण वेदिज्जति । 5 ११७. कुदो ? जहाकममेव संगहकिट्टीओ वेदेमाणस्स पढमसंगहकिट्टी वेदगावत्याए सेसदोसंगहकिट्टोणमुदयासंभवादो, जस्स कसायस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स तदायारेणेव बंधो जोड ति णियमदंसणादो च। माण-माया-लोभाणं पि अप्पप्पणो पढमसंगहकिटीणं वेदगसंबंधिणीणमसंखेज्जा भागा बज्झंति, सेसदोसंगहकिट्टीओ ण बझंति। तेसिं चेव सव्वाओ संगहकिट्टओ ताव ण वेदिज्जति चेव, कोहवेदगकालभंतरे तदुदयपवुत्तीए विरोहादो ति एसो वि अत्था एत्थेव सुत्ते णिलीणो त्ति घेत्तव्वं । ६११८. संपहि कोहसंजलणस्स पढमाए संगहकिट्टीए हेट्ठिमोवरिमाणमसंखेज्जविभागाणमबज्झमाणावेदिज्जमाणाणं थोवबहुत्तपत्वण?मत्तरो सुत्तपबंधोवाली कृष्टियोंकी प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है। * कोष संज्वलनको शेष दो संग्रहकृष्टियां न बंधती हैं और न वेदी जाती हैं। ६११७. क्योंकि यथाक्रम हो संग्रह कृष्टियोंका वेदन करनेवाले बीवके प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदन करनेको अवस्थामें शेष दो संग्रह कृष्टियोंका उदय होना असम्भव है। कारण कि जिस कषायको जिस कृष्टिका वेदन करता है उसके उस रूपसे हो बन्ध होता है ऐसा नियम देखा जाता है। मान, माया ओर लाभ कषायोंका अपेक्षा भो अपनी-अपनी प्रथम संग्रह कृष्टियोंका वेदन करते समय उन कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण वे बन्धको प्राप्त होतो हैं, शेष दो संग्रहकृष्टियां नहीं बंधती हैं। तथा प्रकृतमें उन्होंकी समस्त संग्रह कृष्टियो तब तक नहीं हो वेदो जाता हैं, क्योंकि क्रोधके वेदककालके भीतर उनका उदय प्रवृत्ति होने में विरोष है इस प्रकार यह अर्थ भी इसी सूत्रमें लीन है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-प्रश्वकर्णकरण कालके सम्पन्न होनेपर दुसरा त्रिभाग कृष्टिकरणका है। जब पूर्व ओर अपूर्व स्पर्धकोंका वेदन करते हुए प्रथम स्थितिम एक आवड काल शेष रहता है तब कष्टिकरणका काल समाप्त होकर अगले समयमें यह जाव क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रह कष्टिमेंसे प्रदशपंजका अपकर्षण करके उसको प्रथम स्थिति करता है और यहोसे क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन काल प्रारम्भ हो जाता है । क्रम यह है-क्रोधका प्रयम संग्रह कृष्टि सम्बन्धो जघन्य और उत्कृष्ट कृष्टियोको छाड़कर बोचका असंख्यात बहुभाग प्रमाण कृष्टियोंका उदय होता है तथा इसी क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टि सम्बन्धो जा कृष्टियां उदयरूप हाती हैं उनसे विशेष हीन कृष्टियां बन्धको प्राप्त होती है। यहा प्रथम समय में न ता काध संज्वलनको शेष रहों दो संग्रह कृष्टियोंका उदय होता है और न बन्ध हाता हे ओर न हा इस समयमें मान, माया और लाभ संज्वलन सम्बन्धी संग्रह कृष्टियोंका ही उदय और वन्ध होता है। ऐसा नियम है कि क्षपकश्रेणिार आरूढ़ हुए इस जावक प्रत्येक समयमें परिणामोंमें अनन्तगुणो विशुद्धि बढ़ती जाती है, इसलिए कृष्टिकारकके क्रोध संज्वलनको बिसे तोसरी संग्रह कृष्टि कहा गया है, वेदन कालके समय वह पहली हो जाती है । कारणका निर्देश मूल टोकामें किया हो है। इसी प्रकार बागे भो समझना चाहिए। ६११८. अब क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टि सम्बन्धी असंख्यातवें भाग प्रमाण अधस्तन और उपरिम नहीं बंधनेवालीं और नहीं उदयको प्राप्त होनेवालो कृष्टियोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध माया है Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए किट्टोणंबंधोदयमीमांसा * पढमाए संगहकिट्टीए हेढदो जाओ किट्टीओ ण बझंति ण वेदिज्जति ताओ थोवाओ। ६११९. कोहसंजलणपढमसंगहकिट्टीए जहण्ण किट्टिप्पहुडि हेटिमासंखेज्जदिभागविसए जाओ किट्टीओ अबज्झमाणावेविज्जमाणसरुवाओ ताओ थोवाओ ति भणिदं होदि। * जाओ किट्टीओ वेदिज्जति ण बझंति ताओ विसेसाहियाओ। ६ १२०. एवं भणिदे पुचिल्लाबज्झमाणावेदिज्जमाणकिट्टीणमवरिमकिट्टिप्पहुडि जाव बंधजहणकिट्टीए हेट्ठिमाणंतरकिट्टि त्ति ताव एवम्मि अद्धाणे जाओ किट्टीओ केवलमुदयपाओग्गाओ चेव ताओ सयलकिट्रीअखाणस्सासंखेज्जविभागमेत्तीओ होदण प्रठिवल्लकिट्रीहितो विसेसाहियाओ त्ति वुत्तं होदि । केत्तियमेतो विसेसो ? हेटिमद्धाणस्सासंखेज्जविभागमेत्तो। तस्स को पडिभागो ? तप्पाओग्गपलिदोवमासंखेज्जविभागो। कुदो एवं परिच्छिज्जवे ? सुत्ताविरुद्धपरमगुरुवएसावो। * तिस्से चेत्र पढमाए संगहकिट्टीए उवरि जाओ किट्टीओ ण बझंति ण वेदिजंति ताओ विसेसाहियाओ। ६१२१. एवाओ वि सयलकिट्टोअखाणस्सासंखेज्जविभागमेतीओ होदूण पुचिल्लकिट्टीहितो विसेसाहियाओ जादाओ। एत्थ विसेसाहियपमाणं पुवं व वत्तव्वं । प्रथम संग्रह कृष्टिको अपस्तन जो कृष्टियां न बँधती हैं और न उदयको प्राप्त होती हैं वे अल्प हैं। ६११९. क्रोष संज्वलन संग्रह कृष्टिको जघन्य कृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भाग प्रमाण सम्बन्धी जो कृष्टिया अबन्ध रूप और अनुदयस्वरूप हैं वे अल्प हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * जो कृष्टियाँ उदयको प्राप्त होती हैं किन्तु बंधती नहीं हैं वे विशेष अधिक हैं। 5 १२०. ऐसा कहनेपर इससे पूर्व सूत्रमें कही गयो नहीं बंधनेवाली और उदयको नहीं प्राप्त होनेवाली कृष्टियोंके उपरिम कृष्टिसे लेकर बन्धको प्राप्त होनेवाली जघन्य कृष्टि सन्बन्धी अधस्तन अनन्तर कृष्टिके प्राप्त होने तक इस स्थानमें जो केवल उदयप्रायोग्य कृष्टियां हैं वे समस्त कृष्टिअध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर पूर्व सुत्रमें कही गयो कृष्टियोंसे विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-अधस्तन स्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-तत्प्रायोग्य पल्योपमका असंख्यातवा भागप्रमाण उसका प्रतिभाग है शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्रके अविरुद्ध परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। * उसी प्रथम संग्रह कृष्टिके ऊपर जो कृष्टियां न बंधती हैं और न उदयको प्राप्त होती हैं वे विशेष अधिक हैं। ६१२१. ये कृष्टियां भी समस्त कृष्टिस्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर पूर्व दो सूत्रोंमें कही गयी कृष्टियोंसे विशेष अधिक हो जाती हैं। यहां पर विशेष अधिकका प्रमाण पहलेके समान कहना चाहिए। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे * उवरि जाओ वेदिज्जंति ण बज्झति ताओ विसेसाहियाओ । ६ १२२. सुगमं । * मझे जाओ किट्टीओ बज्झंति च वेदिज्जंति च ताओ असंखेज्जगुणाओ । $ १२३. पुत्तद्विमोवरिमासंखेज्जभागविसयाओ किट्टीओ मोत्तूण सेसाले समज्झिमकिट्टीओ वज्झमाणवेदिज्जमाणाओ णाम, तदायारेण बंघोदयाणं पवृत्तीए पडिसेहाभावादो । तदो ताओ असंखेज्जगुणाओ जादाओ । एत्थ गुणगारो तप्पा ओग्गपलिदोवमासंखेज्जदिभागमेत्तो । एवं किट्टी वेदाए पढमसमए इमं परूवणं काढूण संपहि किट्टीवेदगद्धं तत्थ ताव थप काढूण किट्टीकरणद्धाए पडिबद्धगाहासुत्ताणमत्यविहासणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * किट्टीवेदगद्धा ताव थवणिज्जा । $ १२४. कुदो ? किट्टीकरणद्धापडिबद्धसुत्तफासे अकबे तिस्से परूवणावसराभावादी । तदो तमेव ताव सुत्तफासं जहावसरपत्तं कुणमाणो इदमाह * किट्टीकरणद्धाए ताव सुत्तफासो । १२५. पुव्वं गाहासुत्ताणि हियए काढूण तदुच्चारणाए विणा किट्टीकरणद्धा विसेसिदा । इणि पुणतविसयो सुत्तफासो कायव्वो, तेण विणा पुण्वपरूवणाविसये णिण्णयाणुत्पत्ती दो ति वृत्तं होइ । * ( पूर्व में कही गयी कृष्टियोंसे ) ऊपर स्थित जो कृष्टियाँ उदयको प्राप्त होती हैं किन्तु बँधती नहीं हैं वे विशेष अधिक हैं । $ १२२. यह सूत्र सुगम है । * बीच में जो कृष्टियाँ बंधती हैं और उदयको प्राप्त होती हैं वें असंख्यातगुणी हैं । $ १२३. पूर्वोक्त अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर मध्यकी शेष समस्त कृष्टियाँ बन्धरूप और उदयरूप हैं, क्योंकि उसरूपसे अर्थात् वे कृष्टियाँ जिस अनुभागस्वरूप हैं उसरूपसे उनके बन्ध और उदयकी प्रवृत्ति होनेका निषेध नहीं है, इसलिए वे असंख्यातगुणी हो गयी हैं । यहाँपर गुणकार तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार कृष्टि वेदक कालके प्रथम समय में इस प्ररूपणाको करके अब कृष्टि वेदक कालको सर्वप्रथम स्थगित करके कृष्टिकरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाले गाथासूत्रों के अर्थ की विभाषा करते हुए आगे के सूत्र प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * अब कृष्टिवेदक कालको स्थगित रखना चाहिए । . १२४. क्योंकि कृष्टिकरण कालसम्बन्धी सूत्रोंका स्पर्शं ( व्याख्यान ) नहीं किये जानेपर आगे उनके कथन के अवसरका अभाव है, इसलिए यहाँपर सर्वप्रथम उसी अवसर प्राप्त सूत्रों का स्पर्श ( व्याख्यान ) करते हुए इस सूत्र को कहते हैं * सर्वप्रथम कृष्टिकरण कालके सूत्रोंका स्पर्श करते हैं । $ १२५. पहले गाथासूत्रों को हृदयमें करके उनका उच्चारण किये बिना कृष्टिकरण कालका व्याख्यान किया है । परन्तु इस समय तद्विषयक सूत्रोंका स्पर्श करना चाहिए, क्योंकि उसके बिना पूर्व में की गयी प्ररूपणाविषयक निर्णय नहीं हो सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए किट्टीपडिबद्धपढममूलगाहापरूवणा * तत्थ एक्कारस मूलगाहाओ । ६१२६. तत्थ किट्टीकरणद्धाए पडिबद्धाओ एक्कारस मूलगाहाओ होंति, तासिमेत्तो विहासा अहिकीरवि त्ति वुत्तं होंदि। चरित्तमोहक्खवणाए अट्ठावीसमूलगाहासु पडिबद्धासु तत्थ पटुवगे चत्तारि मूलगाहाओ पढममेव विहासिदाओ। तदणंतरं संकामगे चत्तारि मूलगाहाओ, ओवट्टणाए तिणि मूलगाहाओ त्ति एवमेदाओ एक्कारस मूलगाहाओ जहासंभवमप्पप्पणो भासगाहाहि सह विहासिदाओ। एण्हिं पुण किट्टीकरणद्धाए पडिबद्धाणमेक्कारसहं मूलगाहाणं सभासगाहाणमत्थ. विहासणं जहावसरपत्तं वत्तइस्सामो त्ति एसो एदस्स भावत्थो । तासि च जुगवं वोत्तुमसक्कियत्तादो जहाकममेव विहासणं कुणमाणो पढममूलगाहाए ताव समुक्कित्तणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * पढमाए मूलगाहाए समुक्कित्तणा। ६ १२७. तासिमेक्कारसण्हं मूलगाहाणं मझे पुत्वमेव ताव पढममूलगाहाए समुक्कित्तणा कीरवि त्ति वुत्तं होइ। (१०९) केवदिया किट्टओ कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ। किट्टीए किं करणं लक्खणमध किं च किट्टीए ॥१६२।। ६१२८. एदिस्से गाहाए अत्यो वुच्चदे। तं जहा-'केवदिया किट्टीओ' एवं भणिदे चउण्हं कसायाणं भेदविवक्खमकादूण सामण्णण केत्तियमेत्तीओ संगहावयवकिट्टीओ होंति त्ति पुच्छा कदा होइ। एवमेसो पढमो अत्थो। पुणो चउण्हं कसायाणं भेव विवक्खं कादूण तत्थ एवकेक्कस्स कसायस्स केवडियाओ किट्टीओ होंति ति विदिओ अत्यो। एदम्मि पडिबद्धो सुत्तस्स विदियावयवो * उस विषय में ग्यारह मूल गाथाएं हैं। ६१२६. वहां कृष्टिकरण कालसे सम्बद्ध ग्यारह मूल गाथाएँ हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। चारित्रमोहकी क्षपणासम्बन्धी अट्ठाईस मूल गाथाएँ कही हैं। उनमेंसे प्रस्थापक सम्बन्धी चार मूल गाथाओंका पहले ही व्याख्यान कर आये हैं। तदनन्तर संक्रामकसम्बन्धी चार मूल गाथाएँ तथा अपवर्तना सम्बन्ध तीन मूल गाथाएं इस प्रकार इन ग्यारह मूल गाथाओंका यथासम्भव अपनी-अपनी भाष्य-गाथाओंके साथ व्याख्यान कर आये हैं। परन्तु इस समय कृष्टिकरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाली ग्यारह मूल गाथाओंका अपनी भाष्यगाथाओंके साथ यथावसर प्राप्त व्याख्यान करेंगे यह इस सूत्रका भावार्थ है। किन्तु उनका एक साथ कथन करना अशक्य होनेसे यथाक्रम ही व्याख्यान करते हुए सर्वप्रथम प्रथम मूल गाथाकी समुत्कीर्तना करने के लिए मागेके सूत्रको कहते हैं * उनमें से प्रथम मूल गाथाकी समुत्कोतना करते हैं। ६१२७. उन ग्यारह मूल गाथाओंमेंसे सबसे पहले प्रथम मूल गाथाको समुत्कीर्तना की जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * कृष्टियाँ कितनी हैं और किस कषायमें कितनी कृष्टियाँ हैं। कृष्टिके कौनसा करण होता है तथा कृष्टिका लक्षण क्या है। १२८. अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-'केवडिया किट्टीओ' ऐसा कहनेपर चारों कषायोंकी भेदविवक्षा किये बिना सामान्यसे कितनी संग्रह कृष्टियां तथा कितनी अवयव कृष्टियां होती हैं यह पृच्छा की गयी है। इस प्रकार यह प्रथम अर्थ है। पुनः चारों कषायोंकी भेदविवक्षा करके उनमें से एक-एक कषायकी कितनी कृष्टियां होती हैं इस प्रकार दूसरे अर्थसे युक्त Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे 'कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ' ति। एसा दुविहा पुच्छा संगहकिट्टीगमंतरकिट्टीणं च पमाणविसेसमुवेक्खदे । पुणो किट्टीओ करेमाणो टिट्टि-अणुभागेहि चदुण्हं संजलणाणं पदेसग्गं किमोकडुदि, आहो उक्कडुदि त्ति करणविसेसावहारणलक्खणो तदिओ अत्यो। तम्हि पडिबद्धो सुत्तस्स तदियावयवो 'किट्टीए किं करणं' इदि । किट्टीकरणावत्थाए कदमं करणं होति, किमोकड्डणाकरणमाहो उपकडणाकरणं तदुभयं वा त्ति पुच्छामुहेण तहाविहत्यविसए एदस्स पडिबद्धत्तदंसणादो। एणो किट्टीगदाणुभागस्स केरिसं लक्खणं, किमविभागपडिच्छेदुत्तरकमबड्डीए फद्दयगदाणुभागरसेव तदवट्ठाणसंभवो आहो अणंतगुणवडिसहवेण तदवट्ठाणणियमो ति एवंविह पुच्छा हेण विट्टोणं सरूवणिद्देसविसओ चउत्थो अत्थो एदम्मि पडिबद्धो, सुत्तस्स चरिमावयवो 'लक्खाणमथ कि च किट्टीए' ति। तदो एवं विहाणं चउण्हमत्थविसेसाणं किट्टीकरणद्धापडिबद्धाणं णिण्णयविहाणटुमेवं पढमगाहासुत्तं पुच्छामेत्तेण सूचिदासेसविसेसपरूवणं समोइण्णमिवि घेत्तट्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्यविसेसं विहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो उवरिमं पबंधमाढवेइ * एदिस्से गाहाए चत्तारि अत्था । १२९. चउण्हं कसायाणमभेदेण किट्टीणं पमाणावहारणं पुणो एक्केक्कस्स कसायस्स णिरंभणं कादूण किट्टीणं पमाणावहारणं किट्टीकारयस्स करणविसेसावहारणं किट्टीणं लक्खणविहाणं चेदि एवमेदे चत्तारि अत्यविसेसा किट्टीकरणद्धा संबंषिणो एदम्मि पढमगाहासुत्तम्मि णिबद्धा त्ति । इस गाथामें प्रतिबद्ध यह दूसरा पाद है-'कम्हि कसायम्हि कदि च विट्टीओ'। इस प्रकार यह दोनों प्रकारको पृच्छा संग्रह कृष्टियों और अन्तरकृष्टियोंसम्बन्धी प्रमाण विशेषकी अपेक्षा रखती है। पुनः कृष्टियोंको करनेवाला स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा चारों संज्वलनोंके प्रदेशपुंजको क्या अपकर्षित करता है या उत्कर्षित करता है इस प्रकार करण विशेषके अवधारणरूप लक्षणवाा तीसरा अर्थ उस गाथामें प्रतिबद्ध तीसरा पाद है-'किट्टीए किं करणं'। कारण कि कृष्टिकरणको अवस्थामें कौन करण होता है, क्या अपकर्षणकरण होता है या उत्कर्षणकरण होता है या वे दोनों करण होते हैं इस प्रकार पृच्छामुखसे उस प्रकारके अर्थके विषय में यह तीसरा पाद प्रतिबद्ध देखा जाता है । पुनः कृष्टिगत अनुभागका किस प्रकारका लक्षण है ? क्या अविभागप्रतिच्छेदोंकी उत्तरक्रम वृद्धिरूपसे स्पर्धकगत अनुभागका हो वहाँ अवस्थान सम्भव है या अनन्तगुणवृद्धिरूपसे अनुभागके अवस्थानका नियम वहां पाया जाता है इस तरह इस प्रकारके पृच्छामुखसे कृष्टियोंके स्वरूपका निर्देश करनेवाला चौथा अर्थ इसमें प्रतिबद्ध है। सूत्रका वह अन्तिम पाद है'लक्खणमध किं च विट्टीए'। इसलिए कृष्टिकरणके कालसे सम्बन्ध रखनेवाले इस प्रकारके चौथे अर्थ सम्बन्धी विशेषोंका निर्णय करने के लिये पृच्छामुखसे सूचित हुए समस्त विशेषोंका सूचन करनेवाला प्रथम गाथासूत्र अवतीर्ण हुआ है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थविशेषको विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगेके प्रबन्धका आरम्भ करते हैं * इस गाथाके चार अर्थ हैं। ६१२९. चारों कषायोंका अभेद करके कृष्टियोंके प्रमाणका अवधारण करना, पुनः एक-एक कषायको विवक्षित कर कृष्टियोंके प्रमाणका अवधारण करना, कृष्टिकारकके करणविशेषका अवधारण करना तथा कृष्टियोंके लक्षणका विधान करना। इस प्रकार कृष्टिकरणकालसे सम्बन्ध रखनेवाले ये चारों अर्थविशेष इस प्रथम गाथासूत्र में निबद्ध हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पढममूळगाहाए पढमभासगाहा वुत्तं होह। * तिणि मासगाहाओ । __१३०. एविस्से पढममूलगाहाए अत्यविहासण? मेत्य तिण्णि भासगाहाओ होंति, तासि. मिदाणिमवयारं कस्सामो त्ति वुत्तं होइ, भासगाहाहि विणा मूलगाहाणमत्यविहासणोवायाभावादो । तत्थ मूलगाहा णाम पुच्छादुवारेण सूचिदासेसपयदत्थपरूवणा संगहरुइसत्ताणुग्गहकारिणी । तिस्से सूचिदत्थविवरणे पडिबद्धाओ वित्थररुइसत्ताणग्गहकारिणीमो भासगाहाओ त्ति दटुवाओ। एवमेत्थ तिण्हं भासगाहाणमत्थितं परूविय संपहि जहाकममेव तासि विवरणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो तत्थ पढमभासगाहाए पुध्वमवयारं करेदि-- * पढममासगाहा वेसु अत्थेसु णिबद्धा । तिस्से समुक्त्तिणा। ६१३१. तिहं भासगाहाणं माझे पढमा भासगाहा मूलगाहाए पुग्वद्धपडिबद्धेसु वेसु अत्येसु णिबद्धा। तिस्से समुक्कित्तणा एसा बटुव्वा त्ति वुत्तं होदि । (११०) बारस णव छ तिण्णि य किट्टाओ होति अध व अणंताओ एकेक म्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ ॥१६३॥ ६१३२. एदिस्से पढमभासगाहाए अत्यविवरणं कस्सामो। तं जहा–'बारस णव छ तिष्णि य' एवं भणिदे संगहकिटीओ पेक्खियूण ताव कोहोदएण चडिदस्स बारस संगहकिट्टीओ भवंति, पुव्वुत्ताणं बारसण्हं पि संगहकिट्टीणं तत्थ संभवोवलंभावो। माणोवएण चडिवस्स णव * इसकी तीन भाष्यगाथाएं हैं। 5१३०. इस प्रथम मूछ गाथाके अर्थको विशेष व्याख्या करने के लिए इस विषय में तीन भाष्यगाथाएं हैं, उनका इस समय अवतार करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि भाष्यगाथाओंके बिना मूल गाथाओंको विशेष व्याख्या करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है। जिससे संग्रह रुचिवाले जीवोंका उपकार होता है और जिसके पृच्छा द्वारा सूचित हुए समस्त प्रकृत अर्योको प्ररूपणा की जाती है वह मूल गाथा कहलाती है। तथा जो उस मूल गाथा द्वारा सूचित हुए अर्थोके विवरण करने में प्रतिबद्ध हैं और जिनके द्वारा विस्तार रुचिवाले जीवोंका अनुग्रह होता है उन्हें भाष्यगाथाएँ कहते हैं ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार प्रकृतमें तीन भाष्यगाथाओंके अस्तित्वका कथन करके अब क्रमसे हो उनका विवरण करते हुए चूर्णिसूत्रकार उनमें से प्रथम भाष्यगाथाका सर्वप्रथम अवतार करते हैं * प्रथम भाष्यगाथा दो अर्थोंमें निबद्ध है। उसकी समुत्कीर्तना करते हैं। ६१३१. तीन भाष्यगाथाओंमें से प्रथम भाष्यगाथा मूल गाथाके पूर्वाधसम्बन्धी दो अर्थों में निबद्ध है । उसको यह समुत्कीर्तना जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (११०) क्रोधादि चारों कषायोंकी क्रमसे बारह, नौ, छह ओर तीन कृष्टियाँ होती हैं अथवा अनन्त कृष्टियाँ होती हैं। तथा एक-एक कषायमें तीन-तीन कृष्टियां होती हैं अथवा अनन्त कृष्टियाँ होती हैं ॥१६३॥ ६१३२. अब इस भाष्यगाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं। वह जैसे–'बारस णव छ तिण्णि य' ऐसा कहनेपर संग्रह कृष्टियोंको देखते हुए जो जीव क्रोध संज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसके बारह संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि पूर्वोक्त बारह हो संग्रह कृष्टियां वहाँ सम्भव Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे संगहकिट्टीओ भवंति, तत्थ किट्रीकरणद्धादो पुव्वमेव फहयसरूवेण विणस्संतस्स कोहसंजलणस्स तिहं संगहकिट्टीणं संभवाणुवलंभादो। मायोदएण चडिवस्स पुण छच्चेव संगहकिट्टीओ होति, कोह-माणसंजलणाणं तत्थ फद्दयसरूवेण पुव्वमेव खविज्जमाणाणं किट्टीकरणासंभवादो। तहा लोभोदएण सेढिमारूढस्स तिणि चेव संगहकिट्टीओ होंति, कोह-माण-मायासंजलणाणं फद्दयसरूवेण विणासिज्जमाणाणं तत्थ किट्टीसंबंधाणवलंभावो । एक्के विकस्से पुण संगहकिट्टीए अवयवकिटीओ अणंताओ होंति ति जाणावणटुं 'अधवा अणंताओं' ति तप्पमाणणिद्देसो कदो। एवमव्वोगाढसरूवेण चउण्हं संजलणाणमेत्तियाओ संगहकिट्टीओ तववयवकिट्टीओ च होति ति पुव्वद्धेणेदेण जाणाविय संपहि चउण्हं संजलणाणं पुष पुध णिरंभणं कादूण तत्थ एक्केक्कस्स कसायस्स केत्तियाओ किट्टीओ होति त्ति मूलगाहाविवियावयवमस्सियूण विहासणटुं गाहापच्छद्धो समोइण्णों ‘एक्केक्कम्हि कसाये तिग तिग' कोहावीणमण्णवरे कसाए णिरुद्धे पादेक्कं तिण्णि तिण्णि संगहकिट्टीओ होति । तदवयवकिट्टीओ पुण अणंताओ होति त्ति एसो एत्थ. सुत्तत्यसमुच्चओ। संपहि एवंविहमे विस्से गाहाए अत्यविहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो विहासागंथमुत्तरं भणइ * विहासा। ६१३३. सुगमं । * जइ कोहेण उवट्ठायदि तदो बारस संगहकिट्टीओ होति । हैं। जो मान संज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसके नौ संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि इसके कृष्टिकरण कालके पूर्व ही स्पर्धकरूपसे विनाशको प्राप्त हुए क्रोध संज्वलनको तीन संग्रह कृष्टियां वहाँ सम्भव नहीं हैं । परन्तु जो मायाके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसके छह ही संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि इसके (कृष्टिकरण कालके) पूर्व ही स्पर्धकरूपसे क्षयको प्राप्त हुए क्रोध और मान संज्वलनोंके कृष्टिकरण असम्भव है। तथा लोभके उदयसे जो श्रेणिपर आरोहण करता है उसके तीन ही संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि इसके क्रोध, मान और माया संज्वलनका स्पर्धकरूपसे विनाश हो जाता है, इसलिए वहां उक्त कषायसम्बन्धी कृष्टियां नहीं पायी जाती हैं । परन्तु एक-एक संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियां अनन्त होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'अधवा अणंताओ' इस पद द्वारा उनके प्रमाणका निर्देश किया है। इस प्रकार अवोगाढ़स्वरूपसे अर्थात् विभक्त किये बिना चारों संज्वलनोंकी इतनो संग्रह कृष्टियां और उनकी इतनी अवयव कृष्टियां होती हैं इस प्रकार इस गाथासत्रके पूर्वार्ध द्वारा ज्ञान कराकर अब चारों संज्वलनों को पृथक्-पृथक् विवक्षित कर उनमें से एक-एक कषायकी कितनो कृष्टियां होती हैं इस प्रकार मूल गाथाके दूसरे अवयव अर्थात् उत्तरार्धका आलम्बन लेकर व्याख्या करने के लिए गाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है-'एक्केक्कम्हि तिग तिग' अर्थात् क्रोधादि संज्वलनोंमेंसे किसी एक कषायके विवक्षित होनेपर प्रत्येकको तीन-तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं । तथा उनकी अवयव कृष्टियो अनन्त होती हैं यह यहां इस गाथासूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । अब इस प्रकार इस गाथासूत्रके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए चूणिसूत्रकार आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब उक्त गाथा सूत्रको विभाषा करते हैं। ६१३३. यह सूत्र सुगम है। * यदि क्रोध कषायके उदयसे आपकश्रेणिपर उपस्थित होता है तो उसके बारह संग्रह कृष्टियां होती हैं। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पढममूलगाहाए पढमभासगाहा $ १३४. कोहोदएण जइ खवगसेढिमुदट्टायदि तो तस्स बारह संगहकिट्टीओ होति त्ति सुत्तत्थसंबंधो । सेसे सुगमं । * माणेण उवद्विदस्स णव संगहकिट्टीओ। ६ १६५. कुदो ? कोहसंजलणस्स तिहं संगहकिट्टीणमेत्य संभवाणुवलंभादो। कुवो एवं चे ? कोहसंजलणाणुभागस्स फद्दयसरूवेणेव तत्थ विणासदसणादो। * मायाए उवट्ठिदस्स छ संगहकिट्टीओ। ६१३६. कोह-माणसंजलणाणं तत्थ किट्टीपरिणामेण विणा फद्दयसरूवेणेव विणासदसणादो। * लोभेण उवढिदस्स तिणि संगहकिट्टीओ। ६१३७. कि कारणं ? लोभसंजलणं मोत्तूण तत्थ सेससंजलणाणं किट्टीकरणद्धो हेट्ठा चेव जहाकम फद्दयगदाणुभागसरूवेण खविज्जमाणाणं किट्टिसंबंधाणुवलंभावो। संपहि इममेव सुत्तत्थमुवसंहरेमाणो उवरिमं सुत्तावयवमाह * एवं बारस णव छ तिण्णि च । 5 १३४. यदि क्रोध संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर उपस्थित होता है तो उसके बारह संग्रह कृष्टियां होती हैं यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । शेष कथन सुगम है। के मान संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर उपस्थित हुए जीवके नौ संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। $ १३५. क्योंकि क्रोध संज्वलनसम्बन्धी तीन संग्रह कृष्टियां यहाँपर सम्भव नहीं हैं। शंका-ऐसा किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि क्रोध संज्वलन सम्बन्धी अनुभागका यहां पर स्सर्धकरूपसे हो विनाश देखा जाता है। * माया संज्वलनके उदयसे क्षपकणिपर उपस्थित हुए जीवके छह संग्रह कृष्टियां होती हैं। ६१३६. क्योंकि क्रोध और मान संज्वलनोंका वहाँपर कृष्टिरूप परिणाम हुए बिना स्पर्धकरूपसे ही विनाश देखा जाता है। ___ * लोभ संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर उपस्थित हुए जीवके तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। ६१३७. क्योंकि लोभसंज्वलनको छोड़कर वहाँपर शेष संज्वलनोंका कृष्टिकरणके कालके पूर्व ही क्रमसे स्पर्धकगत अनुभागरूपसे क्षय करनेवाले जीवोंके कृष्टिरूपसे उक्त अनुभागका सम्बन्ध नहीं पाया जाता। अब सूत्रसम्बन्धी इसी अर्थका उपसंहार करते हुए आगे उक्त गाथा सूत्रके प्रथम चरणको कहते हैं. * इस प्रकार उक्त भाष्यगाथाके प्रथम चरणके अनुसार क्रमसे बारह, नौ, छह और तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ १३८. सुगमं । संपहि 'अधवा अणंताओ' ति इमं सुत्तावयवं विहासिवुकामो इवमाह * एक्वेकिस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ त्ति एदेण कारणेण 'अधवा अणंताओ' ति। १३९. गयत्थमेदं सुत्तं । एवमेदम्मि गाहापुव्वद्ध विहासिदे मूलगाहापढमावयवपडिबद्धो अत्यो समप्पवि ति जाणावणमिवमाह * केवडियाओ किट्टीओ त्ति अत्थो समत्तो। $ १४०. सुगम। संपहि मूलगाहाए विवियावयवमस्सियूण पढमभासगाहापच्छिमदं विहासेमाणो उवरिमं पबंधमाह * कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ त्ति एदं सुत्तं । ६१४१. सुगममेदं । मूलगाहाविदियावयवसंभालणफलं सुतं, ण तस्स संभालणं णिरत्ययं; अण्णहा सोदाराणं सुहेण तस्विसयपडिबोहाणुववत्तीदो। * एकेक म्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ ति विहासा । १४२. अणंतरणिहिट्ठमूलगाहाविदियावयवडिबद्धथविहासण?मेवस्स गाहापच्छद्धस्स विवरणं कस्सामो त्ति भणिदं होइ। $१३८. यह सूत्र सुगम है। अब उक्त सूत्रगाथाके 'अधवा अणंताओ' इस दूसरे चरणकी विशेष व्याख्या करनेकी इच्छासे इस चूणिसूत्रको कहते हैं * अथवा एक-एक संग्रह कृष्टिको अनन्त कृष्टियां होती हैं, इस कारण उक्त भाष्यगाथासूत्रमें 'अथवा अनन्त होती हैं' यह वचन कहा है। ६१३९. यह सूत्रवचन गतार्थ है। इस प्रकार इस गाथासूत्रके पूर्वाध की व्याख्या करनेपर मूलगाथाके प्रथम चरणसे सम्बन्ध रखनेवाला अर्थ समाप्त हुआ इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * इस प्रकार मूल गाथाके 'कृष्टियां कितनी होती हैं। इस प्रश्नार्थक प्रथम पावका अर्थ समाप्त हुआ। ६१४० यह वचन सुगम है। अब मूल गाथाके दूसरे पादका आलम्बन लेकर प्रथम भाष्यगाथाके उत्तरार्धकी विभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * 'किस कषायमें कितनी कृष्टियां होती हैं। यह मूलगाथाके दूसरे पादका निर्देश करनेवाला सूत्र है। ६.१४१. यह सूत्रवचन सुगम है । मूलगाथाके दूसरे पादकी संभाल करना इस सूत्रवचनका फल है। और उसकी संभाल करना निरर्थक नहीं है, अन्यथा श्रोताओंको उक्त सूत्र द्वारा तद्विषयक प्रतिबोध नहीं हो सकता। * अब प्रथम भाष्यगाथाके 'एक्केक्कम्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ' उत्तरार्धको विभाषा करते हैं। 5.१४२. अनन्तर पूर्व कही गयी मूलगाथाके दूसरे पादसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थकी विभाषा करने के लिए इस भाष्यगाथाके उत्तरार्धका विवरण करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पढममूलगाहाए पढमभासगाहा * 'एकेक म्हि कसाये तिष्णि तिष्णि संगहकिट्टीओ' त्ति एवं तिग तिग । $ १४३. जदो एक्केक्कम्हि कसायम्हि तिष्णि तिष्णि संगह किट्टीओ होंति तवो 'एक्क्कम्हि कसाए तिग तिग' इदि गाहापच्छद्धे भणिदमिदि वृत्तं होदि । * एक्के किस्से संगह किट्टीए अनंताओ किट्टीओ त्ति एदेण 'अधवा अनंताओ' जादा । ५३ $ १४४. एक्केक्कस्स कसायरस एक्के विकस्से संगहकिट्टीए अवयवकिट्टीओ अनंताओ अस्थि, तदो 'अधवा अणंताओ' त्ति गाहासुत्तचरिमावयवो भणिदो त्ति वृत्तं होइ । णेदमेत्थासंकणिज्जं, 'अथवा अनंताओ' त्ति गाहापुग्वद्धचरिमावयवेणेवस्स सुत्तावयवस्त पुणरुत्तभावो किष्ण पसज्जदिति । कि कारणं ? अव्वोगाढसहवच दुकसायविसयेण तेण निरुद्वेगकसायविसयस्सेक्स्स अत्यभेवसंभवेण पुणरुत्तदोसा संभवादो । संपति 'किट्टीए कि करणं' ति मूलगाहातवियावयवस्स अत्थविवरणं कुणमाणो तत्थ पडिबद्धविदियभासगाहाए अवसरकरणट्टमुवरिमं पबंधमाह * एक-एक कषाय में तीन-तोन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं इस प्रकार भाष्यगाथाके उत्तराधंमें 'तिगतिग' यह वचन आया है। $ १४३. यतः एक-एक कषायमें तीन-तीन संग्रह कृष्टियों होती हैं, इसलिए एक-एक कषाय में 'तिगतिग' यह वचन गाथाके उत्तरार्ध में कहा है यह उक्त वचनका तात्पर्य है । * एक-एक संग्रह कृष्टिकी अनन्त अवयव कृष्टियाँ होती हैं इस कारण उक्त भाष्यगाथा के उत्तरार्ध में 'अधवा अणंताओ' यह पद निर्दिष्ट किया गया है । १४४. एक-एक कषायकी एक-एक कारण 'अधवा अनंताओ' इस प्रकार उक्त कथनका तात्पर्य है | संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियां अनन्त होती हैं, इस भाष्यगाथा सूत्रका अन्तिम पाद कहा है यह उक्त शंका- इसी भाष्यगाथा के पूर्वार्धके अन्तिम पादमें 'अध व अणंताओ' यह वचन आया है, अतः उसके साथ उत्तरार्ध के 'अधवा अनंता' इस सूत्रवचनका पुनरुवतपना क्यों नहीं प्राप्त होता है अर्थात् अवश्य प्राप्त होता है ? समाधान - सो यहाँ ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसी भाष्यगाथा के पूर्वार्धमें जो 'अध व अनंताओ' पाठ आया है वह अव्वोगाढरूपसे चारों कषायों को विषय करता है, इसलिए विवक्षित एक-एक कषायका विषय करनेवाले उत्तरार्ध सम्बन्धो 'अधवा अणताओ' इस वचनमें अर्थभेद सम्भव होने से पुनरुक्त दोष सम्भव नहीं है । विशेषार्थ - उक्त भाष्यगाथाके पूर्वार्ध में जो 'अघ व अनंताओ' पाठ आया है वह चारों कषायों में सब मिलाकर अवयव कृष्टियां अनन्त होती हैं इसकी सिद्धि के लिए आया है और इसी भाष्यगाथा के उत्तरार्धमें पुनः जो 'अधवा अणंताओ' पाठ आया है वह एक-एक कषायमें भी अनन्त-अनन्त अवयव कृष्टियां होती हैं यह द्योतित करनेके लिए आया है, इसलिए उक्त भाष्यगाथामें उक्त वचन आनेसे पुनरुक्त दोष नहीं प्राप्त होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब 'किट्टीए कि करणं' इस प्रकार मूलगाथाके तीसरे पादके अर्थका खुलासा करते हुए उक्त पादमें निबद्ध दूसरी भाष्यगाथाको अवसर देनेके लिए आगे के प्रबन्धको कहते हैं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * 'किट्टीए किं करणं' ति एत्थ एका भासगाहा । ६१४५. 'किट्टीए कि करणं' इच्चेदम्मि बोजपदे णिबद्धो जो अत्थो तम्हि विहासिज्जमाणे तत्य पडिबद्धा एक्का भासगाहा दटुल्या ति भणिवं होदि । * तिस्से समुक्त्तिणा। ६१४६. सुगमं। (१११) किट्टी करेदि णियमा ओवट्ठेतो ठिदी य अणुभागे । वड्āतो किट्टीए अकारगो होदि बोद्धव्वो ॥१६४॥ ६१४७. एदिस्से विदियभासगाहाए अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-'किट्टी करेदि णियमा ओवटेंतो०' एवं भणिवे चउण्हं संजलणाणं द्विदीओ अणुभागे च ओकडुमाणो चेव किट्टीओ करेदि गाण्णहा ति वुत्तं होदि । एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणटुं गाहापच्छवमोइण्णं'वड्डेतो किट्टीए अकारगो' ठिदि-अणुभागे उक्कड्डेमाणो णियमा किट्टीए कारगो ण होदि त्ति भणिदं होदि । कुदो एस णियमो त्ति चे ? किट्टीकारगपरिणामाणमुक्कड्डणाकरणविरुद्धसहावेणावट्ठाणणियमादो । एवं च मोहपयडीओ पेक्खिदूण भणिवं, णाणावरणाविकम्मेसु एवम्हि विसए * मूल गाथाके 'किट्टोए किं करणं' प्रश्नरूप इस अर्थके उत्तरस्वरूप एक भाष्यगाथा आयी है। ६ १४५. 'क्ट्ठिीए कि करणं' अर्थात् कृष्टिकरणके कालमें कौन करण होता है इस प्रकार इस बीजपदमें जो अर्थ निबद्ध है उसका व्याख्यान करते हुए उक्त अर्थमें प्रतिबद्ध एक भाष्यगाथा जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * अब उसको समुत्कोतना करते हैं । 5 १४६. यह वचन सुगम है। (१११) चारों संज्वलन कषायोंको स्थिति और अनुभागका नियमसे अपवर्तना करता हुआ हो कृष्टियोंको करता है तथा उक्त कषायोंके स्थिति और अनुभागको बढ़ाता हुआ कृष्टियोंका अकारक होता है ऐसा जानना चाहिए ॥१६४॥ ६१४७. अब इस दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे-'किट्टी करेदि णियमा ओवटेंतो' ऐसा कहनेपर चारों संज्वलनोंकी स्थिति और अनुभागका अपकर्षण करता हुआ ही कृष्टियोंको करता है, अन्य प्रकारसे नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी अर्थका स्पष्टीकरण करने के लिए गाथाका उत्तरार्ध अवनीणं हुआ है 'वड्ढेतो किट्टीए अकारगो' स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण करनेवाला जीव नियमसे कृष्टिका कारक नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह नियम किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि कृष्टियोंको करनेवाले जीवोंके परिणामोंका अवस्थान उत्कर्षणाकरणके विरुद्ध स्वभावरूप होता है ऐसा नियम है । किन्तु यह सब मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंको देखकर कहा है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मोंकी अपेक्षा इस विषयमें इस प्रकारका नियम करना सम्भव नहीं है । यद्यपि इस अर्थका अपवर्तना Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए पढममूलगाहाए विदियभासगाहा तहाविहणियमासंभवादो। जइ वि एसो अत्थो ओवट्टणतदियमूलगाहाविहासणावसरे पुव्वं जाणाविदो तो वि तस्सेवत्थस्स किट्टीकरणाहियारसंबंधेण विसेसियूण परूवणटुं पुणरुवण्णासो त्तिण एत्थ पुणरत्तदोसासंका कायव्वा । ६. १४८. संपहि एदिस्से गाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो विहासागंथमुत्तरं भणह* विहासा । 5 १४९. सुगमं । * जहा। $ १५०. एदं पि सुगम। * जो किट्टीकारगो सो पदेसग्गं ठिदीहिं वा अणुभागेहि वा ओकड्डदि, ण उक्कड्डदि। $ १५१. गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि एदस्सेवत्थस्स विसयविभागमुहेण विसेसियूण परूवणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ-. * खवगो किट्टीकरणप्पहुडि जाव संकमो ताव ओकड्डगो पदेसग्गस्स ण उक्कड्डगी। विषयक तीसरी मूलगाथाके कथनके समय पहले ही ज्ञान करा आये हैं तो भी उसी अर्थका कृष्टिकरण अधिकारके सम्बन्धसे विशेषरूपसे कथन करकेके लिए पुनः उपन्यास किया है, इसलिए प्रकृतमें पुनरुक्त दोषको आशंका नहीं करनी चाहिए। विशेपार्थ-'बंधो व संकमो वा उदयो वा' इत्यादि तीसरी मूलगाथा है । उसके उत्तरार्धमें 'अधिगो समो व हीणो' पाठ आया है। उसकी व्याख्या करते हुए सामान्यरूपसे अपकर्षणाविषयक विशेष ऊहापोह पहले ही कर आये हैं। परन्तु यहां कृष्टिकरण अधिकार अवसरप्राप्त है, इसलिए इस प्रसंगसे प्रकृतमें उत्कर्षण और अपकर्षणविषयक क्या व्यवस्था है यह दिखलाना क्रमप्राप्त था, मात्र इसीलिए यहाँपर कृष्टिकरणमें एक अपकर्षणकरण ही घटित होता है यह दिखलानेके लिए उसका पुनः व्याख्यान किया गया है जो उपयुक्त ही है, अतः प्रकृतमें पुनरुक्त दोषको आशंका ही नहीं की जा सकती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।। १४८ अब इस गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं* अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६१४९. यह वचन सुगम है । * वह जैसे। ६१५०. यह वचन भी सुगम है। * जो कृष्टियोंको करनेवाला है वह संज्वलन कषायोंके प्रदेशपुंजका स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा अपकर्षण ही करता है, उत्कर्षण नहीं करता। 5 १५१. यह सूत्र गतार्थ है । अब इसी अर्थका विषयविभाग द्वारा विशेषरूपसे कथन करते हुए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं *क्षपक जीव कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर उनके संक्रम होनेके अन्तिम समय तक संज्वलन कषायोंके प्रवेशपुंजका अपकर्षक ही होता है, उत्कर्षक नहीं होता। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ १५२. किट्टीकारगो उवसामगो वि अत्थि, खवगो वि अत्थि । तक्खवगों किट्टीकारयपढमसमय पहूडि जाव चरिमसमय संकामओ ताव मोहणीयपदेसग्गस्स ओकडुगो चेव होदि, ण पुण उक्कडगो त्ति एसो एत्य सुत्तत्यसमुच्चओ । एत्थ 'जाव संकमो' त्ति भणिदे जाव समयाहियावलियमसांपराओ ताव ओकडुणाकरणं पयट्टदि त्ति घेतव्यं ५६ * उवसामगो पुण पढमसमय किट्टीकारगमादि काढूण जाव चरिमसमयसकसा यो ताव ओकडगो, ण पुण उक्कडगो । १५३. कसाये उवसामेंमाणो लोभवेदगद्धाए विदियतिभागम्मि किट्टीओ करेमाणो तदवत्थाए लोभसंजलणस्स द्विदिअणुभागाणमोकडुगो चेव होदि, किट्टीकरणद्धादो हेट्ठा सव्वत्थेव पयट्टमाणस्स उक्कडुणाकरणस्स किट्टीकरणपढमसमए मोहणीयविसए वोच्छेदभादो | तो पढसमय किट्टीकारगमादि काढूण जाव चरिमसमयसकसायो ताव द्विदि-अणुभागेह मोहणीयकम्मपदेसाणमोकडगो चेव एसो उवसामगो ण पुणो उक्कड्डुगो त्ति एसो एक्स्स भावत्थो । जइ वि सुहुमसांपराइयपढमट्ठिदीए आवलिय-पडिआवलियमेत्तसेसाए आगाल - पडिआगालो वोच्छिज्जदि तो वि विदियट्ठिदिसमव द्विदपदेसग्गस्स सत्याने ओकडुणा संभवो अस्थि ति सुमसांपराइयचरिमसमओ एत्थ ओकडुणाकरणस्स मज्जादाभावेण णिद्दिट्टो | तत्तो परं सव्वोवसामणाए उवसंतस्त मोहणीयस्स सव्वेंस करणाणं वोच्छेदणि यमदंसणादो । वसंतकसाए वि वंसणमोहणीयस्स ओकडुणाकरणमत्थि त्ति णासंकणिज्जं, तेणेत्थ अहियारा १५२. कृष्टियों को करनेवाला उपशामक भी होता है और क्षपक भी होता है । उनमें से जो क्षपक है वह कृष्टियोंको करनेके प्रथम समयसे लेकर उनका संक्रम करनेके अन्तिम समय तक मोहनीय कर्म के प्रदेश पुंजका अवकर्षक हो होता है, परन्तु उत्कर्षक नहीं होता यह यहाँ इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । इस सूत्र में 'जाव संकमो' ऐसा कहनेपर सूक्ष्म साम्परायिक काल में एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने है तक अपकर्षणाकरण प्रवृत्त रहता है। ऐसा ग्रहण करना चाहिए । * परन्तु उपशामक जीव कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर कषायभावके अन्तिम समय तक अपकर्षक ही होता है, उत्कर्षक नहीं होता । $ १५३. कषायों को उपशमानेवाला जीव लोभवेदक कालके दूसरे त्रिभागमें लोभसम्बन्धो अनुभाग की कृष्टियों को करता हुआ उस अवस्था में लोभ संज्वलनकी स्थिति और अनुभागका अपकर्षक ही होता है, क्योंकि कृष्टिकरणसम्बन्धी कालके पूर्व में सर्वत्र ही प्रवृत्त हुए मोहनीय-विषयक उत्कर्षणकरणकी कृष्टिकरणके प्रथम समय में व्युच्छिति हो जाती है । इसलिए कृष्टिकारक के प्रथम समय से लेकर सकषायभावके अन्तिम समय तक यह उपशामक स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा मोहनीय कर्मप्रदेशोंका अपकर्षक ही होता है, परन्तु उत्कर्षक नहीं होता यह इस सूत्र का है । यद्यपि सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम स्थिति में आवलि और प्रत्यावलिमात्र कालके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागालको व्युच्छित्ति हो जाती है तो भी द्वितीय स्थिति में अवस्थित प्रदेश पुंज की स्वस्थान में अपकर्षणा सम्भव है, इसलिए सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समय तक यहाँपर अपकर्षणाकरणका मर्यादारूपसे निर्देश किया है। उसके बाद सर्वोपशामनाके द्वारा उपशान्त हुए मोहनीयके सभी करणोंकी व्युच्छित्तिका नियम देखा जाता है । शंका-उपशान्तकषाय में भी दर्शनमोहनीयका अपकर्षणाकरण होता है ? Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पढममूलागाहाए विदियभासगाहा ५७ भावादो । संपहि एदस्सेव उवसामगस्स ओवरमाणावत्थाए ओकड्डुक्कडुणाकरणाणं पवृत्तिविसेसावहारण उत्तरसुत्तावयारो * पडिवदमाणगो पुण पढमसमयस कसायप्पहूडि ओकडगो वि उक्कडगो वि । $ १५४. ओदर माणगस्स पढमसमय सुहुमसां पराइयप्पहुडि सम्वत्थेवावत्याविसेसे ओकड्डुकडुण करणाणं णत्थि पडिसेहो; सव्वेसि करणाणं तत्थ पुनरुत्पत्तिदंसणादो त्ति वृत्तं होइ । जइ वि एत्थ सुहुमसांपराइयगुणद्वाणे मोहणीयस्स बंधाभावेण उक्कणाए णत्थि संभवो तो वि सति पडुच्च तत्थुक्कडुणाकरणस्स संभवो परुविदो । जहा ओंकड्डुक्कडुणाकरण (ण मेत्य मोहणीय संबंधेण किट्टीकारगम हिकिचच मग्गणा कदा तहा सेसकरणाणं पि जहासंभवं मग्गणा काव्वा, विरोहाभावादो। एवं मग्गणाए कदाए 'किट्टीए कि करणं' ति मूलगाहाए तदिओ अत्यो समत्तो । समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसका यहाँपर अधिकार नहीं है । अब इसी उपशामकके उतरनेकी अवस्थामें अपकर्षण- उत्कर्षणकरणको प्रवृत्ति विशेषका निश्चय करने के लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं * परन्तु गिरनेवाला उपशामक सकषाय होनेके प्रथम समयसे लेकर अपकर्षक भी होता है और उत्कर्षक भी होता है । $ १५४. उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले बीवके सूक्ष्मसाम्परायिक होनेके प्रथम समयसे लेकर सर्वत्र ही अवस्था विशेष में अपकर्षणकरण और उत्कर्षणकरणका प्रतिषेध नहीं है, क्योंकि वहाँ सभी करणों की पुनरुत्पत्ति देखी जाती है यह उक्त कथनका आशय है । यद्यपि यहाँ सूक्ष्मसाम्प रायिक गुणस्थान में मोहनीय कर्मका बन्ध नहीं होनेसे उत्कर्षणाकरण सम्भव नहीं है तो भी शक्तिकी अपेक्षा वहां उत्कर्षणाकरण सम्भव है यह कहा है। तथा जिस प्रकार यहाँपर मोहनीयकर्म के सम्बन्धसे कृष्टिकरणको अधिकृत करके अपकर्षणाकरण और उत्कर्षणाकरणको मार्गणा को है, उसी प्रकार शेष करणोंकी भी यथा सम्भव मार्गणा कर लेनी चाहिए, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार मार्गणा करनेपर 'कृष्टिकरण में कोन करण होता है' इस प्रकार मूल गाथांका तीसरा अर्थ समाप्त होता है । विशेषार्थ - प्रतिपात दो प्रकारका है -उपशामनाक्षयनिमित्तक और भवक्षयनिमित्तक । जो भक्षयनिमित्तक प्रतिपात होता है उसमें तो आठों हो करण उद्घाटित हो जाते हैं । किन्तु उपशामनाक्षयनिमित्तक प्रतिपात में अपकर्षणाकरण और उदीरणाकरण ये दोनों करण वहाँ उद्घाटित हो जाते हैं । तथा इसी प्रकार अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण भी उद्घाटित हो जाते हैं । मात्र उत्कर्षणाकरण और संक्रमकरणका शक्तिकी अपेक्षा हो वहाँ सद्भाव स्वीकार किया गया है । अब रहा बन्धनकरण सो मोहनीय कर्मका नौवें गुणस्थान तक ही बन्ध होता है । अतः वहाँ इसे व्युच्छिन्न जानना चाहिए । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि बन्धन करणके अभाव में उत्कर्षणाकरण और संक्रमकरणको भी शक्ति अपेक्षा नहीं स्वीकार करना चाहिए । सो इस शंकाका समाधान यह है कि बिन कर्मोका बन्धके समय उत्कर्षण और संक्रमण होता है वे कर्म सत्तारूपमें बन्धके अभाव में उस समय भो पाये जाते हैं, अतः वहां शक्ति अपेक्षा इन दोनों करणों को स्वीकार किया नया है । ረ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे संपहि मूलगाहाचरिमावयवमस्सियूण चउत्थमत्थं विहासेमाणो तत्थ पडिबद्धाए तदियभासगाहाए अवसरकरण?मुवरिमं सुत्तमाह * 'लक्खणमध किं च किट्टीए' त्ति एत्थ एका भास गाहा । तिस्से समुकित्तणा। 5 १५५. 'लक्खणमध किं च किट्टोए' ति एदम्मि मूलगाहाचरिमावयवबीजपदे णिबद्धस्स चउत्थस्स अत्थस्स विहासण?मेक्का भासगाहा होदि । तिस्से समुक्कित्तणा एसा दट्टव्वा त्ति वुत्तं होइ। (११२) गुणसेढि अणंतगुणा लोभादी कोधपच्छिमपदादो। कम्मरस य अणुभागे किट्टीए लक्खणं एदं ॥१६॥ ६१५६. एदिस्से तदियभासगाहाए किट्टीलक्खणपरूवणमोइण्णाए अथविवरणं कस्सामो। तं जहा-'गुणसेढि अणंतगुणा' गुणस्स सेढी गुणसेढी सा अणंतगुणा भवदि । कम्हि पुण विसए एसा गुगसेढी अणंतगुणा ति वुते 'लोभादी कोधपच्छिमपदादो' लोभजहणकिट्टिमादि कादूण जाव कोहसंजलणसव्वपच्छिमउक्कस्सकिट्टि ति जहाकममवट्टिदचदुसंजलणकम्माणुभागविसए एसा अणंतगुणा गुणओली बटुव्वा' त्ति वुतं होदि । 'किट्टीए लक्षणं एद' लोभसंजलणजहण्णकिट्टिमादि कादूण जाव कोधुक्कस्सकिट्टि त्ति एदासिमणुभागस्स अण्गोण्णं पेक्खियूणाविभागपडिच्छेदुत्तरकमवड्डीए विणा जमणंतगुणवड्डीए पुव्वापुठवफद्दयाणुभागादो अणंत अब मूल गाथाके अन्तिम चरणका अवलम्बन करके चौथे अर्थको विभाषा करते हुए उसमें प्रतिबद्ध तीसरी भाष्यगाथाका अवसर उपस्थित करने के लिए आगेके सत्रको कहते हैं * 'लक्खणमध किं च किट्टोए-कृष्टिका क्या लक्षण है' इस अर्थमें एक भाष्यगाथा आयी है। १५५. 'कृष्टिका क्या लक्षण है' इस मूल गाथाके बोजपदस्वरूप चौथे चरण में निबद्ध चौथे अर्थको विभाषा करने के लिए एक भाष्यगाथा है उसकी यह समुत्कोर्तना जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (११२) लोभ संज्वलनको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोध संज्वलनको सबसे पश्चिम पद अर्थात विलोमक्रमसे अन्तको उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक चारों संज्वलनोंके अनुभागमें गुणश्रेणि उत्तरोत्तर आन्तगुगो होतो है यह कृष्टिका लक्षण है ॥१६५॥ १५६. कृष्टिके लक्षणका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई इस तीसरी भाष्यगाथाके अर्थका खुलासा करेंगे। वह जैसे-'गुण से ढ अणंतगुणा' गुण अर्थात् गुणकारको जो श्रेणि अर्थात् पंक्ति है वह अनन्तगुणी होती है। परन्तु किस विषय में यह गुणश्रेणि अनन्तगुणी होती है ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैं-'लोभादो कोधपच्छिमपदादो' अर्थात् लोभको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोध संज्वलनको सबसे पश्चिम (पीछेकी) उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक क्रमसे अवस्थित चारों संज्वलन कर्मों के अनुभागमें यह अनन्तगुणी गुणश्रेणि जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'किट्टोए लक्खणमेद' अर्थात् लोभ संज्वलनकी जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक इन सब कृष्टियोंका जो अनुभाग एक-दूसरी कृष्टिको देखते हुए अविभागप्रतिच्छेदोंकी उत्तरोत्तर क्रमवृद्धि के बिना अनन्तगुणो वृद्धिरूपसे तथा पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंके अनुभागसे Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पढममूलगाहाए तदियमासगाहा गुणहाणीए परिणभिय समवट्ठाणं तमेदं किट्टीए लक्खगमवहारेयन्वमिदि वुत्तं होइ। ___ संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणटुमिमा परूवणा कीरदे। तं जहा-फद्दयलक्खणं णाम अणंता परमाणू जहण्णाविभागपडिच्छेदपरिणामेण परिणदा लम्भंति, सा एगा वग्गणा होदि । पुणो पुग्विल्लकम्मपरमाणहितो एगाविभागपडिच्छेदब्महिया अगंता कम्मपदेसा लभंति, सा बिदिया वग्गणा णाम भवदि । जहण्णवग्गणादो पुण एसा वग्गणा एयवग्गणविसेसमेतेण परिहोणा होदि । एवमेगेगाविभागपडिच्छेदेण अहिया होदूण कम्मपदेसा च जहाकम हीयमाणा होदूण उवरिम. उवरिमवग्गणासु गच्छंति जाव अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणं सिद्धाणंतभागमेत्तद्धाणं गंतूण अविभागपडिच्छेदुत्तरकमवड्डीए पज्जवसाणं जादं ति । तदो एदम्मि उद्देसे अविभागपडिच्छेदुत्तरा अण्णा वग्गणा ण लब्भदि त्ति तत्थे फद्दयं होदि । पुणो सेप्सकम्मपदेसपुंजादो अण्णमेगं परमाणुमादेसजहण्णसत्तिसंजुत्तमणंतसरिसणियपरमाणूहि सह गदं घेतूणाविभागपहिच्छेदे कदे सव्वजोवेहितो अणंतगुणमंतरं होदूण पुग्विल्लजहण्णफयादिवग्गणादो विदियफद्दयादिवग्गणा दुगुणसत्तिजुत्ता समुप्पज्जदि। एवमेदीए दिसाए णेदव्वं जाव उक्कस्सअनन्तगुणहानिरूपसे परिणमन करके अवस्थित है वह यह कृष्टिका लक्षण है ऐसा अवधारण करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-इस भाष्यगाथामें कृष्टिके ऊपर स्पष्ट प्रकाश डाला गया है। उसे स्पष्ट करते हुए परस्पर कृष्टियोंमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणवृद्धिको दिखलानेके लिए पश्चादानुपूर्वीका सहारा लिया गया है । लोभ संज्वलनकी जो सबसे जघन्य कृष्टि है उसमें सबसे कम अनुभाग होता है। उससे उपान्त्य कृष्टि में अनन्तगुणा अनुभाग पाया जाता है। इसी प्रकार लोभसंज्वलनको सबसे उत्कृष्ट कृष्टि तक प्रत्येक कृष्टिमे क्रमसे उत्तरोत्तर अनन्तगुणा-अनन्तगुगा अनुभाग जानना चाहिए। उससे माया मान और क्रोधको उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक यह प्रक्रिया समझ लेनी चाहिए। परन्तु पूर्व और अपूर्व स्पर्ध कोंके अनुभागमें अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा जैसो क्रमवृद्धि स्वीकार की गयी है एक तो वह क्रमवृद्धि इन कृष्टियोंमें घटित नहीं होती. दूसरे क्रोधसंज्वलनको उत्कृष्ट कृष्टि में भी जघन्य स्पर्धकके अनुभागसे भी अनन्तगुणा होन अनुभाग पाया जाता है। इस प्रकार उक्त विधिसे परिणमन करके अवस्थित हुए अनुभागको हो यहां पर कृष्टि कहा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। . अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए यह प्ररूपणा करते हैं। वह जैसे, स्पर्धकका लक्षणअनन्त परमाणु जघन्य अविभाग-प्रतिच्छेद परिणामरूप परिणत होकर प्राप्त हैं। उन सबके समुदायरूप यह एक वर्गणा है । पुनः पहलेके कर्मपरमाणुओस एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदवाले अनन्त कर्मप्रदेश प्राप्त होते हैं । यह दूसरी वर्गणा है। किन्तु जघन्य वर्गणासे यह वर्गणा एक वर्गणा विशेषमात्र परमाणुओंसे हीन होती है। इस प्रकार एक-एक अविभागप्रतिच्छेदरूपसे अधिक होकर और कर्मप्रदेश क्रमसे हीन होकर अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण आगेकी वगंणाएं प्राप्त होकर जहां अविभागप्रतिच्छेदोंको उत्तर क्रमवाद्धका अन्त हो जाता है। इस कारण उस स्थानमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदवाली अन्य वर्गणा नहीं प्राप्त होती है, अतः वहां तककी वर्गणाओंको मिलाकर एक स्पर्धक होता है। पुनः शेष रहे कर्मप्रदेशोंके पुंजमेंसे आदेशरूप जघन्य शक्तिसे संयुक्त तथा अनन्त सदृश धनवाले परमाणुओंके साथ एक परमाणुको ग्रहणकर अविभागप्रतिच्छेद करनेपर सब जावांसे अनन्तगुणा अन्तर होकर पूर्वके जघन्य स्पर्धककी आदि वर्गणासे दूसरे स्पर्धकको आदि वर्गणा दूनी शक्ति से युक्त उत्पन्न होती है। इस प्रकार इस विधिसे उत्कृष्ट स्पर्धकको अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक यह क्रम जान लेना चाहिए। इस Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे फद्दयचमिवग्गणाति । एवं णोदे जत्थ जत्थ अंतरं भवदि तत्थ तत्थ अंतरस्स हेट्ठा फद्दयमिदि गवं । तदो एवंविहो अणुभागविण्णासविसेसो फद्दय लक्खण मिवि घेत्तव्वं । ६० संह कीलक्ख भण्णमाणे जहण्ण किट्टीए सरिसघणियअनंतपरमाणू हितो बिदिय कट्टीए विभागलिच्छेदुत्तरा होदूण ट्ठिदा कम्मपरमाणवी णत्थि नियमा अनंतगुणाविभागपडिच्छेवसात्तसंजुत्ता होणच्छति । एवं चेव बिदियकिट्टिसरिसधणिय सव्वा विभागपडिच्छेदपुंजादो तदिकिट्टीए सरिसधणिय सव्वा विभागपडच्छेदपुंजो णियमा अनंतगुणो चेव होदूण चिट्ठदि । पुणो वि अनंतराणंतरावो एवं चेत्र होदूग गच्छवि जाव कोथुक्कस्स किट्टि त्ति । एवमविभागपडिच्छे दुत्तरकनवड्डीए वाणियमा अनंत गुणसरूवेण जमत्रद्वाणं तं किट्टीए लक्खणमिदि धेत्तव्वं । प्रकार लाते समय जहाँ-जहाँ अन्तर प्राप्त होता है वहाँ-वहाँ अन्तरके पूर्वतक स्पर्धक ग्रहण करना चाहिए। इसलिए इस प्रकारका जो अनुभागका विन्यास विशेष होता है वह स्पर्धकका लक्षण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - प्रकृत में स्पर्धक के लक्षणपर प्रकाश डालते हुए जो स्पष्टीकरण किया है उसका आशय यह है - पहले ऐसे अनन्त परमाणु को जिनमें से प्रत्येक परमाणुमें सबसे जघन्य अविभागप्रतिच्छेदोंसे परिणत सदृश अनुभागशक्ति पायो जावे इसका नाम एक वर्गणा है और प्रत्येक परमाणु का नाम वर्ग है। यह सबसे जघन्य शक्तिसे युक्त प्रथम वर्गेणा है । पुनः जिसमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंसे परिणत प्रत्येक परमाणु हो ऐसे अनन्त परमाणु के समुदायरूप दूसरो वर्गणा होती है । मात्र इस वर्गणा में पूर्वको वर्गणासे एक वर्गेणाविशेषमात्र परमाणु होन पाये जाते हैं। इस प्रकार इस विविसे अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाएं जिसमें होतो हैं उसे एक स्पर्धक कहते हैं। इसी प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा अन्तर देकर इसी क्रम से दूसरा स्पर्धक प्राप्त कर लेना चाहिए। मात्र प्रथम स्पर्धकको आदि वर्गणा में जितने अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं उनसे दूसरे स्पर्धकको आदि वर्गणा में दूने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। तथा 'आगे भी यहो क्रम जान लेना चाहिए। अब कृष्टिका लक्षण कहने पर जघन्य कृष्टिके सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे दूसरी कृष्टिमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त कर्म परमाणु नहीं होते, किन्तु नियमसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदरूप शक्ति से संयुक्त परमाणु होते हैं । इसा प्रकार दूसरी कृष्टिक सदृश धनवाले सब अविभागप्रतिच्छेद पुंजसे तासरो कृष्टिर्म सदृश घनवाले सब अविभागप्रतिच्छदों का पुंज नियमसे अनन्तगुणा होकर हो अवस्थित है। इसके आगे भो क्रोधको उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक आगे-आगे इसी प्रकार होकर सब कृष्टियां प्राप्त होती हैं। इस प्रकार एक अधिक आवभाग प्रतिच्छेदको क्रम वृद्धिके विना जिनमें नियमसे अनन्तगुणे के क्रमसे अविभागप्रतिच्छेदों का सद्भाव पाया जाता है वह कृष्टिका लक्षण है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - एक स्पर्धकको जितनी वर्गणाएँ होती हैं उनको प्रत्येक वर्गणा में उत्तरोत्तर एकएक अधिक प्रतिच्छेदों के समुदायरूप परमाणुपुंज पाया जाता है। जब कि कृष्टियों को यह स्थिति नहीं है । किन्तु लोभ संज्वलनको जो जघन्य कृष्टि है उसके प्रत्येक परमाणुमें जितने अविभागप्रतिच्छेदरूप अनुभागशक्ति होतो है उससे दूसरी कृष्टि के प्रत्येक परमाणु अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद रूप अनुभागशक्ति होती है। यह क्रम लोभ, माया, मान और क्रोधक क्रमसे क्रोधको उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक समझ लेना चाहिए । यही स्पर्धक मोर कृष्टिके लक्षण में अन्तर है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पढममूलगाहाए तदियभासगाहा ६१ १५७. संपहि एवंविहमेदिस्से तदियभासगाहाए अत्थं विहासेमाणो उवरिम विहासा गंथमाह* विहासा । $ १५८. सुगमं । * लोभस्स जहण्णिया किट्टी अणुभागेहि थोवा । विदियकिट्टी अणुभागेहिं अनंतगुणा । तदिया किट्टी अणुभागेहि अनंतगुणा । एवमणंतराणंतरेण सव्वत्थ अनंतगुणा जाव कोधस्स चरिमकिट्टिति । $ १५९. कुदो एवं ? किट्टीगदाणुभागस्स पुण्वाणुपुथ्वीए अनंतगुणर्वाड मोत्तूण पयारंतरासंभवादो | संपहि किट्टी गहाणुभागस्स सत्याणे अनंतगुणवडिदस्स वि फछ्याणुभागं पेक्खियूणाणंतगुणहीणत्तमेवेत्ति इममत्थविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * उक्कस्सिया व किट्टी आदिफदय आदिवग्गणाए अनंतभागो । $ १६०. सक्कस्सिया वि कोहसंजलणचरिम किट्टी अविभागपडिच्छेदेहि अपुठवफद्दयाविवग्गणाए अनंतभागमेत्तो चेव होदि । तत्तो अनंतगुणहाणीए परिणमिदून किट्टीगदाणुभागस्सावाणियम दंसणा दो । तदो चेव एदास किट्टीसण्णा वि अत्थाणुगया वटुग्वा त्ति जाणावणटुमुत्तरसुत्तं भइ १५७. अब इस प्रकार इस तीसरी भाष्यगाथा के अर्थका स्पष्टीकरण करके आगे के विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ १५८. यह सूत्र सुगम है । * लोभ संज्वलनकी जघन्य कृष्टि अनुभागको अपेक्षा सबसे कम है। दूसरी कृष्टि अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी है। तीसरी कृष्टि अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी है। इस प्रकार क्रोध संज्वलनकी उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक सर्वत्र कृष्टियाँ अनन्तर अनन्तररूपसे अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी होती हुई चली गयी हैं । $ १५९. शंका - ऐसा किस कारणसे है । समाधान - क्योंकि कृष्टियोंके अनुभाग में पूर्वानुपूर्वी से अनन्तगुणी वृद्धिको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । इस प्रकार यद्यपि कृष्टियों का अनुभाग स्वस्थानमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणी वृद्धिरूप होकर अवस्थित तो भी स्पर्धक में रहनेवाले अनुभागको देखते हुए कृष्टिगत अनुभाग अनन्तगुणा हीन ही है इस प्रकार इस अर्थ विशेषका ज्ञान कराते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं— * किन्तु संज्वलन क्रोधकी उत्कृष्ट भी कृष्टि प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा के अनुभागकी अपेक्षा अनन्तवें भागप्रमाण है । $ १६०. संज्वलन क्रोधकी सबसे उत्कृष्ट अन्तिम कृष्टि भी अविभागप्रतिच्छेदोंको अपेक्षा अपूर्व स्वर्धककी प्रथम वर्गणा के अनन्तवें भागप्रमाण ही होती है। यही कारण है कि कृष्टिगत अनुभाग अनन्त गुणहानिरूपसे परिणत होकर अवस्थित है ऐसा नियम देखा जाता है । और इसीलिए इसकी कृष्टि संज्ञा भी अर्थानुगत- सार्थक जाननी चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगे सूत्र को कहते हैं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * एवं किट्टीसु थोवो अणुभागो। $ १६१. सुगमं । * किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा किट्टी । ६१६२. जम्हा संजलणाणमणुभागसंतकम्नं कितं थोवयरं कदं तम्हा एदस्ताणुभागस्स किट्टीसण्णा जादा ति भणिदं होइ। 'कृश तनूकरणे' इत्यस्य धातोः कृशिशमस्थ व्युत्पत्त्थवलम्बनात्। * एदं लक्ख णं । ६१६३. एदमणंतरपरूविदं किट्टीणं लक्खणमिदि वुतं होइ । एवं पढममूलगाहाए तिण्हं भासगाहाणमत्थविहासा समत्ता। * एत्तो विदियमूलगाहा। 5 १६४. पढममूलगाहाए विहासिप समत्ताए तदणंतरमेत्तो विदियमूलगाहा विहासियव्वा त्ति वुत्तं होदि। * तं जहा । $ १६५. सुगमं । (११३) कदिसु च अणुभागेसु च हिदीसु वा केत्तियासु का किट्टी । सवासु वा द्विदीसु च आहो सव्वासु पत्तेयं ॥१६६।। * इस प्रकार कृष्टियोंमें अनुभाग सबसे अल्प होता है। 5 १६१. यह सूत्र सुगम है। * यतः संज्वलन कर्म अनुभागको अपेक्षा कृश किया गया है अतः उसका नाम कृष्टि है। ६१६२. यतः चारों संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म कृश अर्थ सबसे अल्प किया गया है इसलिए इस अनुभागको कृष्टि संज्ञा हो गयी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है कृशधातु सूक्ष्म करने रूप अर्थमें आयी है। इस प्रकार इस धातुसे व्युत्पादित कृश शब्दका अवलम्बन लेकर कृष्टि शब्द निष्पन्न किया गया है। * यह कृष्टिका लक्षण है। 5 १६३. यह अनन्तर पूर्व कहा गया कृष्टियोंका लक्षण है. यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार प्रथम मूलगाथासम्बन्धो तीन भाष्यगाथाओंके अर्थों की विभाषा समाप्त हुई। * इससे आगे दूसरी मूल गाथाको विभाषा को जाती है । 5 १६४. प्रथम मूल गाथाकी विभाषा समाप्त होनेपर तदनन्तर दूसरी मूलगाथाको विभाषा करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ॐ वह जैसे। 5 १६५. यह सूत्र सुगम है। * ११३. कितने अनुभागोंमें और कितनी स्थितियोंमें कौन कृष्टि अवस्थित है। क्या सब स्थितियोंमें सब कृष्टियां सम्भव हैं या सब स्थितियोंमेंसे प्रत्येक स्थितिपर एक-एक कृष्टि सम्भव है ॥१६॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaगढीए विदियमूलगाहा १६६. किमहमेसा विदियमूलगाहा समोइण्णा त्ति चे ? वुच्चदे - किट्टीणं ठिदि- अणुभागेसु अद्वाण विसेसवे हमेसा गाहा समोइण्णा । तं जहा - 'कदिसु य अणुभागेसु च एवं भणिदे त्यत्सु अणुभागाविभागपडिच्छेदेसु कदमा किट्टी बट्टदे, कि संखेज्जेसु आहो असंखेज्जेमु कि अति पुच्छा कदा होदि । एसा च पुच्छा संगहकिट्टीसु तदवयव किट्टीसु च जोजेयव्वा । 'द्विदीसु वा केतिया का किट्टों एवं भणिदे केत्तियमेत्तीस वा द्विदोस कदमा किट्टी होदि, किस्से दो ति वा एवं गंतूण कि संखेज्जासु असंखेज्जासु वा त्ति पुच्छा कदा होदि । एत्थ वि संग किट्टीणं तदवयव किट्टीणं च पादेक्कमेसो पुच्छा हिसंबंधों जोजेयवो । ६३ एवमेण सुतावयवेण निछिट्ठाए द्विदिविसय पुच्छाए पुणो वि विसेसियण परूवणट्ठ गाहापच्छद्धमोइण्णं - 'सव्वासु वा द्विदीसु च०' चदुण्हं संजलणाणं जहा संभवं पढमविदियकि संभवत तत्थ कि सब्वासु चैव तदवयद्विदीसु अविसेसेण सव्वा किट्टी संभवइ, आहो ण सव्वा द्विदी सम्वासि किट्टीणमत्थि संभवो । किंतु एक्के विकस्से द्विदीए एक्केवका चेव किट्टी होण पादेवकमसंकिण्णसरूवेण तत्थ तदवद्वाणसंभवादो त्ति । एवमेसा गाहा पुच्छासुत्तं होंदूण सामणिण्णयपरूवणाए भासगाहाए पडिबढाए बीजपदभावेणावद्विदा दट्ठव्वा । संपहि एवीए सुत्तगाहाए सूचिदत्यविहासणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो तत्थ पडिबद्धाणं दोन्हं भासगाहाणमत्थित्तपरूवणमुत्तरं पबंधमाह - * एदिस्से वे भासगाहाओ । ६ १६६. शंका — यह दूसरी मूल गाथा किस लिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान कहते है -स्थितियों में और अनुभागों में कृष्टियोंके अवस्थानविशेषका अनुसन्धान करने के लिए यह गाथा अवतीर्ण हुई है। वह जैसे – 'कदिसु अणुभागेसु च' ऐसा कहनेपर अनुभाग के कितने अविभागप्रतिच्छेदों में कौन कृष्टि अवस्थित है. क्या संख्यात अविभागप्रतिच्छेदों में या असंख्यात अविभागप्रतिच्छेदों में या अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों में इस प्रकार यह पृच्छा को गयी है । और यह पृच्छा संग्रहकृष्टियों में और उनकी अवयव कृष्टियों में योजित कर लेनी चाहिए । 'द्विदो वा केतियासु का किट्टी' ऐसा कहनेपर कितनी स्थितियों में कौन कृष्टि अवस्थित है ? क्या एक स्थिति में, दो स्थितियों में या तीन स्थितियों में इस प्रकार जाकर क्या संख्यात स्थितियों में या असंख्यात स्थितियों में यह पृच्छा को गयी है । यहाँपर भी संग्रह कृष्टियों और उनकी अवयव कृष्टियों में से प्रत्येक के साथ इस पृच्छाका सम्बन्ध कर लेना चाहिए । इस प्रकार इस सूत्र वचन द्वारा स्थितिविषयक पृच्छाके निर्दिष्ट किये जानेपर फिर भी विशेष कथन करनेके लिए गाथांका उत्तरार्धं अवतीर्ण हुआ है- 'सव्वासु वा द्विदीसु च० ' संज्वलनोंकी यथासम्भव कृष्टिसम्बन्धी प्रथम स्थिति और द्वितीयस्थिति सम्भव होनेपर उनमें से उनकी सभी अवयव स्थितियों में भेद किये बिना क्या सब कृष्टियों सम्भव हैं या सब स्थितियों में सब कृष्टियां सम्भव नहीं हैं, किन्तु एक-एक स्थिति में एक-एक ही होकर कृष्टि रहती है, क्योंकि अलगअलग असंकीर्णरूप से ही उन स्थितियों में उन कृष्टियोंका अवस्थान सम्भव है । इस प्रकार यह गाथा पृच्छासूत्र होकर भाष्यगाथासे प्रतिबद्ध शेष समस्त निर्णयकी प्ररूपणा के द्वारा बोजपदरूपसे अवस्थित जाननी चाहिए। अब इस सूत्रगाथा द्वारा सूचित हुए अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकार उससे सम्बन्ध रखनेवाली दो भाष्यगाथाओं के अस्तित्वका कथन करने के लिए आगे प्रबन्धको कहते हैं * इस मूल गाथाकी दो भाष्य गाथाएँ हैं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे 5१६७. सुगम। * मूलगाहापुरिमद्धे एक्का भासगाहा । 5 १६८. मूलगाहापुरिमद्धे पडिबद्धा तत्य इमा पढमा भासगाहा दटुव्वा त्ति भणिदं होवि । * तिस्से समुक्कित्तणा। 5 १६९. सुगम। (११४) किट्टी च द्विदिविसेसेसु असंखेजेसु णियमसा होदि । णियमा अणुभागेसु च होदि हु किट्टी अणतेसु ॥१६७॥ ___$ १७०. संपहि मूलगाहा पुरिमद्धविहासण?मोइण्णाए एविस्से पढमभासगाहाए अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-'किट्टी च०' किट्टो खलु टिदिविसेसेसु ठिविभेदेसु असंखेज्जेसु असंखेज्जपमाणावच्छिण्णेसु णियमसा णिच्छयेणेव होदि, चतुण्डं संजलणाणं विवियटिदी संखेज्जावलियपमाणा अत्यि, तत्थ एक्केक्किस्से दिदीए अप्पप्पणो सवासिमेव संगहकिट्टीणं तदवयवकिट्टोणं च संभवे पडिसेहो णत्यि, तेण कारणेण सव्वा किट्टी सव्वेसु द्विविविसेसेसु णियमा समवट्टिदा दव्वा त्ति वुत्तं होइ। एत्थ वेदिज्जमाणसंगहकिट्टीए पढमट्टिदीए वि सव्वासु ट्ठिदोसु संभवो एदेणेव सुत्तावयवेण संगहिदो त्ति बटव्यो। ___ 'णियमा अणुभागेसु य' एवं भणिवे एक्केक्का संगहकिट्टी तदवयवकिट्टी वा अणंतसंखावच्छिण्णेसु अणुभागाविभागपडिच्छेवेसु कट्टवि त्ति घेत्तव्वं । कि कारणं? एक्केक्किस्से किट्टीए अणंत ६१६७. यह सूत्र सुगम है। * मूल गाथाके पूर्वाधसे सम्बन्ध रखनेवाली एक भाष्य गाथा है। 5 १६८. मूलगाथाके पूर्वार्धसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रकृतमें यह प्रथम भाष्यगाथा है। * अब उसकी समुत्कीर्तना करते हैं। 5 १६९. यह सूत्र सुगम है। * ११४. असंख्यात स्थितिविशेषोंमें सभी कृष्टियां नियमसे होती है। उसी प्रकार अनन्त अनुभागोंमें प्रत्येक संग्रह कृष्टि और अवयव कृष्टि नियमसे होती है ॥१६७॥ ६१७०. अब मूल गाथाके पूर्वाधको विभाषा करनेके लिए अवतीर्ण हुई इस प्रथम गाथाके अर्थका कथन करेंगे। वह जैसे-'किट्टो च०' प्रत्येक कृष्टि 'असंखेज्जेसु' असंख्यात संख्यासे युक्त 'टिदिविसेसेसु' स्थितिभेदोंमें 'णियमसा' नियमसे होती है। चारों संज्वलनोंकी द्वितीय स्थिति संख्यात आवलिप्रमाण होती है। उनमें से एक-एक स्थितिमें अपनी-अपनी सभी संग्रह कृष्टियां और उनकी अवयव कृष्टियां सम्भव हैं इसमें निषेध नहीं है। इस कारण सभी कृष्टियां सभी स्थितिविशेषोंमें नियमसे अवस्थित जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर वेदी जानेवाली संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थिति भी सभी स्थितियों में सम्भव है इस बातका इसी सूत्रवचन द्वारा संग्रह कर लिया गया जानना चाहिए। . विशेषार्थ-जिस समय जिस संज्वलन कषाय का उदय होता है उस समय उसकी प्रथम स्थिति होकर उसका उदय होता है। अन्य कालमें वह मात्र द्वितीय स्थितिमें हो अवस्थित रहतो है। शेष कथन सुगम है। ___ 'णियमा अणुभागेसु य' ऐसा कहनेपर एक-एक संग्रह कृष्टि और उनकी अवयव कृष्टि अनुभागके अनन्त संख्यासे युक्त अविभागप्रतिच्छेदोंमें रहती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए विदियमूलगाहाए पढमभासगाहा सरिसधणियपरमाणुसमहारद्धाए परमाणुं पडि अणंताणमविभागपडिच्छेदाणमुवलंभादो। तदो जहणिया वि किट्टी अविभागपडिच्छेदगणणं पेविखयूण अणंतसंखावच्छिण्णाणुभागविसेसमवट्टिदा। एवं सेसाओ वि किट्टोओ टुब्बाओ ति गाहापच्छ द्वे सुत्तत्यसमुच्चओ। संपहि एवं. विहमेदिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो विहासागंथमुवरिमं भणइ * विहासा। 5 १३१. सुगमं । * कोधस्स पढमस गहकिट्टि वेदेंतस्स तिम्से संगहकिट्टीए एक्केका किट्टी विदियहिदीसु सव्वासु पढमहिदीसु च उदयवजासु एककेक्का किट्टी सबासु द्विदीसु । ६ १७२. एवस्स सुत्तस्सत्यो वुच्चदे । तं जहा-कोहपढमसंगहकिट्टि वेवमाणस्स तववत्याए कोहसंजलणस्स पढम-विदियट्रिदिभेदेण दो दिदीओ भवंति । तत्थ ताव विदियट्रिनीए सम्बासु अवयवट्टिदोसु तिस्से वेदिज्जमाणकोहपढमसंगहकिट्टीए एक्केक्का अवयवकिट्टो अविसेसेण दीसइ, तत्थ तदवट्ठाणस्स पडिसे हाभावादो। पढमट्टिदीए पुण उदयवज्जासु सव्वासु दिसु निस्से संगहकिट्टीए एक्केक्का अवंतर'कट्टी समुवलब्भदे । एत्थ एक्केक्का किट्टो' त्ति भणिरे कोहसंजलगस्स जहणिया किट्टी एदास णिरुद्धठिदीसु भवदि। एवं विदिय किट्टो तवियकिट्टी च बाब एटमसंहकिट्टीए चरिमकिट्टि ति एदाओ सव्वाओ किट्टीओ पादेक्कं तत्थ समुवलब्भंति ति वुत्तं होइ। क्योंकि मदश धनवाले परमाणुसमूहसे निष्पन्न हुई एक-एक कृष्टिके प्रत्येक परमाणुके प्रति अनन्त अविभागप्रतिच्छेद उपलब्ध होते हैं, इसलिए जघन्य भी कृष्टि अविभागप्रतिच्छेदोंको गणनाको देखते हुए अनन्त संख्यासे युक्त अनुभाग विशेषरूपसे अवस्थित है। इसी प्रकार शेष कृष्टियोंके विषयमें भी जानना चाहिए। इस प्रकार यह गाथाके उत्तरार्धका समुच्चयरूप अर्थ है। अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थको विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६१७१. यह सूत्र सुगम है। * क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके उस संग्रह कृष्टिको एक-एक अवयव कृष्टि सब द्वितीय स्थितियोंमें और उदय रहित प्रथम स्थितियों में इस प्रकार एक-एक अवयव कृष्टि सब स्थितियोंमें अवस्थित रहती है। ६ १७२. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-क्रोधसंज्वलनको प्रयम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके उस अवस्थामें क्रोध संज्वलनकी प्रथम और द्वितीय स्थितिके भेदसे दो स्थितियां होती हैं। उनमें से सर्वप्रथम द्वितीय स्थिति की सब अवयव स्थितियों में उम वेद्यमान क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिकी एक-एक अवयव कृष्टि अविशेषरूपसे दिखाई देती है, क्योंकि उन स्थितियोंमें उनके अवस्थानका निषेध नहीं है। परन्तु प्रथम स्थितिकी उदयरहित सब स्थितियोंमें उस संग्रह कृष्टिको एक-एक अवयव कृष्टि उपलब्ध होती है। यहाँपर 'एक्केक्का किट्टी' ऐसा कहनेपर क्रोध संज्वलनको जघन्य अवयव कृष्टि इन विवक्षित स्थितियों में पायी जाती है। इसी प्रकार दूसरी अवयव कृष्टि और तीसरी अवयव कृष्टिसे लेकर प्रथम संग्रह कृष्टि की अन्तिम अवयव कृष्टि तक जानना चाहिए। ये सब कृष्टियां अलग-अलग उन स्थितियोंमें उपलब्ध होती हैं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षयधवलासहिदे कसायपाहुडे संपहि उदयट्ठिबीए किमट्ठमेत्य परिवज्जणं कोर ? को वा तत्थ विसेससंभवो त्ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * उदयट्ठिदीए पुण वेदिजमाणियाए संगहकिट्टीए जाओ किट्टीओ तासिमसंखेजा भागा। ६ १७३. णिरुद्धसंगहकिट्टीए हेडिमोवरिमासंखेज्जभागं मोतूण मझिमकिट्टीसहवेणेव उदयाणुभागो परिणमदि ति एदेण कारणेण उदयट्टिवीए वेदिज्जमाणियाए संगहकिट्टीए अवयवकिट्टोणमसंखेज्जा भागा संभवंति त्ति सत्तेणेदेण णिद्दिष्टुं । ६१७४. संपहि सेसाणमवेबिज्जमाणियाणमेक्कारसहं पि संगहकिट्टीणमेण्हि पढमदिदिसंबंधाभावादो तासिमेक्केक्का किट्टी विवियदिदीए चेव सव्वासु द्विदीस वटुव्वा, ण पढमद्विदीए त्ति इममत्यविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * सेसाणमवेदिजमाणिगाणं संगहकिट्टीणमेक्केक्का किट्टी सव्वासु विदियट्टिदीसु, पढमहिदीसु णस्थि । ६१७५. गयस्थमेदं सुत्तं । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब उदय स्थितिका यहाँपर किसलिए निषेध किया है अथवा उसमें क्या विशेष सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * किन्तु वेद्यमान संग्रह कृष्टिको जितनी अवयव कृष्टियाँ हैं उनका असंख्यात बहुभाग उदय स्थितिमें पाया जाता है। १७३. विवक्षित संग्रह कृष्टिके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग प्रमाण अवयव कृष्टियोंको छोड़कर मध्यकी जो असंख्यात बहुमागप्रमाण अवयय कृष्टियां हैं उस रूपसे ही उदयरूप अनुभाग परिणत होता है, इस कारण वेद्यमान संग्रह कृष्टिको अवयव कृष्टियोंका असंख्यात बहुभाग उदय स्थितिमें सम्भव है यह बात इस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट की गयो है। विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका उदय होनेपर न तो असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन अवयव कृष्टियां अपने स्वरूपसे उदयको प्राप्त होती हैं और न ही असंख्यातवें भाग प्रमाण उपरिम अवयव कृष्टियां अपने स्वरूपसे पदयको प्राप्त होती हैं। किन्तु मध्यकी असंख्यात बहुभागप्रमाण अवयव कृष्टियां ही उदयरूपसे परिणत होती हैं, इसलिए पूर्व सूत्रमें उदयस्थितिको छोड़कर यह वचन कहा है । शेष कथन सुगम है । ६१७४. अब अवेद्यमान शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंका प्रथम स्थितिके साथ सम्बन्ध न होनेसे उनकी एक-एक अवयव कृष्टि द्वितीय स्थितिको ही सब स्थितियोंमें जानना चाहिए, प्रथम स्थितिमें नहीं इस प्रकार इस अर्थ विशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ____* शेष अवेद्यमान ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी एक-एक अवयव कृष्टि द्वितीय स्थितिको सब अवान्तर स्थितियोंमें पायी जाती है, किन्तु प्रथम स्थितिकी अवान्तर स्थितियोंमें नहीं पायी जाती। 5 १७५. यह सूत्र गतार्थ है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए ं विदियमूलगाहाए पढमभासगाहा ६७ १७६. एवमेत्तिएण पबंधेण 'द्विदीसु वा केत्तियासु का किट्टि त्ति एवं मूलगा हावयवमस्सियूण 'किट्टीसु च द्विदिविसेसेस असंखेज्जेसु०' त्ति एदस्स पढमभासगाहा पुग्वद्धस्स विहासणं काण संपहि 'कविस च अणुभागेसु च' इच्चेदं मूलगाहावयवमस्सिदृण 'णियमा अणुभागेसु च अणतेसु.' त्ति एदस्स भासगाहापच्छद्धस्स विहासणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एक्क्का किट्टी अणुभागेसु अनंतेसु । $ १७७. एक्केक्का संग किट्टी तदवयवकिट्टी वा णियमा अनंतेसु अणुभागेसु वदृदित्ति वृत्तं होइ । एवेण संखेज्जासंखेज्जाणुभागेसु किट्टीणं संभवो णत्थि त्ति जाणाविदं सव्वजहण्णियाए किट्टीए सम्यजीवहितो अनंतगुणमेत्ताणमविभागपडिच्छेदाणमुवलंभादो । संपहि एक्केक्का किट्टी असंखेज्जेस द्विदिविसेसेसु वदृदि त्ति वुत्ते जहा सव्वासि किट्टीणं सम्वेस द्विदिविसेसेस अवद्वाणसंभवो जादो एवमेत्थ वि एक्केक्का किट्टी अणतेस अणुभागेसु वदृदि त्ति एवेण वयणेण एक्किस्से द्धिकट्टीए अप्पणो अणुभागेस सेसकिट्टीणमणुभागेसु च संभवो पसज्जवि त्ति एवंविहविप्पडिवत्तीए णिरायरणमुत्तरसुत्त भणइ * जेसु पुण एक्का ण तेसु विदिया । विशेषार्थ - क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदनके समय शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियोंका वेदन नहीं होता और इसलिए तत्सम्बन्धी द्वितीय स्थिति में से प्रदेश पुंजका प्रथम स्थितिकै साथ सम्बन्ध नहीं पाया जाता। इसी कारण प्रकृतमें उक्त ग्यारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी प्रदेशपुंजका प्रथम स्थिति में निषेध किया है । $ १७६. इस प्रकार इसने प्रबन्ध द्वारा 'द्विदीसु वा केत्तियासु का किट्टी' इस प्रकार मूल गाथा के इस वचनका आश्रयकर 'किट्टी च द्विदिविसेसेसु असंखेज्जेसु०' इस प्रथम भाष्यगाथा सम्बन्धी पूर्वार्ध की प्ररूपणा कर अब 'कदिसु अणुभागेसु च मूळगाथाके इस वचनका आश्रय कर 'णियमा अणुभागेसु च अणंतेसु०' भाष्यगायासम्बन्धी इस उत्तरार्धकी प्ररूपणा करते हुए आगे सूत्र को कहते हैं - * एक-एक संग्रह कृष्टि अनन्त अनुभागों में रहती है । $ १७७. एक-एक संग्रह कृष्टि अथवा उनकी अवयव कृष्टि नियमसे अनन्त अनुभागों में रहती है । इस वचन द्वारा संख्यात और असंख्यात अनुभागों में कृष्टियां सम्भव नहीं हैं इस बातका ज्ञान करा दिया है, क्योंकि सबसे जघन्य कृष्टिमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । अब एक-एक कृष्टि असंख्यात स्थितिविशेषोंमें रहती है ऐसा कहनेपर जिस प्रकार सब कृष्टियों का सब स्थिति विशेषों में अवस्थान सम्भव हो जाता है इसी प्रकार प्रकृतमें भी 'एक-एक कृष्टि अनन्त अनुभागों में रहती है' इस प्रकार इस वचनसे एक विवक्षित कृष्टिका अपने-अपने अनुभागों में जिस प्रकार रहना सम्भव है उसी प्रकार शेष कृष्टियोंके अनुभागों में भी रहना सम्भव प्राप्त होता है इस प्रकार इस तरहको विप्रतिपत्तिका निराकरण करनेके लिए आगे के सूत्रको कहते हैं * किन्तु जिन अनुभागों में एक कृष्टि रहती है उनमें दूसरी कृष्टि नहीं रहती । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १७८. जेसु पुण अणुभागेसु एक्का णिरुद्धकिट्टी वट्टदे ण तेसु चेवाणुभागेषु अण्णा किट्टो बट्टदे। किंतु तत्तो भिण्णसहावेसु चेवाणुभागेसु वट्टदि त्ति घेत्तम्वं, किट्टीगदाणु भागस्त जहण्ण. किट्टिप्पहुडि अणंतगुणवड्डोए वड्डिदस्स परोप्परपरिहारेण समवट्ठाणणियमदंसणादो। तम्हा ण तासिमणभागस्स अण्णोण्णविसयसंकरप्पसंगो त्ति एसो एदस्स भावत्थो। १७९. एवमेत्तिएण पबंधेण पढमभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि विदियभासगाहाए समुक्कित्तणं कुणमाणो चुगिसुत्तयारो इदमाह * विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६१८०. सुगम। (११५) सव्वाओ किट्टीओ विदियट्ठिदीए दु होति सव्विस्से । जं किट्टि वेदयदे तिस्से अंसो च पढमाए ॥१६८॥ ६१८१. एसा विदियभासगाहा मूलगाहाए पच्छद्धविहासणटुमोइण्णा । तं जहा-मूलगाहापच्छद्धे कि सव्वासु टिदीसु एक्केक्का किट्टी होदि आहो ण होदि ति पुच्छा णिहिट्ठा। संपहि तहा पयट्टाए पुच्छाए पढमविदियटिदिभेदविवक्खं कादूण तदवयवटिवीसु किट्टीणमवट्ठाणमेदेण सरूवेण ६१७८. परन्तु जिन अनुभागोंमें एक विवक्षित कृष्टि रहती है उन्हीं अनुभागोंमें अन्य कृष्टि नहीं रहती। किन्तु उस अनुभागसे भिन्न स्वभाववाले हो अनुभागोंमें वह दूसरी कृष्टि रहती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक कृष्टिका अनुभाग जघन्य कृष्टिसे अनन्तगुणवृद्धिरूप वृद्धिको प्राप्त हुआ है, इसलिए परस्परके परिहाररूपसे हो कृष्टियोंमें अनुभागके अवस्थानका नियम देखा जाता है। इसलिए उन कृष्टियोंके अनुभागके विषयमें परस्पर संकरका प्रसंग नहीं प्राप्त होता इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है। विशेषार्थ-लोभ संज्वलनकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें जो अनुभाग अर्थात् (फलदान शक्ति ) पाया जाता है उससे दूसरी कृष्टिमें अनन्त गुणवृद्धिको लिये हुए अन्य हो अनुभाग (फलदानशक्ति ) पाया जाता है। आशय यह है कि कृष्टियोंका विभागोकरण ही अनुभागभेदसे किया गया है, इसलिए उक्त सूत्रमें यह कहा है कि जिन अनुभागोंमें एक कृष्टि रहती है उनमें दूसरी कृष्टि नहीं रहती। किन्तु स्थितिके विषयमें ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रत्येक कृष्टिमें अनन्त परमाणु होते हैं, इसलिए उनका अपनी सभी स्थितियों में पाया जाना सम्भव है। अतः अनुभागके समान स्थितिके विषयमें ऐसा विभाग नहीं किया जा सकता। ११७२. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा प्रथम भाष्यगाथाके अर्थ को प्ररूपणा समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हुए चूणिसूत्रकार इस सूत्रको कहते हैं * अब दूसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। ६१८०. यह सूत्र सुगम है। (११५) सब संग्रह और अवयव कृष्टियां समस्त द्वितीय स्थितिमें होती हैं। किन्तु यह जीव जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसका एक भाग प्रथम स्थितिमें होता है ॥१६८॥ ६१८१. यह दूसरी भाष्यगाथा मूलगाथाके उत्तरार्धको प्ररूपणा करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-मूलगाथाके उत्तरार्धमें सब स्थितियोंमें एक-एक कृष्टि रहती है अथवा नहीं रहती यह पच्छा निर्दिष्ट की गयी है। अब उक्त पृच्छाके उस प्रकारसे प्रवृत्त होनेपर प्रथम स्थिति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए विदियमूलगाहाए विदियभासगाहा होदि त्ति पदुप्पायण?मेदं गाहासुत्तमोइग्णनिदि। संपाहि एदस्स किचि अवयवत्यपलवणं कस्सामो'सव्वाओ किट्टीओ विदिय०' एवं भणिदे सव्वाओ सगहट्टिोओ तदवववकिट्टीओ च विदियट्टिदोए सम्वत्थ चेव हांति, ण तत्य एकिकस्से वि किट्टीए पडिसेहो अत्थि ति भगिदं होदि । 'जं किट्टि वेवयदे०' जमेव खलु संगहकिट्टि वेदेदि, तिस्से चेव अंसा भागो पढनटिसीए दट्टयो, अवेदिज्ज. माणकिट्टीणं पढमट्टिदीए संभवाभावादो ति वुत्तं होइ। वेदिज्जमाणसंगहकिट्टोए वि अंसो पढमट्टिदाए होंतो उदयवज्जासु सवासु टिदोसु अविसेसेण सम्वकिट्टोसरूवा होदूण लब्भदे । उपर्याटुदीए पुण वेदिज्जमाणकिट्टोए असंखेज्जा भागा चेव होंति त्ति एसो विसेसो एत्थेव सुत्ते अंतन्भूवो बटुवो। ६१८२. एवं विहो च एदिस्से गाहाए अत्थो पढमभासगाहाविहासावसरे चेव विहासिदों, तको ण पुणो परवेयव्वा त्ति जाणावणमिदमाह * एदिस्से विहासा वुत्ता चेव पढमभासगाहाए । ६१८३. पढमभासगाहाविहासावसरे चेव एदेसि विहासा परूविवा, तत्थ 'किट्टी च टिदिविसेसेस असंखेज्जेसु णियमसा होद' ति एदेणेवत्थसंबंधेग पढमविदियट्टिदीस किट्टीणमवटाणस्स और द्वितीय स्थितिके भेदको विवक्षा करके उन अवयवरूप स्थितियोंमें कृष्टियोंका अवस्थान इस रूपसे है इस बातका कथन करनेके लिए यह गाथासूत्र अवतीर्ण हुआ है। अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंके अर्थको किंचित् प्ररूपणा करेंगे-'सव्वाओ किट्टोमो विदिय०' ऐसा कहनेपर सब संग्रह कृष्टियां और उनको अवयव कृष्टियां द्वितीय स्थितिको सभी स्थितियों में पायो जाती हैं, उनमें एक भी कृष्टिके होनेका निषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। किन्तु 'जं किट्टि वेदयदे०' अर्थात् नियमसे जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसीका कुछ भाग प्रथम स्थितिमें जानना चाहिए, क्योंकि अवेद्यमान कृष्टियोंका प्रथम स्थितिमें होना सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वेद्यमान संग्रह कृष्टिका भी कुछ अंश प्रथम स्थितिमें होता हुआ उदयरहित सब स्थितियोंमें अविशेषरूपसे समस्त कृष्टिस्वरूप होकर प्राप्त होता है। परन्तु उदयस्थिति में वेद्यमान कृष्टिका असंख्यात बहुभाग ही होता है इस प्रकार इतना विशेष इसी सूत्र में अन्तर्भूत जानना चाहिए। विशेषार्थ-जिस समय इस जीवके जिस संग्रह कृष्टिका उदय होता है उस समय उसका असंख्यात बहुभाग ही उदयरूपसे परिणत होता है, शेष एक भाग उस समय प्रथम स्थितिमें होता हुआ भी उदयरूपसे परिणत न होकर उदय रहित सब स्थितियों में सर्व कृष्टिरूपसे अवस्थित रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ? १८२. इस गाथाका इस प्रकारके अर्थका प्रथम भाष्य गाथाको विभाषाके समय हो व्याख्यान कर आये है, इसलिए उसका पुनः कथन नहीं करना चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रको कहते हैं * इस भाष्यगाथाको विभाषा प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा करते समय ही कही गयी है। ६१८३. प्रयम भाष्यगाथाको विभाषाके समय ही इसको विभाषा कहो गयो है, क्योंकि वहाँपर 'किट्टी च द्विदिविसे सेसु असंखेज्जेसु णियमसा होदि' अर्थात् असंख्यात स्थितिविशेषोंमें कृष्टि नियमसे रहती है इस प्रकार इस अर्थक सम्बन्धसे प्रथम और द्वितीय स्थितियोंमें कुष्टियोंके Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे सवित्र मणुमग्गिदत्तादो । तम्हा णेदाणिमेदिस्से विहासा कीरवि त्ति वृत्तं होदि । जइ एवं, णारंभणिज्जमेदं गाहासुत्तं, पढमगाहासत्तेणेव गयत्थत्तादोत्ति णासंकणिज्जं तत्थासंखेज्जेसु दिवसे एक्क्का किट्टी होदि त्ति सामण्णेण णिद्दिट्ठस्स अत्यस्स पढमविदिय द्विदोह विसेसिवेदिज्जमाना वेदिज्जमान किट्टी संबंधेण परूवणट्टमेदस्स गाहासुत्तावयारस्स सहलत्तदंसणादो । ७० $ १८४. एवमेत्तिएण पबंधेण विदियमूलगाहाए अत्यविहासणं समानिय संपहि जहाबसरपत्ता तदियमूल गाहाए अवधारं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह * एत्तो तदियाए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । १८५. सुगमं । (११६) किट्टी च पदेसग्गेणणुभागग्गण का च कालेण । अधिमा समाव होणा गुणेण किं वा विसेसेण ॥ १६९॥ १८६. किममेसा तदियमूलगा हा समोइण्णा ? पढममूलगाहाए निद्दिलक्खणाण मवहारिदपमाणविसेसाणं च किट्टोणं पुणो विदियमूलगाहाए द्विदीसु अणुभागेषु च अवद्वाणविसेसं परूविय अवस्थानका विस्तार के साथ अनुसन्धान कर आये हैं, इसलिए इस समय इसकी विभाषा नहीं करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- यदि ऐसा है तो इस भाष्यगाथा सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रथम भाष्यगाथा सूत्र से हो उक्त अर्थका ज्ञान हो जाता है । समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहाँपर असंख्यात स्थिति विशेषों में एक-एक कृष्टि रहती है इस प्रकार सामान्यरूपसे निर्दिष्ट किये गये अर्थका प्रथम और द्वितीय स्थितियों के द्वारा विशेषताको प्राप्त हुई वेद्यमान और अवेद्यमान कृष्टियोंके सम्बन्धसे कथन करने के लिए इस भाष्यगाथा सूत्रका अवतार सफल देखा जाता है । विशेषार्थ - प्रथम भाष्यगाथामें इतना ही कहा था कि एक-एक कृष्टि असंख्यात स्थिति विशेषोंमें रहती है, परन्तु यहांपर स्थितिके प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति ऐसे भेद करके वेद्यमान संग्रह कृष्टिका कुछ अंश प्रथम स्थितिमें रहता है और अवेद्यमान कृष्टियां द्वितीय स्थिति में रहती हैं इस बात का विशेषरूपसे ज्ञान कराने के लिए इस भाष्यगाथा सूत्रका अवतार हुआ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । १८४. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा दूसरी मूलगाथा के अर्थकी विभाषा समाप्त करके अब क्रमसे अवसरप्राप्त तीसरी मूलगाथाका अवतार करते हुए आगे के प्रबन्धको कहते हैं* अब इससे आगे तीसरी मूलगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं । ६ १८५. यह सूत्र सुगम है । (११६) कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रदेशपुंजको अपेक्षा, अनुभागसमूहकी अपेक्षा और कालकी अपेक्षा अधिक है, समान है, या हीन है। इस प्रकार गुणकारको अपेक्षा या विशेषकी अपेक्षा कौन कृष्टि किस कृष्टिसे हीन या अधिक है ॥ १६९ ॥ § १८६. शंका - यह मूल गाथा किसलिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान - प्रथम मूल गाथा द्वारा जिनका लक्षण कहा गया है और जिनके प्रमाणविशेषका अवधारण किया है उन कृष्टियोंका पुनः दूसरी मूल गाथा द्वारा स्थितियों और अनुभागों में Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवगसेढीए तदियमूगाहा संपहि तासिं चेव पदेसरगेणाणुभागग्गेण कालविसेसेण च होणाहियभावगवेसणट्टमेसा तवियमूलगाहा समोइण्णा । तं जहा-'किट्टी च पदेसग्गेण०' एवं भणिदे कदमा किट्टी कम्हादो किट्टीदो पदेसग्गेण अहिया हीणा समा वा होदि ? का वा किट्टी कम्हादो किट्टीवो अणुभागग्गेण अहिया हीणा समा वा होवि, कालविसेसेण वा णिहालिज्जमाणा कदमा किट्टी कम्हादो किट्टीदो अहिया हीणा समा वा होदि त्ति पादेक्कमभिसंबंध कादूण सत्तत्यसमत्थणा एत्य कायम्वा । तदो तिणि पुच्छाओ तिसु अत्यविसेसेस पडिबद्धाओ एत्थ णिहिट्ठाओ बटुवाओ। एवासि चेव पुच्छाणं पुणो वि विसेसियूण पहवणटुं 'गुणेण किं वा विसेसेणेत्ति' भणिदं । एत्थ 'कालेणेत्ति' वुत्ते बारसण्हं संगहकिट्टीणं वेदगकालो घेत्तव्वों, कोह-माण-माया-लोभोदएहि चडिवाणं पढमसमयकिट्टोवेवगाणं मोहणीयस्स द्विविकालो तत्थतणपदेसग्गविसयजवमझाविपरूवणा च एत्येवंतम्भूदा बटुव्वा । एवमेवासि तिण्हं पुच्छाणं णिण्णयकरण?मेसा तषियमूलगाहा समोइण्णा ति एसो एत्य सुत्तत्थसंगहो। संपहि एवं विहत्यपडिबद्धाए एविस्से सुत्तगाहाए विहासणं कुणमाणो चुणिसुत्तयारो परिमं पबंधमाह * एदिस्से तिणि अत्था । ६१८७. एदिस्से मूलगाहाए तिणि अत्यविसेसा णिबद्धा ति वुत्त होई। संपहि के ते तिणि अत्था, कम्हि वा अत्थे केत्तियाओ भासगाहाओ पडिबडायो त्ति इममत्थविसेसंपदुप्पाइयदुकामो उवरिमं पबंधमाढवेदि * किट्टी च पदेसग्गेणेत्ति पढमो अत्यो । एदम्मि पंच मासगाहाओ । अवस्थान विशेषका कथन करके अब उन्हींके प्रदेशपुंज, अनुभागपुंजकी अपेक्षा और काल विशेषकी अपेक्षा होनाधिकभावको गवेषणा करने के लिए यह तीसरी मूल गाथा अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-'किट्टी च पदेसग्गेण' ऐसा कहनेपर कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रदेशपंजको अपेक्षा अधिक, हीन या समान होती है । अथवा कोन कृष्टि किस कृष्टिसे अनुभागसमूहकी अपेक्षा अधिक, होन या समान होती है। अथवा कालविशेषकी अपेक्षा देखी गयो कोन कृष्टि किस कृष्टिसे अधिक, होन या समान होती है। इस प्रकार प्रत्येकके साथ सम्बन्ध करके यहाँपर सूत्रार्थका समर्थन करना चाहिए । इसलिए तीन पृच्छाएँ इस मूल सूत्रगाथामें तीन अर्थविशेषोंमें प्रतिबद्ध निदिष्ट जाननी चाहिए। अतः इन्हीं पृच्छाओंका फिर भी विशेषकर कथन करनेके लिए 'गुणेण किं वा विसेसेण' यह वचन कहा है। यहाँपर 'कालेण' ऐसा कहने पर बारहों संग्रह कृष्टियोंका वेदककाल ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि क्रोध, मान, माया ओर लोभके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़कर कृष्टियोंका वेदन करनेवाले जीवोंका प्रथम समयमें मोहनीय कर्मका स्थितिकाल और वहाँ सम्बन्धी प्रदेशपंजविषयक यवमध्य आदिको प्ररूपणा इसीमें अन्तर्भूत जाननी चाहिए । इस प्रकार इन तीनों पच्छाओंका निर्णय करनेके लिए तीसरी मूलगाथा अवतीर्ण हुई है इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब इस प्रकारके अर्थों में प्रतिबद्ध इस सूत्रगाथाको विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार उपरिम प्रबन्धको कहते हैं * इस सूत्रगाथाके तीन अर्थ हैं। ६१८७. इस मूल गाथामें तीन अर्थविशेष निबद्ध हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब वे तोन अर्थ कौन हैं और कौन अर्थमें कितनी भाष्यगाथाएँ प्रतिबद्ध हैं इस प्रकार इस अर्थविशेष का कथन करनेकी इच्छासे आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * 'किट्टी व पदेसग्गेण' अर्थात् कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रवेशपुंजको अपेक्षा अधिक, होन या समान है यह प्रथम अर्थ है। इस अर्थ में पांच गाथाएं निबद्ध हैं। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवलास हिदे कसा पाहुडे ६ १८८. 'किट्टी च पदेसग्गेणेत्ति' एदम्मि मूलगाहापढमावयवे किट्टीस पदेसग्गस्सावद्वाणपरूवणालवखणो पढमो अत्थो गिबद्धो । तत्थ य पंच भासगाहाओ होंति, ताहि विणा पयदत्थविसयणिण्णय परूवणाणु ववत्तीवो त्ति वृत्त होइ । ७२ * अणुभागग्गेणेत्ति विदियो अत्थो । एत्थ एक्का भासगाहा । $ १८९. 'अणुभागग्गेणेत्ति' एवम्मि गाहासुत्तविदियावयव किट्टीसु अणुभागस्स योवबहुतपरूवणप्पओ विदियो अत्यो णिबद्धो । तम्हि विहासिज्जमाणे एक्का भासगाहा होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तस्थसंगहो । सेसं सुगमं । * का च कालेत्ति तदिओ अत्थो । एत्थ छन्भासगाहाओ । $ १९०. ' का च कालेत्ति' एदम्मि मूलगाहात दियावयवभूवबीजपदे तदिओ अत्थो किट्टीणं कालविसेसावहारण लक्खणो णिबद्धो । तत्थ य छन्भासगाहाओ पडिबद्धाओ । तासि समुक्कित्तणं विहासणं च जहाकममेव कस्सामो त्ति वृत्तं होइ । 'गुणेण किं वा विसेसेणेत्ति' एसो चरिमो सुत्तावयवो तिहदेसिमत्याणं विसेसणभावेण णिद्दिट्ठो, अण्णहा सुत्तत्थस्सा संपुण्णत्तप्पसंगादो । संपहि जहाकमपेदेस तिरहमत्याणमप्पप्पणी भासगाहाहिं विहासणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तवारो विहासा गंथमुत्तरं भणइ । * पढमे अत्थे भासगाहाणं समुक्कित्तणा । १८८. 'किट्टी च पदेसग्गेण' मूल गाथाके इस प्रथम वचनमें कृष्टियों में प्रदेशपुंजके अवस्थानकी प्ररूपणा करने रूप लक्षणत्राला प्रथम अर्थ निबद्ध है । उस अर्थ में पांच भाष्यगाथाएं हैं, क्योंकि उनके बिना प्रकृत अर्थविषयक निर्णयको प्ररूपणा नहीं हो सकती यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * 'अणुभागग्गेण' अर्थात् कौन कृष्टि किस कृष्टिसे अनुभाग पुंजकी अपेक्षा अधिक, होन या समान है यह दूसरा अर्थ है । इस अर्थ में एक भाष्यगाथा निबद्ध है । ६१८९. 'अणुभागग्गेण' इस गाथासूत्रके दूसरे अवयवसम्बन्धो कृष्टियों में अनुभागके अल्पबहुत्वका प्ररूपणा करनेवाला दूसरा अर्थ निबद्ध है । उसको विभाषा करनेके अर्थ में एक भाष्यगाथा आयी है इस प्रकार यहां पर यह सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । शेष कथन सुगम है । * 'का च काले' अर्थात् कौन कृष्टि किस कृष्टि से कालको अपेक्षा अधिक, होन या समान है यह तीसरा अर्थ है । इस अर्थ में छह भाष्यगाथाएँ प्रतिबद्ध हैं । $ १९०. ' का च काले' मूल गाथाके तीसरे अवयवभूत इस बीजपदमें कृष्टियोंके कालविशेषका अवधारण करनेरूप उक्षणवाला तीसरा अर्थ निबद्ध है । उस अर्थ में छह भाष्यगाथाएँ प्रतिबद्ध हैं । उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा क्रमानुसार ही करेगें यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'गुणेण कि वा विसेसेण' यह अन्तिम सूत्रवचन है जो इन तीन अर्थों में से प्रत्येक में विशेषता दिखलाने के प्रयोजनसे निर्दिष्ट किया गया है अन्यथा सूत्रार्थकी असम्पूर्णताका प्रसंग प्राप्त होता है । अब क्रमानुसार इन तीन अर्थोंका अपनी-अपनी भाष्यगाथाओंके साथ विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगे विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब प्रथम अर्थ में निबद्ध भाष्यगाथाओं की समुत्कीर्तना करते हैं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए तदियमूलगा हाए पढमभासगाहा ७३ ६ १९१. पढमे अत्थे पबिद्राणं भासगाहाणं पंचसंग्खा विसेसियाणं पुत्रमेव ताव समुक्कि - तणा कायवा तिवृत्तं होदि, यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायात् । (११७) विदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा भवे पदेसग्गे । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥ १७० ॥ ६ १९२. एसा पढमभासगाहा संगह किट्टीसु बारसधापविभत्तासु सत्याणपरत्थाणेहि विसेसियूण पदेसग्गस थोवबहुत्तपरूवणटुमोइण्णा । तं जहा - 'विदियादो पुण पढमा०' एवं भणिदे कोस विदियो संग किट्टीदो तस्सेव पढमसंगह किट्टोपदेसग्गेण संखेज्जगुणा होदि त्ति भणिदं होइ । एत्थ कारणं गुणगारपमाणं च पुरदो चण्णिसुत्तसंबंधेण वत्तइस्लामो । 'विदियाडो पुण 'दिया' एवं भणिदे विदियसंगहकिट्टीए सयलपवेसपिंडादो तदियसंगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं होदि ति सुत्तत्संबंधो। उवरिमविसे साहियग्गहणस्सेत्याहिसंबंधादो तदो कोहस्त तिहं संगह किट्टीणं सत्याणप्पा बहुअमेदेण सुत्तावयवकलावेण णिद्दिट्ठ होदि । कोहग्गहण मेत्याणिद्दिमणहिकथं च कथमवलम्भदि त्ति णासंका कायठवा, अत्यवसेण तदहिसंबंधोववत्तीवो । 'कमेण सेसा विसेस हिया' एवं भणिदे जहाकमेण वृत्तसेसाणं माण- माया लोभाणं तिष्णि तिष्णि संगह किट्टीओ सत्याणे विसेसाहियाओ होंति त्ति वृत्तं होदि । अष्पष्पणो वेदगपढपसंगह किट्टिमादि काढूण तत्थ १९१. अब प्रथम अर्थ में प्रतिबद्ध पांच संख्याक भाष्यगाथाओंकी सर्वप्रथम पहले ही समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है ऐसा न्याय है । (११७) क्रोध संज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेश पुंजको अपेक्षा संख्यातगुणी है । परन्तु दूसरीसे तोसरी व क्रमसे शेष सभी संग्रह कृष्टियाँ आगे-आगे विशेष अधिक हैं ॥१७०॥ $ १९२. यह प्रथम भाष्यगाथा बारह प्रकारसे विभक्त संग्रह कृष्टियों में अवस्थित प्रदेशपुंजके स्वस्थान और परस्थान दोनों प्रकारसे अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - "विदिया दो पुण पढमा' ऐसा कहनेपर क्रोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिसे उसीकी प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेश पुंजकी अपेक्षा संख्यातगुणो होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँवर कारण और गुणकारका प्रमाण आगे चूर्णिसूत्र के सम्बन्धसे बतलावेंगे । 'विदियादो पुण तदिया' ऐसा कहने पर दूसरी संग्रह कृष्टि के समस्त प्रदेशपिंडसे तीसरी संग्रह कृष्टिका समस्त प्रदेशपुंज विशेष अधिक होता है यह उक्त सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । आगे विशेष अधिक पदका ग्रहण किया है उसका यहाँ सम्बन्ध हो जाता है। इस कारण कोध संज्वलनकी तोनों संग्रह कृष्टियों का स्वस्थान अल्पबहुत्व इस समुदायरूप सूत्रवचन द्वारा निर्दिष्ट किया गया है । शंका - इस गाथासूत्र में एक तो क्रोधपदका ग्रहण नहीं किया गया है और उसका अधिकार भी नहीं है, अतः उसका ग्रहण कैसे प्राप्त होता है ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अर्थवश प्रकृत में उसका सम्बन्ध बन जाता है । 'कमेण सेसा विसेसाहिया' ऐसा कहनेपर यथाक्रम कहो गयो शेष मान, माया और लोभकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ स्वस्थानमें विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि वेदक के अपनी-अपनी प्रथम संग्रह कृष्टिसे लेकर उनमें विशेष अधिकके क्रमसे प्रदेशपुंजका १० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलास हिदे कसाय पाहुडे विसेसाहियकमेण पदेसग्गावद्वाणस्स किट्टोवेदगपढमसमए परिप्फुडमुवलंभादो । एदेण चेव परत्थाप्याबहुअं पि सूचिदं दटुव्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से पढमभासगाहाए अत्थविसेसं विहासिदुकामो चुण्णित्तारो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * विहासा । ७४ ६ १९३. सुगमं । * तं जहा । १९४. सुगमं । * कोहस्स विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं थोवं । $ १९५० किं कारणं ? मोहणीयसयलदव्यस्स किचूणच उवीसभागपमाणत्तादो ! * पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेजगुणं तेरसगुणमेत्तं । १९६. एत्थ ' पढमसंगह किट्टि' त्ति वृत्ते वेदगपढमसंगह किट्टीए गहणं कायध्वं । तेण gogत्त कोह विदियसंगह किट्टीए पवेसग्गादो कोहस्स चेव पढमसंगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुण मिदि सुत्तत्य संबंधो। तत्थ 'संखेज्जगणं' इदि सामण्णणिद्देसेण गुणगारविसए विसेसनिण्णओ ण जादो तितव्विसयणिण्ण यजणणटुं 'तेरसगुणमेतं' इदि विसेसियूण भणिदं । एवमेदेण मुत्तकंठमुट्ठस तेरसरूवमेत्तगुणगारस्स साहणट्टमिमा परूवणा कीरदे । तं जहा - मोहणीयसम्वद अवस्थान कृष्टियों का वेदन करनेवालेके प्रथम समय में स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है । तथा इससे परस्थान अल्पबहुत्वका भी सूचन कर दिया है ऐसा जानना चाहिए । अब इस प्रथम भाष्यगाथा के अर्थविशेषकी विभाषा करने की इच्छासे चूर्णिसूत्रकार आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । ६ १९३. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ १९४. यह सूत्र सुगम है । * क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिका प्रदेशपुंज सबसे स्तोक है । १९५. क्योंकि वह मोहनीय कर्मसम्बन्धी समस्त द्रव्य कुछ कम चौबीसवें भाग प्रमाण है । * उससे प्रथम संग्रहकृष्टिका प्रदेशपुंज संख्यातगुणा अर्थात् तेरहगुणा है । $ १९६. इस सूत्र में 'प्रथम संग्रह कृष्टि' ऐसा कहनेपर उसका वेदन करनेवाले जीवके प्रथम संग्रह कृष्टिका ग्रहण करना चाहिए। इस कारण पूर्वोक्त क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिके प्रदेश पुंज से क्रोध की ही प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज संख्यातगुणा है यह इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । उसमें 'संख्यातगुणा' ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे गुणकारके विषय में विशेष निर्णय नहीं हो पाता, इसलिए तद्विषयक निर्णयको उत्पन्न करने के लिए 'तेरहगुणा है' ऐसा विशेषरूपसे कहा है । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा मुक्तकण्ठ कहे गये तेरहगुणे प्रमाणरूप गुणकारका साधन करनेके लिए Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए पढमभासगाहा संदिट्ठीए एत्तियमिदि घेत्तव्यं ४९ । पुणो एवं बे भागे काढूण तत्थेग भागो असंखेज्जभागब्भहियो कसायदव्वं भवदि । तस्स पमाणमेदं २५ । पुणो सेसभागो असंखेज्जभागोण णोकसायदव्वं होदि । तं च एदं २४ । संपहि कसायभागो बारससु संगह किट्टोस जहापविभागमवचिदृदिसि कसायदव्वस्स बारसमभागो कोधपढमसंगहकिट्टीए दिस्सदि । सो वुण मोहणीय सयलदव्वा वेक्खाए योवूण चउवीस भागमेत्तो होदि । संदिट्ठीए तस्स पमाणमेत्तियं होदि २ । पुणो णोकसायदव्वं पि सव्वं कोहसंजलणे संकामिदमत्थि, तं च सव्वमेव किट्टीओ करेमाणस्स कोहपढमसंग हकिट्टीसरुवेणेव परिणमिय चिट्ठदि । किं कारणं ? तस्स सेस किट्टीपरिहारेण वेदगपढम संगह किट्टो सरूवेणेव परिणामणियमदंसणादो । तदो णोकसायदव्वमेदं पुव्विल्लभागपमाणेण कीरमाणं बारसहं गुणगारवाणमुप्पत्तीए णिमित्तं होदि । संपहि पुग्वृत्तबारसमभागमेत्तको हपढमसंगह किट्टीप देसग्गमेथे पविखविय हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओवट्टिदे कोहविदियसंगह कट्टोदो पढमसंगह किट्टी पवेसग्गेण तेरसगुणा जादा । एदेण कारणेण सुत्ते 'तेरसगुणमेत्तं' इदि भणिदं । ७५ यह प्ररूपणा करते हैं । वह जैसे - मोहनीय कर्मका समस्त द्रव्य संदृष्टिकी अपेक्षा इतना ग्रहण करना चाहिए - ४९ । पुनः इन द्रव्यके दो भाग करके उनमें से असंख्यातवां भाग अधिक एक भागप्रमाण कषायसम्बन्धी द्रव्य होता है । उसका प्रमाण यह है २५ । पुनः शेष असंख्यातवाँ भाग कम नोकषायसम्बन्धा द्रव्य होता है । उसका प्रमाण यह है २४ । अब कषायसम्बन्धा बारह भाग संग्रह कृष्टियों में यथाविभाग अवस्थित है, इसलिए कषायसम्बन्धी द्रव्यका बारहवाँ भाग क्रोधकषायको प्रथम संग्रह कृष्टिमें दिखाई देता है । परन्तु वह द्रव्य मोहनाय कषायके समस्त द्रव्यको अपेक्षा चोबीसवां भागमात्र होता है। संदृष्टिसे उसका प्रमाण इतना है - २ । पुनः नोकषाय द्रव्य भी सम्पूर्ण क्रोवसंज्वलन मे संक्रमित हुआ है और वह सभी द्रव्य कृष्टियों को करनेवालेके क्रोध-संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिरूपसे हो परिणमकर अवस्थित रहता है । शंका- इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि उस नोकषायसम्बन्धी द्रव्यके शेष कृष्टियोंके परिहार द्वारा वेदक जीवके प्रथम संग्रह कृष्टिरूपसे हो परिणमनका नियम देखा जाता है । इसलिए इस नोकषायके द्रव्यको पहलेके भागप्रमाणसे करते हुए वह बारह गुणकाररूप अंकों की उत्पत्तिका कारण होता है । अब पूर्वोक्क बारहवें भागप्रमाण क्रोधकषायसम्बन्धा प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेशपुंजको इसोमे प्रक्षिप्त करके अधस्तन राशिसे उपरिम राशिके भाजित करनेपर क्रोधको दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि प्रदेशपुंजको अपेक्षा तेरहगुणा हो जाती है । इस कारण से सूत्रमे 'वरहगुणीप्रमाण' ऐसा कहा है । विशेषार्थ - यहाँ क्रोध संज्वलनस श्रोणपर आरोहण करनेवाला जोव विवाक्षत है। अतः उसके १२ संग्रह कृष्टियां नियमसे पाया जाती हैं । अब प्रकृतमे यह देखना है कि जो जीव क्रोध संज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टिका प्रथम समयमें वेदन कर रहा है उसमे उस दूसरा संग्रह कृष्टिको अपेक्षा कितना अधिक द्रव्य पाया जाता है, होन या समान पूरा द्रव्य तो पाया नहीं जा सकता, क्योंकि उस प्रथम कृष्टिके वंदन करनेके समय हो उसमें नोकषायोका द्रव्य भी संक्रामत हा चुकता है । अतः वह दूसरा कृष्टिको अपेक्षा अधिक हो होना चाहिए। कितना अधिक होता है इसा बातका स्पष्टोकरण करते हुए क्रोधसंज्वलनका दूसरो संग्रह कृष्टिस तरहगुणा अधिक होता है यह बतलाया हूँ । वह तेरहगुणा केस घटित होता है इस बातका स्पष्टीकरण करत हुए वारसन स्वामा लिखते हैं कि चारित्रमाहनीयकर्मका कुल द्रव्य अंकसंदृष्टिका अपेक्षा ४९ स्वीकार करनेपर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १९७. संपहि विदियसंगह किट्टीए जहण्णकिट्टिप्पहूडि अनंतगुणक्रमेण गदकिट्टीओली दो मसंग किट्टीए जहष्ण किट्टिमादि का दूणाणंतगुण कमेण गर्दा कट्टोओली वि संखेज्जगुणा चेव होदि । कि कारण ? कोहविदियसंगह किट्टीए चरिम कसरिणियपदेस पिडादा पढमसंगह कट्टोए जहण किट्टिस रिसधणियपदेसग्गमणत भागहोणं हादि ति पुख्वमणंतरोवाणधाए भणिदं । तण जगज्जद तेरसगुणमेत्तपदेस पडण विदियसंगहाकट्टीए सह एयगोवुच्छासेढोए णिव्वत्तिज्जमानपढमसंग कट्टाए अंतर किट्टीणं पंती विदिवसंगहाकट्टाए सयलकिट्टी आयामादो नियमा तेरसगुणा चेव हो|दत्ति, अण्णा ता समेयगोवुच्छत्ताणुववत्तीदा । ७६ १९८. संपाह एवेण सुतेण परुविदको हसंजलणसत्याणप्पाबहुअस्सुच्चारणक्कमो वुच्चदे । तं जहा - सव्वत्थाव कोहस्स विदियसंगह किट्टीए पदेसग्गं । तदियसंगहां कट्टाए पवेसग्गं विसेसाहियं । केत्तियमत्तेण ? पालदोवमस्सा संखेज्जादभागेण खंडिदेयखंडत्त । कुदो एवं असख्यातवां भाग अधिक आधा भाग २५ कषायसम्बन्धी द्रव्य होता है और शेष असंख्यातवां भाग हीन आधा २४ नाकषायसम्बन्धी द्रव्य हाता है । यतः चारा संज्वलनोकी संग्रह कृाष्ट्यां १२ है, अतः कषायसम्बन्धो द्रव्यको इन १२ संग्रह कृष्टिया में विभाजित करनपर क्राधसंज्वलनका प्रथम संग्रह कृष्टिका साधिक २ अंक प्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है । इसी प्रकार आगेकी प्रत्येक संग्रह कृष्टिको भी साधिक २ अंक प्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है । पुनः नोकषायोके समस्त द्रव्यक क्राधसंज्वलनके प्रथम संग्रह कृष्टिमे संक्रमित होनेपर उसका कुल द्रव्य सब मिलाकर २४ +२= २६ अंक प्रमाण होता है। अब इसमें क्रोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिके २ अंक प्रमाण द्रव्यका भाग देनेपर क्राध संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका कुल द्रव्य २६ ÷२-१३ अंक प्रमाण प्राप्त होता है जो क्रोधसंज्वलनकी द्वितीय संग्रह कृष्टिक २ अंक प्रमाण द्रव्यसे तेरहगुणा सिद्ध होता है । $ १९७. अब दूसरी संग्रह कृष्टको जघन्य कृष्टिसे लेकर अनन्त गुणितक्रमस प्राप्त कृष्टिसम्बन्धी पंक्ति से प्रथम संग्रह कृष्टिका जघन्य कृष्टिसे लेकर अनन्त गुणितक्रमस प्राप्त कृष्टिसम्बन्धो पंक्ति संख्यातगुणा ही होती है । शंका- इसका क्या कारण है ? समाधान - क्रोधको दूसरो सग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तिम कृष्टिके सदृश धनवाले प्रदेशपिण्डप्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धो जघन्य कृष्टिका सदृश धनवाला प्रदेशपुंज अनन्त भागहीन होता है यह पहले अनन्तरापनिधाकी अपेक्षा कह आये हैं। इससे जानते है कि तेरहगुणे प्रदेश पिण्डको अपेक्षा दूसरा संग्रह कृष्टि के साथ एक गापुच्छा श्रोणरूपसे निष्पद्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धा अन्तर कृष्टियों की पंक्ति दूसरी संग्रह कृष्टि सम्बन्धी समस्त कृष्टिआयामसे नियमस तरहगुणी ही होता है, अन्यथा उनकी एक गोपुच्छा नहीं बन सकती । विशेषार्थ - पूर्व में दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि तेरहगुणी है यह सिद्ध कर आये हैं सो उससे ऐसा समझना चाहिए कि दूसरी संग्रह कृष्टिको जितनी अन्तर कृष्टियोंकी पंक्ति है उससे प्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तर कृष्टियोंकी पंक्ति तेरहगुणी है । $ १९८. अब इस सूत्र द्वारा कहे गये क्रोधसंज्वलनके स्वस्थान अल्पबहुत्व के उच्चारण क्रमका कथन करते हैं। वह जैसे - क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज सबसे अल्प है। उससे तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । शंका - कितना अधिक है ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूळगाहा पढमभासगाहा परिच्छिज्जदे ? उवरिमपरत्थाणप्पाबहुए सुत्तणिबद्धतष्परूवणोवलंभादो। कोधतदियसंगहकिट्टीदो उरि तस्सेव पढमसंगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं । पुव्वुत्तेण णाएण तस्स तेरसगुणत्तदंसणादो। किट्टीओलीगुणगारो वि एवम्हादो चेव साहेयव्वो। १९९. संपहि एदेणेव सुत्तेण सूचिदं माणादीणं पिसत्थाणप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। तं जहा-माणस्स पढमसंगहकिट्टीए पदेसग्गं थोवं। विदियसंगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । तदियसंगहकिट्टोए पदेसग्गं विसेसाहियं । विसेसो पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागपडिभागिओ। एवं मायालोभाणं पि सत्याणप्पाबहुअं कायव्वं, विसेसाभावादो। एवमेदं सत्याणप्पाबहुअं परूविय संपहि 'कमेण सेसा विसेसाहिया' ति गाहासुत्तचरिमावयवमस्सियूण परत्थाणप्पाबहुअपरूवण?मुवरिमं सृत्तपबंधमाह * माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं थोवं । 5२००. एत्थ 'माणस्स पढमसंगहकिट्टि' त्ति वुत्ते कारगस्स तवियसंगहकिट्टी घेत्तम्वा, वेदगपढमसंगहकिट्टीए एत्य पयदत्तादो। तदो तिस्से पदेसगमुवरि भणिस्समाणासेससंगहकिट्टीणं पदेसग्गादो थोवमिदि वुत्तं होइ । समाधान-क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आता है उतना अधिक है। शंका-यह कित प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-उपरिम परस्थान अल्पबहुत्वसम्बन्धी सूत्रमें निबन्ध उक्त अल्पबहुत्वसम्बन्धी प्ररूपणाके उपलब्ध होने से यह जाना जाता है। क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिसे ऊपर उसीकी प्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धी प्रदेशपुंज संख्यातगुणा है, क्योंकि पूर्वोक्त न्यायसे वह तेरहगुणा देखा जाता है। कृष्टियोंकी पंक्तिसम्बन्धी गुणकार भी इसोसे साथ लना चाहिए। ६१९९. अब इसी सूत्रसे सूचित हुआ मानादिक कषायसम्बन्धी स्वस्थान अल्पबहाव भी बतळावेंगे। वह जैसे-मानकषायको प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज सबसे अल्प है। उससे दूसरी संग्रहकृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है। उससे तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है। परन्तु विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाणका भाग देनेपर एक भागप्रमाण है। इसी प्रकार मायाकषाय और लोभकषायका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व करना चाहिए. क्योंकि इस अल्पबहत्वसे माया ओर लोभकषायके अल्पबहुत्व में कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार इस स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करके अब 'कमेण सेसा विसेसाहिया' इस प्रकार गाथासूत्रके अन्तिम चरणका आश्रव लेकर परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * मानसंज्वलनको प्रयम संग्रह कृष्टिका प्रवेशपुंज सबसे अल्प है। 5२००. इस सूत्रमें 'मानकी प्रथम संग्रह कृष्टि' ऐसा कहनेपर कृष्टिकारककी तीसरी संग्रह कृष्टि ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि यहाँपर वेदकको प्रथम संग्रह कृष्टि प्रकृत है। इसलिए उसका प्रदेशपुंज ऊपर ( आगे) कहे जानेवाले समस्त संग्रह कृष्टियोंके प्रदेशपंजसे अल्प है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । $ २०१. माणस्स विदियसंगहकिट्टीए पदेसपिडो तस्सेव पढमसंगहकिट्टीए पदेसपिडादो विसेसाहिओ त्ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एदस्स तत्तो विसेसाहियत्तमवगम्मदे ? ण, तिव्वयराणुभागपरिणदपदेसपिडादो मंवयराणुभागपरिणदपदेसपिंडस्स तहामावसिद्धीए णाइयत्तादो । एत्थ विसेसाहियपमाणं हेटुिमदव्वस्सासंखेज्जविभागमेत्तमिदि घेत्तव्वं । तस्स पडिभागो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। * तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । . ६२०२. एत्य वि विसेसपमाणं हेट्ठिमदव्वस्सासंखेज्जदिभागमैत्तमिदि घेत्तव्वं । संपहि एक्स्सेव विसेसाहियभावस्स फुडीकरण?मेत्थ को पडिभागो त्ति आसंकाए उत्तरसत्तमाह * विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागो। ६२०३. जो एसो सत्थाणे विसेसो परूविदो सो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण हेटुिमदव्वे खंडिदे तत्थेयखंडमेतो ति वुत्तं होइ। एवमुवरिमपदेसु वि विसेसाहियप्पमाणमेदेणेव पडिभागेण परवेयव्वं । णवरि परत्थाणविसेसो सम्वत्थावलियाए असंखेजविभागपडिभागिओ गहेयव्वो, तत्थ पयडिविसेसेण विसेसाहियत्तं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। * उससे दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रवेशपुंज विशेष अधिक है। ६२०१ मानसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपिण्ड उसोको प्रथम संग्रह कृष्टिके प्रदेशपिण्डसे विशेष अधिक है यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। शंका-मानको यह संग्रह कृष्टि उसीकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे विशेष अधिक है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि तीव्रतर अनुभागसे परिणत प्रदेशपिण्डसे मन्दतर अनुभागसे परिणत प्रदेशपिण्डकी उस रूपसे सिद्धि होना न्यायप्राप्त है। यहाँपर विशेषाधिकका प्रमाण अधस्तन द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । उसका प्रतिभाग पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका प्रवेशपुंज विशेष अधिक है। ६२०२ यहां भी विशेषका प्रमाण अधस्तन द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इसी विशेषाधिकपनेका स्पष्टीकरण करनेके लिए यहाँपर क्या प्रतिभाग है ऐसो आशंका होनेपर आगेके सूत्रको कहते हैं विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यात भागका प्रतिभागी है। 5२०३. जो यह स्वस्थानमें विशेषका प्रमाण कहा है वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधस्तन द्रव्यके भाजित करनेपर उसमें से एक भागप्रमाण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार उपरिम पदोंमें भी विशेष अधि प्रमाणकको इसी प्रतिभागके अनुसार कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि परस्थानसम्बन्धी विशेषका प्रमाण सर्वत्र आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वहाँपर प्रकृतिविशेषको अपेक्षा विशेष अधिकपनेको छोड़कर प्रकारान्तर असम्भव है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए तदियमूलगाहाए पढमभासगाहा * कोहस्स विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । २०४. एत्थ विसेसपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागियं, परत्थाणविसेसत्ता दो । * तदियाए संगह किट्टीए पदसग्गं विसेसाहियं । $ २०५. केत्तियमे तेण ? पलिदोवमस्स असंखेज्ज विभागपडिभागिय सत्याणविसेसमेत्तण । * मायाए पढमसंग किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । २०६. केत्तियमेत्ते ? आवलियाए असंखेज्जदिभागखं डिवेयखंडमेत्ते॑ण । कारणं सुगमं । * विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । * तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । २०७. एदेसु दोसु वि सुत्तेसु विसेसपमाणं पलिदोषमस्स असंखेज्जविभागपडिभागिय - मिदि धेत्तव्वं । सेसं सुगमं । * लोभस्स पढमाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । २०८. केतियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेयखंडमेत्तेण । एत्थ सत्याणविसेतो ध्व परत्थाणविसेसो वि पलिदोवमस्स असंखेन्नदिभागपडिभागिओ त्ति के वि ७९ * उससे क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । $ २०४. यहाँ पर विशेषका प्रमाण परस्थान विशेष के कारण आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप है | * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका प्रवेशपुंज विशेष अधिक है । ६ २०५. शंका - कियत्प्रमाण अधिक है ? समाधान - स्वस्थान विशेषका प्रमाण पत्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप है, अतः उतना अधिक है । * उससे मायासंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । ६ २०६. शंका - कियत्प्रमाण अधिक है ? समाधान - तीसरी संग्रह कृष्टिमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है । कारणका कथन सुगम है। * उससे दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । * उससे तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । $ २०७. इन दो सूत्रों में भी विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शेष कथम सुगम है । * उससे लोभसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । १२०८. शंका - कियत्प्रमाण अधिक है ? समाधान - मायासंज्वलनकी तीसरी संग्रह कृष्टिमें आवलिके असंख्यातव भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलास हिदे कसायपाहुडे भणंति ? णेदं समंजसं, तहान्भुवगमस्स जुत्तिबाहियत्तादो। ण च विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज्ज विभागपडि भागिओ त्ति एदेण सुत्तेंण तस्स तहाभावसिद्धी, सत्याण विसेसमुद्देसिय तस्स पट्टत्तादो । तम्हा परत्थाणे सव्वत्थ पयडिविसेसो चेव आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागिओ घेत्तव्वो । ८० * विदिया संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । * तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । $ २०९. एवेसु दोसु सुत्तेसु विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागिओ घेत्तव्वो, सत्थाणे पयारंतरासंभवादो । शंका- इस अल्पबहुत्वमें स्वस्थान विशेषके प्रमाणके समान परस्थान विशेषका प्रमाण भी पल्योपम के असंख्यातवें भागका प्रतिभागोस्वरूप होता है ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते हैं ? समाधान - किन्तु उनका यह कथन समंजस नहीं है, क्योंकि उस प्रकार से स्वीकार करना युक्ति से बाधित है। यदि कहा जाय कि 'विशेषका प्रमाण पत्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप होता है' इस प्रकार इस सूत्र द्वारा विशेषके प्रमाणकी उसरूपसे सिद्धि हो जायगी सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त सूत्र स्वस्थानविशेषको लक्ष्य कर प्रवृत्त हुआ है । इसलिए परस्थान में सर्वत्र प्रकृति विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थं - प्रकृतमें अल्पबहुत्व के दो भेद हैं- १. स्वस्थान अल्पबहुत्व और २. परस्थान अल्पबहुत्व | प्रत्येक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं । उनमेंसे प्रत्येक कषायकी अपनी संग्रह कृष्टियों में प्रदेशपुंज की अपेक्षा अल्पबहुत्वका विचार करना स्वस्थान अल्पबहुत्व है और विवक्षित कषायकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी अपेक्षा दूसरो कषायकी प्रथम संग्रह कृष्टिके मध्य अल्पबहुत्वका विचार करना परस्थान अल्पबहुत्व है । स्वस्थान अल्पबहुत्व में विशेषका प्रमाण लाने के लिए पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देकर एक भागप्रमाण विशेषका प्रमाण प्राप्त किया जाता है और परस्थान अल्पबहुत्वमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर एक भागप्रमाण विशेषका प्रमाण प्राप्त किया जाता है। यहां मानसंज्वलनकी तीनों संग्रह कृष्टियों में स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते समय मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे दूमरी संग्रह कृष्टि और दूसरीसे तीसरी संग्रह कृष्टि कितनी विशेष अधिक है इसका 'विसेसो पलिदोवमस्स० ' इत्यादि सूत्र द्वारा स्पष्ट रूपसे जैसे उल्लेख कर दिया है वैसे ही परस्थान अपल्पबहुत्व में पिछली कषायकी तीसरी संग्रह कृष्टि से अगली कषायकी प्रथम संग्रह कृष्टि विशेष अधिक होते हुए भी कितनी विशेष अधिक है इसका किसी सूत्र द्वारा प्रकृत में उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिए शंकाकार दोनों स्थलोंपर विशेषका प्रमाण लाने के लिए एक ही भागहार स्वीकार करता है । किन्तु वीरसेन स्वामीने इस कथनको युक्ति से बाधित स्वीकार करके परस्थान अल्पबहुत्व में विशेषका प्रमाण प्राप्त करनेके लिए भागहार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्वीकार किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है । * उससे दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । * उससे तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रवेशपंज विशेष अधिक है । $-२०९. इन दोनों सूत्रों में विशेष पल्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्वस्थानमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढीए पढममूलगाहाए तदियमा सगाहा * कोहस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं । $ २१०. तेरसगुणमेत्त मिदि वृत्तं होंदि । कुदो ? णोकसायसव्वदध्वेण सहकसायदव्यबारसमभागस्त को हपढमसंगह किट्टीसख्वेण परिणदत्तादो। एवमेत्तिएण पबंधेण पढमभासगाहाए अत्यविहासणं का संपहि जहावसरपत्तं विदियभासगाहाए विहासणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाह * विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । २११. सुगमं । * तं जहा । $ २१२. सुगमं । (११८) विदिया दो पुण पढमा संखेज्जगुणा दु वग्गणग्गेण । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥ १७१ ॥ २१३. एसा विदियभासगाहा पुग्वत्तपदे सग्गाणुसारेणेव बारसहं संगह किट्टीणं वग्गणगस्स वि सत्याण- परत्थाणप्पा बहुअपरूवण मोइण्णा । संपहि एदिस्से किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्साम । तं जहा - 'विदियादो पुण पढमा०' एवं भणिदे कोहविदियसंग्रह किट्टीए सव्व वग्गणाहितो पढमसंगह किट्टीए वग्गणासमूहो संखेज्जगुणो त्ति भणिदं होदि, पुण्वत्तविहाणेण ८१ * उससे क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज संख्यातगुणा है । $ २१०. तेरहगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि नोकषाय के समस्त द्रव्य के साथ वषायसम्बन्धी द्रव्यका बारहवां भाग क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिरूपसे परिणत हुआ है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा प्रथम भाष्यगाथाके अर्थकी प्ररूपणा करके अब यथावसर प्राप्त दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं— * अब दूसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं । $ २११. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । § $ २१२. यह सूत्र सुगम है । (११८) क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि वर्गणा समूहकी अपेक्षा संख्यातगुणी है । किन्तु उसीकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे तीसरी संग्रह कृष्टि वर्गणासमूहको अपेक्षा विशेष अथिक है । इसी प्रकार मान आदिकी भी संग्रह कृष्टियाँ क्रमसे वर्गणा समूहकी अपेक्षा विशेष अधिक हैं ॥१७१॥ ६.२१३. यह दूसरी भाष्यगाथा पूर्वोक्त प्रदेशपुंजके अनुसार ही बारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी वर्गणासमूहके भो स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्व के प्ररूपण करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । अब इसके अवयवोंकी किचित् अर्थप्ररूपणा करेंगे। वह जैसे - 'विदियादो पुण पढमा०' ऐसा कहनेपर क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिके समस्त वर्गणासमूहसे प्रथम संग्रह कृष्टिका वर्गणा समूह संख्यातगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि पूर्वोक्त विधिसे उसमें तेरहगुणे वर्गणा ११ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे तत्थ तेरसगुणसिद्धीए णिव्वाहमुवलंभावो । एत्थ 'वग्गणा' त्ति वुत्ते एक्केक्का अंतरकिट्टी चेव अनंतस रिसधणियपरमाणुसमूहारद्धा एगेगा वग्गणा त्ति घेत्तव्वा । तासि समूहो वग्गणग्गमिदि भण्णदे । तदो विदियसंगह किट्टीए सव्ववग्गणा समूहादो पढमसंगह किट्टीए सब्बो बग्गणाकलावो acant किट्टी अद्धा परिच्छिण्णपमाणो संखेज्जगुणों त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ । २१४. ' विवियादो पुण तदिया' एवं भणिदे कोहस्स विदिय संगह किट्टीए सव्ववग्गणाहितो तस्सेव तदियसंगह किट्टी सयलवग्गणासमूहों विसेसाहिओ होइ त्ति सुत्तत्थसंबंधो। विसेसपमाणमेत्थ दव्वाणुसारेणेव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागिय मिदि घेत्तव्वं । एवमेदेण सुत्तावयवकलावेण कोहपंजणस्स तिहुं संगह किट्टीणं वग्गणग्गमस्सियूण सत्यागप्पा बहुअ सुवइट्ठ । संपहि 'कमेण सेसा विसेस हिया' एवं भणिदे जहाकममेव माणादीणं पि तिन्हं संग्रहकिट्टी पावेवकं वग्गणग्गमस्सियूण विसेसाहियक मेग सत्थानप्याबहुअं का यव्वं । तदो परत्याणप्पाबहुअं च दव्वमिदि वृत्तं होइ । सेसं जहा पढमभासगाहाए वृत्तं तहा वत्तव्यं, विसेसाभावाद । तदो चेव पढमभासगाहानुसारेणेवेदिस्से विभासा कार्यात्रा ति पप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * विहासा । § २१५. सुगमं । * जहा पदेसग्गेण विहासिदं तहा वग्गणग्गेण विहासिदव्वं । समूहकी सिद्धि निर्बाध पायी जाती है। इम भाष्यगाथा में 'वग्गणा' ऐसा कहनेपर एक-एक अन्तर कृष्टि ही अनन्त सदृश धनवाले परमाणुसमूहसे आरम्भ की गयी एक-एक वर्गणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। और उनका समूह वर्गणासमूह कहा जाता है। अतएव दूसरी संग्रह कृष्टिके समस्त वर्गणासमूहसे प्रथम संग्रह कृष्टिका समस्त वर्गणासमूह अपनी कृष्टिके आयामरूपसे परिच्छिन्न प्रमाणवाला होकर संख्यातगुणा है इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । २१४. 'विदियादो पुण तदिया' ऐसा कहनेपर क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिकी सब वर्गणाओं से उसीकी तीसरी संग्रह कृष्टिका समस्त वर्गणासमूह विशेष अधिक है इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। विशेषका प्रमाण यहाँ द्रव्यके अनुसार ही पत्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागरूप है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार भाष्यगाथा के इस अवयवसमूह से क्रोधसंज्वलनकी तोनों संग्रह कृष्टियों के वर्गणा समूहका आलम्बन लेकर स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया। अब 'कमेण सेसा विसेसाहिया' ऐसा कहनेपर क्रमानुसार ही मान आदि तोनों संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी प्रत्येक वर्गणासमूहका आलम्बन लेकर विशेष अधिकके क्रमसे स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए। तत्पश्चात् परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन जिस प्रकार प्रथम भाष्यगाथामें किया है उसी प्रकार कथन करना 1 चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । और इसीलिए प्रथम भाष्यगाथा के अनुसार हो इसकी विभाषा करनी चाहिए इस बातका कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभासा करते हैं । ६२१५. यह सूत्र सुगम है । जिस प्रकार प्रदेशपुंजको अपेक्षा अल्पबहुत्वकी विभाषा अपेक्षा उसकी विभाषा करनी चाहिए । उसी प्रकार वर्गणासमूहकी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढीए तदियमूलगाहाए तदियभासगाहा २१६. जहा पदेसग्गमस्सियूण सत्याण परत्थाणप्पाबहुअं पढमभासगाहाए विहासिदं तहा चैव वग्गणग्गम हिकिच्च एत्थ वि विहासेयव्वं, पदेसप्याबहुआणुसारेणेव वग्गणप्पाबहुअस्स वि णाणतेण विणा पवृत्तिदंसणादो त्ति एसो एदस्स सुत्तरूप भावत्यो । एवं विदिद्यभासगाहाए विहासा समत्ता । संपहि तदिय भासगाहाए विहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । २१७. सुगमं । * तं जहा । ६ २१८. सुमं । (११९) जा हीणा अणुभागेणहिया सा वग्गणा पदेसग्गे । भागेणणंतिमेण दु अधिगा हीणा च बोद्धव्वा ॥ १७२॥ ८३ $ २१९. एसा तदियभासगाहा बारसहं पि संगह किट्टीणं जहण्ण किट्टिमादि काढूण जावकरसकिट्टि ति जहाकममवद्विदाण मंतर किट्टीण मणंतरोवणिधाए पदेसग्गेण होणा हियभावगवेसण - मणा । संपहि एदिस्से अत्थो वुच्चदे । तं जहा -- 'जा होणा अणुभागेण ० ' जा वग्गणा अणुभागेण हीणा सा पदेसग्गेण अहिया होदि ति गाहापुण्वद्धे सुत्तत्थसंबंधो । तत्थ 'वग्गणा' त्ति वृत्ते जहण्णकिट्टीए सरिसधणिय सव्वपरमाणुसमूहो एगा आदिवगणा त्ति घेत्तव्वा । एवं विदियादिकिट्टीणं $ २१६. जिस प्रकार प्रथम भाष्यगाथा द्वारा प्रदेशपुंज की अपेक्षा स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्व की विभाषा की उसी प्रकार वर्गगासमूहका आलम्बन लेकर यहाँ पर भो विभाषा करनी चाहिए, क्योंकि प्रदेश- अल्पबहुत्व के अनुसार हो वर्गणा अल्पबहुत्वकी भो नानापनके बिना प्रवृत्ति देखी जाती है इस प्रकार यह इस सूत्र का भावार्थ है । इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाका विभाषा समाप्त हुई । अब तीसरी भाष्यप्राचाकी विभाषा करते हुए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । $ २१७. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ २१८. यह सूत्र सुगम है । - (११९) जो वर्गणा अनुभागकी अपेक्षा हीन है वह प्रदेशपुंजको अपेक्षा अधिक होती है । इस प्रकार इन वर्गणओंमेंसे प्रत्येक वर्गणा अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे होन या अधिक जाननी चाहिए ॥ १७२ ॥ $ २१९. यह तीसरी भाष्यगाथा बारह ही संग्रह कृष्टियोंमेंसे जघन्य कृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टि प्राप्त होने तक यथाक्रम अवस्थित अन्तर कृष्टिमोंकी अनन्तरोपनिधा के अनुसार प्रदेशपुंजकी अपेक्षा होनाधिकभावकी गवेषणा करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । अब इसका अर्थ कहते हैं । वह जैसे - 'जा होणा अणुभागेण ० ' जो वर्गणा अनुभागकी अपेक्षा हीन है वह प्रदेशपुंज की अपेक्षा अधिक होती है इस प्रकार गाथाके पूर्वार्ध में सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । उसमें 'वर्गणा' ऐसा कहनेपर जघन्य कृष्टिमें सदृश धनवाला समस्त परमाणुसमूहरूप एक आदि वर्गणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार द्वितीयादि कृष्टियोंकी अपेक्षा भी अपनीअपनी कृष्टिके सदृश घनवाले परमाणुओंकी एक पंक्ति में रचना करके उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पि अपणो सरिसधणियपरमाणूण मेगावलियाए विरयणं काढूण पादेककमेगेगा वग्गणा समुप्पाएयथवा जाव उक्कeefsट्टि त्ति । एवं च विरचणाए कदाए किट्टोअद्वाणमेत्तिओ चेव वग्गणाओ जादाओ । एवं कयविण्णासाणमेदासि हेट्ठिमहेट्ठिमा वग्गणा अणुभागेण होणा होदि । उवरिम वरमा अणुभागेहिया होदि, अनंतगुणवड्डिकमेणेव तासिमवद्वाणणियमदंसणादो । एवमवट्ठिदादा सिमेहि पदेसग्गमस्सियूण सेढिपरूवणाए कोरमागाए विदिश्वग्गणं पेक्खियूणादिवरगणा पदेसग्गेण अहिया होदि, जहण्णसत्तीए परिणमंताणं परमाणूणं सुलहत्तदंसणा दो । एवमणंतरोवणिधाए सवासि किट्टवग्गणाणं पदेसग्गेण होणाहियभावो जोजेयव्वो । संपहि हेट्ठिमवग्गणा उबरिमवग्गणं पेक्खियूण केत्तियमेतेण अहिया होदित्ति एस्स पिण्णयकरणटुं गाहापच्छद्धमोइणं 'भागेणणंतिमेण दु०' । अनंतिमभागेणेव हे द्विमादो उत्ररिमा होणा होदित्ति भणिदं होइ, एरोगवग्गण विसेसमेत्तेण सव्वास किट्टीणमणंतराणंतरादो होणत्तणियमदंसणादो । संपहि एवं विहमे दिस्से गाहाए अत् विहामाणो विहासागंथमुत्तरं भणइ - * विहासा । ૮૪ ६ २२०. सुगमं । * तं जहा । $ २२१. सुगमं । * जहणियाए वग्गणाए पदेसग्गं बहुअं । इस प्रकार रचना तक पृथक-पृथक एक-एक वर्गणा उत्पन्न करनी चाहिए। करनेपर कृष्टियों के आयाम प्रमाण ही वर्गणाएं हो जाती हैं। इस प्रकार एक पंक्ति में रचित इन वर्गणाओं में से नीचेनोचेकी वर्गणा अनुभागको अपेक्षा होन होती है और उपरिम उपरिम वर्गणा अनुभाग की अपेक्षा अधिक-अधिक होती है, क्योंकि अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे ही उनके अवस्थानका नियम देखा जाता है । इस प्रकार इस समय अवस्थित हुई इन वर्गणाओं के प्रदेशपुंजका आलम्बन लेकर श्रेणिप्ररूपणा करनेपर दूसरी वर्गणाको देखते हुए आदि वर्गणा प्रदेशपुंजकी अपेक्षा अधिक होती है, क्योंकि जघन्य शक्तिरूपसे परिणमन करनेवाले परमाणुत्रोंकी सुलभता देखी जाती है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधाके अनुसार सब कृष्टिवर्गणाओंके प्रदेशपुंजको अपेक्षा होनाधिकपने की योजना कर लेनी चाहिए। अब अधस्तन वर्गणा उपरितन वर्गणाको देखते हुए कितने प्रमाण अधिक होती है इस प्रकार इस तथ्यका निर्णय करनेके लिए भाष्यगाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है'भागेणणंतिमेण दु०' अनन्तवें भागप्रमाण हो अधस्तन वर्गणासे उपरिम वर्गणा हीन होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अनन्तर- अनन्तरं क्रमसे सभी वर्गणाओं में एक-एक विशेषप्रमाण हीनताका नियम देखा जाता है। अब इस प्रकार इस गाथाके अर्थकी विभाषा करते हुए आगे के विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ २२०. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ २२१. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य वर्गणा में प्रवेशपुंज बहुत है । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aarसेढीए तदियमूलगाहाए तदियभासगाहा ८५ $ २२२. एत्थ 'जहणिया' वग्गणा त्ति वुले जहण्ण किट्टी सगाणंतस रिसधणियपरमाणु सहिदा गया। एदिस्से पदेसग्गमुवरिमासेस किट्टीणं पदेसग्गादो बहुगमिदि वृत्तं होदि । * विदिया वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । $ २२३. एत्य वि विदिकिट्टी चेव सरिसधणियाणंतपरमाणुसहिया विदिया वग्गणाति घेत्तग्वा । अनंतभागेणेत्ति वृत्ते एगवग्गणविसेसमेत्तेणेत्ति घेत्तव्यं । सुगमनण्णं । * एवमणंतराणंतरेण विसेसहीणं सव्वत्थ | २२४. एवमणंतराणंतरादो विसेसहीणं काढूण उवरिमवग्गणासु वि सव्वत्थ एसा सेढि - परूवणा दव्वात्ति वृत्तं होदि । एसा च सेढिपरूवणा सन्चासि संगह किट्टीणं सत्याणे परत्यागे च जोजवा, लोभजहण्ण किट्टिमादि काढूण जाव कोधुक्कसवग्गणा त्ति । परत्याणे वि अनंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । एवमणंतरावणिधाए किट्टीवग्गणासु पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं कावूण संपहि तत्थेव परंपरोवणिधापरूवणटुं चउत्थभासगाहाए अवयारं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह - * एत्तो चउत्थी भासगाहा । ६ २२५. सुगमं । § २२२. इस सूत्र में 'जधन्य वर्गणा' ऐसा कहनेपर अपने सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे युक्त जघन्य कृष्टि ग्रहण करनी चाहिए। इसका प्रदेशपुंज उपरिम समस्त कृष्टियोंके प्रदेशपुंजकी अपेक्षा बहुत होता है यह उक्त कथनका ताल है । * उससे दूसरी वर्गणा में प्रदेशपुंज अनन्तवें भागरूप एक वर्गणाविशेषसे होन है । $ २२३. यहाँ पर भी दूसरी कृष्टि हो सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे युक्त दूसरी वर्गणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। 'अनंतभागेण' ऐसा कहनेपर पिछली वर्गणासे अगली वर्गणा में विशेषरूप होनका जितना प्रमाण हो उतना ग्रहण करना चाहिए । शेष कथन सुगम है । * इस प्रकार अनन्तर - अनन्तर रूपसे सब वर्गणाओंमें विशेष हीन प्रदेशपुंज जानना चाहिए । ६ २२४. इस प्रकार अनन्तर- अनन्तररूरसे विशेष होन करके उपरिम वर्गणा में भी सर्वत्र यह श्रेणिप्ररूपणा जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसी प्रकार इस श्रेणिप्ररूपणा की सभी संग्रह कृष्टियों की अपेक्षा स्वस्थान और परस्थान में योजना कर लेनी चाहिए, क्योंकि लोभसंज्वलनको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट वर्गणा के प्राप्त होने तक परस्थानमें भी अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार असम्भव है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा कृष्टि वर्गणात्रोंमें प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा करके अब उन्हीं वर्गणाओं में परम्परोपनिधाको प्ररूपणा करने के लिए चौथी भाष्यगाथाका अवतार करते हुए आगे के प्रबन्धको कहते हैं * अब आगे चौथी भाष्यगाथा का कथन करते हैं । $ २२५. यह सूत्र सुगम है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जयघवलास हिदे कसायपाहुडे (१२०) कोधादिवग्गणादो सुद्धं कोधस्स उत्तरपदं तु । सो अनंतभागी नियमा तिस्से पदेसग्गे ॥ १७३॥ § २२६. एदस्स गाहासुत्तस्तत्यो वुच्चदे । तं जहा – कोहस्स आदिवग्गणा कोहादिवग्गणा । कारपढमसंगह किट्टीए जहणकिट्टि त्ति वृत्त होदि । तत्तो कोहादिवरगणादो सुद्धं सोहिद arrai | किमेत्य सोहेयव्वमिदि चे ? वुच्चदे - 'कोधस्स उत्तरपदं तु' कोधस्सेव चरिमकिट्टीए पदेसग्गमेत्थ सोहेयध्वमिदि वृत्तं होदि । एवं सोहिस्सेसो अनंतभागो तिस्से जहण्णfare पदेसग्गस्स सुद्धसेसो णियमा अनंतभागे चेव होदि, रूवूण किट्टीसलागमेत्ताणं चेव वग्गणविसेसाणमेत्य सुद्ध सेसाणमुवलंभावो । तदो परंपरोदणिधाए वि जोइज्जमाणे कोहादि • वग्गणाए पदेसग्गं कोधचरिमवग्गणापदेसग्गादो अनंतभागब्भहियमेव जहण किट्टी पदे सग्गादो वि उक्कल्स किट्टोपदेसग्गमणंतभागहाणं चेत्र दट्टव्यमिदि एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । (१२०) क्रोधसंज्वलनका आदि वर्गणा में से क्रोधसंज्वलनके उत्तरपद अर्थात् अन्तिम वर्गणाको घटावे । इस प्रकार घटानेपर जो अनन्तवां भाग शेष रहता है उतना उस आदि वर्गणा में शुद्ध शेषका प्रमाण होता है ॥ १७३ ॥ $ २२६. अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं । वह जैसे - क्रोध की आदि वर्गणा क्रोधादि वर्गणा है । कृष्टिकारकके प्रथम संग्रहकृष्टिसम्बन्धी जघन्य कृष्टि यह उक्त पदका अर्थ है । उस क्रोधसम्बन्धी आदि वर्गगामेंसे शुद्ध अर्थात् शोधित करना चाहिए । शंका- इसमें से किसे शाधित करना चाहिए ? समाधान - कहते हैं 'कोधस्स उत्तरपदं तु' क्रोधकी ही अन्तिम कृष्टिके प्रदेशपुंजको इसमें से अर्थात् आदि वर्गणामेंसे शोधित करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार शोधित करनेके बाद जो अनन्तवां भाग शेष बचता है वह उस जघन्य कृष्टिके प्रदेशपुंजसम्बन्धी शुद्ध शेष नियमसे अनन्तवें भाग में अर्थात् अनन्तवें भागप्रमाण ही होता है, क्योकि एक कम कृष्टिशलाका प्रमाण ही वर्गणा विशेषरूप शुद्ध शेष इस आदि वर्गणा में पाये जाते हैं । इसलिए परम्परोपनिधाको अपेक्षासे भी देखनेपर क्रोधकी आदि वर्गणाका प्रदेशपुंज क्रोधकी अन्तिम वगंणाके प्रदेशपुंज से अनन्तवें भागमात्र ही अधिक जानना चाहिए और क्रोध की जघन्य कृष्टिके प्रदेशपुंज से भी उत्कृष्ट कृष्टिका प्रदेशपुंज अनन्तवें भागप्रमाण हो होन जानना चाहिए यह यहाँपर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । विशेषार्थ - पहले अनन्तरापनिधाको अपेक्षा पूर्वकी वर्गणासे उसके आगेकी वर्गणा में कितना प्रदेशपुंज हीन होता है इसका कथन करते हुए यह स्पष्ट कर आये है कि पहलेकी वर्गणासे अगली वर्गणा में अनन्तवें भागरूप एक विशेषप्रमाण प्रदेशपुंज हान हुआ है । इसी प्रकार आगे सर्वत्र - जानना चाहिए । अब यहाँपर परम्परोपनिधासे विचार करनपर क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम संग्रह कृष्टिकी आदि वर्गणा मेसे अन्तिम वर्गणाके घटानेपर कितना शेष बचता है इसे स्पष्ट करते हुए उसे अनन्त भागप्रमाण ही शेष रहता है यह सूचित किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि परम्परोपनिधाकी अपेक्षा भी क्रोधसंज्वलनकी जघन्यकृष्टिके प्रदेशपुंजसे उसीकी उत्कृष्ट कृष्टिका प्रदेशपुंज अनन्तवें भागप्रमाण ही होन होता है । इसीको इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम संग्रह कृष्टिको उत्कृष्ट कृष्टिके प्रदेशपुंजसे उसीकी जघन्य कृष्टिका प्रदेश पुंज अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है । १. वा. प्रतो कारण -इति पाठः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए तदियमूलागाहाए चउत्थभासगाहा ६ २२७. संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए समुदायत्थं विहासेमाणो उपरिमं सुत्तपबंधमाह - * विहासा । ६२२८. सुगम। * एदीए गाहाए परंपरोवणिधाए सेढीए भणिदं होदि । $ २२९. एदोए चउत्थभासगाहाए किट्टोगदवग्गणासु परंपरोवणिपाए सेढीए पदेसग्गस्स होणाहियत्तं भणिदं होदि ति सुत्तत्थसंबंधो । एवमेदिस्से गाहाए परंपरोवणिधाए पडिबद्धत्तमेदेण जाणाविय संपहि तिस्से चेव परंपरोवणिधाए परूवणा एवंविहा होवि त्ति विहासण?मुत्तरसुत्तं भणइ * कोहस्स जहणियादो वग्गणादो उक्कस्सियाए वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । $ २३०. गयत्थमेदं सुतं । एवं ताव कोहसंजलणस्स परंपरोवणिधापरूवणमेदेण गाहासुत्तेण विहासिय संपहि माणादिसंजलणाणं पि एवं चेव परंपरोवणिधा परूवेयव्या ति जाणावणटुं पंचमीए भासगाहाए अवयारो कीरदे * एत्तो पंचमीए मासगाहाए समुक्कित्तणा । ६२३१. सुगमं। ६२२७. अब इस गाथाके इस प्रकार समुदायरूप अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब इस चौथी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। 5२२८. यह सूत्र सुगम है। * इस भाष्यगाथा द्वारा परम्परोपनिधारूप श्रेणिकी अपेक्षा प्रदेशजको होनाधिकता कही गयी है। २२९. इस चौथी भाष्यगाथा द्वारा कृष्टिगत वर्गणाओंमें परम्परोपनिधारूप श्रेणिको अपेक्षा प्रदेशपंजकी होनाधिकता कही गयो है यह इस सूत्रका अर्थ के साथ सम्बन्ध है। इस प्रकार यह गाथा परम्परोपनिधासे प्रतिबद्ध है इसका इस कथन द्वारा ज्ञान कराकर अब उसी परम्परोपनिघाकी प्ररूपणा इस प्रकार होती है इस बातको विभाषा करने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * क्रोध संज्वलनकी जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणाका प्रदेशज अनन्तवें भागरूपसे विशेष होन होता है। ६२३०. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार सर्वप्रथम क्रोध संज्वलनसम्बन्धी परम्परोपनिधाकी प्ररूपणाका इस गाथासूत्र द्वारा विशेषरूपसे कथन कर अब मानादि संज्वलनोंको भी परम्परोपनिधका इसी प्रकार कथन करना चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए पांचवीं भाष्यगाथाका अवतार करते हैं * अब आगे पांचवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं। 5२३१. यह सूत्र सुगम है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * तं जहा। ६२३२. सुगमं। (१२१) एसो कमो च कोघे माणे णियमा च हादि मायाए । लोभम्हि च किट्ठीए पत्तेगं होदि बोद्धव्यो ॥१७४॥ ६२३३. जो एसो कमो कोधे परूविदो सो चेव गिरवसेसो माण-माया-लोभेसु वि अप्पप्पणो किट्टीओ णिरुभियूण पादेक्कं जोजेयव्यो ति वुत्तं होदि । संपहि एदस्सेवत्थरस फुडीकरण?मुवरिमं विहासागंथमाह * विहासा। ६२३४. सुगम। * जहा कोहे चउत्थीए गाहाए विहासा तहाँ माण-माया-लोभाणं पि णेदव्वा । ६२३५. जहा चउत्थीए भासगाहाए कोहसंजलणमहिकिच्च परंपरोवणिधा परूविदा तहा चेव माण-माया लोभाणं पि परंपरोवणिधा णेदव्वा त्ति सुत्तत्थसंगहो। संपहि माणादिसु पयदत्थजोजणा एवं कायव्वा त्ति जाणावणमिदमाह * माणादिवग्गणादो सुद्धं माणस्स उत्तरपदं तु । सेसो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥ * वह जैसे। 5२३२. यह सूत्र सुगम है। (१२१) जो यह क्रम क्रोधसंज्वलनको कृष्टियोंके विषयमें कहा है वही क्रम नियमसे मान, माया और लोभ इनमेंसे प्रत्येक कषायको कृष्टियोंके विषय में जानना चाहिए ॥१७॥ ६२३३. जो यह क्रम क्रोध संज्वलनके विषयमें प्ररूपित किया है निश्शेषरूपसे वही क्रम मान, माया और लोभसंज्वलनोंके विषयमें भी अपनी-अपनी कृष्टियोंको विवक्षित कर प्रत्येककी योजना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इस पांचवीं भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६२३४. यह सूत्र सुगम है। * जिस प्रकार चौथो भाष्यगाथामें क्रोधसंज्वलनको प्ररूपणा की उसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। ६२३५. जिस प्रकार चौथी भाष्यगाथामें क्रोधसंज्वलनको अधिकृत करके परम्परोपनिधाकी प्ररूपणा की उसी प्रकार मान, माया और लोभकी अपेक्षा भी परम्परोपनिधाका कथन करना चाहिए यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब मानादिकमें प्रकृत अर्थकी योजना इस प्रकार करनी चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रको कहते हैं * मानसंज्वलनको आवि वर्गणामेंसे मानसंज्वलनके उत्तरपद अर्थात् अन्तिम वर्गणाको घटावे। इस प्रकार घटानेपर जो अनन्तवा भाग शेष रहता है उतना उसको आदि वर्गणामें शुद्ध शेषका प्रमाण होता है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए तदियमूलगाहाए विदियत्थे एका भासगाहा * एवं चेव मायादिवग्गणादो० । * लोभादिवग्गणादो० । ६२३६. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि ति ण एत्थ किंचि वक्खाणेयधमस्थि, जाणिदजाणावणे फलाभावादो । एवमेदासु पंचसु भासगाहासु विहासिदासु मूलगाहाए' किट्टी च पदेसग्गेणेत्ति' पढमो अत्थो समत्तो भवदि। संपहि 'अणुभागग्गेणेत्ति' मूलगाहाविदियावयवमस्सियूण विदियस्स अत्यस्त विहासणं कुणमाणो तत्थ पडिबद्धा एक्का भासगाहा अस्थि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * मुलगाहाए विदियपदमणुभागग्गेणेत्ति । एत्थ एका भासगाहा । ६२३७. 'अणुभागग्गेणेत्ति' जं मूलगाहाए विदियं बीजपदं संगहकिट्टीणमणुभागग्गेण होणाहियभावगवेसण?मोइण्णं तस्स विहासण?मेत्थ एक्का भासगाहा होदि । तिस्से समुक्कित्तणमिदाणि कस्सामो त्ति भणिवं होदि । * तं जहा। ६२३८. सुगमं। (१३२) पढमा च अणंतगुणा विदियादो णियममा दु अणुभागो। तदियादो पुण विदिया कमेण सेसा गुणेणहिया ॥ १७५ ॥ इसी प्रकार माया संज्वलनकी आदि वर्गणामेंसे मायासंज्वलनके उत्तर पद अर्थात् अन्तिम वर्गणाको घटावे। इस प्रकार घटानेपर जो अनन्तवा भाग शेष रहता है उतना उसकी वादि वर्गणामें शुद्ध शेषका प्रमाण होता है। तथा इसी प्रकार लोभसंज्वलनकी आदि वगंणामेंसे लोभ संज्वलनके उत्तरपद अर्थात अन्तिम वर्गणाको घटावे। इस प्रकार घटानेपर जो अनन्तवा भाग शेष रहता है उतना उसको आदि.वर्गणामें शुद्ध शेषका प्रमाण होता है। ६२३६. ये सूत्र सुगम हैं, इसलिए यहापर कुछ व्याख्यातव्य नहीं है, क्योंकि जिनका ज्ञान करा दिया गया है उनका पूनः ज्ञान कराने में फलका अभाव है। इस प्रकार इन पांच भाष्यगाथाओंकी विभाषा करनेपर मूलगाथाके 'किट्टी च पदेसग्गेण' इस चरण का प्रथम अर्थ समाप्त होता है। अब मूलगाथाके 'अणुभागग्गेण' इस दूसरे पदका अवलम्बन लेकर दूसरे अर्थको विभाषा करते हुए उस अर्थमें प्रतिबद्ध एक भाष्यगाथा है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगे के सूत्रको कहते हैं * मूलगाथाका जो दूसरा पद 'अणुभागग्गेण' है उसमें एक भाष्यगाथा आयी है। .. ६२३७. मूलगाथाका जो 'अणुभागग्गेण' दूसरा बीजपद है वह संग्रह कृष्टियोंके अनुभागपुंजको अपेक्षा होनाधिक भावकी गवेषणा करने के लिए अवतीर्ण हुआ है। उसकी विभाषा करने के लिए प्रकृतमें एक भाष्यगाथा है। प्रकृतमें उसको समुत्कीर्तना करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * वह जैसे। ६२३८. यह सूत्र सुगम है। . (१२२ ) क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रथम संग्रह कृष्टि अनुभागपुंजकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणी अधिक है। पुतः तीसरी संग्रहकृष्टि से दूसरी संग्रहकृष्टि अनुभागपुंजको अपेक्षा अनन्नगुणी है। इसी प्रकार मान, माया और लोभ संज्वलनको तोनों संग्रह कृष्टियां तीसरीसे दूसरी और दूसरोसे पहली क्रमसे अनन्तगुणी अधिक हैं। १२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे $ २३९. कोहसंजलणस्स पढमसंगह किट्टी तस्सेव विवियानो संगह किट्टीयो णिच्छ एणेव अणुभागग्गेण अनंतगुणा होदि ति गाहापुग्वद्धे सुत्तत्यसमुच्चओ । 'तवियादो पुण विविया' एवं भणिदे कोहसंजणस्स तदियसंगह किट्टीदो विदियसंगह किट्टी अणुभागग्गेण णियमा अनंतगुणा agar त्ति भणिदं होदि । एदस्स भावत्थो - कोधवेदगत दियसंगह किट्टीए सव्वा विभागपडिच्छेपुंजादो विदियसंगह किट्टीए सम्वाविभागपडिच्छेद पुंजो अनंतगुणो । तत्तो पुण पढमसंगह किट्टी ए सवा विभागपडिच्छेदपुंजो अनंतगुणो । गुणगारो अभवसिद्धिएहितो अनंतगुणमेत्तो, सत्यागपरत्थाणेसु अविभागपरिच्छेदगुणगाराणं तहाभावसिद्धीए बाहाणुवलंभादो त्ति । $ २४०. 'कमेण सेसा गुणेणहिया' एवं भणिवे माण- माया लोभाणं पि तिष्णि संगह किट्टीओ पण तसिंग हट्टिमादि काढूण जहाकममणंतगुणस हवेण अहिया होंति त्ति भणिदं होदि । एवमेदेण गाहासुतेण कोह- माण- माया - लोभाणमप्पप्पणो तिरहं संगह किट्टीणमप्पाबहुअं उवहट्ठ age | एदम्हादो चैव परस्याणप्पाबहुअ मंतर किट्टी अप्पा बहुअं किट्टोअंतर प्याबहुअं च सूचिदमिदि गवं । संपहि एवं विमेदिस्से गाहाए अत्थे विहासमाणो चुण्णिसुत्तयारो विहासागंथमुत्तरमाढवेइ * विहासा । २४१. सुगमं । * संगहकिट्ट पहुच कोहस्स तदियाए संगह किट्टीए अणुभागो थोवो । $ २३९. क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टि उसीकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे अनुभागपिडकी अपेक्षा निश्चयसे ही अनन्तगुणी होती है यह इस भाष्यगाथाके पूर्वार्ध में सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । 'तदिया दो पुण विदिया' ऐसा कहनेपर क्रोधसंज्वलनको तीसरी संग्रहकृष्टिसे दूसरी संग्रहकृष्टि अनुभागपिण्डकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणो जाननी चाहिए यह उक्त कथनका ताल है । इसका भावार्थ - क्रोधवेदक के तीसरी संग्रह कृष्टिके समस्त अविभागप्रतिच्छेदपुंजसे दूसरी संग्रह - कृष्टिका समस्त विभाग प्रतिच्छेदपुंज अनन्तगुणा है । पुनः उससे प्रथम संग्रह कृष्टिका अविभागप्रतिच्छेदपुंज अनन्तगुणा है । गुणकार अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि स्वस्थान और परस्थानमें अविभागप्रतिच्छेदके गुणकारकी उसरूपसे सिद्धि होने में बाधा नहीं पायी जाती । २४०. 'कमेण सेसा गुणेणहिया' ऐसा कहनेपर मान, माया और लोभसंज्वलन प्रत्येककी ये तीनों ही संग्रह कृष्टियां अपनी-अपनी तीसरी संग्रह कृष्टिसे लेकर दूसरी ओर दूमरीसे पहली संग्रह कृष्टियाँ क्रमसे अनन्तगुणस्वरूपसे अधिक अधिक होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इस गाथा सूत्र द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी अपनी-अपनी तीनों संग्रह कृष्टियोंका अल्पबहुत्व कहा हुआ जानना चाहिए। तथा इसी भाष्यगाथासे ही परस्थान अल्पबहुत्व, अन्तरकृष्टि अल्पबहुत्व और कृष्टि अन्तर अल्पबहुत्व सूचित किया गया है ऐसा जानना चाहिए। अब इस प्रकार इस गाथाके अर्थकी विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगे के विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ २४१. यह सूत्र सुगम है । * संग्रहकृष्टिको अपेक्षा क्रोधसंज्वलनकी तीसरी संग्रह कृष्टिका अनुभाग सबसे स्तोक है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूरगाहाए विदियत्थे एक्का भासगाहा $ २४२. एत्थ 'संगहकिट्टि पडुच्चेत्ति' गिद्देसो संगहकिट्टीओ अस्सियूण एदमप्पाबहुरं परूविज्जदि ति पदुप्पायणफलो। 'तदियाए संगहकिट्टीए' ति वुत्तै कारगपढमसंगहकिट्टीए गहणं कायव्वं । सेसं सुगमं। * विदियाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो । २४३. सुगमं। * पढमाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो । ६२४४. सुगममेदं पि । गवरि उहयत्य वि गुणगारमभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तमिवि घेत्तव्वं । कुदो एवं गन्धवे ? सुत्ताविरुद्धपरमगुरूवएसादो। * एवं माण-माया-लोमाणं पि । ६ २४५. जहा कोहसंजलस्स तिहं संगहकिट्टिणं सत्याणप्पाबहुममेदं परूविवं तहा चेव माण-माया-लोभसंजलणाणं पिवत्तव्वं, विसेसाभावादो ति। संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदो परत्था. गप्पाबहुआलावो सुगमो। अंतरकिट्टीणं किट्टीसंतराणं च अप्पाबहुअं पुव्वमेव पवंचिदमिवि ण पुणो तप्पवंचो कोरवे, जाणिवजाणावणे फलाणुवलंभावो । एवमेवीए परूवणाए समत्ताए तदो मूलगाहाए विविओ अत्थो समत्तो। ६२४२. इस सूत्रमें 'संगहकिट्टि पडुच्च' यह निर्देश संग्रह कृष्टियोंका आलम्बन लेकर इस अल्पबहुत्वको कहते हैं यह इस कथनका फल है। 'तदियाए संगहकिट्टीए' ऐसा कहनेपर कृष्टिकारकको प्रथम संग्रहकृष्टिका ग्रहण करना चाहिए । शेष कथन सुगम है। * उससे दूसरो संग्रह कृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। ६२४३. यह सूत्र सुगम है। * उससे प्रथम संग्रहकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। ६२४४. यह सूत्र भी सुगम है। इतनी विशेषता है कि दोनों ही स्थलोंपर गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण ग्रहण करना चाहिए। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्र के अविरुद्ध परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। * इसी प्रकार मान, माया और लोभ संज्वलनके अनुभाग-सम्बन्धी अल्पबहत्वका कथन करना चाहिए। ६२४५. जिस प्रकार क्रोष संज्वलनको तीनों संग्रह कृष्टियोंका यह स्वस्थान अल्पबहुत्व कहा उसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनोंका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अब इस सूत्र द्वारा सूचित किये गये परस्थान अल्पबहुत्वका आलाप सुगम है तथा अन्तरकृष्टियों और कृष्टिअन्तरोंके अल्पबहुत्वका पहले ही विस्तारसे कथन कर आये हैं, इसलिए पुनः उनका विस्तारसे कथन नहीं करते, क्योंकि जिनका पूर्वमें ज्ञान करा दिया है उनका पुनः ज्ञान करानेमें कोई फल नहीं पाया जाता। इस प्रकार इतनी प्ररूपणाके समाप्त होने के पश्चात् मूलगायाका दूसरा अर्थ समाप्त होता है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5२४६. संपहि मूलगाहाए तदियावयवमस्सियूण तत्थ पडिबद्धस्स तदियस्स अत्थस्स विहासणं कुणमाणो उवरिमसुत्तपबंधमाढवेइ * मूलगाहाए तदियपदं 'का च कालेणेत्ति । ६२४७. जं मूलगाहाए तदियमत्थपदं तस्सेदाणिमत्थविहासणं कस्सापो त्ति वुत्तं होइ। संपहि एत्थ पडिबद्धाणं भासगाहाणं पमाणावहारण?मुत्तरसुत्तमाह * एत्थ छन्भासगाहाओ। 5२४८. एवम्हि पदे पडिबद्धस्स अत्थस्स विहासण?मेत्थ छडभासगाहाओ णादवाओ त्ति भणिदं होइ। जइ एवं, णाढवेयव्वमिदं सुत्तं, पुव्वमेव तत्थ छण्हं भासगाहाणमत्यित्तस्स परूवि. दत्तादो ? ण एस दोसो, तासिमेण्हि विहासणटुं पुव्वुत्तस्सेवत्थस्स संभालणे दोसाभावादो। संपहि बहाकममेव तासि समुक्कित्तणं विहासणं च कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाह विशेषार्थ-प्रकृतमें क्रोधसंज्वलनको तीनों संग्रह कृष्टियोंका अनुभागको अपेक्षा स्वस्थान अल्पबहुत्व कहा है। उसके क्रमका निर्देश मूल में किया ही है। तथा मान, माया और लोभसंज्वलनमेंसे प्रत्येकको तीनों संग्रहकृष्टियोके अनुभागसम्बन्धी स्वस्थान अल्पबहुत्वको इसी प्रकार जाननेको सूचना को है । यद्यपि यहाँपर परस्थान अल्पबहुत्वका निर्देश नहीं किया है फिर भी उसे उसी प्रकारसे जान लेना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्वमें गुणकारका प्रमाण अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धांके अनन्तवें भागप्रमाण होता है वैसे ही परस्थान अल्पबहुत्व में भी सामान्यरूपसे गुणकारका यही प्रमाण जानना चाहिए। अन्तरकृष्टियों के मध्य एक अन्तरकृष्टिसे दूसरी अन्तरकृष्टि कितनी बड़ी या छोटी है तथा अन्तरकृष्टियोंके मध्य परस्पर जो अन्तराल है वह कितना है इसको प्राप्त करने के लिए भो गुणकारका सामान्यरूपसे यही प्रमाण जानना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है। २४६. अब मूलगाथाके तीसरे अवयवका आलम्बन लेकर उसमें प्रतिबद्ध तीसरे अर्थको विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रवन्धका आरम्भ करते हैं * मूलगाथाका तीसरा पद है-'का च कालेण'। ६२४७. जो मूलगाथाका तीसरा अर्थपद है उसकी इस समय अर्थसम्बन्धी विभाषा करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस अर्थमें प्रतिबद्ध भाष्यगाथाओंके प्रमाणका अवधारण करने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस अर्थमें छह भाष्यगाथाएं हैं। ६२४८. इस पदमें प्रतिबद्ध अर्थको विभाषा करनेके लिए प्रकृतमें छह भाष्यगाथाएं जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यदि ऐसा है तो इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके पूर्व ही इस अर्थमें छह भाष्यगाथाओंका अस्तित्व कह आये हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उनकी यहाँपर विभाषा करनेके लिए पूर्वोक्त अर्थकी सम्हाल की गयी है, इसलिए कोई दोष नहीं है। अब क्रमसे ही उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे पढममासगाहा * तासिं समुकित्तणा चे विहासा च । 5२४९. सुगमं। (१३३) पढमसमयकिट्टीणं कालो वस्सं व दो व चत्तारि । __ अट्ट च वस्साणि द्विदी विदियट्टिदीए समा होदि ॥१७६।। ६२५०. एसा पढमभासगाहा किट्टीवेदगस्स पढमसमए मोहणीयस्स टिदिसंतकम्मपमाणावहारण?मोइण्णा। संपहि एदस्स गाहासुत्तस्सत्थो वुच्चदे। तं तहा-'पढमसमए किट्टीणं कालो' एवं भाणदे किट्टीकारगपढमसमयं मोत्तण किट्टीवेदगपढमसमए एसो कालणिद्देसो कीरदि त्ति घेत्तम्वं'। सुत्ते तहाणि देसाभावे कथमेसो विसेसो लब्भदि त्ति णासंकणिज्जं, वक्खाणादो तहाविहविसेसपडिवत्तिसिद्धीदो। अण्णं च किट्टीणं कालपमाणमेत्थ परुवेदुमाढत्तं । ण च किट्टीकारगस्स पढमसमए परूविज्जमाणं दिविसंतकम्मपमाणं किट्टीणं कालो ति वोत्तुं सक्किज्जदे, किट्टीफद्दयसाहारणस्स तस्स किट्टीणं घेव कालो त्ति वोत्तुमसक्कियत्तायो । तम्हा विणद्वेसु वि फद्दएसु किट्टीओ वेव सुद्धाओ परेदूण द्विवस्स पढमसमय किट्टिवेदगस्स तववत्थाए पढमसमयकिट्टीओ णाम भणंति । तासि पढमसमयकिट्टीणं कालो किंपमाणो त्ति आसंकिय 'वस्सं व दो व चत्तारि अट्ठ य वस्साणि टिवी' त्ति तस्स पमाणणिद्देसो कदो। एगवस्सपमाणो दोवस्सपमाणो चत्तारिवस्सपमाणो अटुवस्सपमाणो च तासि ट्ठिदिकालो होदि त्ति वुत्तं होदि। * अब उन भाष्यगाथाओंकी समुत्कीतना और विभाषा करते हैं। ६२४९. यह सूत्र सुगम है। (१३३) कृष्टियोंके वेदन करनेके प्रथम समयमें द्वितीय स्थितिके साथ प्रथम स्थितिका काल एक वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष या आठ वर्षप्रमाण होता है। ६२५०. यह प्रथम भाष्यगाथा कृष्टि वेदकके प्रथम समयमें मोहनीयकर्मके स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करने के लिए अवतीर्ण हुई है। अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जेसे-प्रथम समयमें कृष्टियोंका काल ऐसा कहनेपर कृष्टिकारकके प्रथम समयको छोड़कर कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें इस कालका निर्देश करते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शंका-सूत्रमें उस प्रकारके निर्देशके अभावमें यह विशेष कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-ऐसो आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकारके विशेषकी प्रतिपत्ति सिद्ध है। दूसरी बात यह है कि कृष्टियोंके कालका प्रमाण यहाँपर कहने के लिए आरम्भ किया है। कृष्टिकारकके प्रथम समयमें कहे जानेवाले स्थितिसत्कर्मके प्रमाणको कृष्टियोंका काल कहना शक्य नहीं है, क्योंकि जो काल कृष्टियों और स्पर्धकोंमें साधारणरूपसे अवस्थित है उसे मात्र कृष्टियोंका काल कहना अशक्य है। इसलिए स्पर्धकोंके विनष्ट हो जानेपर भी शुद्ध ( केवल ) कृष्टियोंका ही आश्रय लेकर जो प्रथम समयवर्ती कृष्टियोंका वेदन करनेवाला जीव त है उस प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके उसकी उस अवस्था में प्रथम समयवर्ती कृष्टियां कहलाती हैं। प्रथम समयमें स्थित उन कृष्टियोंके कालका क्या प्रमाण है ऐसी आशंका करके 'वस्सं व दो व चत्तारि अट्ट य वस्साणि टुिदी' अर्थात् उनकी स्थिति एक वर्ष है, दो वर्ष है, चार वर्ष है और आठ वर्ष है-इस प्रकार उस कालका निर्देश किया है। एक वर्षप्रमाण, दो वर्षप्रमाण, चार वर्षप्रमाण और आठ वर्षप्रमाण उन कृष्टियोंका स्थितिकाल है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। १. आ. प्रत्तो वक्तव्यं इति पाठः। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5 २५१. तत्थ लोभोदएण चडिदस्स सेससंजलणेसु फद्दयसरूवेण विणद्वेसु संतेसु लोभसंजलणस्स किट्टीवेदगभावपढमसमए वट्टमाणस्स लोभसंजलणकिट्टीणं टिविसंतकम्मपमाणमेगवस्समेत्तं होदि । मायोदएण चडिवस्स माया-लोभकिट्टीणं टिदिसंतकम्मं वेवस्सपमाणं होदि । माणोदएण चडिवस्स माण-माया-लोभसंजलणाणं किट्टीविसेसिटिदिसंतकम्मं चत्तारिवस्सपमाणं होदि । कोहोदएण चडिदस्स चउण्हं संजलणाणं टिदिसंतकम्मं पढमसमयकिट्टीविसेसिदमटुवस्सपमाणं होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो। 'विदियट्टिवीए समा होदि' ति एवं भणिदे विदियट्टिदीए सह पढमट्टिदि घेतूण एसो अणंतरो कालपमाणणिद्देसो कदो। ण केवलं विदियट्टिदीए चेवेत्ति वुत्तं होइ, पढम-विदियट्टिदोओ अंतरट्टिवीओ च घेत्तूण णिरुद्धसमयविसयटिविसंतकम्मस्स तप्पमाणत्तदसणादो। 5 २५२. संपहि एक्स्सेवत्थस्स फुडोकरणटुमुवरिमं विहासागंथमोदारइस्सामो* विहासा। 5२५३. सुगमं। .६ २५१. लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके शेष संज्वलनोंके स्पर्धकरूपसे नष्ट हो जानेपर लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंके वेदकभावके प्रथम समयमें विद्यमान हुए जीवके लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंके स्थितिसत्कर्मका प्रमाण एक वर्ष मात्र होता है । मायासंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके माया और लोभ संज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंका स्थितिसत्कर्म दो वर्ष प्रमाण होता है। मानसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवके मान, माया और लोभसंज्वलनोंका कृष्टिसम्बन्धी स्थितिसत्कर्म चार वर्ष प्रमाण होता है। तथा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़े हुए जीवके चारों संज्वानोंका प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्कर्मका काल आठ वर्षप्रमाण होता है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। 'विदियट्टिदोए समा होदि' इस प्रकार कहनेपर द्वितीय स्थितिके साथ प्रथम स्थितिको ग्रहण करके यह अनन्तर पूर्वकालका निर्देश किया है । यह केवल द्वितीय स्थितिका काल नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है क्योंकि प्रथम स्थिति, द्वितीय स्थिति और अन्तर कृष्टियोंको ग्रहण कर विवक्षित समयको विषय करनेवाला स्थितिसत्कर्म तत्प्रमाण देखा जाता है। विशेषार्थ-लोभसंज्वलनके उदयसे जो जोव क्षपकोणिपर चढ़ता है वह मात्र लोभसंज्वलनसम्वन्धी तीनों संग्रह कृष्टियोंका कारक होता है। इसी प्रकार मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला जीव माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी छह कृष्टियोंका कारक होता है। मानसंचलनके उदयसे क्षपकोणिपर चढ़नेवाला जोव मान, माया और लोभसम्बन्धी नो संग्रह कृष्टियोंका कारक होता है तथा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिषर चढ़नेवाला जीव चारों संज्वलनासम्बन्धी बारह कृष्टियोंका कारक होता है। साथ ही ऐसा भी नियम है कि जब यह जोव उक्त कृष्टियोंका कारक होता है उस समय उसके विवक्षित कृष्टिगत स्थितिसत्कर्मके साथ स्पर्धकगत स्थितिसत्कर्म भी पाया जाता है और प्रकृतमें कृष्टिगत स्थितिसत्कर्मका ही काल कहा जा रहा है, इसलिए इसे कृष्टियोंके उदयके प्रथम समयका ही जानना चाहिए। शेष कथन स्पष्ट ६२५२. अब इसी अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं* अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६२५३. यह सूत्र सुगम है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे पढमभासगाहा * जदि कोघेण उवविदो किट्टीओ वेदेदि तदो तस्स पढमसमए वेदगस्स मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्ममट्ठवस्साणि ।। ६२५४. कोहोदएण खवगसेढिमुवट्टिदस्स पढमसमयकिट्टीवेदगावत्थाए वट्टमाणस्स मोहणीयटिविसंतकम्मपमाणमटुवस्समेत्तं होदि त्ति सुत्तत्थसंगहो। एसो कालणिद्देसो चदुण्हं पि संजलणाणं सव्वासिमेव संगहकिट्टीणं पढम-विदियट्टिदीओ संपिडियूण अवस्समेत्तो ति गहेयम्वो। होउ णाम कोहसंजलणपढमसंगहकिट्टीए एसो कालणिद्देसो, वेदिज्जमाणाए तिस्से पढमट्टिदिसंभवेण पढमविदियटिदिसमूहारद्धस्स दिविसंतस्स तत्थ तप्पमाणत्तोवलंभावो। ण सेसाणं संगहकिट्टोणं, तासि पढमटिदिसंभवाभावेण अंतोमुहत्तूणटुवस्समेत्तविदियट्रिदीए चेव गहणे कोरमाणे संपुण्ण?वस्समेत्तट्टिदिसंतकम्मपमाणाणुवलंभावो त्ति ? ण एस दोसो; वेदिज्जमाणकोहसंजलणपढमसंगहकिट्टीए पढमद्विविपढमसमए वट्टमाणस्स सेससंगहकिट्टीणं पि तत्तो पहुडि जाव विवियढिविचरिमसमयो ति संपुण्णटुवस्समेत्तटिविसंतकम्मसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो। ण च णिसेगसुण्णाणमंतरदिदीणमेत्य द्विवित्तासंभवो, कालपहाणत्तावलंवणे तासि पि तदंतभाववंसणावो। * यदि क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकणिपर चढ़कर कृष्टियोंका वेदन करता है तब प्रथम समय में वेदन करनेवाले उसके मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म आठ वर्षप्रमाण होता है। ६२५४. क्रोधके उदयसे जो क्षपकश्रेणि पर आरोहण करता है प्रथम समयमें कृष्टियोंका वेदन करनेवाले उस जीवके विद्यमान मोहनीयकर्मके स्थितिसत्कर्मका प्रमाण आठ वर्षमात्र होता है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । यह कालका निर्देश चारों ही संज्वलनासम्बन्धी सभी संग्रहकृष्टियोंको प्रथम और द्वितीय स्थितिको मिलाकर आठ वर्षप्रमाण होता है ऐसा यहाँ प्रहण करना चाहिए। शंका-क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका यह कालनिर्देश भले ही होवे, क्योंकि वेद्यमान उसकी प्रथम स्थिति सम्भव होनेसे प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिके समूहसे आरम्भ किये गये स्थितिसत्कर्मको वहाँपर तत्प्रमाण स्थिति उपलब्ध होती है, शेष संग्रह कृष्टियोंकी यह स्थिति नहीं हो सकती, क्योंकि उनको प्रथम स्थिति सम्भव नहीं होनेसे अन्तर्मुसूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण द्वित्तीय स्थितिके ही ग्रहण करनेपर उनकी सम्पूर्ण आठ वर्षप्रमाणमात्र स्थितिसत्कर्मका प्रमाण नहीं उपलब्ध होता? . समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनकी वेद्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थितिके प्रथम समयमें विद्यमान हुए जीवके शेष संग्रह कृष्टियोंकी भी उस समयसे लेकर द्वितीय स्थितिसत्कर्मके अन्तिम समयतक सम्पूर्ण आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मको सिद्धि बिना बाधाके पाई जाती है। और निषेकोंसे शून्य अन्तर स्थितियोंका स्थितिपना यहाँपर असम्भव नहीं है, क्योंकि कालकी प्रधानताका अवलम्बन करनेपर निषेकोंसे शून्य अन्तर स्थितियोंका भी उस काल में अन्तर्भाव देखा जाता है। विशेषार्थ-ऐसा नियम है कि जिस समय जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस समय उस संग्रह कृष्टिको प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, शेष संग्रह कृष्टियोंको प्रथम स्थिति नहीं होता। अतः यहाँ शंकाकारका यह कहना है कि जिस समय यह जीव क्रोष संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन प्रारम्भ करता है उस समय शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी प्रथम स्थिति न होनेसे उनका स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्तकम आठ वर्षप्रमाण कहना चाहिए। इसका समाधान यह है कि यहाँपर कालप्रधान स्थितिसत्कर्मका निर्देश किया गया है, निषेकप्रधान स्थिति Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे २५५. जदिवि सुत्तें दव्वद्वियणयमस्सियूण 'मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्' इदि सामण्णणिसो कदो तो वि चण्हं संजलणाणं संगहकिट्टीभेदेण पादेवकं तिधाविभिण्णाणमेसो कालणिद्दे सो जोजेयव्वो, सामण्णणिद्देसेण सव्वेसिमेव विसेसाणं संगहेविरोहादो । 'संगृहीताशेषविशेषलक्षणं सामान्यं' इति वचनात् । * माणेण उवदिस्स पढमसमय किट्टीवेदगस्स ट्ठिदिसंत कम्मं चत्तारि वस्साणि । ९६ $ २५६. कोहेण उवद्विदो जम्हि उद्देसे कोहकिट्टिओ वेदेदि तम्हि उद्देसे माणोदयवखवगो तिन्हं संजलणाणं किट्टीकारगो होतॄण पुणो कोहोदयक्खवगो जम्हि उद्देसे माणकिट्टीओ वेदेदुमाढवेदितहि चेव उद्देसे पढमसमय किट्टी वेदगो होदि । तत्थ द्विदिसंतकम्मपमाणं तिन्हं संजलगाणं संपुष्णचत्तारिवसमेतं होइ त्ति सुत्तत्थसंगहो । * मायाए उवदिस्स पढमसमय किडीवेदगस्स वेवस्साणि मोहणीयस्स द्विदितम् । सत्कर्मका निर्देश नहीं किया गया है, अतः द्वितीय स्थितिके कालमें अन्तर स्थितियोंका काल सम्मिलित हो जाने से शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके स्थितिसत्कर्मका काल भी पूरा आठ वर्षप्रमाण बन जाता है । यहाँ यह शंका निषेकस्थितिको ध्यान में रखकर की गई है। कारण कि प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन प्रारम्भ करते समय शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके अन्तरायामप्रमाण निषेक नहीं होते, इसलिए शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंको आठ वर्षप्रमाण स्थिति मेंसे अन्त मुंहर्तप्रमाण स्थिति कम हो जानी चाहिए। यह शंकाकारका कहना है, किन्तु सभी संग्रह कृष्टियोंके द्वितीय स्थितिसम्बन्धी जो उपरितन निषेक हैं वे कितने काल प्रमाण स्थितिको लिये हुए है इसका यदि विचार किया जाता तो क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टिके उदयके प्रथम समय में वह उनका स्थितिकाल पूरे आठ वर्षं प्रमाण प्राप्त होता है, कारण कि अन्तरायामका अन्तर्मुहूर्त काल उसमें सम्मि लित है ही । इसलिए यहाँ सभी संग्रह कृष्टियोंका का पूरा आठ वर्षप्रमाण कहा है। $ २५५. यद्यपि सूत्र में द्रव्यार्थिकनयका आलम्बन लेकर 'मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म' ऐसा सामान्य निर्देश किया है तो भी चार संज्वलनों सम्बन्धी संग्रह कृष्टियोंके भेदसे प्रत्येक तीन भेदों को प्राप्त हुई संग्रह कृष्टियोंका यह काल निर्देश योजित करना चाहिए, क्योंकि सामान्य निर्देश करने से सभी विशेषोंका संग्रह हो जाता है इसमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि जिसमें अशेष विशेषों का संग्रह होता है वह सामान्यका लक्षण है ऐसा वचन है । * मानसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए कृष्टिवेदक जीवके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म चार वर्षप्रमाण होता है । $ २५६. क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हम जीव जिस स्थानपर क्रोधसम्बन्धी कृष्टियों का वेदन करता है उस स्थानपर मानसंज्वलन के उदयवाला क्षपक जीव मानादि तीन संज्वलनोंकी कृष्टियोंको करनेवाला होकर पुनः क्रोधसंज्वलन के उदयवाला क्षपक जीव जिस स्थानपर मानसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंके वेदनका आरम्भ करता है उसी स्थानपर यह जीव प्रथम समयवर्ती मानकृष्टिका वेदक होता है। इस प्रकार वहाँपर तीनों संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्मका प्रमाण पूरा चार वर्षं प्रमाण होता है । * मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए प्रथम समयवर्ती कृष्टि वेदकके मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म दो वर्षप्रमाण होता है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे पढमभासगाहा ६ २५७. कोहेण उवद्विदो जम्हि उद्देसे माणकिट्टोओ वेदेदि तम्हि मायोदयवखवगो दोन्हं संजणाणं किट्टीकारगो होदूण पुणो कोथोदयक्वत्रगस्स मायावेदग पढनसमये चैव मायाकिट्टीओ ओडियण पढसमय किट्टोवेदगो होदि । तत्थ दोन्हं संजलणाणं द्विदिसंतकम्मपमाणं संपुण्गदोवस्समेत्तं होइ त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ । * लोभेण उवदिस्स पढमसमय किडीवेदगस्स मोहणीयस्प डिदिसंतकम्ममेक वस्सं । $ २५८. कोहेण उवट्टिदो जम्हि उद्देसे मायाकिट्टीओ वेदेदि तम्हि उद्देसे लोभोदयraant लोभसंजणस्स तिष्णि संगह किट्टीओ काढूण पुणो कोहोदयक्खवगस्स लोभकिट्टी वेदगावत्थाए चैव लोभfट्टीओ ओकडेमाणो पढमसमय किट्टोवेदगभावेण परिणमइ । ९७ $ २५७. क्रोध संज्वलनकें उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ जीव जिस स्थानपर मानसंज्वलनकी कृष्टियों का वेदन करता है उस स्थानपर मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिवर आरूढ़ हुआ जीव मायादि दो संज्वलनोंका कृष्टिकारक होकर पुनः क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ क्षपक जीव मायासंज्वलनके वेदन करनेके प्रथम समय में हो मायासंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंका अपकर्षण करके प्रथम समयवर्ती मायाकृष्टिका वेदक होता है। वहांपर दोनों संज्वलनोंके स्थितिसत्कर्मका प्रमाण पूरा दो वर्षमात्र होता है । यह यहाँपर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । विशेषार्थ - क्रोध या मानसंज्वलन के उदयमे क्षपकश्रेणिवर आरूढ़ हुआ जीव जिस स्थानपर मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके उसका प्रथम समय में वेदक होता है, मायासंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव भी उसी स्थानपर मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके उसका प्रथम समय में वेदक होता है इस तथ्यको ध्यान में रखकर हो चूर्णिसूत्र के साथ उसकी टीकाकी संगति बिठा लेनी चाहिए, क्योंकि चाहे क्रोध के उदयसे श्रेणिपर चढ़े, चाहे मानके उदयसे श्रेणिपर चढ़े और चाहे मायाके उदयसे श्रेणिपर चढ़े इन तीनोंके मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन एक ही कालमें प्राप्त होता है । * लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक के मोहनीयकर्मका स्थितिसत्क में एक वर्षप्रमाण होता है । § २५४. क्रोधसंज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरूढ़ हुआ जीव जिस स्थानपर मायाकृष्टियोंका वेदन करता है उस स्थानपर लोभसंज्वलन के उदयसे श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव लोभसंज्वलनकी तीन संग्रह कृष्टियों को करके पुनः क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव लोभसंज्वलन की कृष्टियों के वेदन करनेकी अवस्था में ही लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियों का अपकर्षण करते हुए प्रथम समय में कृष्टियोंके वेदकपनेसे परिणत होता है । विशेषार्थं - कोई जीव क्रोधसंज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है और कोई जव मान, माया और लोभसंज्वलनमें से किसी एकके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है । यहाँ यह बतलाया गया है कि कोई एक जीव क्रोधसंज्वलन के उदयसे श्रेणिपर चढ़ा है और कोई दूसरा जीव लोभसंज्वलन के उदयसे श्रेणिपर चढ़ा है । उनमें से पहला जीव जिस स्थानपर मायासंज्वलनकी संग्रह कृष्टियोंका अपकर्षण करके उसका वेदन करते हुए लोभसंज्वलनकी तोन संग्रह कृष्टियों का कारक होता हैं उसी स्थानपर लोभसंज्वलन से श्रेणपर चढ़ा हुआ जीव लोभसंज्वलनको तीन संग्रह कृष्टियों का कारक होता है । और इस प्रकार भले ही यहांपर क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी मुख्यता से कथन किया गया हो, फिर भी किसी भो कषायके उदयसे श्रेणिपर १३ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ २५९ तत्थ द्विदिसंतकम्मपमाणमेवं सुत्तुवइटुमवहारेयध्वं तदवत्थाएं संपुण्णे गवरसमेत्तद्विविसंतकम्मं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । एवं पढमभासगाहाए अत्यविहासा समत्ता । संपहि विदियभासगाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो तिस्से समुक्कित्तणट्ठमिदमाह - * एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ९८ ६२६०. सुगमं । (१३४) जं किट्टि वेदयदे जवमज्झं सांतरं दुसु द्विदीसु । पढमा जं गुणसेढी उत्तरसेढी य विदिया दु ॥ १७७॥ २६१. एसा विविधभासगाहा किट्टोवेदगस्स पढमविदियट्ठिदीसु पवेसग्गस्स समवद्वाणंमेवीए सेढोए होदि ति पप्पायणटुमागदा । ण च एवंविहो अत्थणिद्देसो मूलगाहाए णत्थि त्ति आसंणिज्जं, किट्टीणं कालपरूवणावसरे तव्विसेसिव पदेसग्गस्स वि पडवणाए दोसानुवलंभावो । संहि एविस्से विदियभासगाहाए अवयवत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा - अवेदिज्ज माणाणं संगहकिट्टीणं विदियट्ठिदीए चेत्र एयगोकुच्छायारेण समवद्वाणादो । तत्थ दिस्समानपदेसग्गस्स से ढपरूवणा. सुगमा । तदो जं किट्टि वेदयवे तिस्से पढम-विदियट्टि दिभेदसंभवादो तव्विसए पदेसरगस्स सेढिपवणं कसामो त्ति जाणावणहूं 'जं किट्टि वेदयदे' इदि पढमो सुतावयवो । तत्थ पदेसग्गस्स जव मज्झ सवेण समवाणं होदि, जाण्णहा त्ति जाणावणटुं 'जवमज्झं' - इदि सुत्तस्स विदियाचढ़ा हुआ जीव क्यों न हो उन सबके लोभसंज्वलनको संग्रह कृष्टियोंके वेदनका एक काल प्राप्त हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । $ २५९. वहां पर स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका सूत्रमें कहे गयेके अनुसार इस प्रकार अवधारण करना चाहिए, क्योंकि उस अवस्था में पूरे एक वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई । अब दूसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा करते हुए उसकी समुत्कीर्तना करने के लिए इस सूत्र को कहते हैं * यह दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना है । ६ २६०. यह सूत्र सुगम है । (१३४) यह क्षपक जीव जिस कृष्टिका वेदन करता है उसका सान्तर यवमध्य सहित दोनों स्थितियों में अवस्थान होता है। उनमेंसे जो प्रथम स्थिति है वह गुणश्रेणिरूप है । परन्तु द्वितीय स्थिति उत्तरश्रेणि अर्थात् हीयमान श्रेणिरूप है । $ २६१. कृष्टिवेदक के प्रथम और द्वितीय स्थिति में प्रदेशपुंजका अवस्थान इस श्रेणिरूप से होता है इस बातका कथन करनेके लिए यह दूसरी गाथा आयी है । और इस प्रकारके अर्थका निर्देश मूल गाथा में नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कृष्टियोंके कालसम्बन्धो प्ररूपणा के अवसरपर कृष्टियोंके कालसे युक्त प्रदेशपुंजकी भी प्ररूपणा कर आये हैं, इसलिए उक्त - कथन में कोई दोष नहीं है । अब इस दूसरी भाष्यगाथाके अवयत्रोंके अर्थकी प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे - अवेद्यमान संग्रह कृष्टियोंका द्वितीय स्थिति में हो एक गोपुच्छा के आकारसे अवस्थान होता है । इसलिए उनके दृश्यमान प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा सुगम है। इस कारण जिस कृष्टिका वेदन करता है उसकी प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति सम्भव होनेसे तद्विषयक प्रदेशपुंजकीणप्ररूपणा करेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'जं किट्टि वेदयदे' मूल गाथासूत्रका यह प्रथम अवयव कहा है । उस कृष्टिके प्रदेशपुंजका यवमध्यरूपसे अवस्थान होता है, अन्य प्रकारसे नहीं इस बातका ज्ञान करानेके लिए उक्त मूल गाथासूत्र के 'जवमज्झं' इस दूसरे अवयवका निर्देश Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे विदियभासगाहा वयवणिद्देसो। तं च जवमझं पढम-विदियट्टिवीसु वट्टमाणमंतरटिदीहिं अंतरिदत्तादो सांतरमिदि जाणावणटुं 'सांतरं दुसु दिदीसु' ति सुत्तस्स तवियावयवणिद्देसो। एदस्स भावत्थो २६२. पढमाटुदीए आदिमाढदिम्हि पदेसग्गं थोवं होदूण पुणो जहाकममसंखेज्जगुणाए सेढोए जाव पढमट्टिदिचरिमसमओ त्ति ताव वडिदूण तदो अंतरमुल्लंघियूण विदियट्टिवीए पढमणिसेयम्मि असंखेज्जगणवडीए सई वडिदण तत्तो परं सव्वत्थेव विसेसहाणीए गंतण परिसमप्पदि त्ति एदेण कारणेण दोसु टिदिविसेसेसु पदेसग्गस्साणंतरमेदं जवमझं होदि, अंतरस्स उभयपेरंतेसु थूलं होदूण दोसु द्विदिविसेसेसु जहाकमेण पदेसग्गस समयाविरोहेण परिहाणिदसणादो त्ति। ६२६३. संपहि एदस्सेव जवमज्झसण्णिवेसस्स फुडीकरणटुं गाहापच्छद्धणिद्देसो 'पढमा जं गुणसेढी' 'पढमाए' पढमट्टिदो 'ज' जम्हा 'गुणसेढो' गुणसेढिसरूवा होदूण चरिमट्टिदीए थूला जादा। 'उत्तरसेढी य विविया दु' विवियट्टिवीए जम्हा मूले थूला होदूण उत्तरसेढीए हीयमाणा गच्छवि, तम्हा बोण्हमेदेसि टिवीणं चरिम-पढमट्टिदीसु सांतरमेदं जवमझमवहारेयव्वमिवि वुत्तं होइ। किया है। और वह यवमध्य प्रथम और द्वितीय स्थितिमें विद्यमान होकर अन्तर स्थितियोंसे अन्तरित होकर अन्तर सहित होता है, इसलिए उसके अन्तर सहितपनेका ज्ञान करानेके लिए 'सांतरं दुसु ट्ठिदोसु' इस प्रकार गाथासूत्रके इस तीसरे अवयवका निर्देश किया है । इसका भावार्थ इस प्रकार है 5२६२. प्रथम स्थितिकी सबसे पहली स्थितिमें प्रदेशपुंज सबसे थोड़ा होकर पुनः जो क्रम है उसके अनुसार असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे प्रथम स्थितिके अन्तिम समय तक बढ़कर, पश्चात् अन्तरका उल्लंघन करके द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें एक बार असं श्रेणिरूपसे बढ़कर तत्पश्चात् आगे सभी स्थितियोंमें विशेष हानिरूपसे जाकर समाप्त होता है। इस कारण दो स्थितिविशेषोंमें प्रदेशपुंजका अनन्तर कहा गया यह यवमध्य होता है, क्योंकि अन्तरके उभय पर्यन्त भागोंमें यवमध्य स्थूल होकर दोनों स्थितिविशेषों में क्रमानुसार प्रदेशपुंजकी आगमके अविरोधपूर्वक हानि देखा जाती है। ६२६३. अब इसी यवमध्यकी रचनाको स्पष्ट करनेके लिए मूल गाथाके उत्तरार्धका निर्देश किया है-'पढमा जं गुणसेढी' इस सूत्रका अर्थ है 'पढभाप' का अर्थ है प्रथम स्थिति, 'ज' पदका अर्थ है जिसकी ओर 'गुणसेढो' पदका अर्थ है गुणश्रोणि अर्थात् प्रथम स्थिति गुणश्रेणिस्वरूप होकर अन्तिम स्थितिम स्थल हो गयी है। 'उत्तरसेढा य विदिया द' अर्थात द्वितीय स्थिति यतः मूलमें स्थूल होकर आगे श्रणिरूपसे हायमान होकर जाती है, इस कारण इन दोनों स्थितियोंकी अन्तिम और प्रथम स्थितिके मध्य सान्तर होकर यह यवमध्य जान लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-यहाँपर कृष्टियोंके वेदनकालके समय जिस समय जिस कृष्टिका वेदन करता है उस समय उसका प्रदेशविन्यास किस प्रकारका दिखाई देता है। इसी तथ्यका यहां स्पष्टीकरण किया गया है । ऐसा नियम है कि जिस कृष्टिका वेदन करता है उसकी अन्तर साहत प्रथम और द्वितीय स्थिति होती है । प्रथम स्थिति उदयरूप निषेकसे लेकर अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होता है। उसक बाद उस कृष्टिके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण निषेक अन्तररूप होते हैं। अर्थात् प्रथम स्थिातक अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण निषेकोंके ऊपर अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण निषेकोंका अभाव होता है। पुनः उसके बाद जितनी उस कृष्टिकी स्थिति हो वहाँ तक द्वितीय स्थितिके निषेक अवस्थित रहत हैं। यह तो स्थितिकी अपेक्षा विवक्षित कृष्टिके निषेकोंकी रचनाका क्रम है। अब विवक्षित कृष्टिके उदयके समय उस प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिमें स्थित प्रदेश पुंजकी रचना किस प्रकार दिखाई देतो Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६२६४. संपहि एदरसेवत्थस्स फुडीकरणटुमुवरिमं विहासागंथमोदारइस्सामो* विहासा। ६२६५. सुगमं। * जहा। ६२६६. सुगम। * जं किट्टि वेदयदे तिस्से उदयविदीए पदेसग्गं थोवं । विदियाए द्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणं जाव पढमद्विदीए चरिमद्विदि त्ति । ६२६७. कुदो एवं चे ? पढमट्टिबीए उदयादिगुणसेढीणिक्खेवं कादूण किट्टोओ वेदेमाणस तस्थ बिम्जमाण-विस्समाणपदेसग्गस्स संखेज्जगुणकमेणावट्ठाणं मोतूण पयारंतरासंभवावो। *सदो विदियद्विदीए जा आदिद्विदी तिस्से असंखेज्जगुणं ।। 5 २६८. किं कारणं? विवगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धेसु संखेज्जावलियाहि खंडिदेसु तत्थेयखंडमेत्तदध्वस्स विदियट्टिदीए आदिट्टिदिम्मि समुवलब्भमाणस्स पुविल्लगुणसेढिसीसयदव्वादो पलिदोवंमस्स असंखेज्जविभागपडिभागियादो असंखेज्जगुणत्तसिद्धीए परिप्फुडमुवलंभादो। है इसे स्पष्ट करते हुए वह यवमध्यके समान दिखाई देती है यह स्पष्ट किया है। यव बीचमें स्थूल होकर दोनों ओर घटता हुआ होता है ठीक इसी प्रकार वेद्यमान कृष्टि भी प्रदेशपुंजकी अपेक्षा प्रतीत होती है । शेष स्पष्टीकरण मूलमें किया हो है। ६२६४. अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थका अवतार करेंगे* अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६२६५. यह सूत्र सुगम है। जैसे। 5२६६. यह सूत्र सुगम है। * जिस कृष्टिका वेदन करता है उसको उदयस्थितिमें प्रदेशपुंज सबसे स्तोक होता है। उससे दूसरी स्थितिमें प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होता है। इस प्रकार प्रथम स्थितिसम्बन्धी अन्तिम स्थितिके प्राप्त होने तक प्रदेशपुंज उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा होता है। ६२६७. शंका-ऐसा किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि प्रथम स्थितिमें उदयादि गुणश्रेणिका निक्षेप करके कृष्टियोंका वेदन करनेवाले जीवके उसमें दिये जानेवाले और दिखनेवाले प्रदेशपुंजके संख्यातगुणे अवस्थानको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। * उससे द्वितीय स्थितिको जो प्रथम स्थिति है उसमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका अवस्थान होता है। ६२६८. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंके संख्यात आवलियोंसे भाजित करनेपर वहां एक भागप्रमाण लब्ध हुए द्रव्यका द्वितीय स्थितिको आदि स्थितिमें अवस्थान होता है, इसलिए पूर्वके गुणश्रेणिशीर्षसम्बन्धी द्रव्यसे यह पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागरूप असंख्यागुणा सिद्ध होकर स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए तदियमूलगाहाए तदियत्थे विदियभासगाहा १०१ * तदो सव्वत्थ विसेसहीणं । 5 २६९. तदो विदियट्टिदियपढमणिसेगादो उवरि सव्वत्थ जाव विदियविदिचरिमणिसेगो त्ति ताव एगेगगोवुच्छविसेसहाणीए दिस्समाणपदेसग्गस्सावट्ठाणं होइ, गाण्णहा त्ति भणिदं होदि । एवं चेव दिज्जमाणपदेसग्गस्स वि सेढिपरूवणा कायव्वा । णवरि विदिदिदीए विसेसहीणं० पदेसगं णिसिंचमाणो गच्छदि जाव समपाहियावलिय अपत्ता विदिदिदीए अग्गदिदि ति। तत्तो परमइच्छावणावलियम्भंतरे दिज्जमाणपदेसग्गस्स संभवाणुवलंभावो। ६२७०. जदो एवं पढमविवियट्टिदोसु पदेसग्गस्स कमवडिहाणीहि अवटाणणियमो तदो पढमविदियट्टिविविसए जवमज्झमेदं जादमिदि जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जवमझं पढमहिदीए चरिमहिदीए च विदियहिदीए आदिह्रिदीए च । * उस द्वितीय स्थितिकी प्रथम स्थितिसम्बन्धी द्रव्यसे आगे सर्वत्र प्रदेशपुंज उत्तरोत्तर विशेषहीन होता है। ६२६९. 'तदो' अर्थात् द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकसे ऊपर सर्वन द्वितीय स्थितिके अन्तिम निषेकके प्राप्त होने तक एक-एक गोपुच्छाविशेषकी हानि होनेसे उसरूप में दिखनेवाले प्रदेशपुंजका अवस्थान होता है, अन्य प्रकारसे नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। तथा इसी प्रकार दीयमान प्रदेशपुंजकी भी श्रेणिप्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि द्वितीय स्थितिमें विशेष हीन प्रदेशपुंजका सिंचन करता हुआ, द्वितीय स्थितिकी अग्र स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण निषेक शेष रहनेके पूर्व तक सिंचन करता है क्योंकि उससे आगे अतिस्थापनावलिके भीतर दीयमान प्रदेशजको सम्भावना नहीं पायो जाती। विशेषार्थ-यह प्रत्येक कृष्टिका वेदन करते समय उसमें दीयमान और दृश्यमान प्रदेशपंजको अपेक्षा किस प्रकार यवमध्य बनता है इसे स्पष्ट किया गया है। वेद्यमान कृष्टिको द्वितीय स्थितिमें स्थित जो अन्तिम निषेक है उसमेसे प्रत्येक समयमें अपकर्षणके योग्य प्रदेशजको अपेक्षा द्वितीय स्थितिमेसे एक समय कम किया गया है और उसके नीचे एक आवलिप्रमाण निषेकोको अतिस्थापनावलिमें रखा गया है। इस प्रकार एक स्थितिकाण्डकके पतन होनेतक अन्तिम निषेकमेंसे प्रतिसमय विवक्षित प्रदेशपुंजका अपकर्षण होनेपर उसका उदयनिषेकसे लेकर प्रथम और द्वितीय स्थितिमें उपरितन एक निषेक अधिक एक आवलिप्रमाण निषेकोंको छोड़कर अन्तरके अतिरिक्त शेष सत्त्वस्थितिके सब निषेकोंमें यथाविधि निक्षेप हाता है। यह अन्तिम निषेकमेंसे प्रदेशपंजके अपकर्षणकी अपेक्षा कथन किया है। इसी प्रकार उपान्त्य आदि निषेकको अपेक्षा भो अपकर्षणके नियमको ध्यान में रखकर कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता हैक विक्षित जिस निषेकमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण इष्ट हो उसे और उससे नाचे एक मावालप्रमाण निषेकों को छोड़कर शेष सत्त्वस्थितिमें अपकर्षित प्रदेशपुंजका निक्षेप होता है ऐसा यहां समझना चाहिए। २७०. यतः इस प्रकार प्रथम और द्वितीय स्थितिमें प्रदेशजके क्रमवृद्धि और क्रमहानिरूपसे अवस्थानका नियम है, अतः प्रथम और द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रदेशजमें यह यवमध्य घटित हो जाता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * प्रथम स्थितिको अन्तिम स्थितिमें और द्वितीय स्थितिको आवि स्थितिमें यह यवमध्य होता है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे $ २७१. किं कारणं ? एदेसु दोसु द्विदिविसेसेसु हेट्ठदो उवरिदो च पेक्खमाणे पदेसगास्स थूल भावेणावद्वाणदंसणा दो । संपहि एवस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवसंहारवक्कमाह * एदं तं जवमज्झं सांतरं दुसुट्ठिदीसु । ६ २७२. गाहासुत्तम्मि सांतरं दुसु द्विदीसु त्ति जं परूविदं जदमज्झं तमेदमवहारेयव्यमिदि वृत्तं होइ । १०२ ९ २७३. एवमेत्तिएण पबंधेण विदियभासगाहाए अत्यविहासणं समानिय संपहि तविय भासगाहाए जहावसरपत्तमत्यविहासणं कुणमाणो तदवसरकरणट्ठमुवरिमसुत्तमाह* एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । $ २७४. सुगमं । (१३५) विदियट्ठिदिआदिपदा सुद्धं पुण होदि उत्तरपदं तु । सेसो असंखेज्जदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ॥ १७८ ॥ २७५. एसा तदियभासगाहा विदियद्विदीए पदेसग्गस्स उत्तरसेढीए चिट्टमाणस्स परम्परोवणिघापरूवण मोइण्णा । तं जहा - 'विदियट्ठविआ विपदा' एवं भणिदे विदियट्ठिदिपढम $ २७१. शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि इन दोनों स्थितिविशेषोंको क्रमशः नीचेसे और ऊपरसे देखनेपर प्रदेश पुंजका स्थूलरूप से अवस्थान देखा जाता है । सब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए उपसंहारवाक्यको कहते हैं * वह यह यवमध्य दोनों स्थितियोंमें सान्तर होता है । १ २७२. गाथासूत्र में जो यबमध्य दोनों स्थितियों में सान्तर कहा है वह यह है ऐसा अवधारण करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है | विशेषार्थ — अन्तर के पूर्व प्रथम स्थिति में उदयादि गुणश्रेणिरूप निक्षेप होनेसे उसका अन्तिम निषेक नोचसे देखनेपर प्रदेशपुंजकी अपेक्षा स्थूल होता है । इसी प्रकार अन्तरके ऊपर द्वितीय स्थिति में प्रथम निषेक ऊपरसे दखनेपर यह भी प्रदेशपुंजको अपेक्षा स्थूल होता है । इस प्रकार दोनों ओरसे निषेक सन्निवेशके देखनेपर वह मध्यमें यवक मध्य भागके समान स्थूल दिखाई देता है, इसीलिए इसे यवमध्य शब्द द्वारा अभिहित किया गया है । $ २७३. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा द्वितीय भाष्यगाथाकी प्रर्थविभाषा करके अब तृतीय माष्यगाथाको अवसर प्राप्त अर्थविभाषा करते हुए उसका अवसर करनेके लिए आगे के सूत्र को कहते हैं * अब इससे आगे तीसरे भाष्यगाथा की समुत्कीर्तना करते हैं । ९ २७४. यह सूत्र सुगम है । (१३५) द्वितीय स्थिति के प्रमथ निषेकमेंसे अन्तिम निषेकको घटावें । ऐसा करनेपर द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकसम्बन्धी प्रवेशपुंजमें शुद्ध शेष असंख्यातवें भागप्रमाण होता है ॥ १७८ ॥ ६ २७५. यह तीसरी भाष्यगाथा द्वितीय स्थितिमें स्थित उत्तर श्रेणोसम्बन्धी प्रदेशपुंजकी परम्परोपनिषाकी प्ररूपणा के लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - विदियट्ठिदिआदिपदा' ऐसा कहने Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूलागाहाए तदियत्थे तदियउत्थभासगाहा १०३ णिसेगादो त्ति वुत्तं होदि । पडियतलोवं कादूण सुत्ते विवियदिदिआदिपदा ति णिविद्वत्तादो। 'सुद्धं पुण उत्तरपदं होदि त' तस्स उत्तरपदं णाम विदियट्रिदिचरिमणिसेगपदेसग्गमिदि घेत्तव्यं । तं सुद्धं सोधिदं कायध्वं । एवं सोहिदे 'सेसो असंखेज्जदिमो भागों' सुद्धसेसो 'तिस्से विदियट्रिदिपढमदिदीए पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागी होदि । विदियट्टि वीए आदि टिदिपदेसग्गमसंखेज्जे भागे कादूण तत्थेयखंडमेत्तमेव सुद्धसेसदव्वस्त पमाणमिदि वुत्तं होइ । कुदो एदमिदि चे ओइण्णद्वाणमेत्ताणं चेव गोवुच्छविसेसाणमेत्य समहियत्तसणादो। एवमेसा परंपरोवणिषा विदियट्टिदिपदेसग्गविसये परूविदा होदि। अणंत वणिधा वि एदेणेव सूचिदा त्ति घेतव्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो विहासागंयमुत्तरं भणइ * विहासा। 5२७६. सुगम। * विदियाए टिठदीए उक्कस्सियाए पदेसग्गं तिस्से चेव जहणियादो टिठदीदो सुद्धं सुद्धसेसं पलिदोवमस्स असंखेजदिमागपडिभागियं । 5२७७. एत्थ सुद्धसेसं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागियं इदि वुत्ते संखेज्जावलियोवट्टिदणिसेगभागहारेग विदियट्रिदिपढमगिसेगे खंडिदे तत्थेयखंडमेतं सुद्धसेसदव्वमिदि घेत्तव्दं । एदस्स भावत्यो-विदियट्रिदिआयामो जेण वासपुषत्तपमाणो तेण तत्थतणचरिमणिसेगपदेसग्गादो पर द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेक मेंसे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'पडियत' अर्थात् विभक्तिका लोप करके माथासुत्रमें 'विदियट्रिदिनादिपदा' इस प्रकार निर्देश किया है। 'सूद्ध पूण उत्तरपदं होदि' ऐसा कहनेपर उस द्वितीय स्थितिका 'उत्तरपद' अर्थात् द्वितीय स्थितिके अन्तिम निषेकका प्रदेशपंज ग्रहण करना चाहिए उसे शुद्ध अर्थात् शोधित करना चाहिए। इस प्रकार शोधित करनेपर 'सेसो असंखेज्जदिमो मागो' शुद्ध शेष 'तिस्से' द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रथम स्थितिके प्रदेशपुंजका असंख्याता भाग होता है। द्वितीय स्थितिसम्बन्धी आदि स्थितिके असंख्यात भाग करनेपर उनमें से एक भागमात्र ही शुद्ध शेष द्रव्यका प्रमाण होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह किस कारणसे प्राप्त होता है ? समाधान-क्योंकि गोपुच्छविशेषोंका यहाँपर अधिकपना देखा जाता है। इस प्रकार यह परम्परोपनिधा द्वितीय स्थितिके प्रदेशपुंजके विषयमें कही गयो है। अनन्तपरोपनिषा भी इसीसे सूचित की गयी है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थको विभाषा करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। 5२७६. यह सूत्र सुगम है। * द्वितीय स्थितिसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थितिके प्रदेशपुंजको उसीकी जघन्य स्थितिमेसे घटावे । घटानेपर शुद्ध शेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातर्वे भागका प्रतिभागी होता है। ६२७७. यहाँपर 'सुद्धसेस पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागपडिभागियं' ऐसा कहनेपर संख्यात आवलियोंसे भाजित निषेक भागहारके द्वारा द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रथम निषेकके भाजित करनेपर वहाँ एक भागप्रमाण शुद्ध शेष द्रव्य होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसका भावार्थ-द्वितीय स्थितिका आयाम यतः वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए उसके अन्तिम निषेकसम्बन्धी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पढमणिसेगपदेसपिंडो संखेज्जगुणो असंखेज्जगुणो अण्णारिसो वा अहोदूण णियमा असंखेज्जभाग भहिओ चेव होदि, उवरोदो पहुडि अणंतरोवणियाए एगेगगोवुच्छविसेसमेत्तेण वड्डिदूणागदपदे. सग्गस्स णिरुद्ध टिदीए पलिदोवमासंखेज्जदिभागपडिभागियत्तं मोत्तूण पयारंतरसंभवाणुवलंभादो त्ति । ६२७८. एवं तदियभासगाहाए विहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए चउत्थभास. गाहाए अवयारं कुममाणो इदमाह * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा। 5 २७९. सुगमं। * तं जहा। ६२८०. सुगमं। (१३६) उदयादि या ट्ठिदीओ णिरंतरं तासु होइ गुणसेढी । उदयादिपदेसग्गं गुणेण गणणादियंतेण ॥१७९।। प्रदेशजसे प्रथम निषेकसम्बन्धी प्रदेशपिण्ड संख्यातगुणा, असंख्यातगुणा या दूसरे रूप न होकर नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक ही होता है, क्योंकि ऊपरसे लेकर अनन्तरोपनिधाको अपेक्षा एक-एक गोपुच्छविशेष मात्र बढ़कर प्राप्त हुआ प्रदेशपंज विवक्षित स्थितिमें पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागपिनेको छोडकर वहां अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। विशेषार्थ-द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें जितना प्रदेशपुंज प्राप्त होता है उससे उसके दूसरे निषेकमें एक विशेषमात्र द्रब्य कम होता है। इसी प्रकार आगे-आगे प्रत्येक निषेकमें एक-एक विशेषमात्र द्रव्य कम होता जाता है। यहां द्वितीय स्थितिका स्थितिसत्कर्म वर्ष पृथक्त्वप्रमाण है । उसमें एक आवचिप्रमाण कालका भाग देनेपर संख्यात आवलियां प्राप्त होती हैं। इसीलिए यहाँपर संख्यात आवलियोंसे निषेक भागहारको भाजित करनेपर प्राप्त हुए लब्ध एक भागसे द्वितीय स्थितिके प्रदेशपंजको भाजित करनेपर जो एक भाग लब्ध आया उतना द्वितीय स्थितिके अन्तिम निषेकके प्रदेशपंजसे उसीके प्रथम निषेकके प्रदेशज में अधिक द्रव्यका प्रमाण होता है। इस प्रकार परम्परोपनिधाको अपेक्षा देखनेपर द्वितीय स्थितिके अन्तिम निषेकके द्रव्यसे उसीके प्रथम निषेकका द्रव्य असंख्यातवां भाग अधिक होता है यह सिद्ध हुआ। ६२७८. इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाको विभाषा समाप्त करके अब यथावसरप्राप्त चौथो भाष्यगाथाका अवतार करते हुए इस सूत्रको कहते हैं * यह चौथो भाष्यगाथाको समुत्कोतना है। 5२७९. यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६२८०. यह सूत्र सुगम है। (१३६) उदयसे लेकर प्रथम स्थितिसम्बन्धी जितनी स्थितियां हैं उनमें निरन्तररूपसे गुणश्रेणि होती है। उसकी अपेक्षा एक-एक स्थितिमें उदयसे लेकर असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे प्रदेशपुंज दिया जाता है ॥१७९॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए तदियमूलगाहाए तदियत्थे च नत्थी भासगाहा ६२८१. एसा चउत्थभासगाहा पुव्वुत्तजवमज्झसण्णिवेसस्सेव फुडीकरणटुं पढमट्टिदीए पदेसग्गस्सावट्ठाणमेदेण सरूवेण होदि त्ति जाणावण णमित्तमोइण्णा, परिप्फुडमेवेत्थ तहाविहत्थस्स पडिबद्धत्तदंसणादो। एत्थ पुथ्वद्धे पदसंबंधो एवं कायव्वो-'उदयादि०' उदयप्पहाडि जाओ द्विदोओ पढमट्टिदिसंबंधिणोओ तासु णिरंतरसहवेण गुणसेढो होइ त्ति । एदस्त चेव फुडोकरणटुं गाहापच्छद्धो समोइण्णो। तत्थ पदसंबंधो-उदयपहाडि जं पदेसग्गं विज्जवि विस्सदि वा तं गणणादियंतेण गुणगारेण दट्टठवं, असंखेज्जगुणसेढोए तत्थ पदेसग्गस्स समवटाणमवहारियमिदि वुत्तं होदि। णेदमेत्थासंकणिज्ज, 'पढमा जं गुणसेढो' इदि भणंतेण विदियभासगाहाए चेव एसो अत्यविसेसो जाणाविदो, तदो किमेदेण पुणरत्तगाहाणिद्देसेणेति ? कुदो ? तत्य सूचणामेतेण णिट्ठिस्त गुणसे ढिविण्णासस्स विसेसियूण परूवणे पुणरुत्तदोसाणवयारादो । संपहि एविस्से भासगाहाए अत्थविहासणं कुणमाणो उवरिमं मुत्तपबंधमाह * विहासा। 5२८२. सुगमं। * उदयट्ठिदिपदेसग्गं थोवं । 5२८३. सुगमं। * विदियाए द्विदीए पदेसग्गमसंखज्जगुणं । ६२८४. को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। ६२८१. यह चौथो भाष्यगाथा पूर्वोक्त यवमध्यके सन्निवेशको ही स्पष्ट करने के लिए प्रथम स्थितिमें प्रदेशपुंजका अवस्थान इस क्रमसे होता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए अवतीर्ण हुई है, क्योंकि इसमें सुस्पष्टरूपसे ही उस प्रकारका अर्थ प्रतिबद्ध देखा जाता है। प्रकृतमें पूर्वार्धका पदसम्बन्ध इस प्रकार करना चाहिए-'उदयादि०' उदयसे लेकर प्रथम स्थितिसम्बन्धी जो स्थितियां हैं उनमें निरन्तररूपसे गुणश्रेणि होतो है। इस प्रकार इसी अर्थके स्पष्ट करनेके लिए गाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है। प्रकृतमें पदसम्बन्ध इस प्रकार है-उदयसे लेकर जो प्रदेशपुंज दिया जाता है या दिखाई देता है वह गुणकारको अपेक्षा असंख्यातगुणित जानना चाहिए। वहां असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे प्रदेशपुंजका अवस्थान अवधारित करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहां ऐसो आशंका नहीं करनी चाहिए कि 'पढमा जं गुण सेढो' ऐसा कथन करते हुए कषायप्राभृतकारने दूसरी भाष्यगाथा द्वारा हो इस अर्थविशेषका ज्ञान करा दिया है, इसलिए पुनरुक्त इस गाथाके निर्देश करनेसे क्या प्रयोजन है, क्योंकि उक्त दूसरी भाष्यगाथामें सूचनामात्ररूपसे निर्दिष्ट किये गये गुणश्रेणिनिर्देश का इस भाष्यगाथामें विशेषरूपसे प्ररूपणा करनेपर पुनरुक्त दोषका अवतार नहीं होता। अब इस भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६२८२. यह सूत्र सुगम है। * उदयस्थितिमें प्रदेशपुंज थोड़ा है। ६२८३. यह सूत्र सुगम है। * उससे दूसरी स्थितिमें प्रदेशज असंख्यातगुणा है। 5२८४. शंका-गुणकार क्या है ? Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे * एवं सव्विस्से पदमद्विदीए। ६२८५. किं कारणं ? उदयादिगुणसेढिसहवेणावद्धिदाणं पढमटिविणिसेयाणमसंखेज्जगुणतं मोत्तूण पयारंतरासंभचादो। एवमेदिस्से भासगाहाए विहासणं समाणिय संपहि पंचमभासगाहाए समुक्कित्तणं कुणभाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाह * एत्तो पंचमीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ६२८६. सुगम। * तं जहा। 5३८७. सुगम। (१२७) उदयादिसु द्विदीसु य जं कर्म णियमसा दु तं हरस्सं । पविसदि द्विदिक्खएण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥१९०॥ ६२८८. एसा पंचमी भासगाहा पढमट्टिदिपदेसग्गमाहारं काढूण तत्य समये समये वेदिज्जमाणपवेसग्गस्स थोवबहुत्तपरूवणमोइण्णा, ण च एसो अत्थो पुग्विल्लभासगाहाए चेव णिरत्ययत्तमासंकणिज्जं, तत्थ पुव्वमपरूविदउदयविसेसणेण विसेसियूण समयं पडि उदयं पविसमाणपदेसग्गस्स थोवबहुत्तपरूवणे एदिस्से गाहाए पडिबद्धत्तदंसणादो । संपहि एविस्से अवयवत्थपरूवणं समाधान-पल्योपमका असंख्यातवा भाग गुणकार है। * इस प्रकार सम्पूर्ण प्रथम स्थितिमें जानना चाहिए। ६२८५. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि उदयादि गुणश्रेणिरूपसे अवस्थित प्रथम स्थितिसम्बन्धी निषेकोंमें असंख्यातगुणेपनको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। इस प्रकार इस भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त करके अब पांचवों भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * अब आगे पांचवीं भाष्यगाथाको समुत्कोतना करते हैं। 5२८६ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। 5 २८७. यह सूत्र सुगम है। (१२७) उदयसे लेकर प्रथम स्थितिको अवान्तर स्थितियोंसे उदय स्थितिमें जो कर्मद्रव्य उपलब्ध होता है वह नियमसे अल्पतर होता है। तथा उवय स्थितिके क्षय होनेसे उपरिम अनन्तर स्थितिका असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे कर्मद्रव्य उदयमें प्रवेश करता है ॥१८॥ 5२८८. यह पांचवीं भाष्यगाथा प्रथम स्थितिसम्बन्धी प्रदेशपुंजको आधार करके वहाँ समय-समयमें वेद्यमान प्रदेशपुंजके अल्पबहुत्वका कथन करने के लिए अवतीर्ण हुई है। और यह अर्थ पिछली भाष्यगाथामें ही कह आये हैं, इसलिए निरर्थक है सो ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उस भाष्यगाथामें पहले नहीं कहे गये उदयविशेषण सहित प्रत्येक समयमें उदयमें प्रवेश करनेवाले प्रदेशपुंजके अल्पबहुत्वके प्ररूपण करनेमें यह गाथा प्रतिबद्ध देखी जाती है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए तदियमूलगाहाए तदियत्थे पंचमभासगाहा १०७ कस्सामो।तंजहा-'उदयादिसु ट्ठिदोसु य०' एवं भणिवे उदयप्पहुडि जहाकममवट्ठिदासु पढमट्ठिवीए अवयवदिदीसु जं दध्वमुददिदीए एण्हिमुवलन्भइ तं "णियमसा दु' णिच्छयेणेव हरस्सं थोवयरं होवि, वट्टमाणसमए जं पदेसग्गमुदिण्णं तं सव्वत्योवमिवि वुत्तं होदि। 'पविसवि ट्ठिदिक्खएण दु' एवं मणिदे उदयट्टिदीदो उवरिमाणंतरदिदीए जं पदेसग्गं से काले ठिदिक्खएण उदयं पविसवि तं 'गुणेण गणणादियंतेण' असंखेज्जगुणसहवेण पविसदि त्ति भणिवं होवि, असंखेज्जगुणकमेणावढिवगुणसेढिगोवुच्छाओ वेदेमाणस्स पमाणंतरासंभवादो। एवंविहो च एविस्से गाहाए अवयवत्य. परामरसो सुगमो ति समुदायत्थमेव विहासेमाणो विहासागंथमुत्तरं भणइ * विहासा। ६२८९. सुगमं। * तं जहा। 5२९०. सुगमं। * जं अस्सि समए उदिण्णं पदेसग्गं तं थोवं । 5 २९१. वट्टमाणसमए उदयटिदिम्मि जं दिस्सदि पदेसगं तं सवत्योवमिवि वुत्तं होदि । * से काले द्विदिक्खएण उदयं पविसदि पदेसग्गं तमसंखेज्जगुणं । अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंके अर्थका प्ररूपण करेंगे। वह जैसे-'उदयादिसु दिदीसु य०' ऐसा कहनेपर उदयसे लेकर प्रथम स्थितिसम्बन्धी क्रमसे अवस्थित अवयव स्थितियों मेंसे जो द्रव्य उदयस्थितिमें इस समय उपलब्ध होता है वह "णियमसा दु' निश्चयसे ही 'हरस्स' स्तोकतर होता है । वर्तमान समयमें जो द्रव्य उदीर्ण होता है वह सबसे थोड़ा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'पविसदि टिदिक्खएण दु' ऐसा कहनेपर उदयस्थितिसे उपरिम अनन्तर स्थितिका जो प्रदेशपुंज तदनन्तर समय में स्थितिक्षयसे उदयमें प्रवेश करता है वह 'गुणेण गणणादियंतेण' असंख्यात गुणितस्वरूपसे प्रवेश करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि असंख्यातगुणित क्रमसे अवस्थित गुणश्रेणि गोपुच्छाओंका वेदन करनेवालेके अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। और इस भाष्यगाथाका इस प्रकारका अवयवार्थपरामर्श सुगम है, इसलिए समुदायार्थकी ही विभाषा करते हुए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। 5२८९. यह सूत्र सुगम है। वह जैसे। 5२९०. यह सूत्र सुगम है। * इस समय जो प्रदेशपुंज उदीर्ण होता है वह सबसे स्तोक है। 5२९१. वर्तमान समयमें जो प्रदेशपुंज उदयमें दिखाई देता है वह सबसे स्तोक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ____अगले समयमें स्थितिक्षयसे जो प्रवेशपुंज उवयमें प्रवेश करता है वह असंख्यातगुणा होता है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे २९२. तदणंतरसमए टिदिक्खएण उदयं पविसदि जं पदेसग्गं तं पुव्विस्लादो असंखेज्जगुणमिदि वुत्तं होवि । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एवं किट्टीवेदगपढमसमए एदमप्पाबहुअं परूविदमुवरिमसमयेसु वि जोजेयवमिदि जाणावणटुमिदमाह * एवं सव्वत्थ किट्टीवेदगद्धाए । $ २९३. सव्वत्थेव उदयं पविसमाणपदेसग्गस्स थोवबहुत्तमेवं चेव णेदव्वं, विसेसाभावादो त्ति वुत्तं होइ। ६ २९४. एवं पंचमीए भासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि छ?भासगाहाए अवयारकरण?मुत्तरं सुत्तपबंधमाह * एत्तो छट्ठीए मासाहाए समुक्कि तणा। ६२९५. सुगमं। * तं जहा। min ६२९२. तदनन्तर समयमें स्थितिक्षयसे जो प्रदेशपुंज उदयमें प्रवेश करता है वह पूर्वसमयसम्बन्धी प्रदेशपुंजसे असंख्यातगुणा होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर गुणकारका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें यह अल्पबहुत्व कहा है। इसी प्रकार अगले समयोंमें भी इसकी योजना करनी चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए। ६२९३. सर्वत्र ही उदय में प्रवेश करनेवाले प्रदेशपुंजका अल्पबहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-यहाँ गुणश्रेणिके द्वारा प्रतिसमय कृष्टिसम्बन्धी कितने कर्मपरमाणु द्वितीय स्थितिसे अपकर्षित होकर तथा उदयमें प्रवेश करके निर्जरित होते हैं इस तथ्यका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि क्रोधसंज्वलनको प्रथम कृष्टिके जितने कर्मपरमाणु उदीर्ण होकर निर्जरित होते हैं, उनसे दूसरे समय में असंख्यातगुणे कर्मपरमाणुओंकी निर्जरा होती है। इसी प्रकार सर्वत्र इसो विधिसे सभी कृष्टियोंकी गुणश्रेणिनिर्जरा जान लेना चाहिए । यहां जो गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो उसका आशय यह है कि प्रथम समयमें उदयमें प्रवेश करके जितने कर्मपुंजको निर्जरा होती है उसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर जो कर्मपुंज प्राप्त हो उतना कर्मपुंज दूसरे समयमें उदयमें प्रवेश करके निर्जरित होता है। इस प्रकारकी निर्जराका निर्देश जहाँ-जहां किया है उसका ही नाम गुणश्रेणिनिर्जरा है। २९४. इस प्रकार पांचवों भाष्यगाथाको अर्थविभाषा समाप्त करके अब छठी भाष्यगाथाका अवतार करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * इससे आगे छठी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। $२९५. यह सूत्र सुगम है। वह जैसे। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए विदियत्थे छट्ठी भासगाहा 5 २९६. सुगम। (१२८) वेदगकालो किट्टीय पच्छिमाए दुणियमसा हरस्तो। संखेजदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणधिगो॥१८१॥ $ २९७. एसा छट्ठी भासगाहा 'का च कालेणेत्ति' इममेव सत्तावयवमस्सियूण बारसण्हं संगहकिट्टीणं वेदगकालविसयप्पाबहुअपलवगट्ठमोइण्णा। तं जहा-'वेदगकालो किट्टीय पच्छि. माए दु० 'एवं भणिवे पच्छिमकिट्टी णाम लोभस तदियसंगहकिट्टी सहुमसांपराइयकिट्टीसरुवमावण्णा घेत्तव्वा, सव्वपच्छा वेदिज्जमाणत्तादो। तिस्से वेदगकालो त्ति वुत्ते जेत्तियं कालं तिस्से वेदगो होदूणच्छइ सो कालो घेत्तन्वो। सो च सहुमसांपराइयद्धामेत्तो होदूण "णियमसा' णिच्छएणेव 'हरस्सो' थोषयरो होदि त्ति वुत्तं होइ। ६२९८ 'संखेज्जविभागेण दु०' एवं भणिवे सेसिगाणं संगहकिट्टीणं वेदगकालो जहाकममेव पच्छाणुपुवीए संखेज्जविभागेगम्भहिलो द टुट्यो, हेट्ठिमकिट्टीवेकगद्धाणमुवरिमकिट्टीवेदगवाहितो संखेज्जावलियमेत्तेणब्भहियत्तसणादो। एत्थ गाहापुम्वद्ध 'तु' सद्दणिद्देसो पाव. पूरण? दटव्वो। गाहापच्छधे च ''तु' सद्दो अवहारणढे वट्टदे, संखेज्जदिभागेणेव विसेसाहिओ णाण्णहा त्ति अवहारणफलत्तादो। अधवा समुच्चयटठे दम्वो. तेण किटीकरणद्धा अस्सकण्णकरणद्धा छण्णोकसायक्खवणद्धा इत्थोवेदक्खवणद्धा णदुंसयवेदक्खवणद्धा अंतरकरणद्धा अट्ठकसायक्खवणद्धा त्ति एवासि पि अद्धाणमेत्य गहणं कायव्वं । संपहि एवासिमद्धाणमेसा संविट्ठी ६२९६. यह सूत्र सुगम है। (१२८) अन्तिम कृष्टिका वेदक काल नियमसे सबसे अल्प है। तथा शेष कृष्टियोंका क्रमसे उत्तरोत्तर संख्यातवां भाग अधिक है ॥१८॥ ६२९७. यह छठो भाष्यगाथा 'का च कालेण' सूत्रके इसी अवयवका आलम्बन लेकर बारह संग्रह कृष्टियोंके वेदक कालविषयक अल्पबहुत्वका कथन करने के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे'वेदककालो किट्टोय पच्छिमाए दु०' ऐसा कहनेपर यहां अन्तिम कृष्टिसे सूक्ष्मसाम्पराय कृष्टिस्वरूपको प्राप्त हुई लाभसंज्वलनकी तासरी संग्रहकृष्टि ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि उसका सबसे अन्तमें वेदन होता है। उसका वेदककाल ऐसा कहनेपर जितने काल तक उसका वेदक अवस्थित रहता है उस कालको ग्रहण करना चाहिए। और वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके कालप्रमाण होकर 'णियमसा' निश्चयसे हो 'हरस्सो' अल्पतर होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 5२९८. 'संखेज्जदिभागेण दु०' ऐसा कहनेपर शेष संग्रह कृष्टियोंका वेदककाल यथाक्रम ही उत्तरोत्तर पश्चादानुपूर्वीस संख्यातवां भाग अधिक जानना चाहिए, क्योंकि अधस्तन कृष्टियोंका वेदककाल, उपारम कृष्टियों के वेदककालसे संख्यात आवलि अधिक देखा जाता है, यहाँ उक्तभाष्यगाथाके पूर्वाधमे 'तु' शब्दका निर्देश पादपूरणरूप अर्थ में जानना चाहिए और गाथाके उत्तरार्धमें 'तु' शब्द अवधारणरूप अर्थमें आया है, क्योंकि उपरिम संग्रहकृष्टिसे अधस्तन प्रत्येक संग्रह कृष्टिका काल संख्यातवां भाग हो विशेष अधिक होता है, अन्य प्रकारसे अधिक नहीं होता इस प्रकार अवधारणा करना ही दूसरे 'तु' शब्दके निबद्ध करनेका फल है। अथवा यह दूसरा 'तु' शब्द समुच्चयरूप अर्थमें जानना चाहिए। उससे कृष्टिकरणकाल, अश्वकरणकाल, छहनोकपायक्षपणाकाल, स्त्रीवेदक्षपणाकाल, नपुंसकवेदक्षपणाकाल, अन्तरकरणकाल, आठ कषायक्षपणाकाल इस प्रकार इन कालोंको भी यहाँपर ग्रहण करना चाहिए। इन कालोंकी यह संदृष्टि है Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ०००० ०००० अट्टकसायक्खJवणद्धा ०००० अंतरकरणद्धा | णqसयवेद | वखवणद्धा इस्थिवेद- छण्णोकसायक्खवणद्धा । क्खवणद्धा ०००० १० ०००० ०००० ०००० ०००० अस्सकण्णकरणद्धा किट्टीकरणद्धा | कोहपढमकिट्टी- | कोहविदिय- कोहतदिय वेदगद्धा | किट्टीवेदगद्धा | किट्टोवेदगडा १५ ११ १२ १३ । ०००० ०००० ०००० ०००० माणपढमकिट्टी• माणविवियकिट्टी-| माणतवियकिट्टी- मायापढमकिट्टी- मायाविदिय. वेवगद्धा वेदगद्धा वेदगडा वेदगडा किट्टीवेदगडा १७ । १८ ०००० ००००, ०००० ०००० मायातवियकिट्टी | लोभपढमकिट्टी- लोभविवियकिट्टी. लोमतवियकिट्टी. वेदगद्धा | वेदगद्धा वेदगद्धा वेदगद्धा वेदगद्धा ३ ०००० आठकषाय क्खवणद्धा ०००० अन्तरकरणद्धा नपुंसकवेद क्खवणदा ०००० इत्थोवेद क्खवणद्धा छपणोकाय क्खवणद्धा ०००० अस्सकण्ण करणद्धा ०००० किट्टीकरणद्धा ०००० ०००० ०००० कोहपढम कोहविदिय कोहतदिय किट्टीवेदगद्धा । किट्टीवेदगद्धा | किट्टीवेदगद्धा ०००० ०००० माणपढम माणविदिय माणतदिय मायागढ़म |किट्टीवेदगडा| किट्टीवेदगद्धा | किट्टीवेदगद्धा | विट्टीवेदगद्धा मायाविदिय किट्टीवेदगडा ०००० ०००० ०००० मायातदिय लोभपढम लोभविदिय लोभतदिय किट्टीवेदगदा | किट्टीवेदगद्धा | किट्टीवेदगदा | किट्टोवेदगद्धा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लवगसेढोए तदियमूलगाहाए तदियत्थे छट्टमासगाहा १११ २९९. एवमेवेण गाहासत्तैण सूचिदप्पाबहुअस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाह* विहासा। ६३००. सुगम। * पच्छिमकिट्टीमंतोमुहुत्तं वेदयदि, तिस्से वेदगकालो थोवो । ३०१. किं कारणं ? सहुमसांपराइयद्धापमाणत्तादो। एसो च अंतरकरणद्वादो संखेज्जगुणो त्ति घेत्तव्यो, संखेज्जढिविबंधसहस्सगब्भत्तादो। * एक्कारसमीए किट्टीए वेदगकाला विसेसाहिओ। ६३०२. एसो लोभविवियबावरसांपराइयकिट्टीए वेवगकालो, तेण विसेसाहिमो जावो। केत्तियमेत्तो विसेसो ? संखेज्जावलियमतो। कुदो एवमवगम्मदे ? 'संखेज्जविभागेण दु सेसिगाणं कमेणहिया ति गाहासुत्तावयवादो। एवमुवरिमपदेसु वि सम्वत्थ विसेसपमाणमेदं गायव्वं । * दसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ६३०३. एसो लोभपढमसंगहकिट्टीवेदगघालो 'दटुग्यो ? सेसं सुगमं । ६ २९९. इस प्रकार इस गाथासूत्र द्वारा सूचित हुए अल्पबहुत्वका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६३००. यह सूत्र सुगम है। के अन्तिम कृष्टिका अन्तर्मुहूर्त काल तक वेवन करता है। उसका वेदनकाल अल्प है। ६३०१. शंक-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि वह सूक्ष्मसाम्परायके गुणस्थानके काल-प्रमाण है और यह काल अन्तरकरणके कालसे संख्यातगुणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इसमें संख्यात हजार स्थितिबन्ध अपसरणकाल गर्भित हैं। * ग्यारहवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। - ६३०२. यह लोभसंज्वलनकी दूसरी बादरसम्पराय कृष्टिका वेदकका है, इसलिये विशेष अधिक हो गया है! शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-संख्यात आवलिप्रमाण विशेष है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-'संखेज्जदिभागेण दु कमेणहिया' इस गाथासूत्र वचनसे जाना जाता हैं। इस प्रकार उपरिम पदोंमें भी यह विशेषका प्रमाण जानना चाहिए। * दसवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। 5३०३. यह लोभसंज्वलनको प्रथमसंग्रह कृष्टिका वेदककाल जानना चाहिए। शेष कथन सुगम है। १. आ. प्रती श्वेयन्वो इति पा.। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे * णवमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। * अट्ठमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । * सत्तमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । * छटट्ठीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । * पंचमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। * चउत्थीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। * तदियाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । * विदियाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । * पढमाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। 5 ३०४. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि। संपहि एत्थ सम्वत्थ विसेसो किंपमाणो ति आसंकाए इदमाह * विसेसो संखेज्जदिभागो। ६३०५. गयत्थमेदं सत्तं । एदम्हादो कोहपढमसंगहकिट्टीवेदगकालादो उवरि किट्टीकरणद्धा संखेज्जगुणा, सादिरेयतिगुणपमाणत्तादो। अस्सकण्णकरणद्धा विसेसाहिया। छण्णोकसायक्खवणद्धा विसेसाहिया । इत्यिवेदक्खवणद्धा विसेसाहिया। णवंसयवेदक्खवणद्धा विसेसाहिया । अंतरकरणद्धा विसेसाहिया । अट्ठकसायक्खवणद्धा संखेज्जगुणा । एवं तदियमूलगाहाए अत्यविहासा समत्ता। * नववों कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। * आठवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। * सातवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। * छटो कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। के पांचवों कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। * चौथी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। * तीसरी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। * दूसरी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। * पहली कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। $३०४. ये सूत्र सुगम हैं। अब यहां सर्वत्र विशेषका प्रमाण क्या है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्रको कहते हैं * विशेषका प्रमाण संख्वातवां भाग है। ६३०५. यह सूत्र गतार्थ है । इस क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदककालसे ऊपर कृष्टिकरणका काल संख्यातगुणा है, क्योंकि यह साधिक तिगुना है। उससे अश्वकर्णकरणका काल विशेष अधिक है। उससे छह नोकषायोंके क्षपणाका काल विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदका क्षपणाकाल विशेष अधिक है ! उससे अन्तरकरणकाल विशेष अधिक है। उससे आठ कषायोंका क्षपणाकाल संख्यातगुणा है। इस प्रकार तीसरी मूलगाथाको अर्थ विभाषा समाप्त हुई। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए चउत्थमूलगाहाए समुक्कित्तणा * एतो चउत्थीए मूलगाहाए समु विकत्तणा । ६ ३०६. तदियमूलगाहाविहासणाणंतरमेत्तो चउत्योए मूलगाहाए समुक्कित्तणा कायव्या ति वृत्तं होइ । * तं जहा । ६ ३०७. सुगमं । (१२९) कदिसु गदी भवेसु य हिदि-अणुभागेसु वा कमाए । कम्माणि पुव्वबद्धाणि कदीसु किट्टीसु च हिंदीसु ॥ १८२ ॥ ११३ ९३०८. एत्तो पहुडि तिष्णि मूलगाहाओ गदियादिमग्गणासु जत्थतस्थाणुपुथ्वीए पुवबद्धाणं कम्मार्ण खवगसेढोए मयणिज्जाभयणिज्ज सरूवेणत्थित्तगत्रे सणमोइण्गाओ । तत्थ ताव किट्टीओ करेमाणस्स वेदेमाणस्स च खवगस्स गदि इंदिय-काय - कसाय मग्गणासु संचिदाणं पुण्वबद्धाणमुक्कस्सा णुक्कस्सट्टिदि अणुभागसं चिदाणं च संभवासंभवणिण्णयविहाणमेसा चउत्थी मूलगाहा समोइण्णा । तं जहा - 'कविसु गदीसु' केत्तियमेत्तीस गदीसु पुग्धबद्धा कम्मपदेसा दस गस्स संभवति, किमेक्किस्से दोसु तिसु चसु वा त्ति एसो पढमो पुच्छाणिद्देसो गदिमग्गणाविस पुम्बबद्वाणं कम्माणं भयणिज्जाभयणिज्जभावगवेसणे पडिबद्धो । तत्य चतुण्हं गदी मेग-दु-ति-चदुसंजोगेण पण्णारसपण्हभंगा वत्तव्या । अब इससे आगे चौथी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । § ३०६. तीसरी मूलगाथाकी विभाषा करनेके बाद चौथी मुलगाथाकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * वह जैसे । ६ ३०७. यह सूत्र सुगम है । (१२९) कितनी गतियों, भवों, स्थितियों, अनुभागों और कषायोंमें तथा तत्सम्बन्धी कृष्टियों और उनकी स्थितियोंमें संचित इस पूर्वबद्ध कर्म क्षपकके पाये जाते हैं ॥१८२॥ $ ३०८. इससे आगे तीन मूलगाथाएं गति आदि मार्गणाओंमें यत्र-तत्रानुपूर्वी से पूर्वबद्ध कर्मो क्षपकश्रेणिमें भजनीय और अभजनीयस्वरूपसे अस्तित्वको गवेषणा करनेके लिए अवतीर्ण हुई हैं। वहाँ सर्वप्रथम कृष्टियोंको करनेवाले और वेदन करनेवाले क्षाकके गति, इन्द्रिय, काय और कषाय मागंणाओं में संचित हुए पूर्वबद्ध उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशों तथा स्थिति और अनुभागों के सम्भव और असम्भवका निर्णय करनेके लिए यह चौथी मूल गाथा अवतीर्ण हुई है । वह जैसे'दिसु गदी' कितनी गतियों में पूर्वंबद्ध कर्मप्रदेश इस क्षपकके सम्भव हैं, क्या एक गतिसम्बन्धी, दो गतिसम्बन्धी तीन गतिसम्बन्धी या चारों गतिसम्बन्धी कर्मप्रदेश इस क्षपकके सम्भव हैं इस प्रकार यह प्रथम पृच्छानिर्देश गतिमार्गंणाके विषय में पूर्वबद्ध कर्मो के भजनीय और अभजनीयपकी गवेषणा करनेमें प्रतिबद्ध है। वहीं चारों गतियोंके एक संयोग, दो संयोग, तीन संयोग और चार संयोगसे प्रश्न रूप में पन्द्रह भंग कहने चाहिए। विशेषार्थ - नियम यह है १६ में से १ अंक कम करनेपर कुल तीनसंयोगी ४ और चारसंयोगी १ करके यहाँ पृच्छा करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । १५ कि चार बार २ अंक रखकर परस्पर गुणा करके लब्ध १५ भंग उत्पन्न होते हैं । उनमें एकसंयोगी ४, द्विसंयोगी ६, भंग होते हैं। इस प्रकार उक्त विधिसे १५ विकल्प उत्पन्न Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे ६३०९ तहा केत्तिएसु भवेसु संचिदाणि पुन्वबद्धाणि कम्माणि एवस्स खवगस्स संभवति, किमेक्कहि भवग्गहणे, आहो दोसु तिसु चसु संखेज्जेसु असंखेज्जेसु वा त्ति एसो विदिओ पुच्छाणिद्देसो । काईदियमग्गणापडिबद्धेसु भवग्गहणेसु पुव्वबद्धाणं कम्माणं परूवणाए डिबद्धो । द्विदि- अणुभागेस वा केलिएस पवबद्वाणि कम्माणि एवस्स खवगस्स किट्टीकरणप्पहडि safeमावत्या वट्टमास संभवंति त्ति एसो तदिओ पृच्छाणिसो । एवेण किमूक्कल्स द्विदीए कस्साणभागेण च सह बद्धाणि कम्माणि एवस्स संभवंति आहो अणुक्कस्स द्विदि- अणुभागे ह सहबद्धाणि ति एवं विहो अत्यणिसो सूचिदो दटुव्वो । ११४ ६३१०. केत्तियमेसेंस वा कसाएस पुण्यबद्धा कम्मपरमाणवो एक्स्स वोसंति, किमेवक म्ह बोसु तिस चदस् वा त्ति एसो चउत्यो पच्छाणिहेंसो | एवेण कसायमग्गणम स्सियूण पुव्वद्वाणं संभवासंभवादिणिण्णयपरूवणा सुचिवा वटुव्वा । एत्थ वि कोह-माण-माया-लोभाणमेगदु-ति-चद्रसंजोगे पण्णारसपण्हभंगा अणुगंतव्या । एसो च सव्वो पुच्छा णिद्देसो गवि इंदिय कायमग्गणावयवे द्विदि- अणुभागवियप्पेस कसायभेदेसु च पुण्यबद्धाणं कम्माणं भयगिज्जाभणिज्जसरुवेण संभवतदियत्तावहारणं च उवेक्खदे । सब्वेस च पुच्छाणिद्द सेस 'कम्माणि पुव्वबद्धाणि' त्ति एसो सुत्तावयवो पादेवकमभिसंबंधणिज्जो । ६३०९. उसी प्रकार कितने भवों में संचित हुए पर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके सम्भव हैं। क्या एक भवग्रहण में या दो भवों में, तीन भवोंमें, चार भवोंमें या संख्यात और असंख्यात भवोंमें संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके सम्भव है इस प्रकार यह दूसरा पृच्छानिर्देश है। कोन काय और इन्द्रियमार्गणासम्बन्धी भवग्रहणों में संचित पूर्वबद्ध कर्मोंको प्ररूपणा इस क्षपकके है। तथा कितनी स्थितियों और अनुभागों में संचित पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके कृष्टिकरणसे लेकर उपरिम अवस्थामें विद्यमान जीवके सम्भव है इस प्रकार यह तीसरा पृच्छानिर्देश है । इससे क्या उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागरूपसे बद्ध कर्म इस क्षपकके सम्भव हैं या अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट अनुभाग रूपसे बद्ध कर्म इस क्षपकके सम्भव हैं इस प्रकारका अर्थनिर्देश सूचित जानना चाहिए। विशेषार्थं - यहाँ कितनी गतियों और कितने भवों आदिको आलम्बन बनाकर कृष्टिकारक कृष्टिवेक जीव कितनी स्थिति से युक्त, कितने अनुभागसे युक्त और कितने प्रदेशोंसे युक्त पूर्वबद्ध कर्म पाये जाते हैं। इस विषय में क्या सम्भव है यह पृच्छा की गयी है ऐसा यहाँ समझना चाहिए $ ३१०. अथवा कितनी कषायोंमें संचित पूर्वबद्ध कर्मपरमाणु इस जीवके दिखाई देते हैं। एक कषायमें, दो कषायोंमें, तीन कषायों में या चार कषायों में संचित पूर्वबद्ध कर्म इस जीव के दिखाई देते हैं इस प्रकार यह चौथा पृच्छानिर्देश है। इससे कषायमार्गणाका आलम्बन लेकर इस जीव के पूर्वबद्ध कर्मो के सम्भव मोर असम्भव आदिके निर्णयविषयक प्ररूपणा सूचित की गयी जाननी चाहिए । यहाँ पर भी क्रोध, मान, माया और लोभके एकसंयोग, द्विसंयोग, तीनसंयोग और चारसंयोगसे पन्द्रह भंग जानने चाहिए। यह समस्त पृच्छानिर्देश गति, इन्द्रिय और कायमार्गणाके भेदों में और कषायमार्गणाके भेदोंमें स्थिति और अनुभाग के विकल्पोंकी अपेक्षा पूर्वबद्ध कर्मो के भजनीय और अभजनीयपनेरूपसे सम्भव और असम्भवके अवधारणाकी अपेक्षा रखता है । अतः समस्त पृच्छाओंके कथनमें 'कम्माणि पुव्वबद्धाणि' इस सूत्रवचनका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिए । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए चउत्थमूलगाहाए पढमभासगाहा ६ ३११. 'कवीस किट्टीसु च द्विदीस' एसो गाहासुत्तस्स चरिमावयवो गदियादिसंचिदाणं पुवबद्धाणं भयणिज्जाभयणिज्जसरूवेण लब्भमाणाणं केत्तियासु किट्टीस द्विदीसु च संभवो, किमविसेसेण सव्वासु आहो पडिणियदासु चेव किट्टीस द्विवीसु च तेसिमवद्वाणणिवमोति इममत्थविसेसं जाणावे दि 1 ११५ $३१२. एदस्स चरिमावयवस्स अत्यणिद्देसे भासगाहा एत्थ णत्थि, छट्ठमूलगाहाविदियभासगाहाए एक्स्स अत्थं भणिहिदि, तत्थेव तस्स णिण्णयं कस्सामो । संपहि एविस्से मूलगाहाए पुग्वद्धणिबद्धाणं चउण्हमत्थविसेसाणं जहाकमं निण्णयं कुणमाणो तत्य पडिबद्धाणं भासगाहाणमियत्तावहारणट्ठमिदमाह - * एदिस्से तिणि भासगाहाओ । $ ३१३. एविस्से मुलगा हाए अत्थविहासणटुमेत्थ तिष्णि भासगाहाओ होंति त्ति भणिवं होवि । * तं जहा । ३१४. सुगमं । (१३०) दोसु गदी अभज्जाणि दोसु भज्जाणि पुव्वबद्धाणि । एइंदियकासु च पंचसु भजा ण च तसेसु ॥ १८३॥ ६ ३११. 'कदीसु किट्टीसु च द्विदीसु' यह गाथासूत्रका अन्तिम अवयव है जो गति आदि मार्गंणाओंमें संचयरूपसे प्राप्त हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय और अभजनीयरूपसे कितनी कृष्टियों और उनकी स्थितियों में सम्भव हैं, क्या अविशेषरूपसे सभी कृष्टियों और उनकी स्थितियों में उनके अवस्थानका नियम है या प्रतिनियत कृष्टियों और उनकी स्थितियों में हो अवस्थानका नियम है - इस अर्थविशेषका ज्ञान कराता है । $ ३१२. इस गाथासूत्र के अन्तिम अवयव का अर्थनिर्देश करनेवालो भाष्यगाथा प्रकृत में नहीं है, किन्तु छठी मूलगाथाकी दूसरी भाष्यगाथा द्वारा इसका अर्थ कहेंगे, इसलिए वहीं पर उसका निर्णय करेंगे। अब इस मूलगाथा के पूर्वार्ध में निबद्ध चार अर्थविशेषों का क्रमसे निर्णय करते हुए उन अर्थोंमें प्रतिबद्ध भाष्यगाथाओंकी इयत्ताका अवधारण करनेके लिए इस सूत्र को कहते हैं * इस चौथी मूल सूत्रगाथाकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं । $ ३१३. इस मूलगाथाके अर्थकी विभाषा करनेके लिए इसके अर्थके प्रतिपादन में तीन भाष्यगाथाएं हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह जैसे । $ ३१४. यह सूत्र सुगम है । (१३०) दो गतियों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं और वो गतियों की अपेक्षा भजनीय हैं। तथा एकेन्द्रियसम्बन्धी पाँत्र कायमार्गणाओंमें संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं । किन्तु त्रसमार्गणा में भजनीय नहीं हैं ॥१८३॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलास हिदे कसायपाहुडे ३१५. एसा पढमभासगाहा गविमग्गणा विसयपढम पुच्छाए भवग्गहण विसयविदियपुच्छाए च णिण्णयविहाणट्टमोइण्णा । संपहि एविस्से अत्थो वुच्चवे । तं जहा - 'दोसु गवीसु अभज्जाणि' एवं भणिदे दोगदीसुं संचिदाणि पुत्रबद्वाणि एदस्स खवगस्स णियमा अत्थि, तदो ताणि ण भणिज्जाणि त्ति घेत्तव्वं, तत्थ तेसि भवणिज्जते कारणाणुवलंभादो । 'दोसु भज्जाणि पुव्वबद्धाणि' एवं भणिदे णिरय-देवगवीसु संचिदाणि पुवबद्धाणि एक्स्स खवगस्त सिया अत्थि सिया णत्थि त्ति भजिदाणि, तेसिमवस्संभाविनियमाभावादो । 'एई दिय- कासु च' एवं भणिदे पुढवि० आउ० तेउ० वाउ०- वनप्फदि० सण्णिवेसु पंचसु थावरकाए एइंदियजा विपडिबद्धेसु जाणि पुण्वबद्धाणि ताणि एबस्स खवगस्स भजिवव्वाणि, तेसि पि पयदविसये अवस्संभाविनियमाणुवलंभादो । तदो एवेसु पंचसु काएसु पादेवकं free goवबद्धाणि भयणिज्जाणि त्ति घेत्तध्वं । 'ण च तसेसु' एवं भणिदे तसकाइय संचिवाणि ११६ बाणि णियमा अत्थि, ण तेसु भयणिज्जत्तसंभवो त्ति वृत्तं होदि । कुवो एवं चे ? तसपज्जायमणः गंतूण खवगसे ढिसमारोहणोवायाभावावो । एत्थ तसकाइयसामण्णणिद्देसे वि तसकाइयविसेसेसु सनिपंचिदिए पुण्बबद्वाणि ण भयणिज्जाणि, वि-ति-चदुरि दियास णिपंचिदियेसु सणि पंचिदियल द्विअपज्जत्तेसु च पुम्वबद्धाणि भयणिज्जाणि चेवेत्ति एसो वि अत्थविसेंसो एत्थेव सुत्तपदे णिलीणो त्ति बटुव्वो । $ ३१५. यह प्रथम भाष्यगाथा, गतिमार्गणाविषयक प्रथम पृच्छा और भवग्रहणविषयक दूसरो पृच्छाका निर्णय करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। अब इसका अर्थ कहते हैं । वह जैसे'दोसु गदो अभज्जाणि' ऐसा कहनेपर दो गतियों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे होते हैं, इसलिए वे भजनीय नहीं हैं ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि वहाँपर उनके भजनीयपरेका कारण नहीं पाया जाता। 'दोसु भज्जाणि पुव्वबद्धकम्माणि' ऐसा कहनेपर नरकगति और देवगति में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके किसीके होते हैं और किसीके नहीं होते हैं, इसलिए भजनीय हैं, क्योंकि उनके अवश्य ही होनेके नियमका अभाव है । 'एइंदिय-काएसु च' ऐसा कहनेपर पृथिवोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक संज्ञावाले एक न्द्रिय जातिसे प्रतिबद्ध पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें संचित जो पूर्वबद्ध कर्म होते हैं वे इस क्षपके भजनीय हैं, क्योंकि उनके भी प्रकृत विषयमें अवश्य होनेका नियम नहीं पाया जाता । इसलिए इन पांच कायों में से प्रत्येक विवक्षित काय में मंचित पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। और 'ण च तसेसु' ऐसा कहनेपर त्रसकायिक जीवों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे हैं, इसलिए उनकी अपेक्षा भजनीयपना सम्भव नहीं है । शंका- ऐसा किस कारणसे है ? समाधान — क्योंकि सपर्याय में आये बिना क्षपकश्रेणिपर आरोहण करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है। गाथासूत्र में कायिक ऐमा सामान्य निर्देश करनेपर भी त्रसकाविकके एक भेद संज्ञो - पंचेन्द्रियों में संचित पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं, किन्तु द्वीन्द्रिय, शोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञोपंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों में संचित हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय ही होते हैं इस प्रकार यह अर्थविशेष भी इसी सूत्रपद में निलीन है ऐसा जानना चाहिए। १. वा. प्रती भणिदे गदीसु इति पाठः । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए चउत्थमूलगाहाए पढमभासगाहा $ ३१६. एत्थ जाणि भयणिज्जपदाणि तेसिमेक्को वि सवेसु च द्विदिविसेसेस महोदूग लब्भइ, तेसिमसंभवपक्खे पक्खे पुण सिया एक्को परमाणू सिया दो परमाणू एवं गंतूण सम्वासि किट्टीणं सरिसघणिएस सव्वेसु च द्विदिविसेसेसु होदूण लब्भंति । जाणि पुण ण भयणिज्जाणि पुण्वबद्धाणि तेसिमणंता पदेसा सव्वासु द्विदीस सव्वास किट्टीणं सरिसघणियसहवा होदूग णियमा लब्भंति त्ति एवं भयणिज्जा भयाणजणामत्यपदं सम्वत्थ जोजेपव्वं । ११७ परमाणू सव्वासु किट्टीसु तदविरोहादो । संभव उक्करसेणाणंता परमाणू ६ ३१६. यहाँ प्रकृत में जिन मार्गणाओंके पूर्वबद्ध कर्म इस जीवके भजनीय कहे हैं उनका एक भी परमाणु सभो कृष्टियों और उनके स्थितिविशेषों में नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि उनकी असम्भावनारूप पक्षके स्त्रीकार करने में कोई विरोध नहीं आता । सम्भव पक्ष में तो किसी क्षपकके एक परमाणु पाया जाता है, किसी क्षपकके दो परमाणु पाये जाते हैं। इस प्रकार जाकर सभी कृष्टियोंके सदृश धनवाले सभी स्थितिविशेषों में उत्कृष्टरूपसे अनन्त परमाणु होकर प्राप्त होते हैं। परन्तु जो पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं उनके अनन्त परमाणु सभी कृष्टियोंकी सभी स्थितियों में सदृश धनरूपसे होकर इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। यह भजनीय और अभजनीय पूर्वबद्ध कर्मोंका अर्थपद सर्वत्र योजित कर लेना चाहिए । विशेषार्थ - प्रकृत में कृष्टिकारक और कृष्टिवेदक क्षपक जीवके किन गति आदि मार्गणाओं सम्बन्धीभवों में बाँधे हुए चारित्रमोहनीय आदि कर्म नियमसे पाये जाते हैं और किन गति आदि मागंणामसम्बन्धी भव में बांधे हुए कर्म पाये भो जाते हैं और नहीं भो पाये जाते हैं इस तथ्य का सांगोपांग विचार किया गया है। यह विचार करते हुए पहले मनुष्य ओर तिथंच इन दो गतियों की अपेक्षा विचार किया गया है । क्षपकके मनुष्यगति तो होतो ही है, क्योंकि उसके बिना संयत आदि पदों की प्राप्ति ही सम्भव नहीं है । अब रहीं शेष तीन गतियां सो ऐसा कोई नियम तो है नहीं कि जो कर्मस्थिति कालके भीतर देवगति और नरकगतिको नियमसे प्राप्त हुआ हो वही जीव आगे कर्मस्थिति कालके भीतर मनुष्य भवको प्राप्त कर क्षपक श्रेणोपर आरोहण करनेका अधिकारी होता है, इसलिए तो इन दो गतियों की अपेक्षा क्षपक जीव के पूर्वबद्ध कमको भजनीय कहा है। शेष रही तियंच गति, सो मनुष्यगतिको कार्यस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपमप्रमाण है और इसमें देवगति और नरकगतिको सम्भव भवस्थितिको भी सम्मिलित कर लिया जाय तो भी वह कर्मस्थिति कालप्रमाण नहीं हो पाती। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह क्षपक जीव विवक्षित मनुष्य पर्यायको प्राप्त करनेके पहले कर्मस्थिति कालके भीतर तियंचगति में अवश्य हो रहा होगा । उसमें भो तियंचगतिका ऐसा कौन सा भेद है जिसमें वह अवश्य रहा होगा, क्योंकि असंज्ञो पंचेन्द्रिय तक जितनी भी पर्यायें हैं वे सब तिर्यचगति सम्बन्धी ही हैं। अतः यहां कर्मस्थितिके कालको देखते हुए इतना तो सुनिश्चित कहा जा सकता है कि वह पहले एकेन्द्रिय पर्याय में अवश्य रहा होगा । और यह तथ्य सुनिश्चित है कि कतिपय ऐसे भी जीव होते हैं जो सीधे एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर और मनुष्य पर्याय धारण करकै मुक्तिगामी होते हैं । अतः स पर्यायमे द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञो पंचेन्द्रिय और लब्ध्यपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय में जिन कर्मों का बन्ध होता है वे कर्म इस क्षपक जोवके नियमसे होते ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं है | परन्तु एकेन्द्रिय पर्याय में जिन कर्मोंका बन्ध होता है वे इस क्षपक बीवके नियमसे पाये जाते हैं । इतना अवश्य है कि पृथिवीकायिक आदि उत्तर भेदों में से विवक्षित किसी एक कायवाले जीवकी अपेक्षा एकान्तसे ऐसा नियम नहीं किया जा सकता है। शेष कथन मूल टीकामें स्पष्ट किया ही है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जयघवला सहिदे कसायेपाहुडे ६ ३१७. संपहि एवंविहमे विस्से गाहाए अत्थं विहासे माणो उवरिमं विहासागंथमाह* विद्दासा । ३१८. सुगमं । * एदस्त खवगस्स दुर्गादिसमजिदं कम्मं णियमा अस्थि । तं जहा - तिरिक्खगादिसमजिदं च मणुसगदिसमजिदं च । $ ३१९. एक्स्स खवगस्स किट्टीकरण पहूडि उवरिमावत्थाए वट्टमाणस्स दुर्गादिसमज्जिवं कम्मं नियमा अत्थि त्ति एवेण सामण्णणिद्देसेण विसेसनिण्णयो ण जावो त्ति तत्थेव विसेस णिण्णयजण 'तिरिवखगदिस मज्जिवं च मणुसगदिसमज्जिवं च' इवि विसेसिथूण णिद्देसो कदो । कथं पुण 'दोसु गदीसु अभज्जाणि' त्ति एवेण सामण्णणिद्देसेण तिरिक्खमणुसग दिवि से सपज्जाओ जयवित्ति ? ण पञ्चवद्वाणमिह कायभ्यं, वक्खाणवो विसेसपडिवत्ती होवि त्ति णायेण तहाविहविसेस सिद्धीए । तत्थ तिरिक्सगबिसमज्जियं णियमा अस्थि त्ति वुते तिरिक्खेहितो आगंतूण मणुस्सेसु चैव समुप्पज्जिय खवगसेढिमारूढस्स ताव तिरिखखगदि संचओ णिच्छएण लब्भवे । जो पुण तिरिक्खगवीदो णिस्सरिखूण सेसगवीसु सागरोवमसदपुधत्तमेत्तकालमच्छिप खवगसे टिमारुहवि तस्स वि तिरिखखगविसंचिवं णियमा अत्थि, सागरोवमसवपुषत्तमेत्तकालगभंत रे तिरिवखगदिस मज्जिवस्स कम्मट्ठिविसंचयस्स सुद्ध णिल्लेवणाणुवलंभावो । मणुसगविसमज्जिवं ६ ३१७. अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थ की विभाषा करते हुए आगे के विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इसकी विभाषा करते हैं । ६३१८. यह सूत्र सुगम है । * इस क्षपकके दो गतियोंमें अर्जित किया हुआ कर्म नियमसे है । वह जैसे -तियंचगतिमें अर्जित किया गया कर्म भी है और मनुष्य गतिमें अर्जित किया गया कर्म भी है । ६ ३१९. कृष्टिकरणसे लेकर उपरिम अवस्थामें विद्यमान इस जीवके दो गतियों में अर्जित किया हुआ कर्म नियमसे है। इस प्रकार ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे विशेषका निर्णय नहीं होता इसलिए वहीं पर विशेषका निर्णय करनेके लिए 'तियंचगति में अर्जित किया गया कर्म भी है और मनुष्यगति में अर्जित किया गया कर्म भी है' ऐसा विशेषरूपसे निर्देश किया है । शंका- 'दो गतियों में अर्जित किया गया कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं है' इस प्रकार गाथा द्वारा ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे तियंचगति और मनुष्यगति विशेष पर्यायका ग्रहण कैसे होता है ? समाधान- यहाँ ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि व्याख्यान से विशेषका ज्ञान होता है इस न्यायके अनुसार उस प्रकारके विशेषको सिद्धि होती है । वहीं तिर्यंचगतिमें समजित किया गया कर्म नियमसे है ऐसा कहनेपर तियंचगति से आकर मनुष्यगति में हो उसन्न होकर क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके तियंचगतिमें संचित हुआ कर्म निश्चय से प्राप्त होता है । परन्तु जो तिर्यंचगति से निकलकर शेष गतियोंमें सो पृथक्त्व सागरोपम काल तक रहकर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके भी तियंचगतिमें अर्जित किया गया कर्म इस क्षपकके नियमसे है, क्योंकि तियंचगति में अर्जित होकर कर्मस्थिति में हुए संचयका पूरी तरह से निर्लेपन नहीं होता । परन्तु मनुष्यगति में संचित हुआ कर्म जिस किसी गति में कर्मस्थितिका पालन Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए चउत्यमूलगाहाए पढमभासगाहा पुण जत्थ वा तत्थ वा कम्मदिदिमणुपालियूणागवस्स खवगस्स णिच्छएण अत्थि, मणुसपज्जाएगापरिणदस्स खवगसेढिसमारोहणासंभवादो। एवमेवेण सुतेण 'दोसु च गदीसु अभज्जाणि' ति एवं गाहासुत्तावयवं विहासिय संपहि 'बोसु भज्जाणि' ति इमं सुत्तावयवं विहासेमाणो इदमाह * देवगदिसमज्जिदं च णिरयगदिसमज्जिदं च भजियव्वं । $ ३२०. किं कारणं ? देव-णिरयगवीओ अगंतूण तिरिवक्ख-मणुस्सेसु चेव कम्मद्धिविमेत्तकालमच्छिय खवगसेढि चढिरस्त ताव तदुभयगदिसमज्जिदं णियमा गत्यि। जो च देव. गैरइएसु पविसिय तत्थ केत्तियं पि कालमच्छिय पुणो तिरिक्खेसु पविसिय कम्मटिदिमेत्तेण कालेण तत्तो अहिययरकालावटाणेण वा णिरयदेवगविसंचयं जिग्गालिय पुणो मणुसेस आगंतूण खवगसेढिमारुहदि तस्स वि गिरय-देवगदीसु पुश्वबद्धस्स एगो वि परमाणू णत्यि, कम्मट्टिदोवो परं तत्थतणसंचयस्सावटाणविरोडावो। जो पण णिरय-देवगदीओ पविसिय तत्थ केत्तियं पि कालमच्छियूण णिस्सरिदो कम्मदिदिकालभंतरे चेवाविणद्वेण तेण संचएण खवगसेढिं चढदि तस्स णिरयदेवगविसमज्जिवं णियमा अस्थि ति बटुव्वं, अगालिदेणेव तत्थतणसंचएण खवगसेठिमागयत्तावो । तम्हा देव-गिरयगविसंचिवस्स भयणिज्जतं सिद्ध। करके आये हुए क्षपक जीवके निश्चयसे है, क्योंकि मनुष्यपर्यायसे अपरिणत हुए जोवके क्षपकश्रेणिपर आरोहण करना सम्भव नहीं है। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा 'दोसु च गदोसु अमज्जाणि' गाथासूत्रके इस अवयवको विभाषा करके अब 'दोसु मज्जाणि' सूत्रके इस अवयवकी विभाषा करते हुए इस सूत्र को कहते हैं ॐ देवगतिमें अजित हुआ और नरकगतिमें अजित हुआ कर्म इस अपकके भजनीय है। 5३२०. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि देवगति और नरकगतिमें न जाकर तिर्यच और मनुष्यगतिमें हो कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहकर क्षपकश्रेणिपर बाद हुए जीवके उन दोनों गतियोंमें अर्जित हुआ कर्म नियमसे नहीं पाया जाता। ___ अतः जो जीव देवगति और नरकगतिमें प्रवेश करके और वहाँ कितने ही काल तक रहकर पुनः तियचोंमें प्रवेश करके कर्मस्थितिप्रमाण काल द्वारा या उससे अधिक काल द्वारा नरकगति और देवगतिसम्बन्धी संचयको गलाकर पुनः मनुष्यों में आकर क्षपकणिपर आरोहण करता है उसके भी नरकगति और देवगतिमें संचित हुए पूर्वबद्ध कर्मका एक भी परमाणु इस क्षपकके नहीं पाया जाता, क्योंकि कर्मस्थितिके बाद उसके भीतर हुए संचयका क्षपकके अवस्थान होनेका विरोध है । परन्तु जो जीव नरकगति और देवगतिमें प्रवेश करके वहां कितने ही काल तक रहकर निकला तथा कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर ही अविनष्ट हुए उस संचयके साथ क्षपकणिपर चढ़ता है उसके नरकगति और देवगतिमें संचित हुमा कर्म इस क्षपकके नियमसे होता है ऐसा बानना चाहिए, क्योंकि नरकगति और देवगतिमें जो संचय किया था उसे गलाये बिना ही वह जीव क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ हुआ है। इसलिए देवगति और नगरकगतिमें संचित हुमा कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह सिद्ध हआ। यहाँपर तिर्यंचगति और मनुष्यगतिमें हए संचयको ध्रुव करके शेष दो गतियोंमें हुए संचयोंके एकसंयोग और विसंयोगकी अपेक्षा तीन भंग उत्पन्न करने चाहिए । तथा ध्रुवपदके साथ चार भंग होते हैं। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जयपवलासहिदे कसायपाहुडे एस्थ तिरिक्ख-मणुसगविसंचयस्स धुवभावं कादूण सेसदोगदिसंचयाणमेगदुसंजोगेण तिण्णि भंगा समुप्पाएयव्वा । षुवपदेण सह चत्तारि भंगा ४। ६ ३२१. एवमेवं विहासिय संपहि 'एइंदिय-कायेसु च पंचसु भज्जा' ति इमं सुत्तावयवं विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ __* पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय वाउकाइय-वणप्फदिकाइएसु तत्तो एकेकेण कारण समज्जिदं भजियव्वं । ६३२२. एदेस पंचस थावरकाएसु एकक्केण कारण समज्जिवं कम्ममेदस्स खवगस्स सिया अस्थि, सिया गस्थि त्ति वुत्तं होदि । एतो 'एक्केक्केण कारणेत्ति विसेसणं पादेक्कमेदेसि कायाणं णिरंभणं कादूण भयणिज्जत्तमेदं जोजेयम्वमिदि पदुप्पायणफलं, समुदायप्पणाए तत्थतणसंचयस्त अण्णदरकायसंबंधेण खवगम्मि अवस्तंभाविणियमदंसणादो। तम्हा एक्केक्कं थावरकायमहिकिच्च तत्थतणसंचयस्स भयणिज्जत्तमेवमणुगंतव्वं । तं जहा-- ६३२३. अप्पिदकायादो णिप्फिडियूण जाव कम्मदिदी समप्पदि ताव सेसकाएस चिट्ठिदूण पुणो मणुस्सेस आगंतूण खवगसेढि चढिदस्स अप्पिदकायम्मि संचिवकम्मपदेस विशेषार्थ-कोई बीव पहले नरकगतिमें था। पुनः वहाँसे निकलकर तिर्यंचगतिमें होता हुआ मनुष्यगतिमें आया । यह एक भंग है । कोई जोव पहले देवगतिमें था। पुनः वहांसे निकलकर तियंचगतिमें होता हुआ मनुष्यगतिमें आया। यह दूसरा भंग है। तथा कोई जीव नरकसे निकलकर तिर्यच या मनुष्य होकर देवपर्याय में उत्पन्न हुआ। पुनः वहाँसे आकर तियंचगतिमें उत्पन्न होकर मनुष्य हो गया। इस प्रकार तियंचगति और मनुष्यगतिको ध्रुव करके नरकगति और देवगतिका अवलम्बन करके उक्त तीन भंग उत्पन्न होते हैं। इन तीन भंगोंमें ध्रव भंगके मिला देनेपर कुल चार भंग होते हैं। ये चारों भंग दोनों अपेक्षाओंसे बन जाते हैं। यह यहाँ विशेष समझना चाहिए। ६३२१. इस प्रकार इसको विभाषा करके अब 'एकन्द्रिय और पांचों कायमार्गणाओंमें संचितकर्म इस क्षपकके भजनीय है' इस सूत्रके अवयवको विभाषा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन पांचोंमें से एक-एक कायके द्वारा समजित किया गया कर्म इस क्षपकके भजनीय है। ६३२२. इन पांच स्थावरकायिकोंमेंसे एक-एक कायिक जीवके द्वारा समर्जित कर्म इस क्षपकके स्यात् है और स्यात् नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसपरसे 'एक्केकेण कायेण' यह विशेषण इन कायवाले जीवोंमेंसे प्रत्येकके साथ विवक्षित करके इस भजनीयपने की योजना कर लेनी चाहिए यह उक्त कथनका फल है, क्योंकि समुदायको मुख्यतासे वहां हुए संचयका अन्यतर कायके सम्बन्धसे क्षपक जीवके अवश्य हो पाये जानेरूप नियम देखा जाता है। इसलिए एक-एक स्थावरकायिक जीवको अधिकृत करके वहां हुए संचयको भजनोयता इस प्रकार जाननी चाहिए। वह जैसे ६३२३. विवक्षित कायमेंसे निकलकर जबतक कमंस्थिति समाप्त होती है तबतक शेष कायोंमें रहकर पुनः मनुष्योंमें आकर क्षपकणिपर चढ़े हुए जीवके विवक्षितकायमें संचित हुए Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए चउत्थमूलगाहाए पढमभासगाहा १२१ पिंडस्स एगो वि परमाणू णत्थि। जो पुण अप्पिदथावरकायादो हिस्सरिदूण कम्मट्टिविअम्भंतरे चेव मणुसेसुप्पज्जिय खवगसेढिमारहदि तस्स अप्पिदथावरकायम्मि पुधबद्ध कम्मपदेसग्गं णियमा किट्टीस अस्थि ति घेत्तव्वं । होतं पि एक्को वा दो वा परमाणू जाव उक्कस्सेणाणता परमाणू सवासु किट्टीसु सम्वेसु च टिदिविसेसेस होदूण लब्भंति ति वतन्वं । 5३२४. संपाहि 'ण च तसेस' इच्चेदस्स सत्तावयवस्स विहासणट्टमुत्तरससमोइण्णं* तसकाइयं समज्जिदं णियमा अस्थि । ६३२५. जाव तसकाइयो ण जादो नाव खवगो ण होदि त्ति तेण कारणेण तसकाइय. समज्जिदमेदस्स खवगस्स णियमा अस्थि त्ति घेत्तम् । एत्य तसकाइयसमज्जिदं धुवं कादूण पुणो सेसकाएहि सह एगसंजोगादिकमेण लद्धभंगा एक्कत्तीसं होंति ॥३१॥ ६३२६. एवमेत्तिएण पबंधेण गवीसुकायेस च पृथ्वणिबद्धस्स कम्मस्स भयणिज्जाभयणिज्जसहवेणत्थित्तगवेसणं कादूण संपहि तत्थेव विसेसणिण्णयसमुप्पायणट्टमेगेगगदिसंचियरस कायसंचिवस्स च जहण्णुक्कस्सपदेसग्गस्स पमाणविणिण्णयमप्पाबहुअपरूवणं च कुणमाणो तणिबंधण कर्मप्रदेशपिण्ड का एक भी परमाणु नहीं पाया जाता। परन्तु जो जीव विवक्षित स्थावरकायमेंसे निकलकर कमंस्थितिके भीतर ही मनुष्यों में उत्पन्न होकर क्षरकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके विवक्षित स्थावरकाय में पूर्वबद्ध कर्मप्रदेशपुंज कृष्टियोंमें लियमसे पाया जाता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । पूर्वबद्ध प्रदेशपंज होता हुमा भी एक परमाणु होता है, दो परमाणु होते हैं इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे अनन्त परमाणु तक होते हैं जो सभी स्थितियों में सभी कृष्टियोंमें और उनके सब स्थितिविशेषों में प्राप्त होते हैं ऐसा यहां कहना चाहिए। विशेषार्थ-यद्यपि प्रत्येक कायवाले जीवको उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकोंके समयप्रमाण है । परन्तु यहाँ प्रत्येक कायवाले जीवमें संचित हुए पूर्वबद्ध कर्मका क्षपक जीवके भजनीयपना कैसे घटित होता है इस तथ्यको ध्यानमें रखकर मूल टोकामें उक्त प्रकारसे स्पष्टीकरण किया गया है ऐसा यहां समझना चाहिए। ६३२४. अब ‘ण च तसेसु' इस प्रकार उक्त भाष्यगाथाके इस अववयकी विभाषा करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * सकायिक जोवों में समजित कर्म इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है। ६३२५. जबतक त्रसकायमें जन्म नहीं लेता तबतक क्षपक नहीं होता ऐसा नियम है। इस कारण त्रसकायिकमें समजित कर्म इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। यहाँपर त्रसकायिकमें समजिन कर्मको ध्रुव करके पुनः शेष कायोंके साथ एक संयोगी आदिके क्रमसे प्राप्त हुए भंग ३१ होते हैं। __ विशेषार्थ-यहाँ त्रसकायिकमें अर्जित कर्म ध्रव है। उसका अन्वय सब भंगोंमें होगा, इसलिए उसे ध्रुव रखकर शेष पृथिवोकायिक आदि पांचकी अपेक्षा कमसे एक संयोगी ५, द्विसंयोगी १०, तीनसंयोगी १०, चारसंयोगी ५ और पांचसंयोगी १ इस प्रकार कुल ३१ भंग प्राप्त होते हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है। ३२६. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा चार गतियों और पांच कायोंमें पूर्वनिबद्ध कर्मके इस क्षपकके भजनीय और अभजनीयरूपसे अस्तित्वका ऊहापोह करके अब वहाँपर विशेष निर्णय को उत्पन्न करनेके लिए एक-एक गतिमें संचित हुए जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशपुंजके तथा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ बघवलासहिदे कसायपाहुडे मुत्तरसुत्तमाह * एत्तो एक्कैक्काए गदीए कायेहिं च समज्जिदन्लग्गस्स जहण्णुक्कस्सपदेसग्गस्स पमाणानुगमो च अप्पाबहुअं च कायव्वं । ९ ३२७. एत्तो उवरि एक्केषकाए गदीए तस्थावरका यह य जं समज्जिवं कम्मं खवगसेढीए भवणिज्जाभय णिज्जसरुवेण समुवलब्भमाणं तस्स पवेसग्गस्स जहण्णुक्कस्स पद विसे सिवस्स पमाणानुगमो काव्वो । तवो तब्बिसयमप्पाबहुअं च कायव्वं, अण्णहा तव्विसय विसेस णिण्णयापत्तदो त्ति भणिदं होदि । संपहि एवेण सुत्तेण समप्पिदाणं पमाणप्पाबहुआण मेत्थमणुगमो कायो । ६ ३२८. तं जहा - गवीसु कायेसु च जेसु समज्जिवं कम्मं भयणिज्जं जावं तेसु समज्जिवस्त पवेर्सापडल्स पमाणं जहण्णेण एगपरमाणू भववि, उक्कस्सेण अणंता कम्मपदेसा लब्भंति । जैसु संविदव्वं नियमा अत्थि तेसु जहण्णुक्कस्सेण अणंता कम्मपवेसा भवंति । एसो पमाणानुगमो । ६ ३२९. संपहि अप्पा बहुअं वुच्चदे - भयनिज्जाणं जहण्णपदेसग्गं थोवं । उक्कस्लयं पदेसग्गमणंतगुणं । अभय णिज्जाणं जहण्णओ पदेपिडो थोवो । उक्कस्सओ पवेसपिंडो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो । एक-एक काय में संचित हुए जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशपुंजके प्रमाणका निर्णय और अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए उसको निमित्त कर आगेके सूत्रको कहते हैं * इससे आगे एक-एक गति द्वारा और एक-एक काय द्वारा समजित होकर सम्बद्ध जघन्य और उत्कृष्ट कर्मप्रवेशपुंजके प्रमाणका अनुगम और अल्पबहुत्व करना चाहिए । ६ ३२७. इससे आगे एक-एक गति द्वारा तथा त्रस और स्थावर काय द्वारा जो अजित किया गया कर्म क्षपकश्रेणिमें भजनीय और अभजनीयरूपसे उपलभ्यमान है उस जघन्यपद और उत्कृष्टपद से विशेषित प्रदेशपुंजके प्रमाणका अनुगम करना चाहिए। तदनन्तर तद्विषयक अल्पबहुत्व करना चाहिए, अन्यथा तद्विषयक विशेष निर्णय नहीं उत्पन्न होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस सूत्र द्वारा विवक्षित किये गये प्रमाण और अल्पबहुत्वका यहाँपर अनुगम करना चाहिए । ९ ३२८. वह जैसे- गतियों में ओर कायोंमेंसे जिस गति और काय में अर्जित हुआ कर्म इस क्षपकके भजनीय होता है उस गति और कायमें अर्जित हुए प्रदेशपिंडका प्रमाण जघन्यरूपसे एक परमाणु प्राप्त होता है और उत्कृष्टरूपसे अनन्त कर्मप्रदेश पाये जाते हैं । परन्तु जिस गति और काय में संचित हुआ कर्मद्रव्य इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है उस गति और कायमें जघन्य और उत्कृष्टरूपसे अनन्त कर्मप्रदेश पाये जाते हैं । यह प्रमाणानुगम है । ६३२९. अब अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। भजनीय पदोंका जघन्य प्रदेशपुंज सबसे अल्प होता है। उससे उत्कृष्ट प्रदेशपुंज अनन्तगुणा होता है । अभजनीय पदोंका जघन्य प्रदेशपिण्ड सबसे अल्प होता है । उससे उत्कृष्ट प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा होता है । गुणकार क्या है ? पत्योपमका असंख्यातवाँ भाग गुणकार है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए चमत्थमूलगाहाए पढमभासगाहा १२३ ६३३०. तत्थ तिरिक्खगवीए बद्धजहण्णदव्वे इच्छिज्जमाणे एइंविएसु खविदकम्म. सियलक्खणेण कम्मट्टिदिमणुपालिय तत्तो णिप्फिडियूण सेसगदोसु सागरोवमसवपुधत्तं परिभमिय खवणाए अब्भुट्टिदस्स तिरिक्खगदिसंचिददव्वं जहणं भवदि । उक्कस्सं पुण गुणिवकम्मंसिय. लक्खणेण तिरिक्खगवीए कम्मट्टिदि सव्वमणुपालियूण कयसंचएण सह खवगसेढि चडिवस्स भवदि। ६ ३३१. मणुसगदीए बद्धजहण्णवठवे इच्छिज्जमाणे अण्णगदीवो मणुसेसु आगंतूण वासपुधत्तेण सव्वलहुमेव खवगसेढिं चडिदस्स जहणं भवदि । उक्कस्सयं पुण मगुसगवीए तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुषत्तेणब्महियाणि भवढिविमणुपालियूण समयाविरोहेण खवगसेटिं बढिवस्स दट्टठवं । ६३३२. तसकाइएसु जहण्णवठवे इच्छिज्जमाणे थावरकायावो आगंतूण तसेसु वासपुषत्तमच्छिय खवगसेढिं चढिवस्स जहण्णं होवि । उक्कस्सं पुण गुणिवकम्मंसियलक्खणेण तसहिदि सव्वं परिभमिय खवगसेढिमारूढस्स भवदि । तेण जहण्णदव्वादो उक्कस्सवश्वमसंखेज्जगुणं जादं। एवं पढमभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि बिदियभासगाहाए जहावसरपत्तमत्थविहासणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ * एत्तो विदियाए मासगाहाए समुक्कित्तणा । $ ३३३. सुगमं। ६३३०. वहाँ तियंचगतिमें बद्ध जघन्य द्रव्यको विवक्षा करनेपर एकेन्द्रियोंमें क्षपित कौशिक लक्षणसे कर्मस्थितिका पालन करके और वहाँसे निकलकर शेष गतियोंमें सो पृयक्त्व सागरोपम काल तक परिभ्रमण करके क्षपकणिको प्राप्त हुए जोवके तियंचगतिमें संचित हुआ द्रव्य जघन्य होता है। परन्तु गुणितकर्माशिक लक्षणसे तिर्यंच गतिमें पूरी कर्मस्थितिका पालन करके संचयरूप कर्मके साथ क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जोवके संचित द्रव्य उत्कृष्ट होता है। ३३३१. मनुष्यगतिमें पूर्वबद्ध जघन्य द्रव्य इच्छित होनेपर जो जीव अन्य गतिसे आकर वर्षपृथक्त्व कालके द्वारा अतिशीघ्र क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ है उस क्षपकके जघन्य होता है। परन्त जो पूर्वकोटिपथक्त्व अधिक तीन पल्योपम काल तक मनुष्यगतिसम्बन्धी भवस्थितिका पालन करके समयके अविरोषपूर्वक क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ है उस क्षपकके मनुष्यगति सम्बन्धी पूर्वबद्ध कर्म उत्कृष्ट होता है ऐसा प्रकृतमें जानना चाहिए । १३३२. त्रसकायिकोंमें जघन्य द्रव्य इच्छित होनेपर जो जीव स्थावरकायमेंसे आकर बसों में वर्षपृथक्त्व काछ तक रहकर क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ है उसके जघन्य होता है। परन्तु गुणितकर्माशिक लक्षणसे पूरी त्रसस्थिति तक परिभ्रमण करके क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके पूर्वबद्ध कर्म उत्कृष्ट होता है। इसलिए जघन्य द्रव्यसे उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणा होता है। इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाको अवसरप्राप्त अर्थविभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * इससे आगे दूत्र सुसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। 5३३३. यह सूत्र सुगम है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ बघवलास हिदे कसाय पाहुडे (१३१) एइंदियभवग्गणेहि असंखेज्जेहि नियममा बद्धं । गादेगुतरियं संखेजेहि य तसभवेहिं ॥ १८४ ॥ ३३४. एसा विदियभासगाहा 'कविषु गबीसु भत्रेसु च' इच्चेदं सुत्तावयवमस्सिरण भवसंचिदस्स पदेसग्गस्स तस-यावर भवह विसेसियण परूवणट्टमोइण्णा । तं जहा - 'एइंदिय भवग्गणे । एवं भणिदे एइंदियभवग्गहणेसु असंखेज्जेसु बद्धं कम्मं गच्छयेणेव खवगम्मि अस्थि । कुवो कम्मट्ठदिअब्भंतरे जहण्णदो वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताग ने इंदियभवगहणाणवलंभादो | ण चेदमसिद्ध, णिल्लेवणकालमब्भहियतसद्विदीए परिहीणकम्म ट्ठिदिम्मि संखेज्जावलियमेतगिदिय भवग्गहणपमाणेणोवट्टिदाए पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणने - दियभवग्गहणाणमागमणदंसणा दो । उक्कस्सदा पुण संखेज्जावलियणकम्मट्टिवीए अंतोमुहुत्तेणोट्टिदाए तत्थ भागलद्धमेत्ताणि एइ दियभवग्गहणाणि कम्मट्ठिदिअन्भंतरे होंति त्ति घेत्तव्धं । तवो सिद्धमसंखेज्जेह एवं विद्यभवग्गहणोह सचिदं कम्मं नियमवो एक्स्स खगगस्स संभवदिति । ३३५. 'एगावेगुत्तरियं' एवं भणिदे थावरकायादो आगंतॄण भणुसेसुववज्जिय दवणाए अब्भुसि एगतसभवसंचिददग्वं खवासेढोए लब्भवि । एवं दो-तिण्णिआदिकमेण एगेगुत्तरवड्ढीए निरंतरं तसभवरहणाणि वड्ढावेयव्त्राणि जाव उक्कस्सेण तप्पाओग संखेज्जमेत्तेसु तसभवेस बद्धपदेपिडो खवगम्मि संचयसरूवेण लद्धो त्ति । तेण एगादिएगुत्तरकमेण निरंतरं वडिदेहि तसभवन्गहणेहि संखेज्जेहि चेव बद्धकम्ममेदस्स खवगस्स लब्भदि, णाविरित्तमिदि सुत्तस्य णिच्छओ । (१३१) असंख्यात एकेन्द्रियसम्बन्धो भवग्रहणोंके द्वारा बद्ध कर्म क्षपक जीवके दियमसे पाया जाता है। तथा एक सभवसे लेकर उत्तरोत्तर संख्यात त्रसभवोंके द्वारा बद्ध कर्म क्षपक जीवके नियम से पाया जाता है ||१८४ ॥ $ २३४. यह दूसरी भाष्यगाथा 'कदिसु गदीसु भवेसु च' इस प्रकार इस सूत्र के अवयवका आश्रय कर त्रस और स्थावर भवोंसे विशिष्ट भवसंचित प्रदेशपुंजका इस क्षपकके प्ररूपण करने के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे - 'एइंदिय भवग्गहणेहि' ऐसा कहनेपर असंख्यात एकेन्द्रिय भवग्रह्णोंमें बद्ध कर्म क्षपकके निश्चय हो है, क्योंकि कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर जघन्यसे भी पल्यापमके असंख्यातवें भाग प्रमाण एकेन्द्रियसम्बन्धो भवोंका ग्रहण उपलब्ध होता है । और यह कथन असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि निर्लेपन कालस अधिक सपर्यायसम्बन्धी स्थितिसे हीन कर्मस्थितिको संख्यात आवलिप्रमाण एकेन्द्रिय भवग्रहण के द्वारा भाजित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एकेन्द्रिय भवग्रहणोंका आगमन देखा जाता है । उत्कृष्टसे तो संख्यात आवलि कम कर्मस्थांतको अन्तर्मुहूर्तस भाजित करनेपर वहां जितना भाम लब्ध आवे उतने एकेन्द्रिय भवग्रहण कर्मस्थितिक भीतर होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए इसलिए असंख्यात एकेन्द्रिय भवग्रहणोंके द्वारा संचित कर्म इस क्षपकके नियमसे होत हैं यह सिद्ध हुआ । $ ३३५. 'एगादेगुत्तरियं' ऐसा कहनेपर स्थावरकायिकों में से आकर और मनुष्यों में उत्पन्न होकर क्षपकश्रेणिवर आरूढ़ हुए जीवके एक त्रसभवमें संचित हुआ द्रव्य क्षपकश्रेणिमें पाया जाता है। इसी प्रकार दो, तीन भव आदिके क्रमसे आगे एक-एकको वृद्धि द्वारा निरन्तर उतने त्रसभवग्रह्णों को बढ़ाना चाहिए जहाँ जाकर उत्कृष्टसे तत्प्रायोग्य संख्यात त्रसभवों में बद्ध पूर्वसंचित प्रदेशपिण्ड क्षपकके संचयरूपसे पाया जाता है । इसलिए एक से लेकर उत्तरोत्तर एकएककी वृद्धि क्रमसे निरन्तर वृद्धिको प्राप्त हुए संख्यात त्रसभवग्रहणोंके द्वारा ही बद्ध कर्म इस Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए चउत्थमूलगाहाए विदियभासगाहा एत्तो अहिययराणं भवग्गहणाणं तसट्ठिदोए अब्भंतरे संभवाणुवलंभावो । कम्मट्ठधिअब्भंतरे एइंदियभवग्गहणेसु पुणो पुणो अंतराविय तसकाइ सु उत्पाइज्जमाणे असंखेज्जेसु तसभवेसु संचिवदव्यमेवम्मि लब्भदे । ण चेदमसिद्धं, जहण्णपदेसविहत्तिसामित्तसुत्ते खविदकम्मंसियलक्खणे भण्गमाणे एइदिएहितो आगंतूण संजमासंजमादिगुण से ढिणिज्जरा करणटुं तसकाइएस उप्पण्णभववारा पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता लब्भंति' त्ति परूविदत्तादो । तम्हा असंखेज्जे सु तसकाइयभवग्गहणेसु कम्मद्विदोए अब्भंतरे लब्भमाणेसु तेसि संखेज्जभवपमाणत्ताव हारणमेदं कथं घडवित्त ? ण एस दोसो, एगादिएगुत्तरकमेण निरंतरमुवलब्भमाणाणं तसभवग्गणाणं सुत् विवषिखयत्तादो | १२५ ६३३६. संपहि एवं विहो एविस्से गाहाए अत्यो सुगमो त्ति काढूण सिस्साणमत्यसमध्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदिस्से गाहाए विहासा चैव कायव्वा । ९ ३३७. एदिस्से गाहाए अत्यविहासा समुक्कित्तगाए चेव साहेयूण भाणियग्वा सुबोहत्तादो । तदो ण तत्थ विहासंतरमाढवेयव्वं, जाणिदजाणावणे फलाभावादो त्ति वृत्तं होइ । एवमेदिस्से क्षपक के प्राप्त होते हैं, अधिक नहीं यह इस सूत्र के अर्थका निश्चय है, क्योंकि इनसे अधिक मवग्रहणोंको त्रसस्थिति के भीतर सम्भावना नहीं पायी जाती है । शंका-कर्मस्थितिके भीतर एकेन्द्रिय भवग्रहणों का पुनः पुनः अन्तर कराकर त्रसकायिकों में उत्पन्न करानेपर असंख्यात त्रसभवों में संचित हुआ द्रव्य इस क्षपकके पाया जाता है । और यह कथन असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि जघन्य प्रदेशविभकिके स्वामित्वविषयक सूत्र में क्षपित कर्माशिक लक्षणका कथन करनेपर एकेन्द्रियोंमेंसे आकर संयमासंयमादि गुणश्रेणिनिर्जराको करनेके लिए कायिकों में उत्पन्न होने के भवबार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होते हैं ऐसा प्ररूपण किया गया है। इसलिए जब कि असंख्यात त्रसकायिकसम्बन्धो भवग्रहण कर्मस्थितिके भीतर प्राप्त होते हैं ऐसी अवस्था में यहाँपर उनके संख्यात भवोंका यह अवधारण करना कैसे घटित होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एकसे लेकर एक-एक अधिक के क्रमसे निरन्तर उपलभ्यमान त्रससम्बन्धी भवग्रहणोंको यहाँ सूत्र में विवक्षित किया है । विशेषार्थ - यद्यपि पूरे कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर अन्तर देकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रस भव प्राप्त होते हैं । परन्तु यहां गाथासूत्र में 'एगादिए गुत्त रकमेण' पद होने से एक साथ क्रमसे यदि हों तो त्रतोंके संख्यात भव ही होंगे यह स्पष्ट किया गया है, इसलिए प्रदेशविभक्ति के स्वामित्वविषयक सूत्रसे इस कथनमें कोई विरोध नहीं आता । शेष कथन सुगम है । $ ३३६. अब इस गाथाका इस प्रकारका अर्थ सुगम है ऐसा निश्चय करके शिष्यों को अर्थका समर्पण करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * इस गाथासूत्र के अर्थको समुत्कीर्तनाको ही विभाषा कर लेनी चाहिए । § ३३७. इस गाथासूत्रकी अर्थविभाषा समुत्कीर्तनासे ही साधकर कहनी चाहिए, क्योंकि वह सुबोध है । इसलिए उस विषय में दूसरी विभाषा आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसका ज्ञान करा दिया गया है उसका पुनः ज्ञान कराने में फलका अभाव है यह उक्त कथनका तात्पर्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे विभागाहाए अत्यविहासणं समानिय संपहि 'द्विदि - अणुभागेसु वा कसायेसु' त्ति एवं मूलगा हावयवमस्तियूण तदियभासगाहाए विहासणं कुणमाणो तदवसरकरणट्टमुवरिभं सुत्तमाह* एसो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । १२६ ६ ३३८. सुगमं । (१३२) उक्कस्य अणुभागे द्विदिउक्कस्साणि पुव्वबद्धाणि । भजियव्वाणि अमजाणि होंति णियमा कसारसु ॥ १८५ ॥ $ ३३९. एसा गाहा उवकस्सट्ठिदि अनुभाग विसे सिवाणं पुण्यबद्धाणं खवगम्मि भयणिज्जतपरायण पुणो कोह- माण- माया-लोभकसाएहि पुत्रबद्वाणमभयणिज्जभावपतुप्पायणटुं च समोइण्णा । तं जहा - 'उक्कस्सय अणुभागे० ' एवं भणिवे उक्कस्साणु भागविसे सिवाणि उक्कस्तद्विविविसेसिवाणि च पुण्यबद्धाणि एवम्मि खवगम्मि सिया अत्थि सिया णत्थि त्ति भजियव्वाणि । किं कारणं ? उक्कस्सट्ठिदिमुक्कस्साणुभागं च बंधियूण कम्मद्विविअन्तरे चैव खवगसेढि चढिवस्स तव्विसे सिदाणं कम्मपदेसाणं संभवदंसणावो, कम्मट्ठिदिअब्भंतरे सम्वत्येव अणुक्कस्स द्विविमणुभागं चबंधिदूणागदस्स खवगस्स उक्कस्सट्ठिदिअणुभागविसेसिदाणं पुण्यबद्धाणं संभवाणुवलंभावो च । 'अभज्जाणि होति णियमा कसायसु, एवं भणिदे कोह- माण- माया-लोभकसाए पुग्वबद्धाणि एक्स्स खवगस्स णियमा अत्थि, तदो ण ताणि भयणिज्जाणि, अंतोमुहुत्तेण चदुकसायोवजोगेसु है । इस प्रकार इस दूसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त करके अब 'ट्ठिदि - अणुभागेसु वा कसायेसु' इस मूलगाथा के अवयवका आलम्बन लेकर तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए उसका अवसर करने के लिए आगे सूत्रको कहते हैं * इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं । ९३३८. यह सूत्र सुगम है । (१३२) उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट और उत्कृष्ट स्थिति विशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं । परन्तु क्रोधादि चारों कषायों द्वारा बद्ध पूर्व संचित कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं ॥ १८५ ॥ ६ ३३९. यह भाष्यगाथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म क्षपकके भजनीय हैं इस बातका कथन करनेके लिए तथा क्रोध, मान, माया और लोभकषायों द्वारा बद्ध पूर्वसंचित कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं इस बातका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - ' उक्कसय अणुभागे० ' ऐसा कहनेपर उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट और उत्कृष्ट स्थितिविशिष्ट पूर्व कर्म इस क्षपके स्यात् हैं और स्थात् नहीं हैं, इसलिए भजनीय हैं। शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान – क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर कर्मस्थितिके भीतर ही क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके तद्विशिष्ट कर्मप्रदेश इस क्षपकके सम्भव देखे जाते हैं । किन्तु कर्मस्थिति के भीतर सर्वत्र ही अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुभागको बांधकर आये हुए क्षपकके उत्कृष्ट स्थिति और अनुभागविशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नहीं पाये जाते । 'अभज्जाणि होंति णियमा कसायेसु' ऐसा कहनेपर क्रोध, मान, माया और लोभकषायों में बन्धको प्राप्त हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं, इसलिए वे इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा चारों कषायोंस्वरूप उपयोगोंके परिवर्तमान होनेपर उनमें Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियभासगाहा १२७ परियत्तमाणेसु तेसि भयणिज्जत कारणाणुवलंभावो ति भणिवं होदि। संपहि एस्सेवत्यस्स फुडीकरणटुमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विहासा। १३४०. सुगमं। * उक्कस्सद्विदिवद्धाणि उक्कस्सअणुभागबद्धाणि च भजिदव्वाणि । 5 ३४१. सुगम एत्थ कारणं, अणंतरमेव परूविवत्तादो। * कोह-माण-माया-डोमोवजुत्तेहिं बद्धाणि अमजियव्याणि । १३४२. कुवो ? अंतोमुहतेण परियत्तमाणेसु चदुकसायोवजोगेस तत्थ बवाणं कम्माणं णियमा अस्थित्तसिद्धीए विसंवावाणुवलंभावो। 'कवीस किट्टीस च टिवोस' ति एक्स्स मुलगाहारिमावयवस्स अत्थविहासा एत्थ ण परूविदा, छट्ठमूलगाहापडिबद्धविदियभास्गाहाए सव्वेसिमभयणिज्जाणमेवकवारेणेव टिदि-अणुभागेसु अवट्ठाणक्कम जाणावेमि त्ति एदेणाहिप्पाएण, तदो तत्थेव तस्स णिण्णो दव्यो। संचित हुए कर्मों के इस क्षपकके भजनीय होनेमें कोई कारण नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६३४०. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट स्थितिबद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबद्ध पूर्वसंचित कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं। ६३४१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इस विषयमें कारणका कथन अनन्तर पूर्व ही कर बाये हैं। * क्रोष, मान, माया और लोभमें उपयुक्त होनेसे बद्ध पूर्वसंचित कम इस क्षपकके अभजनीय है। ३४२. क्योंकि चारों कषायोंसम्बन्धी उपयोग अन्तर्मुहूर्तमें परिवर्तमान हैं, इसलिए उनके सद्भावमें बद्ध पूर्वसंचित कर्मोका अस्तित्व इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है उसमें किसी प्रकारका विसंवाद नहीं उपलब्ध होता। 'कदीसु किट्टीसु च द्विदीसु' इस प्रकार मूलगाथाके इस अन्तिम अवयवकी अर्थविभाषा यहां नहीं कही गयी है। छठी मूलगाथामें प्रतिबद्ध दूसरी भाष्यगाथा द्वारा स्थिति और अनुभागों में सभी अभजनीयोंके एक बारमें ही अवस्थानक्रमका ज्ञान करानेवाले हैं, इसलिए इस अभिप्रायसे वहींपर उसका निर्णय जान लेना चाहिए। . विशेषार्थ-जो जीव उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागसे युक्त कर्मोका बन्ध कर कर्मस्थिति कालके भीतर ही क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उस क्षपकके उक्त विधिसे पूर्वबद्ध कर्म नियमसे पाये जाते हैं। किन्तु जो कर्मस्थिति कालके भीतर अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट अनुभागसे युक्त कर्मका बन्ध कर उस कालके भीतर ही क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागसे युक्त पूर्वबद्ध कर्म नियमसे नहीं पाये जाते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। अब रहीं चार कषायें सो उनमेंसे प्रत्येक कषायका काल ही अन्तर्मुहूर्त है, ऐसी अवस्थामें किसी भी कषायके साथ बद्ध पूर्वसंचित कर्म इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है, अतः इस अपेक्षासे उसे अभजनीय कहा है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे 5३४३. एवमेत्तिएण पबंधेण चउत्थमूलगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि पंचमीए मूलगाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो उपरिमं पबंधमाह * एत्तो पंचमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । ६ ३४४. सुगमं। * तं जहा5 ३४५. सुगम। (१३३) पज्जत्तापज्जेत्तेण तधा त्थी-पुण्णवुसयमिस्सेण । ____सम्मत्ते मिच्छत्ते केण व जोगोवजोगेण ॥१८६॥ १३४६. एसा मूलगाहा पज्जत्तापज्जत्तावत्थासु वेद-सम्मत्त-जोग-णाण-दसणोवजोगमग्ग. णासु च पुन्वबद्धाणं कम्माणं खवगसेढीए भयणिज्जाभयणिज्जभावपचुप्पायणटुमोइण्णा। तं जहा-'पज्जत्तापज्जत्तेण०' एवं भणिवे पज्जत्तावत्याए अपज्जत्तावत्थाए च वट्टमाणेण जीवेण पुवबद्धाणि कम्माणि किमेदस्स खवगस्स अत्यि आहो त्यि ति पुश्वगाहासुत्तणिद्दिवाणं चेव गदि-इंदिय-कायमग्गणाणं पज्जत्तापज्जत्तावत्याहिं विसेसियूण पुच्छा कदा ददृव्वा । 'तधा त्थीपुण्णqसये' एवं मणिदे इत्थिवेदपुरिसवेव-णवंसयवेदपज्जाएस वट्टमाणेण पुव्यबद्धाणि किमत्थि आहो णत्थि त्ति पुच्छाहिसंबंधो कायव्यो। एवेग वेदमग्गणाविसए पुश्वबद्धाणं भयणिज्जाभयणिज्जसरूवेण अत्थित-णत्थित्तपरिक्खा पुच्छादुवारेण णिहिट्ठा बटुव्वा । $ ३४३. इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा चौथी मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त करके अब पांचवीं मूलगाथाकी अर्थविभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * इससे आगे पांचवीं मूलगाथाको समुतकोतना करते हैं। 5 ३४४. यह सूत्र सुगम है। * वह जेसे। 5३४५.. यह सूत्र सुगम है। (१३३) पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाके साथ, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेवके साथ, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके साथ तथा किस योग और किस उपयोगके साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं ॥१८॥ १३४६. यह मूल सूत्रगाथा पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाओं में तथा वेद, सम्यक्त्व, योग, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग मार्गणाओंमें पूर्वबद्ध कर्मके क्षपकश्रेणिमें भजनीय और अभजनीयपनेका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-'एज्जत्तापज्जत्तेण' ऐसा कहनेपर पर्याप्त अवस्था और अपर्याप्त अवस्थामें विद्यमान जोवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म क्या इस क्षपकके पाये जाते हैं या नहीं पाये जाते हैं इस प्रकार पूर्वगाथा सूत्र में जो गति, इन्द्रिय और कार्य मार्गणा कह आये हैं उन्हें ही पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थासे विशिष्ट करके यह पृच्छा को गयो जाननी चाहिए। 'तषा त्थी-पुं-णंदुसए' इस प्रकार कहनेपर स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद पर्यायोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म क्या इस क्षपकके पाये जाते हैं या नहीं पाये जाते हैं इस प्रकार पृच्छाके साथ सम्बन्ध करना चाहिए। इस प्रकार इससे वेदमार्गणामें पूर्वबद्ध कर्मोके भजनीय और अभजनीयस्वरूपसे इस क्षपकके अस्तित्वकी परीक्षा पृच्छद्वारा निर्दिष्ट की गयो जाननी चाहिए। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पंचम मूलगाहाए पढमभासगाहा ९ ३४७. 'मिस्सेण सम्मत्ते मिच्छत्ते' एवं भणिदे सम्मामिच्छाट्ठि सम्माइट्ठि- निच्छाइट्ठीसु पुत्रबद्धाणि किमेदस्स क्खवगस्स अस्थि आहो णत्थि त्ति पुच्छाहिसंबंधेण सम्मत्त नगगणाविसये पृव्वबद्धाणं भय णिज्जाभय णिज्जसरूवेण गवेसणा सूचिदा दटुव्वा । 'केण व जोगोवजोगेण' एदेण वि सत्तावयवेण जोगमग्गणाए णाणदंसगोवजोगमगणाविसए च पुत्रबद्वाणं भयणिज्जाभयणिज्जभावपरखाणिद्दिट्टा दट्ठस्वा । पण्णारसस जोगभेरेस तत्थ केण जोगेण बद्धाणि पुत्रबद्धाणि भणिज्जाणि केण वा ण भणिज्जाणि । तहा सत्तसु छदुमत्यणाणेस् तिन दंसणेसु च कदरेण णाणोवजोगेण च दंसणोवजोगेण च पुव्वबद्धाणि भजियव्वाणि केण वा अभयणिज्जाणि त्ति पुच्छादुवारेस्स तहा विहत्यणिद्दे पडिब द्वत्तदंसणादो । संपहि एदीए गाहाए सूचिदाणमत्थविसेसाणं विहासणमेत्य उत्तर भासवाहाओ अस्थि ति जाणावणट्ठमुत्तरमुत्तमाह * एत्थ चत्तार भासगाहाओ । ६ ३४८. सुगमं । * तं जहा । १३४९. सुगमं । (१३४) पञ्जत्तापत्ते मिच्छत णवुंमए च सम्मत्ते । कम्माणि अभज्जाणि दु थी पुरिसे मिस्सगे भज्जा ॥ १८७॥ १२९. ६ ३४७. 'मिस्सेण सम्प्रत्ते मिच्छत्ते' ऐसा कहनेपर सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियों में पूर्वबद्ध कर्म क्या इस क्षपकके हैं या नहीं हैं इस प्रकार पृच्छाके सम्बन्धसे सम्यक्त्वमार्गणा में पूर्वबद्ध कर्मो के भजनीय और अभजनीयस्वरूपसे इस क्षपक के गवेषणा सूचित की गयी जाननी चाहिए। 'केण व जोगोवजोगेण' इस प्रकार सूत्र के इस अवयवने भी योगमार्गेणा तथा ज्ञान और दर्शनोपयोगमार्गणा में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षवत्रके भजनीयरूप: हैं या अभजनीयरूपसे हैं यह परीक्षा निर्दिष्ट की गयी जाननी चाहिए। योग के पन्द्रह भेदों में से वहाँ किस योग के साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं और किस योग के साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपक के भजनीय नहीं हैं यह परीक्षा की गयी जाननी चाहिए। उसो प्रकार सात छद्मस्य ज्ञानों में और तीन दर्शनों में किस ज्ञानोपयोग और किस दर्शनोपयोगके साथ पूर्ववद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं तथा किस ज्ञानोपयोगके साथ और किस दर्शनोपयोग के साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं इस प्रकार पृच्छाद्वारा यह गाथासूत्र इस प्रकारके अर्थका निर्देश करनेमें प्रतिबद्ध देखा जाता है। अब इस गाथाद्वारा सूचित हुए अर्थविशेषोंकी विभाषा करनेके लिए चार भाष्यगाथाए हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस मूलगाथाके अर्थकी प्ररूपणा में चार भाष्यगाथाएं निबद्ध हैं । $ ३४८. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ ३४९. यह सूत्र सुगम है । (१३४) पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थामें तथा मिध्यात्व, नपुंसकवेद, और सम्यक्त्वमार्गणा में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। किन्तु स्त्रीवेद, पुरुषवेद और मिश्रमार्गणा में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ॥ १८७॥ १७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे ६ ३५०. एसा पढमभासगाहा पज्जत्तापज्जत्तजीवसमासेसु वेदगसम्मत्तमग्गणासु च पयवत्थणिण्णयकरणट्ठ मोइण्णा । तं जहा - 'पज्णत्तापज्जत्ते' एवं भणिदे पज्जतेंण अपज्जसैंण च पुवबद्धाणि कम्माणि नियमा अत्थि त्ति सुत्तत्थसंबंधो; कम्मट्ठदिम अंतरे पज्जत्तापज्जत्तपज्जाया दोन्हमवस्संभावनियमादो । पुव्वबद्धाणमेत्याभयणिज्जत्तमवहारेयश्वं । 'मिच्छत्त णव सये च सम्मत्ते' एवं भणिदे मिच्छत्तपज्जाए णवुंसयवेदपज्जाये सम्मत्तपज्जाये च वट्टमाणेण जीवेण godaणि कम्माण अभज्जाणि ति सुत्तत्थसंबंधो कायव्वो । १३० ६ ३५१. तत्थ मिच्छतपज्जाओ णवुंसयवेदपज्जाओ च कम्मट्ठिदिअन्भंतरे अवस्संभाविओ, तप्परिहारेण कम्मट्ठिदिसमाणणोवायाभावादो । सम्मत्तपज्जाओ वि एत्थवस्संभाविओ चेव, तेण विणा खवगसेढिसमारोहणासंभवादो । तदो एदेसु पज्जाए वट्टमाणेण पुवबद्धाणि कम्माणि एक्स्स खवगस्स णियमा अस्थि त्ति सिद्धमभयणिज्जत्तं । ६३५२. 'त्थी पुरिसे विस्सए भज्जा' एवं भणिदे इत्थी पुरिसवेदसम्मामिच्छत्तपज्जा सु माण पुवबद्धाणि भयणिज्जाणि त्ति घेत्तव्यं, कम्म द्विदिअब्भंतरे एदेसिमवस्संभावणियमाणुव $ ३५०. यह प्रथम भाष्यगाथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवसमासोंमें तथा वेद और सम्यक्त्वमार्गणा में प्रकृत अर्थका निर्णय करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - 'पज्जत्तापज्जत्ते' ऐसा कहने पर पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाके साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं ऐसा इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है, क्योंकि कर्मस्थितिके भीतर पर्याप्त और अपर्याप्त इन दोनों पर्यायोंके अवश्य ही होनेका नियम है। इसलिए पूर्वबद्ध कर्म यहाँपर अभजनीय हैं ऐसा निश्चय करना चाहिए । 'मिच्छत्त णवुंसये च सम्मत्ते' ऐसा कहनेपर मिथ्यात्व पर्याय में, नपुंसकवेद पर्याय में और सम्यक्त्व पर्यायमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। ऐसा इस सूत्र ओर अर्थका परस्पर सम्बन्ध करना चाहिये । § ३५१. उनमें से मिथ्यात्वपर्याय और नपुंसक वेदपर्याय कर्मस्थितिके भीतर अवश्यंभावी हैं, क्योंकि इनकी प्राप्तिके बिना कर्मस्थितिकी समाप्तिका अन्य कोई उपाय नहीं है। सम्यक्त्वपर्याय भी यहाँपर अवश्यंभावी ही है, क्योंकि उसके बिना क्षपकश्रेणिपर आरोहण करना असम्भव है । इसलिए इन पर्यायोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । इस प्रकार उक्त मार्गणाओं में पूर्वबद्ध कर्म क्षपक के अभजनीय हैं यह सिद्ध हो गया । विशेषार्थ - कर्मस्थिति कालके भीतर यह जीव अनेक बार पर्याप्त भी हुआ है और अपर्याप्त भी हम है । साथ ही सपर्यायको कार्यस्थिति साधिक दो हजार सागरोपम है, मतः उसका कर्मस्थितिके भीतर नपुंसकवेद और मिथ्यात्वके साथ एकेन्द्रियपर्याय में रहना भी अवश्यंभावी है । इस प्रकार तो पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के साथ नपुंसकवेद मार्गणा और मिथ्यात्वगुणस्थान में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। साथ ही यह भी नियम है कि सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके बाद ही इस जीवका संयमपूर्वक क्षपकश्रेणिवर आरोहण करना बन सकता है, इसलिए सम्यक्त्वमार्गणा में पूर्ववद्ध कर्म इस जीवके नियमसे पाये जाते हैं । $ ३५२. 'त्थी पुरिसे मिस्सए भज्जा' ऐसा कहनेपर खोवेद, पुरुषबेद और सम्माग्मिथ्यात्व पर्याय में इस जीवके द्वारा बाँधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि कर्मस्थिति के भीतर इन मार्गणाओंके अवश्य होनेका नियम नहीं पाया जाता । सासादन Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पंचममूलगाहाए पढमभासगाहा १३१ लभादो। सासणसम्माइट्ठिणा च बद्धाणि भयणिज्जाणि त्ति एसो वि अत्यो एत्य वक्खाणेयव्यो, मिस्सणिद्दे सस्सेदस्स देसामासयभावेण पवुत्तिअन्भुवगमादो। 5 ३५३. संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडोकरण?मुवरिमं विहासागंथमाढवेइ* विहासा। 5 ३५४. सुगम। * पज्जत्तेण अपज्जत्तेण मिच्छाइटिणा सम्माइद्विणा णqसयवेदेण च एवंभावभूदेण बद्धाणि णियमा अस्थि । * इत्थोए पुरिसेण सम्मामिच्छाइट्ठिणा च एवंभावभूदेण बद्धाणि भज्जाणि। ६३५५. एवाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि 'एवंभावभूदेणेत्ति' भणिवे एवंविहभावपरिणदेण जीवेण बद्धाणि कम्माणि एदस्स खवयस्स भयणिज्जाभयणिज्जसहवेण अस्थि ति घेत्तव्वं । एवं पढमभासगाहाए विहासा समत्ता। सम्यग्दृष्टिके द्वारा बद्ध कर्म भी इस क्षपकके भजनीय हैं इस अर्थका भी यहां व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि यहाँपर इस मिश्रपदके निर्देशकी देशामर्षकरूपसे प्रवृत्ति स्वीकार की गयी है। विशेषार्थ-कर्मस्थितिके भीतर कोई जीव एकेन्द्रिय पर्यायसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी हुए बिना सीधा नपुंसकवेदके साथ मनुष्य और सम्यग्दृष्टि होकर तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि न होकर संयमपूर्वक क्षपकणिपर बारोहण करे यह सम्भव है। यही कारण है कि उक्त मार्गणाओंमें बांधे गये कर्म इस क्षपकके अभजनीय कहे हैं, क्योंकि जो कर्मस्थितिके भीतर उक्त मार्गणाओं में से विवक्षित किसी मार्गणाको प्राप्त कर क्रमशः क्षपकोणिपर आरोहण करता है उसके तो पूर्वोक्त विवक्षित मार्गणामें बांधे गये कर्म इस झपकके नियमसे पाये जाते हैं और जो कर्मस्थितिके भीतर शेष मार्गणाओं में से किसी भी मार्गणाको प्राप्त ए बिना क्षपश्रेणिपर आरोहण करता है उस क्षपकके उक्त मार्गणामें बांधा गया कर्म इस क्षपकके नियमसे नहीं पाया जाता है । इसीलिए शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनोय कहे हैं। ६३५३. अब इसी गाथासूत्रका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। 5 ३५४. यह सूत्र सुगम है। * पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थासे युक्त मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और नपुंसकवेद इस प्रकार इन भावोंसे परिणत जीवके द्वारा बद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं इसलिए अभजनीय हैं। * स्त्रीवेद, पुरुषवेव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इस प्रकार इन भावोंसे परिणत जीवके द्वारा बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीव हैं। ६३५५. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। इतनी विशेषता है कि 'एवंभावभूदेण' ऐसा कहनेपर इस प्रकारके भावोंसे परिणत जीवके द्वारा बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय और अभजनीयस्वरूपसे पाये जाते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा समाप्त हुई। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * एत्तो विदियाए मासगाहाए समुक्कित्तणा । 5 ३५६. सुगमं। * तं जहा। 5 ३५७. सुगम। (१३५) ओरालिये सरीरे ओरालियमिस्सए च जोगे दु । चदुविधमण-वचिजोगे च अमज्जगा सेसगे भज्जा ॥१८८॥ ६ ३५८. एसा विदियभासगाहा जोगमग्गणाविसये पयवत्थगवेसण?मोइण्णा। तं जहा'ओशलिये सरोरे०' एवं भणिवे ओरालियकायजोगेण ओरालियमिस्सकायजोगेण चउव्विहमण. जोग-चविहवचिजोगभेदेसु च वट्टमाणेण पुव्वबद्धाणि एदस्स खवगस्स णियमा अस्थि, तदो ण ताण भाजयस्वाणि ति सुत्तत्थरूगहो। एदेसिमभज्जते कारणं सुगमं । 'सेसगे भज्जा' एवं भाणदे सेसजोगेसु वेउध्विय-वेउव्वियमिस्स-आहार-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगसण्णिदेसु पुवब कम्मरदेसा भजियव्वा, तेसि कम्मदिदिअभंतरे अवस्संभावणियमाणुवलंभावो त्ति घेत्तन्वं । संपहि एक्स्सेव सत्तत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमो विहासागंथो * विहासा। $ ३५९ सुगमं। * इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाको समुत्कोतना करते हैं । $३५६. यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६३५७. यह सूत्र सुगम है। (१३५) औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, चारों मनोयोग और चारों वचनयोगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं तथा शेष योगोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ॥१२९॥ ६३५८. यह दूसरी भाष्यगाथा योगमार्गणामें प्रकृत अर्थको गवेषणा करनेके लिए अवतःण हुई है। वह जेसे 'ओरालिये सरीरे०' ऐसा कहनेपर औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, चारों प्रकारके मनोयोग और चारों प्रकारके वचनयोगके भेदोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं, इसलिए वे भजनीय नहीं हैं इस प्रकार यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। इन योगोंमें बद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं इस विषयमें कारणका कथन सगम है। 'सेसगे भजजा' ऐसा कहनेपर वैकियिककाययोग. वैक्रियिकमिश्रकाययोग. आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगसंज्ञक इन योगोंमें पूर्वबद्ध कर्मप्रदेश इस क्षपकके भजनीय हैं, क्योंकि ये योग कर्मस्थितिके भीतर अवश्य ही होते हैं ऐसा नियम नहीं पाया जाता ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अब इसी सूत्रके अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेका विभाषाग्रन्थ आया है * अब दूसरी भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। 5 ३५९. यह सूत्र सुगम है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पंचममूलगाहाए तदिया भासगाहा १३३ * ओरालिएण ओरालियमिस्सएण चउव्विहेण मणजोगेण चउव्विहेण वचि - जोगेण बद्धाणि अभज्जाणि । * सेसजोगेसु बद्धाणि भज्जाणि । ३६०. गयत्थमेवं सुत्तद्दयं । णवरि गाहासुत्ते 'ओरालिये सरीरे' इच्चादि सत्तमी विहत्तिणिद्देसो चुणिसुत्ते पुण 'ओरालिएण ओरालियमिस्सेणेत्ति' एवमादिगो तदियाविहत्तिणिद्देसो कदो । कथमेदेसि दोण्हमविरोहो त्ति पुच्छिदे णत्थि विरोहो, विवक्षातः कारकाणि भवन्तीति न्यायात् । एवं विदियभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता । * एत्तो तदियभासगाहा ! ६३६१. सुगमं । * तं जहा । $ ३६२. सुगमं । (१३६) अध सुद-मदिउवजोगे होंति अभज्जाणि पुव्ववद्वाणि । भज्जाणि च पच्चक्खेसु दोसु छदुमत्थणाणेसु ॥ १८९ ॥ ६ ३६३. एसा तवियभासगाहा णाणमग्गणाए पुग्वबद्धाणं भय णिज्जा भय णिज्ज मात्र गवेसण - मणा । तं जहा 'अघ सुद-मदिउवजोगे' एवं भणिदे सुदणाणोवजोगे मदिणाणोवजोगे च वट्टमाणेण पुण्यबद्धाणि अभयणिज्जाणि होंति त्ति सुत्तत्यसंबंधो । मदि-सुदअण्णाणं पि एत्थेव * औदारिककाययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, चार प्रकारके वचनयोगके साथ बद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। क्षपकके भजनीय हैं। प्रकारके मनोयोग और चार तथा शेष योगोंमें बद्ध कर्म इस § ३६०. ये दोनों सूत्र गतार्थ हैं। इतनी विशेषता है कि गाथासूत्र में 'ओरालिये सरीरे' इस प्रकार सप्तमी विभक्तिका निर्देश किया है परन्तु चूर्णिसूत्र में तो 'ओरालिएण ओरालियमिस्सेण' इस प्रकार तृतीया विभक्तिका निर्देश किया है, इसलिए इन दोनों वचनोंमें अविरोध किस प्रकार है ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैं कि इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि विवक्षाके अनुसार कारकों को प्रवृत्ति होती है ऐसा न्याय है । इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषा समाप्त हुई । * इससे आगे तीसरी भाष्यगाथा कहते हैं । $ ३६१. वह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । ६ ३६२. यह सूत्र सुगम है । (१३६) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं तथा छपथके दो प्रत्यक्ष उपयोगोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ॥ १८९ ॥ § ३६३. यह तीसरी भाष्यगाथा ज्ञानमार्गणा में पूर्वबद्ध कर्मोंके इस क्षपकके भजनीय और अभजनीय भावकी गवेषणा के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे- 'अघ सुद-मदिउवजोगे' ऐसा कहनेपर श्रुतज्ञानोपयोग में और मतिज्ञानोपयोग में विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे संगहो कायवो, मदि-सुदोवजोगत्तण भेदाभावादो। तदो एदेसु चदुसु उवजोगेसु पुव्वबद्धाणि खवगस्स णियमा अत्थि त्ति घेत्तन्वं, एदेसिमुवजोगाणमेदस्स खवगस्स कम्मट्ठिदिअभंतरे णिच्छएण संभवदंसणादो। 'भज्जाणि च पच्चक्खेसु दोसु०' एवं मणिदे छदुमत्थविसये जाणि पच्चक्खाणि अवहिमणपज्जवणाणाणि तेस पुश्वबद्धाणि भजियव्वाणि त्ति सुत्तत्थो, मवि-सुदणाणाणं व दोण्हमेदेसि खवगस्स पुवावस्थाए अवस्संभाविणियमाणुवलंभावो । एत्थ अवहिणागणिद्देसेणेव विहंगणाणस्स वि गहणं कायग्वं; तस्स वि तवंतब्भावतादो। संपहि एक्स्सेव फुडीकरण?मुवरिमं विहासागंथमाह * विहासा। 5 ३६४. सगमं। * सुदणाणे अण्णाणे मदिणाणे अण्णाणे एदेसु चदुसु उवजोगेसु पुन्धबद्धाणि णियमा अस्थि । * ओहिणाणे अण्णाणे मणपज्जवणाणे एदेसु तिसु उवजोगेसु पुव्वबद्धाणि भजियव्वाणि। 5 ३६५. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं तदियभासगाहाए विहासा समत्ता। * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा। हैं यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानका भी यहींपर संग्रह कर लेना चाहिए, क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उपयोग सामान्यकी अपेक्षा उनसे इनमें कोई भेद नहीं है, इसलिए इन चार उपयोगोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ये चारों उपयोग इस क्षपकके कर्मस्थितिके भीतर नियमसे सम्भव देखे जाते हैं भज्जाणि च पच्चक्खेसु दोसु०' ऐसा कहनेपर छद्मस्थके जो प्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान रूप दो उपयोग होते हैं उनमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह इस सूत्रका अर्थ है, क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके समान ये दोनों उपयोग इस क्षपकको पूर्वावस्थामें अवश्य हो होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं उपलब्ध होता। यहां इस सूत्रमें अवधिज्ञानका निर्देश करनेसे ही विभंगज्ञानका भी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसका भी उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। अब इसी अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब इस तीसरी भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६३६४. यह सूत्र सुगम है। ॐ श्रुतज्ञान, श्रुतअज्ञान, मतिज्ञान और मत्यज्ञान इन चार उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। * अवधिज्ञान, अवधिअज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन तीन उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं। 5 ३६१. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त हुई। * इससे आगे चौथी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए पंचममूलगाहाए चउत्थी भावगाहा § ३६६. सुगमं । (१३७) कम्माणि अभज्जाणि दु अणगार - अचक्खुदंसणुवजोगे । अध ओहिदंसणे पुण उवजोगे होंति भज्जाणि ॥ १९०॥ १३५ ६ ३६७. एसा चउत्थी भासगाहा दंसणमग्गणाविसये पुत्रबद्धाणं कम्माणं भयणिज्जाभणिज्जतरुवेण अत्थित्तगवेसणटुमोद्दण्णा । तं जहा - 'कम्माणि अभज्जाणि दु०' एवं भणिदे चवखुदंसणोवजोगे अचक्खुदंसणोवजोगे च वट्टमाणेण पुण्यबद्धाणि कम्माणि एक्स्स खवगस्स णियमा अस्थि त्ति वृत्तं होइ, दोण्हमेदेसि मुवजोगाणमेवस्स खत्रगस्स कम्मट्ठिदिअभंतरे णिच्छएण संभव सणादो। एत्थ अणगारोवजोगे त्ति सामण्णणिद्देसे वि पारिसेसियणाएण चक्खुदंसणोव जोगस्सेव गहणं कायव्वं, सेसाणं दोन्हं छदुमत्य इंसणोवजोगाणं सुत्ते पुध निद्देसवंसणावो । 'अध ओहिदंसणे पुण०' एवं भणिदे अघिदंसणोवजोगे वट्टमाणेण पुव्वबद्धाणि एक्स्स खवगस्स भयणिज्जाणि त्ति घेत्तव्यं, ओहिदंसणावरणक्खओवसमस्त सव्वजीवेसु संभवाणु वलं भावो । संपहि एवंविहो एदिस्से गाहाए अत्यो सुगमो त्ति काढूण ण तत्थ विहा संतरमाढवेयव्यमिवि पटुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * विहासा एसा । ६ ३६८. एसा चैव समुक्कित्तथा एविस्से गाहाए बिहासासरूवेण पयट्टा, सुबोहत्तावो । तम्हा ण एदिस्से विहासंत रमेहिमाड विज्जदि त्ति एसो एदस्स भावत्यो । एवमेत्तिएण पबंधेण पंचमी मुलगाहाए विहासणं समाषिय संपहि बहावसरपलाए छटुमूलगाहाए विहासणं कुणमाणो ६ ३६६. यह सूत्र सुगम है । * अनाकार चक्षुवनोपयोग और लचक्षुबर्शनोपयोगमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। तथा अवधिदर्शनोपयोगमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भवनीय हैं। $ ३६७. यह चौथी भाष्यगाथा दर्शनमागंणाके विषयमें पूर्वबद्ध कर्मोंके इस क्षपक के भजनीय मोर अभजनोयस्वरूपसे अस्तित्वकी गवेषणा करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे' - कम्माणि अभज्जाणि दु' ऐसा कहनेपर -चक्षुदर्शनोपयोग और अचक्षुदर्शनोपयोगमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि इन दोनों उपयोगों का इस क्षपक कर्मस्थितिके भीतर निश्चयसे सम्भव देखा जाता है। इस सूत्र में 'अणगारोवजोगो' ऐसा सामान्य निर्देश करनेपर भी परिशेषन्यायसे चक्षुदर्शनोपयोगका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि शेष दो छद्मस्थ उपयोगोंका सूत्रमें पृथक् निर्देश देखा जाता है । 'अघ ओहिदंसणे पुण' ऐसा कहनेपर अवधिदर्शनोपयोगमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अवधिदर्शनावरणका क्षयोपशम सब जीवोंमें सम्भवरूपसे नहीं उपलब्ध होता । अब इस प्रकारका इस भाष्यगाथाका अर्थ सुगम है ऐसा करके उसके विषय में अन्य दूसरी विभाषा आरम्भ नहीं करनी चाहिए ऐसा कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * यह समुत्कीर्तना हो इसकी विभाषा है । $ ३६८. यह समुत्कीर्तना ही इस भाष्यगाथाकी विभाषारूपसे प्रवृत्त है, इसलिए इस समय इसकी दूसरी विभाषा प्रारम्भ नहीं की जाती है यह इसका भावार्थ है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा पाँचवीं मूल गाथाकी विभाषा समाप्त करके अव यथावसर प्राप्त छठी मूल गाथाकी विभाषा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ उवरिमं पबंध माढवेइ जयधवासहिदे कसायपाहुडे * एत्तो छट्ठी मूलगाहा | ६ ३६९. एत्तो उवरि छुट्टी मूलगाहा विहासियग्वा त्ति । (१३८) किं लेस्साए बद्धाणि केसु कम्मेसु वट्टमाणेण । सादेण असादेण च लिंगेण च कम्हि खेत्तम्हि ॥ १९१ ॥ ९ ३७०. एसा मूलगाहा लेस्सामग्गणाए सिप्पकम्मभेदेसु सादासादोदये तावसादिलिंगगणेसु खेत्त-कालविभागेसु च वट्टमाणेण पुव्वबद्धाणं कम्माणं खवगसंबंधेग भय णिज्जाभय णिज्जसत्रेण संभवगवेसण मोइण्णा । तं जहा - 'किलेस्साए बद्धाणि' एवं भणिदे छबिहाए लेस्साए वाणि कम्माणि किमेदस्स खवगस्स भयणिज्जाणि आहो ण भयणिज्जाणि त्ति पुच्छाहि. संबंध । तदो एसो सुतावयवो लेस्सामग्गणाए पुग्वबद्वाणं कम्माणं भयणिज्जाभय णिज्ज भावगवेसमुवणिबद्धो दटुव्वो । $ ३७१. 'केसु व कम्मे वट्टमाणेण' जीवनोपायभूताः क्रियाविशेषाः कर्माणि कृप्यादीनि । तत्थ के कम्मे वट्टमाण पुठवबद्धाणि कम्माणि एदस्स खवगस्स भज्जाणि केसु वा ण भज्जाणि त्ति पुच्छा एदेण कदा होइ । ६ ३७२. 'सावेण असावेण च' एवेण सुत्तावयवेण सादासादोदय विसेसिदेण जीवेण पुव्वबद्धाणं कम्पाणं भणिज्जाभय णिज्जभावमग्गणा पुच्छामुहेण णिद्दिट्ठा दटुव्वा । करते हुए आगे के प्रबन्धको आरम्भ करते हैं - * अब इससे आगे छठी मूलपाथाका अवतार करते हैं । ६ ३६९. इससे आगे छठी मूलगाथाकी विभाषा करनी चाहिए। (१३९) किस लेश्या में, किन कर्मोंमें, किस क्षेत्र और कालमें वर्तमान जीवके द्वारा तथा साता, आगता और किस लिंगके साथ वद्ध कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं ॥१९१॥ ६ ३७०. यह मूल सूत्रगाथा लेश्या मार्गणा में, शिल्पकर्मके भेदोंमें, साता और असाताके उदय में तापस आदि त्रिगग्रहणों में तथा क्षेत्र और कालके भेदों में विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के क्षपके सम्बन्धसे भजनीय और अभजीयस्वरूपसे सम्भवकी गवेषणा करनेके लिए अवतीर्णं हुई है । वह जैसे - ' कलेस्साए बद्धाणि' ऐसा कहनेपर छह प्रकारको लेश्याओं में बद्ध कर्म क्या इस क्षपक भजनीय हैं या भजनीय नहीं हैं इस प्रकार इस पृच्छका प्रकृत में सम्बन्ध है । इसलिए यह सूत्रका अवयव लेश्यामार्गणा में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं या अभजनीय हैं इस बात की गवेषणा करने के लिए निबद्ध की मई जाननी चाहिए। $ ३७१. 'केसु व कम्मे वट्टमाणेण' - जीवन संचालनके उपायभूत क्रियाविशेष कृषी आदि कर्म हैं । उनमें से किन कम विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं तथा किन कर्मोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं यह पूच्छा इस वचन द्वारा की गयो है । § ३७२. तथा इस सूत्र के 'सावेण असादेण च' इस अवयवद्वारा सातावेदनीय और असातावेदनीयके उदयसे युक्त जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं या अभजनीय हैं यह मार्गणा उक्त पृच्छाद्वारा की गयी जाननी चाहिए। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवगसेढीए छट्ठमूलगाहाए पढमभासगाहा १३७ ६ ३७३. लिंगेण च एव भणिदे लिंगग्गहणेसु तावसादिवेसग्गहणलपखणेसु बट्टमाणेण पुठवबद्धाणि कम्माणि किमेदस्स खवगस्स अत्थि आहो त्यि ति पुच्छाणिद्देसो कवो होई। 5 ३७४. 'कम्हि खेत्तम्हि' एवं भणिदे उड्डाघोतिरियलोयभेयभिण्णेसु खेतवियप्पेसु वट्टमाणेण पुथ्वबद्धाणं कम्माणं भयणिज्जाभयणिज्जभाव विसया पुच्छा णिहिट्ठा ति घेत्तव्वा । एदेणेव देसा. मासयभावेण कालविभागेसु वि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिभेयभिण्णेसु वट्टमाणेण पुथ्वबद्धाणं कम्माणं भयणिज्जाभयणिज्जभावविसयो पुच्छाणिद्देसो संगहेयन्वो। वृत्तसेसाणं संजमाविमग्गणाणं च एत्थेव संगहो वटव्वो; सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्तादो । एवमेदीए मूलगाहाए पुच्छामेतेण सूचिदाणमत्यविसेसाणं विहासणं कुणमाणो तत्थ पडिबद्धाणं भासगाहाणमियत्तावहारणमिवमाह * एदिस्से दो भासगाहाओ । 5 ३७५. सुगर्म। * तासि समुकित्तणा। ३७६. तासि दोण्हं भासगाहाणं जहाकममेसा समुक्कित्तणा बटुव्वा त्ति वुत्तं होह। (१३९) लेस्सा साद असादे च अमज्जा कम्म सिप्प लिंगे च । खेत्तम्हि च भज्जाणि दुसमाविमागे अमज्जाणि ॥१९२॥ ६३७३. "लिंगेण च' ऐसा कहनेपर तापस आदि लिंगग्रहणलक्षण लिंगग्रहणोंमें विद्यमान बोवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके हैं या नहीं हैं यह पृच्छानिर्देश किया गया है। 5 ३७४. 'कम्हि लेसम्हि' ऐसा कहनेपर ऊवलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोकके भेदसे भेदको प्राप्त हुए क्षेत्रविशेषोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म भजनीय हैं या अभजनीय है यह पृच्छा निर्दिष्ट की गयी जाननी चाहिए। तथा इसी वचनके द्वारा देशामर्षकरूपसे ग्रहण किये गये अवसर्पिणी और उत्सर्पणोके भेदसे भेदको प्राप्त हुए कालके विभागों में विद्यमान बीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं या अभजनीय हैं इस पृच्छानिर्देशका संग्रह करना चाहिए। तथा पूर्वमें जिन मार्गणाबोंकी अपेक्षा निर्देश कर आये हैं उनसे शेष रहीं संयम आदि मागंणाबोंका संग्रह भी यहींपर कर लेना चाहिए। इस प्रकार इस मूलगाथामें पृच्छाद्वारा सूचित हुए अर्थविशेषको विभाषा करते हुए उक्त विषयमें प्रतिबद्ध भाष्यगाथाओंकी इयत्ताका अवधारण करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * इस छठी मूलगाथाको दो भाष्यगाथाएं हैं। 5 ३७५. यह सूत्र सुगम है। * अब उनकी समुत्कीर्तना करते हैं। ६३७६. उन दोनों भाष्यगाथाबोंकी यथाक्रमसे समुत्कोतना बाननी चाहिए यह उक कथनका तात्पर्य है। (१३९) सभी लेश्याम तथा साता और असातामें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं । बसि आदि सभी कर्मोमें, सभी शिल्पोंमें, सभी लिंगोंमें और सभी क्षेत्रों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं। तथा कालके सभी विभागों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ॥१९२॥ १८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जयघवलासहिदे कसायपाहुरे 5 ३७७. एसा पढमभासगाहा पुव्वुत्ताणं सव्वासिमेव पुच्छाणं णिण्णयविहाणटुमोइण्णा। संपहि एविस्से किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-'लेस्सा साद असादे च' एवं मणिदे छसु लेस्सासु सादासादोदएसु च वट्टमाणेण पुवबद्धाणि अभज्जाणि णियमा ताणि अत्थि त्ति वुत्तं होदि । कुदो एदेसिमभज्जत्तणियमो त्ति चे ? लेस्साभेदाणं सादासादोदयाणं च तिरिक्ख-मणुस्सेसु अंतोमुहत्तेण परावत्तणणियमदंसणादो। ण चावट्टिदलेस्सेसु देव-णेरइएसु पविट्ठस्त अण्णहाभावसंभवो आसंकणिज्जो, कम्महिदिमेत्तकालं तत्थावट्ठाणासंभवेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पज्जिय छसु लेस्सासु परावत्तमाणस्स सव्वलेस्सासंचयाणं खवगसेढोए अवस्संभावणियमदंसणादो। ६३७८. 'कम्म सिप्प लिंगे च' एवं भणिदे सम्वेसु कम्मेसु सम्वेसु सिप्पेसु सम्वेसु । लिंगग्गहणेसु वट्टमाणेण पुवबद्धाणि भजिदम्याणि त्ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एवेसि भयणिज्जतमिदि घे? तेसिमवस्संभावणियमाभावादो । णिग्गंलिंगसंचयस्स अवस्संभावणियमसणादो ण ३७७. यह प्रथम भाष्यगाथा पूर्वोक्त सभी पृच्छाओंका निर्णय करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। अब इसमें आये हुए पदोंके किंचित् अर्थको प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे-'लेस्सा साद असादे च' ऐसा कहनेपर छहों लेश्याओं और साता असातावेदनीयके उदयोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। उक्त स्थानोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस झपकके नियमसे पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-उक्त स्थानोंमें पूर्वबद्ध कर्मोंके इस पकके अभजनीयपनेका नियम किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि तिर्यंचों और मनुष्योंमें लेश्याके भेदोंका और साता-असाताके उदयका अन्तर्मुहुर्तमें परिवर्तनका नियम देखा जाता है। तथा अवस्थित लेश्यावाले देव और नारकियोंमें प्रविष्ट हए जीवको अपेक्षा अन्यथाभाव सम्भव है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्मस्थितिमात्र काल तक उन गतियोंमें अवस्थान असम्भव होनेसे तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर छहों लेश्याओंमें परावर्तन करनेवाले जीवके सब लेश्याओंमें संचित हुए कोका क्षपकश्रेणिमें अवश्य हो पाये जानेरूप नियम देखा जाता है। विशेषार्थ-देवगति और नरकगतिमें यद्यपि अवस्थित लेश्याएं पायी जाती हैं, परन्तु कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर जो जीव इन गतियोंमें जन्म न लेकर मात्र तिर्यंचति और मनुष्यगतिमें हो रहे और अन्तमें उसी कालके भीतर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करे यह नियमसे सम्भव है। साथ ही इन गतियोंमें यथायोग्य छहों लेश्याएँ नियमसे पायी जाती हैं, क्योंकि इन गतियोंमें उनमेंसे प्रत्येक लेश्याका काल ही अन्तर्मुहूर्त है। इसलिए तो छहों लेश्याओंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह निश्चित होता है। इसी न्यायसे सातावेदनीय और असातावेदनीयके उदयकी अपेक्षा भी समझ लेना चाहिए। ६३७८. 'कम्म सिप्प लिंगे च' ऐसा कहनेपर सब कर्मोमें, सब शिल्पोंमें और सभी लिंगग्रहणोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। शंका-इन स्थानोंमें बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय किस कारणसे हैं ? समाधान-क्योंकि इन स्थानोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अवश्य ही होते हैं ऐसा नियम नहीं है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए छट्ठमूलगाहाए पढमभासगाहा १३९ सर्व्वाल संचयस्स भयणिज्जत्तावहारणमेदं घडवि त्ति णासंकणिज्जं; पासंडिलिंगाणमेव सवियारaerodre विवविखयत्तादो। ण च जिर्णालगग्गहणे सविधारवेसग्गहणमत्यि; तस्स जादरूवसरू - वादो। तो सव्वे परपासंडिलिगेसु पुग्वबद्धाणं भयणिज्जत्तमेवेत्ति सिद्धं । $ ३७९. 'खेत्तम्हि य भज्जाणि दु' एवं भणिदे तिरियलोयसंचयं धुवं काढून सेसखेत्तम्हि अघोलोगे उड्डलोगे च वट्टमाणेण संचिदकम्मस भज्जतं होइ ति सुत्तत्यो । सुत्ते एवंविहविसेस - णिसाभावे कघमेसो विसेसो विण्णादुं सविकज्जवे ? ण, वक्खाणावो तहाविहविसेसपडिवत्तीवो । ६ ३८०. 'समाविभागे अभज्जाणि' एवं भणिदे समाविभागो नाम कालविभागो । सो वुण विहो ओसप्पिणि उस्सप्पिणिभेदेण । तत्थ एक्केत्रको सुसमसुसमाविभेवेण छग्विहो होषि । सत्य सव्वत्य वट्टमाणेण बद्धाणि कम्माणि णियमा अत्थि, तदो ताणि ण भयणिज्जाणि त्ति सुत्तत्थो । कुदो वुण तेसिमभयणिज्जत्तमिदि चे ? कम्मद्विंदिअब्भंतरे ओसप्पिणि उस्सप्पिणिकालाणं सांत भेदाणं परिवत्तणनियमदंसणा दो । संपहि एवंविहमे दिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ शंका- इस क्षपकके निर्ग्रन्थ लिंग अवश्य ही सम्भव देखा जाता है, इसलिए सब लिंगों में संचित हुआ कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह नियम नहीं घटित होता ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विकारी वेशवाले पाखण्डी लिंग ही यहां विवक्षित हैं । और जिनलिंग के ग्रहण में विकारी वेशका ग्रहण होता नहीं, क्योंकि वह यथाजातस्वरूप होता है, इसलिए सब परमतोंद्वारा स्वीकृत पाखण्डी लिंगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह सिद्ध हुआ । ६ ३७९. 'खेत्तम्हि य भज्जाणि दु' ऐसा कहनेपर तिर्यग्लोकके संचयको ध्रुव करके शेष अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में विद्यमान जीवके संचित हुआ कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह इस सूत्रवचनका अर्थ है । शंका – सूत्र में इस प्रकारके विशेषका निर्देश नहीं किया, अतः इस विशेषको जानना कैसे शक्य है ? समाधान- नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे इस प्रकार के विशेषका ज्ञान हो जाता है । ६ ३८०. 'समाविभागे अभज्जाणि' ऐसा कहनेपर समाविभागका अर्थ कालका विभाग है । और वह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे एक-एक का सुषमासुषमा आदिके भेदसे छह प्रकारका है। उन सब कालोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म नियमसे हैं । इसलिए वे भजनीय नहीं हैं यह इस सूत्रवचनका अर्थ है । शंका- इन कालोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय कैसे हैं ? समाधान क्योंकि कर्मस्थिति के भीतर अपने अन्तर्भेदोंके साथ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालोंके परिवर्तनका नियम देखा जाता है । इसलिए इन कालों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह सिद्ध हो जाता है । अब इस गाथा के इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * विहासा। ३८१. सुगमं। * तं जहा। 5 ३८२. सुगम। -सु लेस्सासु सादेण असादेण च बद्धाणि अमज्जाणि । ६३८३. छस लेस्सास सादासादोदयेसु च पुव्यबद्धाणि कम्माणि णियमा अस्थि, तेसि भयणिज्जत कारणाणवलंभादो। * कम्म सिप्पेस मज्जाणि। १३८४. कम्मेसन सिप्पेस च वट्टमाणेण पुज्वबद्धाणि भजियवाणि त्ति वुत्तं होंदि। एत्थ भयणिन्जत्ते कारणं सगमं। संपहि काणि ताणि कम्माणि जेसु वट्टमाषण बद्धाणं कम्माणं भयणिज्जत्तमेवं परूविज्जवि ति आसंकाए कम्मभेदाणं गिद्देस कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ कम्माणि जहा-अंगारकम्म वण्णकम्मं पव्वदकम्ममेदेसु कम्मेसु मज्जाणि । ३८. एत्य 'अंगारकम्मं इवि भणिवे अंगारसंपायणट्ठा कट्टदहणकिरिया घेत्तव्वा, कटुंगारसमाणणेण बहूणं कम्मकराणं जोवणोवलंभादो । अधवा तेहिं तहा णिव्वत्तिर्देहि अंगारेहि अब इस प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ३८१. यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६३८२. यह सूत्र सुगम है। * छह लेश्याओंमें तथा सातोदय और असातोदयके साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। ६३८३, इन छहों लेश्याओंमें तथा सातोदय और असातोदयमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं, क्योंकि उनके भजनीयपने में कारण नहीं पाया जाता। * कर्मों और शिल्पोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय है। १३८४. कर्मों में और शिल्पकार्यो में विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहां भजनीयपने में कारण सुगम है। अब वे कर्म कौन हैं जिनमें विद्यमान जीवके द्वारा बद्ध कर्म इस क्षपके भजनीय हैं यह कहा जाता है ऐसी आशंका होनेपर इन कर्मोका निर्देश करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * कर्म यथा-अंगारकर्म, वर्णकर्म और पर्वतकर्म इन कर्मोमें बद्ध कर्म इस क्षपकके भमनीय हैं। ६३८५. इस सूत्रमें 'अंगारकम्म' ऐसा कहनेपर अंगारकार्यको सम्पादन करने के लिए लकड़ीके जलानेरूप क्रियाको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि यहां काष्ठांगारसे बने भोजनसे बहुतसे कर्मकरोंका जीवन उपलब्ध होता है। अथवा अंगारकर्मसे जो उसी प्रकारके अन्य अंगार Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बषगसेढीए छट्ठमूलगाहाए पठमभासगाहा १४१ जो सुवण्णसंभारणाविवावारो' सो वि अंगारकम्ममिवि घेत्तन्वं । षण्णकम्मं णाम चित्तकम्मं वत्यरंजणावि घेत्तव्वं, हरियाल-हिंगुलमाविवण्णाणमण्णोण्णसंजोगजणिदवण्णभेदेहि पड-कुड्डादिस विचित्तचित्तकम्मसंपादणेण खोमंसम-दुगुलादिवत्थविसेसरंजणेण च जीवंताणं बहुआणमुवलंभादो। 'पव्वदकम्म' इवि वुत्ते लयण-खणण-सिलायंभघडण-तलउब्भसमारणादिसेलकम्मस्स गहणं कायव्वं । एवंपयारा अण्णे वि कम्मविसेसा मूसाकम्मादयो' एदेण देसामासयसुत्तेण णिहिट्ठा बटुव्वा । तदो एदेसु कम्मभेदेस वट्टमाणेण पुष्वबढाणि कम्माणि एवस्स खवगस्स भजिदवाणि, सम्वेसु जोवेस एदेसिमवस्संभाविणियमाभावादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ। एदेणेव वेसामासयसुत्तेण सिप्पभेदाणं पि पत्तछेवावीणं संगहो कायव्यो, 'हस्तनैपुण्यं शिल्पमिति' वचनात्। * सवलिंगेसु च मज्जाणि । ६३८६. णिग्गंलिंगवविरित्तसेसाणं सलिंगग्गहणेसु वट्टमाणेण पुण्यबद्वाणि कम्माणि एक्स्स खवगस्स भयणिज्जाणि त्ति वुत्तं होई। किं कारणं? तावसादिवेसग्गहणाणं सव्वजोवेस संभवणियमाणुवलंभावो । तबो सिद्धमेदेसि भयणिज्जतं । निष्पन्न किये जाते हैं उनसे जो स्वर्णका संस्कृत करना आदि व्यापार किया जाता है वह भी अंगारकर्म है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । वर्णकमसे वस्त्रका रंगना आदि चित्रकर्मको ग्रहण करना चाहिए। हरताल, हिगुल बादि रंगोंके परस्पर संयोगसे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके रंगोंद्वारा वन, दोवाल आदि पर नाना प्रकारके चित्रकर्मसम्पादन द्वारा तथा कपाससे बना हुआ वस्त्र और वृक्षकी छालसे बना हुआ वस्त्र आदि वस्त्रविशेषके रंगने द्वारा जीविका करनेवाले बहुत प्रकारके मनुष्य पाये जाते हैं। 'पव्वदकम्म' ऐसा कहनेपर गुफाका खोदना, शिला व स्तम्भका घड़ना ओर तलगृहका निर्माण करना आदि शैठकर्मका ग्रहण करना चाहिए। तथा इसी प्रकारके मूसाकर्म (धातु गलानेका कर्म) आदि और भी कर्मविशेष इस पदद्वारा देशामर्षकरूपसे निर्दिष्ट किये गये जानने चाहिए। इसलिए कर्म के इन भेदोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय होते हैं। क्योंकि जो वीव क्षपकवेणिपर चढ़ते हैं उन सबके ये कर्म अवश्य ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है। इस प्रकार यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। तथा इसी सूत्र द्वारा ही देशामर्षकभावसे शिल्पकर्मके भेद पत्रच्छेदन आदि कोका भी संग्रह करना चाहिए, क्योंकि हस्तकी निपुणताका नाम ही शिल्प है ऐसा वचन है। * सब लिंगोंमें पूर्व बद्धकर्म इस क्षपकके भजनीय हैं। ६३८६. निर्ग्रन्थ लिंगके अतिरिक्त शेष सब लिंगग्रहणोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि तापस आदि वेशोंका ग्रहण सब जीवोंमें सम्भव हो ऐसा नियम नहीं पाया जाता । इसलिए इन लिंगोंमें पूर्वबद्ध कर्मोकी भजनीयता सिद्ध हो जाती है। * क्षेत्रको अपेक्षा अधोलोक और ऊध्वंलोकमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके स्यात् पाये जाते हैं। किन्तु तियंग्लोकमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। १. ता० प्रती समारणादिवावारो इति पाठः । २. वा० प्रती मासा (मसि) कम्मादयो। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जयधवासहिदे फसायपाहुडे * खेत्तम्हि सिया अधोलोगिगं सिया उड्ढलोगिगं णियमा तिरियलोगिगं । ६३८७. अधोलोगसंबंधेण उड्डलोगसंबंधेण च ज बद्धं कम्मं तं सिया अत्यि सिया णत्यि त्ति भयणिज्ज। तिरियलोगियं तु कम्मं णियमा अत्थि ति वुत्तं होइ। तं कधं ? कम्मढिवि. कालब्भंतरे उडलोगमयंतूण अघोलोगे चेव अच्छियूणागदस्स उड्डलोगसंचओ ण लग्भवे । एवमधोलोगपरिहारेण उनलोगे चेव कम्मटिदिमेत्तकालमच्छियूणागवस्स अघोलोगसंचओ ण लग्भदि त्ति 'वोण्णमेदेसि' भयणिज्जत्तं जादं उड्डाधोलोगपरिहारेण तिरियलोगे चेव कम्मट्टिदिमणुपालेदूणागवस्स वा खवगस्स तदुभयसंचओ ण लब्भदि त्ति भजियव्वो जादो। तिरियलोयसंचयो पुण ण भजियव्यो। कम्महिदिमेत्तकालमुड्ढाधोलोगेसु चेव समयाविरोहेणावद्विवस्स वि पुणो तिरियलोगखेत्तमणागंतूण खवगसेढिसमारोहणे संभाणुवलंभादो। एत्थ तिरियलोयसंचयं धुवं कादूण उड्डाघोलोयसंचयस्स भयणिज्जभावेण चत्तारि भंगा वत्तव्वा। संपहि एक्स्सेवत्थस्स फुडीकरण?भुत्तरसुत्तमोइण्णं * अधोलोगमुड्ढलोगिगं च सुद्धं णस्थि । ६३८८. अधोलोगसंचयो उड्ढलोगसंचयो च खवगसेढीए भयणिज्जभावेण संभवंतो जम्हि काले संभवह तम्हि सुद्धो होदूण ण लब्भइ, किंतु तिरियलोगसंचयसम्मिस्सो चेव दीसह। कि कारणं? जहण्णदो वि संखेज्जावलियमेततिरियलोयसंचयस्स मणुसपज्जाएण संचिदस्स तत्थाव ६३८७. अधोलोकके सम्बन्धसे और ऊवलोकके सम्बन्धसे जो कर्म बन्धको प्राप्त होता है वह इस क्षपकके स्यात् है और स्यात् नहीं है, इसलिए भजनीय है । परन्तु तिर्यग्लोकके सम्बन्धसे पूर्वबद्ध कर्म इस क्षरकके नियमसे पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-वह कैसे ? समाधान-क्योंकि कर्मस्थिति सम्बन्धी कालके भीतर ऊलोकमें न जाकर अधोलोकमें ही रहकर वहाँसे आये हुए इस क्षपक जीवके ऊवलोकमें किया गया संचय नहीं पाया जाता। इसी प्रकार अधोलोकमें न जाकर कर्मस्थितिसम्बन्धी कालके भीतर ऊर्ध्वलोकमें ही रहकर वहाँसे आये हुए इस क्षपक जीवके अधोलोकमें किया गया कर्मोका संचय इस क्षवकके नहीं पाया जाता, इसलिए इन दोनों लोकोंमें बद्ध कर्मों को भजनीयता इस क्षपकके बन जाती है। अथवा ऊर्ध्वलोक और अधोलोकका परिहार करके तिर्यग्लोकमें ही कर्मस्थितिका पालन करके आये हुए इस क्षपकके ऊर्ध्वलोक और अधोलोक उन दोनोंमें हुआ कर्म संचय इस क्षपकके नहीं पाया जाता, इसलिए भजनीय हो जाता है। परन्तु तिर्यग्लोकमें हुआ संचय इस झपकके भजनीय नहीं है, क्योंकि कर्मस्थितिसम्बन्धी कालके भीतर ऊर्ध्वलोक और अधोलोकमें समयके अविरोधपूर्वक रहे हए जीवका तिर्यग्लोकसम्बन्धी क्षेत्रमें गये बिना क्षपकणिपर थारोहण करना सम्भव नहीं है। यहाँपर तिर्यग्लोकमें हुए संचयको ध्रुव करके ऊर्ध्वलोक और अधोलोकमें हुए संचयके भजनीयपनेके कारण चार भंग कहने चाहिए। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * अधोलोक और ऊर्चलोकमें हुआ संचय इस क्षपकके शुद्ध नहीं पाया जाता। ३८८. अधोलोकमें हुआ संचय और ऊर्ध्वलोकमें हुआ संचय क्षपकश्रेणिमें भजनीयरूपसे सम्भव है, अतः जिस कालमें इस क्षपक जीवके सम्भव है उस कालमें शुद्ध होकर नहीं प्राप्त होता, किन्तु उक्त संचय तिर्यग्लोकमें हुए संचयके साथ सम्मिश्र होकर ही दिखाई देता है, क्योंकि जघन्यरूपसे भी संख्यात आवलिप्रमाण कालके भीतर तिर्यग्लोकमें जो संचय हुआ है Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए छट्ठमूलगाहाए विदियभासगाहा संभावणियमवंसणावो । तिरियलोयसंचयो पुण सुद्धो वि लम्भइ, कम्मद्विविमेत्तकालं तिरियलोगे चेव अच्छियूण पुणो मणुसपज्जाए पडिलंभेण कम्मक्खयं कुणमाणस्स परिप्फुडमेव तदुवलंभादो। ण एत्थ मणुसगदिसंचयस्स तत्तो पुधमूवस्स संभवो आसंकणिज्जो; माणुसखेत्तस्स वि तिरियलोगंतब्भूवत्तणेण तत्तो पुधभूदाणुवलंभावो। ३८९. संपहि 'समाविभागे अभज्जाणि' ति एवं सुत्तावयवमस्सियूण कालविभागे पुव्वबद्धाणं भयणिज्जाभयणिज्जभावगवेसणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * भोसप्पिणीए च उस्सप्पिणीए च सुद्धं पत्थि । ३३९०. कुदो? कम्मढिदिअभंतरे दोण्हमेदासि परावत्तणणियमदंसणादो । तदो ओसप्पिणिउस्सप्पिणिसंचओ अण्णोण्णसम्मिस्सो चेव होणेदस्स खवगस्स लब्भइ, ण सुद्धसरूवो त्ति एसो एबस्स सुत्तस्स भावत्थो। एवमेत्तिएण पबंधेण पढमभासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए विदियभासगाहाए बिहासणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । 5 ३९१. सुगमं। (१४०) एदाणि पुत्ववद्वाणि होति सव्वेसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु णियमसा सव्वकिट्टीसु ॥१९३॥ वह मनुष्यपर्यायसम्बन्धी संचित कर्मद्रव्य है जो कि अवश्यंभावी होनेसे उस क्षपकके नियमसे पाया जाता है। परन्तु तिर्यग्लोकमें हुआ संचय इस क्षपकके शुद्ध भी पाया जाता है, क्योंकि कर्मस्थिति काल तक तिर्यग्लोकमें ही रहकर पुनः मनुष्यपर्यायके प्राप्त हो जानेसे कर्मक्षय करनेवाले जीवके स्पष्टरूपसे ही कर्मस्थितिके भीतर हुआ संचय पाया जाता है। यहां मनुष्यगति सम्बन्धी संचय उससे पृथग्भूत सम्भव है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मनुष्यक्षेत्र भी तियंग्डोकके अन्तर्भूत है, इसलिए यह उससे पृथक् उपलब्ध नहीं होता। ३८९. अब 'समाविभागे अभज्जाणि' इस सूत्रावयवका आश्रय कर कालके विभागोंमें पूर्वबद्ध कर्मोके भजनीय और अभजनीयपनेकी गवेषणा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * अवसर्पिणी में और उत्सपिणीमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके शुद्ध नहीं पाया जाता। 5 ३९०. क्योंकि कर्मस्थितिके भीतर इन दोनों कालोंके परावर्तनका नियम देखा जाता है, इसलिए अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालके भीतर परस्पर मिलित होकर ही इस क्षपकके प्राप्त . शवस्वरूप होकर प्राप्त नहीं होता यह इस सत्रका भावार्थ है। इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा सम्पन्न करके अब यथावसरप्राप्त दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * यह दूसरी भाष्यगाथा समत्कीर्तना है। ६३९१. यह सूत्र सुगम है। (१४०) ये पूर्वबद्ध कर्म स्थितिके सब भेदोंमें, सब अनुभागोंमें और सब कृष्टियोंमें नियमसे पाये जाते हैं ॥१९३॥ होता है. शव Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपवला सहिदे कसायपाहुडे $ ३९२. एसा विदियभासगाहा 'कदीसु किट्टीसु च द्विवीसु' त्ति चउत्यमूलगाहाए चरिमावमस्तियूण तोहि मुलगाहाहिं समद्दिद्वाणमभयणिज्जाणं पूव्वबद्धाणं कम्मपदेसाणं द्विदि- अणुभागेस अवाक्कम जाणवणटुमोइण्णा । तं जहा - 'एदाणि पुण्यबद्धाणि' जाणि इमाणि वद्धाणि अभय णिज्जसरुवाणि तीसु मूलगाहासु समद्दिद्वाणि ताणि 'जियमसा' णिच्छयेणैव सम्सुद्विविविसेसेस दट्टव्वाणि सव्वेंस कम्माणं जहष्ण द्विविमादि काढूण जावुक्कस्सट्रिवित्ति सिमवाणदंसणा दो । 'सवेसु च अणुभागेसु' त्ति भणिदे चदुण्हं संजलणाणं सव्वसरिसघणिय किट्टीणं गहणं काय | (૪ ६ ३९३. 'सव्यकिट्टीस' त्ति भणिदें सव्वासि संगह किट्टीणमवयवकिद्रोणं च एगोलीए गहणं काव्यं । तेण कोहादिसंजलणाणमेव के विकस्से किट्टीए अनंतेसु सरिसघणिय किट्टीस संभवंतीसु तत्य लोभसव्वजण किट्टिमादि काढूण जाव कोघुक्कस्सकिट्टि त्ति ताव सम्बकिट्टीणं सरिसधणिय ६ ३९२. यह दूसरो भाष्यगाथा 'कदीसु किट्रोस च द्विदोस्' इस चौथी मूलगाथाके अन्तिम चरणका अवलम्बन करके तीन मूलगाथाओं द्वारा निर्दिष्ट किये गये अभजनीय पूर्वबद्ध कर्म - प्रदेशोंके स्थिति और अनुभागों में अवस्थानक्रमका ज्ञान करानेके लिए अवतीर्णं हई है । वह जैसे— 'एदाणि पुत्रबद्धाणि' अर्थात् जो ये पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके तीन मुलगाथाओं में अभजनीय कहे गये हैं उन्हें 'णियमसा' निश्चयसे हो इस क्षपकके सब स्थितिविशेषों में जानना चाहिए, क्योंकि सभी कर्मोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक स्थितिके सभी भेदोंमें उनका अवस्थान देखा जाता है । 'सव्वेसु च अणुभागेसु' ऐसा कहनेपर चारों संज्वलनोंकी सदृश धनवाली सभी कृष्टियोंका ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ - - यहाँ 'सब स्थिति' ऐसा कहनेसे प्रथम और द्वितीय स्थितिका ग्रहण किया गया है, क्योंकि जब जिस कषायका उदय रहता है तब उसको प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति नियमसे होती है। अतः जितने भी पर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं वे इस क्षपकके प्रत्येक कषायकी सभी सम्भव स्थितियोंमें पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा इस क्षपक के कृष्टिकरणको क्रिया सम्पन्न होनेपर जितना भी सम्भव संज्वलन कषायोंका अन्भाग अवशिष्ट रहता है वह इस क्षपकके कृष्टिरूपमें हो पाया जाता है। यही कारण है कि यहांपर 'सव्वेसु च अणुभागेसु' इस पदका स्पष्टीकरण करते हुए उसे सदृश धनवाली कृष्टियोंस्वरूप ही कहा गया है। तात्पर्य यह है कि पूर्वबद्ध कर्मोंका अभजनीयस्त्ररूपसे जो अनुभाग अवशिष्ट रहता है वह इस क्षपकके सम्भव सभी कृष्टियों में पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ सर्वत्र इतना विशेष जानना चाहिए कि प्रकृतमें क्रोष संज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ जीव विवक्षित हुआ है, इसलिए १२ ही संग्रह कृष्टियां और उनकी अन्तर कृष्टियां पायी जाती हैं । किन्तु यदि कोष संज्वलनको छोड़कर मानादि किसी एक कषायके हृदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ जीव विवक्षित हो तो उसको अपेक्षा उस क्षपकके जितनी संग्रह और अन्तर कृष्टियों सम्भव हों उस अपेक्षासे निर्णय लेना चाहिए । यहाँ जो यह विशेष सूचना की गयी है वह इस क्षपकके पूर्वबद्ध कर्मो के भजनीय और अभजनीय स्वरूपसे विचार करते समय सर्वत्र समझ लेनी चाहिए। ६ ३९३. 'सव्वकिट्टीसु' ऐसा कहनेपर सब संग्रह कृष्टियोंका और उनको अवयव कृष्टियोंका एक पंक्तिरूपसे ग्रहण करना चाहिए। इससे क्रोधादि संज्वलनों सम्बन्धी एक-एक कृष्टिकी अनन्त सदृश धनवाली कृष्टियां सम्भव होनेपर उनमें लोभ संज्वलनकी सबसे जघन्य कृष्टि Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए छट्ठमूलगाहाए विदियभासगाहा किट्टिमभंतरे एदाणि अभयणिज्जसहवेणोवइट्ठाणि पुव्वबद्धाणि णियमा अस्थि त्ति भणिदं होइ । अधवा सव्वास किट्टीस जे अणुभागा अविभागपडिच्छेदसरूवा तेसु सम्वेसु चेव सरिसणियभावेण अभयणिज्जा पुग्वबद्धकम्मपदेसा अस्थि त्ति सुत्तत्थो गहेयम्वो। एदेणेव सुत्तेण देसामासयभावेण' भयणिज्जाणं पि कम्मपदेसाणं संभवपक्खे एगादिएगुत्तरकमेणं सव्वेसु द्विविविसेसेसु सव्वेस चाणुभागेसु सम्बासु च किट्टीस समवट्ठाणसंभवो अणुमग्गियठवो, विरोहाभावादो। 5 ३९४. संपहि एवंविहमेविस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ* विहासा । 5३९५. सुगमं। * जाणि अभजाणि पुव्यवद्धाणि ताणि णियमा सव्वेसु द्विदिविसेसेसु णियमा सव्वासु किट्टीसु । 5 ३९६. गयत्यमेदं सुत्तं । एवं छठुमूलगाहाए अत्यविहासा समत्ता । एममैत्तिएण पबंधेण लेकर क्रोधसंज्वलनको सबसे उत्कृष्ट कृष्टि तकको सब कृष्टियोंसम्बन्धी सदृश धनवाली कृष्टियोंके भोतर ये अभजनीय स्वरूप कहे गये पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा सब कृष्टियोंमें जो अनुभाग अविभागप्रतिच्छेदस्वरूपसे विद्यमान हैं उन सबमें ही सदृशधनरूपसे अभजनीय पूर्वबद्ध कर्मप्रदेश पाये जाते हैं ऐसा इस सूत्रका अर्थ ग्रहण करना चाहिए। तथा इसी सूत्रसे देशमार्षकभावसे भजनीय कर्मप्रदेशोंका भी, सम्भव पक्षके स्वीकार करनेपर एक परमाणुसे लेकर एक-एक अधिक परमाणु क्रमसे, सब स्थितिविशेषोंमें सब अनुभागोंमें और सब कृष्टियोंमें अवस्थान सम्भव है यह मार्गणा कर लेनी चाहिए, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। विशेषार्थ-जिस मार्गणा आदि सम्बन्धी पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय है वे तो सभी कृष्टियोंमें पाये जाते हैं। अथवा सभी कृष्टियों में अविभागप्रतिच्छेदस्वरूप जो अनुभाग पाया जाता है उन सबमें सदृश धनरूप अनुभागवाले अभनीय कर्मप्रदेश नियमसे पाये जाते हैं ऐसा इस सूत्रका अर्थ करना चाहिए। साथ ही जो पूर्वबद्ध कर्मप्रदेश भजनीयरूपसे इस क्षपकके पाये जाते हैं उनका सम्भव पक्षमें कमसे कम एक परमाणु और अधिकसे अधिक अनन्त परमाणु इस क्षपकके पाये जाते हैं। इसलिए उनका भी सब स्थितियों, सब अनुभागों और सब कृष्टियोंमें होनेका इसी विधिसे विचार कर लेना चाहिए। ६३९४. अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * अब इस दूसरी भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। $ ३९५. यह सूत्र सुगम है। * जो पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं वे स्थितिके सब भेवोंमें और सब कृष्टियों में नियमसे पाये जाते हैं। 5 ३९६. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार छठी मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। इस १. ता. प्रती देसामासयेण इति पाठः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तोहि मूलगाहाहि गदिमाविमग्गणासु पुग्वबद्धाणं भयणिज्जाभयणिज्जभावगवेसणं काढूण संपहि सत्तमीए मूलगाहाए अवयारं कुणमाणो इदमाह * एत्तो सत्तमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा। ६३९७. जहावसरपत्ताए सत्तमीए मूलगाहाए अत्थविहासणटुमेत्तो समुक्कित्तणा कायव्वा त्ति वुत्तं होइ। (१४१) एगसमयपबद्धा पुण अच्छुत्ता केत्तिगा कहि द्विदीसु । भवबद्धा अच्छुत्ता द्विदीसु कहि केत्तिया होति ॥१९४॥ 5 ३९८. एसा सत्तमी मूलगाहा अंतरकदपढमसमयप्पहुडि उवरिमावत्थाए वट्टमाणस्सेदस्स खवगस्स समयपबद्धा भवबद्धा वा केत्तिया उदये असंछुद्धा संभवंति । संभवंताणं तेसि केत्तिएसु टिदिविसेसेसु अणुभागभेदेसु अवट्ठाणं होइ ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणटुमोइण्णा । तं जहा–'एगसमयपबद्धा पुण' एवं भणिदे एक्कम्हि समये जेत्तिया कम्मपदेसा बंधमागया एत्ति समूहो एगसमयपबद्धो णाम । तस्स पुण समयभेदसंपण्णाए बहुत्तसंभवो अत्थि त्ति बहुवयणंतणिद्देसो कओ 'एगसमयपबद्धा' ति। अधवा एगेगसमयपबद्धा त्ति विच्छाणिद्देसावलंबणेण बहुवयणणिद्देसो एसो घडावेयव्यो। ६३९९. तदो एवं पयारा एगसमयपबद्धा केत्तिया एदस्स खवगस्स अच्छुत्तसरूवा अस्थि किमेक्को वा, दो वा, तिणि वा एवं गंतूण संखेज्जा असंखेज्जा वा त्ति पढमपुच्छाणिद्देसो। एत्थ प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा तीन मूलगाथाओंका अवलम्बन लेकर गति आदि मार्गणाओंमें पूर्वबद्ध कर्मोंकी इस क्षपकके भजनीय और अभजीयभावकी गवेषणा करके अब सातवीं मूलगाथाका अवतार करते हुए इस सूत्रको कहते हैं * आगे सातवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करते है। ३९७. यथावसरप्राप्त सातवीं मूलगाथाके अर्थको विभाषा करनेके लिए यहाँसे आगे उसकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (१४१) एक समयमें बांधे गये कितने कर्मप्रदेश स्थितिके कितने भेदोंमें असंक्षुब्ध रहते हैं, तथा कितने भवबद्ध कर्मप्रदेश स्थितिके कितने भेदोंमें असंक्षुब्ध रहते हैं ॥१९४॥ ६३९८. अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न करनेके प्रथम समयसे लेकर उपरिम समयमें विद्यमान इस क्षपकके कितने समयप्रबद्ध तथा कितने भवबद्ध कर्मप्रदेश उदयमें असंक्षुब्धरूपसे सम्भव हैं तथा सम्भव उनका कितने स्थितिभेदोंमें और अनुभागभेदोंमें अवस्थान होता है इस प्रकार इस तरहके अर्थविशेषका निर्णय करनेके लिए यह सातवीं मूलगाथा अवतीर्ण हुई हैं। वह जैसे'एमसमयपबद्धा पुण' ऐसा कहनेपर एक समयमें जितने कर्मप्रदेश बन्धको प्राप्त होते हैं इनके समुहका नाम एक समयप्रबद्ध है। परन्तु उसके समयभेदसे सम्पन्न होनेपर बहुत्व सम्भव है, इसलिए उनका 'एगसमयपबद्धा' इस प्रकार बहुवचनरूपसे निर्देश किया है। अथवा 'एक एक समयप्रबद्ध' इस प्रकार वीप्सानिर्देशके अवलम्बनद्वारा यह बहुवचनरूप निर्देश घटित हो जाता है। ६३९९. इसलिए इस प्रकार कितने एकसमयप्रबद्ध इस क्षपकके अछूते रहते हैं। क्या एक समयप्रबद्ध, दो समयप्रबद्ध या तीन समयप्रबद्ध इस प्रकार जाकर क्या संख्यात समयप्रबद्ध या Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए सत्तमी मूलगाहा १४७ 'अच्छुत्ता' त्ति वृत्ते जीवेण अच्छिक्का उदथंट्ठिदिमणाणिदा त्ति वृत्तं होइ । अधवा अच्छुत्ता त्ति वृत्तें उदये असंछुद्धा ति अत्थो घेत्तव्वो, उवरि चुण्णिसुत्ते तहाणिद्दे सदंसणा दो । ते वुण असंछुद्धसरूवा समयपबद्धा 'कह द्विदीसु' केत्तिएसु द्विदिभेदेसु वर्द्धति किमेक्कम्हि, आहो दोसु तिसु वा ति एवं विहविसेसणिद्दे सावेक्खो विदिओ पुच्छाणिद्देसो । एदेणेव देसामासयभावेण अणुभागविसयों वि पुच्छाणिद्देसो एत्थाणुगंतव्वो, उवरिमभासगाहाए तस्स वि विहासणोवलंभादो । तदो समयपबद्धाणमच्छुद्धसरुवाणं संखाविसेसो तेसि चेवावद्वाणपाओग्गट्ठिदि-अणुभागवियप्पा च गाहापुण्वद्धे पुच्छिदा ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ । $ ४००. संपहि गाहापच्छद्धमस्सियूण भवबद्धविसयो पुच्छानुगमो कीरदे । तं जहा - 'भवबद्धा अच्छुत्ता' एवं भणिदे एक्कम्मि भवग्गहणे जेत्तिओ कम्मपोग्गलो संचिदो तस्स भवबद्धसण्णा । सो वुण भवभेदेण एगभवविसयसमयपबद्धभेदेण च बहुत्तमावण्णो त्ति बहुवयणेण णिद्दिट्ठो । तदो एवमेत्थ सुत्तत्थ संबंधो कायव्वो-केत्तिया भवबद्धा एदस्स खवगस्स उदयट्ठिदीए असंछुद्धसरूवा भवंति किमेक्कभवसंबंधिणी आहो दो तिष्णि आदि संखेज्जासंखेज्जभवग्गहणसंबंधिणो, कि वा सव्वे वि भवबद्धा उदयपज्जाएण संछुत्ता चेव । ण एक्को वि भवबद्धो तदच्छुत्तसरूवो संभवदि, छुत्ताणमच्छुत्ताणं वा तेस केत्तिएसु द्विदिविसेसेसु केत्तिएसु वा अणुभागभेदेसु अवद्वाण संभवोत्ति एत्थ वि अणुभागविसयाए पुच्छाए पुग्वं व अंतब्भावो ददृव्वो । असंख्यात समयप्रबद्ध अछूते रहते हैं। इस प्रकार यह प्रथम पृच्छानिर्देश है। इस मूलगाथा सूत्रमें अच्छुत्ता' ऐसा कहनेपर जीवके द्वारा अस्पृष्ट अर्थात् उदयस्थितिको नहीं प्राप्त कराये गये रहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा ' अच्छुत्ता' ऐसा कहनेपर उदयमें असंक्षुब्ध रहते हैं यह अर्थं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि आगे चूर्णिसूत्र में उस प्रकारका निर्देश देखा जाता है । किन्तु वे असं स्वरूप समयप्रबद्ध 'कहि द्विदीसु' स्थितिके कितने भेदोंमें पाये जाते हैं ? क्या एक स्थिति में, दो स्थितियों में या तीन स्थितियों में पाये जाते हैं इस प्रकार विशेष निर्देशकी अपेक्षा रखनेवाला यह दूसरा पृच्छानिर्देश है । इस प्रकार इस कथनद्वारा देशामर्षकरूपसे अनुभागविषयक भी पृच्छा निर्देश यहाँपर करना चाहिए, क्योंकि उपरिम माध्यगाथा में उसकी भी विभाषा उपलब्ध होती है । इस प्रकार असंक्षुब्धस्वरूप समयप्रबद्धोंकी संख्याविशेषकी और उन्हीं के अवस्थानप्रायोग्य स्थिति और अनुभागके भेदोंकी इस गाथासूत्र के पूर्वार्ध में पृच्छा की गयी है यह यहां पर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । § ४००. अब उक्त गाथासूत्र के उत्तरार्धका अवलम्बन लेकर भवबद्ध विषयक पृच्छाका अनुगम करते हैं । वह जैसे - ' भवबद्धा अच्छुत्ता' ऐसा कहनेपर एक भवग्रहण में जितना कर्मपुद्गल संचित किया गया उसकी भवबद्ध संज्ञा है । परन्तु वह भवके भेदसे और एक भवविषयक समयप्रबद्धों के भेदसे बहुतपनेको प्राप्त हो जाता है, इसलिए बहुवचनका निर्देश किया है। इसलिए यहाँपर सूत्रका अर्थके साथ इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए कि कितने भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयस्थिति में असंक्षुब्धस्वरूप होते हैं ? क्या एक भवसम्बन्धी या दो-तीन आदि संख्यात और असंख्यात भवग्रहणसम्बन्धी समयप्रबद्ध उदयरूपसे असंक्षुब्त्र होते हैं । अथवा क्या सभी भवबद्ध समयप्रबद्ध उदयरूपमें संक्षुब्ध होते हैं या एक भी भवबद्ध समयप्रबद्ध उदयरूपसे मक्षुब्धस्वरूप नहीं पाया जाता। इस प्रकार क्षुब्धस्वरूप और अक्षुब्धस्वरूप उन समयप्रबद्धों का कितने स्थिति के भेदोंमें अथवा कितने अनुभाग विशेषोंमें अवस्थान सम्भव है। इस प्रकार यहाँपर भी अनुभागविषयक पृच्छाका पहलेके समान अन्तर्भाव जान लेना चाहिए । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे ४०१. अधवा कम्हि त्ति वुत्ते कम्हि उद्देसे समयपबद्धा भवबद्धा च केत्तिया असंछुद्धसत्वा लभंति ति पुच्छाहिसंबंधो कायन्वो। एसो च पुच्छाणिद्देसो अंतरकरणादो पुवुत्तरावत्थाओ उवेक्खदे। ४०२. संपहि एवमेवीए सुत्तगाहाए सूचिदत्यविसये णिण्णयविहाणटुमत्थ चत्तारि भासगाहाओ अस्थि त्ति तासि समुक्कित्तणं विहासणं च जहाकममेव कुगमाणो उत्तरसुत्तपबंधमाढवेइ * एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ.। 5 ४०३. सुगमं। * तासि समुक्कित्तणा। ६४०४. सुगमं। (१४२) छण्हमावलियाणं अच्छुत्ता णियमसा समयपबद्धा । सव्वेसु द्विदिविसेसाणुभागेसु च चउण्हं पि ॥१९॥ ६४०१. अथवा 'कम्हि' ऐसा कहनेपर किस स्थानपर भवबद्ध कितने समयप्रबद्ध असंक्षुब्धस्वरूप प्राप्त होते हैं इस प्रकार पृच्छाका सम्बन्ध करना चाहिए। और यह पृच्छाका निर्देश अन्तरकरणसे पूर्व अवस्या और उत्तर अवस्थाको अपेक्षासे प्रबृत्त हुआ है। विशेषार्थ-एक समयमें एक जीवके द्वारा जितने कर्मप्रदेश बन्धको प्राप्त होते हैं उनकी एक समयप्रबद्ध संज्ञा है । तथा भवके भीतर जितने समयप्रबद्ध बन्धको प्राप्त होते हैं उनकी भव बद्ध संज्ञा है। इन दोनोंको लेकर यहाँ जो पृच्छाएं की गयी हैं उनका आशय यह है-(१) अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न होनेपर उसके प्रथम समयसे लेकर एक या एक-एक कर जो अनेक समयप्रबद्ध बंधते हैं वे कितनी स्थिति और कितने अनुभागके कितने भेदोंमें पाये जाकर उदयमें दिखाई देते हैं या नहीं दिखाई देते । इस प्रकार भवबद्ध कर्म पुंजके विषय में भी यह पृच्छा कर लेनी चाहिए । 'भवबद्धा' पदको लेकर अन्तरकरणसे पूर्वको अवस्था तथा अन्तरकरणके बादकी अवस्याको लेकर भी उक्त पृच्छा को गयो है यह इस पूरे कथनका तात्पर्य है। ६४०२. अब इस प्रकार इस सूत्रगाथा द्वारा सूचित किये गये अर्थक विषयमें निर्णयका विधान करने के लिए इस विषयमें चार भाष्यगाथाएँ आयो हैं, इसलिए ययाक्रमसे ही उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * इस सातवीं मूल सूत्रगाथाको चार भाष्यगाथाएं हैं। ६४०३. यह सूत्र सुगम है। * अब उनको समुत्कोतना करते हैं। ६४०४. यह सूत्र सुगम है। (१४२) अन्तरकरणके बाद उपरिम अवस्थामें विद्यमान क्षपकके छह आवलियोंके भीतर, बंधे हुए समयप्रबद्ध, असंक्षुब्ध (अनुदीरित) रहते हैं । वे समयप्रबद्ध चारों ही कषायोंसम्बन्धी सभी स्थितिभेदों में और सब अनुभागोंमें पाये जाते हैं ।।१९५॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढोए छट्ठमूल गाहाए पढमभासगाहा $ ४०५. एसा पढमभासगाहा मूलगाहाए पुरिमद्धमस्सियूण अंतरकरणादो उवरिमावत्थाए चदुण्हं संजलणाणमेत्तिया समयपबद्धा अच्छुत्तसरूवा लब्भंति, तेसि च द्विदि-अणुभागेसु अवटूरणमेण सरूवेण होदित्ति एदस्स अत्यविसेसल्स णिण्णयविहणटुमोइण्णा । तं जहा - 'छण्हमावलियाणं' एवं भणिदे अंतरकरणादो उवरिभावत्थाए वट्टमाणस्स खवगस्स छन्हमावलियाणमब्भंतरे जे बद्धा समयबद्धा ते 'नियमसा' णिच्छयेणेव उदये असंसुद्धा भवंति । किं कारणं ? अंतरकरणे कदे तत्तो परं छसु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति नियमदंसणा दो । 'सव्वेसु द्विदिविसेसेस' एवं भणिदे वुण असंछुद्धसमयपबद्धा सव्वेसु ट्ठिदिविसेसेसु सव्वेसु चेवाणुभागभेदेसु चदुसंजल - विसयेसु नियमेणाव चिट्ठति, ण एक्कम्हि वि ठिदिविसेसे अणुभागविसेसे च ते सिमट्ठाण पडसे हो अस्थि त्ति भणिदं होइ । जइ वि एत्थ बंधादो उवरिमसंतट्ठिदीस अणुभागेसु च णिरुद्धसमय १४९ द्वाणमवद्वाण संभवो णत्थि तो वि अप्पणो पाओग्ग-द्विदि- अणुभागवियप्पे सव्वे घेतूण सव्वेस ट्ठिदिअणुभागविसेसेसु नियमा तेसिमवद्वाणं होइ त्ति सुत्ते भणिदं । ण च एवंविहो ६ ४०५. यह प्रथम भाष्यगाथा मूलगाथा के पहले अर्ध भागका आश्रय कर अन्तरकरण से उपरिम अवस्था में चारों संज्वलनोंके इतने समयप्रबद्ध उदोरणारूप क्रियासे रहित प्राप्त होते हैं और उनका स्थिति और अनुभाग में अवस्थान इस रूपसे होता है इस प्रकार इस अर्थ विशेष के निर्णयका विधान करने के लिए अवतीर्ण हुई है । वह जेसे- 'छण्हं आवलियाणं' ऐसा कहनेपर अन्तरकरण के बाद उपरिम अवस्था में विद्यमान क्षपकके छह आवलियोंके भीतर जो बद्ध समयप्रबद्ध हैं वे 'णियमसा' निश्चयसे ही उदय में असंक्षुब्ध ( उदीरणासे रहित) रहते हैं, क्योंकि अन्तरकरण करनेपर उसके बाद छह आवलि काल जानेपर उदीरणा होती है ऐसा नियम देखा जाता है । 'सव्वे द्विदिवि से सेसु' ऐसा कहनेपर तो असंक्षुब्ध समयप्रबद्ध चार संज्वलन सम्बन्धी सब स्थितिविशेषों में और सब अनुभाग के भेदोंमें नियमसे अवस्थित रहते हैं । एक भो स्थितिविशेष में और अनुभागविशेष में उनके अवस्थानका प्रतिषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यद्यपि यहाँपर बन्धसे उपरिस सत्त्वरूप स्थितियोंमें और सत्त्वरूप अनुभागों में विवक्षित समयप्रबद्धों का सर्वत्र अवस्थान सम्भव नहीं है, तो भी अपने बन्ध योग्य सब स्थिति और सब अनुभागके भेदोंको ग्रहण कर सब स्थितिविशेषों में और सब अनुभागविशेषोंमें उनका अवस्थान नियमसे पाया जाता है यह इस सूत्र में कहा गया है । और इस प्रकारका विशेष निर्देश सूत्र में नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकारके विशेषका ज्ञान होता है । विशेषार्थ - अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न करनेके बाद चारों संज्वलनोंका जो नवोन कर्मबन्ध होता है वह सब स्थितियों और सब अनुभागविशेषों में पाया जाकर वह छह आवलि काल नक उदीरणाके अयोग्य रहता है यह इस कथनका तात्पर्य | अब यहाँपर शंकाकारका कहना यह है कि इस जीवके प्रत्येक समयके नवोन बन्धमें जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त होता है उससे सत्त्वस्थिति और सत्त्वानुभाग अधिक होता है, इसलिए नवीन बन्धके प्रदेशों का उत्कर्षण सब सत्त्वस्थितियों और सब सत्त्वस्वरूप अनुभागों में न हो सकने के कारण उनका सब स्थितियों और सब अनुभागों में पाया जाना कैसे सम्भव होगा ? समाधान यह है कि चारों संज्वलनों के नवीन बन्धकी उस कालमें जितनी स्थिति और अनुभाग प्राप्त होता है उस सीमा तक ही सब स्थिति विशेषोंमें और सब अनुभागों में नवक बन्धका उत्कर्षण होता है, इसलिए उस सोमा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० षयषवलासहिदे कसायपाहुरे विसेसणिद्देसो सुत्ते णत्थि ति आसंकणिज्जं, वक्खाणादो तहाविहंविसेसपडिवत्तीदो। ६४०६. अघवा चउण्हं पि संजलणाणं सम्वेसु दिदिविसेसेस सम्वास च संगहकिट्टीस समयाविरोहेण तं पदेसग्गं छण्हमावलियाणमन्भंतरे जाव ण संकंतं ताव उदीरणापाओग्गं ण होदि त्ति जाणावणटुं गाहापच्छरो भणियो। ६४०७. संपहि एक्स्सेव गाहासत्तत्थस्स फुडोकरणटुमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ* विहासा। 5४०८. सुगमं। * जत्तो पाए अंतरं कदं तत्तो पाए समयपबद्धो छसु आवलियासु गदासु उदीरिज्जदि । ६४०९. जदो पहुडि अंतरकरणं समाणिदं तदो पहुडि जो बद्धो समयपबद्धो सो णियमा छसु आवलियासु गदास उदोरिज्जवि, णो हेट्ठा ति वुत्तं होइ। एवमेवम्हि णियमे संजावे छण्हमालियाणं समयपबद्धा संछुद्धसरूवा होदूण एदम्हि विसए लन्भंति ति जाणावण?. मिवमाह तक ही नवक बन्धका उत्कर्षण द्वारा सद्भाव पाया जाता है ऐसा अर्थविशेष यहां व्याख्यानसे समझ लेना चाहिए जो उत्कर्षणके नियमको ध्यानमें रखकर व्याख्यान द्वारा स्पष्ट किया गया है। ६४०६. अथवा चारों ही संज्वलनोंकी सब स्थिति विशेषोंमें और सब संग्रह कृष्टियों में समयके अविरोधपूर्वक वह प्रदेशपुंज छह आलियोंके भीतर जब तक संक्रान्त नहीं होता तब तक व: उदीरणाके प्रायोग्य नहीं होता इस बातका ज्ञान कराने के लिए गाथाका उत्तरार्ध कहा है। विशेषार्थ-आनुपूर्वी संक्रमके कारण भी नवकबन्धकी छह आवलिके बाद उदीरणा होने रूप व्यवस्था यहां घटित कर लेनी चाहिए। वैसे परमार्थसे देखा जाय तो अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर उदीरणा छह आवलिके बाद ही होती है ऐसा नियम है। ६४०७. अब इसी गाथाके सूत्रका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब इस प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६४०८. यह सूत्र सुगम है। * जहां जाकर अन्तरकरण क्रियाको सम्पन्न किया है वहाँसे लेकर बद्ध समयप्रबद्ध छह मावलि प्रमाण काल जानेपर उदोरित होता है। ६४०९. जहां जाकर अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न हुई है वहाँसे लेकर जो समयप्रबद्ध बंधता है वह नियमसे छह आवलि प्रमाण काल जानेपर उदीरित होता है, इससे पूर्व नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस नियमके हो जानेपर इस कारण छह आवलि सम्बन्धी समयप्रबद्ध संक्षुब्धस्वरूप होकर इस स्थानपर प्राप्त होते हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवगसेढीए सत्तमी मूलगाहाए पढमभासगाहा * अंतरादो कदादो तत्तो छसु आवलियासु गदासु तेण परं छण्हमावलियाणं समयपबद्धा उदये अछुद्धा भवंति । १५१ ६४१०. जदो एस नियमो तदो अंतरसमत्तिसमणंतर समयप्पहूडि छसु आवलियास बोलीणास तत्तो परं सव्वत्थेव छण्हमावलियाणं जे समयपबद्धा ते णियमा उदये असंछुद्धा भवंति ति सुत्तत्य संगहो । संपहि एदस्स भावत्यो वुच्चवे । तं जहा - अंतरकदपढमसमए आवलियमेत्ता णवकबंध समयपबद्धा उदये अच्छुद्धा अस्थि । पुणो वि एत्तिया चेव अवट्टिदा होदूण गच्छति जाव अंतरकरण पढमसमयप्पहूडि आवलियमेत्तकालच रिमसमओ त्ति । तदो उवरिमेगेगसमयपबद्धो जहाकममहिओ होदूण विवियावलियमेत्तकाले वोलीणे तक्कालं दो आवलियमेत्ता समयपबद्धा उदये अच्छुद्धा भवंति । पुणो तत्तो पहुडि तेसिमुवरि एगेगो समयपबद्धो अहियो होदूण तदियावलियमेत्तकाले गवे तिण्हमावलियाणं समयपबद्धा अणुदीरिवा भवंति । पुणो वि तत्तो पहुडि चउत्थावलियमेत्तकाले समइच्छिदे ताधे चउण्हमावलियाणं समयपबद्धा उदोरणा पज्जायवि मुहा लब्भंति । पुणो तत्तो प्पहूडि पंचमावलियमेत्तकाले समइक्कंते ताधे पंचावलियमेत्तसमयबद्धा उदयम्मि अच्छुद्धा भवंति । पुणो तत्तो 'पहुडि आवलियमेत्तकाले वदिक्कते छण्हमावलियाणं समयपबद्धा उदयम्मि असंछुद्धसरूवा लब्भंति । एत्तो परं सव्वत्थ छआवलियमेत्ता समयपबद्धा अवट्टिवसरूवा उदए अच्छुद्धा भवंति । एदेण कारणेण अंतरकवपढमसमयप्पहूडि छसु आवलियासु गदासु तत्तो परं छण्हमावलियाणं समयपबद्धा नियमा उदए अछुद्धा भवंति त्ति सेससमयपबद्धा * अन्तरकरण करनेके अनन्तर समयसे लेकर छह आवलियोंके व्यतीत होनेपर उसके बाद सर्वत्र ही छह आवलियों सम्बन्धी जो समयप्रबद्ध हैं वे उदयमें अक्षुब्ध होते हैं । $ ४१०. यतः यह नियम है, इसलिए अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न करनेके अनन्तर समयसे लेकर छह आवलियोंके व्यतोत होनेपर वहाँसे आगे सर्वत्र ही छह आवलियोंसम्बन्धी जो समयप्रबद्ध हैं वे नियमसे उदयमें असंक्षुब्ध होते हैं यह इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । अब इस सूत्रका भावार्थ कहते हैं । वह जैसे—अन्तरकरण करने के अनन्तर प्रथम समय में एक आवलिप्रमाण नव कबन्ध समयप्रबद्ध उदय में अक्षुब्ध होते हैं । फिर भी इतने ही समयप्रबद्ध अवस्थित होकर अन्तरकरण करने के प्रथम समयसे लेकर एक आवलिप्रमाण कालके अन्तिम समय तक प्राप्त होते हैं। उससे आगे एक-एक समयप्रबद्ध क्रमसे अधिक होकर द्वितीय आवलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर उस कालमें दो आवलिप्रमाण समय प्रबद्ध उदयमें असंक्षुब्ध होते हैं । पुनः वहाँसे लेकर उनके ऊपर एक-एक समयप्रबद्ध अधिक होकर तीसरी आवलिप्रमाण कालके जानेपर तोन आवलियों सम्बन्धी समयप्रबद्ध अनुदारित होते हैं । फिर भी वहांसे लेकर चार आवलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर उस समय चार आवलियोंसम्बन्धी समयप्रबद्ध उदोरणापर्यायसे विमुख प्राप्त होते हैं । पुनः वहाँसे लेकर पांच आवलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर उस समय पाँच आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध उदयमें अक्षुब्ध होते हैं । पुनः वहाँसे लेकर आवलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर छह आवलिसम्बन्धो समयप्रबद्ध उदयमें असंक्षुब्ध स्वरूप प्राप्त होते हैं । इससे आगे सर्वत्र छह आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध यथास्थितिस्वरूप रहकर उदयमें अक्षुब्ध होते हैं । इस कारणसे अन्तरकरण करनेके बाद प्रथम समयसे लेकर छह आवलियोंके जानेपर उससे आगे छह आवलियोंसम्बन्धी समयप्रबद्ध नियमसे उदयमें अक्षब्ध होते हैं। शेष सभी समयप्रबद्ध उदयमें संक्षुब्ध होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १५२ सब्वे चेव उदये संछुद्धा भवंति त्ति भणिदं होदि । ६४११. एवमेदेण सुतेण समयपबद्धाणं संछुद्धासंछुद्धभावं णिरूविय संपहि भवबद्धाणं सव्वेसिमेव नियमेण उदये संछुद्धभावपदुप्पायणट्ठमुवरिमसत्तमाह * भवबद्धा पुण णियमा सव्वे उदये संछुद्धा भवंति । ४१२. सव्वे चेव भवबद्धा नियमा एक्स्स खवगस्स उदये संछुद्धा भवंति । कुदो ? एक्कस्स वि भवबद्धस्स उदये असंछुद्धसरूवस्स तक्काल मणुवलंभादो । एदस्स भावत्यो- एक्कम्मि भवम् बद्धसमयबद्धाणमंतरे जइ वि एगस्स समयपबद्धस्त परमाणू उदये संछुद्धा तो विसो भवबद्धो णिच्छयेण उदये संछुद्धो होदित्ति एवेण कारणेण सब्वे भवबद्धा उदये संछुद्धा त्ति भणिदं । एसो च भवबद्धपडिबद्धो अत्यणिद्देसो जइ वि एवम्मि पढमभासगाहासुत्तम्मि णत्थि तो वि उवरि भण्णमाणच उत्थभासगाहावलंबणेण चुष्णिसुते विहासिदो त्ति बटुग्यो, 'पुवेण परं वक्खाणिज्जवि, परेण विपुख्वं वक्खाणिज्जवि' त्ति णायादो । एवं पढमभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता । * एत्तो विदियभासगाहा । ६४१३. पढमभासगा हाविहासणाणंतरमेत्तो विविधभासगाहा समोदारेयव्वा तिवृत्तं होदि । विशेषार्थ - (१) यहाँपर 'उदये असंछुद्धा' का अर्थ उदीरणास्वरूप नहीं होते तथा 'उदये संछुद्धा' का अर्थ उदीरणारूप होते हैं । इस प्रकार इस अर्थको ध्यान में रखकर पूरे प्रकरणका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। (२) टोकामें जो 'अंतरकदपढमसमयप्पहूडि छसु' इत्यादि वचन कहा है सो उसका यह भाव है कि अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न करनेके बाद जब जो भी नवकबन्ध समयप्रबद्ध होता है वह सब छह आवलिकाल तक उदीरणारूप नहीं परिणमता यह अर्थ सर्वत्र घटित कर लेना चाहिए । ४११. इस प्रकार इस सूत्र द्वारा समयप्रबद्धों के संक्षुब्ध ओर असंक्षुब्ध भावका निरूपण करके अब सभी भवबद्धोंके उदयमें नियमसे संक्षुब्धभावका कथन करनेके लिए आगे के सूत्रको कहते हैं परन्तु सब भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयमें नियमसे संक्षुब्ध होते हैं । ६ ४१२. सभी भवबद्ध समयप्रबद्ध नियमसे इस क्षपकके उदयमें संक्षुब्ध होते हैं, क्योंकि इस क्षपकके एक भी भवबद्ध समयप्रबद्ध उदय में असंक्षुब्धस्वरूप नहीं उपलब्ध होता। इसका भावार्थ - एक भव में बद्ध समयप्रबद्धों के अन्तर्गत यद्यपि एक समयप्रबद्धका परमाणु इस क्षपकके उदय में संक्षुब्ध होता है, यही कारण है कि सब भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयमें संक्षुत्र होते हैं यह इसका तात्पर्य है । और यह भवबद्ध से सम्बन्ध रखनेवाला अर्थनिर्देश यद्यपि इस प्रथम भाष्य गाथासूत्र में नहीं है तो भी आगे कही जानेवाली चौथी भाष्य गाथासूत्रका अवलम्बन लेकर चूर्णि सूत्र में व्याख्यान किया गया है ऐसा यहाँ जानना चाहिए । आगे कहे जानेवाले अर्थका पहले व्याख्यान किया जाता है और पहले कहे जानेवाले अर्थका पीछे भी व्याख्यान किया जाता है ऐसा न्याय है । इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाको अर्थ विभाषा समाप्त हुई । * अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथा का अवतार करते हैं । $ ४१३. प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके अनन्तर इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगढीए सप्तमीमूलगाहाए विदियमा सगाहा (१४३) जा चावि बज्झमाणी आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुव्वावलिया लियमा अनंतरा चदुसु किट्टीसु ॥ १५३ ४१४. एसा विवियभासगाहा कोहसंजलणणवकबंधपदेसग्गस्स संगहकिट्टीसु संकमो देण कमेण होदि त्ति जाणावणटुमोइण्णा । तं जहा - ' जा चावि बज्झमाणीं' एवं भणिदे जा खलु बज्झमाणी आवलिया बंधावलिया त्ति वृत्तं होइ । तत्थ कम्मपदेसेसु वज्झमाणेसु तस्संबंधेण तिस्से वि उवयारेण तब्ववएसोववत्तीदो । साणियमा कोहसंजलणपढमसंगह किट्टीए होइ । कुदो ? अणदिवर्कतबंधावलियपदेसग्गस्स ओकडुण- परपयडिसं क्रमादिकिरियाणमप्पाओग्गत्तादो । 'पुव्वावलिया नियमा अनंतरा चदुसु किट्टीसु' एवं भणिदे तत्तो अनंतरोवरिमा जा विदियावलिया सा यमाचसु किट्टी बटुव्वा । एदस्स भावत्थो - कोहपढमसंगह किट्टी सरूवेण बद्धपदेसग्गं तत्य बंषावलियमेत्तकालमच्छियूण पुणो विदियावलियपढमसमये बंघावलियादिक्कं मवसेण कोहस्स aa diगह किट्टीए माणपढमसंगह किट्टोए च संकामिज्जदि. तेण सा विदियावलिया कोहस्स तिसु वि संगह किट्टीसु माणपढमसंगह किट्टीए च णियमा समुवलब्भइ त्ति वृत्तं होइ । बंधावलिया दिक्कत • समये चेव सेसासेससंगह किट्टीसु तं पदेसग्गं किष्ण संकामिज्जदे ? ण, आणुपुव्विसंकमवसेण किट्टीसु संकामिज्जमाणस्स णवक बंघपदेसग्गस्स अणंत्तरहेट्ठिमासु तिसु चेव संगहकीट्टीसु संक्रमणियम - (१४३) जो बध्यमान आवलि है वह प्रथम कृष्टि अर्थात् क्रोध संज्वलनको प्रथम कृष्टिमें पायी जाती है। उसके अनन्तर जो पूर्व अर्थात् प्रथम आवलि है वह नियमसे चार कृष्टियों में पायी जाती है । ६ ४१४. यह दूसरी भाष्यगाथा क्रोधसंज्वलन के नवकबन्ध कर्मप्रदेशों का संग्रह कृष्टियों में संक्रम इस क्रमसे होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे – 'जा चावि बझमाणी' ऐसा कहनेपर जो नियमसे बध्यमान आवलि अर्थात् बन्धावलि है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वहाँ कर्मप्रदेशों के बंधते समय उसके सम्बन्ध से बध्यमान आवलिकी भी उपचारसे बन्धावलि संज्ञा बन जाती है । वह नियमसे क्रोधसंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिमें पायी जाती है, क्योंकि जबतक बन्धावलि अतिक्रान्त नहीं होती है तबतक उसका कर्मप्रदेशपुंज अपवर्तन, परप्रकृतिसंक्रम आदि क्रियाके अयोग्य होता है । 'पुत्रावलिया नियमा अनंतरा चदुसु किट्टीसु' ऐसा कहनेपर उससे अनन्तर उपरिम जो द्वितीय आवलि है वह नियमसे चार कृष्टियोंमें जाननी चाहिए। इसका भावार्थ - क्रोधसंज्वलन के प्रथम संग्रह कृष्टिस्वरूपसे बद्ध कर्मपुंज वहाँ बन्धावलिप्रमाण काल तक तदवस्थ रहकर पुनः द्वितीय आवलिके प्रथम समय में बन्धावलिका अतिक्रम हो जानेके कारण कोषकी ही दो संग्रह कृष्टियों में और मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रामित होतो है, इसलिए वह द्वितीय आवलि क्रोधकी तीनों ही संग्रहकृष्टियोंमें और मानको प्रथम संग्रहकृष्टिमें नियमसे पायो जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-बन्धावलिके अतिक्रान्त होते समय ही वह प्रदेशपुंज शेष समस्त संग्रह कृष्टियों में क्यों नहीं संक्रमित हो जाता ? समाधान- नहीं, क्योंकि आनुपूर्वी संक्रमके कारण कृष्टियों में संक्रम्यमाण नवकबन्ध प्रदेशपुंजके अनन्तर अधस्तन तीन संग्रह कृष्टियों में ही संक्रमका नियम देखा जाता है । इसलिए द्वितीय आवलि चारों ही संग्रह कृष्टियों में पाई जाती है यह सिद्ध हुआ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे दसणादो। तदो विदियावलिया चदुसु चेव संगहकिट्टीसु होइ ति सिद्धं । 5 ४१५. संपहि एवंविहमेविस्से गाहाए अत्यं विहासेमाणो विहासागंयमुत्तर भणइ* विहासा। $ ४१६. सुगमं। * जं पदेसग्गं बज्झमाणयं कोधस्स तं पदेसग्गं सव्वं बंधावलियं कोहस्स पढमसंगहकीट्टीए दिस्सइ । ६ ४१७. कुदो ? कोहपढमसंगहकिट्टीसहवेण बद्धणवकबंधपदेसग्गस्स बंधावलियमेत्तकालं तत्थेवावट्ठाणं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। * तदो आवलियादिक्कतं तिसु वि कोहकिट्टोसु दीसइ माणस्स च पढमकिट्टीए । ६४१८. कि कारणं ? तत्थ बंधावलियाइक्कंतस्स तस्स पदेसग्गस्स वि विदियावलियपढमसमए पुष्वुत्तणियमवसेण संकममाणस्स कोहस्स तिसु संगहकिट्टीसु माणपढमसंगहकिट्टीए च समवट्ठाणस्स परिप्फुडमुवलंभादो। विशेषार्थ-उक्त दूसरी भाष्यगाथामें बध्यमान आवलिसे बन्धावलिका प्रहण किया गया है। इसका आशय यह है कि जो भी कर्म बंधता है वह अपने बन्ध समयसे लेकर एक आवलि काल तक अपकर्षण आदि सकल करणोंके अयोग्य रहता है। उसके बाद द्वितीय आवधिका काल प्रारम्भ होनेपर उस कर्मपुंजका अपकर्षण आदि कार्य होने लगता है । शेष कथन स्पष्ट हो है। ६४१५. अब इस भाष्यगाथाके इस प्रकारके अर्थको विभाषा करते हुए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब दूसरो भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं । 5 ४१६. यह सूत्र सुगम है। ॐ क्रोध संज्वलनका जो प्रदेशपुंज बध्यमान है वह पूरा प्रदेशपुंज बन्धावलि काल तक क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टि में दिखाई देता है। 5 ४१७. क्योंकि क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टि स्वरूपसे बद्ध नवकबन्ध प्रदेशपुंजका बन्धावलि काल तक कहीं अवस्थानको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। __तदनन्तर बन्धावलिको व्यतीत करके अवस्थित वह नवकबन्ध कर्मपुंज क्रोषसंज्वलनको तीनों संग्रहकृष्टियोंमें और मानसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टि में दिखाई देता है। ६४१८. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-वहाँ बन्धावलिको व्यतीत करके अवस्थित उसी प्रदेशपुजका द्वितीय आवलिके प्रथम समयमें पूर्वोक्त नियमके कारण संक्रमण करते हुए क्रोषसंज्वलनको तोनों संग्रहकृष्टियोंमें और मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें अवस्थान स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगढीए चउत्थमूलगाहाए विदियमा सगाहा १५५ * एवं विदियावलिया चदुसु किट्टी दीसह । ४१९. एदेण कारणेण विदियावलिया चदुसु किट्टीसु जादा त्ति वृत्तं होइ । एवमेत्तिएण पबंधेण विदियभासगाहाए अत्यविहासणं समानिय संपहि तदियभासगाहमणुच्चारिय विदियगाहत्थ संबंघेणेव तदत्यविहासणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * तदो जं पदेसग्गं कोहादो माणस्स पढमकिट्टीए गदं तं पदेसग्गं तदो आवलिया पुण्णा माणस्स विदिय-तदियासु मायाए च पढमसंगह किट्टीए संकमदि । ४२०. एतदुक्तं भवदि - पुग्वणिरुद्ध कोहसंजणपदेसगं माणस्स पढमसंगह किट्टीए विदियावलियमेत्तकालमच्छ्रिय पुणो तदियावलियपढमसमए समयाविरोहेण संकममाणं कुणमाणो तत्तों पहूडि आवलियमेत्तकालं पुण्वुत्तचदुसु संगहकिट्टीसु पुणो माणविदिय-तदियसंगहकिट्टीसु मायापढमसंगह किट्टीए च समुवलब्भद्द, ण तत्तो अण्णासु किट्टीसु तत्थ संकमणसत्तीए तक्कालमणुवभावोति । संपहि इममेवत्यमुवसंहारमुहेण परूदेमाणो इदमाह - * एवं तदिया आवलिया सत्तसु किट्टीसु ति भण्णइ । $ ४२१. एवेण कमेण तबिया आवलिया सत्तसु किट्टीसु त्ति उवरिमगाहासुत्तावयवे भण्णमाणो अत्यो सुसंबद्धो त्ति भणिदं होइ । संपहि चउत्थावलियाए तस्स पवेसग्गस्स पवृत्तिविसेसावहारणद्वमुत्तरसुत्तारंभी * इस प्रकार द्वितीय आवलि चारों संग्रहकृष्टियों में दिखाई देती है । ४१९. इस कारण द्वितीय आवलि चारों संग्रहकृष्टियों में व्याप्त हो जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा दूसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त करके अब तीसरी भाष्य गाथाकी उच्चारणा करके दूसरी भाष्यगाथा के सम्बन्धसे ही उसके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके सूत्र प्रबन्धको कहते हैं * इस प्रकार उक्त विधिसे जो प्रवेशपुंज क्रोधसंज्वलनसे मानसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त हुआ है वह प्रवेशपुंज तत्पश्चात् एक आवलि काल पूर्ण होनेपर मानसंज्वलनकी दूसरी ओर तीसरी तथा मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है। ६ ४२०. उक्त कथनका यह तात्पर्य है- पहले विवक्षित किया गया क्रोधसंज्वलनका प्रदेशपुंज मानसंज्वलन की प्रथम संग्रहकृष्टि में द्वितीय आवलि प्रमाण कालतक रहकर पुनः तीसरी आवलिके प्रथम समय में समय के अविरोधपूर्वक संक्रमण करता हुआ वहाँसे लेकर एक आवलिप्रमाण काल तक पूर्वोक्त चारों संग्रह कृष्टियों में पुनः मानसंज्वलनकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियों में तथा मायासंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिमें पाया जाता है। उनसे अतिरिक्त अन्य संग्रह कृष्टियों में उसके संक्रमण करनेकी शक्ति उस कालमें नहीं पाई जाती। अब इसी अर्थका उपसंहार द्वारा कथन करते हुए इस सूत्र को कहते हैं * इस प्रकार तीसरी आवलि सात संग्रह कृष्टियोंमें कही जाती है । ६ ४२१. इस क्रमसे तीसरी आवलि सात संग्रह कृष्टियों में पायी जाती है यह उपरिम गाथा - सूत्र के प्रथम पादमें कहा जानेवाला अर्थ सुसम्बद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब चौथो आवलिमें उस प्रदेशपुंजकी प्रवृत्ति विशेषका अवधारण करनेके लिए आगे के सूत्रका आरम्भ करते हैं Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * जं कोहपदेसग्गं संछुब्भमाणयं मायाए पढमकिट्टीए संपत्तं तं पदेसग्गं तत्तो आवलियादिक्कतं मायाए विदिय-तदियासु च किट्टीसु लोभस्स च पढमकिट्टीए संकमदि। $ ४२२. जंतं पुव्वणिरुद्धं कोहसंजलणपदेसग्गं पुव्वुत्तपणालीए आगंतूण मायाए पढमसंगहकिट्टीए संकंतं तत्थ तदियावलियमेत्तकालमच्छियूण तदो चउत्थावलियपढमे समये अणंतरपरूविदणियमाणुल्लंघणेण संकामिज्जमाणं मायाए विदियतदियसंगहकिट्टीए लोभपढमसंगहकिट्टीए च संकमदि, तत्तो परं ताधे तहाविहसंकमणसत्तीए तत्थाणुवलंभादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । जदो एवं तदो चउत्थी आवलिया दससु किट्टीसु जावा ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एवं चउत्थी आवलिया दससु किट्टीसु त्ति भण्णइ । ६ ४२३. गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि तस्सेव पदेसग्गस्स पंचमावलियाए पवुत्तिविसेसजाणावणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो * जं कोहपदेसग्गं संछुब्भमाणं लोमस्स पढमकिट्टीए संपत्तं तदो आवलियादिक्कं लोभस्स विदिय-तदियासु किट्टीसु दीसइ । ६४२४. जं तं कोहसंजलणपदेसग्गं पुवणिरुद्धं पुश्वुत्तपरिवाडीए लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए संकामिदं तं तत्थ संकमणावलियमेत्तकालमच्छिय तदो पंचमावलियपढमसमए लोभस्स विविय * जो क्रोधसंज्वलनका नवकबन्ध प्रदेशपुंज संक्रमित होकर मायासंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिमें प्राप्त हुआ है वह प्रदेशपुंज तत्पश्चात् एक आवलिप्रमाण काल जाकर मायासंज्वलनको दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियोंमें तथा लोभसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होत ४२२. जो पूर्वमें विवक्षित क्रोधसंज्वलका प्रदेशपुंज पूर्वोक्त प्रणालीसे आकर मायासंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रान्त हुआ है वह वहीं तीसरी आवलिप्रमाण काल तक रहकर पश्चात् चौथी आवलिके प्रथम समयमें अनन्तर कहे गये नियमका उल्लंघन किये बिना संक्रमण करता हुआ मायासंज्वलनको दूसरो और तीसरी संग्रहकृष्टिमें तथा लोभसंज्वलन को प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमण करता है, क्योंकि उससे आगे उस समय उसमें उस प्रकारकी संक्रमणशक्तिका अभाव है। इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यतः ऐसा है, अतः चौथी आवलि दस संग्रह कृष्टियोंमें पायी जाती है इस प्रकार इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस प्रकार चौथी आवलि दस संग्रह कृष्टियों में कही जाती है। ६४२३. यह सूत्र गतार्थ है। अब उसी नवप्रबन्ध प्रदेशपुंजके पांचवीं आवलिमें प्रवृत्ति विशेषका ज्ञान कराने के लिये आगेके सूत्रका अवतार कहते हैं * जो क्रोध संज्वलनका नवकबन्ध प्रदेशपंज संक्रमित होकर लोभसंज्वलनको प्रथम कृष्टिको प्राप्त हुआ है वह तत्पश्चात् एक आवलिकालके बीतनेपर लोभसंज्वलनकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियोंमें दिखाई देता है। १४२४. जो वह क्रोधसंज्वलनका नवकबन्ध प्रदेशपुंज पूर्वमें विवक्षित किया था वह पूर्वोक्त परिवृद्धिके द्वारा लोभसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमित हुआ है वह वहां संक्रमणावलि प्रमाण काल तक रहकर पश्चात् पांचवीं आवलिके प्रथम समय में लोभसंज्वलनकी दूसरी और Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए सत्तममूलगाहाए विदियभासगाहा १५७ तवियासु संगहकिट्टीसु ओकडगावसेण संकमदि त्ति भणिदं होदि । एवं च संकमो होदि त्ति कादूण पंचमावलियाए तं पदेसग्गं सव्वासु चेव संगहकिट्टीसु जादमिदमाह * एवं पंचमी आवलिया सव्वास किट्टीसु त्ति भण्णइ । ६ ४२५. गयत्थमेदं सुतं । एवं च विदियभामगाहाविहासावसरे चेव तदियभासगाहाए वि अत्यविहासणं काढूण संपहि तिस्से विहासाए विणा समुक्कित्तणामेत्तं चेव कायनमिदि पप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तदियाए वि भासगाहाए अत्थो एत्थेव परूविदो । णवरि समुक्कित्तणा कायबा। ६४२६. तदियभासगाहमणुच्चारिय तदत्यो चेव विदियभासगाहत्थपरूवणासंबंधेण विहासिदो । तदो तिस्से समुक्कित्तणा चेव एण्हिं कायव्वा त्ति वुत्तं होइ। * तं जहा। ६४२७. सुगमं। (१४४) तदिया सत्तसु किट्टीसु चउत्थी दससु होइ किट्टीसु । तेण परं सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥१९७॥ ६४२८. एवं समुक्कित्तिदाए तदियभासगाहाए अत्थो पुव्वमेव विहासिदो ति ण पुणो परूविज्जदे, 'जाणिदजाणावणे फलाभावादो' । णवरि 'तेण परं सेसाओ' एवं भणिदे तत्तो तीसरी संग्रह कृष्टियों में अपकर्षणके कारण संक्रमित होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार संक्रम होता है ऐसा करके पांववी आवलिका वह प्रदेशपुंज सभी संग्रह कृष्टियों में हो जाता है इस बातको कहते हैं * इस प्रकार पांचवीं आवलि सभी संग्रह कृष्टियोंमें कही जाती है। ६४२१. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषाके अवसरपर ही तीसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा करके अब उसको विभाषाके बिना केवल समुत्कीर्तना ही करनी चाहिये इस प्रकार कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ भी यहींपर प्ररूपित कर दिया है। इतनी विणेषता है कि उसकी समुत्कीर्तना करनी चाहिये। ६४२६. तीसरी भाष्यगाथाकी उच्चारणा करके उसके अर्थको दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको प्ररूपणाके सम्बन्ध से विभाषा की, इसलिये उसकी समुत्कीर्तना हो इस समय करनी चाहिये यह यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * वह जैसे। 5 ४२७. यह सूत्र सुगम है। (१४४) तीसरी आवलि सात संग्रह कृष्टियोंमें, चौथी आवलि दस संग्रह कृष्टियोंमें और उससे आगे शेष आवलियां सब संग्रह कृष्टियों में पायी जाती हैं ॥१९७॥ ६४२८. इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की। अर्थकी विमाषा पहले ही कर आये हैं, इसलिये उसकी पुनः प्ररूपणा नहीं करते, क्योंकि जिसका ज्ञान करा दिया है उसका Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ षयषवलासहिदे कसायपाहुडे चउत्थावलियादो परमुवरि सेसाओ पंचम-छट्ठ-सत्तमादि आवलियाओ णियमा सव्वासु किट्टीसु होंति, पंचमावलियपढमसमए चेव सेसकिट्टीसु समयाविरोहेण संकेतस्स कोहर्सजलणपुव्वणिरुद्धपदेसग्गस्स बारससु वि संगहकिट्टीसु तदवत्थाए समवटाणदंसणादो त्ति भणिदं होदि । एवं कोहसंजलणणवकबंधमहिकिच्च एसा सव्वा मग्गणा दोहि भासगाहाहि समागदा।माणादिसंजलणेसु वि जहासंभवमेसो अत्थो अणुगंतव्वो। एवमेदीए मग्गणाए कदाए तदो तदियभासगाहाए विहासा समत्ता भवदि। * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६४२९. सुगर्म। (१४५) एदे समयपबद्धा अच्छुत्ता णियमसा इह भवम्मि । सेसा भवबद्धा खलु संछुद्धा होति बोद्धव्वा ॥१९८।। ६४३०. एसा चउत्थभासगाहा पढमभासगाहाणिहिटुस्सेवत्यस्स पुणो वि विसे सयूण परूवणटुमोइण्णा। संपहि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरामरसं कस्सामो। तं जहा-'एदे समयपबद्धा' एदे अणंतरपलविदा छण्हमावलियाणं समयपबद्धा 'अच्छुत्ता' उदयट्टिवीए असंछुद्धा भवंति । 'इह भवम्हि' एइम्मि वट्टमाणभवग्गहणे 'सेस-भवबद्धा खलु' एवं वट्टमाणभवग्गहणं मोत्तूण सेसासेसकम्मढिदिअन्भंतरभवटिदिगहणपबद्धा सम्वे चेव समयपबद्धा उदए संछुद्धा होति त्ति जाणिदव्वा, तेसिमसंछुद्धभावेणावट्ठाणस्स कारणाणुवलंभावो। तदो समयपबद्धविवक्खाए पुनः ज्ञान करानेका कोई फल नहीं है। इतनी विशेषता है कि 'तेण परं सेसाओ' ऐसा कहनेपर चौथी आवलिके आगे शेष पांचवीं, छठी और सातवीं आवलियां नियमसे सब कृष्टियों में पायी जाती हैं, क्योंकि पांचवों आवलिके प्रथम समय में ही शेष कृष्टियोंमें समयके अविरोधपूर्वक संक्रान्त हुए क्रोधसंज्वलनके पूर्व विवक्षित प्रदेश पुंजका बारह ही संग्रह कृष्टियोंमें उस अवस्थामें अवस्थान देखा जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार क्रोधसंज्वलनके नवकबन्धको अधिकृत करके यह सब मार्गणा दो भाष्यगाथाओं द्वारा की गयो है। मानादि संज्वलनोंके विषय में भी क्रमसे यह अर्थ जान लेना चाहिये । इस प्रकार इस मार्गणाके किये जानेपर तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त होती है। * इससे आगे चौथी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। ६४२९. यह सूत्र सुगम है। (१४५) ये अनन्तर कहे गये समयप्रबद्ध इस भवमें इस क्षपकके नियमसे असंक्षुब्ध रहते हैं। किन्तु शेष भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके नियमसे संक्षुब्ध जानने चाहिये ॥१९॥ ६४३०. यह चौथी भाष्यगाथा प्रथम भाष्यगाथामें निर्दिष्ट किये गये अर्थका ही पुनरपि विशेषरूपसे कथन करने के लिये अवतीर्ण हुई है। अब इस गाथाके किचित् अवयवार्थका परामर्श करेंगे। वह जैसे–'एदे समयपबद्धा' ये अनन्तर कहे गये छह आवलियोंके समयप्रबद्ध 'अच्छुता' उदय स्थितिमें असक्षुब्ध रहते हैं। 'इह भवम्हि' इस वर्तमान भवग्रहणमें 'सेसभवबद्धा खलु' इस भवग्रहणको छोड़कर शेष समस्त कर्मस्थितिके भीतर भवग्रहणस्थितिमें बंधे हुए सभी समयप्रबद्ध उदयमें संक्षुब्ध होते हैं ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उनके असंक्षुब्धरूपसे अवस्थानका कोई कारण नहीं उपलब्ध होता। इसलिये समयप्रबद्धकी विवक्षामें ये संक्षुब्ध और असंक्षुब्ध रूपसे इस Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहा संछुद्धासंछुद्धभावो लब्भदे । भवबद्धा पुण णियमा सव्वे चेव संछुद्धा बोद्धव्वा; ण तत्थ पयारंतरा संभवो त्ति एसो एदस्स भावत्थो। एवंविहो च एदिस्से गाहाए अत्थो पढमभासगाहाविहासावसरे चेव विहासिदो, तदो ण पुणो एण्हि विहासियव्वो ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदिस्से गाहाए अत्थो पढमभासगाहाए चेव परूविदो। ६४३१. कुदो ? तत्थ समयपबद्धाणं संछुद्धासंछुद्धभावगवेसणावसरे चेव भववद्धपरूवणाए वि सवित्थरमणुमग्गिदत्तादो। एवं सत्तमीए मूलगाहाए अत्थविहासा समत्ता। * एत्तो अहमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा। ६४३२. सत्तमूलगाहाविहासणाणंतरमेत्तो अट्ठमीए मूलगाहाए जहावसरपत्ता समुक्कित्तणा कायव्वा त्ति वुत्तं होइ। (१४६) एगसमयपबद्धाणं सेसाणि च कदिसु द्विदिविसेसेसु । भवसेसगाणि कदिसु च कदि कदि वा एगसमएण ॥१९९।। ६४३३. एसा अट्टमी मूलगाहा अंतरकरणादो उवरिमवत्याए वट्टमाणस्स खवगस्स समयपबद्धसेसाणि च भवबद्धसेसाणि च केत्तियमेताणि कदिसु ठिदिविसेसेस संभवंति ति एवं विहस्स अत्यविसे पस्त णिण्णयविहाणट्ठमोइण्गा । संपहि एदिस्से अस्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा'एगसमयपबद्धाणं' एवं भणिदे एगसमयम्मि जेत्तिया कम्मपरमाणू बद्धा, तेसिमेगसमयपबद्धो क्षपकके पाये जाते हैं। परन्तु भवबद्ध सभी समयप्रबद्ध इस क्षपकके नियमसे संक्षब्ध जानने चाहिये । उनमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है यह इसका भावार्थ है। और इस प्रकारके इस गाथाके इस अर्थको प्रथम भाष्यगाथाको विभाषाके समय ही विभाषा कर आये हैं, इसलिये पुनः विभाषा नहीं करनी चाहिये । इस प्रकार प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस गाथासूत्रका अथं प्रथम भाष्यगाथामें ही प्ररूपित कर आये हैं। ६४३१. क्योंकि उस गाथासूत्रमें समयप्रबद्धोंके संभब्ध और असंक्षब्धभावकी गवेषणाके समय ही भवबद्ध समयप्रबद्धोंकी प्ररूपणाका भी विस्तारके साथ अनुमार्गण कर आये हैं। इस प्रकार सातवीं मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। * इससे आगे आठवीं मूलगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। .६४३२. सातवीं मूलगाथाकी विभाषा करनेके बाद आगे आठवीं मूलगाथाकी यथावसर प्राप्त समुत्कीर्तना करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (१४६) कितने एक और नाना समयप्रबद्ध शेष तथा नाना भवबद्ध शेष कितने स्थितिविशेषों और अनुभाग विशेषोंमें पाये जाते हैं। इसी प्रकार एक और नाना कितने समयप्रबद्ध शेष और भवबद्ध शेष एक स्थिति विशेषमें पाये जाते हैं। तथा एक समयसम्बन्धी एक स्थितिविशेषमें नाना और एक कितने समयप्रबद्ध शेष और भवबद्ध शेष पाये जाते हैं ॥१९९॥ ६४३३. यह आठवीं मूलगाथा अन्तरकरणसे उपरिम अवस्थामें विद्यमान क्षपकके कितने समयप्रबद्ध शेष और भवबद्ध शेष कितने स्थितिविशेषोंमें सम्भव हैं इस प्रकारके अर्थविशेषका निर्णय करने के लिये अवतीर्ण हुई है। अब इसके अर्थकी प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे—'एगसमयपबद्धाणं' ऐसा कहनेपर एक समय में जितने कर्म परमाणु बंधते हैं उनकी एक समयप्रबद्ध संज्ञा है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अयधवलासहिदे कसायपाहुडे त्ति सण्णा । सो वुण समुदायप्पणाए एगो वि संतो सगावयवकम्मपदेसभेवप्पणाए बहुत्तमावण्णों त्ति बहुवयणणिद्देसो कओ। ६४३४. अधवा जाणासमयपबद्धाणेगसमयपबद्धावत्तीओ पडच्च तस्स बहत्तसंभवादो एसो बहुवयणंतणिद्देसो को दटुट्यो। तेसि 'सेसाणि' त्ति वुत्ते कम्मट्टिविकालभंतरे वेदिवसेसाणं कम्मपदेसाणं से काले सुद्धं पिल्लेविज्जमाणसवाणं गहणं कायव्वं । तवो एगसमयपबद्धस्स वा णाणासमयपबद्धाणं वा सेसगाणि 'कदि' केत्तियमेत्ताणि 'कदिसु. टिदिविसेसेसु' केत्तियमेत्तेसु दिदिभेदेसु संभवंति ति गाहापुव्वद्धे सुत्तत्थसंबंधो। एत्थ 'कदि' सद्दो गाहापच्छद्धट्टिदो अहिसंबंधेयत्वो। एत्थतण 'च' सद्देणावुत्तसमुच्चयटेण अणुभागविसया पुच्छा सूचिदा दट्ठम्या । तदो कम्मट्टिदिसम्भंतरे बद्धणाणेगसमयपबद्धाणं वेदिवसेसकम्मपरमाणवो से काले गिरवसेसं पिल्लेविज्जमाणसरूवा कदिसु दिदिविसेसेसु अणुभागविसेसेसु च केत्तियमेत्ता जहण्णक्कस्सेण संभवंति ति एसो गाहापुव्वद्ध सुत्तत्थसमुच्चयो। ६४३९. 'भवसेसयाणि कविस च' एवं भणिवे एक्कम्मि भवग्गहणे जेत्तियो कम्मपदेसपिंडो संचिदो तस्स भवबद्धसण्णा । सो च पुव्वं व णाणेगभवबद्धसंगहणटुं बहुवयणेण णिहिटो। तेण णाणेगभवबद्धाणं वेदिवसेसा कम्मपदेसा से काले गिरवसेसं णिल्लेविज्जमाणसरूवा कविसु ट्रिदिविसेसेस 'च' सद्दसूचिदाणभागविसेसेस केत्तियमेत्ता होंति ति गाहापच्छद्धे सुत्तत्थसंगहो। परन्तु वह समुदायकी विवक्षामें एक होता हुआ भो अपने अवयवरूप कर्मप्रदेशोंको भेदविवक्षामें बहुत्वको प्राप्त हो जाता है, इसलिए उक्त पदमें बहुवचनका निर्देश किया है। ६४३४. अथवा नाना समयप्रबद्धोंके एक-एक समयप्रबद्धकी आवृत्तिकी अपेक्षा उसका बहुतपना सम्भव होनेसे सूत्र में बहुवचनरूप निर्देश किया है ऐसा जानना चाहिये । उनके 'सेसाणि' ऐसा कहनेपर कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर वेदे जानेके बाद जो शेष बचे हैं और जो तदनन्तर समयमें केवल निलेपित भावको प्राप्त होनेवाले हैं उनका ग्रहण करना चाहिये। इसलिए एक समयप्रबद्धके अथवा नाना समयप्रबद्धोंके 'कदि' अर्थात् कितने शेष रहते हैं वे 'कदिसु टिदिविसेसेस' अर्थात् कितने स्थितिसम्बन्धी भेदोंमें सम्भव हैं यह इस सूत्रगाथाके पूर्वार्धमें अर्थके साथ सम्बन्ध है। यहां गाथाके उत्तरार्धमें स्थित 'कति' शब्दका सम्बन्ध कर लेना चाहिये। तथा इस गाथामें जो 'च' शब्द आया है वह अनुक्त अर्थका समुच्चय करनेवाला होनेसे उस द्वारा अनुभागविषयक पृच्छा सूचित की गयी जाननी चाहिये । इसलिये कर्मस्थिति कालके भीतर जो नाना समयप्रबद्ध और एक समयप्रबद्ध बन्धको प्राप्त हुए हैं तत्सम्बन्धो वेदे जानेसे शेष बचे कर्म परमाण तदनन्तर समयमें निरवशेषरूपसे निर्लेपन भावको प्राप्त होते हुए कितने स्थितिविशेषोंमें और कितने अनुभागविशेषोंमें कितने कर्म परमाणु जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे सम्भव हैं यह गाथाके पूर्वार्धमें सूत्रका समुच्चय रूप अर्थ है । ४३५. 'भवसेसयाणि च कदिसु' ऐसा कहनेपर एक भवग्रहणमें जितने कर्मप्रदेशपिण्डका संचय किया है उसकी भवबद्ध संज्ञा है। और उसका भी पहलेके समान नाना भवबद्ध और एक भवबद्ध कम पुंजका संग्रह करनेके लिये बहुवचनरूपसे निर्देश किया है। इसलिये नाना भवबद्ध और एक भवबद्ध कर्मपुंजके वेदे जानेके बाद जो कर्मप्रदेश शेष बचे वे तदनन्तर समयमें पूरी तरहसे निर्लेपनभावको प्राप्त होते हुए कितने स्थितिविशेषोंमें और 'च' पदसे कितने अनुभाग विशेषोंमें होते हैं यह इस गाथाके उत्तरार्धका समुच्चयरूप अर्थ है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहा १६१ ६ ४३६. 'कदि कदि वा एगसमएण' एसो गाहासुत्तस्स चरिमावयवो । तत्थ एगो कदिसद्दो समयपबद्धसेसाणं भवबद्धसेसाणं च विसेसणभावेण पुव्वमेव संबंधिदो । संपहि 'कदि वा एगसमयेणेत्ति' एदस्स अत्यो वुच्चदे । तं जहा - एगणिसेगट्ठिदिमाधारं काढूण तत्थ णाणेगसमयपबद्धाणं भवबद्धाणं च सेसयाणि केत्तियमेत्ताणि लब्भंति त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणटुमेदं भणिदं, एगसमयेण विसेसिदा एगगोवुच्छम्मि वट्टमाणा समयपबद्धाणं च वेदिदसेसकम्मपरमाणू कदि वा लब्भंति त्तित्तत्याहिसंबंधवसेण तत्थ तहाविहत्यस्स परिष्कुडमुवलंभादो । एत्थत्तण 'वा' सद्दो अणुत्तसमुच्चयट्ठो तिरहं पुच्छाणं पयदोवजोगिसयलविसेसपरूवणाए सूचयभावेण तस्सावद्वाणभुवगमादो । एवमेदीए मूलगाहाए तिष्णि पुच्छाओ निद्दिट्ठाओ भवंति । तं जहा - १४३७. णाणेगसमयपबद्धाणं सेसयाणि कदिसु द्विदिविसेसेसु केत्तियमेत्तानि होंति त्ति' एसो पढमो पुच्छाणिद्देसो । णाणेगभवबद्धाणं सेसयाणि कदिसु द्विदिविसेसेतु केत्तियमेत्ताणि होंति त्ति एसो विदियो पुच्छाणिद्देसो । 'कवि वा एगसमयेणेत्ति' एवम्मि चरिमावयवे एक्कम्मि द्विदिविसेसे वट्टमाणाणि केत्तियाणि णाणेगभवबद्धसमयपबद्धाणं सेसयाणि होंति त्ति तदिओ पुच्छाणिद्देसो ति । एत्थेव 'एगसम एणेत्ति' एदेण चरिमावयवेण समयपबद्ध से सभवबद्ध से साणं लक्खणणिद्देसो वि सूचिदो त्ति घेत्तव्वो । एगसमयेण जम्हि वेदिदसे सगे पदेसपिंडे णिरवसेसमोकड्डियूण उदये संछुद्धे पुणो णिरुद्धसमयपबद्धस्स भवबद्धस्स वा ण किंचि पदेसग्गमुव्वरवि तारिसंपदेसग्गं से काले जिल्लेवणपाओगं हो दूणेण्हिमुवलब्भमाणसमयपबद्धसेसयं भवबद्धसेसयं ६४३६. 'कदि कदि वा एगसमएण' यह इस गाथासूत्रका अन्तिम चरण है। उसमें जो एक 'कति' शब्द आया है उसका समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेष के विशेषणरूपसे पहले ही सम्बन्ध सूचित कर आये हैं। अब 'कदि वा एगसमएण' इस पदका अर्थ कहते हैं । वह जैसेएक निषेकसम्बन्धी स्थितिको आधार करके उसमें कितने नाना समयप्रबद्धशेष और एक समयप्रबद्धशेष प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार कितने नाना भवबद्धशेष और एक भवबद्धशेष प्राप्त होते हैं इस अर्थविशेषका निर्णय करनेके लिये यह वचन कहा गया है, क्योंकि एक समयवाले एक गोपुच्छमें विद्यमान तथा समय प्रबद्धोंके वेदे जानेसे शेष बचे कर्म परमाणु कितने प्राप्त होते हैं इस प्रकार सूत्रार्थके सम्बन्धवश वहां उस प्रकारका अर्थ स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है । इस चरण में आया हुआ 'वा' शब्द अनुक अर्थका समुच्चय करता हुआ तीन पृच्छाओं सम्बन्धी प्रकृत में उपयोगी समस्त विशेषों की प्ररूपणा के सूचकरूपसे उसका अवस्थान स्वीकार किया गया है। इस प्रकार इस मूल गाथामें तीन पृच्छाएँ निर्दिष्ट की गई हैं । वह जैसे --- $ ४३७. नाना और एक समयप्रबद्धोंके शेष कितने स्थितिविशेषों में कितने होते हैं यह प्रथम पुच्छा निर्देश है । नाना भवों और एक भवमें बद्ध कर्मोके शेष कितने स्थितिविशेषों में कितने होते हैं यह दूसरा पृच्छानिर्देश है । 'कदि वा एगसमएण' इस अन्तिम चरणमें एक स्थितिविशेष में विद्यमान नाना और एक भवबद्ध और समयप्रबद्धोंके शेष कितने होते हैं यह तीसरा पृच्छा निर्देश है । तथा इसी गाथा सूत्र में आये हुए 'एगसमएण' इस अन्तिम चरण द्वारा समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेषके लक्षणका निर्देश सूचित किया गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। एक समय द्वारा जिसका वेदन करने के बाद शेष बचे हुए प्रदेश पिण्डको पूरा अपकर्षित करके उदयमें निक्षिप्त करने पर पुनः विवक्षित समयप्रबद्धका या भवबद्धका किचित् मात्र प्रदेशपुंज अवशिष्ट नहीं रहता उस प्रकारका प्रदेशपुंज तदनन्तर समय में निर्लेपनके योग्य होकर इस समय उपलभ्यमान समयप्रबद्धशेष और २१ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे व बटुवमिदि वक्कमाहारं काढूण सुत्तत्थे वक्खाणिज्जमाणे तहाविहस्स लक्खणणिहेसस्स वि एस्थेव पडिबद्धत्तदंसणादो। एवमेवीए मूलगाहाए पुच्छामेत्तेण सूचिदाणमेदेसि तिहमत्यविसेसाणं विहासणं कुणमाणो तत्थ पडिबखभासगाहाणमियत्तावहारणमिदमाह * एत्थ चत्तारि भासगाहाओ। ६४३८. एवम्मि मूलगाहामुत्ते विहासिज्जमाणे तत्य इमाओ चत्तारि भासगाहाओ होंति त्ति वुत्तं होइ। * तासि समुक्कित्तणा। ६४३९. सुगम। (१४७) एकम्हि द्विदिविसेसे भवसेसगसमयपबद्धसेसाणि । णियमा अणुभागेसु य भवंति सेसा अर्णतेसु ॥२०॥ ६४४०. एसा पढमभासगाहा 'कवि वा एगसमयेणेत्ति' एवं मूलगाहाचरिमावयवमस्सियूण एग ठिविविसेसमाधारं काढूण तत्थ भवबद्धसेसगाणि समयपबद्धसेसयाणि च एत्तियमेत्ताणि होति त्ति जाणावणटुं, पुणो तेसि चेवाणुभागविसेसावहारणटुं च समोइण्णा । भव समयपबद्धसेसाणं लक्खणविसेसणिद्देस पि देसामासयभावेण एसा गाहा सूचेदि, सम्वेसि गाहासुत्ताणं देसामासय. भावेणावट्ठाणम्भुवगमावो। संपहि एविस्से अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा भवबद्धशेष कहलाता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार इस वाक्यका अध्याहार करके सूत्रके अर्थका व्याख्यान करनेपर उस प्रकारके लक्षणका निर्देश भी इसीमें प्रतिबद्ध देखा जाता है। इस प्रकार इस मूल सूत्र गाथामें की गयी पृच्छासामान्यके द्वारा सूचित किये गये इन तीन अर्थविशेषोंका व्याख्यान करते हुए उन अर्थोमें प्रतिबद्ध भाष्यगाथाओंकी संख्याका अवधारण करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * इस मूलगाथाके अर्थमें प्रवृत्त चार भाष्यगाथाएं हैं। $ ४३८. इस मूल गाथासूत्रके अर्थको विभाषा करनेमें प्रवृत्त प्रकृतमें ये चार भाष्यगाथाएँ हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * अब उनको समुत्कीर्तना करते हैं। ६४३९. यह सूत्र सुगम है। (१४७) एक स्थितिविशेषमें भवबशेष और समयप्रबद्धशेष नियमसे होते हैं तथा अनन्त अनुभागोंमें भवबशेष और समयप्रबद्धशेष नियमसे होते हैं ॥२००॥ ६४४०. यह प्रथम भाष्यगाथा 'कदि वा एगसमएण' इस प्रकार मूलगाथाके अन्तिम चरणका आश्रय करनेके साथ एक स्थितिविशेषको आधार बनाकर उसमें भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष इतने होते हैं इसका ज्ञान करानेके लिए तथा उन्हींके अनुभाग विशेषका अवधारण करनेके लिए आयो है। तथा भवबद्धशेषों और समयप्रबद्धशेषोंके लक्षणविशेषका निर्देश भी देशामर्षक रूपसे यह गाथा सूचित करती है, क्योंकि सभी गाथासूत्रोंका देशामर्षकभावसे अवस्थान स्वीकार किया गया है। अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंकी अर्थप्ररूपणा करेंगे । वह जैसे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए पढमभासगाहा १६३ ६४४१. 'एक्कम्हि द्विदिविसेसे' समयाहियउदयावलियादो उवरि अण्णवरम्हि द्विविविसेसे उदयविदिदिदीए वा 'भवसेसगसमयपबद्धसेसाणि' केत्तियत्ताणि होति त्ति पुच्छिदे भवसेसयसमयपबद्धसेसाणि बहूणि होति त्ति तेसिं पमाणणिद्देसो कओ। 'भवसेसयसमयपबद्धसेसाणि' त्ति एदेण बहुवयणणिद्देसेण तेसि बहुसंखाविसेसिवपमाणणिद्देसोववत्तीदो। जइ वि एदेण सामण्णणिद्देसेण तेसिं बहुत्तमेत्तं चेव जाणाविदं तो वि 'वक्खाणादो विसेसपडिवत्ती होईनायादो एक्कम्मि ठिदिविसेसे उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवबद्धसेसाणि समयपबदसेसाणि च होंति त्ति घेत्तव्वं । तदो एक्कम्हि ठिदिविसेसे एक्कस्स वा समयपबद्धस्स सेसयं जहण्णेण एगपरमाणुमादि कादूण जावुक्कस्सेणाणंतपरमाणुपमाणं होदूण लगभइ। एवं दो-तिणि आदिकमेण गंतूण जावुक्कस्सेण पलिदोवमस्सासंखेज्जदिमागमेत्ताणं वा समयपबद्धाणं सेसयाणि जहण्णुक्कस्सेणेयाणंतपरमाणुपमाणाणि होदूण लभंति । एवं भवबद्धसेसयाणं पिणेदव्वमिदि गाहापुम्वद्ध सुत्तत्थसमुच्चओ। "णियमा अणुभागेसु च' एवं भणिदे ताणि भवबद्धसेसयाणि समयपबद्धसेसाणि च तम्हि टिदिविसेसे वट्टमाणाणि णिच्छयेणेव अणतेसु अणुभागेसु होति । कि कारणं? एयम्मि वि परमाणुम्मि जहण्णसत्तिपरिणवम्मि अणंताणताणमविभागपडिच्छेवाणमणुभागसण्णिदाणमुबलंभादो। संपहि एवं विहमेदिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो विहासागंथमुत्तरं भणइ * विहासा। $ ४४२. गाहासुत्तणिट्टित्थविवरणं विहासा णाम । सा एण्हिमवहारिज्जदि ति वुत्तं होइ । ६४४१. 'एक्कम्मि द्विदिविसेसे' एक स्थितिविशेषमें अर्थात् एक समय अधिक उदयावलिसे ऊपर अन्यतर स्थितिविशेषमें या उदयके बाद दूसरो स्थिति भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष कितने होते हैं ऐसी पृच्छा करनेपर भवबद्धशेष और समय प्रबद्धशेष बहुत होते हैं इस प्रकार उनके प्रमाणका निर्देश किया है, क्योंकि 'भवसेसय-समयपबद्धसे साणि' इस प्रकार इस चरण में किये गये बहुवचन निर्देशसे उनके बहुत संख्यायुक्त प्रमाणका निर्देश बन जाता है। यहां यद्यपि इस प्रकार किये गये सामान्य निर्देश द्वारा उनके बहुत्वसामान्यका ही ज्ञान होता है तो भी 'व्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है' इस न्यायके अनुसार एक स्थितिविशेषमें भवबद्धशेष और समय प्रबद्धशेष असंख्यात होते हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इस कारण एक स्थितिविशेषमें एक समयप्रबद्धसम्बन्धी शेष जघन्यसे एक परमाणुसे लेकर उत्कृष्टसे अनन्त परमाणुप्रमाण तक होकर उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार दो, तीन आदिके क्रमसे जाकर उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके शेष जघन्यसे एक परमाणुसे लेकर उत्कृष्टसे अनन्त परमाणुप्रमाण होकर उपलब्ध होते हैं। इसी प्रकार भवबद्धशेषोंका भी कथन करना चाहिए। इस प्रकार यह गाथाके पूर्वार्धसम्बन्धी सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। "णियमा अणुभागेसु च' ऐसा कहनेपर वे भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष उसी स्थितिविशेष में निश्चयसे अनन्त अनुभागों में पाये जाते हैं, क्योंकि जघन्य शक्तिरूपसे परिणत एक भी परमाणुमें अनुभागसंज्ञक अनन्तानन्त अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। अब इस प्रकार इस गथाके अर्थकी विभाषा करते हुए आगे विभाषा ग्रन्थका कथन करते हैं * अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६४४२. गाथासूत्रमें निर्दिष्ट किये गये अर्थका ब्योरेवार कथन करना विभाषा कहलातो Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तत्थ ताव भवबद्धसेसस्स समयपबद्धसेंसस्स च सरूवविसेसजाणावणटुं तल्लक्खणणिद्देसमेव सुत्तसूचिदं पुठवं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भगह * समयपबद्धसेसयं णाम कि। $ ४४३. एवं पुच्छंतस्सायमहिप्पाओ-समयपबद्धसेससहवे जाणिदे पच्छा तस्विसय पमाणाविपरूवणा घडदे, णाण्णहा। तदो तस्सेव ताव सरूवणिद्देसो पुव्वमेत्य कायम्वो। तम्हि कीरमाणे केरिसं तं समयपबद्धसेसयं णाम, ण तस्स सरूवमम्हे जाणामो त्ति । एवं भवबद्धसेसस्स वि पुच्छाणुगमो कायव्वो, सत्तस्सेदस्स देसामासयभावेण पवुत्तिअब्भुवगमादो। संपहि एविस्से पुच्छाए णिण्णयविहाण?मुत्तरसुत्तावयारो * जं समयपबद्धस्स वेदिदसेसगं पदेसग्गं दिस्सइ, तम्मि अपरिसेसिदम्मि एगसमयेण उदयमागदम्मि तस्स समयपबद्धस्स अण्णो कम्मपदेसो वा पत्थि तं समयपबद्धंसेसगं णाम । ६४४४. एदस्स सत्तस्स अत्यविवरणं कस्सामो। तं जहा-जं समयपबद्धस्स कम्मदिदिअभंतरे जहाकम वेदिज्जमाणयस्स वेदिदसेसगं पदेसग्गं से काले पिल्लेवणाहिमुहं होदूण दोसइ तं समयपबद्धसेसयं णाम । संपहि एदस्सेव विसेसियूण परवणमिदमाह-'तम्हि अपरिसेसिवम्हि उदयमागम्हि' वेदिदसेसगे पदेसग्गे गिरवसेसमोकड्डियूण उदयम्मि संछुद्धे पुणो तस्स है। उसका इस समय कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसमें सर्वप्रथम भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेषके स्वरूपविशेषका ज्ञान करानेके लिए पहले गाथासूत्र द्वारा सूचित हुए उनके अक्षणका निर्देश करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * समयप्रबद्धशेष किसे कहते हैं ? ६४४३. ऐसा पूछनेवालेका यह अभिप्राय है कि समयप्रबद्धशेषके प्रमाणका ज्ञान हो जानेपर बादमें उसका प्रमाण कितना है इत्यादि प्ररूपणा घटित होतो है, अन्यथा नहीं, इसलिए सर्वप्रथम उसीके स्वरूपका निर्देश करना चाहिए। उसके स्वरूपका निर्देश करनेपर उस समयप्रबद्धशेषका स्वरूप किस प्रकारका है, क्योंकि उसके स्वरूपको हम नहीं जानते। इसी प्रकार भवबद्धशेषके विषयमें भी पृच्छाका निर्देश करना चाहिए, क्योंकि इस सूत्रकी देशामर्षकरूपसे प्रवृत्ति स्वीकार की गयी है। अब इस पृच्छाका निर्णयका विधान करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं * समयप्रबद्धका वेदन करनेके बाद जो प्रदेशपुंज दिखलाई देता है पूरे उसके एक समय द्वारा उदयमें आनेपर उस समयप्रबद्धका फिर कोई अन्य कर्मप्रवेश ( उदयमें आनेके लिए ) शेष नहीं रहता है उसे समयप्रबद्धशेष कहते हैं। ६४४. अब इस सूत्रके अर्थका स्पष्टीकरण करते हैं। वह जैसे-कर्मस्थितिके भीतर क्रमसे वेदन किये जानेवाले समयप्रबद्धका वेदन करनेके बाद जो प्रदेशपुंजशेष रहकर तदनन्तर समयमें निर्लेपनके अभिमुख होकर दिखाई देता है वह समयप्रबद्धशेष कहलता है। अब इसीका विशेष रूपसे कथन करनेके लिए सूत्रमें यह वचन कहा है-'तम्हि अपरिसेसदम्हि उदयमागदम्हि' अर्थात् वेदन करनेके बाद जो प्रदशपुंज शेष रहता है पूरे उसका अपकर्षण करके Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगढीए अममूलगाहाए पढमभासगाहा १६५ froaसमयपत्रद्धस्स एक्को वा कम्मपदेसो अणेगा वा कम्मपदेसा पढमद्विदीए वा विदिर्याद्विदीए वा नियमाण संभवंति, किंतु तेणेव पदेसग्गेण उदिष्णेण तस्स समयपबद्धस्स णिरवसेसं जिल्लेवणा भविस्सदि तं तारिसं पदेसग्यं से काले उदयाहिमुहं होटूण एण्हिमुवलब्भमाणसरूवं समयपबद्धसे सयमिवि वृत्तं होइ । उदया हिमुहावत्थं मोत्तूण उदयसमये चेव वट्टमाणं तं पवेसग्गं समयबद्धसे सयमिदि किरण घेपदे ? ण, तहा घेप्पमाणें एक्कम्हि चेव द्विदिविसेसे समयपब द्वसेसर वा बटूाणप्पसं काढो । ण चेदमिच्छिज्जदे; अणेगेसु ठिदिविसेसेस सांतरणिरंतर सरूवेण समयपबद्धसे सयमवचिदृवि ति उवरिमपरूवणाए विरोहप्पसंगादो । संपहि एक्स्स सुत्तस्त भावत्यो वुच्चदें । तं जहा - कम्मट्ठदिअभंतरे बद्धो एगसमयपबद्धो समयाहियबंधाबलियप्पहूडि उदोरिज्जमाणो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तकालं निरंतर मुदीरिज्जदि सो तस्स बेइगकालो णाम । तदो एगसमयमादि काढून आवुक्कस्सेज पलिदो नमस्सा संखेज्जदि भागमेत्तमबेदगकाल मुल्लंघियूण पुणो वि पलिदोवमस्स असंलेज्जदि भागमे तकालं निरंतर मुक्कस्सेज वेदिज्जवे । एवमेदेण कमेण वेदिज्जमाणस्स तस्स समयबद्धस्स कम्मट्टिबिनम्भंतरे सगुक्कस्स जिल्लेवणकालमेत्ते सेसे तत्तो पहुडि जिल्लेवणपायोग्गभावेण बट्टमाणस्स वेदिदसेसगं पबेसग्गं केत्तियं पि पढमद्विदीए समयाहियउदयावलियबज्जाए निरंतरं होइनच्छनं लहवि, विदियट्ठिदोए च सव्वासु दिट्ठदीसु होणावद्वाणं लहदि । reet तासु दोस वि द्विदीस निरंतर महोवूण अण्णदरम्मि एगट्ठिदिविसेसम्म चेव एग-दो-तिष्णि उदय में निक्षिप्त करनेपर तत्पश्चात् उस विवक्षित समयप्रबद्धका एक भी कर्मप्रदेश अथवा अन्य बहुतसे कर्मप्रदेश प्रथम स्थितिमें और द्वितीय स्थितिमें नियमसे नहीं पाये जाते, किन्तु उसी प्रदेशपुंजके उदय होनेके बाद उस समयबद्धका पूरा निर्लेपन हो जायेगा वह उस प्रकारका प्रदेशपुंज तदनन्तर समय में उदयके अभिमुख होकर इस समय उपलभ्यमान होता हुआ समयप्रबद्धशेष कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-उदयकी अभिमुख अवस्थाको छोड़कर उदय समयमें विद्यमान वह प्रदेशपंज सययप्रबद्धशेष कहलाता है ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा ग्रहण करनेपर एक ही स्थिति विशेष में समय प्रबद्ध शेषके व्यवस्थानका प्रसंग प्राप्त होता है । परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर अनेक स्थिति- विशेषों में सान्तर और निरन्तर रूपसे समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहता है इस उपरिम प्ररूपणा के साथ विरोधका प्रसंग प्राप्त होता है । अब इस सूत्र का भावार्थ कहते हैं । वह जैसे - कर्मस्थितिके भीतर बन्धको प्राप्त हुआ एक समयप्रबद्ध एक समय अधिक बन्धावलिसे लेकर उदीरणाको प्राप्त होता हुआ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर उदीरित होता रहता है। वह उसका वेदककाल कहलाता है । इसके बाद एक समयसे लेकर उत्कृष्टरूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अवेदक कालको उल्लंघन कर फिर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर उत्कृष्टरूपसे वेदन करता है । इस प्रकार इस क्रमसे वेदे जानेवाले उस समयप्रबद्धका कर्मस्थितिके भीतर अपना उत्कृष्ट निर्लेपन कालके शेष रहनेपर वहांसे लेकर निर्लेपन प्रायोग्य रूप से विद्यमान उस समयप्रबद्धका वेदे जानेसे शेष बचा प्रदेशपुंज कितना ही एक समय अधिक आवलिसे रहित प्रथम स्थितिमें निरन्तररूपसे अवस्थित रहता है और द्वितीय स्थितिसम्बन्धी सब स्थितियों में अवस्थित रहता है । अथवा उन दोनों ही स्थितियों में निरन्तररूपसे Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षयषवलासहिदे कसायपाहु. परमाणुआदिकमेण जावुक्कस्सेणाणंता परमाणू सेसयं होदूणच्छणं लहदि । पुणो एवं द्विद. कम्मपरमाणू एगपरमाणुणा वि अपरिसेसो होदूण ओकड्डिय से काले उदयट्टिदीए संछुहणपाओग्गभावेणेण्हिमुवलब्भमाणा तस्स समयपबद्धस्स सेसयमिदि भण्णते, तत्तो परं णिरुद्धसमयपबद्धस्स एक्केण वि परमाणुणा विणा णिल्लेवणदंसणादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो। एवमेदेण सुत्तेण समयपबद्धसेसस्स सख्वणिद्देसं कादूण संपहि भवबद्धसेसगस्स वि एवं चेव सरूवपरूवणा कायव्वा त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एवं चेव भवबद्धसेसयं । ६४४५. जहा समयपबद्धसेसयं तहा चेव भवबद्धसेसयं पिस्टव्वं, से काले ओकडणवसेण उदयट्टिदीए णिल्लेविज्जमाणत्तं पडि विसेसाणुवलंभादो त्ति वुत्तं होदि। गवरि समयपबद्धसेसयं णाम एगसमयपबद्धकम्पपरमाणू घेतूण भवदि । भवबद्धसेसयं पुण जहण्णदो वि अंतोमुहुत. मेत्ताणं समयपबद्धाणमेगभवपडिबद्धाणं कम्मपरमाणू जहासंभवमुवलब्भमाणे घेतूण होदि त्ति वत्तवं। * एदीए सण्णापरूवणाए पढमाए भासगाहाए विहासा। $ ४४६. एवीए अणंतरणिहिट्ठाए सण्णापरूवणाए णिण्णोदसरूवाणं समयपवद्धसेसाणं भवबद्धसेसाणं च एगम्मि द्विदिविसेसे वट्टमाणाणमियत्तावहारणटुं तवणुभागविसेसगवेसणटुं च पढम. भासगाहाए विहासा एण्हिमवयारिज्जदि ति वृत्तं द्रोह। न रहकर अन्यतर एक स्थितिविशेषमें ही एक, दो या तीन परमाणु आदिके क्रमसे लेकर उत्कृष्टरूपसे अनन्त परमाणु शेष होकर अवस्थित रहते हैं। पुनः इस प्रकारसे अवस्थित परमाणुओंको, एक भी परमाण शेष न रहे इस रूपसे, अपकर्षित करके तदनन्तर समयमें उदयस्थिति में निक्षेपके योग्यरूपसे इस समय उपलभ्यमान होनेका नाम उस समयप्रबद्धका शेष कहा जाता है, क्योंकि उसके बाद विवक्षित समय प्रबद्धका एक भी परमाणुके बिना निर्लेपन देखा जाता है यह इस सूत्रका समुच्चय रूप अर्थ है । इस प्रकार इस सूत्र द्वारा समयप्रबद्धशेषके स्वरूपका निर्देश करके अब भवबद्धशेषका भी इसी प्रकार स्वरूप कथन करना चाहिए इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इसी प्रकार भवबद्धशेषके स्वरूपका कथन करना चाहिए। ६४४५. जिस प्रकार समयप्रबद्धशेषका स्वरूप कहा उसी प्रकार भवबद्धशेषका स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि तदनन्तर समयमें अपकर्षणके वशसे उदयस्थितिमें निर्लेपित होनेवालेके प्रति उससे इसमें विशेषता उपलब्ध नहीं होती यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इतनी विशेषता है कि एक समयप्रबद्ध के परमाणुओंको ग्रहण करके समयप्रबद्धशेष होता है। परन्तु भवबद्धशेष एक भवसम्बन्धी जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समयप्रबद्धोंके यथासम्भव उपलभ्यमान कर्मपरमाणुओंको ग्रहण करके प्राप्त होता है ऐसा यहां कहना चाहिए। * अब इस संज्ञा प्ररूपणाके द्वारा प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६४४६. अब अनन्तर पूर्व कही गयी इस संज्ञा प्ररूपणाके द्वारा जिनके स्वरूपका निर्णय कर लिया है ऐसे एक स्थितिविशेषमें विद्यमान समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेषके प्रमाणका अवधारण करने के लिए तथा उनके अनुभाग विशेषको गवेषणा करनेके लिए इस समय प्रथम । भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए पढमभासगाहा १६७ * तं जहा। १४४७. सुगमं। * एकम्हि द्विदिविसेसे कदिण्डं समयपबद्धाणं सेसाणि होज्जासु । ६४४८. एक्कम्हि द्विदिविसेसे गिद्धे किमेक्कस्स समयपबद्धस्स सेसयं होज, आहो दोण्हं तिण्हमेवं गत्तण संखेज्जाणमसंखेज्जाणं वा ति पुच्छा एदेण कवा होइ। संपहि एवंविहाए पुच्छाए णिण्णयविहाणट्ठमुवरिमो विहासागंथो * एक्कस्स वा समयपबद्धस्स दोण्हं वा तिण्हं वा एवं गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ताणं समयपबद्धाणं । ६४४९. एदस्स सुत्तस्सत्यो बुच्चदे। तं जहा-एक्कम्हि टिदिविसेसे णिरुद्ध एगस्स समयपबद्धस्स एगपरमाणू सेसयं होदूण दीसइ। एवं दो-तिण्णिआदिकमेण जावुक्कस्सेण अणंता परमाणू एगसमयपवद्धपडिबद्धा सेसयं होदूण तम्हि टिदिविससे दोसंति। एवं विटुसव्वपरमाणू घेतूण एक्कस्स वा समयपबद्धस्स सेसयं होज्जति ति भणिदं। एवं दोण्हं वा समयपबद्धाणं सेसयाणि तम्हि दिदिविससे होदूण लन्भंति, तिण्हं वा समयपबद्धाणं सेसाणि तम्हि द्विविविसेसे लम्भंति । एवं गंतूण जावुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं वा सययपबद्धाणं सेसयाणि तत्थेव होदूण दोसति । तत्तो अब्भहियाणं समयपबद्धाणं सेसयाणि एक्कम्हि दिदि * वह जैसे। ६४४७. यह सूत्र सुगम है। * एक स्थितिविशेषमें कितने समय प्रबद्धोंके कर्म परमाणु शेष होते हैं। ६४४८, एक स्थितिविशेषके विवक्षित होनेपर क्या एक समयप्रबद्धके कर्मपरमाणु शेष रहते हैं या दो, तीनसे लेकर संख्यात या असंख्यात समयप्रबद्धोंके कर्म परमाणु शेष रहते हैं इस प्रकार इस सूत्र द्वारा यह पृच्छा की गयी है। अब इस प्रकार की पृच्छाका निर्णय करनेके लिए आगेका विभाषा ग्रन्थ आया है * एक समयप्रबद्धके या दो या तीन से लेकर उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण. समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणु शेष रहते हैं। ४४९. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-एक स्थितिविशेषके विवक्षित होनेपर एक समयप्रबद्धका एक परमाणु शेष होकर दिखाई देता है। इसी प्रकार दो या तीनसे लेकर उत्कृष्टसे अनन्त परमाणु तक एक समयप्रबद्धसम्बन्धो परमाणु शेष होकर उस स्थितिविशेषमें दिखाई देते हैं। इस प्रकार दिखाई देनेवाले सब परमाणुओंको ग्रहण कर वे सब एक समयप्रबद्धके शेष होते हैं यह यहां कहा गया है। इसी प्रकार दो समयप्रबद्धोंके शेष कर्मपरमाणु उस स्थितिविशेषमें होकर प्राप्त होते हैं। अथवा तीन समयप्रबद्धोंके शेष कर्मपरमाणु उस स्थितिविशेषमें प्राप्त होते हैं। इस प्रकार जाकर उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके शेष कर्मपरमाणु उस स्थितिविशेषमें होकर दिखाई देते हैं। किन्तु इससे अधिक समयप्रबद्धोंके शेष कर्म परमाणु एक स्थितिविशेषमें सम्भव नहीं हैं, क्योंकि नाना स्थिति और एक स्थितिको विषय करनेवाले उत्कृष्टसे पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपित होनेवाले Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ बयधवलासहिदे कसायपाहुडे विसेसेण संभवंति, एगसमयहि जिल्लेविज्जमाणाणं समयपबद्धाणं णाणेगट्ठिदिविसयाणमुवकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं चेव संभवोवएसादों । तदो एगम्हि द्विदिविसेसे निरुद्धे एगसमयपबद्ध सेसयमादि काढूण जावुक्कस्सेण पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्वाणं याणि संभवंति त्ति एसो एत्य सुत्तत्थसंग हो । एवमेक्कम्हि द्विदिविसेसे समयपबद्धसेसणं पमाणविणिण्णयं काढूण संपहि भवबद्धसेसाणं एगद्विदिविसेसमहि किच्च पमाणानुगमं कुणभाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * भवबद्धसेसयाणि वि एक्कम्हि ट्ठिदिविसेसे एक्कस्स वा भवबद्धस्स दोण्हं वा तिण्डं वा एवं गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं भवबद्धाणं । ४५०. एदस्स वि सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जहा समयपबद्धसेसयम हिकिच्च परुविदं तहा चैव वत्तव्वं । णवरि समयपबद्धसेसयं णाम एगसमग्रपबद्धमुवेषखदे । भवबद्धसेस पुण एगभव विसयाणा समयपबद्धाणं जहासंभवमुवलब्भमाणाणं सेसयाणि घेत्तूण भबदित्ति एसो विसेसो जाणिव्वो । तदो एक्कम्हि द्विदिविसेसे उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि भवबद्धसेसयाणि होवण एगट्ठिदिविसयसमयपबद्ध सेसेहितो असंखेज्जगुणहोणाणि त्ति घेतव्यं । समयप्रबद्ध एक समयमें सम्भव है ऐसा भागमका उपदेश है। इसलिए एक स्थितिविशेषके विवक्षित होने पर उसमें एक समयप्रबद्धशेषसे लेकर उत्कृष्टसे पत्थोपमके नसंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके शेष परमाणु सम्भव हैं वह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार एक स्थितिविशेष में समयप्रबद्धशेषों के प्रमाणका निर्णय करके मम भवबद्धशेषका एक स्थितिविशेषको अधिकृत करके प्रमाणका अनुगम करते हुए मागेके सूत्रको कहते हैं Den * एक स्थितिविशेषमें भवबद्धशेष भी एक भवसम्बन्धी, दो भवसम्बन्धी, तीन भवसम्बन्धी या उत्कृष्टसे पत्योपमके असंस्थातवें भागप्रमाण भवसम्बन्धी होते हैं। · ४५०. इस सूत्र का भी अर्थ कहनेपर जिस प्रकार समयप्रबद्धशेषको अधिकृतकर प्ररूपणा की है उसी प्रकार इसकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि समयप्रवद्धशेष एक समयबद्ध की अपेक्षा से निर्दिष्ट किया गया है । किन्तु भवत्रद्धशेष एक भवविषयक यथासम्भव उपलभ्यमान नाना समयप्रबद्धोंके शेषको ग्रहण कर निर्दिष्ट किया गया है इस प्रकार इन दोनोंमें इतना अन्तर जानना चाहिए । अतः एक स्थितिविशेषमें उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भवबद्धशेष होकर वे एक स्थितिसम्बन्धी समयप्रबद्धशेषोंको अपेक्षा असंख्यातगुणे हीन होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - यहाँ प्रकृतमें उपयोगो समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेषके अर्थको स्पष्ट करके एक स्थितिविशेष में समयप्रबद्ध शेषका कमसे कम एक परमाणु पाया जाता है और अधिक से अधिक अनन्त परमाणु पाये जाते हैं । तथा भवबद्धशेषकी विवक्षा में एक स्थितिविशेष में कम से कम एक भवसन्बन्धी और अधिकसे अधिक पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भवोंसम्बन्धी शेष पाये जाते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए । यहाँ समयप्रबद्धशेष में एक समयबद्धसम्बन्धी परमाणु विवक्षित हैं और भवबद्धशेषमें कमसे कम एक भवसे लेकर अधिक से अधिक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण भवसम्बन्धी समयप्रबद्धशेष विविक्षित हैं । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अट्ठमूलगाहाए विदियभासगाहा ६४५१. एवमेत्तिएण पबंधेण भासगाहापुव्वद्धं विहासिप संपहि गाहापच्छद्धविहासणट्ठः मुत्तरसुत्तमाह *णियमा अणतेसु अणुभागेसु भववद्धसेसगं वा समयपबद्धसे सगं वा । ६४५२. कुदो ? एक्कम्मि वि परमाणम्मि सेसभावेणोवलम्भमाणे तत्थाणताणमविभाग. पडिच्छेदाणमणुभागसण्णिदाणमवलंभादो। तदो वग्गणाओ फद्दयाणि किट्टोमो वा अस्सियूण णेदं भणिदं, किंतु सामण्णेण रसविसेसं पेक्खियूण भणिदमिदि बटुव्वं, अण्णहा एगपरमाणुम्मि सेसभावेण वट्टमाणे पयदणियमस्साणुववत्तीदो। एवमेत्तिएण पबंधेण पढमभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि विदियभासगाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेह * एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६४५३. सुगम। * तं जहा। ३४५४. सुगमं । (१४८) द्विदिउचरसेढीए मवसेससमयपबदसेसाणि । एगुचरमेगादी उचरसेढी असंखेज्जा ॥२०१॥ १५. एसा विनियमासगाहा मूलगाहाए पुगपछतु परिबरपुच्छाओ अस्सिपूण मानसमयपबद्धसेसयाणि भवनडसेमयानि महणुकस्सेण एसियमेत द्विविविसेसेसु होति १५१. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा भाष्यगाथाके पूर्वाधकी विभाषा करके अब उक्त भाष्यगाथाके उत्तरार्धकी विभाषा करने के लिए भागेके सूत्रको कहते है-- *ये भवववशेष और समयप्रबशेष नियमसे मनन्त अनुभागोंमें पाये जाते हैं। ४५२. क्योंकि शेषरूपसे उपलभ्यमान एक भी परमाणुमें वहाँ अनुभाग संज्ञावाले अनन्त अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। अतः यह वर्गणामों, स्पर्धको मोर कष्टियोंकी अपेक्षासे नहीं कहा गया है, किन्तु सामान्यसे रसविशेषको देखते हुए कहा गया है ऐसा यहाँ जानना चाहिए, अन्यथा शेषरूपसे विद्यमान परमाणुमें प्रकृत नियम नहीं बन सकता। इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हुए मागेके विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं * इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाको समत्कीर्तना करते हैं। ६४५३. यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६४५४. यह सूत्र सुगम है। (१४८) जो एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे असंख्यात स्थितिविशेषोंकी वृद्धिरूप उत्तरणि है उप्त स्थितिउत्तरणिमें भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष पाये जाते हैं ॥२३॥ ६४५५. यह दूसरी भाष्यगाथा मूलगाथाके पूर्वार्ध और उत्तरार्धमें प्रतिबद्ध पुच्छामोंका साश्रय लेकर नाना समयप्रबशेष, एक समयप्रबद्धशेष बोर नाना तथा एक भवबद्धशेष षषन्य और २२ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ति पावण?मोइण्णा । तं जहा-'ट्रिवि उत्तरसेढीए एवं भणिदे एगसमयपबद्धसेसयं जहणेण एगटिदिविसेसम्मि होदूण लब्भइ, दोसु वि दिदिविसेसेसु होदूण लब्भइ, तिसु वि दिविविसेसेसु होदूण लब्भइ । एवं. गंतूण संखेज्जेसु असंखेज्जेसु वा ठिदिविसेसेसु होदूण लगभइ। एवमेसा समयुत्तरकमेण ट्रिदिविसेसाणं परिवड्डी टिदिउत्तरसेढी णाम। एवमेगभवबद्धसेसयस्स वि दिदिउत्तरसेढी अणुगंतव्वा। एवं चेव जाणासमयपबद्धसेसयाणं गाणाभवबद्धसेसयाणं च द्विदिउत्तरसेढोए अवट्ठाणं वत्तव्वं । एवमेंदीए द्विदिउत्तरसेढोए गाणेगभवबद्धसमयपबद्धसेसयाणि होति त्ति वुत्तं होइ। ६४५६. संपहि एक्स्सेवत्थस्स फुडीकरणटुं गाहापच्छद्धणिद्देसो-'एगुत्तरमेगावो' एगादिएगुत्तरकमेण जा ठिवीणं परिवड्डी सा ठिविउत्तरसेढो णाम । सा असंखेज्जासंखेजटिदिविसेसपडिबद्धा बटुट्या ति वुत्तं होदि । तवो जहण्णेण एगट्ठिविविसेसे एगसमयपबद्धसेसयं होदूण पुणो समयुत्तरवड्डीए गंतूण उक्कस्सदो' असंखेज्जेसु टिदिविसेसेसु एगसमयपबद्धसेसयमवट्ठाणं लहदि । एवमेगभवबद्धसेसयस्स वि एगादिएगुत्तरवडिदेसु असंखेज्जेसु टिदिविसेसेसु अवट्ठाणसंभवो बटुव्वो त्ति एसो एक्स्स भावत्थो। ६४१७. एवं चेव णाणासमयपबद्धभवबद्धसेसयाणं पि द्विविउत्तरसेढीए असंखेज्जेसु दिदिवियप्पेसु अवट्ठाणक्कमो अणुगंतव्यो । णवरि जाणाभवसमयपबद्धसेसयाणि जहण्णो वि असंखेज्जेसु टिदिविसेसेसु जिणविट्ठभावेण होदूण तदो ट्ठिविउत्तरसेढोए गंतूण उक्कस्सेण वि उत्कृष्टरूपसे इतने स्थितिविशेषोंमें होते हैं इस बातका प्ररूपण करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-'दिदि उत्तर-सेढोए' ऐसा कहनेपर एक समयप्रबद्धशेष जघन्यसे एक स्थितिविशेष में प्राप्त होता है, दो स्थिति-विशेषों में प्राप्त होता है, तीन स्थितिविशेषोंमें भी प्राप्त होता है। इस प्रकार जाकर संख्यात और असंख्यात स्थितिविशेषोंमें प्राप्त होता है। इस प्रकार यह समयोत्तरके क्रमसे स्थितिविशेषोंकी परिवृद्धिका नाम स्थिति उत्तरश्रेणि है। इस प्रकार एक भवबद्धशेषकी भी स्थिति उत्तरश्रेणि जाननी चाहिए । तथा इसी प्रकार नाना समयप्रबद्धशेषों और नाना भवबद्धशेषोंका स्थितिउत्तर-श्रेणिमें अवस्थान कहना चाहिए । इस प्रकार इस स्थिति उत्तरश्रेणिमें नाना और एक भवबद्धशेष तथा नाना और एक समयप्रबद्ध शेष होते हैं यह उक्त कथनका तासर्य है। ६४५६. अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए गाथाके उत्तरार्धका निर्देश हमा है'एगत्तरमेगादी' अर्थात् एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे जो स्थितियोंकी वृद्धि होती है उसका नाम स्थिति उत्तरश्रेणि है । उसे असंख्यातासंख्यात स्थितिविशेषोंसे सम्बद्ध जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए जघन्यसे एक स्थितिविशेषमें एक समयप्रबद्धशेष होकर पुनः एक एक समयकी वृद्धिके क्रमसे जाकर उत्कृष्टसे असंख्यात स्थितिविशेषोंमें एक समयप्रबद्धशेषका अवस्थान प्राप्त होता है। इसी प्रकार एक भवबद्धशेषका भी एकसे लेकर एक-एक अधिक के क्रमसे असंख्यात स्थितिविशेषों में अवस्थान सम्भव है ऐसा जानना चाहिए, इस प्रकार यह इसका भावार्थ है। ६४५७. तथा इसी प्रकार नाना समयप्रबद्धशष और नाना भवबद्धशेषोंका भी स्थिति उत्तरपिके द्वारा असंख्यात स्थितिविशेषोंमें अवस्थानका क्रम जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नाना भवबद्धशेष और नाना समयप्रबद्धशेष जघन्यसे भी असंख्यात स्थितिविशेषोंमें Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवंगसेढीए अट्ठममूलगाहार विदियभासगाहा १७१ असंखेज्जेसु द्विदिवियप्पेसु चिट्ठति त्ति वत्तव्यं । एदस्स विसेसणिण्ययमुवरिमगाहा सुत्तमस्सियूण कस्साम । तदो एगसमय पबद्ध से सय मेग भवबद्ध से सबं च पहाणं काढूण एगा दिएगुत्तरकमेण ठिदिउत्तरसेढी देण गाहासुत्तेण णिद्दिव्वा । $ ४५८. संपहि एवस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाह * विहासा । ६ ४५९. सुगमं । * तं जहा । ६ ४६०. सुगमं । * समयपबद्धसे सयमेक्कम्मि ट्ठिदिविसेसे दोसु वा तीसु वा एगादिएगुत्तरमुक्कसेण विदियट्ठिदी सव्वासु द्विदोसु पढमट्ठिदीए च समयाहियउदयावलियं मोत्तूण सासु सव्वासु ठिदीसु णाणासमयपबद्ध से साणं णाणेगभवबद्धसेसयाणं च । जिनेन्द्रदेव के देखे अनुसार होकर आगे स्थितिउत्तरश्रेणिके द्वारा जाते हुए उत्कृष्टसे भी असंख्यात स्थितिविशेषोंमें अवस्थित रहते हैं ऐसा कथन करना चाहिए। इसलिए एक भवबद्धशेष और एक समयप्रबद्धशेषको प्रधान करके एकसे लेकर एक एक उत्तरके क्रमसे इस गाथासूत्र द्वारा स्थितिउत्तरश्रेणिका निर्देश किया गया है ऐसा जानना चहिए । विशेषार्थ — उदयकाल में तदनन्तर समयका एक भवसबन्धी जो कर्मपुंज शेष रहता है वह एक भवबद्धशेष कहलाता है और इसी प्रकार उदयकाल में तदनन्तर समयका एक समयप्रबद्धसम्बन्धी जो कर्मपुंज शेष रहता है वह एक समयप्रबद्धशेष कहलाता है । ये दोनों जघन्यसे एक स्थितिसम्बन्धी शेष हो सकते हैं और अधिक से अधिक असंख्यात स्थितिसम्बन्धी भी शेष हो सकते हैं । किन्तु एकसे अधिक भवोंमें बद्ध जो कर्मपुंज शेष रहता है और इसी प्रकार एकसे अधिक समयों में बद्ध जो कर्मपुंज उदयकालके तदनन्तर स्थिति में शेष रहता है वह नियमसे असंख्यात स्थितिविशेषसम्बन्धी होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ६ ४५८. अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । ६ ४६९. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । ६ ४६०. यह सूत्र सुगम है । * एक समयप्रबद्धशेष एक स्थितिविशेषमें पाया जाता है अथवा दो स्थितिविशेषों में पाया जाता है, अथवा तीन स्थितिविशेषों में पाया जाता है। इस प्रकार एकसे लेकर एक एक उत्तरक्रमसे उत्कृष्टसे द्वितीय स्थितिसम्बन्धी सब स्थितियों में पाया जाता है। तथा प्रथम स्थितिसम्बन्धी एक समय अधिक एक आवलिको छोड़कर शेष सब स्थितियोंमें पाया जाता है । इसी प्रकार नाना समयप्रबद्धशेषोंकी तथा एक भवबद्धशेष और नाना सभवप्रबद्धशेषों की प्ररूपणा करनी चाहिए । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६४६१. देसामासयभावेण एगसमयपबद्धसेसगमहिकिच्च विहासासुत्तमेदमोइण्णं। तं कथं ? एगसमयपबद्धसेसयं सेसासेसद्धिविपरिहारेण एक्कम्मि चेव द्विदिविसेसे होदूण कदाइमुवलब्भइ, दोसु विटिदिविसेसेसु होदूण लम्भइ। एवं तिण्णि-वत्तारिमादिकमेण एगादिएगुत्तरपरिवड्ढोए गंतूण उक्कस्सेण विदिदिदीए सव्वासु द्विदीसु वासपुधत्तपमाणासु होदूण णिरुद्धसमयपबद्धसेसयमुव. लग्भदे । ण केवलं विवियट्टिवीए चेव सव्वासु द्विवीसु, किंतु अण्णवरसंजलणस्स पढमट्टिदीए च समयाहियउदयावलियमेत्तोओ द्विदीओ मोत्तूण सेसासु सव्वासु चेव द्विवीसु णिरुद्धसमयपबद्धसेसयमवचिदि । कि पुण कारणं समयाहियउदयावलियाए परिवज्जणमेत्थ कोरदि ति वुत्ते वुच्चदे-ण ताव उददिदीए समयपबद्धसेसयस्स संभवो, से काले उदये णिल्लेविज्जमाणसरुवस्स तस्स वट्टमाणउददिदीए तक्कालमेव णिल्लेविज्जमाणसरुवाए संभवविरोहादो। णोदयावलिय. बाहिरेयट्रिदीए वि तस्सावट्ठाणसंभवों अस्थि, तत्थतणपदेसग्सस्स से काले णियमा उदयावलियं पविसमाणस्स तदवत्थाए ओकाडुयूणुदये संछोहणासंभवादो । एवमुदयावलियम्भंतरसेसट्टिदोसु वि तदसंभवणियमो बटुव्वो। ६४६२. गरि उपढिवीवो जा अणंतरविदियट्टिवी तिस्से समयपबढसेसस्स संभवो अस्थि, से काले उदयभावेण णियमको परिणममाणाए तिस्से समयपबद्धसेसस्स संभवे विरोहाणुव. लंभावो। सुत्ते पुण एरिसो विसेसणिद्देसो न कहो, वाखाणदो चेव तारिसविसेसपडिवत्तो होवि ४६१. देशामर्षकरूपसे एक समयप्रयवशेषको अधिकृत कर यह विभाषासूत्र अवतीर्ण हुआ है। शंका-वह केसे? समाधान-एक समयप्रणवशेष शेष समस्त स्थितियोंका परिहार करके कदाचित् एक ही स्थितिविशेषमें उपलब्ध होता है, दो स्थिातविशेषोंमें भी उपलब्ध होता है। इसी प्रकार तीन, चार बादिके क्रमसे एकको आदि करके एक-एककी वृद्धि द्वारा जाकर उत्कृष्टसे द्वितीय स्थितिसम्बन्धी वर्षपृथक्त्वप्रमाण सब स्थितियों में विवक्षित समयप्रबद्धशेष उपलब्ध होता है। केवल द्वितीय स्थितिसम्बन्धी ही सभी स्थितियों में नहीं उपलब्ध होता है, किन्तु किसी एक संज्वछनकी प्रथम स्थितिसम्बन्धी एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण स्थितियोंको छोड़कर शेष सब स्थितियोंमें विवक्षित समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहता है। शंका-यहाँपर एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण स्थितियोंका निषेध करनेका क्या कारण है ? समाधान-ऐसा प्रश्न करनेपर उत्तरस्वरूप कहते हैं-उदयस्थितिमें तो समयप्रबद्धशेषको प्राप्ति सम्भव है नहीं, क्योंकि यह अनन्तर समय में उदय द्वारा निर्लेप्यमानस्वरूप है, अतः उसका उसी समय निर्लेप्यमानस्वरूप वर्तमान उदय स्थिति में सम्भव होने में विरोध आता है। उदयावलिके बाहर प्रथम स्थितिमे भी उसका अवस्थित रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थितिमें रहनेवाला प्रदेशज अनन्तर समयमें नियमसे उदयावलिमें प्रवेश करनेवाला है, अतः उस अवस्थामें उसका अपकर्षण होकर उदयमें निक्षिप्त होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार उदयावलिके भीतर शेष स्थितियोंमें भी उसके असम्भव होनेका नियम जानना चाहिए। ६४६२ इतनी विशेषता है कि उदयस्थितिसे अनन्तर स्थित जो द्वितीय स्थिति है उसमें समयप्रबद्धशेष सम्भव है, क्योकि अनन्तर समयमें उदयरूपसे नियमसे परिणमन करनेवाली उसमें समयप्रबद्धशेषका होना सम्भव है इसम कोई विरोध नही उपलब्ध होता। परन्तु सूत्र में इस प्रकारके Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्टममूलगाहाए तदियभासगाहा १७३ ति ओकड्डियूण उदये णिल्लेविज्जमाणस्सेव पदेसग्गस्स सेसभावेण सुते विवक्खियत्तादो वा । एवमेगभवबद्धसेसयं पिणिरुद्धं कादूण एसो सव्वो वि सुत्तत्यो जोजेययो। णाणासमयपबद्धसेसयाणं भवबद्धसेंसथाणं च पादेक्कं णिरंभणं काढूण एसो अत्यो समयाविरोहेणाणुगंतव्यो । एवं विदियभासगाहाए. अत्थविहासा समत्ता। * एत्तो तदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । $ ४६३. सुगमं। (१४९) एक्कम्मि हिदिविसेसे सेसाणि ण जत्थ होति सामण्णा । ____ आवलिगासंखेन्जदिभागो तहिं तारिसो समयो ॥२०२॥ ६४६४. पढम-विदिय भासगाहाहि मूलगाहाएपुव्वपच्छखेसु विहासिदेसु पुणो किमट्टमेसा तदियभासगाहा समोइण्णा त्ति पुच्छिवे वुच्चदे-दिविउतरसेढीए भवसेसयसमयपबद्धसेसाणि चिट्ठमाणाणि असंखेज्जेसु टिदिविसेसेसु चिटुंति त्तिविदियभासगाहाए परूविद।तेसु च टिदिविसेसेसुणाणेयसमयपबद्धसेसाणं णाणाभवबद्धसेसाणं च किं पिरंतरसरुवेणेवावटाणणियमो आहो सांतरसहवेत्ति ण एसो विसेसो तत्थ जाणाविदो। तदो तत्थ तेसिमवढाणक्कमजाणावणटुं भवसमयपबद्धसेसाणमाधाराणाधारभूवसामण्णासामण्णदिदीणं सरूवविसेसजाणावणटुं च एसा तदियभासगाहा समोइण्णा। विशेषका निर्देश नहीं किया गया है, व्याख्यानसे ही उस प्रकारके विशेषका ज्ञान होता है। अथवा अपकर्षण करके उदयमें निर्लेप्यमान प्रदेशपंज ही शेषरूपसे सूत्र में विवक्षित है। इसी प्रकार एक भवबद्धशेषको भी विवक्षित करके यह सब सूत्रका अर्थ योजित करना चाहिए। तथा नाना समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेषोंमेंसे प्रत्येकको विवक्षित करके आगमके अविरोधपूर्वक यह सब अर्थ कहना चाहिए । इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। * यह तीसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना है। ६४६३. यह सूत्र सुगम है। (१४९) जिस किसी एक स्थितिविशेष में जो भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष सामान्य नहीं होते हैं वे असामान्य कहलाते हैं। वे असामान्य स्थितिविशेष परस्पर संलग्न होकर अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। और वे वषपृथक्त्व कालमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक गिरन्तर पाये जाते हैं ॥२०२॥ ६४६४. शंका-प्रथम और दूसरी भाष्यगाथाओं द्वारा मूल गाथाके पूर्वार्धके भाषित कर देनेपर पुनः यह तीसरी भाष्यगाथा किस लिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान-ऐसी पृच्छा होनेपर आचार्य कहते हैं कि स्थिति उत्तरश्रेणिमें भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहते हुए असंख्यात स्थितिविशेषोंमें पाये जाते हैं यह दूसरी भाष्यगाथा द्वारा कहा गया है। किन्तु उन स्थितिविशेषोंमें नाना और एक समयप्रबद्धशेषोंका तथा नाना और एक भवबद्धशेषोंका निरन्तररूपसे रहनेका नियम है या सान्तररूपसे रहनेका नियम है इस प्रकार इस विशेषका उस दूसरी गाथामें ज्ञान नहीं कराया गया है, इसलिए उस क्षपकके उनके अवस्थानके क्रमका ज्ञान करानेके लिये भवबद्धशेषोंका आधारभूत और अनाधारभूत सामान्य और असामान्य स्थितियोंके स्वरूप विशेषका ज्ञान करानेके लिए यह तीसरी भाष्यगाथा अवतीर्ण Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयrवलासहिदे कसायपाहुडे ६४६५. तं जहा - 'एक्कम्हि द्विदिविसेसे० ' एवं भणिवे जहि अण्णदरट्ठिविविसेसे समयबद्ध से सयाणिण संभवंति सा द्विदी असामण्णसण्णिदा णादग्या त्ति गाहापुग्वद्धे सुत्तत्थसंबंधो। तेण भवबद्धसेसयाणि समयपबद्धसेसयाणि च जिस्से द्विदीए निम्मूलदो ण संति सा द्विदी असामण्णसण्णा ववहारेयध्वा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । एदेणेव जम्हि द्विदिविसेंसे भवसमयपबद्ध सेयाणि अत्थि सा द्विदी सामण्णसण्णाए ववहारेयव्वा त्ति एसो वि अत्यो सूचिदो दटुग्वो, दोहदा सिमण्णोणसव्यपेक्खत्तादो भवसमयपबद्ध सेसयाणमाहारभावेण समणिदाओ द्विदीओ सामण्णद्विदीओ । सिमणाघारभूदाओ द्विदीओ असामण्णाओ त्ति एसो एक्स्स भावत्थो । ४६६. एवमेदेण गाहा पुग्वद्वेण सामण्णासामण्णद्विदीनं सख्वपरूवणं कादूण संपहि असामण्णद्विदीओ निरंतरमुक्कस्लेण एत्तियमेत्तीओ होंति त्ति जाणावणटुं गाहापच्छद्धमाह'आवलिया संखेज्जदिभागो' आवलियाए असंखेज्ज विभागमेत्ता 'तम्हि' खवगम्हि तम्हि वा वासपुधत्तमेतं व द्विदिविसेसे 'तारिसा समया' भवसमयपबद्ध सेस विरहिदा असामाद्विविविसेसा निरंतरसरूवेण लब्भंति, तत्तो अहिययराणमसामण्ण द्विदोणं निरंतरस हवेण खवगसेढिम्मि संभवाणुवलंभावोति भणिदं होदि । १७४ ६ ४६७. एसो उक्कस्सपक्खेण असामण्णद्विवीणं पमाणणिद्देसो सुत्ते कओ । तदो जहणणेण एगा चेव असामण्ण द्विवी एक्स्स खवगस्स लब्भइ । एवं दो-तिष्णिआदिकमेण गंतून उक्कस्सेण ६ ४६५. वह जैसे - 'एक्कम्हि ट्ठिदिविसेसे' ऐसा कहनेपर जिस अन्यतर स्थिति विशेष में समयप्रबद्धशेष सम्भव नहीं हैं उस स्थितिको असामान्य संज्ञक जाननी चाहिए यह इस भाष्यगाथा के पूर्वार्ध में सूत्रार्थंका सम्बन्ध है । इसलिए जिस स्थिति में भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष पूरी तरह से नहीं होते हैं वह स्थिति असामान्य संज्ञाके द्वारा व्यवहृत करनी चाहिए यह वहीं सूत्रार्थ का संग्रह है। तथा इसीसे जिस स्थिति में भवबद्धशेष और समयबद्धशेष पाये जाते हैं उस स्थितिका सामान्य संज्ञारूपसे व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार इस भाष्यगाथाके पूर्वार्ध द्वारा यह अर्थ भी सूचित कर दिया गया जानना चाहिए। यहाँ इन दोनोंके परस्पर सापेक्ष होने के कारण भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेषके आधाररूपसे समन्वित जितनी भी स्थितियां होती हैं वे सामान्य स्थितियाँ कहलती हैं और जो स्थितियाँ उन दोनोंकी आधार नहीं होती हैं वे असामान्य स्थितियां कहलाती हैं इस प्रकार यह इसका भावार्थ है । ई ४६६. इस प्रकार इस गाथाका पूर्वाधं द्वारा सामान्य और असामान्य स्थितियोंके स्वरूपका कथन करके अब असामान्य स्थितियां निरन्तर उत्कृष्टरूप से इतनी होती हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए उक्त भाष्यगाथाके उत्तरार्धका कथन करते हैं - ' आवलियासंखेज्जदिभागो' आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण 'तारिसा समया' भवबद्ध और समयप्रबद्धसे रहित आसामान्य स्थितिविशेष उस क्षपकके वर्षपूथक्त्व काल तक पुनः पुनः निरन्तररूपसे पाये जाते हैं, क्योंकि उनसे अधिक असामान्य स्थितियां क्षपकश्रेणिमें निरन्तररूपसे उपलब्ध होना सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थं - यहां असामान्य स्थितियाँ एक बारमें लगातार अधिक से अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होकर भी अन्तरके साथके वर्षंपृथक्त्व कालके भीतर आवलिके असंख्यातवें भाग वार प्राप्त हो जाती हैं यह इस कथनका तात्पर्य है । शेष कथन स्पष्ट ही है । § ४६७. यह उत्कृष्टपक्षके अवलम्बन द्वारा असामान्य स्थितियोंके प्रमाणका निर्देश सूत्रमें किया है। इसलिए जघन्यसे एक ही असामान्य स्थिति इस क्षपकके उपब्ध होती है । इसी प्रकार Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगढी अट्टमूलगाहाए तदिणभासगाहा १७५ आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तोओ असामण्णद्विबीओ लग्भंति त्ति घेत्तव्यं । संपहि एवस्सेवत्थस्स फुडीकरणमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विहासा । ६ ४६८. सुगमं । * सामण्णसण्णा ताव । ६ ४६९. सामण्णसण्णाए अविष्णादाए असामण्णसण्णा ण जाणिज्जदि त्ति काढूण पुत्रमेव ताव सामण्णसण्णा परूवणं कस्सामो त्ति भणिदं होइ । * एक्कम्हि ठिदिविसेसे जम्हि समयपबद्ध से सयमत्थि सा हिंदी सामण्णा ति णादव्वा । ४७०. जम्हि एक्कम्हि णिरुद्धद्विदिविसेसे समयपबद्ध से सयमेगपरमाणुमावि काढूण जावकरसेणाणता परमाणु ति दीसह सा ठिवी सामण्णद्विबिसण्णं लहवि त्ति वृत्तं होइ । कुबो पुण एक्स्स द्विदिविसेसस्स सामण्णसण्णा जादा त्ति चे ? ण, समयपबद्धासेस परमाणूण मियरपरमाणूणं च साहारणभावेणावद्विवस्स तिस्से तब्ववएसा विरोहावो । भवबद्धसेसयं पि अस्सियूण सामण्ण द्विदिसण्णा एवं चेव जोजेयव्वा, सुत्तस्सेदस्स देसाभासय भावेणावद्विवत्तावो । * जम्मि णत्थि साट्ठिदी असामण्णा त्ति णादव्वा । दो, तीन आदिके क्रमसे जाकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण असामान्य स्थितियाँ इस क्षपकके उपलब्ध होती हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अब इसो अर्थको स्पष्ट करने के लिए आगे विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब उक्त सूत्र गाथाकी विभाषा करते हैं । ६ ४६८. यह सूत्र सुगम है । * सर्वप्रथम सामान्य संज्ञाका स्वरूप कहते हैं । $ ४६९. क्योंकि सामान्य संज्ञाके अविज्ञात रहनेपर असामान्य संज्ञाका ज्ञान नहीं होता ऐसा समझकर पहले ही सामान्य संज्ञाकी प्ररूपणा करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * जिस एक स्थितिविशेषमें समयप्रबद्धशेष पाया जाता है वह स्थिति सामान्य संज्ञावाली है ऐसा जानना चाहिए । ४७०. जिस विवक्षित एक स्थितिविशेष में एक परमाणुसे लेकर उत्कृष्टसे अनन्त परमाणु तक समयप्रबद्धशेष दिखाई देता है वह स्थिति सामान्य स्थिति संज्ञाको प्राप्त होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- इस स्थितिविशेषकी सामान्य संज्ञा किस कारणसे हो गयी है ? समाधान- नहीं, क्योंकि समयप्रबद्धशेष के परमाणु तथा दूसरे परमाणु साधारणरूपसे उस स्थिति में अवस्थित रहते हैं, इसलिए उसकी सामान्य संज्ञा है इसमें कोई विरोध नहीं पाया जाता । भवबद्धशेषका भी आलम्बन लेकर सामान्य स्थिति संज्ञाकी इसी प्रकार योजना करनी चाहिए, क्योंकि यह सूत्र देशा मर्षकरूपसे अवस्थित है । * जिसमें सामान्य स्थिति नहीं पायी जाती वह स्थिति असामान्य संज्ञावाली होती है ऐसा जानना चाहिए । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६४७१. सामण्णादो अण्णा असामण्णा ति गहणादो जम्हि टिदिविसेसे समयपबद्धसेंसयं भवबद्धसेसयं वा पत्थि सा टिदो असामण्णा ति णिच्छेयव्वा, भव-समयपबद्धसेसयाणमणाहार. भावेणावट्टिदाए तिस्से तव्ववएससिद्धीए णाइयत्तादो । एवं गाहापुम्वद्धमस्सियूण सामण्णा. सामण्णसण्णाणं परूवणं काढूण संपहि गाहापच्छद्धमस्सियूण असामण्णटिदीओ जहण्णुक्कस्सेग णिरंतरमेत्तियमेत्तीओ होंति त्ति इममत्यविसेसं विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एवमसामण्णाओ द्विदीओ एक्का वा दो वा उक्कस्सेण अणुबद्धाओ आवलियाए असंखेज्जदिमागमेतीओ। 5 ४७२. एवं भणिदे अणंतरणिहिटुसरूवाओ असामण्णट्रिशेओ एक्का वा दो वा होति । एवमेगुत्तरवड्डीए गंतूण उक्कस्सेणाव लियाए असंखेज्जविभागमेत्तीओ अण्णोण्णाणुसंबंधाओ लन्भंति, ण तत्तो अहियाओ त्ति भणिवं होइ। विदियभासगाहाए अत्थे भण्णमाणे एक्कम्हि द्विविविसेसे सेसयं भवदि, दोसु वि द्विविविसेसेसु सेसयं भवति । एवं रूवुत्तरकमेण गंतूण उक्कस्सेण सम्वेसु ट्रिविविसेसेसु समयाहियउदयावलियवज्जेसु सेसयं होवि त्ति भणिदं । तत्थ एगट्टिदिविसेसे सेसयं होदि ति भणतेण सेसासेसट्रिदीओ समयपबद्धसेससुण्णाओ असामण्णट्ठिदिसण्णिदाओ होति त्ति जाणाविदं, तेण कारणेण असामण्णट्ठिदणं आवलियाए असंखेज्जदि. भागमेत्तुक्कस्ससंखावहारणमिदं ण घडदे, वासपुधत्तमेत्तीणमसामण्णाटिदीणमुक्कस्सपक्खेणेत्य ६४७१. सामान्यपे अन्य असामान्य कहलाती है ऐसा ग्रहण करनेसे जिस स्थितिविशेषमें समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेष नहीं होते हैं वह स्थिति असामान्य कहलाती है ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि भवबद्धशेष सौर समयप्रवद्धशेषके अनाधाररूपसे अवस्थित उसकी उक्त संज्ञाकी सिद्धि न्यायप्राप्त है। इस प्रकार उक्त सत्रगाथाके पूर्वार्धका आलम्बन लेकर सामान्य और असामान्य संज्ञाओंकी प्ररूपणा करके अब उक्त गाथाके उत्तरार्धका आलम्बन लेकर असामान्य स्थितियां जघन्य और उत्कृष्टरूपसे इतनी होती हैं इस अर्थविशेषका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ____ इस प्रकार असामान्य स्थितियां एक अथवा दोसे लेकर उत्कृष्टसे परस्पर संलग्न होकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। ६४७२. उक्त सूत्रमें इस प्रकार कहनेपर अनन्तर पूर्व निर्दिष्ट स्वरूपवाली असामान्य स्थितियां एक अथवा दो होती हैं। इस प्रकार आगे एक-एकको वृद्धिरूपसे जाकर उत्कृष्टसे परस्पर संलग्न आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होती हैं, उनसे अधिक नहीं होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाके अर्थके कहनेपर एक स्थितिविशेष शेष प्राप्त होता है, दो स्थितिविशेषोंमें भी शेष प्राप्त होता है। इस प्रकार आगे एक-एकके क्रमसे जाकर उत्कृष्टसे एक समय अधिक उदयावलिसे रहित सब स्थितिविशेषोंमें शेष होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-इस क्षपकके एक स्थितिविशेषमें शेष होता है ऐसा कहते हुए आचार्यने, समयप्रबद्धसम्बन्धी शेषसे शून्य असामान्य स्थिति संज्ञावाली शेष समस्त स्थितियां होती हैं, इस बातका ज्ञान कराया है, इस कारण असामान्य स्थितियां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं इस प्रकार संख्याका अवधारण करना घटित नहीं होता, क्योंकि यहाँपर उत्कृष्ट रूपसे वर्षपृथक्त्वप्रमाण असामान्य स्थितियां उपलब्ध होती हैं ? Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए तदियभासगाहा १७७ समुवलंभावो ति? एस दोसो; एगसमयप्रबद्धसेसं पेक्खियूण तत्थ तहा पर विवत्तादो। एत्थ पुण णाणासमयपबद्धपडिबद्धसेसयाणि अस्सियूण उक्कस्सेणावलियाए असंखेज्जविभागसेत्तीओ चेव असामण्णट्टिदीओ होंति त्ति भणिदं तम्हा ण एत्थ को वि दोसावयारो त्ति सिद्धं । ६४७३. संपहि एक्स्सेव असामण्णटिवीणं जहण्णुक्कस्सपमाणणिद्देसस्स फुडोकरण?मुवरिमं पबंधमाह * एक्केक्केण असामण्णाओ थोवाओ । दुगेण विसेसाहियाओ। तिगेण विसेसाहियाओ । आवलियाए असंखेज्जदिमागे दुगुणाओ। $ ४७४. एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे अण्णदरसंजलणपयडीए वासपुधत्तावच्छिण्णद्विदोए रचणं काढूण पुणो एत्थ जेत्तियाओ असामण्णदिदीओ सांतरणिरंतरेणावटिदाओ अस्थि ताओ सव्वाओ बद्धीए प्रध कादण ठवेयवाओ। पूणो एत्थ 'एक्कक्केण असामण्णाओ थोवाओ' एवं भणिवे वासपुधत्तमेत्तट्टिदोसु एक्केक्कसरूवेण जाओ द्विदीओ असामण्णाटिदिसलागाओ ताओ थोवाओ त्ति वुत्तं होई । 'दुगेण विसेसाहियाओं' एवं भणिदे णिरंतरं दो हो होदण जाओ द्विदीओ असामण्णदिदीगो तासि सलागाओ विसंसाहियामो त्ति भणिवं होदि। केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेज्जविभागेण खंडिदेयखंडमेत्तो । एत्थतणगुणहाणिअद्धाणस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो। 'तिगेण विसे' एवं भणिदे तिणि तिण्ण होदूण जाओ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक समयप्रबद्धशेषको देखकर वहांपर उस प्रकार कथन किया है। परन्तु यहाँपर नाना समयप्रबद्धोंसे प्रतिबद्ध शेषोंका आलम्बन लेकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही असामान्य स्थितियां होती हैं यह कहा है, इसलिए यहाँपर किसी प्रकारका दोष नहीं प्राप्त होता है यह सिद्ध हुआ। ६४७३. अब इसी असामान्य स्थितियोंके जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाणके निर्देशको स्पष्ट करने के लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * एक-एकरूपसे असामान्य स्थितियां थोड़ी हैं। दो-चोरूपसे वे विशेष अधिक हैं। तीन-तीनरूपसे वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागपर यह क्रम दूना हो जाता है। ६४७४. इस सूत्रके अर्थके कहनेपर किसी एक संज्वलन प्रकृतिको वर्षपृथक्त्व कालप्रमाण स्थितिकी रचना करके पुनः इनमें जितनी असामान्य स्थितियां सान्तर और निरन्तररूपसे अवस्थित हैं उन सबको बुद्धि द्वारा पृथक्-पृथक् करके स्थापित करे। पुनः इनमें 'एक-एकरूपसे असामान्य स्थितियां थोड़ी हैं ऐसा कहनेपर वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंमें एक-एकरूपसे बो असामान्य स्थितियां स्थित हैं वे थोडी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'दो-दोरूपसे वे विशेष अधिक हैं। ऐसा कहनेपर निरन्तर दो-दो होकर जो असामान्य स्थितियां स्थित हैं उनकी शलाकाएँ विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर जो प्रमाण आता है उतना यहां विशेष अधिकका प्रमाण है, क्योंकि यहाँपर वह गुणहानि अध्वान ( लम्बाई ) आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। २३ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बाओ' असामण्णद्विदीओ तासि गहिदसलागाओ विसेसाहियाओ त्ति वृत्तं होइ । एत्थ वि विसेस - पमाणं पुण्यं व वत्तध्वं । एवमेगादिएगुत्तरवड्डीए ट्ठिदाणमसामण्गद्विदिवियप्पाणं गहिदसलागाओ विसेसाहियाओ होदून गच्छति जाव आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतद्धाणं गंतूण तदित्यवियप्पस्स ठदिसलागाओ दुगुणमेत्तोओ जादाओ ति एदमेगं दुगुणवडिट्ठाणंतरं णाम । एवमेदं दुगुणवड्डिअद्वाणमवद्विदं कारण दुगुण- दुगुणमेत्तविसेसपडिबद्धाओ आवलियाए 'असंखेज्जदिभागमेत्तदुगुण• वड्डीओ दवाओ । तदो तम्मि उद्देसे सयलवियप्पाणमसंखेज्जदि भागभूदे आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमज्झं होदित्ति जाणावणट्ठमिदमाह * आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमन्झं । ४७५. आदीदोप्पहूडि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तगुणहाणिगन्भे आवलियाए असंखेज्जविभागे गवे तदो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणमसामण्णद्विदीर्ण ठविदसलागाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तोओ घेतूण जवमज्झमेत्थ जादमिदि वृत्तं होइ । एत्तो उवरि जेणेव कमेण वडिदाओ तेणेव कमेण होयमाणाओ गच्छंत जाव जवमज्झादो उवरिमसंखेज्जाओ गुणहाणीओ गंतूण पढमवियप्पसलागाह समाणाम होदूण पुणो वि हीयमाणाओ तत्तो असंखेज्जाओ गुणहाणीओ गंतॄण चरिमवियप्पसलागपमाणं पत्ताओ त्ति चरिमवियप्पसलागाओ वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ चेव होहूण सव्वत्थोवाओ ददृव्वाओ । एत्थासेसा से सदिगंतर परिसुद्धी 'तीन-तीन करके असामान्य स्थितियां विशेष अधिक हैं' ऐसा कहनेपर तीन-तीन होकर जो असामान्य स्थितियाँ अवस्थित हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएं विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है | यहाँपर भी विशेषका प्रमाण पहले के समान कहना चाहिए। इस प्रकार एकसे लेकर आगे एक-एककी वृद्धि द्वारा स्थित असामान्य स्थितियोंके भेदोंकी ग्रहण की गयी शलाकाएँ विशेष अधिक होकर तब तक जाती हैं जब जाकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वहाँ स्थित भेदको प्राप्त शलाकाएं दूनी हो जाती हैं। इस प्रकार यह एक द्विगुणवृद्धि स्थानान्तर है । इस प्रकार इस द्विगुणवृद्धिअध्वानको अवस्थित करके द्विगुण - द्विगुणप्रमाण विशेषोंसे सम्बद्ध आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां ले जानी चाहिए। अतः उस स्थानपर समस्त भेदोंके असंख्यातवें भागरूप आवलिके असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए इस सूत्र को कहते हैं * आवलिके असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है । ४५. आदिसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानिके अन्तर्गत आवलिके असंख्यातवें भागके जानेपर वहाँसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण असामान्य स्थितियों की आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थापित शलाकाओंको ग्रहण कर यहां यवमध्य हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे आगे जिस क्रमसे वृद्धि हुई है उसी क्रमसे इससे आगे जिस क्रमसे वे स्थितियाँ बढ़ी हैं उसी क्रमसे वे होयमान होकर तब तक जाती हैं जब जाकर यवमध्यसे ऊपर असंख्यात गुणहानियाँ जाकर प्रथम भेदकी शलाकाओं के समान होकर फिर भी होयमान होती हुईं वहीं असंख्यात गुणहानियाँ जाकर अन्तिम भेदसम्बन्धी शलाकाओंके प्रमाणको प्राप्त होती हैं । इस प्रकार अन्तिम भेदसम्बन्धी शलाकाएँ भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होकर सबसे १. आ. प्रतो द्विदीओ इति पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ खवगसेढीए अट्टमूलगाहाए तदियभासगाहा सुत्ताविरोहेण चितिय वत्तव्वा। ६४७६. अथवा 'एक्केक्केण असामण्णाओ योवाओ' एवं भणिदे एकेकेण सामण्णेण अंतरिदाणमसामण्णदिदीणं वियप्पसलागाओ थोवाओ त्ति भणिदं होइ। दोसु वि पासेसु एगेगसामण्णट्टिदी होदण पुणो मज्झे एक्का वा, वो वा, बहुआ वा सामण्णद्विदीओ होदण जाओ लन्भंति तासि सलागाओ संपिडिय गहिदाओ थोवाओ त्ति भावत्यो। ६४७७ 'दुगेण विसेसाहिया' एवं भणिदे दोहिं दोहिं सामण्णाहिं अंतरिदाओ असामण्णद्विदीओ केत्तियमेतीओ वि होदूण लब्भमाणाओ अत्थि, तासिं सलागाओ सम्वत्थ संपिडियूण गहिदाओ विसेसाहियाओ त्ति घेतव्वाओ। एस्थ विसेसपमाणमावलियाए असंखेन्जदिभागपडिभागमिदि घेत्तव्वं । 'तिगेण विसेसाहिया' एवं भणिवे तीहि तोहि सापण्णाहिं अंतरिदाओ असामण्णट्ठीदोओ संपिडिय गहिदवियप्पसलागाओ विसेसाहियाओ ति भणिदं होदि। एत्थ वि विसेसपमाणं पुध्वं व वत्तव्वं । एबमेदीए परूवणाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतद्वाणं गंतूण दुगुणवड्डी होइ। एवंविहाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ दुगुणवड्डोओ गंतूण तदित्थवियप्पसलागासु जवमज्झं होदि । तदो विसेसहीणकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणं गंतूण दुगुणहाणी होदि। एवं दुगुणहाणीओ होदूण गच्छंति जाव चरिमवियप्पो ति। ६४७८. संपहि एदेणेव देसामासयसुत्तेण सामणदिदीणं पि जवमझपरूवणा सूचिदा। थोड़ी जाननी चाहिए। यहाँपर पूरी अशेष उपदेशान्तरको शुद्धि सूत्रके अविरोधपूर्वक विचारकर कहनी चाहिए। ६४७६. अथवा 'एक-एक रूपसे असामान्य स्थितियां थोड़ी हैं' ऐसा कहनेपर एक-एक सामान्य स्थितिसे अन्तरित असामान्य स्थितियोंके भेदोंको शलाकाएं थोड़ी हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। दोनों ही पार्श्व भागों में एक-एक सामान्य स्थिति होकर पुनः मध्य में एक अथवा दो अथवा बहुत सामान्य स्थितियां होकर जो प्राप्त होती हैं उनको शलाकाएं मिलाकर ग्रहण करनेपर वे थोड़ी होती हैं यह इसका भावार्थ है। ६४८७. 'दुगेण विसेसाहिया' ऐसा कहने पर दो-दो सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियां कितनी भी होकर प्राप्त होती हैं, उनको शलाकाएं पूरी मिलाकर ग्रहण करनेपर विशेष अधिक होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँपर विशेष का प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागके प्रतिभागरूप 'ऐमा ग्रहण करना चाहिए। 'तिगेण विसे साहिया' ऐसा कहनेपर तीन-तीन सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियोंको मिलाकर ग्रहण की गयो भेदोंकी शलाकाएँ विशेष अधिक होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर भी विशेषका प्रमाण पहलेके समान कहना चाहिए। इस प्रकार इस प्ररूपणाके अनुसार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर द्विगुणवृद्धि होती है। इस प्रकारकी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां जाकर स्थित भेदोंकी शलाकाओंपर यवमध्य होता है। तत्पश्चात् विशेष हीनक्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर द्विगुणहानि प्राप्त होती है। इस प्रकार अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक द्विगुणहानियां होकर जाती हैं। ६४७८. अब इसी देशामर्षक सूत्रके द्वारा सामान्य स्थितियोंकी भी यवमध्य प्ररूपणा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० बयधवलासहिदे कसायपाहुडे तस्स परूवणमिदाणि कस्सामी । तं जहा - 'एक्के क्केण सामण्गाओ थोवाओ' एवं भणिवे अट्ठवस्समेत्तखवगपाओगट्टिवीणं मज्झे दोसु वि पासेसु असामण्ण द्विवीहि अंतरिवाओ मज्झे एक्केककाओ होदूणच्छिवसामण्णद्विदीओ णिवदिय गहिदाओ । आवलियाए असंखेज्जदि भागमेतीओ होवूण थोवाओ त्ति गयग्वाओ । 'दुगेण विसेसाहियाओ' एवं भणिदे वो द्दो सामण्णद्विदीओ होवूण पुणो केत्तियाहि मि असामण्ण द्विदीहिं बोसु वि पासेसु णिरुद्ध ओ वासपुषत्तमेतद्विदीसु सव्वत्थ विदिय गहिदाओ विसेसाहियाओ भण्णंति । के त्तियमेत्तो विसेसो ? हेट्ठिम वियप्पसलागाणमसंखेज्जदिभागमेत्तो । तस्स पडिभागो आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एवं 'तिगेण विसेसाहियाओ' इच्चादिकमेण गंतूण आवलियाए असंखेज्जविभागे दुगुणबड्डिदाओ । एवं दुगुणवडिदाओ दुगुगवडिदाओ जाव जवमज्झं आवलियाए असंखेज्जदिभागे च जवमज्झमेदं ददृध्वं । तत्तो परमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणमुवरि विसेसहाणीए गंतूण दुगुणहीणाओ । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव चरिमवियप्पो त्ति । ६ ४७९. अथवा 'एक्केक्केण असामग्णेण अंतरिवाओ सामण्णाओ थोवाओ' एवं भणिदे एक्वकासामण्गविह दोसु वि पासेसु अंतरिदाओ सामण्णद्विदीओ मज्झे केत्तियाओ वि होवूण लब्भंति । तासि गहिबसलागाओ आवलियाए असंखेज्जदि भागमेत्तीओ होवूण थोवाओ भवंति । 'दुगेण अंतरिदाओ विसेसाहियाओ' एत्थ वि पुव्वं व वत्तव्वं । एवं जाव आवलियाए सूचित की गयी है । अत: उसकी प्ररूपणा इस समय करेंगे। वह जैसे – 'एक्केक्केण सामण्णाओ थोवाओ' ऐसा कहने पर आठ वर्षप्रमाण क्षपकप्रायोग्य स्थितियोंके मध्य में दोनों ही पाश्वोंमें असामान्य स्थितियोंके द्वारा अन्तरित बीच में एक-एक होकर स्थित सामान्य स्थितियां प्राप्त हुई ग्रहण की गयी हैं । वे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर सबसे थोड़ी होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए । 'दुगेण विसेसाहियाओ' ऐसा कहनेपर दो-दो सामान्य स्थितियां होकर पुनः कितनी ही असामान्य स्थितियों द्वारा दोनों ही पाश्वमें निरुद्ध होकर वर्षपृथक्त्वमात्र स्थितियों में सर्वत्र प्राप्त हुई ग्रहण की गयी विशेष अधिक कही जाती हैं । शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान - अधस्तन भेदसम्बन्धी शलाकाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण है । और उसका प्रतिभाग आणि असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार तीन-तीन रूपसे सामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । इत्यादि क्रमसे जाकर आवलिके असंख्यातवें भाग में द्विगुणवृद्धियां होती हैं। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक द्विगुणवृद्धियाँ द्विगुणवृद्धियाँ होती हैं। वह यवमध्य आवलिके असंख्यातवें भाग में जानना चाहिए। उससे आगे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण तक आगे विशेष होनरूपसे द्विगुणहानियाँ होती हैं । इस प्रकार अन्तिम विकल्प के प्राप्त होने तक द्विगुणहानियां द्विगुणहानियाँ होती हैं। $ ४७९. अथवा 'एक्क्केण असामण्णेण अन्तरिदाओ सामण्णाओ थोवाओ' ऐसा कहनेपर एक-एक असामान्य स्थितियोंसे दोनों ही पार्श्व भागों में अन्तरित सामान्य स्थितियां मध्य में कितनी हो होकर प्राप्त होती हैं। उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर सबसे थोड़ी होती हैं। 'दुगेण अंतरिदाओ विसेसाहियाओ' अर्थात् दो-दो असामान्य स्थितियोंसे दोनों ही पार्श्वभागों में अन्तरित होकर सामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक होती हैं । इस प्रकार यहाँपर भी पहले के समान कथन करना चाहिए। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अट्ठममूलगाहाए तदियमासगाहा १८१ असंखेज्जविभागणंतरिदायो दुगुणाओ ति । तदो आवलियाए असंखेज्जविभागे जवमझं । ६४८०. जवमज्मस्सुवरि आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तद्धाणं गंतूण बुगुणहाणी होदि । एवं वव्वं जाव चरिमवियप्पो त्ति। जवमझस्सुवरिमअद्धाणपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तमिह गहेयन्वं । कि कारणं ? असामण्णाटिदीओ सव्वुक्कस्साओ विणिरंतरमावलियाए असंखेज्जविभागमेती चेव होति त्ति भणिवत्तावो। एवमेदं परूविय संपहि जम्हि समयपबद्धसेसयमस्थि सा ट्रिवी सामण्णा त्ति एदेणेव संबंधेण सामणदिदिविसयाणं समयपबद्धसेसागमेगादिएगुत्तरटिदिविसेसेसु पडिबद्धाणमटाणक्कमजाणावण8 विहासागंथमुत्तरमाढवेइ - * समयपबद्धस्स एक्केक्कस्स सेसगमेक्किस्से विदोए ते समयपबद्धा थोवा । ६४८१. एक्स्सत्थो-जस्स वा तस्स वा एक्कस्त समयपबद्धस्स सेसगं सेसासेसगट्रिवि. परिहारेणेक्किस्से चेव अण्णदरदिदीए पडिबद्धमत्थि तस्सेगा सलागा घेत्तव्वा । पुणो अण्णस्स वि एक्कस्स समयपबद्धस्स सेसगमण्णदरम्मि एगट्टिदिविसेसे पडिबद्धमत्थि, तस्स विदिया सलागा घेत्तन्वा । एवमेगेगटिदिपडिबद्धसेससंबंधिणो जेत्तिया समयपबद्धा लभंति तेसि सम्वेसि पावेक्कमेक्केक्का सलागा घेतबा। एवं गहिदसलागाओ सम्वत्थोवाओ होंति, उवरिमवियप्पपडिबद्धसमयपबद्धस लागाणतो बहुत्तसणादो ति। * जे दोसु द्विदोसु ते समयपवद्धा विसेसाहिया । मागप्रमाण अन्तरित द्विगुणवृद्धियां होती हैं। इसलिए वहां आवलिके असंख्यातवें भागमें यवमध्य होता है। ६४८०. तत्पश्चात् यवमध्यके ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर द्विगुणहानि होती है। इस प्रकार अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। यहाँ यवमध्यके आगेके स्थानका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि असामान्य स्थितियां सबसे उत्कृष्ट भी निरन्तर बावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं ऐसा कहा गया है। यहां इस प्रकारका कथन करके अब जिस स्थितिमें समयप्रबद्धशेष है वह सामान्य स्थिति है। इस प्रकार एकसे लेकर आगे एक-एक अधिकके क्रमसे स्थितिविशेषोंमें प्रतिबद्ध सामान्य स्थितिविषयक समयप्रबद्धशेषोंके अवस्थानके क्रमका ज्ञान करानेके लिए भागेके विभाषा ग्रन्थको प्रारम्भ करते हैं * एक-एक समयप्रबडके शेष एक-एक स्थितिमें होकर वे समयप्रबद्ध सबसे थोड़े हैं। ६४८१. इसका अर्थ-जिस किसी एक समयप्रबद्धका शेष शेष समस्त स्थितियोंको छोड़कर एक ही अन्यतर स्थितिमें प्रतिबद्ध है। उसकी एक शलाका ग्रहण करनी चाहिए। पुनः अन्य भी एक समयप्रबद्धका शेष अन्यतर एक स्थितिविशेषमें प्रतिबद्ध है। उसको दूसरी शलाका ग्रहण करनी चाहिए। इस प्रकार एक-एक स्थितिविशेषमें प्रतिबद्ध शेषसम्बन्धी जितने समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं उन सबमें से प्रत्येककी एक-एक शलाका ग्रहण करनी चाहिए। इस प्रकार ग्रहण की गयो शलाकाएं सबसे थोड़ी होती हैं, क्योंकि उपरिम विकल्पोंसे प्रतिबद्ध समयप्रबदोंको शलाकाएं इनसे बहुत देखी जाती हैं। ओ समयप्रबड प्रत्येक बो-दो स्थितियों में प्रतिबद्ध हैं वे समयप्रबद्ध विशेष अधिक हैं। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६४८२. दोसु दिदिविसेसेस सेसभावेण दिदा जे समयपबद्धा तेसिं गहिदसलागाओ पुग्विल्ल. सलागाहितो विसेसाहियाओ होति त्ति वुत्तं होदि । विसेसपमाणमेत्थ हेद्विमसमयपबद्धसलागाणमावलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागियमिदि घेतव्वं; एस्थतणणिसेगभागहारस्स गुणहाणि अद्धाणमेत्तस्स तप्पमाणत्तादो। * आवलियाए असंखेज्जदिमागे दुगुणा । $ ४८३. जे तिस दिदिविसेसेसु सेसभावेण द्विदा समयपबद्धा ते विसेसाहिया इच्चादिकोण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतद्धाणमुवरि गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतहिदिविसेसेसु सेसभावेणावहिदा जे समयपबद्धा तेसि गहिदसलागाओ पढमवियप्पसलागाहिती दुगुणमेंतीओ होति त्ति वुत्तं होइ। ४८४. एतो उवरि पुणो वि विसेसाहियवड्डीए णेदव्वं जाव पुग्विल्लदुगुणवडिअद्धाणेण सरिसमद्धाणमुवरि गंतूण विदिया दुगुणवड्डी समुप्पण्णा ति । एवमेदेण कमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ दुगुणवडीओ गंतूण तदित्यदुगुणवड्डीए चरिमवियप्पे जवमझं समुप्पज्जदि त्ति इममत्थविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ ६४८२. दो स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे स्थित जो समयप्रबद्ध हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएं विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहां विशेषका प्रमाण अधस्तन समयप्रबद्धोंकी शलाकाओंका आवलिके असंख्यातवें भागके प्रतिभागस्वरूप है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् अधस्तन समयप्रबद्धोंकी शलाकाओंमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतनी शलाकाएं यहां अधस्तन शलाकाओंसे विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका भाव है, क्योंकि यहांका निषेकभागहार गुणहानिस्थानोंका जितना प्रमाण है तत्प्रमाण है। * इस प्रकार क्रमसे जाते हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें शेष. रूपसे जो समयप्रबद्ध प्रतिबद्ध हैं उनको शलाकाएं दूनी हैं। ६४८३. तीन स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे स्थित जो समयप्रबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं इत्यादि क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जाकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे स्थित जो समयप्रबद्ध हैं उनमें से प्रत्येककी ग्रहण की गयी शलाकाएं प्रथम विकल्पको शलाकाओंसे दूनी होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-एक-एक स्थितिविशेषमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जितने समयप्रबद्ध हैं वे सबसे थोड़े हैं। दो-दो स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जितने समयप्रबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं। तीन-तीन स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जितने समयबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार क्रमसे जाते हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जो समयप्रबद्ध हैं वे प्रथम विकल्पको अपेक्षा दूने हैं। यह एक द्विगुगवृद्धिस्यान है। 5४८४. इससे आगे फिर भी जब जाकर पहलेके द्विगुणवृद्धिस्थानके सदृश स्थान ऊपर जाकर दूसरी द्विगुणवृद्धि उत्पन्न होती है वहाँ तक विशेष अधिकके क्रमसे वृद्धिको ले जाना चाहिए। इस प्रकार इस आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां हो जानेपर वहाँके द्विगुणवृद्धिके अन्तिम भेदमें यवमध्य उत्पन्न होता है इस अर्थविशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए तदियभासगाहा १८३ * आवलियाए असंखेन्जदिमागे जवमझं । ६४८५. आदीदोप्पहुडि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणं तप्पाओग्गासंखेज्जदुगुणवडि. गन्भं तूण तदिवियप्पपडिबद्धाणं समयपबद्धाणं ठविदसलागाओ जवमझसरूवेण वटुवाओ ति भणिदं होइ। आदीदोप्पहुडि कमवड्डोए जाव एहरं ताव आगंतूण एतो परं विसेसहोणसरूवेण उरिमवियप्पसलागाणं गमणदंसणादो जवमझमेदं जादमिदि एसो एत्थ भावत्थो। संपहि एदस्सेव फुडोकरणट्ठमुवरिमं सत्तमोइण्णं * तदो हायमाणढाणाणि वासपुधत्तं । ६४८६. एत्तो परमुवरिमवियप्पेसु समयपबद्धसलागाओ जहाकम हीयमाणाओ गच्छंति जाव असंखेज्जगुणहाणिगभं वासपुषत्तमेतद्धाणं जवमझादो उवरि गंतूण चरिमवियप्पो समुप्पण्णो ति । तत्थ चरिमवियप्पे वासपुधत्तमेतद्विदोस सेसभावेण द्विदसमयपबद्धा सुट्ट थोवा होदूण पयदजवमज्झपरूवणाए पज्जवसाणं होति ति एसो एत्थ सुत्तत्थसम्भावो। एत्थ जवमज्झादो उवरिमद्वाणं वासबुधत्तमें तमेवेत्ति कुदो णबदे ? ण, विदियट्रिदिपमाणस्स वास धत्तादो अहिययरस्साणुवलंभादो। एवं भवबद्धसेसयाणं पि एसा जवमझपरूवणा णिरवयवमणुगंतव्य विससाभावादो। एत्थ सव्वत्थ भवसेसयं समयपबद्धसेसयमिदि च वुत्ते एक्केक्कस्स समय * आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धिस्थानोंके अन्तिम भेदमें यवमध्य प्राप्त होता है। ६४८५. प्रारम्भसे लेकर तत्प्रायोग्य द्विगुणवृद्धिस्थान गर्भ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वहाँ सम्बन्धी विकल्पोंसे प्रतिबद्ध समयप्रबद्धोंको स्थापित हुई शलाकाएं यवमध्य. स्वरूप होतो हैं ऐसा जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि प्रारम्भसे लेकर क्रमवृद्धि द्वारा इतने दूर आकर इससे आगे विशेष होनरूपसे उपरिम भेदोंकी शलाकाएं प्राप्त होतो हुई देखो जानेसे यहाँ यवमध्य हो जाता है यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब इसो अर्थको स्पष्ट करने के लिए आगेका सूत्र आया है * उससे आगे होयमान स्थान वर्षपृथक्त्वप्रमाण हैं । ६४८६. इससे आगे-आगेके भेदोंमें समयप्रबद्ध शलाकाएं क्रमसे होयमान होकर तबतक जाती हैं जब जाकर यवमध्यसे ऊपर असंख्यात गुणहानिगर्भ वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थान जाकर अन्तिम विकल्प उत्पन्न हुआ है। वहां अन्तिम भेदमें वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंमें शेषरूपसे अवस्थित समयप्रबद्ध सबसे थोड़े होकर प्रकृत यवमध्यप्ररूपणाका अन्त होता है यह यहां इस सूत्रके साथ अर्थका सद्भावसूचक सम्बन्ध है। शंका-यहां यवमध्यसे उपरिम स्थान वर्षपृथक्त्वप्रमाण हो है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृतमें द्वितीय स्थितिका प्रमाण वर्षपृथक्त्वसे अधिक नहीं पाया जाता। इस प्रकार भवबढशेषोंकी यह यवमध्यप्ररूपणा भी पूरी तरहसे इसी प्रकार जाननी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें अन्य कोई विशेषता नहीं है। यहाँपर सर्वत्र भवबशेष और समयप्रबद्धशेष Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जयधवळासहिदे कसायपाहुडे पबद्धस्स भवबद्धस्स वा वेदिदसेसगा कम्मपवेसा से काले णिरवसेस मोकडुणाए उदयमागच्छंति ति पुव्विल्लसमये चेव अप्पप्पणो पडिबद्ध उवरिमट्ठिदिविसेसेसु वट्टमाणा घेत्तव्वा । एवमेतिएण पबंधेण तदियभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए चउत्य भास गाहाए विहासणं कुणमाणो उवरिम सुत्तपबंधमाढवेइ * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ६ ४८७. सुगमं । (१५०) देण अंतरेण दु अपच्छिमाए दु पच्छिमे समए । भवसमय से सगाणि दुज़ियमा तम्हि उत्तरपदाणि ॥ २०३ ॥ ४८८. तदियभासगाहाए जहा उत्थाणत्थपरूवणा कदा तहा चेव एदिस्से चउत्थभासगाहाए कायन्त्रा; विसेसाभावाढो । णवरि तदिय भासगाहा सामण्णद्विदीणमंतरभूदाओ असामण्णद्विदीओ पहाणभावेण परूवे । एसा वुण असामण्णद्विदीहि अंतरिवाणं सामण्णद्विदीनं पहाणभावेण परूवणं कुर्णादित्ति एसो विसेसो जाणियव्वो । ६४८९. संपहि एविस्से चउत्थभासगाहाए अवयवत्यपरूवणं कस्सामो । तं जहा - 'एवेण अंतरेण दु' एदेणाणंतरपरूविदेण आवलियाए असंखेज्ज विभागमे तुक्कस्संतरेण 'अपच्छिमाए दु' पुग्वृत्तावलिया संखेज्ज विभागमेत्तुक्कस्संतरस्स जा अपच्छिमा चरिमा असामण्णद्विवी तिस्से ऐसा कहने पर एक-एक समय प्रबद्ध के और एक-एक भवबद्धके वेदे जाने के बाद जो शेष कर्मप्रदेश रहे वे अनन्तर समय में पूरे के पूरे अपकर्षण द्वारा उदयको प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए उदयसे पहले के समय में अपने-अपने सम्बन्धी उपरिम स्थितिविशेषों में विद्यमान ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा तीसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषाको समाप्त कर अब यथावसर प्राप्त चौथो भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । ६ ४८७. यह सूत्र सुगम है । (१५०) इस अनन्तर कहे गये आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरसे युक्त अन्तमें जो असामान्य स्थिति प्राप्त होती है उससे अनन्तर उपरिम स्थितिमें भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष नियमसे उस क्षपकके उत्तरपदरूप होते हैं ॥२०३॥ $ ४८८. तीसरी भाष्यगाथा के जिस प्रकार उत्थानरूप अर्थ की प्ररूपणा की है उसी प्रकार इस चौथी भाष्यगाथाके अर्थ की प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उसको प्ररूपणा से इसकी प्ररूपणा में कोई विशेषता नहीं है । इतनी विशेषता है कि तीसरी भाष्यगाथा सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियों की प्रधानरूपसे प्ररूपणा करती है । परन्तु यह गाथा असामान्य स्थितियोंसे अन्तरित सामान्य स्थितियोंकी प्रधानरूपसे प्ररूपणा करती है यह विशेष इन दोनों में जानना चाहिए । ६ ४८९. अब इस चौथी भाष्यगाथाको प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे – 'एवेण अंतरेण दु' इस अनन्तर कहे गये आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरसे 'अपच्छिमाए दु' अर्थात् पूर्वोक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकी जो 'अपश्चिम' अर्थात् अन्तिम असामान्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए चउत्थमासगाहा पच्छिमे समए तवणंतरोवरिमदिदीए 'भवसमयसेसाणि समयपबद्धसेसयाणि च णियमा' णिच्छये. व 'तम्हि' तम्हि खवगे 'तम्हि वा अटुवस्समेत्तट्ठिदिसंतकम्मन्भंतरे 'उत्तरपदाणि' एगादिएगुत्तरकमेण परिवड्डिवाणि एगादिएगुत्तरटिदिविसेसेसु वा लद्धावट्ठाणाणि दट्टव्वाणि त्ति सुत्तत्थसंबंधो। ६४९० संपहि एक्स्स समुदायत्थे भण्णमाणे सामण्णठिवीणमंतरमसामण्णद्विदीओ भवंति । ताओ च जहणेण एक्को वा दो वा तिणि वा एवं गंतूण जावुक्कस्सेगावलियाए असंखेज्जदि. भागमेतीओ णिरंतरमुवलब्भंति ति पुवसुत्ते भणिदं। पुणो तासिमसामण्ण दिदीगं चरिमट्टिदोदो जा उवरिमाणंतरट्टिदो तम्मि समयपबद्धसेसयाणि भवबद्धसेसयाणि च णियमा होति । होताणि वि एगादिएगुत्तरपरिवड्डीए जाव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेताणं समयपबद्धाणं भवबद्धाणं च सेसयाणि तम्मि टिदिविसेसे होदूण लब्भंति । ताणि च ण केवलमेक्कम्मि चेव टिदिविसेसे चिटुंति; किंतु एगादिएगुत्तरपरिवड्डिदेसु टिदिविसेसेसु उक्कस्सेण वासपुधत्ताव. च्छिण्णपमाणेसु णिरंतरमवचिटुंति त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थपरमत्यो । ६४९१. संपहि एक्स्सेव फुडीकरणटुमवरिमं विहासागंथमाढवेइ* विहासा। स्थिति है उसके 'पच्छिमे समए' अनन्तर उपरिम स्थितिमें 'भव-समयसेसाणि दु' भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष "णियमा तम्हि' नियमसे उस क्षपकके या 'तम्हि' आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मके भीतर 'उत्तरदाणि' एकसे लेकर आगे एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए स्थान जानने चाहिए या एकसे लेकर आगे एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए स्थितिविशेषोंमें उत्तरपद जानने चाहिए। ४९०. अब इसके समुच्चयरूप अर्थके कहनेपर सामान्य स्थितियोंके अन्तरस्वरूप असामान्य स्थितियां होती हैं। और वे जघन्यसे एक अथवा दो अथवा तीन होती हैं। इस प्रकार एक-एक बढ़ाते हुए वे उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तररहित उपलब्ध होतो हैं यह पूर्व सूत्र में कह आये हैं। पुनः उन असामान्य स्थितियों-सम्बन्धी अन्तिम स्थितिसे उपरिम जो अनन्तर स्थिति है उसमें समयप्रबद्धशेष नियमसे होते हैं । होते हुए भी एकसे लेकर आगे एक-एकको वृद्धिसे युक्त वे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धों और भवबद्धोंके शेष उस स्थितिविशेषमें होकर प्राप्त होते हैं । और वे केवल एक ही स्थितिविशेषमें नहीं पाये जाते, किन्तु एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थितिविशेषोंमें निरन्तररूपसे अवस्थित रहते हैं इस प्रकार यह यहां इस सूत्रका परमार्थस्वरूप अर्थ है। विशेषार्थ-आशय यह है कि असामान्य स्थितियोंके बीच-बीचमें सामान्य स्थितियां होती हैं। कहीं एक असामान्य स्थितिके अनन्तर एकादि सामान्य स्थितियां होती हैं । कहीं दो असामान्य स्थितियोंके अनन्तर एकादि सामान्य स्थितियां पायी जाती हैं। यहां एकादि सामान्य स्थितियोंके अन्तरस्वरूप स्थित असामान्य स्थितियां एकसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भाग तक हो सकती हैं और इसी प्रकार एकादि असामान्य स्थितियोंके बाद सामान्य स्थितियां भी उतनी हो हो सकती हैं। 5 ४९१. अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए लागेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं* अब इस भाष्यगाथाडी विभाषा करते हैं। २४ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ यधवलासहिदे कसायपाहुडे § ४९२. सुगमं । * समयपत्रद्धसेस जिस्से द्विदीए णत्थि वदो विदियाए हिदीए ण होज्ज, तदियाए ठिदीए ण होज्ज, तदो चउत्थीए ण होज्ज । एवमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीस द्विदीसु ण होज्ज समयपबद्ध से सयं । ४९३. गाढवेयश्वमिदं सुत्तं, पुव्वसुत्तेणेव णिण्णोदत्य विसेसस्स पुणो परूवणाए फलविसावलंभादो त्तिणासंकियव्यं पुष्वुत्तमेवत्थस्स विमेसमणुसंभालिय पुणो एत्तो उवरि सामणद्विदीओ एदेण कमेण लब्भंति त्ति जाणावणटुं तप्परूवणे कीरमाणे दोसाणुवलंभादो । एवमेदं संभालिय पुणो एत्तियमेत्तमंतरमुल्लंघिय तत्तो परं नियमा समयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ द्विदीओ होंति त्ति जाणावणमिदमाह - * आवलियाए असंखेज्जदिभागं गंतूण णियमा समयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ द्विदीओ | ६ ४९४. अंतरच रिमद्विविमुल्लंघिय तत्तो परं समयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ द्विदीओ गादिमुत्तरकमेण लब्भमाणाओ उक्कस्सेण वासवृधत्तमेत्तीओ होंति ति एसो एत्थ सुत्तत्य संगहो । संपहिएदासि चेव एगाणेगसमयपबद्धसेसएहि अविरहिदाणं ठिदीणं थोवबहुत गवेसणट्ठमुत्तरसुत्तायारो $ ४९२. यह सूत्र सुगम है । जिस स्थिति में समयबद्धशेष नहीं है, उससे आगे दूसरी स्थितिमें वह न होवे, तीसरी स्थिति में न होवे, उससे आगे चौथो स्थितिमें न होवें, इस प्रकार क्रमसे जाते हुए वह समयप्रबद्धशेष उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें नहीं होवें यह सम्भव है । ६ ४९३. शंका - यह सूत्र आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि पूर्व सूत्रके द्वारा ही इस सूत्र के अर्थविशेषका निर्णय किया जा चुका है, अतः इसकी पुनः प्ररूपणा करने में फलविशेष नहीं उपलब्ध होता ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पहले कहे गये अर्थ की विशेष सम्हाल करके पुनः इससे अागे सामान्य स्थितियां इस क्रमसे पायी जाती हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए उसकी प्ररूपणा करने में कोई दोष नहीं पाया जाता । इस प्रकार इस अर्थकी सम्हाल करके पुनः इतने मात्र अन्तरका उल्लंघन करके उससे आगे नियमसे समयबद्धशेष से युक्त स्थितियां होती हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * किन्तु उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियाँ जानेपर समयप्रबद्धशेषसे युक्त स्थितियां नियमसे होती हैं। § ४९४. अन्तरकी अन्तिम स्थितियोंका उल्लंघन कर उससे आगे समयप्रबद्धशेषसे युक्त एकसे लेकर आगे एक-एकके क्रमसे बढ़कर प्राप्त होती हुई वे स्थितियां उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व प्रमाण तक होती हैं इस प्रकार यह यहाँ पर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । अब इन्हीं समयप्रबद्धोंसे युक्त स्थितियोंके अलाबहुत्रका अनुसन्धान करनेके लिए आगेके करते हैं एक और अनेक सूत्रका अवतार Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्टममूलगाहाए चउत्थभासगाहा १८७ * जाओ ताओ अविरहिदविदीओ ताओ एगसमयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ थोवाओ । अणेगाणं समयपवद्धाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जगुणाओ । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं सेसएण अविरहिदायी असंखेजा भागा। ६४९५. एदस्स सुत्तस्स अत्यो वुच्चदे। तं जहा-'जाओ ताओ अविरहिदट्टिदोओ' एवं भणिदे जाओ अणंतरमेव णिहिट्ठाओ समयपबद्धसेसएणाविरहिदाओ सामणद्विदीओ तासिमेसा थोवबहुत्तपरिक्खा अहिकीरदि त्ति वुत्तं होइ । ताओ एगसमयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ थोवाओ एवं भणि वासवृधत्तमत्तट्रिदोस जाओ एगसमयपबद्धसेसएणाविरहिदाओ दिदीओ आवलिर असंखेज्जदिभागपमाणादो होदूण उवरिमवियप्पपडिबद्धटिदिविसेसेहितो थोवाओ त्ति भणिदं होइ। 'अणेयाणं समयपबद्धाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जगुणाओ' एवं भणिदे दो-तिणिआदि जाव संखेज्जाणमसंखेज्जाणं वा समयपबद्धाणं सेसयेणाविरहिदविदीओ हेट्ठिमरासि पेक्खियणासंरोजगुणाओ त्ति णिद्दिष्टुं होइ। ण च तत्तो एदासिमसंखेज्जगुणत्तमसिद्ध; एपवियप्पपडिबद्धट्रिदिविसेसहितो अणेयवियप्पपडिबद्धाणमेदासिमसंखेज्जगुणत्तसिद्धीए णिव्वाहमुबलं भादो। को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। 'पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं असंखेज्जाभागा' एवं भणिदे पालिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं सेसएहिं अविरहिदाओ द्विदीओ वासपुधत्तमेत्तीणं सयलसामण्णट्ठिदीणमसंखेज्जदिभागमेत्ता होति । सेसासेसहेट्रिमवियप्पपडिबद्धसामण्णदिदीओ पुण आवलियाए असंखेज्जदिभागपमाणं होण सयलसामण्ण * जो समयप्रबद्धशेषसे संयुक्त स्थितियों कह आये हैं वे एक समयप्रबद्धशेषसे संयुक्त स्थितियां सबसे थोड़ी हैं। उनसे अनेक समयप्रबद्धशेषसे संयुक्त स्थितियों असंख्यातगुणी हैं। उनमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धशेषसे संयुक्त स्थितियाँ असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। 5 ४९५. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-'जालो ताओ अविरहिददिदोओ' ऐसा कहनेपर जो अनन्तर पूर्व ही समयप्रबद्धशेषसे संयुक सामान्य स्थितियां कह आये हैं उनके यह अल्पबहुत्वकी परीक्षा प्रकृतमें अधिकृत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'वे एक समयप्रबन. शेषसे संयुक्त स्थितियां थोड़ी हैं' ऐसा कहनेपर वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंमें जो एक समयप्रबनशेषसे संयक्त स्थितियां हैं वे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर आगेके विकल्पसे प्रतिबद्ध स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा स्तोक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनसे 'अनेक समयप्रबद्धशेषसे संयुक्त स्थितियां असंख्यातगुणो हैं' ऐसा कहनेपर दो, तीन आदि स्थितियोंसे लेकर क्रमसे संख्यात या असंख्यात समयप्रबद्धोंके शेषसे युक्त स्थितियां अधस्तन राशिको देखते हुए असंख्यातगुणी हैं ऐसा इस सूत्रमें निर्देश किया गया है। पहलेको स्थितियोंसे इनका असंख्यातगुणापना असिद्ध नहीं है, क्योंकि एक विकल्पसे सम्बद्ध स्थितिविशेषों की अपेक्षा अनेक विकल्पोंसे सम्बद्ध इनके असंख्यातगुणपनेको सिद्धि निर्बाधरूपसे उपलब्ध होती है। शंका-यहाँपर गुणकार क्या है ? समाधान-यहाँपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। 'पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं. असंखेज्जाभागा' ऐसा कहनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके शेषोंसे संयुक्त स्थितियां वर्षपृथक्त्वमात्र समस्त सामान्य स्थितियोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण होती हैं। परन्तु शेष समस्त अधस्तन विकल्पोंसे प्रतिबद्ध Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ षयधवलासहिंदे कसायपाहुडे द्विवीणमसंखेज्जविभागमेत्तोओ होंति त्ति भणिवं होइ। संपहि एत्य एगसमयपबद्धसेसएण अविरहिवट्रिदोहितो दोण्हं समयपबद्धाणं सेसहि अविरहिवाओ टिबीओ विसेसाहियाओ भवंति। एवं तिण्णि-चत्तारि-आविसमयपबद्धाणं सेसयेणाविरहिद द्विदीओ विसेसाहियकमेण णेदवाओ जाव आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं सेसएहि अविरहिवामओ द्विदीओ दुगुणाओ जावाओ त्ति एवमुवरि वि जाणियूण णेवस्वं । एवं च गमणसंभवे ताओ टिवीओ वियप्पेतूण अप्पाबहुअमेवमभणिय 'अणेयाणं समयपबद्धाणं सेसरहिं अविरहिवाओ द्विवोओ असंखेज्जगुणाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्ताणं सेसहि अविरहिदाओ दिदीओ असंखेज्जा भागा ति अव्वोगाढसहवेण घेत्तूण तासिमप्पाबहु भणंतस्स चुण्णिसुत्तयारस्स को अहिप्पाओ ति पुच्छिदे भण्णवे-ठिवीओ थोवाओ, वासपुषत्तादो अन्भहिय. पमाणाणं तासिमेत्था संभवादो। समयपबद्धासेसवियप्पा पुण एगादि-एगुत्तरकमेण वड्डमाणा पलिदोवमस्स असंखेज्जभागमेत्ता होंति ति ठिदिवियप्पेहितो असंखेज्जा अस्थि, तदो रूवुत्तरकमेण तेसिमेत्थ परूवणा ण संभवदि त्ति अव्वोगाढसरूवेण तेसि जहासंभवमुवलम्भमाणाणमप्पावहअमेवमुवइटुं ति वटुव्वं। जहा समयपबद्धसेसयाणमेसा सव्वा पडवणा चउत्थभासगाहाणिबद्धा विहासिदा, तहा चेव भवबद्धसेसयाणं पि गिरवसेसमणुगंतव्वा, विसेसाभावादो। एवं मूलगाहाए चसहसूचिदो अत्थो तदिय-चउत्थभासगाहाहिं विहासिदो बटुग्यो। अथवा 'कदि वा एगसमयेणे त्ति' एवं मूलगाहापच्छिमपदं मोत्तूण सेसाणं मूलगाहाए सव्वपदाणमत्थो पढम-विदियभासगाहाहिं सामान्य स्थितियां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर समस्त सामान्य स्थितियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-अब यहां एक समयप्रबद्धशेष संयुक्त स्थितियोंसे दो समयप्रबद्धोंके शेषोंसे संयुक्त स्थितियां विशेष अधिक होती हैं। इसी प्रकार तीन, चार आदि समयप्रबद्धोंके शेषोंसे संयुक्त स्थितियां विशेष अधिक क्रमसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके शेषोंसे संयुक्त स्थितियां दूनी होने तक ले जाना चाहिए। इसी प्रकार ऊपर भी जानकर ले जाना चाहिए। यहाँ इस प्रकार ( आगे भी ) गमन सम्भव होनेपर उन स्थितियोंको विकल्प करके अल्पबहत्वके भेदका कथन न करके 'अणेयाणं समयपबद्धाणं सेसएहिं अविरहिदाओ दिदीबो असंखेज्जगुणाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं सेसएहिं अविरहिदाओ ट्ठिदोओ असंखेज्जा भागा' इस प्रकार अव्यवगाढ़रूपसे ग्रहण कर उनका अल्पबहुत्व कहनेवाले चूणिसूत्रकारका क्या अभिप्राय रहा है ? समाधान-ऐसी पृच्छा होनेपर आचार्य समाधान करते हुए कहते हैं-स्थितियां थोड़ी हैं, क्योंकि वर्षपृथक्त्वसे अधिक प्रमाणवाली उनका यहाँ प्राप्त होना असम्भव है। परन्तु समयप्रबद्धोंके समस्त भेद एकसे लेकर आगे एक-एकके क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होते हुए पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं, इसलिए वे स्थितियोंके भेदोंसे असंख्यातगुणे हैं, इस कारण बागे एक अधिकके क्रमसे उनकी यहां प्ररूपणा सम्भव नहीं है, अतः अव्यवगाढ़रूपसे यहाँ यथासम्भव उपलभ्यमान उनका यह अल्पबहुत्व कहा गया जानना चाहिए। यहां जिस प्रकार चौथी भाष्यगाथामें निबद्ध समयप्रबद्धशेषोंको यह पूरी प्ररूपणा विशेषरूपसे कही उसी प्रकार भवबशेषोंको भी पूरी प्ररूपणा जाननी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता महीं है। इस प्रकार मूल गाथामें आये हुए 'च' शब्दसे सूचित होनेवाले अर्थको तीसरी और चौथी भाष्यगाथा द्वारा विभाषा की। अथवा 'कदि वा एगसमएण' इस प्रकार मूलगाथाके इस अन्तिम Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अट्ठममूलगाहाए चउत्थभासगाहा १८९ विहासिदो।पुणो 'कवि वा एगसमएणेत्ति' एक्स्स पच्छिमपदस्स अत्यो तदिय चउत्थभासगाहाहि विहासिदो ति वक्खाणेयव्वं । कवि वा सामण्णासामण्णाद्विदीओ एगसमयेण एगसंबंधेण णिरंतरभावमुवगयाओ समुवलब्भंति ति पुच्छाहिसंबंध कादूण वक्खाणे कीरमाणे तदिय-चउत्यभासगाहाणमत्थस्स परिप्फुडमेव तत्थ पडिबद्धत्तदंसणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण खवगसंबंधेण चउण्हं भासगाहाणमत्थविहासणं कादूण संपहि पयवमत्थमुवसंहरेमाणो इदमाह * एसा सव्वा चदुहिं गाहाहि खवगस्स परूवणा कदा। ६४९६. गयत्थमेदमुवसंहारवक्कं । * एदाओ चेव चत्तारि वि गाहाआ अभवसिद्धियपाओग्गे णेदवाओ। ६४९७. पुवमेदाओ चत्तारि भासगाहाओ भवसिद्धियपाओग्गविलए खवगसेढिसंबंधेण विहासिदाओ। पुणो एण्हिमेवामओ नेव चत्तारि वि भासगाहाओ अट्ठमोए मूलगाहाए अत्यविहासणे पडिबद्धाओ अभवसिद्धियपाओग्गविसये विहासियवाओ, अण्णहा तस्विसये भवबद्धसेसयाणं समयपबद्धसेसयाणं च एत्तियमेत्ताणमेवविएसु दिदिविसेसेसु एदेण कमेणावटाणं होदि ति जाणावणोवायाभावादो त्ति भणिदं होदि। को अभवसिद्धियपाओग्गविसयोणाम? भवसिद्धियाणमभवसिद्धियाणंच जत्थ टिदि-अणुभागबंधादिपरिणामा सरिसा होदूण पयर्टेति सो अभवसिद्धियपाओग्गविसयो ति पदको छोड़कर मूलगाथाके शेष सब पदोंके अर्थको प्रथम और दूसरी भाष्यगाथा द्वारा विभाषा की। पुनः 'कदि वा एगसमएण' इस प्रकार मूलगाथाके इस अन्तिम पदके अर्थकी तीसरी और चौथी भाष्यगाथा द्वारा विभाषा की ऐसा व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि कितनी सामान्य और असामान्य स्थितियां एक समयमें एकके सम्बन्धसे निरन्तरपनेको प्राप्त होकर उपलब्ध होती हैं ऐसी पृच्छाका सम्बन्ध करके व्याख्यान करनेपर तीसरी और चौथी भाष्यगाथाओंकी स्पष्टरूपसे ही वहाँ प्रतिबद्धता देखी जाती है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा क्षपकके सम्बन्धसे चार भाष्यगाथाओंके अर्थकी विभाषा करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हुए इस सूत्रको कहते हैं। चार भाष्यगाथाओं द्वारा क्षपककी यह सब प्ररूपणा की। ४९६. यह उपसंहार करनेवाला वचन गतार्थ है। * ये चारों भाष्यगाथाएँ अभव्यसिद्धिक जीवोंके भी प्रायोग्य हैं, अतः उनकी अपेक्षा इनको विभाषा करनी चाहिए। ४९७. पूर्वमें ये चारों भाष्यगाथाएं भव्यसिद्धिकप्रायोग्य जीवोंके विषयमें क्षपकश्रेणिके सम्बन्धसे विभाषित की गयों। पुनः इस समय आठवीं मूलगाथाके अर्थको विभाषा करने में प्रतिबद्ध ये हो चारों भाष्यगाथाएं अभव्यसिटिक जोवोंके विषयमें विभाषा करने योग्य हैं, अन्यथा उनके विषयमें इतने भवबद्धशेषों और समयप्रबद्धशेषोंका इतने स्थितिविशेषों में इस क्रमसे अवस्थान होता है यह जाननेका कोई उपाय नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । __ शंका-अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषय क्या है ? समाधान-जहां भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध आदिके योग्य परिणाम सदृश होकर प्रवृत्त होते हैं, वह अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषय है यह कहा जाता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे भण्णदे। तदो एदम्मि अभवसिद्धियपाओग्ग विसयेभवसमयपबद्धसेसयाणं परवणमिमाओ अणंतरणिहिट्ठाओ चत्तारि भासगाहामओ पुणो वि विहासियव्वाओ त्ति एसो एस्थ सुत्तत्थसंगहो। * तत्थ पुव्वं गमणिज्जा णिन्लेवणट्ठाणाणमुवदेसपरूवणा । ६४९८. तत्थ अभवसिद्धियपाओग्गविसये चढण्हं भासगाहाणमत्थविहासणावसरे पुव्वं पढममेव ताव गणिज्जा अणुगंतव्वा णिल्लेवणढाणाणमुवदेसपरूवणा; तेसु अविण्णादेसु तण्णिबंधणभवसमयपबद्धसेसयाणं चहि भासगाहाहि विहासणोवायाभावादो त्ति वृत्तं होइ। तत्थ कि पिल्लेवणढाणं णाम ? एगसमये बद्धकम्मपरमाणवो बंधावलियमेत्तकाले बोलिदे पच्छ। उदयं पविसभाणा केत्तियं पि कालं सांतर-णिरंतरसरूवेणुवयमागंतूण जम्हि समयम्हि सव्वे चेव णिस्सेस. मुवयं कादूण गच्छंति तेसि णिरुद्धभवसमयपबद्धपदेसाणं तमिल्लेवणट्ठाणमिदि भण्णदे; तत्थ तेसि जिरवसेसभावेण णिल्लेवणसणावो। एवंविहणिल्लेवणट्ठाणमेक्कस्स समयपबद्धस्स भव. बद्धस्स वा किमेवियप्पं चेव होइ, आहो अणेयवियप्पमिदि णिण्णयकरणटुमेसा उवएसपरूवणा एत्थाढविज्जदे। सा वुण पिल्लेवणट्ठाणाणमुवदेसपरूवणा एस्थ दुविहा होदि ति जागावण?मिदमाह * एत्थ दुविहो उवएसो। ___ इसलिए अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य इस विषयमें भवबद्धशेष और समयप्रवद्धशेषकी प्ररूपणा करने के लिए इन अनन्तर पूर्व कहो गयी चार भाष्यगाथाओंकी यहां फिर भी विभाषा करनी चाहिए यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । * इस विषयमें सर्वप्रथम निर्लेपनस्थानोंके उपदेशको प्ररूपणा जानने योग्य है। ४९८. 'तत्थ' अर्थात् अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें चार भाष्यगाथाओंके अर्थकी विभाषा करते समय 'पुर्व' अर्थात् सर्वप्रथम निर्लेपनस्थानोंके उपदेशको प्ररूपणा 'गमणिज्जा' अर्थात् जानने योग्य है, क्योंकि उनके अविज्ञात रहनेपर तन्निमित्तक भवबद्धशेष और समयप्रवद्धशेषोंकी विभाषा करनेका अन्य कोई उपाय नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यहां निलेपनस्थान किसे कहते हैं ? समाधान-एक समय द्वारा बन्धको प्राप्त हुए कर्मपरमाणु बन्धावलिकालके बीत जानेपर पश्चात् उदयमें प्रवेश करते हुए कितने ही काल तक सान्तर और निरन्तररूपसे उदयमें आकर जिस समय सभी उदयमें आकर निकल जाते हैं उन विवक्षित भवबद्धशेषों और समयप्रबद्धशेषोंका वह निर्लेपनस्थान कहलाता है, क्योंकि वहाँपर उन कर्मपरमाणुओंका पूरी तरहसे निर्लेपन देखा जाता है। इस प्रकारका निर्लेपनस्थान एक समयप्रबद्धका या भवबद्धका क्या एक भेदरूप होता है या अनेक भेदरूप होता है इस बातका निर्णय करनेके लिए यह उपदेशकी प्ररूपणा यहाँपर आरम्भ की जाती है। परन्तु वह निर्लेपनस्थानके उपदेशकी प्ररूपणा यहां दो प्रकार की है इस बातका ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रको कहते हैं * प्रकृतमें दो प्रकारका उपदेश पाया जाता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अट्ठममूलगाहाए चउत्थभासगाहा १९१ $ ४९९. एदम्मि जिल्लेवणटाणाणं परवणावहारणे दुविहो पुज्वाइरियाणमुवएसो बदम्वो त्ति भणिदं होदि; पवाइज्जमाणापवाइज्जमाणभेदेण दोण्हमुवएसाणमेत्य संभवदंसणादो। * एक्केण उवदेसेण कम्मद्विदीए असंखेज्जा भागा णिन्लेवणढाणाणि । $५००. पुव्वुत्ताणं दोण्हमुबएसाणं मज्झे एक्केण ताव उवएसेण कम्मदिदीए असंखेज्जभागमेत्ताणि एगसमयपबद्धस्स भवबद्धस्स वा णिल्लेवणढाणागि होंति ति सुत्तत्थसंबंधो। संपहि कधमेत्तियमेत्ताणि एगसमयपबद्धस्स गिल्लेवणढाणाणि जादाणि त्ति पुच्छाए णिण्णयं कस्सामो। तं जहा-जो समयपबद्धो णिरुद्धकम्महिदीए आदिसमयम्मि बद्धो, तस्स पदेसग्गं बंधपमयप्पहुडि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तकालं णिच्छयेण होदूण पुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालचरिमसमए णिस्सेसं होदूण गमणपाओग्गं होवि, हेट्ठिमकालन्भंतरे ओंकड्डियूण वेदिज्ज. माणस्स तस्स तम्मि उद्देसे गिरवसेसं पिल्लेवणे विरोहाणवलंभादो। तदो एदमेगं णिरुद्धसमयपबद्धस्स पिल्लेवणटाणं होदि । ६५०१. अधवा तत्तो उवरिमसमयम्मि वि तं पदेसगं णिस्सेसं होदूण गमणपाओग्गं होदि; हेटिमओकड्डणा परिणामाणं तहाविहणिल्लेवणट्ठाणुप्पत्तीए वि कारणभूदाणं संभवोव. लंभादो। एवं समयुत्तरकमेण णिरुद्धसमयपबद्धस्स पिल्लेवणट्ठाणाणि बझंतरंगकारणसव्वपेक्खाणि होदण गच्छंति जाव कम्मट्टिदिचरिमसमओ ति। तदो कम्मट्रिदीए असंखेज्जभागमेत्ताणि पिल्लेवणट्टाणाणि णिरुद्धसमयपबद्धस्स लद्धाणि होति । एवं सम्वेसि पि समयपबद्धाणमप्पणो कम्मदिदीए असंखेज्जा भागा पिल्लेवणट्ठाणाणि होति ति वत्तव्वं । एवं चेव भवबद्धाणं $ ४९९. इस निलेपनस्थानोंकी प्ररूपणाके अवधारण करने में पूर्व आचार्योंका उपदेश दो प्रकारका जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि यहाँपर प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमानके भेदसे दो प्रकारके उपदेश सम्भव दिखाई देते हैं। * एक उपदेशके अनुसार कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं। ६५००. पूर्वोक्त दोनों प्रकारके उपदेशोंमें एक उपदेशके अनुसार तो एक समयप्रबद्ध के या भवदद्धके कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । अब एक समयप्रबद्धके इतने निर्लेपनस्थान कैसे हो जाते हैं ऐसो पृच्छा होनेपर आगे उसका निर्णय करेंगे। वह जैसे-जो समयप्रबद्ध विवक्षित कर्मस्थितिके प्रथम समय में बन्धको प्राप्त हुआ है उसका प्रदेशपुंज बन्धसमयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निश्चयसे रहकर पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके अन्तिम समय में निश्शेष हो गमनके योग्य होता है, मात्र अधस्तन कालके भीतर अपकर्षण होकर वेद्यमान उसके उस स्थानमें पूरी तरह निलेपनको प्राप्त होने में विरोध नहीं उपलब्ध होता। इसलिए वह एक विवक्षित समयप्रबद्धका निर्लेपनस्थान है। ५०१. अथवा उससे अगले समयमें भी उसका प्रदेशपुंज निश्शेष होकर गमनके योग्य होता है, क्योंकि इससे पहले उस प्रकारके निर्लेपनस्थानकी उत्पत्तिमें कारणभूत अपकर्षणप्रायोग्य परिणाम सम्भव नहीं हैं। इस प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे विवक्षित समयप्रबद्धके बाह्य और आभ्यन्तर कारणसापेक्ष निर्लेपनस्थान होकर कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक जाते हैं। इसलिए विवक्षित समयप्रबद्धके निर्लेपनस्थान कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभाग प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार सभी समयप्रबद्धोंके अपनी-अपनी कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण निर्लेपनस्थान Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पिणिल्लेवणट्ठाणांण मेसो पमाणाणुगमो कायव्वो; एदम्मि उवदेसे अवलंविज्जमाणे पयारंतरासंभवादो। एसो च अपवाइज्जमागोवएसो णाम बहुएहि आइरिएहि अणभिमयत्तादो। संपहि पवाइज्जतोवएसमस्सियूण णिल्लेवणट्ठाणाणं पमाणविसेसावहारण?मुत्तरसुत्तमाह * एक्केण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागो। ३५०२. एक्केण उवएसेण पवाइज्जमाणेण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्ताणि णिल्लेवणट्ठाणाणि होति ति सुत्तत्थसंबंधो। कुवो वुण एक्स्स उवएसस्स पवाइज्जमाणत्तमवगम्मदे ? उवरिमचुण्णिसुत्तणिद्देसादो। एक्स्स भावत्थो-कम्मदिदीए आदिसमयम्मि जो बद्धो समयपबद्धो सो बंधसमयप्पहुडि जाव कम्मदिदीए असंखेज्जा भागा गच्छंति ताव णिच्छयेण अच्छियूण तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकम्मट्टिदिसेसे तम्हि सेसे अपरिसेस. मुदयं कादण सुद्धं पिल्लेविज्जदि, तेण तमेगं पिल्लेवणट्टाणं जादं । अधवा तदुवरिमसमयम्मि हिस्सेसमुदयं कादूण गच्छदि ति तं विदियं पिल्लेवणटाणं होइ। एवं समयुत्तरकमेण पिल्लें. वटाणाणि गच्छंति जाव कम्मट्टिदिचरिमसमओ ति । तेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभाग. मेत्ताणि णिल्लेवणटाणाणि पवाइज्जमाणोंवएसमस्सियूण लग्भंति ति घेत्तव्वं। संपहि एदस्सेवत्थस्त फुडीकरण?मुत्तरसुत्तणिद्देसो ___ * जो पवाइज्जइ उवएसो तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो असंखज्जाणि वग्गमूलाणि पिल्लेवणट्ठाणाणि । होते हैं ऐसा कहना चाहिए। इसी प्रकार भवबद्धोंके भी निर्लेपनस्थानोंका यह प्रमाणानुगम करना चाहिए, क्योंकि इस उपदेशका अवलम्बन करनेपर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। यह अप्रवाह्यमान उपदेश है, क्योंकि यह बहुत आचार्योंके द्वारा सम्मत नहीं है। अब प्रवाह्यमान उपदेशका आश्रय लेकर निर्लेपनस्थानोंके प्रमाणविशेषका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं एक उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं। $ ५०२. 'एक्केण उवएसेण' अर्थात् प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। शंका-यह उपदेश प्रवाह्यमान है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आगे चूर्णिसूत्रके निर्देशसे जाना जाता है कि यह उपदेश प्रवाह्यमान है। इस सूत्रका भावार्थ-कर्मस्थितिके प्रथम समयमें जो समयप्रबद्ध बंधता है वह बन्धसमयसे लेकर कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभाग जाने तक नियमसे अवस्थित रहकर पश्चात् पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कर्मस्थितिके शेष रहनेपर उस शेष समयमें पूरा उदयको प्राप्त होकर पूरी तरहसे निर्लेपनको प्राप्त हो जाता है। इस कारण वह इस प्रकार निर्लेपनस्थान हो जाता है। अथवा उससे अगले समयमें पूरी तरहसे उदयको प्राप्त हो जाता है, इसलिए वह दूसरा निलेपनस्थान हो जाता है । इस प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे निर्लेपनस्थान कस्थितिके अन्तिम समय तक प्राप्त होते जाते हैं । इस कारण प्रवाहमान उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निलेपनस्थान प्राप्त होते हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं जो प्रवाहमान उपदेश है उस उपदेशके अनुसार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं । जिनका प्रमाण असंख्यात वर्गमूलप्रमाण है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्टममूलगाहाए पढमभासगाहा १९३ ६५०३. जो पवाइज्जह उवएसो सव्वाइरिएहिं अविसंवादसहवेण वक्खाणिज्जदि तेण उवएसेण णिल्लेवणढाणाणि पलिदोवमस्त असंखेज्जभागमेत्ताणि होति । होताणि वि ताणि असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलमसंखेज्जस्वेहि पलिदोवमद्धच्छेदणएहितो असंखेज्जगुणहोणेहि पलिदोवमे ओवट्टिदे भागलद्धम्मि तप्पमाणागमणदसणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण पिल्लेवणटाणाणमवएसभेदावलंबणेण पमाणविणिणयं कादण तत्थ जो पवाइज्जमाणो उवएसो तं चेव घेत्तूण उवरिमं परूवणमाढवेमाणो पुव्वमेव ताव जहण्णपिल्लेवणट्टाणप्पहुडि जावुक्कस्सजिल्लेवणटाणाणि त्ति एदेसु पिल्लेवणटाणेसु पिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणमेगजीवसंबंधेण अदीदकालविसये पिल्लेवणकालप्पाबहुअपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तपबंधमाह * अदीदे काले एगजीवस्स जहण्णए पिल्लेवणट्ठाणे जिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणमेसो कालो थोवो। ६५०४. एवस्स सुत्तस्सत्यो वुच्चदे-अदीदकाले एगजीवस्स जहण्णणिल्लेवणट्टाणप्पहुडि जाव उक्कस्सपिल्लेवणटाणे ति ताव एवेसु पिल्लेवणहाणेसु पादेक्कमणंताणता णिल्लिवणवारा गदा। तत्थ जहण्णए पिल्लेवणट्ठाणे पुणो पुणो ठाइदूण समयपबद्ध जिल्लेवेमाणस्स तस्स नो कालो अणंतसमयावच्छिण्णपमाणो अदीवकालभंतरे सम्वत्थ जहासंमवमुच्चिणिदूण गहिवसरूवो सो सव्वत्थोवो त्ति वुत्तं होदि। . ६५०३. जो उपदेश प्रवाहित हो रहा है अर्थात् सब आचार्योंके द्वारा अविसंवादीरूपसे व्याख्यान हो रहा है उस उपदेशके अनुसार निर्लेपनस्थान पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। ऐसा होते हुए भी वे असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं। अर्थात् पल्योपमके अर्धच्छेदोंसे असंख्यातगुणे होन असंख्यातसे पल्योपमके भाजित करनेपर जो भाग लब्ध आवे वे तत्प्रमाण हैं। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा उपदेशभेदका अवलम्बन लेकर निर्लेपनस्थानोंके प्रमाणका निर्णय करके उनमें जो प्रवाह्यमान उपदेश है उसे ग्रहण कर आगेके प्रबन्धका आरम्भ करते हए सर्वप्रथम जघन्य निर्लेपनस्थानसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानोंके प्राप्त होने तक. इन निर्लेपनस्थानोंमें जिनका पहले निर्लेपन किया गया है ऐसे निर्लेपनस्थानोंके एक जीवके सम्बन्धसे अतीत कालविषयक निर्लेपनकालसम्बन्धी अल्पबहुत्वका प्ररूपण करने के लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अतीत कालमें जघन्य निर्लेपनस्थानमें स्थित एक जीवका निर्लेपितपूर्व समयप्रबद्धों सम्बन्धी यह काल सबसे थोड़ा है। ६५०४. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-अतीत काल में एक जीवके जघन्य निर्लेपनस्थानसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान तकके पिनस्थानोंमें प्रत्येकके अनन्तानन्त निर्लेपनवार व्यतीत हए हैं। उनमें जघन्य निर्लेपनस्थानमें पुनः पुनः स्थापित करके समयप्रबद्धोंका निर्लेपन करनेवाले. का जो अनन्त समयप्रमाण काल अतीत कालके भीतर व्यतीत हुआ है, यथासम्भव एकत्रित करके ग्रहण किया गया वह काल सबसे थोड़ा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक जितने भी निर्लेपनस्थान हैं उनमेंसे जघन्य निर्लेपनस्थानको अतीत कालमें एक जीवने जितनी बार किया है तत्सम्बन्धी समयप्रबद्रोंका जो समुदित काल है वह सबसे थोड़ा है यह इस सूत्रका भाव है। २५ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जवषवलासहिदे कसायपाहुडे * समयुत्तरे विसेसाहिओ। ६५०५. जहण्णपिल्लेवणटाणादो समयुत्तरे विवियणिल्लेवणटाणे अच्छिदूण णिल्लेविव. पुवाणं समयपबद्धाणं एसो कालो अवीवकालविसये सव्वत्थ संकलिदसरूवो एगजीवपडिबद्धो पुवुत्तजहण्णट्ठाणपडिबद्धणिल्लेवणकालादो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तो बिसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण खंडिवेयखंउमेत्तो । असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणमैत्थतणमेगगुण. हाणिट्ठाणंतरं विरलेयूण जहण्णटाणणिल्लेवणकाले समखंडं कादूण विष्णे तत्थेगरूवपरिवत्तेण तत्तो विवियणिल्लेवणटाणपडिबद्धो एसो णिल्लेवणकालो विसेसाहिओ ति वुत्तं होइ। * पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ते दुगुणो। १०६. एवं दुसमयुत्तरतिसमयुत्तरादिकमेण पिल्लेवणकालो अणंतरोवणिधाए विसेसा. हिओ होदूण गच्छमाणो परंपरोवणिषाए पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तपिल्लेवणट्टाणेसु गदेसु तविथपिल्लेवणकालो जहण्णट्ठाणणिल्लेवणकालावो दुगुणमेत्तो जादो; पुव्वुत्तगुणहाणिमेतविरलणाए सव्वरूवरिवाणमेत्थ पवेसर्वसणावो। पुणो वि एवेणेव कमेण उप्पण्णुप्पण्गद्गुण. वडिट्ठाणमवद्विवगुणहाणिविरलणाए खंडियूण तत्थेगेगखंडं विसेसाहियं कादूण जेवव्वं जाव पलिवोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तदुगुणवडीओ गंतूण तवित्थदुगुणवड्डीए जवमज्ससहवेण * उससे अनन्तर समयसम्बन्धी निर्लेपनस्थानमें स्थित जीवका निर्लेपित पूर्व समयप्रबद्धों. का समुदित काल विशेष अधिक है। ६५०५. जघन्य निर्लेपनस्थानसे अनन्तर समयवर्ती दूसरे निर्लेपनस्थानमें रहकर निर्लेपितपूर्व समयप्रबद्धोंका अतीत कालविषयक सर्वत्र संकलित हुमा यह काल पूर्वोक्त जघन्य स्थानसे सम्बन्ध रखनेवाले निर्लेपनकालसे विशेष अधिक है। शंका-कितना अधिक है ? समाधान-पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना अधिक है। अर्थात् असंख्यात पल्योपमोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण यहाँके एक गुणहानिस्थानान्तरको विरलित करके उसे जघन्य निर्लेपनस्थानके कालके समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर वहां जो काल एक अंकके प्रति प्राप्त हो उतना दूसरे निर्लेपनस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला यह निलेपनकाल विशेष अधिक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * इस विषिसे क्रमसे जाते हुए पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थानोंके जाने. पर वहाँ अन्तिम निलेपनस्थानका प्राप्त हुआ काल दूना होता है। ५०६. इसी प्रकार दो समय अधिक, तीन समय अधिक आदिके क्रमसे निर्लेपनकाल अनन्तर उपनिषाकी अपेक्षा विशेष अधिक होकर जाता हुआ परम्परोपनिषाकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थानोंके जानेपर वहां प्राप्त निर्लेपनस्थानका काल जघन्य निर्लेपना स्थानके कालसे दूना हो जाता है, क्योंकि पूर्वोक्त गुणहानिप्रमाण विरलन करनेपर वहां समस्त अंकोंके प्रति प्राप्त कालका यहां प्रवेश देखा जाता है। आगे फिर भी इसी क्रमसे पुनः-पुनः उत्पन्न हए द्विगुणवृद्धिस्थानको अवस्थित गुणहानिके विरलनके द्वारा खण्डित करके उसमें से एक खण्ड. प्रमाण कालको विशेष अधिक करके तब तक ले जाना चाहिए जब जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां जाकर वहां प्राप्त हुई वृद्धि में यवमध्यस्वरूपसे निर्लेगनकाल उत्पन्न Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . खवगसेढोए अटुंममूलगाहाए पढेमभासगाहा १९५ पिल्लेवणकालो समुप्पण्णो ति। एदं च जवमझटाणमुप्पज्जमाणं पिल्लेवणढाणसयलद्धाणस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं चेव गंतूण समुप्पण्णमिदि जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * ठाणाणमसंखेज्जदिमागे जवमझ । ६५०७. आदीवो पहुडि कमवड्डीए जाव एरं ताव आगंतूण पुणो एत्तो उवरि कमहाणीए गमणं पेविखरणेत्थ जवमज्झववएसो पयट्टाविदो । तदो पिल्लेवणटाणाणमसंखेज्जविभागे असंखेज्जदुगुणवडिअद्धाणसमण्णिदे जवमझ होदूण पुणो जवमज्झणिल्लेवट्ठांणकालादो उवरिमणिल्लेवणट्ठाणकालो हायमाणो गच्छदि जाव हेट्ठिमद्धाणादो असंखेज्जगुणमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण उक्कस्सणिल्लेवणट्ठाणम्मि णिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणं णिल्लेवणकालो पयवजवमझपरूवणाए चरिमवियप्पो जादो त्ति। सम्वेसु च टाणेसु पादेक्कमवीवकालस्सासंखेज्जविभागमेत्तो चेव जिल्लेवणकालो समुवलखो बटुग्यो । सेसासेसविसेसपरूवणा जाणिय कायव्वा । संपहि एत्थ जवमझादो हेट्ठिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाणं पमाणविसेसावहारण?मुत्तरसुत्तमाह * णाणादुगुणहाणिहाणंतराणि पलिदोवमच्छेदणाणमसंखेज्जदिभागो। ६५०८. एयगुणहाणिटाणंतरेण असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणेण सयलपिल्लेवणट्ठाणखाणे ओट्टिदे णाणागुणहाणिसलागाओ आगच्छति । तासि च पमाणं पलिदोवमबछेदणयाणमसंखेज्जदिभागमैत्तं चेव होइ। कुदो एदमवगम्मदे ? एवम्हावो चेव सुत्तादो। संपहि एवं होता है। और यह यवमध्यस्थान उत्पन्न होता हुभा निर्लेपनस्थानसम्बन्धो स्यानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण ही जाकर उत्पन्न हुआ है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * इस विधिसे निर्लेपनस्थानोंके असंख्यातवें भागपर यवमध्य होता है। ६५०७. प्रारम्भसे लेकर क्रमवृद्धिपूर्वक सर्वप्रथम यहां तक आकर पुनः इससे आगे क्रमसे होनेवाली हानिको देखकर यहाँ यवमध्य संज्ञा रखनी चाहिए। इसलिए निर्लेपनस्थानोंके असंख्यातवें भागमें असंख्यात द्विगुणवृद्धिस्थानोंसे युक्त मध्य में यवमध्य होकर पुनः यवमध्य निलेपनस्थानके कालसे उपरिम निर्लेपनकाल घटता हुआ तबतक जाता है जब जाकर अधस्तन स्थानसे असंख्यातगुणे स्थान आगे जाकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानमें जिनका पहले निर्लेपन किया है ऐसे समयप्रबद्धोंका प्रकृत यवमध्य प्ररूपणाके अन्तिम विकल्परूप निर्लेपनकाल हो जाता है । इस प्रकार और सब स्थानों में प्रत्येक अतीत कालका असंख्यातवां भागप्रमाण हो निर्लेपनकाल उपलब्ध होता है ऐसा जानना चाहिए। शेष समस्त विशेषोंकी प्ररूपणा जानकर करनी चाहिए । अब यहांपर यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकाओंके प्रमाणविशेषका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * नाना द्विगुणगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। ६५०८. असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलोंके प्रमाणस्वरूप एक गुणहानिस्थानान्तरसे समस्त निर्लेपनस्थानोंके अध्वानके भाजित करनेपर नाना गुणहानिशलाकाएं आ जाती हैं। उनका प्रमाण पल्योपमके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसो सूत्रसे जाना जाता है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे परिच्छिण्णपमाणाहिं णाणागुणहाणिसलागाहिं णिल्लेवणट्ठाणसयलद्धाणे ओवट्टिदे एयगुणहाणिटाणं. तरपमाणमागच्छवि त्ति घेत्तन्वं । * णाणागुणहाणिहाणंतराणि थोवाणि । ६५०९. सुगमं। * एयगुणहाणिहाणंतरमसंखेज्जगुणं । ६५१०. को गुणगारो ? असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि; हेट्रिमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओट्टिने तहाविहगुणगारसमुप्पत्तिदंसणादो। एसा सव्वा वि पावणा समयपबद्धणिल्लेघणटाणाणि अस्सियूण परूविदा । एवं चेव भवबद्धाणं पि पिल्लेवणटाणाणि पवाइज्जतोवएसभेवमस्सियूण णेदव्वाणि विसेसाभावादो। गवरि समयपबद्धस्स जहण्णणिल्लेवणट्ठाणावो उवरि असंखेज्जामी द्विदीओ अम्भुस्सरियूण भवबद्धाणं जहण्णणिल्लेवणट्ठाणं होदि ति। तत्तो पहडि पवुत्ता जवमझपरूवणा कालविसया णेदव्वा; जम्हि चेव उद्देसे समयपबद्धणिल्लेवणटाणाणं जवमझ जावं तम्हि चेव भवबद्धाणि णिल्लेवणटाणाणं पि जवमझ होदि ति घेत्तन्वं । कुदो एवं परिच्छिज्जवे ? उरि भणिस्समाणचुण्णिसुत्तादो। एवमेत्तिएण पबंधेण भवबद्ध-समयपबद्धणिल्ले. वणट्राणाणं सहवं जाणाविय संपहि एदेसु पिल्लेवणट्ठाणेसु णिल्लेविज्जमाणभव-समयपबद्ध अब इस प्रकार जिनका प्रमाण अवगत कर लिया है ऐसी नाना गुणहानिशलाकाओंके द्वारा निर्लेपनस्थानके सकल अध्वानके भाजित करनेपर एक गुणहानिस्थानान्तरका प्रमाण प्राप्त होता है यह ग्रहण करना चाहिए। * नाना गुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। ६५०९. यह सूत्र सुगम है। * उनसे एक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। ६५१०. शंका-गुणकारका प्रमाण कितना है ? समाधान-पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण गुणकारका प्रमाण है, क्योंकि अधस्तन राशिसे उपरिम राशिके भाजित करनेपर उस प्रकारके गुगकारकी उत्पत्ति देखी जाती है। यह सब प्ररूपणा समयप्रबद्ध निर्लेपनस्थानोंका आलम्बन लेकर की है। इसी प्रकार भवबद्धोंके निर्लेपनस्थानोंकी भी प्ररूपणा प्रवाह्यमान उपदेशका अवलम्बन लेकर जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि समयप्रबद्धके जघन्य निर्लेपनस्थानसे ऊपर असंख्यात स्थितियोंको उत्सारित करके भवबढोंका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है। पुनः उससे जागे कालविषयक पूर्वोक्त यवमध्यप्ररूपणा ले जानी चाहिए। जिस स्थानपर समयप्रबद्ध निर्लेपनस्थानोंका यवमध्य प्राप्त होता है उसो स्थानपर भवबद्ध निर्लेपनस्थानोंका भी यवमध्य प्राप्त होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आगे कहे जानेवाले चूणिसूत्रसे जाना जाता है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा भवबद्ध और समयप्रबद्ध निलेपनस्थानोंके स्वरूपका ज्ञान कराकर अब इन निलेप्यमानस्थानोंमें निर्लेप्यमान भवबढशेषोंकी और समयप्रबद्धशेषोंकी चार Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए पढमभासगाहा १९७ सेसयाण पहिं भासगाहाहि विसेसिगूण परूवणं कुणमाणो तत्थ ताव पढमभासगाहाए अत्यविहासणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * एकम्हि द्विदिविसेसे एकस्स वा समयपबद्धस्स सेसयं दोण्हं वा तिण्हं वा उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं । ६५११. 'कदि वा एगसमयेणेत्ति' एवं मूलगाहाए चरिमावयवमस्सियूण अभवसिद्धियपाओग्गविसये पढमभासगाहाए अत्थविहासणे कोरणमाणे भवसिद्धियपाओग्गविसयपरूवणादो पत्थि किंचि णाणत्तमिदि एदेण सुत्तेण जाणाविदं; उहयत्थ वि एगटिदिविसेसेसु पलिवोवमस्स असंखेन्जविभागमेत्ताणं समयपबद्धसेसाणमुक्कस्सपक्खेण संभवं पडि विसेसाभावादो। * एवं चेव भवबद्धसेसाणि । ६५१२. जहा समयपबद्धसेसयाणि एक्कम्हि दिदिविसेसे उक्कस्सेण पलिवोवमस्स असंखेजविभागमेत्ताणि तहा चेव भवबद्धसेसाणि वि होति ति भणिदं होइ । सेसं सुगम । एवमेत्तिये अत्थे विहासिदे तदो पढमभासगाहाए अत्यविहासा अभवसिद्धिपाओग्गविसये समप्पा त्ति जाणावणटुमुवसंहारवक्कमाह * पढमाए गाहाए अत्थो समत्तो भवदि । ६५१३. सुगमं । णवरि एत्युद्देसे किंचि परूवणाविसेसं पढमभासगाहापडिबद्धमत्थि तमेत्य भाष्यगाथाओं द्वारा विशेषरूपसे प्ररूपणा करते हुए यहां सर्वप्रथम प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करने के लिए बागेके प्रबन्धको कहते हैं * एक स्थितिविशेषमें एक समयप्रबद्धका शेष पाया जाता है, वो या तीन समयप्रबद्धोंके शेष पाये जाते हैं। इस विषिसे उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके शेष पाये जाते हैं। ६५११. मूलगाथाके 'कदि वा एगसमयेणेत्ति' इस अन्तिम चरणका आश्रय लेकर अभव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें प्रथम भाष्यगाथाका अर्थ करनेपर भव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयकी प्ररूपणासे कुछ भी भेद नहीं है यह इस सूत्र द्वारा ज्ञान कराया गया है, क्योंकि दोनों प्रकारके ही जीवोंके एक स्थितिविशेषमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धशेष उत्कृष्ट पक्ष की अपेक्षा भी सम्भव होनेके प्रति कोई भेद नहीं पाया जाता। ॐ इसी प्रकार भवबद्धशेषों को भी प्ररूपणा करनी चाहिए। ५१२. जिस प्रकार एक स्थितिविशेषमें समयप्रबद्धशेष उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पाये जाते हैं उसी प्रकार भवबद्धशेष भी पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार इतने अर्थको विभाषा करनेपर अभव्यसिद्धिक जीवके विषय में प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है। इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए उपसंहारस्वरूप सूचको कहते हैं। * प्रथम भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त होता है। ५१३. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि इस स्थानपर प्रथम भाष्यगाथासे Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "द्रण १९८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पुटवावरपरामरसकुसलेहिं चितियण णेदव्वमिदि अत्थसमप्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जवमझं कायव्वं विस्सरिदं लिहिदु । 5५१४. एवं भणंतस्साहिप्पाओ-खवगपाओग्गपरूवणाए अभवसिद्धियपाओग्गपरूवणाए च पढमभासगाहाए अत्थपरूवणं कादूण पुणो तत्थ तेहिं भव-समयपबद्धसमयहि एगढिदिविसय. पडिबद्धेहि जाणाकालसंबंधेण एगादिएगुत्तरकर्मण लम्भमाणेहि समयाविरोहेण जवमझं पि कायब्वमस्थि । गरि तमम्हेहि लिहिदुं विस्सरिदं छदुमत्यभावेण। तदो तमेत्थ वक्खाणाइरिएहि चितिय णेदवमिदि। कधं पण पुवावरपरामरसकुसलस्स सुत्तयारस्स विस्सरणसंभवो त्ति णासंकणिज्जं, अविस्सरिदसरुवं पितं जवमझ सुबोहं ति कादूण विस्सरणणिभेण सिस्साणमत्थसमप्पणं कुणमाणस्स तद्दोसाणवयारादो। "विचित्रा शैली सूत्रकाराणाम्' इति न्यायात् । तदो तमेत्थ परमगुरुसंपदायबलेण वत्तइस्सामो। तं जहा एगहिदिविसेसम्मि अदीदे काले एक्कस्स जीवस्स एगेगसमयपबद्धसेसयमच्छियूण तेण सहवेणजे जिल्लेविदा समयपबद्धा ते थोवा। सिपादेव गदिवसलागाओ अताओ दोरण थोवाओ त्ति भाणदं होदि। पुणो दोणि दोणि समयपबद्धसेसयाणि एगट्टिदिविसेसे होदूण उवयं कादूण गदा जे समयपबद्धा ते विसेसाहिया। एत्थ विसेसपडिभागो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिसम्बन्ध रखनेवाला किंचित् प्ररूपणाविशेष है उसे यहाँपर पूर्वापर अर्थका परामर्श करनेमें कुशल जीवोंको विचारकर जान लेना चाहिए। इस प्रकार अर्थको समाप्ति करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ॐ यहाँपर यवमध्य करना चाहिए। उसे लिखनेका स्मरण नहीं रहा। ६५१४. इस प्रकार कहनेवाले आचार्यका यह अभिप्राय है कि क्षपकके योग्य प्ररूपणामें और अभव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य प्ररूपणामें प्रथम भाष्यगाथाके अर्थको प्ररूपणा करके पुनः वहां एक स्थितिके विषयसे सम्बन्ध रखनेवाले नाना कालोंके सम्बन्धसे एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे प्राप्त होनेवाले भवबद्ध और समयप्रबद्धसम्बन्धी समयोंके द्वारा समयके अविरोधपूर्वक यवमध्य भी करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि छमस्थ होनेके कारण उसे लिखनेका हमें स्मरण नहीं रहा। इसलिए उसका यहांपर व्याख्यानाचार्योंके द्वारा विचार करके कथन करना चाहिए। शंका-पूर्वापर आगमका परामर्श करने में कुशल सूत्रकारका इसका विस्मरण होना कैसे सम्भव है? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह यवमध्य अविस्मरणस्वरूप होकर भी सुबोध है, ऐसा समझकर मानो उसे भूल गये हों इस प्रकार शिष्योंको अर्थके समर्पण करनेमें कुशल आचार्यपर उक्त दोषका अवतार नहीं होता, अर्थात् उक्त दोष लागू नहीं होता, क्योंकि 'सूत्रकारोंके कथन करनेकी शेली विचित्र अर्थात् अनेक प्रकारको होती है' ऐसा न्याय है। इसलिए उसका यहाँपर परम गुरुके सम्प्रदायके बलका अवलम्बन लेकर बतलावेंगे। वह जैसे अतीत कालविषयक एक स्थितिविशेषमें एक जीवके एक-एक समयप्रबद्धशेष होकर उस रूपसे जो समयप्रबद्ध निर्लेपित हुए हैं वे सबसे थोड़े हैं। उनमें से प्रत्येककी ग्रहण की गयी शलाकाएं अनन्त होकर सबसे थोड़ी हैं यह कहा गया है। पुनः एक स्थितिविशेषमें दो-दो समयप्रबद्ध उदयको प्राप्त कर जो समयप्रबद्ध गत हो गये वे विशेष अधिक हैं। यहाँपर विशेष लानेके Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अट्ठममूलगाहाए पढमभासगाहा १९९ भागो। एवं तिण्णि-चत्तारिआदिकोण गंतूण पुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तसमयपबद्धसेसयाणि एक्कम्मि टिदिविसेसे अच्छिदूण उदयं कादूण जाणि गवाणि तेसि गहिदसलागाओ दुगुणाओ। एवं पलिदोवमस्स असंखेन्जविभागमेत्तदुगुणवडीओ गंतूण तदो जवमझं होदि । तत्तो उवरि सम्वत्थ विसेसहीणकमेण गच्छंति जाव सव्वुक्कस्सपलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतसमयपबद्धसेससलागाहिं एगढिविविसयाहि विसेसिवा समयपबद्धा चरिमवियप्पा होवूण पज्जव. सिवा त्ति । एवं भवबद्धसेसयाणं पिणेदव्वं ति। ६५१५. अधवा एवमेत्थ जवमझ कायवमिदि अण्णे वक्खाणाइरिया भणंति । तं कधं ? एगदिदिविसेसे सेसभावेणच्छिदूण ओकडुणाए उदयमागंतूण पिल्लेवणभावं गवसमयपबद्धा थोवा । जे दोसु दिदिविसेसेसु सेसभावेणच्छिदूण ओकडणावसेणुवयं काबूण पिल्लेविदा समयपबद्धा ते विसेसाहिया। एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतद्विवीसु सेसभावेणच्छिण उवयं कारण पिल्लेवणपज्जायं गवाणं सलागाओ दुगुणाओ भवति । एवं गंतूण तदो जवमझ होदूण पुणो विसेसहाणीए गच्छंति जाव चरिमवियप्पो ति। ण समीचीणमेदं वक्खाणं, एगढिदिविसयाणं समयपबद्धसेसयाणं जवमझपरूवणावसरे गाणाढिविविसयाणं तेसि जवमझपरूवणाए असंबद्धत्तादो। एवं विहाए परूवणाए वट्टमाणादीदकालविसयाए विदियभासगाहासुत्ते णिबद्धत्त. बंसणावो च । तम्हा पुवुत्तो चेव जवमझविसेसो एत्थ सुत्तचिदो त्ति घेत्तव्वं । लिए प्रतिभाग पल्योपमके असख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार तीन, चार आदिके क्रमसे जाकर पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जो समयप्रबदशेष एक स्थितिविशेष में रहकर और उदयको प्राप्त होकर गत हो जाते हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएं दूनी होती हैं । इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां जाकर यवमध्य होता है। पुनः इससे आगे सर्वत्र विशेष हीनके क्रमसे तब तक जाते हैं जब जाकर सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धशेष. सम्बन्धी शलाकाओंसे युक्त एक स्थितिविषयक समयप्रबद्ध अन्तिम विकल्परूपसे अन्तको प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार भववद्धशेषोंका भी कथन करना चाहिए। ६५१५. अथवा इस प्रकार यहाँपर यवमध्य करना चाहिए ऐसा अन्य आचार्य व्याख्यान करते हैं। वह कैसे ? एक स्थितिविशेषमें शेषरूपसे रहकर अपकर्षणके द्वारा उदयको प्राप्त होकर निलेपनभावको प्राप्त हुए समयप्रबद्ध सबसे थोड़े हैं। जो दो स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे रहकर अपकर्षणके वशसे उदयको प्राप्त होकर निर्लेपनभावको प्राप्त हुए समयप्रबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें शेषरूपसे रहकर उदयको प्राप्त होकर निर्लेपनपर्यायको प्राप्त हुई शलाकाएं दूनी होती हैं। इस प्रकार जाकर यवमध्य होकर पुनः विशेष हानिके क्रमसे अन्तिम विकल्पके प्राप्त होने तक जाते हैं। किन्तु यह व्याख्यान समोचीन नहीं है. क्योंकि एक स्थितिविषयक समयप्रबद्धशेषोंके यवमध्यकी प्ररूपणाके अवसरपर नाना स्थितिविषयक उन समयप्रबद्धशेषोंकी प्ररूपणा करना असम्बद्ध है, क्योंकि वर्तमान, अतीत कालविषयक इस प्रकारको प्ररूपणा दूसरे भाष्यगाथासूत्रमें निबद्ध देखी जाती है। इसलिए पूर्वोक्त यवमध्यविशेष हो यहाँपर सूत्रसूचित ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम भाष्यगाथामें एक स्थितिको बालम्बन बनाकर एक या एकसे अधिक समयप्रबद्धशेषोंकी अपेक्षा यवमध्य प्ररूपणा की गयी है। किन्तु व्याख्यानाचार्य एक या एकसे अधिक स्थितिविशेषोंको आलम्बन बना समयप्रबद्धशेषोंको अपेक्षा यवमध्यप्ररूपणा इस भाष्यगाथाके Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६५१६. संपहि जहावसरपत्ताए विदियभासगाहाए अत्यविहासणमभवसिद्धियपाओग्गविसये कुणमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विदियाए भासगाहाए अत्थो जहावसरपत्तो। ६५१७. विहासियव्यो ति वक्कसेसो । सेसं सुगम । * तं जहा। ६५१८. सुगमं। * समयपबद्धसेसयमेकिस्से द्विदीए होज्ज, दोसु तीसु वा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेसु । ६५१९. गयत्थमेदं सुत्तं, भवसिद्धियपाओग्गविसयपरूवणाए विहासियत्तादो। णवरि भवसिद्धियपाओग्गविसये उक्कस्सेण वासपुधत्तमेत्तट्टिदोसु समयपबद्धसेसयं जादं । एत्य पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्टिदोसु समयपबद्धसेसयमुक्कस्सपक्खेण लब्भदि त्ति एसो एत्थतणो विसेसो सुत्तणिहिट्ठो दटुग्यो। एगसमयपबद्धसेसयं च पहाणीकरिय सुत्तमेदं पयर्ट्स। णाणासमयपबद्धसेसाणं पहाणत्ते जहण्णदो वि तेसिक्किरसे दिदीए अवटाणासंभवादो। संपहि एदेसि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतदिदिविसेसाणं पिल्लेवणटाणेहितो थोवभावपदुप्पायणट. मुत्तरसुत्तमाहआधारसे सूचित करते हैं । जो प्रकृत भाष्यगाथाकी अपेक्षा घटित नहीं होती ऐसा यहां टोकाकारका अभिप्राय समझना चाहिए । शेष कथन टोकासे ही स्पष्ट है। ६५१६. अब यथावसरप्राप्त दूसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषा अभव्यसिद्धिकप्रायोग्य जीवोंके विषयों करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब दूसरी भाष्यगाथाका अर्थ अवसरप्राप्त है। $ ५१७. 'उसको विमाषा करनी चाहिए' इतना शेष वाक्य युक्त कर लेना चाहिए। शेष कथन सुमम है। * वह जैसे। 5५१८. यह सूत्र सुगम है। * समयप्रबद्धशेष एक स्थितिमें हो सकता है, दो या तीन स्थितियों में हो सकता है। इस प्रकार एक-एक अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें हो सकता है। ६५१९. यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि भवसिद्धिकप्रायोग्यविषयक प्ररूपणाके समय इसकी विभाषा कर आये हैं। इतनी विशेषता है कि भवसिद्धिकप्रायोग्य जीवोंके विषयमें उत्कृष्टसे वर्ष. पृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंमें समयप्रबद्धशेष प्राप्त होता है । परन्तु यहाँपर अर्थात् अभव्योंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें समयप्रबद्धशेष उत्कृष्ट पक्षको अपेक्षा प्राप्त होता है इस प्रकार यह यहाँ सम्बन्धी विशेष सूत्र में निर्दिष्ट जानना चाहिए। किन्तु एक समयप्रबद्धशेषको प्रधान करके यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, क्योंकि नाना समयपबशेषोंकी प्रधानतामें जघन्यसे भी उनका एक स्थितिमें अवस्थान असम्भव है। अब पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण इन स्थिति विशेषों के निर्लेपनस्थानोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए भागेका सूत्र कहते हैं Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए पढममूलगाहाए चउत्थभासगाहा . २०१ *णिन्लेवणद्वाणाणमसंखेन्जदिमागे समयपबद्धसेसयाणि । ६१२०. गाणेगसमयपबद्धसेसएहि अविरहिवाओ सध्वाओ द्विदीओ संपिंडिदाओ पिल्लेवणट्ठाणाणमसंखेज्जदिभागमेतीओ चेव, ण तत्तो अविरित्ताओ ति एसो एस्थ सुत्तत्थसंगहो। संपधि एदेणेव संबंधेण एगादि-एगुत्तरेसु हिदिविसेसेसु लद्धावठाणाणं णाणासमयपबद्धसेसयाणमणंतरपरंपरोवणिषाहिं सेढिपरूवणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * समयपबद्धसेसयाणि एकम्हि हिदिविसेसे जाणि ताणि थोवाणि । ६५२१. पुश्वुत्तपिल्लेवणद्वाणाणमसंखेन्जविभागमेत्तद्विविविसेसेसु णाणेगसमयपबद्धसेसयेहिं अविरहिदेसु तत्थ एक्कम्मि टिदिविसेसे केत्तियाणि वि होदूण दिवाणि समयपबद्धसेसाणि अस्थि तेसि गहिदसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तोओ होदूण सम्वत्योवा ति वुत्तं होइ। * दोसु द्विदिबिसेसेसु विसेसाहियाणि । ६५२२. दोसु दिदिविसेसेसु जाणि सेसभावेण समवट्टिवाणि तेसिं गहिवसलागाओ पुग्विल्लसलागाहितो विसेसाहियाओ भवति । केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेट्ठिमरासिस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो। तस्स को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो; एत्थतणएगदुगुणवडिअद्धाणस्स तप्पमाणत्तादो। * निर्लेपनस्थानोंके असंख्यात भागमें समयप्रबद्धशेष होते हैं। ६५२०. नाना समयप्रबद्धशेष और एक समयप्रबद्धशेषसे रहित सब स्थितियां मिलाकर निर्लेपनस्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं। उनसे अधिक नहीं होती यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । अब इसी सम्बन्धसे एकसे लेकर एक-एक अधिकरूपसे स्थित स्थितिविशेषोंमें जिन्होंने अवस्थान प्राप्त कर लिया है ऐसे नाना समयबद्धशेषोंकी अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधाको अपेक्षा श्रेणिकी प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * एक स्थितिविशेषमें जो समयप्रबद्धशेष पाये जाते हैं वे सबसे थोड़े हैं। ६५२१. पूर्वोक्त निर्लेपनस्थानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें नाना समयप्रबद्धशेषों और एक समयप्रबद्धशेषसे युक्त स्थानोंमेंसे एक स्थितिविशेषमें जितने भी समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहते हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर सबसे थोड़ी होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। वो स्थितिविशेषोंमें पाये जानेवाले समयप्रबद्धशेष विशेष अधिक हैं। ६५२२. दो स्थितिविशेषोंमें जो समयप्रबद्ध शेषरूपसे अवस्थित हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएँ पहलेकी शलाकाओंकी अपेक्षा विशेष अधिक होती हैं। शंका-विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान-अधस्तन राशिका असंख्यातवा भाग है। शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-उसका प्रतिभाग पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि यहाँका विगुणवृद्धि अध्यान तत्प्रमाण है। २६ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * तिसु द्विदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । ६ ५२३. तिसु टिदिविसेसेसु होदूण जाणि समयपबद्धसेसयाणि समवदिवाणि ताणि पुग्विल्लेहितो विसेसाहियाणि । विसेसपमाणमेत्य वि पुव्वं व वत्तव्वं । * पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागे जवमन्झं । ६५२४. एवमणंतराणंतरावो अवद्विदेगेगविसेसवड्डोए गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भागमेत्तद्धाणे पलिदोबमस्स असंखेज्जविभागमेत्तद्विदीओ आधारं कादूण टिदसमयपबद्धसेसयाणि घेतूण दुगुणवड्डी होति। एवंविहाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तदुगुणवडिट्ठाणंतराणि गंतूण तदित्यगुणवडीए चरिमवियप्पम्मि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतदिविविसेसेसु बट्ट माणाणं समयपबद्धसेसाणं सलागाओ जवमज्झसरूवेण दवाओ। तदो जवमजमावो उवरि विसेसहाणीए असंखेज्जगुणहाणोओ गंतूण चरिमवियप्पे पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतदिदिविसेसेसु सवुक्कस्सेसु वट्टमाणाणं समयपबद्धसेसयाणं सलागाओ असंखेज्जगुणहीणाओ होण पयदपवणाए पज्जवसाणभावेश णिट्टिदाओ। एत्थ जवमझादो हेटिमोवरिमणाणागुणहाणिद्वाणंतरसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेन्जविभागमेत्तीओ होति । एयगुणहाणिट्ठाणंतरं पि पलिदोवमस्स असंखेजविभागमेत्तं चेव होइ । होतं पिणाणागुणहाणिटाणंतरसलागाहितो असंखेज्जगुणमेव होवि ति परूवणट्ठमुत्तरसुत्तणिद्देसो *णाणंतराणि थोवाणि। * तीन स्थितिविशेषोंमें पाये जानेवाले समयप्रबद्धशेष विशेष अधिक हैं। ६५२३. तीन स्थितिविशेषोंमें रहकर जो स्थितिविशेष अवस्थित हैं वे पूर्वके स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा विशेष अधिक हैं । यहाँपर विशेषका प्रमाण पहलेके समान कहना चाहिए। * इस विधिसे आगे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमें समयप्रबद्धशेषोंका यवमध्य प्राप्त होता है। ६५२४. इस प्रकार अनन्तर तदनन्तररूपसे स्थित एक-एक विशेषको वद्धि होनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वानमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंको आधार करके जो समयप्रबद्धशेष अवस्थित हैं उन्हें ग्रहण कर द्विगुणवृद्धि होती है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धिस्थानान्तर जाकर वहाँ प्राप्त द्विगुणवृद्धिके अन्तिम भेदमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें विद्यमान समयप्रबद्धशेषोंको शलाकाएं यवमध्यरूपसे जाननी चाहिए। तत्पश्चात् यवमध्यके ऊपर विशेष हानि द्वारा असंख्यात गुण. हानियां जाकर अन्तिम भेदमें प्राप्त सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्शातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें विद्यमान समयप्रबद्धशेषोंको शलाकाएं असंख्यात गुणहानिरूप होकर प्रकृत प्ररूपणामें पर्यवसानरूपसे निर्दिष्ट की गयी हैं। यहाँपर यवमध्यसे पहलेको और आगेको नाना गुणहानि. स्थानान्तरशलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। और एक गुणहानिस्थानान्तर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। ऐसा होते हुए भी नाना गुणहानिशलाकाओंसे असंख्यातगुणा ही होता है इस बातका कथन करने के लिए आगे के सूत्रका निर्देश करते हैं नाना गुणहानिस्थानान्तर अल्प हैं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए विदियमूलगाहाए विदियमासगाहा २०३ ६५२५. कुदो ? पलिदोवमद्धच्छेदणयाणमसंखेज्जविभागपमाणत्तादो। * एगंतरमसंखेज्जगुणं । ६५२६. कुवो? असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो। एवं समयपबद्धसेसयाणि अस्सियूण विदियभासगाहाए अत्थपरूवणं काढूण संपहि भवबद्धसेसयेसु वि एसा चेव परूवणा गिरवसेसमणुगंतव्वा ति जाणावेमाणो इदमाह * एवं भवबद्धसेसयाणि । $ ५२७. जहा समयपबद्धसेसयाणि द्विदीओ आधारं काढूण भग्गिदाणि एवं चेव भवबद्धसेसयाणि वि णेदव्वाणि, पयदपरूवणाए उभयत्य णाणत्तेण विणा पवुत्तिदंसणादो त्ति भणिदं होदि। एत्थ जवमज्झपरूवणा खबगपाओग्गपरूवणाए कीरमाणाए तदियभासगाहासुत्त. संबंधेण विहासिदो। एत्थ पूण अभवसिद्धियपाओग्गपरूवणाए विदियभासगाहाविहासणावसरे चेव विहासिदा । एवं विहासेमाणस्स सुत्तयारस्स को अहिप्पाओ ति चे ? वुच्चदे-एसो अत्यविसेंसो दोसु वि गाहासुत्तेसु मुत्तकंठमणुवइट्ठो। किंतु अत्यसंबंधेण विहासिज्जदे, तदो तत्थ वा एत्थ वा विहासिदे दोसो णत्थि ति एदेणाहिप्पाएण विवियभासगाहासंबंधेणेवेत्थ पयदत्यविहासा आढता। तदो ण पुवावरविरोहदोससंभवो ति। एवमेत्तिये अत्थे विहासिदे तदो विदियभासगाहाए अत्यविहासा समप्पइ त्ति जाणावणट्ठमुवसंहारवक्कमाह $ ५२५. क्योंकि वे पल्योपमके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । * उनसे एक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। ६५२६. क्योंकि वह असंख्यात पल्योपमोंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । इस प्रकार समयप्रबद्धशेषोंका आश्रय लेकर दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको प्ररूपणा करके अब भवबद्धशेषों में भी यही प्ररूपणा पूरी जाननी चाहिए इस बातका ज्ञान कराते हुए इस सूत्रको कहते हैं * इसी प्रकार भवबशेषोंको प्ररूपणा करनी चाहिए। ६५२७. जिस प्रकार स्थितियोंको आधार करके समयप्रबद्धशेषोंकी प्ररूपणा की इसी प्रकार भवबद्धशेषोंकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि दोनों जगह भेद किये बिना प्रकृत प्ररूपणाकी प्रवृत्ति देखी जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर यवमध्यप्ररूपणा क्षपकप्रायोग्य प्ररूपणाके करनेपर तीसरी भाष्यगाथासूत्रके सम्बन्धसे विभाषित की। परन्तु यहाँपर अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य प्ररूपणामें दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषाके समय ही कर आये हैं। शंका-इस प्रकार विभाषा करनेवाले सूत्रकारका क्या अभिप्राय है ? समाधान-आगे उसका समाधान करते हैं-यह अर्थविशेष दोनों ही गाथासूत्रोंमें स्पष्टरूपसे नहीं कहा गया है। किन्तु अर्थके सम्बन्धसे विभाषित किया जाता है, इसलिए उस भाष्यगाथामें या इस भाष्यगाथामें विभाषा करने में दोष नहीं है, इसलिए दूसरी भाष्यगाथाके सम्बन्धसे यहाँपर प्रकृत अर्थको विभाषा आरम्भ की गयी है, इसलिए पूर्वापर विरोधरूप दोष सम्भव नहीं है। इस प्रकार इतने अथके विभाषित करनेपर दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा समाप्त होतो है इसका जान करानेके लिए उपसंहारवाक्यको कहते हैं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जयवेलासहिंदे कसायपाहुडे * विदियाए गाहाए अत्थो समतो भवदि । * तदियाए गाहाए अत्थो । $ ५२८. विवियभासगाहाविहासणानंतर मेतो तवियाए भासगाहाए अत्थो विहासिज्जवे त्ति वृत्तं होइ । * असामण्णाओ द्विदीओ एको वा दो वा तिष्णि वा एवमणुबद्धाओ उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ५२९. जम्हि द्विदिविसेसे समयपबद्धसेसयं वा भवबद्धसेंसयं वा णत्थि सा द्विबी असामण्णा त्ति भण्णदि । जत्य पुण तदुभयं संभव सा सामण्णद्विवी नाम । तत्थ असामण्ण द्विवीजं पाणावहारणमेसा तदियभासगाहाए बिहासा समोइण्णा । तं जहा- जहणेण उभयवो सामणद्विवीहि निरुद्धा एक्का चेव असामण्णट्टिदी होवूण लग्भइ । एवं दो-तिणिविकमेण निरंतरं गंतून उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तीओ असामण्णद्विदीओ अण्णोष्णाणुगयाओ होंति, अभवसिद्धियपाओग्गविसये तहाविहसंभवस्स परिप्फुडमुवलंभावो । जहा खवगपाओग्गपरूवणाए असामण्णट्टिबीणमप्पाबहुअ मणंतरपरंपरोवणिधाहि भणिदं 'एक्केवकेण असामण्णाओ थोवाओं' इच्चादिकमेण तहा एत्थ वि असामण्ण द्विदिसलागाहिं जवमज्झ गन्भमप्पा बहुअं दव्वं; अण्णा तव्विसयणिष्णयाणुप्पत्तीवो। णवरि एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तसामण्णट्ठिदिसलागाहिं दुगुणवड्डी होदि । खवगसेढोए पुण आवलियाए असंखेज्जविभागमेतद्वाणं * दूसरी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त होता है । * अब तीसरी भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा करते हैं। ५२८. दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषाके अनन्तर आगे तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ विभाषित किया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * असामान्य स्थितियां एक, दो अथवा तीन होती हैं। इस प्रकार क्रमसे एक-एक अधिक होकर उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। ६५२९. जिस स्थितिविशेषमें समय प्रबद्धशेष अथवा भवबद्धशेष नहीं होता वह स्थिति असामान्य कही जाती है। किन्तु जिस स्थितिविशेष में सामान्य और असामान्य दोनों स्थितियाँ सम्भव हैं वह सामान्य स्थिति कहलाती है । उनमेंसे असामान्य स्थितियोंके प्रमाणका अवधारण करने के लिए यह तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा अवतीर्ण हुई है । वह जैसे -- जघन्यसे दोनों ओरसे सामान्य स्थितियोंके द्वारा निरुद्ध एक ही असामान्य स्थिति होकर प्राप्त होती है। इसी प्रकार दो, तीन आदिके क्रमसे निरन्तर जाकर उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण असामान्य स्थितियां एक-दूसरेसे सम्बद्ध होकर प्राप्त होती हैं, क्योंकि अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषय में उस प्रकारका होना सम्भव है यह स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है। जिस प्रकार क्षपकोंके योग्य प्ररूपणा करते समय असामान्य स्थितियोंका अल्पबहुत्व अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधाकी अपेक्षा 'एक-एककी अपेक्षा असामान्य स्थितियां सबसे थोड़ी होती हैं' इत्यादि क्रमसे पूर्व में कह आये हैं उसी प्रकार यहाँपर भी असामान्य स्थितियों की शलाका द्वारा यवमध्यगर्भ अल्पबहुत्व जानना चाहिए, अन्यथा तद्विषयक निर्णय नहीं हो सकता। इतनी विशेषता है कि यहांपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण असामान्य स्थितियोंकी शलाकाओंके द्वारा द्विगुणवृद्धि होती Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए चमत्थमूलगाहाँ २०५ गंतूण दुगुणवड्डी जादा । तत्थ जवमझादो हेट्ठिमोवरिमाणपमाणमावलियाए असंखेजविभागो, एत्थ पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। एवं जाणागुणहाणिसलागाणं पि पमाणविसये भेदो वत्तव्यो। तदो तदियभासगाहाए अत्थविहासा समप्पदि त्ति जाणावेमाणो उवसंहारवक्कमुत्तरं भणइ * एवं तदियाए गाहाए अत्थो समत्तो। * एत्तो चउत्थीए गाहा अत्यो। $५३०. असामण्णटिदोहिं अंतरिदाणं सामण्णटिवीणमियत्तावहारणटुं चउत्थीए भास. गाहाए अत्यो एण्हिमहिकोरदि ति वृत्तं होदि। * सामण्णद्विदीओ एकंतरिदाओ थोवाओ । ६५३१. एवं भणिवे दोसु वि पासेसु एगेगमसामणद्विवी होदूण पुणो तासि मज्झे जत्तियाओ सामण्णदिदीओ अच्छिदाओ तासि सव्वासि पि एगा सलागा घेत्तव्वा । पुणो वि एवं चेव दोसु वि पासेसु एगेगा चेव असामण्णट्टिदी होवूण पुणो तासि मज्झे जत्तियाओ सामण्णद्विवीओ तासि सव्वासि विदिया सलागा गहेयवा। एवं सम्वत्थ लद्धसलागाओ घेत्तूण एक्कदो मेलाविदे पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतीओ सलागाओ होंति । एवाओ थोवाओ, उवरिमवियप्पपडिबद्धसलागाणमेत्तो बहुत्तदंसणादो। है। परन्तु क्षपकश्रेणिमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर द्विगुणवृद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि वहाँपर यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम स्थानोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागरूप होता है। परन्तु यहाँपर वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इसी प्रकार नाना गुणहानि शलाकाओंका भी प्रमाणविषयक भेदका कथन करना चाहिए। तत्पश्चात् तीसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है इसका ज्ञान कराते हुए आगे उपसंहारसूत्रको कहते हैं * इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त हुआ। के आगे चौथी भाष्यगाथाके अर्थको विभाषा करते हैं। ६५३०. असामान्य स्थितियोंसे अन्तरित सामान्य स्थितियोंके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए चौथी भाष्यगाथाका अर्थ इस समय अधिकृत है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * एक-एक असामान्य स्थितिसे अन्तरित सामान्य स्थितियां सबसे थोड़ी हैं। ६५३१. ऐसा कहनेपर दोनों ही पावों में एक-एक असामान्य स्थिति होकर पुनः उनके मध्यमें जितनी सामान्य स्थितियां अवस्थित हैं उन सबको एक शलाका ग्रहण करनी चाहिए। फिर भी इसी प्रकार दोनों ही पावों में एक-एक असामान्य स्थिति होकर पुनः उनके मध्यमें जितनी सामान्य स्थितियां होती हैं उन सबकी दूसरी शलाका ग्रहण करनी चाहिए। इसी प्रकार सर्वत्र प्राप्त हुई शलाकाओंको ग्रहण कर एक साथ मिलानेपर वे सब पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। ये सबसे थोड़ी होती हैं, क्योंकि उपरिम भेदोंसे सम्बन्ध रखनेवाली शलाकाएं इनसे बहुत देखी जाती हैं। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ बयधवलासहिदे कसायपाहुडे * दुअंतरिदा विसेसाहिया। $ ५३२. एवं भणिदे वोहि दोहि असामण्णट्टिदोहि अंतरिदाओ जाओ सामणद्विदीओ तासि सम्वत्थं गहिदसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतीओ होदूण पुग्विल्लसलागाहितो विसेसाहियाओ त्ति घेत्तव्वं । विसेसपमाणमेत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेग खंडिदेयखंड, एत्थतणगुणहाणिअद्धाणस्स तप्पमाणत्तादो। * एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागे जवमझें । 5 ५३३. "मोत्तूण पुणो एक्क-दो-तिण्णि-चत्तारिआदिअसामण्णद्विदीहिं दोसु वि पासेसु अंतरिदाणं मज्झे समुवलम्भमाणाणं सामण्णढिदोणं सलागामओ घेतूण विसेसाहियकमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताहिं असामण्णाटुदोहिं अंतरिदाणं सामण्णट्ठिदोणं सलागाओ पढमवियप्पसलागाहितो दुगुणमेत्तीओ जादाओ ति। एवमेदेण कमेण असंखेज्जासु दुगुणबड्डोसु गदासु तदों दोसु वि पासेसु पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागेहितो उवरिमद्विवोहि अंतरिक्सामण्णद्विदीणं सलागाओ घेतूण जवमज्झमुप्पज्जदि ति एसो एक्स्स सुत्तस्स भावत्थो। एत्थ जवमझादो हेटा उवरिं च पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतीओ चेव णाणा गुणवड्डि-हाणिसलागाओ होति । एत्थ जाणागुणहाणिसलागाओ थोवाओ, एयगुणवडिहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं होदि त्ति इममत्थविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भगइ * दो-दो असामान्य स्थितियोंसे अन्तरित सामान्य स्थितियां विशेष अधिक होती हैं। ६५३२. ऐसा कहनेपर दो-दो असामान्य स्थितियोंसे अन्तरित जो सामान्य स्थितियां पायो जाती हैं, उनकी सर्वत्र ग्रहण की गयो शलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर पूर्वको शलाकाओंसे विशेष अधिक होती हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। यहाँपर विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित एक भागप्रमाण है, क्योंकि यहाँ सम्बन्धी गुणहानिअध्वान तत्प्रमाण है। * इस प्रकार क्रमसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागके अन्तमें यवयध्य होता है। ६५३३. .......'को छोड़कर पुनः एक, दो, तीन और चार आदि असामान्य स्थितियोंसे दोनों ही पार्श्व भागोंमें अन्तरित होकर मध्यमें समुपलभ्यमान सामान्य स्थितियोंकी शलाकाओंको ग्रहण कर तब तक ले जाना चाहिए जब जाकर पल्यापमक असंख्यातवं भागप्रमाण असामान्य स्थितियोंसे अन्तरित सामान्य स्थितियोंकी शलाकाएं प्रथम विकल्पसम्बन्धी शलाकाओंसे दनी हो जाती हैं। इस प्रकार इस क्रमसे असंख्यात द्विगुणवृद्धियोंके जानेपर तदनन्तर दोनों ही पावं भागोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण उपरिम स्थितियोंसे अन्तरित सामान्य स्थितिशलाकाओंको ग्रहण कर यवमध्य उत्पन्न होता है यह इस सूत्रका भावार्थ है। यहाँपर यवमध्यसे पहले और आगे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही नाना गुणहानिशलाकाएं होती हैं। यहां नाना गुणहानिशलाकाएं थोड़ी हैं। उनसे एक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है इस प्रकार इस अर्थविशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं १. ता०-क प्रत्योः ...""मोत्तण इति पाठः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवग ढोए चउत्थमूलगाहा २०७ * जाणागुणहाणिसलागाणि थोवाणि । ६५३४. जवमज्मादो हेट्ठिमोवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ संपिंडिवाओ थोवाओ ति भणिदं होइ। * एकंतरमसंखेज्जगुणं । ६५३५. एयगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणमिदि वुत्तं होइ । कुदो एक्स्स तत्तो असंखेज्ज. गुणत्तमवगम्मदे ? एवम्हावो चेव सुत्तादो। ण च सुत्तुत्तमण्णहा होइ, विप्पडिसेहादो। एवं च सुत्तं देसामासयं तेण एगादिएगुत्तरकमेण वड्दिाहि सामग्ण द्विदीहिं अंतरिदाणमसामट्टिवीणं च समयाविरोहेण जवमज्झपरूवणा एत्थाणुगंतव्वा। ण च तदियगाहाए एरिसो परूवणा पडि. बद्धा ति आसंकणिज्जं, तत्थ एगादिएगुत्तरकमेण लब्भमाणाणमसामण्णाटिदिसलागाणं जवमज्म. परूवणाए पहाणभावेण पडिबद्धत्तदसणादो। पुणो एक्केक्कसरूवेण जाओ सामण्णट्ठिदीओ लग्भंति तासि सलागाओ थोवाओ। दुगेण विसेसाहिया, तिगेण विसेसाहिया। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे दुगुणाओ, पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागे जवमज्झमिदि एसा वि जवमज्झपरूवणा एत्येव सुत्ते णिलीणा वक्खाणेयव्या। * एदमक्खवगस्स णादव्वं । ६५३६. एदमणंतरपरूविदं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं सामण्णट्टिवीणमुक्क नाना गुणहानिशलाकाएं थोड़ी हैं। ६५३४. यवमध्यसे अधस्तन और उपरिम नाना गुणहानिशलाकाएं मिलकर थोड़ी हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। . * एक गुणहानिस्थानका अन्तर असंख्यातगुणा है। ६५३५. एक गुणहानिस्थानका अन्तर असंख्यातगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह नाना गुणहानिशलाकाओंसे असंख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। उसमें भी यह सूत्र देशामर्षक है इस कारण एकसे लेकर एक-एकके क्रमसे बढ़ी हुई सामान्य स्थितियों और असामान्य स्थितियोंसे अन्तरित आगमके अविरोधपूर्वक यवमध्यप्ररूपणा यहाँपर जाननी चाहिए। इस प्रकारकी प्ररूपणा तीसरी गाथासे सम्बद्ध है ऐसो आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसमें एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे प्राप्त होनेवाली असामान्य स्थितियोंकी शलाकासम्बन्धी यवमध्यप्ररूपणाकी प्रधानरूपसे प्रतिबद्धता देखी जाती है। पुनः एक-एकरूपसे जो सामान्य स्थितियां प्राप्त होती हैं उनकी शलाकाएं थोड़ी हैं। दो-दोरूपसे प्राप्त होनेवाली सामान्य स्थितियां विशेष अधिक हैं। तीन-तीनरूपसे प्राप्त होनेवाली सामान्य स्थितियां विशेष अधिक हैं। इस विधिसे पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण प्राप्त होनेवाली शलाकाएं दूनी हैं। पल्योपमके असंख्यातवें भागमें यवमध्य होता है । इस प्रकार यह भी यवमध्य प्ररूपणा इसी सूत्र में गर्भित है, अतः उसका व्याख्यान करना चाहिए। * यह प्ररूपणा अक्षपकके जाननी चाहिए। ६५३६. यह अनन्तरपूर्व कहा गया पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सामान्य स्थितियोंका Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे स्वंतर मक्खवगस्स अभवसिद्धियपाओग्गविसये वट्टमाणस्स णावव्यमिदि वृत्तं होइ । लवगस्स पुणे मुक्कस्तरं संभवद्द, उक्कस्सेण वि तत्थावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीणं चैव असामण्णहिदीण मंतरभावेण सामण्ण द्विदीसु वि पवृत्तिदंसणावो त्ति इममत्थविसेसमुत्तरसुतेण णिद्दिस -. * खवगस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागो अंतरं । ६ ५३७. गतार्थमेतत्सूत्रम् । * इमस्स पुण सामण्णाणं द्विदीणमंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ६५३८. गयत्थमेदं पि सुत्तं; पुण्वुत्तस्सेवत्थस्स पुणो वि उवसंहारमुहेण परूवणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण समयबद्धसेसयाणि अस्सियूण चउत्यभासगाहाए अत्थविहासणं कावण संपहि भवबद्धसेसयाणि वि अस्सियूण सामण्णासामण्णद्विदीणमेवं चेव पयदपरूवणा अणुगंतव्या सि जाणावणमुत्तरसुत्तं भणइ - * जहा समयपबद्ध से सयाणि तहा भवबद्धसेसाणि कादव्वाणि । ६५३९. सुगमं । संपहि खवगपाओग्गपरूवणाए भण्णमाणाए चउत्थगाहासुत्ते एगावि गुत्तरमेण असंखेज्जाओ असामण्णद्विदीओ उल्लंघियूण तवो अंतरचरिमद्विदोदो उवरिमाणंतरद्विदिप्पड गादिगुत्तरवडिवे असंखेज्जेसु द्विदिविसेसेसु समयपबद्धसेसयाणि भवबद्धसे सयाणि उत्कृष्ट अन्तर अभव्यसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें विद्यमान अक्षपकके जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु क्षपकके यह उत्कृष्ट अन्तर सम्भव नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अन्तर होवे तो भी वहाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही असामान्य स्थितियोंके अन्तररूपसे उसकी सामान्य स्थितियों में ही प्रवृत्ति देखी जाती है इस प्रकार इस अर्थविशेष को आगे के सूत्र द्वारा दिखलाते हैं * क्षपकके यह उत्कृष्ट अन्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । $ ५३७. यह सूत्र गतार्थ है । * परन्तु अक्षपक के सामान्य स्थितियोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। ६५३८. यह सूत्र भी गतार्थ है, क्योंकि इस द्वारा पूर्वोक्त अर्थको ही पुनरपि उपसंहार करते हुए प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा समय प्रबद्धशेषोंका आलम्बन लेकर चौथी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा करके अब भवबद्धशेषोंका भी प्राश्रय करके सामान्य और असामान्य स्थितियोंकी इसी प्रकार प्रकृतप्ररूपणा जाननी चाहिए इस प्रकार इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगे सूत्रको कहते हैं * जिस प्रकार समयप्रबद्धशेषोंकी सामान्य और असामान्य स्थितियोंके आलम्बनसे प्ररूपणा की है उसी प्रकार भवबद्धशेषोंकी भी वह प्ररूपणा करनी चाहिए । ६५३९. यह सूत्र सुगम है। अब क्षपकप्रायोग्य प्ररूपणा के कथनमें चौथी भाष्यगाथासूत्रमें एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे असंख्यात असामान्य स्थितियों को उल्लंघन कर तत्पश्चात् अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थितिसे उपरिम अनन्तर स्थिति से लेकर एकसे लेकर एक-एकके क्रमसे afa करने पर असंख्यात स्थितिविशेषों में समयबद्धशेष और भवबद्धशेष होते हैं इस प्रकार इस Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अट्टममूलगाहाए चउत्थभासगाहा २०९ च होंति त्ति एवंविहो अत्थो विहासिदो, गाहासुत्तें तहाविहत्यस्स परिप्फुडमेव पडिबद्धत्तदंसणादो । अण्णं च पुम्वुत्त मंतर मुल्लंघिय एगादिएगुत्तरकमेण लद्धमाणीसु सामण्णद्विदीसु जाओ ताओ एगसमयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ थोवाओ, अणेगाणं समयपबद्धाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जगुणाओ इच्चादि परूवणा सुत्तसूचिदा तेण तत्थ वक्खाणिदा । एहि पुण अभवसिद्धियपाओग्गपरूवणाए तहाविहं सुत्तणिबद्धत्यपरूवणमुज्झियूण अण्णेण पयारेण चुण्णिसुत्ते परूवणंतरमाढत्तं तदो कधं ण पुव्वावर विरोहदोसो पसज्जदि त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे - खत्रगपाओग्गपरूarry जो अत्यो विहासिदो सो चैत्र एत्थ विहासेयव्वो ण तत्थ पडिसेहो अत्थि । किंतु तहाविहत्य - परूवणा गाहासुत्तणिबद्धा सुबोहा त्ति तमुल्लंघियूण सुत्तस्स भावत्थभूदो एसो अत्यो विहासासुत्त• यारेणेत्थ विहासिदो; सुगमत्थविहासण गंथगउरखं मोत्तूण फलविसेसाणुवलं भादो त्ति । तदो जो खवगम्मि विहासिदो अत्थो सो एत्थ वि समयाविरोहेण जोजेयब्वो; एत्थ विहासिदो जो अत्थो सो खवगसंबंधण विहासियव्वोत्ति एसो एत्थ सुत्ताहिप्पाओ । एतिओ पुण विसेसो-तत्य आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ असामण्ण द्विदोओ उल्लंघियूण सामण्णद्विदोणं भवसमयपबद्धसेसह अविरहिदाण मेगाविएगुत्तरकमेण उक्कस्सदो वासपुघत्तमेत्ताणं संभवो। एत्थ पुण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तीओ असामण्णद्विदीओ उल्लंघियूण एगादिएगुत्तरकमेण भवसमयबद्धसे सहि अविरहिदाओ सामण्णद्विदीओ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तीओ प्रकार के अर्थ की विभाषा की, क्योंकि गाथासूत्र में उस प्रकारके अर्थका स्पष्टरूपसे सम्बन्ध देखा जाता है । शंका- दूसरी बात यह है कि पूर्वोक्त अन्तरको उल्लंघन करके एकसे लेकर एक-एकके अधिक कमसे प्राप्त होनेवाली सामान्य स्थितियोंमें जो एक समय प्रबद्धशेषसे सहित स्थितियां हैं वे सबसे थोड़ी हैं। अनेक समयप्रबद्धशेषोंसे सहित स्थितियाँ उनसे असंख्यातगुणी हैं इत्यादि प्ररूपणा सूत्र सूचित है, इसलिए उसकी वहाँ प्ररूपणा की । परन्तु इस समय अभव्यसिद्धिक जीवोंके प्रायोग्य प्ररूपणा में उस प्रकारकी सूत्रनिबद्ध अर्थ की प्ररूपणाको छोड़कर अन्य प्रकार से चूर्णिसूत्र में प्ररूपणाविषयक अन्तर प्रारम्भ किया है, इसलिए पूर्वापरविरोध दोष कैसे प्राप्त नहीं होता ? समाधान - अब यहाँ इस दोषका परिहार करते हैं- क्षत्रकप्रायोग्य प्ररूपणा में जिस अर्थ विभाषा की है उसी अर्थ की यहां विभाषा करनी चाहिए, उसमें कोई प्रतिषेध नहीं है । किन्तु उस प्रकारके अर्थकी प्ररूपणा गाथासूत्र में निबद्ध होकर सुगम है, इसलिए उसे उल्लंघन कर सूत्र के भावार्थरूप में इस अर्थकी विभाषासूत्रकारने यहाँपर विभाषा की है, क्योंकि सुगम अर्थी विभाषा करने के लिए प्रयत्न करनेपर ग्रन्थ हो बढ़ता है, उसके सिवाय अन्य कोई फल नहीं उपलब्ध होता । इसलिए क्षपकके कथन के समय जिस अर्थ की विभाषा की है उसकी समयके अविरोधपूर्वक यहाँ भी योजना करनी चाहिए। और यहाँपर जिस अर्थकी विभाषा की है उसकी क्षपक के सम्बन्धसे भी विभाषा करनी चाहिए इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रका अभिप्राय है । मात्र इतनी विशेषता है कि वहाँपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंको उल्लंघन कर भवबद्धशेषों और समयप्रबद्धशेषोंसे युक्त सामान्य स्थितियाँ एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे उत्कृष्टरूपसे वर्ष प्रथक्त्व प्रमाण सम्भव हैं । परन्तु यहाँपर उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण असामान्य स्थितियों को उल्लंघन कर एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे भवबद्धशेषों और समय प्रबद्धशेषोंसे युक्त सामान्य स्थितियां उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण सम्भव हैं २७ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे संभवंति ति । एवमेवीए सव्वमग्गणाए सवित्थरमणुमग्गिदाए तदो चउत्थीए भासगाहाए अत्थविहासा समप्पदि । तोच अट्टमीए मूलगाहाए अत्थविहासा अभवसिद्धियपाओग्गविसये समप्पदि त्ति जाणावणटुमुवसंहारवक्कमाह * एवं चउत्थीए गाहाए अत्थो समत्तो भवदि । * अट्ठमीए मूलगाहाए विहासा समत्ता भवदि। * इमा अण्णा अभवसिद्धियपाओग्गे परूवणा । 5 ५४०. चदुहिं भासगाहाहिं अट्ठममूलगाहाए अत्थे भवाभवसिद्धियपाओग्गविसये सवित्थरं विहासिय समत्ते पुणो किमट्टमेसा अण्णा परूवणा अब्भवसिद्धियपाओग्गविसये आढविज्जदे ? ण, पुव्वुत्तत्थस्सेव चूलियाभावेण तत्थेव सुत्तसूचिदविसे संतरपदंसण?मेदिस्से परूवणाए अवयारब्भुवगमादो। तं कधं ? अभवसिद्धियपाओग्गे पिल्लेवणटाणाणं पमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं होदि त्ति भणिदं । संपहि जत्थेव समयपबद्धाणं जहण्णणिल्लेवणट्टाणं किं तत्थेव भवबद्धाणं जहण्णणिल्लेवणट्टाणं होइ आहो ण होइ त्ति ण एसो विसेसो तत्थ जाणाविदो, एवमण्णो वि विसेसो. तत्थ परूविदो अस्थि, तदो तप्परूवणट्ठमेत्तो उवरिमो चुण्णिसत्तपबंधो समोइगो त्ति घेत्तत्वं । इस प्रकार इस विधिसे इस पूरी मार्गणाके विस्तारके साथ अनुसन्धान करनेपर इसके बाद चौथी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है। और तदनन्तर अभवसिद्धिक जीवोंके प्रायोग्य विषयमें आठवीं मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए उपसंहार वाक्यको कहते हैं * इस प्रकार चौथी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त हुआ। के और इसके साथ आठवीं मूलगाथाकी विभाषा समाप्त होती है। * अब अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें यह अन्य प्ररूपणा की जाती है। ६५४०. शंका-चार भाष्यगाथाओं द्वारा आठवीं मूलगाथाके अर्थको भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें विस्तारके साथ विभाषाके समाप्त होनेपर पुनः अभवसिद्धिक जीवोंके विषयमें यह अन्य प्ररूपणा किस लिए आरम्भ करते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि पूर्वोक्त अर्थका ही चूलिकारूपसे वहीं सूत्रमें सूचित हुए विशेष अन्तरके दिखलानेके लिए इस प्ररूपणाका अवतार स्वीकार किया जाता है। शंका-वह कैसे? समाधान-अभवसिद्धिक योग्य निर्लेपनस्थानोंका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है यह कहा गया है। अब जहाँपर समयप्रबद्धोंका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है वहींपर क्या भवबद्धोंका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है या नहीं होता है इस प्रकार इस विशेषका वहां ज्ञान नहीं कराया गया है। इसी प्रकार अन्य भी विशेष वहाँपर कहा गया है, इसलिए उसकी प्ररूपणा करनेके लिए यहाँ उपरिम चूर्णिसूत्रप्रबन्ध अवतीर्ण हुआ है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अभवषिद्धकपाओग्गा अण्णा परूवणा २११ * तं जहा। ६५४१. सुगममेदं पयदपरूवगापबंधावयारावेक्खं पुच्छावक्कं । * भवबद्धाणं पिल्लेवणट्ठाणं जहण्णगं समयपत्रद्धस्स गिल्लेवणहाणाणं जहण्णयादो असंखेजाओ हिदीओ अब्भुस्सरिदण । ६५४२. एदस्सत्थो वुच्चदे-जम्हि टिदिविसेसे समयपबद्धाणं जहण्णयं णिल्लेषणटाणं जादं ण तम्हि चेव भवबद्धाणं जहण्णं पिल्लेवणट्ठाणं होइ। किंतु तत्तो उवरि असंखेज्जाओ द्विदीओ अब्भुस्सरिदूण होदि त्ति दटुटवं । तं जहा-तिरिक्खस्स मणुस्सस्स वा अंतोमुत्ताउगभवे उपज्जिदूण बंधमाणस्स जाव तमाउअं समप्पइ ताव तम्मि भवम्मि बद्धसमयपबद्धा अंतोमुत्तमेत्ता भवंति । तदो एत्तियमेत्तसमयपबद्धाणं समूहमेक्कदो कादूण गहिदे एगं भवबद्धयं णाम भण्णदे। पुणो तस्स भवस्स पढमसमयम्मि तप्पाओग्गजहण्गुववादजोगेण बद्धजहण्णपदेसपिंडो कम्मदिदीए असंखेज्जेसु भागेसु समयाविरोहेणाइक्कतेसु पुणो जम्मि समये णिस्सेसं गहिदूण गच्छदि तम्मि समये समयपबद्धस्स जहण्णणिल्लेवणढाणं होइ। तम्मि चेव समए पढमसमयपबद्धणूणमेगभवबद्धं दीसइ । तदो पढमसमयम्मि बद्धसमयपबद्ध णिल्लेविदे पूणो सेसा समयगअंतोमहतमेत्ता समयपबद्धा जम्मि समए णिस्सेसा गलिदूण गच्छिहिति तम्मि समए भवबद्धस्स जहण्णणिल्लेवणढाणं भविस्सदि त्ति एदेण कारणेण दोण्हं पि जहण्णपिल्लेवणटाणाणि एगत्थ ण जादाणि, समयपबद्धजहण्णपिल्लेवणट्ठाणादो उवरि अंतोमहुत्तमेत्तीओ द्विदीओ णिच्छएण अब्भुस्सरिदूण भवबद्धस्स जहण्ण * वह जैसे। 5 ५४१. प्रकृत प्ररूपणासम्बन्धी प्रबन्धके अवतारको अपेक्षा करनेवाला यह पृच्छावाक्य सुगम है। * भवबद्धोंका जघन्य निर्लेप स्थान समयप्रबद्ध के जघन्य निर्लेपनस्थानोंके असंख्यात स्थितियां आगे जाकर प्राप्त होता है । ६५४२. अब इसका अर्थ कहते हैं-जिस स्थितिविशेषमें समयप्रबद्धोंका जघन्य निर्लेपनस्थान उत्पन्न हुआ है उसी स्थितिविशेषमें भवबद्धोंका जघन्य निर्लेपनस्थान नहीं होता। किन्तु उससे ऊपर असंख्यात स्थितियां आगे जाकर वह होता है ऐसा जानना चाहिए। वह जैसेअन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयुवाले भवमें उत्पन्न होकर बन्ध करने वाले तिर्यंच या मनुष्यके जबतक वह आयु समाप्त होती है तबतक उस भवमें बांधे गये समयप्रबद्ध अन्तर्मुहूतंप्रमाण हो जाते हैं। इसलिए इयत्प्रमाण समयप्रबद्धोंके समूहको एकत्र करके ग्रहण करनेपर उसका नाम एक भवबद्ध कहलाता है। पुनः उस भवके प्रथम समयमें तत्प्रायोग्य जघन्य उपपाद योगसे बांधा गया जघन्य प्रदेशपिण्ड, कर्मस्थितिके असंख्यात भागोंके समयके अविरोधपूर्वक उल्लंघन करनेपर, पुनः जिस समय निश्शेष होकर निर्जीणं होता है उस समय समयप्रबद्धका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है। और उसी समय प्रथम समयप्रबद्धसे न्यून एक भवबद्ध दिखाई देता है। पश्चात् प्रथम समयसम्बन्धी समयप्रबद्धके निर्लेपित होनेपर शेष एक समय कम अन्तर्मुहुर्तप्रमाण समयप्रबद्ध जिस समय पूरी तरहसे गलकर निकल जाते हैं उस समय भवबद्धका जघन्य निर्लेपनस्थान होगा। इस प्रकार इस कारणसे दोनोंके ही जघन्य निर्लेपनस्थान एक स्थितिमें नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पिल्लेवणद्वाणं होदित्ति पडिवज्जेयव्वं । जम्हि चेव समए भवबद्धस्स पढमसमयपबद्धो जिल्लेविवो तम्हि चेव समए सेससमयपबद्धाणं अंतोमहत्ताणमक्कमेण पिल्लेवणा किण्ण जायदे ? ण, तेसि जहण्णणिल्लेवणद्वाणस्स समयुत्तरकमेणावद्विदस्त अक्कमवृत्तिविरोहादो । एसो अत्यो एगट्ठिदिविसेसे असंखेज्जाणि समयपबद्धसेसाणि अस्थि त्ति एदेण सह किण्ण विरुज्झदित्ति भणिदे ण विरुज्झदे । तं कथं ? निरुद्वेगसमयपबद्धस्स जहण्ण णिल्लेवणटुणबभूव द्विदिविसे से अण्णेगसमयपबद्धस्स कम्मद्विदीए समत्ताए तमेगं समयपबद्धसेसयं भवदि । पुणो तुम्मि चेव द्विदिविसेसे अण्णेगसमयपबद्ध कम्म ट्ठिदिदुचरिमसमये संजावे तत्थ तस्स पिल्लेवणसंभववसेण तमेगं समयपबद्ध से सयमुवलभदे । पुणो तम्मि चेव द्विदिविसेसे कम्मट्ठदितिचरिमसमयपत्तं पि समयपबद्धसेसयं तक्काल पिल्लेवणपाओग्गमत्थि । एवं गंतूण जाव जहण्णणिल्लेवणट्टाणावो समयुत्तर द्विदिपत्तम वि कम्मट्ठदिसमयपबद्धसेसयं तम्हि चेव द्विदिविसेसे अस्थि त्ति वत्तव्वं । तेण एक्कम्मि ठिदिविसेसे असंखेज्जाणं समयपबद्धाणं सेसाणमत्थित्तोवएसेण णेदं विरुज्झदे; णिल्लेवणद्वाणमेत्ताणं चेव समयपबद्ध सेसाणं तत्थ सेचियभावेण संभवोवलंभादो । जइ वि एत्तियमेत्ताणमक्कमेण पिल्लेवणद्वाणसंभवो णत्थि तो वि णियमा असंखेज्जाणं समयपबद्धाणं तप्पाओग्गाणं सेसयाणि तत्थ संभवंति २१२ समयप्रबंद्ध के जघन्य निर्लेपनस्थानसे ऊपर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियाँ वास्तव में आगे जाकर भवबद्धका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए । शंका - जिस ही समय भवबद्धका प्रथम समयप्रबद्ध निर्लेपित हुआ उसी समय अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेष समयप्रबद्धोंकी अक्रमसे निर्लेपना क्यों नहीं हो जाती ? समाधान- नहीं, क्योंकि उनका जघन्य निर्लेपनस्थान एक-एक समय अधिक के क्रमसे अवस्थित है, अतः उसकी अक्रमसे वृत्ति ( प्राप्ति ) होने में विरोध आता है । शंका- यह अर्थ एक स्थितिविशेष में असंख्यात समयप्रबद्धशेष पाये जाते हैं इस प्रकार इसके साथ विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता है ? समाधान - ऐसी शंका करनेपर कहते हैं कि विरोधको नहीं प्राप्त होता है । शंका-सो कैसे ? समाधान - विवक्षित एक समय प्रबद्धके जघन्य निर्लेपनस्थानभूत स्थितिविशेषमें अन्य एक समयबद्धकी कर्मस्थितिके समाप्त होनेपर वह एक समयप्रबद्धशेष होता है । पुन: उसी स्थितिविशेष में अन्य एक समयप्रबद्ध की स्थितिके द्विचरम समय हो जानेपर वहाँपर उसका निर्लेपनस्थान प्राप्त होने के योग्य होने से वह एक अन्य समयप्रबद्धशेष उपलब्ध होता है । पुनः उसी स्थितिविशेष में कर्मस्थितिका त्रिचरम समय प्राप्त हुआ, इसलिए समयप्रबद्धशेष उस समय निर्लेपन के योग्य होता है। इस प्रकार आगे तबतक जाना चाहिए जब जाकर उसी स्थितिविशेष में जघन्य निर्लेपनस्थान से क्रमसे एक-एक समय अधिक, कर्मस्थितिसम्बन्धी, समयप्रबद्धशेष पाया जाता है ऐसा कहना चाहिए । इस कारण एक स्थितिविशेष में असंख्यात समयप्रबद्धशेषों के अस्तित्वका उपदेश होनेसे यह कथन विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि जितने निर्लेपनस्थान हैं उतने ही समयबद्धशेषोंका वहाँपर सिचितरूपसे पाया जाना सम्भव है । यद्यपि इतने निर्लेपनस्थान वहाँपर अक्रमसे सम्भव नहीं हैं. तो भी तत्प्रायोग्य असंख्यात समयप्रबद्ध शेषरूप से वहाँपर सम्भव Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अभवसिद्धिकपाओग्गा अण्णापरूपणा २१३ ति णिच्छयो कायव्यो, उवरिमप्पाबहुअसुत्ताहिप्पायेण पिल्लेवणट्ठाणाणमसंखेज्जविभागताणं चेव भवसमयपबद्धसेसयाणमेगसमयेण पिल्लेवणोंवलंभादो त्ति । ६५४३. संपहि एत्तोप्पहुडि भवबद्धाणं समयाविरोहेण णिल्लेविज्जमाणाणं पुवुत्तकालजव. मममदोदकालविसयमेगजीवविसेसिदं णेदवमिदि पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * तदो जवमज्झं कायव्वं । ६५४४. तदो अणंतरणिविद्वत्तादो भवबद्धपडिबद्धजहण्णणिल्लेवणट्ठाणावो आढविय भवबद्धाणं णिल्लेविज्जमाणाणं कालजवमझमणुगंतव्वं । समयपबद्धाणं पुण एत्तो हेट्ठा अंतोमुहुत्तमोसरियूण दिवजहण्णणिल्लेवणहाणप्पडि पयवजवमझपरूवणा आढवेयव्वा त्ति सुत्तत्थसंगहो। एत्थ जवमझमिदि वुत्ते पुव्वुत्तकालजवममस्सेव परामरसो, णाण्णस्सेत्ति कधमेदं परिच्छिज्जवे ? ज, अण्णस्स जवमज्झस्स एवम्मि विसये संभवाणुवलंभावो। संपाहि जहा दोण्हमेदेसि जवमज्माणं भिण्णुद्देसे पारंभो किमेवं मज्मपदेसस्स वि भेदो अत्थि आहो त्थि ति पुच्छाए णिण्णयकरण?मुत्तरसत्तावयारो * जम्हि चेव समयपबद्धणिल्लेवणट्ठाणाणं जवमझं तम्हि चेव भवबद्धणिन्लेवट्ठाणाणं जवमझं। हैं ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि परिम चूर्णिसूत्रके अभिप्रायानुसार निर्लेपनस्थानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हो भवबद्धशेषों और समयप्रबनशेषोंका एक समय द्वारा निर्लेपन प्राप्त होता है। १५४३. अब इससे आगे समयके अविरोधपूर्वक निलेप्यमान भवबद्धोंका एक जीवसम्बन्धी अतीत कालविषयक पूर्वोक्त काल यवमध्यको ले जाना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं ॐ तत्पश्चात् यवमध्यको प्ररूपणा करनी चाहिए। ६५४४. 'तदो' अर्थात् पनन्तर पूर्व निर्दिष्ट किये गये भवबद्धसम्बन्धी बघन्य निर्लेपनस्थानसे आरम्भ करके निर्लेप्यमान भवबद्धोंका काल यवमध्य जानना चाहिए । समयपबद्धोंका तो इससे नीचे (पूर्व) अन्तर्मुहूर्त सरककर स्थित जघन्य निर्लेपनस्थानसे लेकर प्रकृत यवमध्यको प्ररूपणा आरम्भ करनी चाहिए यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। शंका-इस सूत्र में यवमध्य ऐसा कहनेपर पूर्वोक्त काल यवमध्यका हो परामर्श किया गया है, अन्यका नहीं इस प्रकार यह बात कैसे जानी जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि अन्य यवमध्य इस विषय में सम्भव नहीं है। अब जिस प्रकार इन दोनों यवमध्योंका भिन्न-भिन्न स्थानपर प्रारम्भ होता है उस प्रकार बोचके प्रदेशमें भी क्या भेद है या नहीं है ऐसी पृच्छा होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं जिस प्रदेशमें समयप्रबद्धोंके निर्लेपनस्थानोंका यवमध्य होता है उसी प्रदेशमें भवबद्धके निर्लेपनस्थानोंका यवमध्य होता है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १५४५. कुदो पुण दोण्हमेदेसि भिण्णुद्देसेसु पारद्धाणमेक्कम्मि चेव उद्देसे मज्झसंभवो ? ण, एदम्हादो चेव सुत्तादो तहाविहसंभवागमादो। तदो समयपबद्धणिल्लेवणटाणाणं जवमज्झस्स पढममेव पारंभो होदूण पुणो तत्तो अंतोमुहुत्तमें तणिल्लेवणट्ठाणाणि गंतूण तत्थ भवबद्वाणं जहण्णपिल्लेवणट्ठाणस्स पारंभो होदूण पुणो दोण्हं पि जवमज्झाण नुवरि समयाविर।हेण गच्छमाणाणमेकिमिम चेव दिदिविसेसे मज्झपदेसो होदूण पुणो उवरि समाणढाणाणि हेटिमद्धाणादो असंखेज्जगुणमेताणि गंतूग दोण्हं पि उकस्सपिल्लेवणट्ठाण विसए जुगवमेव परिसमत्ती होदि ति एसो एत्थ सुत्तत्थ संगहो। अहवा एत्य जवमज्झमिदि वुत्ते कालजवमज्झं पुत्वमेव परूविदमिदि तं मोत्तूण जहणणिल्लेवणाणप्पहुडि जावुक्कस्सपिल्लेवणट्ठाणेति एदेसु द्वाणेसु णिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणं भवबद्धाणं च अदीदकालविसयाओ सलागाओ घेतण जवमझपरूवणा कायव्वा । तं जहा-जहण्णए पिल्लेवणटाणे गिल्लेविद व्वा समयपबद्धा भवबद्धा वा थोवा समयुत्तरे विसेसाहिया। एवं गंतूग पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे दुगुणवडिदा। तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमुवरि गंतूण पिल्लेवणढाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमझं । ततो विसेसहोणकमेण णेदव्वं जाव उक्कस्सपिल्लेवणटाणेत्ति । णवरि सव्वणिल्लेवणट्ठाणेसु णिल्लेविदपुव्वा समयपबद्धा भवबद्धा च अणंतसंखाविसेसिदा चेव होंति; अदीदकालप्पणाए तदविरोहादो । संपहि अभवसिद्धिय शंका-इन दोनोंका यवमध्य भिन्न-भिन्न प्रदेशोंमें प्रारम्भ होता है, तो भी इनका एक ही प्रदेशमें मध्य कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि इसो सूत्रसे उनके उस प्रकारके सम्भव होनेका ज्ञान होता है। ६५४५. इस कारण समयप्रबद्धोंके निर्लेपनस्थानोंका यवमध्य पहले ही प्रारम्भ होकर पुनः उससे अन्तर्महुर्तप्रमाण निर्लेपनस्थान जाकर वहांपर भवबद्धोंके जघन्य निर्लेपनस्थानका प्रारम्भ होकर पुनः समयके अविरोषपूर्वक दोनोंके हो जाते हुए यवमध्योंके ऊपर एक ही स्थितिविशेषमें मध्यका प्रदेश होकर पुन: अधस्तन स्थानसे ऊपर असंख्यातगुणे समान स्थान जाकर दोनोंके ही उत्कृष्ट निलेपनस्थानविषयक एक साथ समाप्ति होती है इस प्रकार यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अथवा यहाँपर यवमध्य ऐसा कहनेपर काल यवमध्य का कथन तो पहले हो कर आये हैं, इसलिए उसे छोड़कर जघन्य निर्लेपनस्थानसे लेकर उत्कृष्ट निलेपनस्थान के प्राप्त होने तक इन स्थानों में जिनका पूर्वमें निर्लेपन कर आये हैं ऐसे समयप्रबद्धों और भवबद्धोंकी अतीत कालविषयक शहाकाओंको ग्रहण कर यवमध्यप्ररूपणा करनी चाहिए। वह जैसे-जघन्य निर्लेपनस्थानमें पूर्व में निलेपित किये गये समयप्रबद्ध अथवा भवबद्ध सबसे थोड़े होते हैं। उनसे एक समय अधिक पूर्व में निर्लेपित किये गये वे दोनों विशेष अधिक होते हैं। इस प्रकार एक-एक अधिकके क्रमसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमें वे दोनों दूनी वृद्धिसे युक्त होते हैं। तदनन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर जाकर निर्लेपनस्थानोंके असंख्यातवें भागमें यवमध्य प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विशेष होनक्रमसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पूर्वमें निर्लेपित किये गये समयप्रबद्ध और भवबद्ध अनन्त संख्यासे सहित ही होते हैं क्योंकि अतीत Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए भवसिद्धिकपाओग्गा अण्णा परूवणा २१५ पाओग्गविसये चैव परूवणंतरमाढवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * अदीदे काले जे समयपबद्धा एक्केण पदेसग्गेण पिल्लेविदा ते थोवा । $ ५४६. अदीदकाले पुग्वृत्तणिल्लेवणट्ठाणेसु जत्थ वा तत्थ वा णिल्लेदिज्जमाणा समयपबद्धा एक्क्केण परमाणुणा सेसभूदेण णिल्लेविदा अनंता अत्थि ते सव्वे चेत्र एक्कदो मेलाविदा थोवा होंति; उवरिमवियपपडिबद्धाणमेत्तो बहुत्तदंसणादो । * बेहिं पदेसेहि विसेसाहिया । ५४७. अदीदे काले दोहि दोहिं कम्मपरमाणूह सेसभूदेह जे णिल्लेविदा समयपबद्धा ते पुव्विल्लेहितो विसेसाहिया त्ति वृत्तं होइ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? हेट्ठिमत्रियप्पस लागाण मणंतिमभागमेत्तो । तस्स को पंडिभागो ? अभवसिद्धिएहितो अनंतगुणो, सिद्धाणमणंतभागो; एत्थतणगुणवडअद्धाणस्स तप्यमाणत्तोव एसादो । * एवमणंतरोवणिधाए अनंताणि द्वाणाणि विसेसाहियाणि । $ ५४८. एवं तीहि पदेसेहि णिल्लेविदा दिसेसाहिया चदुहि पदेसेहि जिल्लेविदा विसेसाहिया इच्चादिकमेणाणताणि द्वाणाणि विसेसाहियकमेण गंतूण तदो जहण्णद्वाणं पेविखयूण दुगुण कालकी मुख्यता करनेपर उनके इतने होने में कोई विरोध नहीं आता । अब अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषय में ही दूसरी प्ररूपणाका आरम्भ करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं एक-एक परमाणुको लेकर निर्लेपित * अतीत कालमें जो समयप्रबद्ध अन्तमें शेष रहे हुए हैं वे सबसे थोड़े हैं । ६५४६. अतीत कालमें पूर्वोक्त निर्लेपनस्थानों में जहाँ वहीं निर्लेप्यमान समयबद्ध अन्त में शेष रहे एक-एक परमाणु को लेकर निर्लेपित हुए हैं एक साथ मिलाये हुए वे सब सबसे थोड़े होते हैं, क्योंकि उपरिम भेदोंको प्राप्त समयप्रबद्ध इनसे अधिक देखे जाते हैं । * अतीत कालमें जो समयप्रबद्ध अन्तमें शेष रहे दो-दो परमाणुओं को लेकर निर्लेपित हुए हैं वे विशेष अधिक होते हैं । ६५४७. अतीत काल में अन्त में शेष रहे दो-दो परमाणुओंको लेकर जो समयप्रबद्ध निर्लेपित हुए हैं वे पूर्व समयबद्धोंकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान - अधस्तन भेदकी शलाकाओंके अनन्तवें भागप्रमाण है । शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान - अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण उसका प्रतिभाग है, क्योंकि यहाँ गुणहानिअध्वानके तत्प्रमाण होनेका उपदेश पाया जाता है । * इस प्रकार एक-एक परमाणुकी वृद्धिके क्रमसे अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अनन्त स्थान उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक हैं । ६५४८. इस प्रकार अन्त में तीन-तीन परमाणुओंको लेकर निर्लेपित हुए समयप्रबद्ध विशेष अधिक हैं । अन्तमें चार-चार परमाणुओं को लेकर निर्लेपित हुए समयप्रबद्ध विशेष अधिक हैं इत्यादि क्रमसे अनन्त स्थान एकके बाद एक विशेष अधिक के क्रमसे जाते हुए तत्पश्चात् जघन्य स्थानको Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वडिट्ठाणंतरं तम्हि उद्देसे समुप्पज्जदि ति भणिदं होदि । पुणो वि तत्तो हेटिमद्धाणमैत्तमुवरि गंतूण विदियं दुगुणवडिट्ठाणमुप्पज्जदि । एवमेदेण कमेण असंखेज्जे तु दुगुणवड्डिठ्ठाणेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणेस गदेस तदित्थदगणवडीए चरिमवियप्पे अगतेहि परमाणहि अभवसिद्धि एहितो अणंतगुणसिद्धाणंतभागमेत्तेहि जिल्लेविदाणं समयपबद्धाणं सलागाओ अदीदकालविसयाओ अणंताओ घेतूण तत्थ जवमझट्टाणमुप्पज्जदि ति. इममत्यविसेसं पदुप्पाएमाणों सुत्तमुत्तरं भणइ * ठाणाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागपडिमागे जवमझं । 5 ५४९. एगपरमाणुमादि कादूण जावुक्स्सेणाणता परमाणु त्ति एगादिएगुत्तरकमेण वडिदाणि अणंताणि टाणाणि एस्थत्थि, एगसमयपबद्ध उक्कस्ससेसमेत्ताणं चेव द्वाणाणमेत्य संभवोवलंभादो। उक्कस्ससेसयं पुण एगसमयपबद्धस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं होइ। पुणो एत्तियमेत्ताणं समयपबद्धसेसटाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमज्झटाणमुप्पज्जदि, तप्पाओग्गपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण सयलट्ठाणद्धाणे ओट्टिदे तत्थ भागलद्धमत्ताणं ठाणाणं चरिमवियप्पे जवमज्झसमुप्पत्तिदसणादो। पुणो जवमझादो उवरि विसेसहाणीए अणंताणि टाणाणि गंतूण दुगुणहाणी होइ । एवं णेदवं जाव हेट्ठिमद्धाणादो असंखेज्जगुणमद्धाणमुवरि गंतूण चरिमवियप्पो उक्कस्ससमयपबद्धसेसपडिबद्धो समुप्पण्णो ति। एवेण जवमज्झादो हेटिमद्धाणं सयलढाणाणमसंखेज्जदिभागो उपरिमद्धाणमसंखेज्जा भागा त्ति जाणाविदं होदि । देखते हुए उस स्थानमें द्विगुण वृद्धिस्थानान्तर उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । फिर भी उससे अधस्तन स्थानोंका जितना प्रमाण है उतने स्थान ऊपर जाकर दूसरा द्विगुणवृद्धिप्रमाणस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात द्विगुणवृद्धिस्थानोंके जानेपर वहांके द्विगुणवृद्धिस्थानके अन्तिम भेदमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त परमाणुओंको लेकर निर्लेपित हुए समयप्रबद्धोंकी अतीत कालविषयक अनन्त शलाकाओंको ग्रहण कर वहां यवमध्यस्थान उत्पन्न होता है इस प्रकार इस अर्थविशेषका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * स्थानोंके असंख्यातवें भागके प्रतिभागमें यवमध्य होता है। ६.५४९. एक परमाणुसे लेकर उत्कृष्टसे अनन्त परमाणुओंके प्राप्त होने तक एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए अनन्त स्थान यहां होते हैं, क्योंकि एक समयप्रबद्धके उत्कृष्ट शेषप्रमाण ही स्थान यहाँ सम्भवरूपसे उपलब्ध होते हैं। परन्तु उत्कृष्ट शेष एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । पुनः इतने समयप्रबद्धशेष स्थानोंके असंख्यात भागमें यवमध्यस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागसे समस्त स्थानोंके आयामको भाजित करनेपर वहां लब्ध एक भागप्रमाण स्थानोंके अन्तिम भेदमें यवमध्य उत्पन्न होता है । पुनः यवमध्यसे ऊपर ( आगे ) विशेष हानिवश अनन्त स्थान जाकर द्विगुणहानि होती है। इस प्रकार अधस्तन आयामसे असंख्यातगुणे आयाम ऊपर ( आगे) जाकर उत्कृष्ट समयप्रबशेषसम्बन्धी अन्तिम भेद उत्पन्न होता है । इस प्रकार इस कारणसे यवमध्यसे अधस्तन (पूर्वका ) आयाम समस्त स्थानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और उपरिम ( आगेका) आयाम असंख्यात बहुभागप्रमाण होता है यह ज्ञान कराया गया है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अण्णा परूवणा २१७ * णाणंतरं थोवं। ६५५०. जवमझादो हेटिमोवरिमसयलणाणागुणहाणिसलागाओ मिलिदूण थोवाओ ति वुत्तं होइ। तासि च पमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ति उवरि सुत्तयारो सयमेव भणिहिदि । तदो सिद्धमेवासिं गाणंतरसलागाणं थोवत्तमिदि । * एगंतरमणंतगुणं । ६५५१. एयगुणहाणिटाणंतरमणतगुणमिदि वृत्तं होइ। पुवुत्तणाणागुणहाणिसलागाहिं सयलट्ठाणद्धाणे ओट्टिदे अणंतसंखावच्छिण्णपमाणमेयगुणहाणिअद्धाणमुप्पज्जदि तम्हा तत्तो एवस्साणंतगुणत्तमसंविद्धं सिद्धं । संपहि एत्थ णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणविसये पिण्णयुप्पायण?मुवरिमसुत्तमाह * अंतराणि अंतरविदाए पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिमागो। ५५२. अंतराणि णाणागुणहाणिणाणंतराणि ति वुत्तं होइ । अंतरटुदाए एगेगगुणहाणि. णाणंतरणिमित्तं ठविदसलागाओ ति तेसि चेव सरूवणि सो कदो बदुव्वो। पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जविभागो' एदेण सुत्तावयवेण तेसि पमाणपरिच्छेदो कदो दटुव्यो, पलिवोवमद्धच्छेदणयसलागाणं पि असंखेज्जविभागमेतण मुत्तकंठमेव तासि पमाणावहारणादो तासि पमाणावच्छेददंस जादो । जदो एवमेदामो पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिभागो। तदो एदाहितो एयगुगहाणि. ॐ यहाँ इन स्थानोंको नाना गुणहानिशलाकाएँ सबसे थोड़ी होती हैं। ६५५०. नानान्तर अर्थात् यवमध्यसे अघस्तन और उपरिम स्थानोंकी समस्त नाना गुणहानिशलाकाएं मिलकर थोड़ी होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं यह बात आगे सूत्रकार स्वयं ही कहेंगे, इसलिए इन नानान्तर शलाकाओंका स्तोकपना सिद्ध हो जाता है। * उनसे एकान्तर अर्थात् एक गुणहानिस्थान अनन्तगुणा है। ६५५१. एक गुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पूर्वोक्त नाना गुणहानिशलाकाओंसे समस्त स्थानोंके आयामके भाजित करनेपर अनन्त संख्यासे युक्त प्रमाणवाला एक गुणहानिस्थान उत्पन्न होता है, इसलिए यहाँपर नाना गुणहानि शलाकाओंके प्रमाणके विषय में निर्णय उत्पन्न करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं * 'अन्तर' अर्थात् एक-एक गुणहानिस्थानान्तरके निमित्त स्थापित शलाकारूप 'अन्तराणि' अर्थात् नानागुणहानिस्थानान्तर पल्योपमसम्बन्धी अधच्छेदोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६५५२. 'अंतराणि' पदसे नाना गुणहानिस्थानान्तर लिये गये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'अंतरट्टिदाए' पदसे एक-एक गुणहानिस्थानान्तरके निमित्त स्थापित की गयो शलाकाएं की गयी हैं। इस प्रकार उक्त कथन द्वारा उन्हींके स्वरूपका निर्देश किया गया जानना चाहिए। 'पलिदोवमच्छेदणाणं असंखेज्जदिभागो' इस सूत्रवचन द्वारा उन्होंके प्रमाणका निर्णय किया गया जानना चाहिए, क्योंकि पल्योपमके अर्धच्छेदशलाकाओंके भी असंख्यातवें भाग द्वारा मुक्तकण्ठरुपसे उन्हींके प्रमाणका अवधारण किया गया है अर्थात् उन्हींके प्रमाण निर्णय देखा जाता है। २८ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ट्ठाणंतरमणंतगुणमिदि ण एत्थ को वि वामोहो कायव्वोत्ति पुश्वुत्तमेवत्थमुवसंहारमुहेण पल्वेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * णाणंतराणि थोवाणि । एकंतरमणंतगुणं । ६५५३. गयत्थमेदं सुत्तं । एवं भवपबद्धसेसयाणं पि पयदजवमज्झपरूवणा गिरवयवमणुगंतव्वा, विसेसाभावादो। एवमेदं परूविय पुणो भवसिद्धियपाओग्गे अभवसिद्धियपाओग्गविसये च साहारणभूदं परूवणंतरमाढवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ- * खवगस्स वा अक्खवगस्स या समयपबद्धाणं वा भवबद्धाणं वा अणुसमयजिल्लेवणकालो एगसमइओ बहुगो। ६५५४. अणुषमयणिल्लेवणकालो णाम समयपबद्धाणं वा भवपबद्धाणं वा णिरंतरणिल्लेवणकालो। सो वुण जहणेण एगसमयमेत्तो होदि, दोसु वि फासेसु पिल्लेवणट्ठिदीणमुदयो होदूण मज्झे एगसमयं चेव भवसमय-पबद्धणिल्लेवणट्रिदिवेदगभावेण परिणममाणस्स तदुवलंभादो। एवं दुसमइय. तिसमइयादिकमेण अणुसमयणिल्लेवणकालोअणुगंतव्वो जावुक्कस्सेणावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो अणुसमयणिल्लेवणकालो समुवलद्धो त्ति, खवगसेढीए संसारावत्याए वा एत्तो अहिययराणुसमय. जिल्लेवणकालस्साणुवलंभादो। एवमेदे अणुसमयणिल्लेवणकालवियप्पे जहण्णकालप्पहुडि जावुक्कस्सकालो त्ति समयुत्तरकमेण ठवेदूण एत्थ अणुसमयणिल्लेवण कालो 'एगसममो बहुओ त्ति' वुत्ते यतः इस प्रकार ये पल्योपमके अर्धच्छेदोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए इनसे एक गुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है इस प्रकार इस विषयमें किसी प्रकारका भी व्यामोह नहीं करना चाहिए । अब पूर्वोक्त अर्थको ही उपसंहार द्वारा प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * 'गाणंतराणि' अर्थात् नाना गुणहानिस्थानान्तर सबसे थोड़े हैं। तथा उनसे 'एकांतर' अर्थात् एक गुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है। ६५५३. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार भवबद्धशेषोंकी भी प्रकृत यवमध्यप्ररूपणा समग्ररूपसे करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार इतना प्ररूपण करके पुनः भवसिद्धिक जीवोंके योग्य और अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें साधनभूत दूसरी प्ररूपणाको आरम्भ करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * क्षपकके अथवा अक्षपकके समयप्रबद्धोंका अथवा भवबद्धोंका एक समयसम्बन्धी अनुसमय निर्लेपनकाल बहुत है। ६५१४. समयप्रबद्धोंका अथवा भवबद्धोंका जो निरन्तर होनेवाला निर्लेपनकाल है वह जघन्यसे एक समयप्रमाण होता है, क्योंकि दोनों ही पार्श्वभागोंमें निलेपनरूप स्थितियोंका उदय होकर मध्य में एक समय तक ही भवबद्ध और समयप्रबद्धनिर्लेपन स्थितिरूपसे परिणमन करनेवालेका वह काल पाया जाता है। इसी प्रकार दो समयवाले और तीन समयवालेके क्रमसे प्रत्येक समयमें निर्लेपनकाल तबतक जानना चाहिए जब जाकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिसमय निर्लेपनकाल उपलब्ध होता है इस प्रकार क्षपकश्रेणिमें अथवा संसार अवस्थामें इससे अधिकतर प्रतिसमय निर्लेपनकाल उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार इन निर्लेपनकालके भेदोंको जघन्य कालसे लेकर उत्कृष्ट कालके प्राप्त होने तक एक-एक अधिक समय के क्रमसे स्थापित करके Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अण्णा परूवणा २१९ अक्खवगस्स ताव अदीदे काले दोसु वि फासेसु अणिल्लेवणद्विवीणमुदओ होदूण पुणो तासि मज्झे एगा पिल्लेवटिदी होदूण उदयं लहदि । एवंविहणिल्लेवाटुंदीणमुदयकालस्स अदीदे काले सव्वत्थ गहिदसलागाओ अणंताओ होदूण उवरिमवियप्पपडिबद्धसलागाहिंतो बहुगोओ जादाओ। एवं खवगस्स वि वत्तव्वं । णवरि जाणाजीवावेक्खाए एस कालो घेत्तव्यो। एगजीवावेक्खाए वि एस कालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो होदूण सव्वबहुगो होदि त्ति घेत्तव्वं । * दुसमइओ विसेसहीणो। ६५५५. 'खवगस्स वा अक्खवगस्स वा अणुसमयणिल्लेवणकालो' ति पुश्वसत्तावो अणुवट्टदे। तेणेवमेत्थ सुत्तत्थसंबंधो कायव्वो-खवगस्स वा अक्खवगस्स वा भवबद्धाणं वा समयपबद्धाणं वा अणुसमयणिल्लेवणकालो दुसमइओ पुवुत्तकालं पेक्खियूण विसेसहीणो होदि त्ति । किं कारणं? दो-दोणिल्लेवणट्टिदोणमंतरिदसरूवेण संजोगो अदोवदुल्लहो होइ तेण पुग्विल्ल. कालादो एसो कालो विसेसहीणो जादो। एत्य विसेसहीणपमाणं हेट्टिमरासिस्सासंखेज्जदिभागो। तस्स पडिभागो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एत्थ वि पुत्वं व खवगस्त अदीदकालविसये णाणाजीवप्पणाए एसो कालो अणंतो घेत्तवो। एगजीवप्पण्णाए आवलियाए असंखेज्जदिभागपमाणो त्ति वत्तव्वं । उवरिमपदेसु वि एसो अत्थो सम्वत्थ जोजेयम्वो। यहापर अनुसमयसम्बन्धी निलेपनकाल ‘एक समयसम्बन्धी बहुत है' ऐसा कहनेपर अक्षपकके तो अतीत कालमें दोनों ही पाश्वभागोंमें अनिर्लेपनरूप स्थितियोंका उदय होकर पुनः उनके मध्य में एक निर्लेपन स्थिति होकर उदयको प्राप्त होती है । इस प्रकार निर्लेपनरूप स्थितियोंके उदयकालकी अतीत कालमें सर्वत्र ग्रहण की गयो शलाकाएं अनन्त होकर उपरिम भेदसे सम्बन्ध रखनेवाली शलाकाओंसे बहुत हो जाती हैं । इस प्रकार क्षपकके भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह काल नाना जीवोंकी अपेक्षा ग्रहण करना चाहिए। एक जीवको अपेक्षा भी यह काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर सबसे अधिक होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। के दो समयवाला अनुसमय निर्लेपनकाल विशेष हीन है। ६५५५. क्षपकके अथवा अक्षपकके समयप्रबद्धोंका अथवा भवबद्धोंका 'अनुसमयवाला निर्लेपनकाल' इसकी पिछले सूत्रसे अनुवृत्ति होती है, इसलिए यहांपर उस पदके साथ सूत्रके अर्थका सम्बन्ध कर लेना चाहिए-क्षपकके अथवा अक्षपकके भवबद्धोंका अथवा समयप्रबद्धोंका अनुसमय निर्लेपनकाल दो समयवाला पूर्वोक्त कालको देखते हुए विशेष हीन होता है। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि दो-दो निलेपन स्थितियोंका अन्तरितरूपसे संयोग अतीव दुर्लभ है। इसलिए पूर्वके कालसे यह काल विशेष हीन हो जाता है । यहाँपर विशेष हीनका प्रमाण अधस्तन राशिका असंख्यातवा भाग है और उसका प्रतिभाग आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहांपर भी पहलेके समान क्षपकके अतीत कालमें नाना जीवोंको मुख्यतासे यह काल अनन्त ग्रहण करना चाहिए। तथा एक जीवको मुख्यतासे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा कहना चाहिए। आगेके पदोंमें भी यह सर्वत्र योजित कर लेना चाहिए। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिये कसायपाहुडे * एवं गंतून आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणहीणो । ५५६. एवं तिसमइय-चदुसमइयादीणं पि अणुसमय णिल्लवणकालाणं विसेसहीणभावो दो जाव आवलियाए असंखेज्जभागमेत्तआवलियाए असंखेज्जदिभागिओ अणुसमयणिल्लेवणकालो एगसमइयणिल्लेवणकालादो दुगुणहीणो जादो त्ति । एदमेगं गुणहाणिअद्धाणमेत्तो । उवरि पुणो विविसेसहीणकमेण णेदव्वं जाव आवलियाए असंखेज्ज विभागमेत्तसव्वुक्कस्साणुसमयणिल्लेवणकालो त्ति । एत्थावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ गुणहाणोओ होंति त्ति घेत्तब्वं । संपहि एत्थतणचरिम वियप्पपडिबद्धो उक्कस्सओ अणुसमयणिल्लेवणकालो खवगाखवगेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो चेव; ण तत्तो अन्भहियपमाणो त्ति एदस्स अत्यविसेसस्स फुडीकरणट्टमुसरसुत्तावयारो * उक्कस्सओ वि अणुसमयणिक्लेवणकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागो । २२० $ ५५७. खवगस्स वा अक्खवगस्स वा भव-समयपबद्ध णिल्लेवणद्विदीणमुदयकालो निरंतरसरूवेण लब्भमाणो उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेसो चेव होदि त्ति वृत्तं होइ । एत्थ सव्वत्य 'अणुसमयणिल्लेवणकालो' त्ति वृत्ते भव-समयपबद्धसेसाणं चेव सुद्धाणमुदयकालो त्तिण घेत्तवं तहाविहसंभवाणुवलंभावो । किंतु तत्थ केत्तियाणं पि भव-समयपबद्धाणं णिल्लेवणसंभवं पेविखयूण मिस्सोदयकालस्स वि अणुसममणिल्लेवणकालत्तमेत्थ परूविवमिदि बट्टव्यं । एवं च सुतं सामासयं, तेण अणुसमयणिल्लेवणकालं वि घेत्तूण पयदप्पाबहुआणुगमो समया * इस प्रकार विशेष हीनके क्रमसे जाकर अनुसमय निर्लेपनकाल आवलिके असंख्यात में भाग में द्विगुण हीन होता है। $ ५५६. इस प्रकार तीन समयवाले, चार समयवाले आदि भी अनुसमय निर्लेपन कालोंका उत्तरोत्तर विशेष होनपना तबतक ले जाना चाहिए जब जाकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागिक अनुसमय निर्लेपनकाल एकसमयके निर्लेपनकालसे द्विगुण हीन हो जाता है । इस प्रकार यह एक गुणहानिस्थान मात्र होता है। आगे फिर भी विशेष होन के क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सबसे उत्कृष्ट अनुसमय निर्लेपनकालके प्राप्त होनेतक ले जाना चाहिए। यहां पर मालिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणहानियाँ होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब यहाँ सम्बन्धी अन्तिम विकल्पसे सम्बन्ध रखनेवाला अनुसमय निर्लेपनकाल क्षपक और अक्षपक दोनों में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हो होता है उससे अधिक प्रमाणवाला नहीं । इस प्रकार इस अर्थविशेषको स्पष्ट करनेके लिए आगे के सूत्रका अवतार हुआ है * उत्कृष्ट भी अनुसमय निर्लेपनकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। $ ५५७. क्षपकके अथवा अक्षपक के भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी निर्लेपन स्थितियोंका उदयकाल निरन्तररूप से प्राप्त होता हुआ उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है यह इस कथनका तात्पर्य है । यहाँपर सर्वत्र 'अनुसमय निर्लेपनकाल' ऐसा कहनेपर केवल भवबद्धों का और केवल समयप्रबद्धों का उदयकाल ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उस प्रकार वह सम्भव नहीं पाया जाता । किन्तु वहाँपर कितने हो भवबद्धों और समयप्रबद्धों के निर्लेपनका सम्भव देखकर मिश्र उदयकालका भी अनुसमय निर्लेपन कालपना यहाँपर कहा गया है ऐसा जानना चाहिए । अतः यह सूत्र देशामर्षक है इस कारण अनुसमय निर्लेपनकालको भी ग्रहणकर समयके Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगरे ढोए अण्णा २२१ विरोहेणाणुगंतव्वो। संपहि एगादिएर तरकमेण परिषड्दिाहिं अणिल्लेवणट्ठिदीहिं अंतरिदाणं पिल्लेवदिदीणमुदयेण पिल्लेविदपुव्वाणं भव-समयपबद्धाणमदीदकालविसये थोवबहुत्तमक्खवगसंबंधेण पल्वेमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ __* अक्खवगस्स एगसमइयेण अंतरेण णिल्लेविदा समयपबद्धा वा भवबद्धा वा थोवा। ६५५८. एदस्सत्थो वुच्चदे-अक्खवगस्स अदीदे काले णाणाकम्मढिदिअभंतरे वा एगकम्मदिदिअभंतरे वा दोसु वि पासेसु एगेगअपिल्लेवणदिदि-अंतरं होदूण पुणो तासि मज्झे जेत्तियाओ भवसमयपबद्धाणं णिल्लेवद्विदीओ उदयमागदाओ अस्थि तासु लद्धसमयपबद्धाणं भवबद्धाणं च तत्थेव णिल्लेविवसहवाणं सम्वत्थ उच्चिणिदूण गाहिदसलागाओ अणंताओ असंखेज्जाबो च होदूण सव्वत्थोवाओ भवंति; उवरिमवियप्पपडिबद्धभव-समयपबद्धसलागाणमेत्तो जहाकम बहुत्त सणादो। * दुसमएण अंतरेण णिन्लेविदा विसेसाहिया । ६५५९. दोसु वि पासेसु दो-होमणिल्लेवणट्ठिदोओ होदूण पुणो तासि मज्झे केत्तियाओ वि भव-समयपबद्धणिल्लेवणहिदीओ उदयं कादूण गदाओ अवीवकालप्पणाए अणंताओ अस्थि । कम्मट्ठिविविवक्खाए च असंखेज्जाओ। पुणो तासु पिल्लेविदसमयपबद्धाणं भवबद्धाणं च गहिदसलागाओ हेट्ठिमवियप्पसलागाहितो विसेसाहियाओ होति ति सुत्तत्थसंबंधो। विसेसपमाणमेंत्थ अविरोधपूर्वक प्रकृत अल्पबहुत्वका अनुगम जानना चाहिए। अब एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे परिवर्धित अनिलेपन स्थितियोंसे अन्तरित निलेपन स्थितियोंका उदयसे निर्लेपितपूर्व भवबद्ध और समयप्रबद्धोंके अतीत कालसम्बन्धी अल्पबहुत्वको अक्षपकके सम्बन्धसे प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * अक्षपकके एक समयिक अन्तरसे निलेपित समयप्रबद्ध अथवा भवबद्ध सबसे थोड़े हैं। ६५५८. अक्षपत्र के अतीत कालमें नाना कर्मस्थितियोंके भीतर अथवा एक कर्मस्थितिके भीतर दोनों ही पाश्वंभागोंमें एक-एक अनिर्लेपनरूप स्थितिका अन्तर होकर पुनः उनके मध्यमें जितनी भवबद्धों और समयप्रबद्धोंकी निर्लेपनस्थितियां उदयको प्राप्त हुई हैं उनमें वहीं निर्लेपित स्वरूप प्राप्त हुए समयप्रबद्धों और भवबद्धोंकी सर्वत्र मिलाकर ग्रहण की गयी शलाकाएं अनन्त और असंख्यात होकर सबसे थोड़ी होती हैं, क्योंकि उपरिम विकल्पोंसम्बन्धी भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी शलाकाएं आगे-आगे क्रमसे बहुत देखी जाती हैं। * वो समयिक अन्तरसे निर्लेपित समयप्रबद्ध और भवबद्ध विशेष अधिक होते हैं। ६५५९. दोनों ही पार्श्वभागोंमें दो-दो अनिर्लेपनरूप स्थितियां होकर पुनः उनके मध्य में कितनी ही भवसिद्ध और समयप्रबद्धसिद्ध निलेपन स्थितियां उदयको प्राप्त होकर अतीत कालकी मुख्यतामें अनन्त होती हैं और कर्मस्थितिकी मुख्यतामें असंख्यात होती हैं। पुनः उनमें जिनका निर्लेपन हो गया है ऐसे समय प्रबद्धों और भवबद्धोंकी ग्रहणकी गयी शगकाएँ अधस्तन भेदोंकी शलाकाओंसे विशेष अधिक होती हैं यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर विशेषका प्रमाण अधस्तन शलाकाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे हेटिमसलागाणमसंखेज्जदिभागो। तस्स को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एत्थ. तणगुणहाणिअद्धाणस्स तप्पमाणत्तोवएसादो। एवं तिसमयेण अंतरेण णिल्लेविदा विसेसाहिया, चदुसमइयणिल्लेविदा विसेसाहिया, इच्चादिकमेण गंतूण तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणे दुगुणवड्डी होदि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागे दुगुणा । ६५६०. पुवुत्तभागहारमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण तदित्थवियप्पसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तणंतरेण पिल्लेविज्जमाणाणं भवसमयपबद्धाणमदोदकालप्पणाए अणंताओ कम्मट्टिदिविवक्खाए च असंखेज्जपमाणाओ होदूण दुगुणवडिदाओ वटव्वाओ त्ति वुत्तं होइ । एवमेगं दुगुणवडिअद्धाणं। एवंविहेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तेसु दुगुणवड्डिअद्धाणेसु गदेसु तत्थ सयलद्धाणस्स असंखेज्जदिभागे पयदवियप्पसलागाहिं जवमज्झमुप्पज्जदि ति इममत्यविसेसं जाणवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * हाणाणमसंखज्जदिमागे जवमझं । ६५६१. एत्थतणसयलढाणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि एगादिएगुत्तर. कमेण परिवडिदाणमणिल्लेविटिदिसलागाणं तत्तो अहिययराणमणुवलंभादो। एवंविहस्स सयल शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान–पल्योपमका असंख्यातवा भाग प्रतिभाग है, क्योंकि यहाँका गुणहानिअध्वान तत्प्रमाण है ऐसा आगमका उपदेश है। इसी प्रकार तीन-तीन समयके अन्तरसे निर्लेपित वे विशेष अधिक हैं, चार-चार समयके अन्तरसे निलंपित वे विशेष अधिक हैं इत्यादि क्रमसे जाकर उसके बाद पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके प्राप्त होनेपर द्विगुण वृद्धि होती है। इस प्रकार इसका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * इस प्रकार विशेष अधिकके क्रममे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर वहाँ उनका प्रमाण दूना होता है। ५६०. पूर्वोक्त भागहारप्रमाण स्थान ऊपर क्रमसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरसे निलेप्यमान भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी वहां प्राप्त हुई शलाकाएं अतीत कालकी मुख्यतासे अनन्त और कर्मस्थितिकी विवक्षामें असंख्यातप्रमाण होकर दूनी वृद्धिको प्राप्त हुई जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह एक दूना वृद्धिरूप स्थान है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके व्यतीत होनेपर वहाँ समस्त स्थानोंके असंख्यातवें भागमें प्रकृत भेदरूप शलाकाओंके आश्रयसे यवमध्य उत्पन्न होता है इस प्रकार इस अर्थविशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ॐ यहाँ जितने द्विगुण वृद्धिरूप स्थान प्राप्त होते हैं उनके असंख्यातवें भागमें यवमध्य होता है। ६५६१. यहाँ समस्त स्थान पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं क्योंकि एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे परिवर्धित अनिर्लेपित स्थितिसम्बन्धी शलाकाएं उनसे अधिक नहीं पाई Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ खवगसेढोए अण्ण परूवणा द्धाणस्स असंखेज्जविभागमेत्तद्धाणे तप्पाओग्गपलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्ततरवियप्पेण अंतरिदाणं ठिदीणमुदयेण पिल्लेविदपुव्वाणं भवसमयपबद्धाणं सलागाओ पुग्वं व अणंताओ असंखेज्जाओ च होदूण जवमझभावेण समुप्पण्णाओ वटव्वाओ ति सुत्तत्थसंबंधो। एतो उवरिमेसु सयलट्ठाणद्धाणस्स असंखेज्जेसु भागेसु विसेसहाणोए असंखेज्जाओ गुणहाणीओ गंतूण सव्वुक्कस्सपिल्लेवणंतरेण णिल्लेविदाणं भव-समयपबद्धाणं सलागाओ अणंताओ असंखेज्जाओ च घेतूण एस्थतणचरिमवियप्पो होदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमस्स असंखेंज्जदिभागो। एयगुणहाणिट्ठाणंतरं पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। गवरि णाणागुणहाणि. सलागाहिंतो एयगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । संपहि एत्थतणचरिमवियप्पस्स फुडीकरणट्टमुत्तरसत्तावयारो * उक्कस्सयं पि पिल्लेवणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो। ६५६२, कुवो? एत्तो अमहियाणमणिल्लेवट्टिदोणं णिरंतरसरूवेण सव्वत्यमणुवलंभादो। एवं पि सुत्तं देसामासयं तेण पिल्लेवणदिदीहि मि एगादिएगुत्तरकमेण अंतरिदाणमणिल्लेवद्विदीणं भव-समयपबद्धसलागाहिं पयवजवमझपरूवणाविसेससंभवं जाणिय कायव्वो। जहा एसो अत्थो अक्खवगस्स मागदो तहा चेव खवगस्स वि मग्गियव्वो। णवरि तत्थ उक्कस्सयं पि पिल्लेवणंतरमावलियाएं असंखेज्जदिभागो । एवमेदं समागिय संपहि एगसमएण णिल्लेविज जमाणाणं संभवसमयपबद्धाणं पमाणावहारणमुवरिमं सत्तपबंधमाह AN जातीं। अतः इस प्रकारके समस्त स्थानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानमें तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरसम्बन्धी भेदोंसे अन्तरित स्थितियोंके उदयसे निर्लेपित पूर्व भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी शलाकाए पहलेके समान अनन्त और असंख्यात होकर यवमध्यरूपसे उत्पन्न हुई जाननी चाहिए। यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। आगे इससे उपरिम स्थानके असंख्यात बहुभागप्रमाण स्थानों में विशेषहानि द्वारा असंख्यात गुणहानियां जाकर सबसे उत्कृष्ट निर्लेपनके अन्तरसे निर्लेपित भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी अनन्त और असंख्यात स्थानोंको ग्रहण करके यहाँका अन्तिम भेद उत्पन्न होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँपर नाना गुणहानि शलाकाएं पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा एक गुणहानि स्थानान्तर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अब यहां अन्तिम विकल्पको स्पष्ट करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं * उत्कृष्ट भी निर्लेपनरूप स्थितिका अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। ६५६२. क्योंकि इससे अधिक अनिलंपित स्थितियां निरन्तर सर्वत्र उपलब्ध नहीं होती हैं। यह सत्र भी देशामर्षक है, इसलिए निर्लेपनरूप स्थितियोंसे एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे अन्तरित अनिलेपनरूप स्थितियोंकी भवबद्ध और समयप्रबद्ध शलाकाओंके द्वारा प्रकृत यवमध्य प्ररूपणाविशेष सम्भव जानकर करना चाहिए । यहाँ जिस प्रकार यह अर्थे अक्षपककी अपेक्षा कहा है उसी प्रकार क्षपकको अपेक्षा भी जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वहां पर उत्कृष्ट भी निर्लेपन अन्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इस प्रकार इस कथनको समाप्त करके अब एक समयके द्वारा निर्लेप्यमान सम्भव समयप्रबद्धोंके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * एक्केण समयेण णिल्लेविज्जति समयपबद्धा वा भवबद्धा वा एक्को वा, दो वा तिणि वा; उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । २२४ ९५६३. एगा दिए गुत्तरपरिवड्डीए गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता चैव समयपबद्धा भवबद्धा च एगसमएणणिल्ले विज्जमाणा होंति, णादिरित्ता त्ति भणिदं हे इ । एसा च परूवणा खवगस्स अक्खवगस्स च साहारणभूदा दट्ठव्वा, उभयत्थ वि उक्कस्सेण पलियोंवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं भवसमयपबद्धाणमेगसमयेण णिल्लेवण संभवं पडि विसेसाभावादो । * एदेण वि जवमन्झं । ५६४. एदेण वि अनंतरसुत्तणिद्दिद्वेण अत्यविसेसेण परिच्छिष्णसरुवाणमेयमेगादिएगुत्तरकमेण एगसमयेण णिल्ले विज्जमाणाणं भवसमयपबद्धाणमवोदकालमस्तियूण जवमज्झपरूवणा कायध्वा त्ति भणिदं होइ । संपहि जइ वि एवस्स जवमज्झस्स परूवणा सुगमा तो वि मंदबुद्धिसोवारजणाणुग्गह तव्विवरणं कुणमाणो चुष्णिसुत्तयारो उवरिमं विहासा गंथमाढवे * एक्क्केण पिल्ले विज्जति ते थोवा । ५६५. एवं भणिदे अदीवे काले जे एगेगसमयपबद्धा भवबद्धा च होदूण णिल्लेविवा सिमदीदे काले सम्वत्थ उच्विणिण गहिदसलागाओ अनंतसंखावच्छिण्णाओ होदूण उवरिमविपपडिबद्धसलागाहतो थोवाओ ति वृत्तं होइ । * जो समयबद्ध या भवबद्ध एक समय द्वारा निर्लेपित किये जाते हैं वे एक होते हैं, अथवा दो होते हैं अथवा तीन होते हैं। इस प्रकार क्रमसे जाकर उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । $ ५६३. एकसे लेकर एक-एक अधिक परिवर्धित क्रमसे जाकर एक समय द्वारा निर्लेप्यमान समयप्रबद्ध और भवबद्ध उत्कृष्टसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं, इनसे अधिक नहीं होते यह उक्त कथनका तात्पर्य है । किन्तु यह प्ररूपणा क्षपक और अक्षपक के समानरूपसे जाननी चाहिए, क्योंकि दोनों ही स्थानोंपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भवबद्ध और समयप्रबद्धोंका निर्लेपन सम्भव होनेके प्रति विशेषताका अभाव है । * इस अर्थविशेषके अनुसार भी यवमध्य होता है । ६५६४. 'एदेण वि' अर्थात् इस अनन्तर सूत्र निर्दिष्ट अर्थविशेषके अनुसार भी एकसे लेकर एक-एक अधिक के क्रमसे परिच्छिन्न स्वरूप निर्लेप्यमान इन भवबद्ध और समयप्रबद्धोंकी अतीतकाल के आश्रय से यवमध्य प्ररूपणा करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब यद्यपि इस यवमध्यकी प्ररूपणा सुगम है, तो भो मन्दबुद्धि श्रोताओंके अनुगृहके लिए उसका विवरण करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगे विभाषाग्रन्थका आरम्भ करते हैं * जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध एक-एक करके निर्लेपित किये गये हैं वे सबसे थोड़े हैं। १६५. ऐसा कहनेपर अतीत कालमें जो एक-एक समयप्रबद्ध और भवबद्ध निर्लेपित कि गये हैं उनकी अतीत कालमें सर्वत्र एकत्रित करके ग्रहण की गयी शलाकाएं अनन्त संख्यारूप होकर आगे के भेदोंसे सम्बन्ध रखनेवाली शलाकाओं की अपेक्षा थोड़ी होती हैं । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अण्णा परूवणा २२५ * दोणि णिन्लेविन्जंति विसेसाहिया । ५६६. जे दो-दो समयपबद्धा भवबद्धा वा एगसमएण णिल्लेविदा ति अदीदकाले सव्वत्थ जहासंभवमुच्चिणिदूण गहिदा पुविल्लेहितो विसेसाहिया त्ति वुत्तं होइ । विसेसपमाणमत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागियं, एत्थतणगुणहाणिअद्धाणस्स तप्पमाणत्तादो। * तिणि पिल्लेविज्जति विसेसाहिया । 5५६७. जे तिण्णि-तिणि णिल्लेविदा भवबद्धा समयपबद्धा वा ते अदीदकाले सम्वत्थ समुच्चिवसरूवा अणंतरहेट्ठिमवियप्पसलागाहितो विसेसाहिया त्ति भणिदं होइ । - * एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागे दुगुणा । ६५६८. एवमट्टिदेगेगविसंसपडिवडोएं गंतूण पलिदोवमरस असंखेज्जविभागमेत्तद्धाणे दुगुणवड्डी समुप्पज्जदि त्ति वुत्तं होइ। एवं दुगुणवडिवा दुगुणवड्डिदा जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतीओ दुगुणवडीओ गंतूर्ण तदित्यवियप्पे जवमझ समुप्पण्णं ति तत्तो उवरि विसेसहीणकमेण असंखेज्जाओ गुणहाणोओ गंतूण सव्वुक्कस्सपलिदोवमासंखेजभागमेत्त. भवसमयपबद्धसलागाओ घेत्तूण पयदजवमझपख्वणाए चरिमवियप्पो होइ। एत्थ जवमझहेट्रिमसयलद्धाणादो उवरिमसयलद्धाणमसंखेज्जगुणं, हेटिमदगुणवडिसलागाहितो उवरिमदुगुण * जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध दो-दो करके निर्लेपित किये गये हैं वे विशेष अधिक होते हैं। ६५६६. जो दो-दो समयप्रबद्ध या भवबद्ध निर्लेपित किये गये हैं वे अतीतकालमें सर्वत्र यथासम्भव एकत्रित करके ग्रहण किये गये पहलेकी अपेक्षा विशेष अधिक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर विशेष भाग पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभाग प्रमाण है, क्योंकि यहाँका गुणहानि अध्वान तत्प्रमाण है। जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध तीन-तीन करके निलंपित किये गये हैं वे विशेष अधिक होते हैं। १५६७. जो भवबद्ध या समयपबद्ध तीन-तीन निर्लेपित किये गये हैं वे अतीत काल में सर्वत्र एकत्रित किये गये अनन्तर अधस्तन भेदोंकी शलाकाओंसे विशेष अधिक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * इस प्रकार एक-एक अधिकके क्रमसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागमें वे दूने हो गये हैं। १५६८. इस प्रकार अवस्थित एक-एक विशेषको परिवृद्धिसे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानके प्राप्त होनेपर दूनी वृद्धि उत्पन्न होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार द्विगुणवृद्धि-द्विगुणवृद्धि होती हुई पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां जाकर वहां प्राप्त हुए विकल्पमें यवमध्य उत्पन्न होता है। पुनः उससे आगे विशेषहीनके क्रमसे असंख्यात द्विगुणहानियां जाकर सबसे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भवबद्ध और समयप्रबद्ध शलाकाओंको ग्रहण कर प्रकृत यवमध्य प्ररूपणामें अन्तिम विकल्प होता है। यहाँपर यवमध्यके अधस्तन समस्त अध्वानसे उपरिम पूरा अध्वान असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि अषस्तन द्विगुण१. ता. आ. प्रत्योः -पडिवत्तीए । २९ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जयधवलासहिदे कसायपाहू हाणिस लागाओ असंखेज्जगुणाओ त्ति एसो सम्वो वि अत्थविसेसो सुत्तणिलीणो वक्खाणेयव्वो । संपहि एत्थतणणाणा गुणहाणिस लागाणमेय गुणहाणिट्टानंतरस्स च पमाणावहारणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * णाणंतराणि थोवाणि । ६ ५६९. एत्थतणणाणागुणहाणिस लागाओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तीओ होटूण थोवाओ त्ति वृत्तं होइ । * एक्कंतरछेदणाणि वि असंखेज्जगुणाणि । ५७०. एगगुणहाणिट्ठाणंतरस्स अद्धच्छेदणयसलागाओ वि पुग्विल्लणाणागुणहाणिसलागाहितो असंखेज्जगुणाओ, तेणेयगुणहाणिद्वाणंतरं नियमा असंखेज्जगुणं होदि त्ति एसो एक्स सुत्तस्स भावत्यो । एदं च एयगुणहाणिद्वाणंतरं पलिदोवमपढमवग्गमूलस्सासंखेज्ज विभागमेत्तमेवेति णिच्छेयव्वं एत्थतणसयलद्वाणाणं पलिदोवम पढमवग्गमूलं पेक्खिदूणासं खेंज्जगुणहोणत्तस्स उवरिमप्पाबहुअसुत्तबलेण परिणिच्छियत्तादो । संपहि एत्थ भणिदपदविसेसाणं केस पोबत्तावारणमुवरिमं पबंधमाढवेइ * अप्पाबहुअं । ६ ५७१. अदीदपरूवणा विसयाणं केसि पि पदाणमप्पाबहुअमिदाणि कस्सामो त्ति भणिदं होइ । वृद्धि शलाकाओं से उपरम द्विगुणवृद्धि शलाकाएँ असंख्यातगुणी होती हैं । इस प्रकार यह पूरा ही अर्थविशेष सूत्र में गर्भित है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। अब यहाँपर नाना गुणहानि शलाकाओं के और एक गुणहानिस्थानान्तर के प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंयहाँ नानान्तर अर्थात् नाना गुणहानिशलाकाएँ थोड़ी हैं । ५६९. यहांकी नाना गुणहानिशलाकाएँ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर थोड़ी हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * एकान्तरछेद अर्थात् एक गुणहानिस्थानान्तरके अर्धच्छेद असंख्यातगुणे हैं । $ ५७०. एक गुणहानिस्थानान्तरकी अर्धच्छेदशलाकाएं भी पहलेकी नाना गुणहा निकी शलाकाओं की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं, इस कारण एक गुणहानिस्थानान्तर नियम से असंख्यातगुणा है यह इस सूत्र का भावार्थ है । और यह एक गुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि यहाँके समस्त स्थान पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको देखते हुए असंख्यातगुणे हीन हैं यह उपरिम सूत्रके बलसे निश्चित होता है। अब यहाँपर कहे गये कितने ही पदविशेषोंके अल्पबहुत्वका अवधारण करनेके लिए उपरिम प्रबन्धको आरम्भ करते हैं— * अब किन्हीं पदोंका अल्पबहुत्व कहते हैं। $ ५७१. अब अतीत प्ररूपणाविषयक कितने ही पदोंका अल्पबहुत्व इस समय कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaraढीए अण्णा परूवणा * सव्वत्थोवमणुसमयणिल्लेव णकंडय मुक्कस्सयं । $ ५७२. एत्थाणुसमय णिल्लवणकंडयमिदि भणिदे समयं पडि भवबद्धाणं समयपबद्धाणं च पिल्लेवणकालो गहेयव्वो । तस्साणुक्कस्स वियप्पपडिसेहट्ठमुक्कस्स विसेसणं कदं; तेण सव्वुक्कस्सयमणुसमय णिल्लेवणकंडयमावलियाए असंखेज्जदिभागपमाणं होण सव्वत्योवमिदि सुतत्थो । २२७ * जे एगसमएण णिल्लेविज्जंति भवबद्धा ते असंखेज्जगुणा । ६५७३. कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो। णचेदमसिद्धं, एक्कम्मि ठिदिविसेसे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता भवबद्धा होहूण णिल्लेविज्जंति त्ति पुण्वमेव परुविदत्तादो । * समयपवद्धा एगसमयेण णिल्लेविज्जंति असंखेज्जगुणा । ६५७४. देवि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव होंति, किंतु एगम्मि भवबद्धे जिल्लेविज्जमाणे असंखेज्जा समयपबद्धा पिल्ले विज्जमाणा लब्भंति, एगभवबद्धअब्भंत रे जहणदो वि अंतोमुहुत्तमेत्ताणं समयपबद्धाणं संभवोवलंभादो । तदो सिद्धमेदेसि तत्तो असंखेज्ज - गुणत्तं । गुणगारनामेत्थ अंतोमुहुत्तमेत्तमिदि घेत्तव्वं । * समयपबद्धसेसएण विरहिदाओ णिरंतराओ द्विदीओ असंखेज्जगुणाओ । * उत्कृष्ट अनुसमय निर्लेपनकाण्डक सबसे अल्प है । $ ५७२. यहाँपर अनुसमय निर्लेपनकाण्डक ऐसा कहनेपर उससे प्रतिसमयके भवबद्ध और समयबद्धों का निर्लेपनकाल ग्रहण करना चाहिए। उसके अनुत्कृष्ट भेदका निषेध करनेके लिए उत्कृष्ट विशेषण दिया है । इस कारण सबसे उत्कृष्ट अनुसमय निर्लेपनकाण्डक मावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर सबसे अलग है यह इस सूत्रका अर्थ है । * जो भवबद्ध एक समय द्वारा निर्लेपित किये जाते हैं वे असंख्यातगुणे हैं । $ ५७३. क्योंकि ये पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । और यह कथन असिद्ध नहीं है, क्योंकि एक स्थितिविशेष में पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण भवबद्ध होकर निर्लेपित किये जाते हैं यह पूर्व ही कह आये हैं * जो समयप्रबद्ध एक समय द्वारा निर्लेपित किये जाते हैं वे असंख्यातगुणे हैं । $ ५७४. ये भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, क्योंकि एक भवबद्ध के निर्लेप्यमान होने में असंख्यात समयप्रबद्ध निर्लेप्यमान प्राप्त होते हैं, क्योंकि एक भवबद्धके भीतर जघन्यसे भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयप्रबद्ध उपलब्ध होते हैं । इसलिए ये उनसे असंख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ । यहाँपर गुणकारका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । * समयबद्ध शेषसे रहित निरन्तर स्थितियाँ असंख्यातगुणी हैं । १. ताम्रपत्रप्रती प्रायोऽत्र खंडयमिदि इति पाठः । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६ ५७५. एवाओ पलिदोवमस्स असंखेज्ज विभागमेत्तीओ चेव निरंतरमसामण्णाओ द्विदीओ अभवसिद्धियपाओग्गे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तीओ होंति त्ति पुव्वमेव भणिवत्तावो । किंतु पुव्विल्लेहितो एवाओ असंखेज्जगुणाओ । कधमेदं परिच्छिज्जवे ? एवम्हावो चेव सुत्तावो । २२८ * पालिदोवमवग्गमूलमसंखेज्जगुणं । § ५७६. किं कारणं ? असामण्णद्विवीणं णिरंतर मुवलब्भमाणाणं पलिदोवमपढमवग्गमूलासंखेज्जभागपमाण त्तावो। ण चेदमसिद्धं एवं ? एवम्हादो चेव सुत्तादो तस्स तहा भाव परिणिच्छयादो । * णिसेगगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । $ ५७७. कुवो ? असं खेज्जपलिदोषमपढमवग्गमूल पमाणत्तावो । जेवमसिद्ध; कम्मट्ठदिजाणा गुणहासिला गाहिं कम्मद्विदीए भाजिदाए परिप्फुडमेवासंखेज्जपढमवग्गमूलमेत्तणिसेगगुणहाणिद्वाणपमाणुपत्तिदंसणावो । * भवबद्धाणं जिन्लेवणद्वाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ५७८. एवाणि वि असंखेज्जपढमवग्गमूलमेत्ताणि चेव । किंतु असंखेज्जणिसे यगुणहाणि - भाणि तदो असंखेज्जगुणाणि जावाणि । * समयपबद्धाणं णिल्लेवणट्ठाणाणि बिसेसाहियाणि । $ ५७५. ये पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं, क्योंकि अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य निरन्तर असामान्य स्थितियां पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं यह पहले ही कह आये हैं । किन्तु ये पूर्वकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - यह इसी सूत्र से जाना जाता है । * पल्योपमका प्रथम वर्गमूल असंख्यातगुणा है । ६ ५७६. शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि निरन्तर उपलब्ध होनेवाली असामान्य स्थितियाँ पत्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। और इस प्रकार यह कथन असिद्ध नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे उसके उस प्रकार के होनेका ज्ञान होता है । * निषेक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यात गुणा है । $ ५७७. क्योंकि यह असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है और यह कथन असिद्ध नहीं है, क्योंकि कर्मस्थितिसम्बन्धी नाना गुणहानिशलाकाओंके द्वारा कर्मस्थिति के भाजित करनेपर स्पष्ट ही असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण निषेकगुणहानिस्थानोंके प्रमाणकी उत्पत्ति देखी जाती है । * भवबद्धोंके निर्लेपनस्थान असंख्यातगुणे हैं । $ ५७८. ये भी असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण ही हैं । किन्तु इनमें असंख्यात निषेकगुणहानियां गर्भित हैं, इस कारण ये असंख्यातगुणे हो जाते हैं । * समयप्रबद्धोंके निर्लेपनस्थान विशेष अधिक हैं । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसैढीए अण्णा परूवणा २२९ ६५७९. केत्तियमेत्तेण ? अंतोमुत्तमेत्तेण। किं कारणं ? समयपबद्धाणं जहण्णणिल्लेवणट्ठाणादो उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तीओ द्विदीओ अब्भुस्सरियूण भवबढाणं जहण्णणिल्लेवणट्ठाणसमुप्पत्तिदसणादो। * समयपबद्धस्स कम्मद्विदीए अंतो अणुसमयअवेदगकालो असंखेज्जगुणो। ६५८०. कम्मटुिदिआदिसमयप्पहुडि एगसमयपबद्धस्स पलिदोवमासंखेज्जविभागमेत्त. णिरंतरवेदगकालमुल्लंघियूण पुणो उवरि जत्थ वा तत्थ वा पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तो णिरुद्धसमयपबद्धस्स णिरंतरमवेदगकालो उक्कस्सेण असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणो कम्मट्टिवीए अभंतरे लब्भइ; ओकड्डुक्कडणावसेण णिरंतरमेत्तियमेत्ताणं गिद्धसमयपबद्धपडि. बद्धगोवुच्छाणं सुण्णत्तसणादो। एसो च कालो असंखेज्जपलिवोवमपढमवग्गमूलमत्तो होदूण हेट्ठिमरासीदो असंखेज्जगुणो त्ति घेत्तव्यो। * समयपबद्धस्स कम्मट्टिदीए अंतो अणुसमयवेदगकालो असंखेज्जगुणो। $ ५८१. एवं भणिवे एगसमयम्मि बडो समयपबद्धो बंधावलियादिक्कतपढमसमयप्पहुडि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तकालं पिरंतरमुदयमागच्छवि जाव जिरंतरवेदगकालचरिम. समबो त्ति । एसो कालो अणुसमयवेदगकालो ति भण्णवे। एसोच पुग्विल्लकालादो असंखेज्ज. ६५७९. शंका-कितने अधिक हैं ? समाधान-अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अधिक हैं। शंका-इसका क्या कारण है? समाधान-क्योंकि समयप्रबद्धोंके जघन्य निर्लेपनस्थानसे ऊपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियां सरककर भवबद्धोंके जघन्य निर्लेपनस्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। * कर्मस्थितिके भीतर समयप्रबद्धका अनुसमय अवेदककाल असंख्यातगुणा है। ६५८०. कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर एक समयप्रबद्धके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण निरन्तर वेदककालका उल्लंघन कर ऊपर यहाँ अथवा वहाँ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण विवक्षित समयप्रबद्धका निरन्तर अवेदककाल उत्कृष्टसे असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण कमंस्थितिके भीतर प्राप्त होता है, क्योंकि उत्कर्षण और अपकर्षणके वशसे निरन्तर इयत्प्रमाण विवक्षित समयप्रबद्धसे सम्बद्ध गोपुच्छाओंका शून्यपना देखा जाता है। और यह काल असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण होकर अधस्तन राशिसे असंख्यातगुणा होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। * समयप्रबद्धका कमस्थितिके भीतर अनुसमय वेदककाल असंख्यातगुणा है। ६५८१. इस प्रकार कहनेपर एक समयमें बद्ध समयप्रबद्ध बन्धावलिके अनन्तर प्रथम समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागरूप कालप्रमाण निरन्तर वेदककालके अन्तिम समय तक निरन्तर उदयको प्राप्त होता है। इस कालको अनुसमय वेदककाल कहते हैं। और यह काल पिछले कालकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है, क्योंकि दोनों कालोंके सामान्यसे असंख्यात पल्योपमके Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे गुणो, दोहमसंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्ताविसेसे वि परमागमोवएसबलेण तत्तो एवस्सासंखेज्जगुण सिद्धीदो । * सव्वो अवेदगकालो असंखेज्जगुणो । $ ५८२. एगसमयपबद्धस्स निरंतर - वेदगावेदगकालेतु कम्मद्विदीए अब्भंतरे सुक्कंधारपवखे व परियतमाणेसु तत्थ वेदगकालं मोत्तूण अवेदगकालो चेव संपिडिय गहिदे पयदकालो समुपज्जइ । एसो च पुव्विल्लादो अणुसमय वेदगकालादो' असंखेज्जगुणो । नाणाकंडयसंकलनसरूवस्सेदस्स एगखंडयसरूवादो तत्तो असंखेज्जगुणत्त सिद्धीए विरोहाभावादो । * सव्त्रो वेदगकालो असंखेज्जगुणो । $ ५८३. तस्सेव णिरुद्धसमयपबद्धस्स कम्मद्विदिमन्भंतरे वेदगकालो सव्वत्य संपिडिय गहिदो सन्वो वेदगकालो त्ति भण्णदे; वेदगकालकंडयाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं सब्वेसिमेव संविडियूण गहिदाणं समूहसिद्धत्तादो । एदस्स च पमाणं कम्मद्विदीए असंखेज्जा भागा भवंति, पुव्विल्लवेदगकालस्स सव्वस्सेव कम्मद्विदीए असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । तदो सिद्धमेदस्स तत्तो असंखेज्जगुणत्तं । * कम्मट्ठदी विसेसाहिया । प्रथम वर्गमूलप्रमाण होनेपर भी परमागमके उपदेशके बलसे पूर्व कालको अपेक्षा यह काल असंख्यातगुणा सिद्ध होता है । * सम्पूर्ण अवेदककाल असंख्यातगुणा है । $५८२. एक समयप्रबद्धके कर्मस्थितिके भीतर निरन्तर वेदककाल और अवेदककालोंके शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष के समान परिवर्तमान होनेपर उनमें से वेदककालको छोड़कर अवेदककालको एकत्रित करके ग्रहण करनेपर प्रकृत काल उत्पन्न होता है । अत: यह काल पिछले अनुसमय वेदककालकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है, क्योंकि यह नाना काण्डकोंके संकलनस्वरूप एक काण्डकस्वरूप है, इसलिए इसके पिछले कालकी अपेक्षा असंख्यातगुणा सिद्ध होने में विरोधका अभाव है । * सम्पूर्ण वेदककाल असंख्यातगुणा है । ५८३. उसी विवक्षित समयप्रबद्धका कर्मस्थितिके भीतर जो पूरी स्थिति के भीतरका एकत्रित किया हुआ वेदककाल ग्रहण किया गया है वह सब वेदककाल कहलाता है, क्योंकि वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ग्रहण किये गये सभी वेदककाल काण्डकोंका एकत्रित समूहरूप सिद्ध होता है । अतः इसका प्रमाण कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण है, क्योंकि पिछला पूरा अवेदककाल कर्मस्थितिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यह काल पिछले कालकी अपेक्षा असंख्यातगुणा सिद्ध होता है । * कर्मस्थिति विशेष अधिक है । १. ताम्रप्रती - वेदककालो इति पाठः । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढीए नवमी मूलगाहा २३१ ५८४. केत्तियमेत्तेण ? सगअसंखेज्ज विभागभूदसव्वा वेदगकालमेत्तेण । कुदो ? वेदगा वेदगकालसमूहस्स कम्मट्ठिदिववएसारुहत्तादों । एवमेदम्मि चूलियप्पाबहुए समत्ते तदो अट्टमीए मूलगाहाए अथविहासा समत्ता भवदि । * नवमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । ५८५. अट्टम मूलगा हा विहासणाणंतरमेत्तो जहावसरपत्ताए णवममूलगाहाए समुक्कित्तणा काव्वात्ति वृत्तं होइ । (१५१) किट्टीकदम्म कम्मे हिदि- अणुभागेसु केसु सेसाणि । कम्माणि पुव्वबद्धाणि बज्झमाणानुदिण्णाणि ॥ २०४॥ ५८६. किममेसा नवमी मूलगाहा समोइण्णा त्ति चे ? वुच्चदे - णाणावरणादिकम्माणं afgarपढमसमए ठिदिअणुभागसंतकम्मपमाणावहारणटुं तेसि चेव द्विदि-अणुभागबंधोदय विसेसावहारणट्टं च गाहासुत्तमेदमोइण्णं; परिप्फुडमेवेत्थ तहाविहत्यणिद्दे सदंसणादो । तं जहा - 'किट्टीकदम्मि कम्में' पुव्वमकिट्टी सरूवेण मोहणीयाणुभागसंतकम्मे निरवसेसं किट्टोसरूवेण परिणमिदम्मि किट्टीवेदगपढमसमये वट्टमाणस्स तस्स द्विदिसंतादिपमाणगवेसणं कस्साम तिवृत्तं होइ । 'ठिदि - अणुभागेसु० पुग्वबद्धाणि' एवं भणिदे ताधे पुग्वबद्धाणि कम्माणि १८४. शंका - कियत्प्रमाण अधिक है ? समाधान - अपने असंख्यातवें भागप्रमाण समस्त अवेदककालप्रमाण अधिक है, क्योंकि वेदक और अवेदककालका समूह कर्मस्थिति संज्ञाके योग्य होता है । इस प्रकार इस चूलिकारूप अल्पबहुत्व के समाप्त होनेपर उसके अनन्तर आठवीं मूलगाथाको अर्थविभाषा समाप्त होती है । * अब नौवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । $ ५८५. आठवीं मूलगाथाको विभाषा करनेके अनन्तर यथावसरप्राप्त नौवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । (१५१) मोहनीयकर्मके पूरे कृष्टिरूप किये जानेके बाद कृष्टिवेदक के प्रथम समय में पूर्वबद्ध ज्ञानावरणादि शेष कर्म किन स्थितियोंमें और किन अनुभागोंमें पाये जाते हैं । तथा बध्यमान और उदीर्ण ज्ञानावरणादि कर्म किन स्थितियोंमें और किन अनुभागों में पाये जाते हैं ॥२०४॥ ६ ५८६. शंका - यह नवीं मूलगाथा किसलिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान - कहते हैं - कृष्टिवेदक के प्रथम समय में ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थिति और अनुभाग सत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए तथा उन्हींके स्थिति और अनुभागसम्बन्धी बन्ध और उदयविशेषके अवधारण करनेके लिए यह गाथासूत्र अवतीर्णं हुआ है, क्योंकि इस गाथासूत्र में उस प्रकार के अर्थका निर्देश स्पष्टरूपसे ही देखा जाता है । वह जैसे – 'किट्टोकदम्मि कम्मे' पहले अकृष्टिरूपसे अवस्थित मोहनीय कर्मसम्बन्धी अनुभाग सत्कर्मके कृष्टिस्वरूपसे परिणमित होनेपर कृष्टिवेदकके प्रथमं समयमें स्थित हुए उसके स्थिति और सत्र आदि प्रमाणका गवेषण करेंगे यह उक कथनका तात्पर्य है । 'ठिदि अणुभागेसु' 1 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ षयधवलासहिदे कसायपाहुडे णाणावरणीयादीणि केसु दिदि-अणुभागेसु सेसाणि, केत्तियं ठिदिअणुभागसंतकम्मं घादिय केत्तियेसु दिदि-अणुभागभेदेसु परिसेसिदाणि त्ति वुत्तं होइ। एदेण ट्ठिदि-अणुभागसंतकम्मपमाणविसया पुच्छा णिहिट्ठा बटुव्वा। ___'बज्झमाणाणविण्णाणि' एदेण वि सुत्तावयवेण बज्झमाणाणि कम्माणि उदिण्णाणि च कम्माणि केसु दिदि-अणुभागेसु वटुंति ति दिदि-अणुभागबंधविसय-टिदि-अणुभागोदयविसया च पुच्छा णिहिट्ठा त्ति दटुव्वा । तदो तिण्हमेदासि पुच्छाणं णिण्णयविहाणटमेसा मूलगाहा समोइण्णा त्ति एसो एत्य सुत्तत्यसमुच्चओ। संपहि एदिस्से मूलगाहाए पुच्छामेत्तेण सूचिदत्यविहासण?मेंत्य दो भासगाहाओ होति त्ति जाणावणटुमिदमाह * एदिस्से दो भासगाहाओ। ६५८७. ठिदि-अणुभागसंतावहारणे पढमा भासगाहा, तेसिं चेव बंधावहारणे विदिया भासगाहा ति एवमेत्थ दो चेव भासगाहाओ होति । तदिये अत्थे टिदि-अणुभागोदयपरूवणप्पये तदिया भासगाहा एत्थ किण्णोवइट्ठा त्ति णासंकणिज्ज, बंध-संतपरूवणावो चेव उदयपरूवणा वि जाणिज्जदि ति अहिप्पायेण तप्पडिबद्धगाहंतराणवएसादो। एवमेत्थ दोण्हं भासगाहाणमत्थित्तं जाणाविय संपहि जहाकममेव तासि समुक्कित्तणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह पुठवबद्धाणि' ऐसा कहनेपर उस समय पूर्वबद्ध ज्ञानावरणादि कर्म किन स्थितियोंमें और अनुभागों में शेष रहते हैं अर्थात् कितने स्थिति और अनुभागसत्कर्मका घात करके कितने स्थिति और अनुभागोंमें परिशेष रहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस सूत्रवचन द्वारा स्थिति जोर अनुभागसत्कर्मकी प्रमाणविषयक पृच्छा निर्दिष्ट की गयो जाननी चाहिए। 'बज्झमाणाणुदिण्णाणि' इस गाथासूत्रके अन्तिम पाद द्वारा भो बंधनेवाले कर्म और उदीर्ण. कर्म किन स्थितियों और अनुभागोंमें रहते हैं इस प्रकार स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धविषयक तथा स्थितिउदय और अनुभागउदयविषयक पृच्छा निर्दिष्ट की गयी जाननी चाहिए। इसलिए इन तीनों पृच्छाओंका निर्णय करने के लिए यह मूलगाथा अवतीर्ण हुई है, इस प्रकार यहाँपर इस सूत्रगाथाका यह समुच्चयरूप अर्थ है। अब इस मूलगाथाके पृच्छा मात्रसे सूचित हुए अर्थको विभाषा करनेके लिए यहाँपर दो भाष्यगाथाएं हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस वचनको कहते हैं * इस नौवीं मूल सूत्रगाथाको दो भाष्यगाथाएं हैं। ६५८७. स्थिति और अनुभागसत्कर्मके अवधारण करने में प्रथम भाष्यगाथा है तथा उन्हींके बन्धके अवधारण करनेमें दूसरी भाष्यगाथा है इस प्रकार प्रकृतमें दो ही भाष्यगाथाएं हैं। शंका-स्थिति और अनुभागके उदयको प्ररूपणा जिसमें मुख्यरूपसे की गयी है ऐसे तीसरे अर्थमें तीसरी भाष्यगाथा यहाँपर क्यों नहीं उपदिष्ट की गयी है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्थिति और अनुभागसम्बन्धी बन्ध और सत्त्वका प्ररूपण करनेसे ही उदयप्ररूपणाका भी ज्ञान हो जाता है इस अभिप्रायसे उदयसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्य गाथाका उपदेश नहीं किया है । इस प्रकार यहाँपर दोनों भाष्यगाथाओंके अस्तित्वका ज्ञान कराकर अब यथाक्रमसे हो उनको समुत्कीर्तना करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए णवमीए मूलगाहाए पढमभासगाहा * तासि समुत्तिणा । ६५८८. सुगमं । (१५२) किट्टीकदम्मि कम्मे णामागोदाणि वेदणीयं च । वस्से असंखेज्जे से सगा होंति संखेज्जा ॥२०५॥ २३३ ५८९. एसा पढमभासगाहा किट्टोवेदगपढमसमए सत्तण्हं कम्माणं द्विदिसंतकम्मपमाणावहारणमोइण्णा । अणुभागसंतकम्मपमाणावहारणं पि देसामा सयभावेणेत्थेव पडिबद्धमिदि घेत्तव्यं । संपहि एदिस्से अवयवत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- 'किट्टीकदम्मि कम्मे० ' एवं भणिदे पुव्वमकिट्टीसरूवे किट्टीभावेण णिरवसेसं परिणमिदम्मि मोहणीयाणुभागसंतकम्मे तदवत्थाए वट्टमाणस्स पढमसमय किट्टीवेदगस्स णामागोदाणि वेदणीयं च असंखेज्जेसु वस्सेसु संतकम्मसरूवेसु घाविदावसेसेसु व ंति त्ति सुत्तत्थसंबंधो। 'सेसगा होंति संखेज्जा' एवं भणिदे सेसाणि घादिकम्माणि संखेज्जवस्सावच्छिण्ण द्विदिसंतकम्मपमाणाणि दट्ठव्वाणि त्ति वृत्तं होइ । सव्वाणि च कम्माणि अनंतेसु अणुभागेसु समयाविरोहेण वट्टेति त्ति अणुसिद्धीदो अणुभाग संतकम्मणिद्देसो एत्थेव सुते णिलोगों वक्खाणेयव्वो । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अवयवत्थं फुडोकरेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विहासा । * अब उन दोनों भाष्यगाथाओं की समुत्कीर्तना करते हैं । ६५८८. यह सूत्र सुगम है । (१५२) मोहनीयकर्मके कृष्टिरूप किये जानेके बाद कृष्टिवेदक के प्रथम समय में नाम, गोत्र और वेदनीयकर्म असंख्यात वर्षप्रमाण सत्कर्म स्थितिरूप पाये जाते हैं तथा शेष कर्म संख्यात वर्षप्रमाण सत्कर्मस्थितिरूप पाये जाते हैं ॥ २०५ ॥ ५८९. यह प्रथम भाष्यगाथा कृष्टिवेदकके प्रथम समय में सात कर्मोके स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । अनुभागसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण भी देशामक रूप से इसी भाष्यगाथा में प्रतिबद्ध है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इसके अवयवार्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह जैसे -' - 'किट्टीकदम्मि कम्मे' ऐसा कहनेपर पहले जो कर्म अकृष्टिस्वरूप है उसके कृष्टिरूप से पूरा परिणत होनेपर मोहनीय कर्मसम्बन्धी अनुभागसत्कर्मके उस अवस्था में विद्यमान प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक के नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म घात करनेके बाद असंख्यात वर्ष स्थितिसत्कर्मरूप शेष रहते हैं यह इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । 'सेसगा होंति संखेज्जा' ऐसा कहने पर शेष चार घातिकर्म संख्यात वर्षरूप स्थितिसत्कर्मप्रमाण जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और सभी कर्म समयके अविरोधपूर्वक अनन्त अनुभागों में रहते हैं । यह अनुक्तसिद्ध होनेसे अनुभागसत्कर्मका निर्देश इसी सूत्र में गर्भित है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए | अब इस भाष्यगाथाके इस प्रकारके अवयवार्थका स्पष्टीकरण करनेवाले आगे के विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं अब इस प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं ।। ३० Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5 ५९०. सुगमं । * किट्टीकरणे णिढिदे किट्टोणं पढमसमयवेदगस्स णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । * मोहणीयस्स हिदिसंतकम्ममट्ट वस्साणि । * तिण्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६५९१. एदाणि सत्ताणि सुगमाणि। एवं पढमभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि विदियभासगाहाए अवयारं कुणमाणो इदमाह * एत्तो विदियाए मासगाहाए समुक्कित्तणा। ६५९२. सुगमं। (१५३) किट्टीकदम्मि कम्मे सादं सुहणाममुच्चगोदं च । ____ बंधदि च सदसहस्से द्विदि-अणुभागे सुदुक्कसं ॥२०६॥ ६५९३. एसा विदियभासगाहा अघादिकम्माणं द्विदि अणुभागबंधपमाणावहारणे मुत्तकंठमेंव पडिबद्धा होदूण पुणो घादिक.म्माणं पि हिदिअणुभागबंधपमाणावहारणं देसामासयभावेण सूचेदि त्ति घेत्तव्वं । संपहि एदिस्से अवयवत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा -'किट्टोकदम्मि कम्मे०' पुटवकिट्टीसरूवे किट्टीसरूवेण णिस्सेसं परिणामिम्मि मोहणीयाणुभागसंतकम्मे तदवत्थाए ६५९०. यह सूत्र सुगम है। * कृष्टिकरणके सम्पन्न होनेपर कृष्टियोंका प्रथम समयमें वेदन करनेवाले जीवके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोका स्थितिसत्कर्भ असंख्यात वर्षप्रमाण होता है। * मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म आठ वर्षप्रमाण होता है। * शेष तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्षप्रमाण होता है। ६५९१. ये तीनों सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाके अर्थकी विभाषा समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हुए इस सूत्रको कहते हैं अब आगे इस दूसरी भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६५९२. यह सूत्र सुगम है। (१५३) मोहनीय कर्मके कृष्टिकरण कर दिये जानेपर सातावेदनीय, शुभ नाम और उच्चगोत्र कर्मोकी शतसहस्र वर्षप्रमाण स्थितिको बाँधता है। तथा इन कर्मोके अनुभागको आदेश उत्कृष्ट बांधता है ॥२०६॥ ६५९३. यह दूसरी भाष्यगाथा अघाति कर्मोके स्थिति और अनुभागबन्धके प्रमाणका अवधारण करने में मुक्तकण्ठसे प्रतिबद्ध होकर पुनः घातिकर्मोंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणके निर्णयको भी देशामर्षकभावसे सूचित करती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अब इसके अवयवार्थका प्ररूपण करेंगे। वह जैसे--'किट्टीकदम्मि कदे' पहले जो कर्म अकृष्टिरूपसे परिणत था उसके पूरी तरहसे कृष्टिरूपसे परिणत होनेपर मोहनीय कर्मके अनुभाग सत्कर्मके उस अवस्थामें Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए णवमीए मूलगाहाए विदियभासगाहा २३५ वट्टमाणो सादावेदणीयं सभणामं जसगित्तिसण्णिदमुच्चागोदं च एवमेदासि पयडीणं दिदिबंधं करेमाणो 'बंधदि च सदसहस्से दिदि' संखेज्जवस्ससदसहस्सपमाणमेदासि दिदि बंधदि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । एत्थतण 'च' सद्देण पुण तिण्हं घादिकम्माणं संखेज्जवस्ससहस्समेत्तो मोहणीयस्स च चत्तारिमासमेत्तो दिदिबंधो सूचिदो त्ति दट्रव्यो। 'अणुभागे सुदुक्कस्सं' एदेण सुत्तावयवेण पुवत्ताणं तिहमघादिकम्माणं पयडीणमादेसुक्कस्सो अणुभागबंधो जाणाविदो। 'तु' सद्दो विसेसणट्ठो होदूण पृव्वुत्ताणं पसत्थपयडीणमोघुक्कस्साणुभागबंधणिरायरणदुवारेणादेसुक्कस्साणुभागबंधसंभवं सूचेदि त्ति दट्ठन्वं, सुहुमसांपराइयचरिमसमये तासिमोघुक्कस्साणुभागबंधदसणादो। 'तु' सद्देणेव घादिकम्माणं पि अणुभागबंधणिद्देसो सूचिदो त्ति घेत्तव्वो। अधवा ईसदुक्कस्सं सुदुक्कस्सं तप्पाओग्गुक्कस्समणुभागमेदेसि सुहाणं कम्माणं बंधदि ति वक्खाणेयव्वं; ईषच्छब्दस्यादिलोपे उकारादेशे च कृते 'सुदुक्कस्स' निर्देशसिद्धेः। वर्तमान सातावेदनीय, शुभनाम, यशःकीति और उच्चगोत्र इस प्रकार इन प्रकृतियोंके स्थितिबन्धको करता हुआ 'बंधदि च सहसहस्से टिदि' संख्यात शतसहस्र वर्षप्रमाण इन कर्मों की स्थितिको बांधता है यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । यहाँपर आये हुए 'च' शब्दसे तोन घातिकर्मीको संख्यात हजार वर्षप्रमाण और मोहनीयकमंकी चार महाप्रमाण स्थितिको बाँधना है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। 'अणुभागे सुदुक्कस्सं' इस सूत्रवचनके अनुसार पूर्वोक तीन अघाति कर्मोंके आदेश उत्कृष्ट अनुभागबन्धका ज्ञान कराया गया है। 'तु' शब्द विशेषणार्थक होकर प्रशस्त प्रकृतियोंके ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्धका निराकरण द्वारा आदेश उत्कृष्ट अनुभागबन्धके सम्भवको सूचित करता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समय में उन प्रकृतियोंका ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध देखा जानेसे 'तु' शब्दके द्वारा ही घातिकर्मोके भी अनुभागबन्धका निर्देश सूचित किया गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अथवा 'सुदुक्कस्सं का अर्थ है 'ईसदुक्कस्सं' उसके अनुसार इसका अर्थ होता है कि इन शुभ कर्मों के तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागको बांधता है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि 'ईषत्' शब्दके आदि अक्षर 'ई' का लोप करके 'उकार' का आदेश करनेपर 'सुदुक्कस्स' निर्देशकी सिद्धि होती है। विशेषार्थ-'सुदुक्कस्सं' पदका रूपान्तर 'ईसुदुक्कस्सं' व्याकरणके नियमानुसार इस प्रकार हो गया है-'ईषत् + उत्कृष्ट ये दो शब्द हैं। इनमें से 'ईषत्' पदके आदि अक्षर 'ई' का 'कीरइ पयाण काण वि अइमझंतवण्णसरलोवो' इस सूत्रके नियमानुसार लोप होकर षत्' शेष रहा । पुनः वग्गे वग्गे आई अवट्ठिया दोणि जे वण्णा । ते णियय-णिययवग्गे तइअत्तणयं उवणमंति ।। उक्त सूत्रके नियमानुसार 'ष' के स्थानमें 'स' और 'त्' के स्थानमें 'द्' हो जानेसे 'सद्' शब्द बन गया । पुनः एए छच्च समाणा दोणि असंज्झक्खरा सरा अट्ट । अण्णोण्णस्सविरोहा उति सव्वे समाएस ॥ इस सूत्रके नियमानुसार 'सद्' के 'स' में अवस्थित 'अ' के स्थानमें 'उ' आदेश हो जानेपर 'सुद्' रूप सिद्ध हुआ। पुनः 'सुद् + उक्कस्स =सुदुक्कस' पाठ निष्पन्न हो गया है। यहां इसी प्रकार प्राकृत व्याकरणके नियमानुसार 'उत्कृष्ट' पदके स्थानमें 'उक्कस्स' पद निष्पन्न हुआ है इतना और समझ लेना चाहिए। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जयiवलासहिदे कसायपाहुडे ५९४. संपहि एवस्सेव सुत्तस्सत्थं फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाह* विहासा । ५९५. सुगमं । * किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । * णामागोदवेदणीयाणं तिन्हं चैव घादिकम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्वाणि । * णामागोदवेदणीयाणमणुभागबंधो तस्समयउक्कस्सगो । ६५९६. सुगमो च एसो विहासारांथो; तवो ण एत्थ किंचि वक्त्राणेयव्यमत्थि; जाणिवजाणवणे गंथगउरखं मोत्तण फलविसेसाणुवलंभावो । णवरि णामागोववेदणीयाणमणुभागबंधो ओघुक्कस्सो ण होइ, किंतु तप्पा ओग्गुक्कस्सो त्ति जाणावणटुं तस्समयउक्कस्सो ति णिद्देसो । तस्स समयस्स पाओग्गो उक्कस्सो तस्समयउक्कस्सो आदेसुक्कस्सो, तेसिमणुभागबंधो होदि सि वृत्तं होइ । ओधुक्कस्सो पुण एदेसिमणभागबंघो कत्थ होदि ति वृत्ते सुहुमसांपराइय चरिमसमये भविस्सवि; तत्थ सव्वुक्कस्सविसोहीए बज्झमाणस्स तदणुभागस्स ओघुक्कस्स भावसिद्धीए पिडिबंधवलं भादो । तिन्हं घादिकम्माणं मोहणीयस्स च अणुभागबंघो तप्पा ओग्गजहष्णो होदित्ति ५९४. अब इसी सूत्रके अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं अब इस दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । ६५९५. यह सूत्र सुगम है । * कृष्टियोंका प्रथम समय वेदन करनेवालेके चारों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध चार मास होता है । * नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनों ही अघातिकमोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । * नाम, गोत्र और वेदनीयकमका अनुभागबन्ध उस समयके योग्य उत्कृष्ट होता है । $ ५९६. यह विभाषाग्रन्थ सुगम है। इसलिए इसमें कुछ भी व्याख्यान करने योग्य नहीं है, क्योंकि जिसको जान लिया गया है उसका पुनः ज्ञान करनेमें ग्रन्थको गुरुताको छोड़कर अन्य कोई फल विशेष नहीं पाया जाता। इतनी विशेषता है कि नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका अनुभागबन्ध ओघ उत्कृष्ट नहीं होता है, किन्तु तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट होता है इस बातका ज्ञान करानेके 'लिए 'तस्समयउक्कस्सो' यह निर्देश किया है। 'तस्स समयस्स पाओग्गो उक्कस्सो तस्समय उक्कस्सो आदेसुक्कस्सो' उस समय के प्रायोग्य उत्कृष्ट अर्थात् आदेश उत्कृष्ट उन कर्मोंका अनुभागबन्ध होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु इनका ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कहाँ होता है ऐसी जिज्ञासा होने पर यह कहा गया है कि सूक्ष्मराम्पसयिक गुणस्थानके अन्तिम समय में होगा, क्योंकि वहाँपर सबसे उत्कृष्ट विशुद्धि के कारण बन्धको प्राप्त होनेवाले उस अनुभागकी ओघ उत्कृष्टपनेकी सिद्धि बिना बाधा के उपलब्ध होती है। तीन घातिकर्मों और मोहनीयकर्मका अनुभागबन्ध Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaraढीए किट्टीवेदमपरिभासत्य परूवण ३३७ एसो वि अत्यो एत्थेव सुत्ते अंतब्भूदो त्ति बटुव्वो । द्विदि-अणुभागोवओ वि सव्वेंस कम्माणं एत्थ समयाविरोहेणाणुगंतव्वो, मुत्तस्सेदस्स वेसामासयभावेणावद्वाणदंसणादो । तदो नवमीए मूलगाहाए अत्यविहासा समत्ता भवदि । * एत्तो ताव दो मूलगाहाओ थवणिज्जाओ । ५९७. किट्टीकरणद्धाएं पडिबद्धाओ एक्कारस मूलगाहा होंति त्ति पुण्यं सामण्णेण भणिदं । विसेसदो पुण एवाओ अनंतरविहासिवाओ णव चेव मूलगाहाओ किट्टीकरणद्वाए पडिबद्धामो, एतो उवरिमाणं दोन्हं मूलगाहाणं किट्टोवेदगाए पडिबद्धत्तदंसणादो । पुम्वुत्तमूलगाहासु वि काओ व किट्टोवेदगद्धाए पडिबद्धाओ अस्थि त्ति णासंकणिज्जं, तासिमुहयत्थ साहारणभावेण पट्टा किट्टीकरणद्धा संबंधेणेव विहाणे विरोहाणुवलंभादो । तदो एत्तो उवरिमाओ वो मूलगाहाओ किट्टीवेदगडापडिबद्धाओ ताव थवणिज्जाओ काढूण किट्टोवेदगस्स परिभासत्यपरूवणमेव ताव सवित्रं कस्सामो; पच्छा गाहासुत्तत्थविहासा भविस्सवि, गाहासुताणं परिभासणत्ये अविहासिदे तेसिमवयवत्थपरामर सलक्खणस्स सुत्तफासस्स करणोवायाभावावो त्ति एसो एवस्स सुत्तस्स भावत्यो । एवमेदास दोन्हं मूलगाहाणं यवणिज्जभावं काढूण किट्टीवेदगस्स परिभासत्य विहासणं कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाह - तत्प्रायोग्य जघन्य होता है इस प्रकार यह अर्थ भी इसी सूत्र में अन्तर्भूत जानना चाहिए। तथा सभी कर्मोंका स्थिति और अनुभागका उदय भी यहीं पर समयके अविरोधपूर्वक जानना चाहिए, क्योंकि इस सूत्रका देशामर्षक भावसे अवस्थान देखा जाता है। इसके बाद नौवीं मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त होती है । * इससे आगे अब सर्व प्रथम दो मूल गाथाओंको स्थगित करते हैं । $ ५९६. कृष्टिकरण से सम्बन्ध रखनेवाली ग्यारह मूलगाथाएँ हैं यह पहले सामान्यसे कह आये हैं । विशेषरूपसे तो अनन्तर पूर्व जिनकी विभाषा कर आये हैं ऐसी ये नौ मूल गाथाएँ कृष्टिकरणके कालसे सम्बन्ध रखती हैं, इनसे आगेकी दो मूल गाथाएँ कृष्टिवेदकरूप अवस्थासे सम्बन्ध रखनेवाली देखी जाती हैं । शंका - पूर्वोक्त मूल गाथाओंमें भी कितनी ही मूल गाथाएं कृष्टिवेदक कालसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही विषयों में साधारण रूप से प्रवृत्त हैं, इसलिए उनका मात्र कृष्टिकरण अद्धा के सम्बन्धसे विधान करने में कोई विरोध नहीं पाया जाता । इसलिए इससे आगेकी दो मूल गाथाएँ कृष्टिवेदक कालसे सम्बद्ध हैं, अत: उन्हें स्थगित करके कृष्टिवेदककी परिभाषारूप प्ररूपणाको ही सर्वप्रथम विस्तारके साथ कहेंगे, बादमें गाथासूत्र के अर्थकी विभाषा होगी, क्योंकि गाथासूत्रों के परिभाषारूप अर्थकी विभाषा नहीं करनेपर उनके अवयवरूप अर्थका परामर्श करना है लक्षण जिसका ऐसे सूत्रस्पर्शके करने का दूसरा उपाय नहीं पाया जाता इस प्रकार यह इस सूत्र का भावार्थ है । इस प्रकार इन दो मूल गाथाओं को स्थगित करके कृष्टिवेदक के परिभाषारूप अर्थकी विभाषा करते हुए आगे के सूत्र प्रबन्धको कहते हैं Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहु. * किट्टीवेदगस्स ताव परूवणा कायन्वा । ६५९८. सगमं। * तं जहा। ६५९९. सगमं। * किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं ट्ठिदिसंतकम्ममट्ट वस्माणि । * तिण्डं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । *णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । * संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । * सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६६००. एदाणि सुत्ताणि किट्टीवेदगपढमसमये सव्वेसि कम्माणं टिदिसंतकम्म टिदिबंधपमाणावहारणपडिबद्धाणि सुबोहाणि त्ति ण एत्थ वक्खाणायरो। ण चेदमेथासंकणिज्जं णवमीए मूलगाहाए दोहिं भासगाहाहि एसो अत्थो णिद्दिट्टो चेव, पुणो किम, परूविज्जदे ? पुणरत्तदोसप्पसंगादो ति ? किं कारणं, पुन्दुत्तस्सेवस्थस्स मंदबुद्धिजणाणुग्गहढे पुणो वि परूवणे कोरमाणे पुणरुत्तदोसाणवयारादो। एवमेदाम्म संधिविसेसे वट्टमाणस्स दिदिबंध-टिदिसंतकम्मपमाणं * सर्वप्रथम कृष्टिवेदककी प्ररूपणा करनी चाहिए। ६५९८. यह सूत्र सुगम है। वह जैसे। ६५९९. यह सूत्र सुगम है। * कृष्टियोंका प्रथम समयमें वेदन करनेवाले क्षपकके संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है। * तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। * नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थिति सत्कर्म असंख्यात वषंप्रमाण होता है । * संज्वलनोंका स्थितिबन्ध चार मासप्रमाण होता है। * शेष कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण होता है। ६६.०. ये सब सूत्र कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें सब कर्मोंके स्थितिसत्कर्म और स्थितिबन्धके प्रमाणके अवधारण करनेसे सम्बन्ध रखनेवाले हैं और सुबोध हैं, इसलिए यहां इनका व्याख्यान नहीं करते हैं। शंका-नौवीं मूलगाथाओं द्वारा यह अर्थ निर्दिष्ट किया ही गया है, फिर इसकी प्ररूपणा किस लिए की जाती है, क्योंकि पुनः प्ररूपणा करनेपर पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है। समाधान-यहां ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यद्यपि यह अर्थ पूर्वोक्त ही है तो भी मन्दबुद्धि जनोंका अनुग्रह करनेके लिए फिर भी उस अर्थको प्ररूपणा करनेपर पुनरुक्त दोषका अवतार नहीं होता। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए किट्टीवेदगपरिभासत्थपरूवणा २३९ संभालिय संपहि एत्तो पाए संजलणाणं किट्टीगदाणुभागस्स अणुसमयोवट्टणा एवं पयदि त्ति परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * किट्टीणं पढमसमयवेदगप्पहुडि मोहणीयस्स अणुभोगाणमणुसमयोवट्टणा । ६६०१. एत्तो पुठवमस्सकण्णकरणद्धाए किट्टीकरणद्धाए च अंतोमुहुत्तुक्कीरणकालपडिबद्धो अणुभागधादो संजलणपयडीणमस्सकण्णकरणायारेण पयट्टदि। एण्हिं पुणमोहणीयस्पकोहसंजलणादिभेदेण चउम्विहस्स वि जे अणुभागा किट्टीसरूवा संगहकिट्टीभेदेण बारसधा पविहत्ता तेसिमणुसमयोवट्टणा समये समये अणंतगुणहाणोए घादो पयट्टदि, एत्थतणपरिणामाणं तहाविहाणुभागघावहेदुत्तादो। ६६०२ एदस्स भावत्थो-बारसण्हं पि संगहकिट्टीणमेक्के किस्से किट्टीए अग्गकिट्टीप्पहुडि असंखेज्जविभागं समयपबद्धाणमणुभागं मोतूण संजलणाणभागसंतकम्मस्स अणुसमयोवट्टणा एत्थ संजादा त्ति। णाणावरणादिकम्माणं पुण पुवुत्तेणेव कमेण अंतोमुहुत्तिओ अणभागघावो पयट्टवि, तहा चेव सम्वेसि कम्माणं टिदिधादो वि पयदि ति ण एत्थ किंचि जाणत्तमत्थि। एवमेवेण सुत्तेण संजलणाणमणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयोवट्टणाए पारंभं पदुप्पाइय संपहि तेसिमणुभागबंधोदयाणं पि समयं पडि पवुत्तिविसेपजाणावणमुत्तरो सुत्तपबंधो इस प्रकार इस सन्धिविशेष में विद्यमान क्षपकके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वके प्रमाणको सम्हाल करके अब इससे आगे प्रायः संज्वलनोंके कृष्टिगत अनुभागकी अनुसमय अपवर्तना इस प्रकार प्रवृत्त होती है इस बातका प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * कृष्टियोंके वेदकके प्रथम समयसे लेकर मोहनीय कर्मके अनुभागोंको अनुसमय अपवर्तना होती है। ६६०१. इससे पूर्व अश्वकर्णकरणके. काल में और कृष्टिकरणके कालमें अन्तर्मुहर्त काल तक उत्कोरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाला संज्वलन प्रकृतियोंका अनुभाग अश्वकर्णकरणके आकारसे प्रवृत्त होता है, परन्तु इस समय क्रोध संज्वलन आदिके भेदसे चार प्रकारके मोहनीय कर्मका जो भी अनुभाग कृष्टिस्वरूप होकर संग्रहकृष्टिके भेदसे बारह प्रकारसे विभक्त हो गया है उनको अनुसमय अपवर्तना प्रत्येक समयमें अनन्तगुणहानिरूपसे घात होकर प्रवृत्त होती है, क्योंकि यहाँ सम्बन्धी परिणाम उस प्रकारके अनुभागघातके हेतु हैं । ६६०२. इसका भावार्थ-बारह ही संग्रह कृष्टियों में से एक-एक कृष्टिकी अग्रकृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके अनुभागको छोड़कर संज्वलनोंके अनुभागसत्कर्मको अनुसमय अपवर्तना यहां प्रारम्भ हो गयी है। ज्ञानावरणादि कर्मोका तो पूर्वोक्तरूपसे ही क्रमसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला अनुभागघात प्रवृत्त रहता है तथा उसी प्रकार सब कर्मोका स्थितिघात भी प्रवृत्त रहता है। इस प्रकार इसमें किसी प्रकारका भेद नहीं है। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा संज्वलनोंके अनुभागसत्कर्म के अनुभागकी पपवर्तनाके प्रारम्भका कथन करके अब उनके प्रतिसमय होनेवाले अनुभागबन्ध और अनुभागउदयकी भी प्रवृत्तिविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध प्रारम्भ करते हैं Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * पढमसमयकिट्टीवेदगस्स कोहकिट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा। ६६०३. कोहसंजलणस्स ताव पढमसंगहकिट्टीसरूवेण बंधोदया पयट्टमाणा हेटिमोवरिमा. संखेज्जदिभागं मोत्तूण मज्झिमकिट्टीसरूवेणेव पयति । एवं पयट्टमाणाणं बंधोदयाणमग्गदिदीओ समवे समये अणंतगुणहीणाओ वटुंति । तत्थ 'पढमसमय० कोहकिट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी' एवं भणिदे उदयम्मि पविसमाणाओ अणंताओ मज्झिमकिट्टीओ अस्थि, तामु जावुक्कस्सकिट्टो सम्वुवरिमा सा बहुगी तिव्वाणुभागा त्ति वुत्तं होइ । 'बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा' एवं भणिदे बज्झमाणकिट्टीओ वि अर्णताओ भवंति । पुणो तासु जा बज्झमाणकिट्टी सव्वुक्कस्सिया सा अणंतगुणहीणा । किं कारणं; उदयग्गकिट्टीदो अणंताओ किट्टीओ हेट्ठा ओसरियूणेदिस्से समवट्टाणदसणादो। * विदियसमये उदये उक्कस्सियो अणंतगुण हीणा । ६६०४. कुदो ? अणंतगुणविसोहिमाहप्पेण पढमसमयबंधग्गकिट्टीदो वि अणंतगुणहाणीए परिणमिय विदियसमए उदयुक्कस्सकिट्टीए पवुत्तिणियमदंसाणादो। * बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा। * प्रथम समयमे कृष्टिवेवक जीवके जो कोषकृष्टि उदय में प्रवेश करतो ह वह उत्कृष्ट होकर बहुत ( तीव्र ) अनुभागवाली होती है। ६६०३. सर्वप्रथम क्रोषसंज्वलनके प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे प्रवर्तमान बन्ध और उदय नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे ही प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार प्रवर्तमान बन्ध और उदयोंकी अग्र स्थितियां प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी हीन होकर ही प्रवृत्त होती हैं। उनमें 'पढमसमय० कोहकिट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी' ऐसा कहनेपर उदयमें प्रवेश करनेवाली अनन्त मध्यम कृष्टियां होती हैं, उनमें से जो सबसे उपरिम उत्कृष्ट कृष्टि है वह बहुत अर्थात् तीव्र अनुभागवाली होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा' इस प्रकार कहनेपर बध्यमान कृष्टियां भी अनन्त होती हैं । पुनः उनमें जो बध्यमान कृष्टि सबसे उत्कृष्ट है वह अनन्तगुणी हीन होती है। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि उदयरूप अग्र कृष्टिसे अनन्त कृष्टियां नीचे सरककर इसका अवस्थान देखा जाता है। दूसरे समय में उदय में प्रवेश करनेवाली उत्कृष्ट क्रोषकृष्टि अनन्तगुणहीन अनुभागवालो होती है। ६६०४. क्योंकि पूर्व समयसे अनन्तगुणी विशुद्धिके माहात्म्यवश प्रथम समयमें बंधनेवाली कृष्टिसे भी अनन्तगुणहानिरूपसे परिणमन कर दूसरे समयमें उदयरूप उत्कृष्ट कृष्टिकी प्रवृत्ति देखी जाती है। * किन्तु बन्धमें क्रोधकृष्टि उत्कृष्ट होकर अनन्तगुणहीन अनुभागवाली होती है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए अभवसिद्धिकपाओग्गा अण्णा परूवणा २४१ ६ ६०५. पढमसमय बंधुक्कस्स किट्टीदो अनंतगुण होणविदियसमय उदयुक्कस्स किट्टोदो वि अनंत गुणहाणीए परिणमिय विदियसमये बंधुक्कस्सकिट्टी पयट्टदि त्तिभणिदं होइ । कुदो एवमिदि चे ? परिणामपाहम्मादो । * एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । ६६०६. जहा पढम-विदियसमयेसु बंधोदयउक्कस्सकिट्टीणमप्पा बहुअकमो परुविदो एवं चैव सव्विस्से किट्टी वेदगद्धाए परूवेयव्वो; विसेसाभावादोत्ति भणिदं होइ । संपहि बंधोदयजहण्णकिट्टीi के रिसमप्पा बहुअं होदि त्ति आसंकाए णिरागीकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंभी * पढमसमये बंधे जहण्णिया किट्टी तिव्वाणुभागा । $ ६०७. कुदो ? उदयजहष्णकिट्टीदो उवरि अणंताओ किट्टीओ अब्भुस्सरिणेदिस्से पवृत्तिदंसणादो । * उदये जहण्णिया किट्टी अनंतगुणहीणा । ६६०८. कुदो ? बंधजहण्ण किट्टीदो हेट्ठा अणंताओ किट्टीओ सयलकिट्टोअद्धाणस्सा संखेज्जभागमेतीओ ओसरियणे दिस्से पवृत्तिअब्भुवगमादो । एदस्स भावत्यो-वेदिज्ज माणसयल किट्टीणं हेट्टिमोरिमा संखेज्जदिभागं मोत्तूण मज्झिमबहुभागसरूवेणेव बंधो पयट्टदि । एवं च पयट्टमाण § ६०५. प्रथम समयवर्ती बन्धविषयक उत्कृष्ट कृष्टिसे तथा दूसरे समयवर्ती अनन्तगुणी हीन उदय उत्कृष्ट कृष्टिसे भी अनन्तगुणहानिरूपसे परिणमन करके दूसरे समय में बन्धोत्कृष्ट कृष्टि प्रवृत्त होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- ऐसा किस कारण होता है ? समाधान - परिणामोंके माहात्म्यवश ऐसा होता है । इसी प्रकार समस्त कृष्टिवेदक कालमें प्ररूपणा करनी चाहिए । $ ६०६. जिस प्रकार प्रथम और द्वितीय समय में बन्ध और उदयरूप कृष्टियों के अल्पबहुत्व के क्रमकी प्ररूपणा की है इसी प्रकार समस्त कृष्टिवेदक कालमें प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उक्त कथनमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब बन्ध और उदयरूप घन्य कृष्टियोंका किस प्रकारका अल्पबहुत्व होता है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करने के लिए आगे सूत्रका आरम्भ करते हैं-. प्रथम समय के बन्धमें जघन्य कृष्टि तीव्र अनुभागवाली होती है । ६६०७. क्योंकि उदयमें प्रवृत्त जघन्य कृष्टिसे ऊपर अनन्त कृष्टियों सरककर इस कृष्टिको प्रवृत्ति देखी जाती है । * उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होन होती है। § ६०८. क्योंकि बन्ध जघन्य कृष्टिसे नीचे अनन्त कृष्टियां समस्त कृष्टि अध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण सरककर इसकी प्रवृत्ति देखी जाती है । इसका भावार्थ - वेद्यमान समस्त कृष्टियों के अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग को छोड़कर मध्यम बहुभागस्वरूपसे ही बन्ध प्रवृत्त होता ३१ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे बंधग्गकिट्टी उदयग्गकिट्टीदो अणंतगुणहीणा जादा। हेटा पुण उदयजहण्णकिट्टीदो बंधजहणकिट्टी अणंतगुणा चेव, उरि वि हेट्ठा बंधाणुभागस्स सुट्ठ ओवट्टणासंभवावो ति। * विदियसमये बंधा (बद्धा) जहणिया किट्टी अणंतगुणा । ६६०९. कुदो ? परिणामपाहम्मादो। * उदये जहणिया अणंतगुणहीणा । ६६१०. परिणामविसेसमासेज्ज बंधजहण्णकिट्टीदो उदयजहण्णकिट्टीए पडिसमयमणंत. गुणहाणीए चेव पवुत्तिणियमदंसणादो। * एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । * समये समये णिव्वग्गणाओ जहणियाओ वि य । ६६११. जहा पढम-विवियसमयेसु बंधोक्यजहण्णकिट्टीणमप्पाबहुअकमो पहविवो तहा चेव तवियादिसमएसु वि पहवेयव्यो, विसेसाभावादो ति वुत्तं होइ । एत्य "णिव्वग्गणाओ' त्ति वुत्ते बंधोदयजहण्यकिट्टोणमणतगुणहाणीए ओसरणवियप्पा गहेयम्या । है। और इस प्रकार प्रवृत्त होनेवाली बन्धानकृष्टि उदयानकृष्टिसे अनन्तगुणो हीन हो गयी है। परन्तु नीचे उदय जघन्य कृष्टिसे बन्ध जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी ही होती है, क्योंकि ऊपर भी नीचे बन्धानुभागकी अच्छी तरह अपवर्तना सम्भव है। * दूसरे समयमें बन्धको प्राप्त हुई जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी हीन होती है। ६६०९. क्योंकि परिणामविशेषके माहात्म्यसे ऐसा होता है। * उवयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी हीन होती है। ६६१०. पयोंकि परिणामविशेषका आश्रय कर बन्ध जघन्य कृष्टिसे उदयरूप जघन्य कृष्टिका प्रतिसमय अनन्तगुणी हानिरूपसे ही प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है। * इसी प्रकार सम्पूर्ण कृष्टिपेषककालमें बन्ध और उपयकी अपेक्षा जघन्य रुष्टियोंका अल्पबहत्व जानना चाहिए। सपा प्रत्येक समयमै मपन्य निर्माणाएं इसी प्रकार जाननी चाहिए। ११११. जिस प्रकार प्रथम और द्वितीय समयमै बन्ध नीर अषयरूप जपाय कृष्टियोंके अल्पबस्वके क्रमका कपन दिया है, उसी प्रकार तृतीय मावि समयों में भी कथन करना चाहिए, क्योंकि पूर्व कपनसे इस कपनमें कोई भेद नहीं है। यहाँ 'णिम्वग्गणामो' ऐसा कहनेपर बध मोर अवयसम्बन्धी जपन्य कृष्टियोंके ममन्तगुणी हानिरूपसे अपसरणके विकल्प प्रहण करने चाहिए। ' विशेषार्थ--जो क्रोधकषायके उदयसे अपकणिपर पड़ा है उसके कृष्टिवेवककालमें कमियोका सवय और पाप किस कमसे प्रवृत्त होता है एतविषयक मरूपबस्वका प्रकृतमें प्ररूपण किया गया है। यह तो स्परही है कि अनिवृत्तिकरणमैं इस क्षपकके प्रत्येक समयमें परिणामोंविषयक विधिमनम्तगुणी पढ़ती जाती है और इस कारण मोहनीय कर्मक पषासम्भव भनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना होती जाती है। इस कारण यहाँ कोषकलापकी अपेक्षा स्वयं पौर पम्पकी प्रति किस प्रकार होती है बसी तब्यको स्पा कर लिए प्रकृति में पप और पन्धको Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसे ढीए अण्णा परूवणा २४३ * एसा कोहकिट्टीए परूवणा । ६१२. एसा सव्वा वि बंधोदयजहण्णुक्कस्सकिट्टीणं णिव्वग्गणपरूवणा कोहपढमसंगहकिट्टीए परविदा, तत्थ बंधोदयाणं दोण्हं पि संभवादो ति वुत्तं होइ। संपहि माणादोणं पढमसंगहकिट्टोसु एण्हिमुदयसंबंधो पत्थि, बंधो चेव केवलं संभवइ । सो च हेट्रिमोवरिमासंखेज्जदिभागपरिहारेण मज्झिमबहुभागसरूवेण पयट्टमाणो पडिसमयमणंतगुणहाणीए दृढव्वो ति इममत्थविसेंसं जाणावेमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ होती है अपेक्षा क्रोधकषायके अनुभागके अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए प्रथम बात तो यह स्पष्ट की गयो है कि क्रोधसंज्वलनकी जो तीन संग्रह कृष्टियां हैं उनमेंसे प्रथम संग्रह कृष्टिरूपसे बन्ध और उदय प्रवृत्त होते हुए अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे ही प्रवृत्त होते हैं। और इस प्रकार जो मध्यम कृष्टिया उदयमें प्रवेश करती हैं उनमें जो सबसे उपरिम उत्कृष्ट क्रोधकृष्टि है वह अनन्तगणी हीन होकर तीव्र अनुभागवाली होती है तथा जो बध्यमान अनन्त कृष्टियाँ हैं उनमें जो बध्यमान सबसे उत्कृष्ट कृष्टि है वह पूर्वोक्से अनन्तगुणो होन होती है, क्योंकि उदयको प्राप्त होनेवाली अग्र कृष्टिसे अनन्त कृष्टियां नीचे सरककर इसका अवस्थान प्राप्त होता है। प्रथम समयमें जो अग्रकृष्टि बन्धको प्राप्त होती है उससे दूसरे समयमें विशुद्धिके माहात्म्यवश उदयरूपसे परिणत उत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणी हानिरूप अनुभागवाली होती है। तथा इसी समय बध्यमान उत्कृष्ट कृष्टि भी उदय कृष्टिकी अपेक्षा अनन्तगुणी हानिरूप परिणम कर प्राप्त होती है। अल्पबहुत्वका यह कम इसी विधिसे कृष्टिवेदकके अन्तिम समय तक जानना चाहिए। आगे इन बन्धरूप और उदयको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोंके अनुभागको तीव्रता और मन्दताका निरूपण करते हुए बतलाया है कि प्रथम समयमें बन्धको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोंमें जो सबसे जघन्य कृष्टि बंधती है वह आगे उदय और बन्धको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोंकी तुलनामें तीव्र अनुभागवाली उससे उसी समय उदयको प्राप्त होनेवाली जो जघन्य कृष्टि होती है उसका अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है। दूसरे समयमें इसकी अपेक्षा बन्धको प्राप्त होनेवाली जघन्य कृष्टि अनन्तगुणे हीन अनुभागवाली होती है तथा उससे उसी समय उदयको प्राप्त होनेवाली जपन्य कृष्टि अनन्तगुणे हीन मनुभागवाली होती है। इस प्रकार अनुभागको तीव्रता-मन्दताको अपेक्षा यह अल्पबहत्व भागे भी इसी प्रकार हदयंगम करना चाहिए । समय-समय में बध और उपयरूप कृष्टियों के अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी हानिरूपसे जो अपसरण विकल्परूप निवर्गणाएं प्राप्त होती हैं सम्हें भी इसी विषिसे जान लेना चाहिए। यह सब क्रोषसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम संपहरुष्टिको प्रल्पणा है। १२. यह सब बन्ध और उपयरूप बपन्य और उत्कृष्ट कृष्टियोंकी निर्वगणा प्ररूपणा कोषसंज्यकम टिकी अपेक्षा की गयी है, क्योंकि उसमें बम्प और उवय दोनोंको ही प्ररूपणा सम्भव है यह उक कपनका तात्पर्य है। अब मामसंख्यकम माविकी प्रथम संग्रह कष्ठियोंका इस समय सक्यका सम्बन्ध नहीं है, केवल बम ही सम्भव है और वह भषस्तन और उपरिम मसंख्यात भागको छोड़कर मध्यम बहुभागरूपसे प्रवृत्त होता हुमा प्रतिसमय ममन्त गुणहानिरूपसे ही जानना चाहिए इस प्रकार इस मषिशेषका ज्ञान कराते हुए भागेके सूनबम्मको भारम्भ करते है Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसा पाहुडे * किट्टीणं पढमसमये वेदगस्स माणस्स पढमाए संगह किट्टीए किट्टीणमसंखेज्जा भागा बज्झति । २४४ ६६१३. सुगमं । * सेसाओ संग किट्टीओ ण बज्झति । ६१४. एवं पि सुगमं । * एवं मायाए । * एवं लोमस्स वि । ६१५. एवाणि वो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवमेत्तिएण पबंघेण किट्टी वेद पढमसमये किट्टवाणुभागस्स बंधोदय विसयं पवृत्तिविसेसं णिरूविय संपहि तत्येव किट्टीगदाणुभागे संतकम्मस्स जा पृथ्वं परुविदा अणुसमयोवट्टणा सा एवेण सरूवेण पयट्टदि ति फुडीकरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ* किट्टीणं पढमसमयवेदगो वारसहं पि संगहकिट्टीणमग्गकिट्टिमादि काढूण एक्क्कस्से संगह किट्टीए असंखेज्जदिभागं विणासेदि । ६१६. अनंतगुणविसोहीए वडमाणो एसो पढमसमय किट्टीवेदगो बारसहं पि संगहकिट्टीणमुवरिमभागे उक्कस्सकिट्टिमादि काढूण अनंताओ किट्टीओ एक्केषिकस्से संगह किट्टीए असंखेज्जदिभागमेत्तोओ ओवट्टणाघादेंणेगसमयेण विणासेवि, तेत्तियमेत्तीणं किट्टीणं सत्तीओ कृष्टियोंका प्रथम समय में वेदन करनेवाले क्षपकके मानसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टि सम्बन्धी कृष्टियोंका असंख्यात बहुभाग बँधता है । $ ६१३. यह सूत्र सुगम है । * यहाँ शेष दो संग्रह कृष्टियाँ नहीं बंधती हैं। $ ६१४. यह सूत्र भी सुगम है । * इसी प्रकार मायासंज्वलनकी अपेक्षा जानना चाहिए। * तथा इसी प्रकार लोभसंज्वलनकी अपेक्षा भी जानना चाहिए। ६१५. ये दोनों सूत्र भी सुगम हैं । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा कृष्टिवेदकके प्रथम समय में कृष्टिगत अनुभागका बन्ध और उदयविषयक प्रवृत्तिविशेषका निरूपण करके अब वहीं पर कृष्टिगत अनुभागसत्कर्मकी जो पहले अनुसमय अपवर्तना कह आये हैं वह इस रूपसे प्रवृत्त होती है इस बातका स्पष्टीकरण करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं * कृष्टियोंका प्रथम समय में वेदन करनेवाला जीव बारहों संग्रहकृष्टियोंको अग्र कृष्टिसे लेकर एक-एक संग्रह कृष्टिके असंख्यातवें भागका विनाश करता है । ६१६. अनन्तगुणी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाला यह प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक जीव बारहों संग्रह कृष्टियोंके उपरिम भाग में उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर एक-एक संग्रह कृष्टिकी असंख्यातवें १. आ. प्रती किट्टीत दाणुभाग - इति पाठः । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेडीए अण्णा परूवणा २४५ ओवट्टावेयूण' हेट्टिमकिट्टीसरूवेणेव ठवेवित्ति वुत्तं होइ। एवं विदियादिसमयेसु वि ओवट्टणाघादो एसो अणुगंतव्यो। णवरि पढमसमयविणासिदकिट्टोहितो विदियाविसमयेसु विणासिज्जमाणकिट्टीओ असंखेज्जगुणहीणकमेण दटुव्वाओ; उवरि चुग्णिसुत्ते तहाविहपरूवणोवलंभादो। एवमेसो किट्टीणमणसमयोवट्टणं कुणमाणो किट्टीवेदगपढमसमये चेव आढविय किट्टीकरणद्धाए पुवणिव्यत्तिदकिट्टोणं हेढा तदंतरालेसु च अण्णाओ अपुवकिट्टोओ एदेण विहाणेण णिवत्तेदि त्ति पदुप्पायणफलो उरिमसमयपबंधो * कोहस्स पढमसंगहकिट्टि मोत्तण सेसाणमेक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं अण्णाओ अपुवाओ किट्टीओ णिवत्तेदि । ६६१७. वेदिज्जमाणकोहपढमसंगहकिट्टीवज्जाणं सेसाणमेक्कारसणं संगहकिट्टीणं संबंधिणोओ अण्णाओ अपुवाओ किट्टीओ एसो पढमसमयकिट्टोवेवमओ णिवत्तेदुमाढवेवि ति भणिवं होदि । कोहपढमसंगहकिट्टीए परिवज्जणमेत्य ण कायब्वं, तत्थ वि बंधेण अपुव्वाणं किट्टीणं णिव्वत्तिज्जमाणाणं संभवोवलंभादो ति चे? सच्चमेदं, किंतु कोषपढमसंगहकिट्रोए बंधेणेवापुवामओ किट्टीओ अंतरेसु णिवत्तिज्जंति । सेसाणं पुण संगहकिट्टीणं संकामिज्जमाणपदे. सग्गेण जहासंभवं बज्झमाणपदेसग्गेण च अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तिजंति ति एक्स्स विसेसस्स भागप्रमाण अनन्त संग्रह कृष्टियोंका अपवर्तनाघात द्वारा एक समयमें विनाश करता है। तत्प्रमाण कृष्टियोंकी शक्तिको अपवर्तना करके अधस्तनकृष्टिरूपसे उन्हें स्थापित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी यह अपवर्तनाघात जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमें विनश्यमान कृष्टियोंकी अपेक्षा असंख्यात गुणहीनक्रमसे जानना चाहिए, क्योंकि आगे चूर्णिसूत्र में उस प्रकारसे प्ररूपणा उपलब्ध होती है। इस प्रकार यह कृष्टियोंकी अनुसमय अपवर्तना करता हुआ कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें ही बारम्भ करके कृष्टिकरण कालमें पहले निष्पन्न की गयो कृष्टियोंके नीचे और उनके अन्तरालोंमें अन्य अपूर्व कृष्टियोंको इस विधिसे निष्पन्न करता है इस प्रकारके कथनके फलस्वरूप आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंको अन्य अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। ६६१७. क्रोधसंज्वलनकी वेद्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिसे रहित शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंसे सम्बन्ध रखनेवालो अन्य अपूर्व कृष्टियोंको यह कृष्टिवेदक जीव प्रथम समयमें निष्पन्न करनेके लिए बारम्भ करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका निषेध यहाँपर नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसमें भी बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियां उत्पन्न होती हुई उपलब्ध होती हैं ? समाधान-यह कथन सत्य है, किन्तु क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिके अन्तरालोंमें बन्धसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। परन्तु शेष संग्रह कृष्टियोंकी संक्रम्यमाण प्रदेशके अग्रभागसे और यथासम्भव बध्यमान प्रदेशके अग्रभागसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। इस १. बा. प्रती वड्ढावेयूण इति पाठः । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडै पदंसणटुं 'कोहस्स पढमसंगहकिट्टि मोत्तूणे ति' वृत्तं । * ताओ अपुवाओ किट्टीओ कदमादो पदेसग्गादो णिवत्तेदि । - ६१८. तासिमपुध्वाणं णिवत्तिज्जमाणोणं किट्टीणं कदमादो पदेसग्गादो णिवत्ती होदि, किं बज्झमाणियादो आहो संकामिज्जमाणयादो, उदाहो तदुभयादो ति पुच्छा एदेण कदा होइ । संपहि एदिस्से पुच्छाए णिरारेगीकरण?मुत्तरसुत्तारंभो * बज्झमाणयादो च संकामिज्जमाणयादो च पदेसग्गादो णिव्वत्तेदि । ६६१९. चउण्हं पढमसंगहकिट्टीणं बंधसंभवादो । तत्थ बज्झमाणएण पदेसग्मेण अपुवाओ किट्टीओ णिवत्तेदि । पुणो कोहपढमसंगहकिट्टि मोत्तण सेसाणमेक्कारसहं संगहकिट्टोणं संकामिज्जमाणयादो च पदेसग्गादो अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तेवि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । एदस्स भावत्थो–कोहपढमसंगहकिट्टीए बज्झमाणपदेसग्गादो चेव अपुवाओ किट्टीओ णिवत्तेदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो। माण-माया-लोभाणं तिसु पढमसंगहकिट्टीसु बज्झमाणयादो संकामिज्जमाणयादो च पदेसग्गादो अपुवकिट्टीओ णिवत्तेदि, उहयहा वि तत्थ तप्पवुत्तीए विरोहाभावादो। सेससंगहकिट्टीसु संकामिज्जमाणयादो चेव पदेसग्गादो अपुव्वकिट्टीणं णिवत्ती, तत्थ बज्झमाणपदेसग्गासंभवादो ति। एत्थ 'संकामिज्जमाणयादो' ति वुत्ते ओकडुणासंकमदव्वस्स सव्वत्य गहणं कायव्वं । एवमेदेण दुविहेण पदेसग्गेण णिवत्तिज्जमाणोसु अपुवकिट्टीसु कि बज्झमाणप्रकार इस विशेषके दिखलानेके लिए चूणिसूत्रमें 'कोहस्स पढमसंगहकिट्टि मोत्तण' क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर यह वचन कहा है। * उन अपूर्व कृष्टियोंको किस प्रदेशके अग्रभागसे निष्पन्न करता है। . ६ ६१८. निष्पन्न होनेवाली उन अपूर्व कृष्टियोंको किस प्रदेशके अग्रभागसे निष्पन्न करता है ? क्या बध्यमान कृष्टिसे या संक्रम्यमाण कृष्टिसे, या दोनोंसे; इस प्रकार यह पृच्छा इस सूत्र द्वारा की गयी है । अब इस पृच्छाका समाधान करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * बध्यमान प्रदेशके अग्रभागसे और संक्रम्यमाण प्रदेशके अग्रभागसे उन अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। ६ ६१९. क्योंकि प्रथम संग्रह कृष्टियोंका बन्ध सम्भव है। वहां बध्यमान प्रदेशाग्रसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। पुनः क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके संक्रम्यमाण प्रदेशके अग्रभागसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है यह यहांपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । इसका भावार्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टि के बध्यमान प्रदेशके अग्रभागसे ही अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है, क्योंकि वहाँपर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। तथा मान, माया और लोभसंज्वलनकी तीन प्रथम संग्रह कृष्टियोंमें बध्यमान और संक्रम्यमाण प्रदेशके अग्रभागसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है, क्योंकि उनमें दोनों प्रकारसे ही उसकी प्रवृत्ति होने में विरोधका अभाव है । शेष संग्रह कृष्टियों में संक्रम्यमाण प्रदेशके अग्रभागसे ही अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है, क्योंकि उनमें मध्यमान प्रदेशाग्रका होना असम्भव है। यहांपर 'संकामिज्जमाणयादो' ऐसा कहनेपर यहां सर्वत्र अपकर्षण संक्रम द्रव्यका ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इस दो प्रकारके प्रदेशपुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंमें क्या बध्यमान प्रदेश Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए अभवसिद्धिकपाओग्गा अण्णापरूपणा २४७ पदेसग्गादो णिव्वत्तिज्जमाणकिट्टीओ बहुगीओ, आहो संकामिज्जमाणयादो ति आसंकाए गिरारेगीकरण?मुत्तरसुत्तावयारो * बल्झमाणियादो थोवाओ णिव्वत्तेदि । ६६२०. कुदो ? एगसमयपबद्धमेत्तदव्वेण णिव्यत्तिज्जमाणाणं तासिं थोवभावसिद्धोए णिव्वाहमुवलंभादो। * संकामिज्जमाणयादो असंखेज्जगुणाओ। ६६२१. कुदो ? दिवड्डगुणहाणीणमसंखेज्जविभागमेत्तसमयपबद्धहि एवासि णिव्वत्तिदसणादो। प चेदमसिद्धं, तिगुणोकडणभागहारेण दिवडगुणहाणिमेत्तसमयपबढेसु ओवट्टिदेसु संकामिज्जमाणवष्वस्सागमणदसणादो। तदो दवमाहप्पमस्सियूण सिद्धमेदासिमसंखेज्जगुणतं। गुणगारो च पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतो। एवमेदासि थोवबहुत्तं पदुप्पाइय संपहि बज्झमाणेण पदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जमाणाणं किट्टीणं सेससंगहकिट्टीपरिहारेण चदुसु चेव पढमसंगहकिट्टीसु संभव. विसेसावहारणटुमुत्तरसुत्तारंभो * जाओ ताओ बज्झमाणयादो पदेसग्गादो णिव्वत्तिज्जति ताओ चदुसु पढमसंगह किट्टीसु । पुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली कृष्टियां बहुत होती हैं या संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली कृष्टियां बहुत होती हैं ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं * बध्यमान प्रदेशपुंजमेंसे स्तोक अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। 5६२०. क्योंकि एक समयप्रबद्धमात्र द्रव्यसे निष्पन्न होनेवाली उन अपूर्व कृष्टियोंके स्तोकपनेकी सिद्धि निर्बाधरूपसे पायो जाती है। * तथा संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टिया असंख्यातगुणी होती हैं। -६६२१. क्योंकि डेढ़ गुणहानियोंके असंख्यातवें भागमात्र समयप्रबद्धोंसे इन अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति देखी जाती है। और यह कथन असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि तिगुणे अपकर्षण भागहारसे डेढ़ गुणहानिमात्र समयप्रबद्धोंके भाजित करनेपर संक्रम्यमाण द्रव्यका आना देखा जाता है। इसलिए द्रव्यकी अधिकताका आलम्बन लेनेपर इन अपूर्व कृष्टियोंका असंख्यातगुणपना सिद्ध हो जाता है। यहांपर गुण कार पल्योपमका असंख्यातवा भाग है। इस प्रकार इनके अल्पबहत्वका कथन करके अब बध्यमान प्रदेशपुंजसे निष्पन्न होनेवाली कृष्टियां शेष संग्रह कृष्टि छोड़कर चार ही प्रथम संग्रह कृष्टियोंमें सम्भव हैं इस विशेषका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * जो वे अपूर्व कृष्टियां बध्यमान प्रवेशपुंजमेंसे निष्पन्न की जाती हैं ये चारों प्रथम संग्रहकृष्टियों में पायी जाती हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5६२२. बज्झमाणपदेसग्गणिव्यत्तिज्जमाणतदिय-चदुसु चेव पढमसंगहकिट्टीसु संभवो, णाणत्थे त्ति वुत्तं होदि । कुदो एस णियमो चे? ण, तत्तो अण्णासिमेदम्मि विसये बंघसंभवाणुव. लंभादो। संपहि तासि बज्झमाणपदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टीणं कदमम्मि ओगासे णिवत्ती होदि ति आसंकाए णिरारेगीकरणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो * ताओ कदमम्मि ओगासे ? ६६२३. किं ताव सगपदेसग्गमुवलंभादो, आहो तदवयवकिट्टोणं अंतरंतरेसु ति पुच्छिदं होदि । संपहि एदिस्से पुच्छाए णिण्णयविहाण?मुत्तरसुत्तणिद्देसो * एक्कक्किस्से संगहकिट्टीए किट्टीअंतरेसु । ६६२४. संगहकिट्टीणमंतरेसु ताव बज्झमाणपदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टोणं णत्यि संभवो, चदुहं पढमसंगहकिट्टीणं मज्झिमकिट्टीसहवेण पयट्टमाणणवकबंधाणुभागस्स तत्तो हेट्ठा पवुत्तिविरोहावो। तदो एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अवयवकिट्टोणमंतरेसु बज्झमाणपदेसग्गेणापुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तेदि ति सिद्धं । संपहि किमविसेसेण एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए सवकिट्टीअंतरेसु तासि संभवो आहो अत्थि को वि विसेससंभवो त्ति आसंकाए पुच्छासुत्तमाह ६६२२. क्योंकि वे बध्यमान प्रदेशपुंजसे निष्पन्न होनेवाली प्रथम संग्रह कृष्टियोंमें सम्भव हैं, अन्य कृष्टियोंमें नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह नियम किस कारणसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि उन चारोंको छोड़कर अन्य संग्रह कृष्टियोंका इस स्थानमें बन्ध सम्भव नहीं उपलब्ध होता। अब बध्यमान प्रदेशपुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली उन अपूर्व कृष्टियोंकी किस अवकाश ( अन्तराल ) में निष्पत्ति होती है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * उन अपूर्व कृष्टियोंको किस अवकाश ( अन्तराल ) में निष्पन्न करता है ? ६६२३. क्या जहाँसे अपना प्रदेशपुंज उपलब्ध होता है वहींसे निष्पन्न करता है या उनकी अवयव कृष्टियोंके उत्तरोत्तर अन्तरालोंमें निष्पन्न करता है इस प्रकार यह पृच्छा की गयी है। अब इस पृच्छाके निर्णयका निर्देश करनेके लिए आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं * एक-एक संग्रहकृष्टिके अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। ६ ६२४. संग्रह कृष्टियोंके अन्तरालोंमें तो बध्यमान प्रदेशपुंजमेंसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंको निष्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि चारों प्रथम संग्रह कृष्टियोंके मध्यम कृष्टिरूपसे प्रवर्तमान नवकबन्धसम्बन्धी अनुभागका उससे नीचे प्रवृत्ति होनेमें विरोध आता है। इसलिए एक-एक संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें बध्यमान प्रदेश-पुंजमेंसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है यह सिद्ध हुआ। अब क्या अविशेषरूपसे एक-एक संग्रह कृष्टिकी सब अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उनका प्राप्त होना सम्भव है या कोई विशेष सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर पृच्छसूत्र कहते हैं Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ खवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुवकिट्टोणं परूवणा * किं सव्वेसु किट्टीअंतरेसु आहो ण सव्वेसु ? ६६२५. सुगमं। * ण सव्वेसु । ६६२६. ण सव्वेसु किट्टीअंतरेसु तासिमस्थि संभवो, किंतु पडिणियवकिट्टोअंतरेसु चेव तासिमुप्पत्ती होइ त्ति भणि होदि। एवं सो वुण जइ ण सम्वेसु किट्टीअंतरेसु तो कदमेसु किट्टोअंतरेसु तासिमुप्पत्तिविसओ त्ति भण्णमाणो पुणो वि पुच्छाणिद्देसमाह * जइ ण सव्वेसु, कदमेसु अंतरेसु अपुवाओ णिवत्तयदि । 5 ६२७. केत्तियमेत्ताणि किट्टीअंतराणि मोतूण पुणो केत्तिएसु किट्टीअंतरेसु ताओ अपुवाओ किट्टीओ बज्झमाणपदेससंबंधिणोओ णिवत्तेदि ति पुच्छा कदा होइ। * उवसंदरिसणा। ६६२८. एत्तियाणि किट्टीअंतराणि उल्लंघियूण पुणो एत्तियमेत्तेसु किट्टीअंतरेसु तासि णिवत्ती होदि त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणमुवसंदरिसणा णाम । तमिदाणि परवइस्सामो त्ति वुत्तं होइ। * क्या सब अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता है या सभी अवयव कृष्टियों के अन्तरालोंमें उनकी रचना नहीं करता है ? ६६२५. यह सूत्र सुगम है। * सब अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति नहीं करता। १६२६. सब अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति करना सम्भव नहीं है; किन्तु प्रतिनियत अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें ही उनकी निष्पत्ति होती है यह उक्त सूत्र द्वारा कहा गया है। इस प्रकार वह यदि सब अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उनकी निष्पत्ति नहीं होती तो कितने कृष्टियोंके अन्तरालोंमें वे निष्पत्तिका विषय होती हैं, ऐसा कहनेवाला फिर भी पृच्छाका निर्देश करता है . * यदि सब अवयव कृष्टियोंमें उन्हें निष्पन्न नहीं करता है तो कितनी अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है। ६२७. कितने अवयव कृष्टियोंसम्बन्धी अन्तरालोंको छोड़कर पुनः कितने अवयव कृष्टियोंसम्बन्धी अन्तरालोंमें बध्यमान प्रदेशपुंजसम्बन्धी उन अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है यहां यह पृच्छा की गयी है। * आगे उसी विषयको स्पष्ट करते हैं। ६६२८. इयत्प्रमाण अवयव कृष्टियोंके अन्तरालोंका उल्लंघन कर पुन: इयत्प्रमाण अवयव कृष्टि-अन्तरालोंमें उन अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है इस प्रकार इस अर्थविशेषका स्पष्टीकरण करनेका नाम उपसंदशिना है । आगे इस समय उसकी प्ररूपणा करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ३२ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * बज्झमाणियाणं जं पढमं किट्टीअंतरं तत्थ णस्थि । ६२९. बज्झमाणसंगहकिट्टीणं हेटिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणं किट्टीणमंतरेसु ताव बंधेण अपुवकिट्टी ण णिव्वत्तिज्जदि, तदायारेण बंधपवुत्तीए असंभवादो। तदो बज्झमाणमजिसम. किट्टीसरूवेण तदंतरेसु च णवकबंधपदेसग्गेण किट्टीओ णिव्वत्तिज्जति । तत्य वि बज्झमाणियाणं जं पढमं किट्टीअंतरं तत्थ गस्थि अपुवाओ किट्टीओ। कुदो ? साहावियादो। * एवमसंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि अधिच्छिदूण । ६ ६३०. एवमेदेण कमेण असंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि समुल्लंघियूण तदित्यकिट्टीअंतरे अपुवकिट्टीए संभवो त्ति भणिदं होदि । संपहि एक्स्स चेव अद्धाणस्स फुडीकरण?मिदमाह * किट्टीअंतराणि अंतरद्वदाए असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । ६६३१. एदाणि किट्टीअंतराणि बंधेण णिव्वत्तिज्जमाणापुवकिट्टीए अंतरभावेण पयट्टमाणाणि केत्तियमेत्ताणि त्ति पुच्छिदे असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलाणि ति तेसि पमाणणिद्देसो कदो। बज्झमाणजहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तकिट्टीओ गच्छंति ताव' णवकबंधाकट्टोपदेसग्गं पुवकिट्टीसु चेव सरिसपणियसरूवेण परिणमिय पुणो तवणंतरोवरिम * बध्यमान कृष्टियोंसम्बन्धी जो प्रथम अवयव कृष्टि-अन्तर है उसमें उन अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति नहीं करता है। 5६२९. नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागप्रमाण बध्यमान संग्रह कृष्टियोंके कृष्टि अन्तरालोंमें तो बन्धरूपसे अपूर्व कृष्टियों को निष्पन्न नहीं करता है, क्योंकि उस रूपसे बन्धकी प्रवृत्ति होना सम्भव नहीं है। इसलिए बध्यमान मध्यम कृष्टियोंके रूपसे और उनके अन्तरालों में नवकबन्ध प्रदेशपुंजमें से अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न किया जाता है। उसमें भी बध्यमान कृष्टियोंका जो प्रथम कृष्टि अन्तर है उसमें अपूर्व कृष्टियां नहीं पायी जाती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। * इस प्रकार असंख्यात कृष्टि अन्तरालोंको उल्लंघन कर ६६३०. इस प्रकार इस क्रमसे असंख्यात कृष्टि अन्तरालोंको उल्लंघन कर वहां प्राप्त होनेवाले कृष्टि-अन्तरालमें अपूर्व कृष्टिकी उत्पत्ति होती है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। अब इसी स्थानको स्पष्ट करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं ___विवक्षित कृष्टि अन्तरालको प्राप्त करनेके लिए जो कृष्टि-अन्तराल होते हैं वे पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण होते हैं। ६६३१. बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टि के लिए अन्तररूपसे प्रवृत्त होनेवाले ये कृष्टि-अन्तराल कितने होते हैं ऐसा पूछनेपर वे पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण होते हैं इस प्रकार उनके प्रमाणका निर्देश किया है। बध्यमान जघन्य कृष्टिसे लेकर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण कृष्टियां जबतक व्यतीत होती हैं तब जाकर नवकबन्धरूप कृष्टिका प्रदेशपुंज पूर्व कृष्टियोंमें ही सदृश धनरूपसे परिणमन करके पुनः तदनन्तर उपरिम कृष्टि अन्तरालमें १. ता. आ. प्रत्योः जाव इति पाठः । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुवकिट्टीणं परूवणा २५१ किट्टीअंतरे अपुवकिट्टीआयारेण परिणमिदुं लहदि, ण तत्थ पडिसेहो अत्थि ति भावत्यो। संपहि इममेवत्थमुवसंहारमुहेण पदंसेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्यत्तिज्जदि । ६६३२. गयत्थमेदं सुत्तं। एत्तो उवरि पुणो वि एत्तियमद्धाणं गंतूण विदिया अपुग्वकिट्टी णिवत्तिज्जदि त्ति जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं * पुणो वि एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टो णिव्वत्तिज्जदि । ६ ६३३. गयत्थमेदं पि सुत्तं । एवमेदमट्टिदमद्धाणमंतरं कादूण णेदव्वं जाव सयलकिट्टीअद्धामस्स · असंखेज्जविभागमेतीणं बंधेण णिवत्तिज्जमाणापुवकिट्टोणं चरिमकिट्टी बंधगद्धा. किट्टीदो हेढा असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तद्धाणमोसरिदूण समुप्पण्णा ति एसो एत्थतणचरिमवियप्पो। संपहि एदस्सद्धाणस्स सुत्तणिहिट्ठस्स फुडीकरणं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणहाणितिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं जइ एगसंगहकिट्टीए सयलावयकिट्टीओ लभंति तो एगसमयपबद्धमत्तणवकबंधपदेसग्गस्स केत्तियमेत्तीओ अपुवकिट्टीओ लहामो ति तेरासियं कादूण ०-३२९० पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए बंधेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुव्वकिट्टीणं पमाणं पुवकिट्टीणमसंखेदिभागमेत्तमागच्छदि । अपूर्व कृष्टिके आकारसे परिणमनको प्राप्त करता है, वहां ऐसा होने में कोई प्रतिषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी अर्थको उपसंहार द्वारा दिखलाते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इतने कृष्टि-अन्तरालोंको बिताकर अपूर्व कृष्टिको निष्पन्न करता है। ६६३२. यह सूत्र गतार्थ है । इससे आगे पुनरपि इतना स्थान जाकर दूसरी अपूर्व कृष्टिको निष्पन्न करता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है * फिर भी इतने कृष्टि-अन्तरालोंको उल्लंघन कर अपूर्व कृष्टिको निष्पन्न करता है। ६६३३. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार इस अवस्थित स्थानरूप अन्तरालको प्राप्त करके जब जाकर समस्त कृष्टि-स्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंका अन्तिम कृष्टि बन्धक काल, विवक्षित कृष्टिसे पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल स्थान पोछे सरकनेपर उत्पन्न होता है । इस प्रकार यह यहाँ सम्बन्धी अन्तिम विकल्प है। अब सूत्रनिर्दिष्ट इस स्थानको स्पष्ट करते हैं। वह जैसे-डेढ़ गणहानिके त्रिभागमात्र समयप्रबद्रोंको यदि एक संग्रह कृष्टिसम्बन्धी समस्त अवयव कृष्टियां प्राप्त होती हैं तो एक समयप्रबद्धप्रमाण नवकबन्धसम्बन्धी प्रदेशपुंज में कितनी अपूर्व कृष्टियां प्राप्त करेंगे, इस प्रकार त्रैराशिक करके फल राशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाणराशिसे भाजित करनेपर बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंका प्रमाण पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण (ई) प्राप्त होता है। .. उदाहरण-डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध १२, विभागप्रमाण समय प्रबद्ध ४, एक संग्रह कृष्टिको अवयव कृष्टियां ९। __ यदि त्रिभागप्रमाण समयप्रबद्ध ४ की ९ अवयव कृष्टियां बनती हैं तो एक समयप्रबद्धसम्बन्धी नवकबन्धकी कितनी अपूर्व कृष्टियां बनेंगी, इस प्रकार इस विधिसे ९४१ = ९, Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पुणो एत्तीयमेत्तीणपुण्य किट्टीणं जइ सयलकिट्टी अद्धाणं लब्भइ, तो एक्किस्से अपुष्व किट्टीए केसियमद्धाणं लभामो त्ति १ । १ । १ पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओर्वाट्टिदाए दिवडगुणहाणितिभागमेकिस्से अgoafकट्टीए लद्धद्धाणं होदि । तं च एदं ४ । तदो सिद्धमसंखेज्जप लिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तमद्वाणमुल्लंघियूण एक्का अपुव्वकिट्टी बंधेण निव्वत्तिज्जमाणिया लब्भदित्ति एसा च परूवणा कोह- माण- माया-लोहसंजलणाणं पढमसंगह किट्टीओ पादेक्कं णिरंभियूण जोजेयव्वा । raft कोहसंजणपढमसंगह किट्टीए तेरसगुणमेगकिट्टीदव्वं ठविय तेरासियं कायध्वं । एवमेदं पविय संपहि बंघेण निव्वत्तिज्जमाणीसु पुग्धापुव किट्टीसु णवकबंधपदेसग्गस्स णिसेगक्कमपदंसमुरिमं सुत्तपबंधमाह - * बज्झमाणयस्स पदेसग्गस्स णिसेगसेढिपरूवणं वत्तहस्सामो । ६३४. सुगमं । * तत्थ जहणियाए किट्टीए बज्झमाणियाए बहुअं । * विदियाए किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण । २५२ ९÷४= त्रैराशिक करनेपर : अपूर्वं कृष्टियां प्राप्त हुईं। यहाँ फलराशि ९ है, इच्छाराशि १ है और प्रमाणराशि ४ है । अतएव फलराशि ९ से इच्छाराशि १ को गुणित कर प्रमाणराशि ४ का भाग देकर अपूर्व कृष्टियां प्राप्त की गयी हैं । पुन: इयत्प्रमाण (3) अपूर्व कृष्टियों का यदि समस्त कृष्टिस्थान ( ९ ) प्राप्त होता है तो एक अपूर्व कृष्टिका कितना स्थान प्राप्त करेंगे इस प्रकार फलराशि ( ९ ) से गुणित इच्छाराशि (१) में प्रमाणराशि (ड) का भाग देनेपर डेढ़ गुणहानि ( १२ ) का त्रिभागमात्र एक अपूर्व कृष्टिका लब्धस्थान (४) प्राप्त होता है । और वह यह है - (४) । उदाहरण - अपूर्व कृष्टियां प्रमाणराशि, सक्ल कृष्टि अध्वान ९ फल राशि, इच्छाराशि १, अतः ९× १=९; ९÷१ = ४ अपूर्व कृष्टिका लब्धस्थान । यहाँ त्रैराशिक के नियमानुसार फलराशि ९ से इच्छा राशि १ का गुणा किया गया है और लब्ध ९ में प्रमाणराशि का भाग देकर लब्ध अपूर्व कृष्टि अध्वान ४ प्राप्त किया गया है । इसलिए पत्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण स्थानोंको उल्लंघन कर बन्ध निष्पन्न होनेवालो एक अपूर्व कृष्टि प्राप्त होती है । और इस प्रकार यह प्ररूपणा क्रोध, मान, माया और लोभसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टियोंमेंसे प्रत्येकको विवक्षित कर योजित कर लेनी चाहिए | इतनी विशेषता है कि क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिके तेरहगुणे एक कृष्टि द्रव्यको स्थापित करके बन्धसे निष्पन्न होनेवालो पूर्व और अपूर्व कृष्टियों में नवकबन्धके प्रदेश पुंजके निषेरु क्रमको दिखलाने के लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब बध्यमान प्रवेशपुंजके निषेकोंसम्बन्धो श्रेणिप्ररूपणाको बतलावेंगे । ६६३४. यह सूत्र सुगम है । वहाँ बध्यमान जघन्य कृष्टिमें बहुत प्रदेशपुंज देता है। * दूसरी कृष्टिमें अनन्तवाँ भाग विशेष होन देता है । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए बज्झमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुवकिट्टीणं परूवणा २५६ * तदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । * चउत्थीए विसेसहीणं । * एवमणंतरोवणिधाए ताव विसेसहीणं जाव अपुव्वकिट्टिमपत्तो त्ति । ६६३५. एदस्स सुत्तस्सत्थो वुच्चदे। तं जहा-चउण्हं पढमसंगहकिट्टीणं हेट्टिमोवरिमासंखेज्जविभागं मोरण सेसासेसमज्झिमकिट्टीसरुवेण पयट्टमाणो णवकबंधाणुभागो पुवकिट्टीसरूवो वि अस्थि, अपुवक्ट्टिीसरूवो वि। तत्थ पुवकिट्टीसु णिसिंचमाणपदेसागं णवक बंधसमयपबद्ध. स्साणंतिमभागमेत्तं होदि। सेसा अणंता भागा अपुवकिट्टिसरूवेण णिसिचंति । तदो णवकबंध. समयपबद्धस्साणंतभागे पुध ठविय तदणंतिमभागं घेण पुन्वकिट्टीसु बंधजहण्णमादि कादूण णिसिंघमाणो तत्थ जा बंधजहण किट्टी तिस्से उवरि बहुअं पदेसग्गं देदि । णवकबंधसमयपबद्धस्साणंतिमभागे किट्टीअद्धाणेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तदश्वमणंतभागन्भहियं कादूण णिरुद्धजहण्ण. किट्टीए णिसिंचदि त्ति वुत्तं होदि । तत्तो विदियाए किट्टीए विसेसहीणं देदि । केत्तियमेण ? अणंतिमभागमेत्तेण । बंधजहण्णकिट्टीए णिसित्तपदेसगं णिसेयभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडमेत्तेण विसेसहीणं कादूण विदियकिट्टीए पदेसग्गमेसो णिसिदि। अण्णहा गोवुच्छायाराणुप्पत्तीदो त्ति भावत्थो। एवमेदेण कमेण तदियचउत्थादिकिट्टीसु वि अणंतभागहीणं काढूण णेदव्वं जाव असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि उल्लंघियूण तम्मि अंतरे णिव्वत्तिज्जमाणापुवकिट्टीवो * तीसरी कृष्टिमें अनन्तवा भाग विशेष हीन देता है। * चौथी कृष्टि में विशेष हीन देता है। * इस प्रकार अनन्तरोपनिधाकी विधिके अनुसार श्रेणिरूपसे अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेष हीन-विशेष हीन प्रदेशपुंज देता है। ६६३५. अब इसका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-चारों प्रथम संग्रह कृष्टियोंके नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष समस्त मध्यम कृष्टिरूपसे प्रवर्तमान नवकबन्धसम्बन्धी अनुभाग पूर्व कृष्टिस्वरूप भी होता है और अपूर्व कृष्टिस्वरूप भी होता है। उसमें पूर्व कृष्टियोंमें सिंचित होनेवाला प्रदेशपुंज नवबन्धसम्बन्धी समयप्रबद्धके अनन्तवें भागप्रमाण होता है। शेष अनन्त बहुभागको अपूर्व कृष्टिरूपसे सिंचित करता है। इसलिए नवकबन्ध समयप्रबद्धके अनन्त बहुभागको पृथक् स्थापित कर तथा उसके अनन्तवें भागको ग्रहण कर पूर्व कृष्टियोंमें बन्धसम्बन्धी जघन्य कृष्टिसे लेकर सिंचन करता हुआ जो बन्धसम्बन्धी जघन्य कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंजको देता है । तथा नवकबन्ध-समयप्रबद्धके अनन्तवें भागके कृष्टि अध्वानके द्वारा खण्डित करनेपर वहां जो एक भागमात्र द्रव्यको अनन्तवा भाग अधिक करके विवक्षित जघन्य कृष्टिमें सिंचित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । पुनः उससे विशेष हीन दूसरी कृष्टिमें देता है। शंका-कियत्प्रमाण हीन देता है? समाधान-अनन्तवा भाग हीन देता है। अर्थात् बन्ध जघन्य कृष्टिमें सिंचित किये गये द्रव्यको निषेकभागहारसे खण्डित करके दूसरी कृष्टिमें प्रदेशपंजको वह सींचता है, अन्यथा गोपुच्छाकारको उत्पत्ति नहीं हो सकती यह इसका भावार्थ है। इस प्रकार इस क्रमसे तीसरी और चौथी आदि कृष्टियोंमें उत्तरोत्तर अनन्त भागहीनअनन्त भागहीन करके पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूगेको उल्लंघन कर उस अन्तरालमें Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडै हेट्टिमाणंतरकिट्टि ति, एवम्मि अद्धाणे अणंतभागहाणि मोतूण पयारंतरासंभवादो। पुणो एवम्मि अंतरे दोण्हं पुवकिट्टोणमंतराले णिवत्तिज्जमाणपढमापुवकिट्टीए केरिसो पदेसणिसेगो होदि त्ति आसंकाए णिरारेगीकरण?मुत्तरसुत्तणिद्देसो * अपुवाए किट्टीए अणंतगुणं । ६६३६. कि कारणं? पुवमणिय दृध ट्रविदाणंतभागमेत्तदव्वे अपुवकिट्टोअद्धाणेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तदव्वस्स हेट्ठिमाणंतरपुवकिट्टोए णिवदिवदव्वादों अणंतगुणस्स तत्थ णिवखेवदसणादो। एदस्स दव्वस्स ओवट्टणं ठविय सिस्साणमेत्य अत्थपडिबोहो कायव्वो। * अपुव्वादो किट्टीदो जा अणंतरकिट्टी तत्थ अणंतगुणहीणं। ६६३७. एस्थ वि कारणमणंतरपलविदमेव बटुव्वं । तदो पुवापुवकिट्टीसु एयगोवुच्छासंपायणटुं हेट्टिमोवरिमपुष्वकिट्टीसयलवघ्यावो अणंतभागेणहीणमहियं च कादूण णिसिंचमाणस्स मज्झिमापृव्यकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गमणंतगुणं जावमिवि एसो एक्स्स भावत्यो । संपहि एत्तो उवरि सव्वस्थ अणंतरोवणिषाए अणंतभागहीणं पवेसणिक्खेवं कुणमाणो गच्छवि जाव असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण द्विवविवियापुठवकिट्टीए समणतरहेट्ठिमपुवकिट्टि ति, एवम्मि अखाणे अणंतभागहीणपवेसणिवखेवं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो ति इममत्थविसेसं पदुप्पायेमाणो सुत्तमुत्तरं भणहनिष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टिसे अधस्तन अनन्तर कृष्टिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए, क्योंकि इस अध्वान में अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । पुनः इस अन्तराल में दो पूर्व कृष्टियोंके अन्तरालमें निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टिमें प्रदेशनिषेक किस प्रकारका होता है ऐसी मशंका होनेपर नि:शंक करने के लिए आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं-- * अपूर्व कृष्टिमें अनन्तगुणे प्रवेशपुंजको निक्षिप्त करता है। ६६३६. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-पहले निकालकर पृथक् रखे हुए अनन्त बहुभागमात्र द्रव्यको अपूर्व कृष्टिके मध्यानसे भाजित करनेपर वहाँ प्राप्त एक मात्र द्रव्य जो कि अधस्तन मनन्तर पूर्व कृष्टिमें निक्षिप्त प्रग्यसे मनन्तगुणा है-उसका उस अपूर्व जपन्य कृष्टिमें निक्षेप देखा जाता है। इस अध्यकी अपवतमा स्थापित करके यहाँ शिष्योंको बर्षका प्रतिबोध कराना चाहिए। * अपूर्व राष्टिले जो मनन्तर कष्ट है उसमें अनन्तगुणे होन अन्यको निक्षिप्त करता है। १६३७. यहाँपर भी ममन्तर महामाही कारण जानना चाहिए। अतः पूर्व और अपष्टियों में एक गोल्छाका सम्पादन करने के लिए मस्तान और उपरिम पूर्वष्टियों के समस्त प्रय श्रमम्तवें भागहीन व्यको अधिक करके सिधित करते हुए मध्यम अपूर्व इष्टिमें निमित प्रवेशाज ममन्तगुणा हो जाता है इस प्रकार यह इसका भावार्य है। अब इस मागे सर्वत्र मनम्तरोपनिषा कमसे मनात भागहीन प्रदेशजका निक्षेप करता मा पस्योपमो संख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण मध्यान (स्थान) ऊपर जाकर स्थित पूसरी अपूर्व कृष्टिके समानान्तर अपस्तन अपूर्व कृष्टि प्राप्त होने तक इस मध्याममै मनन्त भागहीन प्रदेशोंके निक्षेपको छोड़कर मन्य प्रकार सम्भवनहीं है इस प्रकार इस भविशेषका प्रतिपादन करते हुए मागके सूत्रको कहते Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए संकामिज्जमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुत्वकिट्टोणं परूवणा २५५ * तदो पुणो अणंतभागहीणं । 5 ६३८. सुगमं। संपहि एत्तो परमपुज्वकिट्टीसरूवेणाणंतगुणं पदेसगं णिसिंचिय पुणो तदुवरिमपुवकिट्टीए अणंतगुणहीणं णिसिंचदि । तत्तो परमणंतभागहीणं जाव अण्णमपवकिट्टी ण पत्ता त्ति । पुणो अपवकिट्टीए पव्वं वा अणंतगुणं, तदो अणंतगुणहीणो, तत्तो परमणंतभागहीणमिदि एदेण कमेण उवरि सव्वत्थ णेदव्वमिदि जाणावणफलो उवरिमसुत्तारंभो * एवं सेसासु सव्वासु । .६६३९. पयत्यमेदं सुत्तं । एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेण बंधेण णिव्वत्तिज्जमाणीणमपुवकिट्टीणं सरूवविणिण्णयं कादूण संपहि संकामिज्जमाणेण पदेसग्गेण कोहपढमसंगहकिट्टि मोत्तण सेसाणमेक्कारसण्हं संगहकिट्टीणमवयवभावेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टीणं परूवणं कुणमाणो सत्तपबंधमुत्तरं भणइ___* जाओ संकामिजमाणियादो पदेसग्गादो अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तिजंति ताओ दुसु ओगासेसु । ६६४०. एत्थ संकामिज्जमाणपदेसग्गमिवि वृत्ते ओकडुणासंकमेण संकामिज्जमाणवश्वस्त गहणं कायव्वं; तस्सेव बध्वस्स संगहकिट्टीणं साहारणभावेण पहाणभावोवलंभावो । तेण संकामिज्जमाणएण पदेसग्गेण जाओ अपुवाओ किट्टीमो णिव्वत्तिजंति, ताओ बोसु ओगासेस तवनन्तर पुनः पूर्व कृष्टिमें अनन्त भागहीन प्रवेशपुंज निक्षिप्त करता है। ६६३८. यह सूत्र सुगम है। अब इससे आगे अपूर्व कृष्टिरूपसे अनन्तगुणे प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करके पुन: उससे आगेकी पूर्व कृष्टिमें अनन्त गुणहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। पुनः उससे आगे जबतक अन्य अपूर्व कृष्टि नहीं प्राप्त होती तबतक अनन्त भागहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। पुन: अपूर्व कृष्टि में पहलेके समान अनन्तगुणा प्रदेशपुंज निक्षिप्त करके तवनन्तर पूर्व कृष्टिमें अनन्तगुणा हीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है। फिर उससे आगे अनन्तमागहीन प्रदेशजका निक्षेप करता है। इस प्रकार इस क्रमसे मागे सर्वत्र ले जाना चाहिए इस प्रकारका शान कराना है फल जिसका ऐसे भागेके सूत्रका भारम्भ करते है कासी प्रकार बध्यमान सबष्टियों में जानना चाहिए। १६३९. यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार इतने सूत्र प्रबन्ध द्वारा बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंके स्वरूपका निर्णय करके मब संक्रम्यमाण प्रवेशपुजसे क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकि अवयवरूपसे निष्पचमान अपूर्व कृष्टियोंका कथन करते हुए मागेके सूत्रप्रबम्पको कहते है समयमाण प्रदेशमसे मोमष्टिया मिपमती मोमबकाशों (अन्तराकों) में निपनती है। ४०. यहाँपर 'सकामिनमाणपसर्ग' ऐसा कहनेपर अपकर्षण संक्रमके द्वारा कम्पमाण पका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसी प्रम्पको संग्रह कृष्टियोंके साधारणपसे प्रधानता पायी जाती है। इसलिए संझम्पमाण प्रयापुनके द्वारा मोमपूर्व कमियां निपजती Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णिवत्तिजंति ति सुत्तत्थसंबंधो। संपहि के ते दुवे ओगासा ति आसंकिय पुच्छावक्कमाह * तं जहा। ६६४१. सगमं। * किट्टीअंतरेसु च संगहकिट्टीअंतरेसु च । 5 ६४२. कोहपढमसंगहकिट्टि मोत्तूण सेसाणमेक्कारसण्हं. संगहकिट्टोणं हेढा तासिमसंखेज्जदिभागपमाणेण जाओ णिव्वत्तिज्जंति अपुवकिट्टीओ ताओ संगहकिट्टीअंतरेस त्ति भणंति । तासि चेव एक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं किट्टोअंतरेसु पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागमेत्तद्वाणं गंतूण अंतरंतरे जाओ अपुवकिट्टीओ णिव्वत्तिज्जति ताओ किट्टीअंतरेस त्ति वुच्चंति । वेदिज्जमाणकोहपढमसंगहकिट्टीए हेटा किट्टीअंतरेस वा सगपदेसग्गमोकड्डियूण अपुठवकिट्टीओ किण्ण कीरति ? ण, विणासिज्जमाणाए तिस्से तहाविहसंभवाणुवलंभादो। तम्हा तप्परिहारेण सेसाणमेक्कारसण्हमेव संगहकिट्टीणं संबंधेण संकामिज्जमाणयेण पदेसग्गेण अपुवाओ किट्टीओ णिवत्तेवित्ति भणिदं। * जाओ संगहकिट्टीअंतरेसु ताओ थोवाओ। ६४३. एदाओ पुवकिट्टीणमसंखेज्जविभागमेत्ताओ होदूण थोवाओ ति भणिबाओ। कि दो अन्तरालों में निपजती है ऐसा इस सूत्रके साथ गर्थका सम्बन्ध है। अब वे दो अन्तराल कौन हैं ऐसी आशंका करके पृच्छावाक्य कहते हैं * वह जैसे। ६ ६४१. यह सूत्र सुगम है। * वे संक्रम्यमाण अपूर्व कृष्टियाँ कृष्टि अन्तरालोंमें और संग्रह कृष्टि अन्तरालों में निपजती है। ६६४२. क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कष्टियोंके नीचे उनके असंख्यातवें भागप्रमाण जो अपूर्व कृष्टियां निपजती हैं वे संग्रह कृष्टियोंके अन्तरालोंमें कही जाती हैं । और उन्हीं ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके कृष्टि-अन्तरालोंमें पल्योपमके असंख्यातवें पागप्रमाण स्थान जाकर प्रत्येक अन्तरमें अपूर्व कृष्टियां निपजती हैं वे कृष्टि-अन्तरालों में कही जाती हैं। शंका-वेद्यमान क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे अथवा कृष्टि-अन्तरालोंमें अपने प्रदेशपंजका अपकर्षण करके अपूर्व कृष्टियोंको क्यों नहीं करता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि विनश्यमान उसमें उस प्रकारसे सम्भव नहीं है। इसलिए उसके परिहार द्वारा शेष ग्यारहों संग्रह कृष्टियोंके सम्बन्धसे संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे अपूर्व कृष्टियोंको निपजाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * संग्रह कृष्टियोंके अन्तरालोंमें जो अपूर्व कृष्टियां निपजती हैं वे थोड़ी होती हैं। ६ ६४३. ये पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर थोड़ो कही गयी हैं। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो विध्वज्जमाणापुव्व किट्टणं परूवणा कारणं ? ओकडिदसयलदव्वस्सा संखेज्जदि भागमेत्तदव्वावो चेव संगहकिट्टीणं हेट्ठा अपुव्वकिट्टीणं णिव्वत्तणादो । २५७ * जाओ किट्टीअंतरेसु ताओ असंखेज्जगुणाओ । $ ६४४. एदाओ विपुव्व किट्टीणमसंखेज्जविभागमेत्तोओ चेव, किंतु दव्वविसेसेण पुव्विल्लकिट्टी हितो असंखेज्जगुणाओ जादाओ; ओर्काडदसय लदव्यस्सासंखेज्जा संखेज्जभागमेत्तदव्वं घेतूण किट्टी अंतरे अवकिट्टीणं णिव्वत्तणोवलंभादो । * जाओ संगहकिट्टीअंतरेसु तासिं जहा किट्टीकरणे अपुव्वाणं णिव्वत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी, तहा कायव्वो । $ ६४५. तत्थ ताव जाओ संगहकिट्टीओ अंतरेसु ओकडिज्जमाणपदेसग्गेणापुव्वाओ किट्टीओ व्वित्तिज्जति परूवणाए जो किट्टीकरणे अपव्याणं णिव्वत्तिज्जमाणाणं किट्टीणं fast goatefact सो चेव णिरवसेसमेत्थाणुगंतव्वो; दिज्जमानपदेसग्गस्स उट्टकूडसेढी आगारेण णिसेगपरूवणं पडि तो भेदाण्वलंभादो । एवं च वुट्टकूडसेढिसामण्णावेषखाए विसेसो णत्थि त्ति भणिदं । अत्थदो पण जोइज्जमाणे तेण विषिणा सरिसो विधी एत्थ ण होदि; थोवयरविसेससंभवादो । तं कथं ? किट्टीकरणद्धाए पढमसमयम्मि किट्टीसरूवेण परिणदपदेसपिंडादो विदियसमयम्मि किट्टीस णिसिच्चमाणपदेस पडो असंखेज्जगुणो भवदि । तदियसमये तासु णिसिच्चमाण 1 शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यसे हो संग्रह कृष्टियों के नीचे अपूर्व कृष्टियाँ निपजती हैं । कृष्टि अन्तरालोंमें जो अपूर्व कृष्टियाँ निपजती हैं वे असंख्यातगुणी हैं । ६ ६४४. ये अपूर्वं कृष्टियां भी पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं, किन्तु द्रव्यविशेष के कारण ये पूर्व कृष्टियोंसे असंख्यातगुणी हो जाती हैं, क्योंकि अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्याता संख्यातवें भागमात्र द्रव्यको ग्रहण कर कृष्टि अन्तरालोंमें अपूर्वं कृष्टियोंका उत्पन्न होना पाया जाता है । * संग्रह कृष्टि- अन्तरालोंमें जो अपूर्व कृष्टियों निपजती हैं उनकी कृष्टिकरणमें निष्पद्यमान अपूर्व कृष्टियोंकी जो विधि कही गयी है वही विधि यहाँ करनी चाहिए। 7 § ६४५. वहाँ जो संग्रह कृष्टियाँ हैं उनके अन्तरालों में अपकृष्यमाण प्रदेशपंज से जो अपूर्व कृष्टियाँ निपजती हैं, कृष्टिकरणकी प्ररूपणा के समय निर्वत्थंमान अपूर्व कृष्टियोंकी जो विधि पहले कह आये हैं वही पूरी यहां जाननी चाहिए, क्योंकि उष्ट्रकूटश्रेणिके आकारसे निषेकप्ररूपणा प्रति उससे इसमें भेद नहीं पाया जाता । और यह उष्ट्रकूटश्रेणि सामान्यको अपेक्षा भेदरूप नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषरूपसे देखनेपर तो उस विधिके सदृश यह विधि नहीं है, क्योंकि उससे इसमें थोड़ा भेद सम्भव है । शंका- वह कैसे ? समाधान - कृष्टिकरणकाल के प्रथम समय में कृष्टिरूपसे परिणत प्रदेशपुंजसे दूसरे समय में कृष्टियोंमें खींचा जानेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होता है । तीसरे समय में उनमें सींचा जाने ३३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसपिंडो असंखेज्जगुणो। एवं समयं पडि विसोहिमाहप्पेण किट्टीस णिसिंचमाणपदेसपिंडो असंखेज्जगुणो होदूण गच्छदि जाव किट्टोकरणद्धाए चरिमसमओ ति। एवं होदि त्ति कटु तत्थ वट्टमाणसमयम्मि णिव्वत्तिज्जमाणापुवकिट्टीणं चरिमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो पुविल्लसमयम्मि कदपवकिट्टीणं जहण्णकिट्टीए णिसिच्चमाणपदे. सग्गमसंखेज्जभागहीणं होइ, तत्थ पुवावट्टिददव्वमेत्तेण परिहोणत्तदंसणादो। तत्तो अणंतभाग. हाणीए जहाकम गंतूण पुणो पुग्विल्लसमयम्मि कदसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टिम्मि णिसित्तपदेसग्गादो वट्टमाणसमम्मि विदियसंगहकिट्टीए हेटा कीरमाणापुवजहण्णकिट्टीए दिज्जमाणपदेसपिंड. मसंखेज्जभागुत्तरं होइ । पुणो सेसापुवकिट्टीस अणंतभागहीणं चेव होदूण णिवददि । एवमुवरि वि णेदव्वं । दिस्समाणपदेसग्गं पुण सव्वत्थाणंतभागहीणं चेव होदूण चिटुदि । एवमेसो कमो किट्टीकरणद्धाए विदियसमयप्पहुडि जाव तिस्से चेव चरिमसमयो त्ति ताव परूविदो। ६४६. किट्टीवेदगडाए पण एसो विधी ण होदि। किं कारणं ? किट्टीवेदगद्धाए अपुष्यकिट्टीस णिसिच्चमाणपदेसग्गं पुष्यकिट्टीपदेसपिंडस्स असंखेज्जदिमागमेत्तं चेव होइ । तेण किट्टीवेदगद्धाए पढमसमये णिव्वत्तिज्जमाणापवकिट्टीणं चरिमकिट्टीए णिवदिदे पदेसग्गादो पुम्वकिट्टीणं जहण्णकिट्टीए पढमाणं पदेसगमसंखेज्जगुणहोणं होइ, अण्णहा पव्वापुवकिट्टीणं संधीसु एयगोवुच्छ. भावाणुप्पत्तीदो। तदो एवंविहविसेससंभवपदसण?मेत्थ सेढिपरूवणं कस्सामो । तं जहा वाला प्रदेशपुंज उससे असंख्यातगुणा,है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें विशुद्धिके माहात्म्यवश कृष्टियोंमें सींचा जानेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होकर कृष्टिकरणकालके अन्तिम समय तक जाता है। इस प्रकार होता है ऐसा करके वहां वर्तमान समयमें निर्वयंमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त किये गये प्रदेशजसे पिछले समय में की गयो पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें निक्षिप्यमान प्रदेशपुंज असंख्यातभागहीन होता है क्योंकि उसमें पूर्वके अवस्थित द्रव्यमात्रसे हीनता देखी जाती है। पुनः वहाँसे अनन्त भागहानिके क्रमसे यथाक्रम जाकर पुनः पिछले समयमें की गयी संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त किये गये प्रदेशजसे वर्तमान समयमें दूसरी संग्रह कृष्टिके नीचे की जानेवाली अपूर्व जघन्य कृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशपंज असंख्यातवां भाग अधिक होता है। पुनः शेष अपूर्व कृष्टियोंमें अनन्तभागहीन ही होकर पतित होता है । इसी प्रकार आगे भी ले जाना चाहिए । परन्तु दृश्यमान प्रदेशपुंज सर्वत्र अनन्तभागहीन होकर ही अवस्थित रहता है। इस प्रकार यह क्रम कृष्टिकरणकालके दूसरे समयसे लेकर उसीके अन्तिम समय तक कहा गया है। ६६४६. परन्तु कृष्टिवेदककाल में यह विधि नहीं होती है, क्योंकि कृष्टिवेदककालमें अपूर्व कृष्टियों में सिंचित होनेवाला प्रदेशपुंज पूर्व कृष्टियोंके प्रदेशपुंजका असंख्यातवा भागमात्र ही होता है। इस कारण कृष्टिवेदककालके प्रथम समयमें निवयंमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिमें पतित होनेपर प्रदेशपंजसे पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें पतित होनेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा हीन होता है, अन्यथा पूर्व और अपूर्व कृष्टियों की सन्धियोंमें एक गोपुच्छापनेकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए इस प्रकारके विशेषकी सम्भावनाको दिखलानेके लिए यहाँपर श्रेणिप्ररूपणा करेंगे। वह जैसे Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खैवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुवकिट्टीणं परूवणा २५९ ६६४७. पुवाणुपवीए जा लोभस्स पढमसंगहकिट्टी तिस्से हेट्ठा पढमसमयकिट्टीवेदगो अपवाओ किट्टीओ ओकडिज्जमाणेण पदेसग्गेण णिवत्तेमाणो तत्थ जा जहणिया किट्टी तिस्से बहुगं पदेसगं देदि । तत्तो अणंतभागहीणं जाव अपव्वाणं चरिमकिट्टि ति। तदो अपुवकिट्टीणं चरिमकिट्टीए पदिदपदेसग्गादो लोभपढमसंगहकिट्टीए पुवकिट्टीणं जा जहणिया किट्टी तत्थ असंखेज्जगुणहीणं देदि । तत्तो विदियाए पुवकिट्टीए अणंतभागहीणं देदि । एवं णेदव्वं जाव पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी ति।। ६६४८. पुणो तिस्से संगहकिट्टीए चरिमकिट्टिम्मि पदिदपदेसग्गादो विदियसंगहकिट्टीए हेट्ठा णिव्वत्तिज्जमाणियाणमपुवकिट्टोणं जहाण्णयाए किट्टीए असंखेज्जगुणं देदि। एत्थ कारणं सुगमं । तदो उवरि अणंतभागहीणं णिसिंचदि जाव अपुव्वाणं चरिमकिट्टी ति । पुणो अपुव्वाणं चरिमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो पुटवणिव्वत्तिदाणं विदियसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टोणं जा जहण्णकिट्टी तिस्से पदेसपिंडमसंखेज्जगुणं देदि । तत्तो उवरिमाए पदमाणं पदेसपिंडमणंतभागहीणं होदूण गच्छवि । णवरि किट्टीअंतरेसु णिव्यत्तिज्जमाणापुवकिट्टीणं संधीसु पदेसविण्णासभेदो जाणियव्यो। एवमेसो भणिदविधी उवरि वि जाणियूण णेदव्वो।। ६६४९. एवं किट्टीवेदगविदियादिसमएसु वि णिसेगपरूवणमेदमणुगंतव्वं । सुत्ते पुण एवंविहो विसेससंभवो ण विवक्खिओ, एक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं हेढा पादेवकं पुवकिट्टीणमसंखेज्जविभागमेत्तदव्यमोकड्डियूण पुवकिट्टोणमसंखेज्जविभागमेतीओ अपुवकिट्टीओ करेमाणों ६६४७. पूर्वानुपूर्वीको अपेक्षा जो लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि है उससे नोचे प्रथम समयमें कृष्टिवेदक जीव अपकृष्यमाण प्रदेशपुंजसे अपूर्व कृष्टियोंका निपजाता हुआ वहां जो जघन्य कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंजको देता है। उसके बाद अन्तिम अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हीन प्रदेशपुंजको देता है। तत्पश्चात् अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिके प्रदेशजसे लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि में जो पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि होती है उसमें असंख्यातगुणा हीन प्रदेशपुंज देता है। उससे दूसरी पूर्व कृष्टिमें अनन्तभागहीन प्रदेशपुंज देता है। इस प्रकार प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि तक ले जाना चाहिए। ६६४८. पुनः उस संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि में निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे दूसरी संग्रह कृष्टिके नीचे निवर्त्यमान अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। यहां कारणका निर्देश सुगम है। उससे ऊपर अनन्तभागहीन प्रदेशपुंजका अपूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक सिंचन करता है। पुनः अपूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशजसे दूसरी संग्रह कृष्टिकी पहले निष्पन्न हुई अन्तर कृष्टियोंकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें असंख्यातगुणे प्रदेशपंजको देता है। उससे ऊपर कृष्टियोंमें पतित होनेवाला प्रदेशपिण्ड अनन्तभागहीन होकर जाता है। इतनी विशेषता है कि कृष्टि-अन्तरालोंमें निर्वय॑मान अपूर्व कृष्टियोंकी सन्धियों में प्रदेशोंके विन्यासमें फरकको जान लेना चाहिए। इस प्रकार यह कही गयी विधि आगे भी जानकर ले जाना चाहिए। ६६४९. इस प्रकार कृष्टिवेदकके द्वितीयादि समयोंमें भी यह निषेकप्ररूपणा जाननी चाहिए । परन्तु सूत्रमें इस प्रकारका विशेष सम्भव विवक्षित नहीं है, किन्तु ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके १. ता. प्रती उवरि पमाणं इति पाठः । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० बयधवलासहिदे कसार्यपाहुडे किट्टीकारगोश्व उट्टकूडसेढोए तत्थ पदेसविण्णासमेसो करेदि ति एत्तियं चेव पैक्खियूण भणिवत्तादो। संपहि जाओ किट्टोओ अंतरेसु संकामिज्जमाणयेण पदेसग्गेण असुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तिज्जति तासि पावणा केरिसी होदि ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * जाओ किट्टीअंतरेसु तासि जहा बन्झमाणयेण पदेसग्गेण अपुव्वाणं णिव्वत्तिजमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा कायव्यो। ६५०. जहा बज्झमाणयेण पदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जमाणाओ अपुवकिट्टीओ असंखेज्जाणिं किट्टीअंतराणि गंतूण णिन्वत्तिज्जंति, एवमेदाओ वि पलिदोवमस्स. असंखेज्जदिभागमेत्ताणि किट्टीअंतराणि समुल्लंघियूण णिव्वत्तिज्जति; तत्थ विज्जमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा वि तहा चेव अणुगंतव्वा; विसेसाभावावो ति भणिवं होदि। संपहि एत्थतणविसेसपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * गवरि थोवदरगाणि किट्टीअंतराणि गंतूण संछुन्भमाणपदेसग्गेण अपुब्बा किट्टी णिव्वत्तिज्जमाणिगा दिस्सदि। . ६६५१. तत्थ असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि समुल्लंघियूण एगा अपुवकिट्टी बंधेण णिव्यत्तिज्जदि ति पदुप्पाइवं, एत्थ पण पलिदोवमवग्गमूलादो वि असंखेज्जगुणहीणाणि - थोवयराणि चेव किट्टीअंतराणि गंतूण संकामिज्जमाणयेण पदेसग्गेण णिव्यत्तिज्जमाणा अपुल्या नीचे अलग-अलग पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यका अपकर्षण करके पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागमात्र अपूर्व कृष्टियोंको करनेवाले कृष्टिकारकके समान उष्ट्रकूटश्रेणिरूपसे उनमें प्रदेशविन्यासको यह करता है, मात्र इतना ही देखकर यह कहा है। अब जिन कृष्टियोंके अन्तरालोंमें संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है उनकी प्ररूपणा किस प्रकारकी होती है ऐसी आशंका होनेपर निर्णयका विधान करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं जो अपूर्व कृष्टियां कृष्टि-अन्तरालोंमें निष्पन्न की जाती हैं उनको बध्यमान प्रवेशपुंजसे . नियमान अपूर्व कृष्टियोंकी जिस प्रकारको विधि की गयी है उस प्रकारका विधान यहाँ करना चाहिए। ६६५०. जिस प्रकारके बध्यमान प्रदेशपुंजसे निवर्त्यमान अपूर्व कृष्टियां असंख्यात कृष्टि-अन्तराल जाकर निष्पन्न की जाती हैं इस प्रकार ये कृष्टियां भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टि-अन्तरालोंको उल्लंघन कर निष्पन्न की जाती हैं तथा वहां दीयमान प्रदेशजकी श्रेणिप्ररूपणा भी उसी प्रकार जाननी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब यहाँपर प्राप्त होनेवाले विशेषका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं * इतनी विशेषता है कि स्तोकतर कृष्टि अन्तराल जाकर संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे अपूर्व कृष्टि निर्वयंमान होती हुई दिखाई देती है। ६५१. वहाँ पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंको उल्लंघन कर एक अपूर्व कृष्टि बन्धसे निष्पन्न होती है ऐसा कहा गया है। परन्तु यहाँपर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलसे भी असंख्यातगुण हीन स्तोकतर कृष्टि-अन्तर जाकर हो संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे निर्वयंमान अपूर्व Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए बज्झमाणपदेसग्गादो पिप्पज्जमाणापुव्व किट्टीणं परूवणा २६१ किट्टी दट्ठव्वा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ । तत्थ दिवङ्गुणहाणि तिभागमेत्तद्वाणं गंतूण एक्किस्से अव किट्टीए णिव्वत्तिदंसणादो। एत्थ पुण ओकड्डुक्कडुणभागहारमेत्तद्वाणं गंतूण mahaare अवकट्टीए णिव्वत्तिदंसणादो । तं जहा , ६५२. एगसमयपबद्धं ठबिय पुणो एवस्स दिवङ्गुणहाणिमेत्तगुणगारं ठवेयूण एक्स्स ट्टा तिष्णि वाणि भागहारतेण ठवेयग्वाणि । एवं ठविदे जस्स वा तस्स वा एगकसायरस एगसंगहकिट्टीपदेसग्गमागच्छदि । संपहि एवंविदव्वस्स जदि सयलकिट्टोअद्धाणं लब्भइ तो एगसमयपबद्धमेत्तणवकबंधदव्वत्स केत्तियाओ अपुष्य किट्टोंओ लहामगे त्ति तेरासियं काढूण पमाणेण फल गुणि दिच्छाए ओवट्टिदाए ३/९/१ दिवङ्गुणहाणितिभागेण एगसंग्रह किट्टी अद्धाणं खंडेगखंडमेत्तीओ अठवकिट्टीओ बंधेणे निव्वत्तिज्जमाणाओ आगच्छति । एवासि तेरासिय• विहाणेणद्वाणं साहेयब्बं; तस्सेसा ठवणा : | ९ | १ एवं ठविय तेरासियकमेणोवट्टेदूण साहिद्वाणमेत्तियं होइ ४ । एवं च असंखेज्जपलिदोषमपढमवग्गमूलपमाणमिदि घेत्तम्वं; दिवङ्गुणहाणितिभागपमाणत्तादो । ६५३. संपहि ओकड्डियूण गहिदपदेसग्गमस्सियूण भण्णमाणे एगसमयपबद्धं ठविय पुणो कृष्टि जाननी चाहिए इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थं है। वहां डेढ़ गुणहानि के त्रिभागप्रमाण स्थान जाकर एक अपूर्व कृष्टिकी निष्पत्ति देखी जाती है । परन्तु यहाँपर अपकर्षणभागहारप्रमाण स्थान जाकर एक-एक अपूर्वं कृष्टिकी निष्पत्ति देखी जाती है । वह जैसे ६६५२. एक समयप्रबद्धको स्थापित करके पुन: इसका डेढ़ गुणहानिप्रमाण गुणकार स्थापित करके इसके नीचे तीन अंक भागहाररूपसे स्थापित करने चाहिए। इस प्रकार स्थापित करनेपर जिस किसी एक कषायकी एक संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज आ जाता है । अब इस प्रकारके द्रव्यका यदि समस्त कृष्टि-स्थान ( आयाम ) प्राप्त होता है तो एक समय प्रबद्धमात्र नवबन्ध द्रव्य में कितनी अपूर्वं कृष्टियां प्राप्त करेंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर डेढ़ गुणहानिके त्रिभाग १२ + ३ = ४, से एक संग्रह कृष्टिके अध्वान ९ को खण्डित करके एक खण्डप्रमाण : अपूर्व कृष्टियों बन्धसे निर्वर्त्यमान होकर प्राप्त होती हैं । यहाँ इनका त्रैराशिक विधिसे अध्वान साधकर ले आना चाहिए। उसकी यह स्थापना है - है, ९, १ । इस प्रकार स्थापित करके त्रैराशिकक्रमसे अपवर्तन करके साबित हुआ अध्वान इतना होता है –४ । और यह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण होता है। ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि यह डेढ़ गुणहानिके त्रिभागप्रमाण है । उदाहरण - अंक संदृष्टि के अनुसार डेढ़ गुणहानि = १२, संग्रह कृष्टि अध्वान ९, डेढ़ गुणहानिका त्रिभाग ४ । यहाँ एक संग्रह कृष्टिके अध्वान ९ में डेढ़ गुणहानि के त्रिभागसे भाजित करनेपर एक संग्रह कृष्टिमध्वानके भीतर प्रमाण अपूर्व कृष्टियां प्राप्त हुईं। पुनः यहाँ एक अपूर्व कृष्टिका अध्वान प्राप्त करनेपर एक संग्रह कृष्टिके अध्वान ९ में अपूर्व कृष्टियों का भाग देनेपर १ - ४ एक पूर्व कृष्टिका अध्वान प्राप्त हुआ । अर्थसंदृष्टिको अपेक्षा देखनेपर यह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण प्राप्त होता है ऐसा प्रकृतमें समझना चाहिए । = $ ६५३. अब अपकर्षण करके ग्रहण किये गये प्रदेशपुंजका आश्रय करके कथन करनेपर Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे एदस्स दिवड्डगुणहाणि गुणगारं ठवेयूण पुणो एदस्स हेट्ठा भागहारो तिगुणोकड्डुक्कड्डणभागहार मेत्तो ठवेयव्यो। एवं ठविदे एक्किस्से संगहकिट्टीए ओकड्डियूण गहिदसयलपदेसपिंडो आगच्छदि । संपहि एदेण दव्वेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टीणं पमाणमिच्छामो त्ति एयसंगहकिट्टीए सयलपदेसग्गस्स जइ सयलकिट्टीओ लभंति, तो ओकड्डियूण गहिददव्वस्स केत्तियमेत्तीओ अपुवकिट्टीओ लहामो त्ति तेरासियं कादूण गहेयव्वं । तस्स संदिट्ठी ०१२ | ९ | ०१२ एवं तेरासियं कादूण पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए लद्धपमाणमोकड्डुक्कडणभागहारेण एगसंगहकिट्टोअद्धाणे खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तं होदि है। पुणो एदेण सयललिट्टोअद्धाणे तेरासियविहाणेणोवट्टिदे लद्धमोकड्डुक्कड्डणभागहारमेत्तमेक्किस्से अपुवकिट्टीए लब्भमाणकिट्टीअंतरद्धाण. मागच्छदि । तस्स संदिट्ठी ६। तदो थोवयराणि चेव किट्टीअंतराणि गंतूण संकामिज्जमाणपदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जमाणा अपुवकिट्टी दोसइ ति सुत्ते भणिवं । 5 ६५४. संपहि एदस्सेवद्धाणस्स फुडीकरण?मुत्तरसुत्तमोइण्णं* ताणि किट्टीअंतराणि पगणणादो पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो। ६६५५. कुदो? पलिदोवमपढमवग्गमूलादो असंखेज्जगुणही गस्त ओकड्डुक्कड्डणभागहारस्स पयदद्धाणत्तेणाणंतरमेव साहियत्तादो। संपहि एवंविहद्धाणे संकामिज्जमाणपदेसग्गेण किट्टीअंतरेसु णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टोणं दिज्जमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा बंधेण णिव्वत्तिज्जमाणा एक समयप्रबद्धको स्थापित करके पुनः इसके डेढ़ गुणहानिरूप गुणकारको स्थापित करके पुनः इसके नीचे तिगुने अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण भागहारको स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार स्थापित करनेपर एक संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके ग्रहण किया गया सम्पूर्ण प्रदेशपिण्ड आता है। अब इस द्रव्यसे निर्वयंमान अपूर्व कृष्टियोंके प्रमाणको लाना चाहते हैं, इसलिए एक संग्रह कृष्टिके समस्त प्रदेशपिण्डको यदि समस्त कृष्टियां प्राप्त होती हैं तो अपकर्षण करके ग्रहण किये गये द्रव्यमें कितनी अपूर्व कृष्टियोंको प्राप्त करेंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके उन्हें ग्रहण करना चाहिए। उनकी यह संदृष्टि है-०२ ९०३३ । इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छारशिको गुणित करके उसमें प्रमाणराशिसे भाजित करनेपर जो प्रमाण लब्ध आता है वह अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे एक संग्रह कृष्टिके अध्वानके खण्डित करनेपर वहां प्राप्त हुआ एक खण्डप्रमाण होता है है। पुनः इससे समस्त कृष्टि-अध्वानको राशिक विधिसे भाजित करनेपर अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण एक अपूर्व कृष्टिका प्राप्यमाण कृष्टि-अन्तररूप अध्वान लब्ध आता है। उसकी संदृष्टि ६ । इसलिए स्तोकतर कृष्टि-अन्तराल जाकर हो संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे निर्वयंमान अपूर्व कृष्टि दिखाई देतो है ऐसा सूत्रमें कहा है। ६६५४. अब इसी अध्वानको स्पष्ट करने के लिए आगेका सूत्र आया है * वे कृष्टि-अन्तर प्रगणनाके अनुसार पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। ६६५५. क्योंकि पल्योपमके प्रथम वर्गमूलसे असंख्यातगुणा होन अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण प्रकृत अध्वान है यह अनन्तर पूर्व हो साधित कर आये हैं। अब इस प्रकारके अध्वानमें संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे कृष्टि-अन्तरालोंमें निर्वय॑मान अपूर्व कृष्टियोंमें दोयमान प्रदेशपुंजकी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो निप्पज्ज्ञमाणापुव्वकिट्टीणं अप्पा बहुअपरूवणा २६३ पुव्व किट्टीणं भणिदविहाणेण णेदव्वा । णवरि संगहकिट्टीए हेट्ठा णिव्वत्तिज्जमाणापुव्व किट्टीसु पुव्वत्तेण कमेण पदेसणिसेगं काढूण तदो अपुव्वाणं चरिमकिट्टीदो पुव्वजहण्णकिट्टीए असंखेज्जगुणहीणं पदेसग्गं णिसिचदि । तत्तो अनंतभागहीणं जाव ओकड्डुक्कडुणभागहारमेत्तद्वाणमुवरि चडिदूण द्विदतदित्य पुव्वकिट्टि ति । तदो तत्थ किट्टीअंतरे निव्त्रत्तिज्ज माणापुव्व किट्टीए असंखेज्जगुणं, तदो असंखेज्जगुणहोणं, तत्तो परमणंत भागहीणमिच्चादिक्रमेण संधीओ जाणियूण दव्वं जाव णिरुद्धसंगह किट्टीए समत्ता त्ति । एत्तो उवरिमसंगह किट्टीसु वि एदेणेव विहाणेण सेढिपरूवणा कायव्वा । § ६५६. अधवा संतकम्मस्स असंखेज्जदिभागभूदणवकबंधपदेसग्गेण जिव्वत्तिज्जमाणाणमपुव्वकिट्टीणं जहा अनंतगुण होण-अनंतगुणहीणक्रमेण सेढिपरूवणा सुत्तणिबद्वाकया एवमेत्य चिराणसंतकम्मादो असंखेज्जगुणहीण संका मिज्जमानपदेसग्गेण निव्वत्तिज्जमाणाणमपुव्व किट्टीणं दुविहाणं पि संधी अनंतगुणहीणाहियकमेण सेढिपरूवणा णिव्वा मोहमणुगंतव्या; एदस्सेवत्थस्स सुत्ताणुसारितेण पहाणभावोवलंभादो । एवमेसा किट्टीवेवगस्स पढमसमये सव्वा परूवणा विदियादिसमये वि एवं चैव वत्तव्वा ; विसेसाभावादो । संपहि किट्टीवेदगपढमसमय पहुडि समये समये विणासिज्जमाणाणं किट्टीणं थोवबहुत्तपरूवणट्ठमुवरिमपबंधमाढवेइ * पढमसमय किट्टीवेदगस्स जा कोहपढमसंगह किट्टी तिस्से असंखेज्जदिभागो विणासिज्जदि । श्रेणिप्ररूपणाको बन्धसे निर्वश्यमान पूर्व कृष्टियोंकी कही गयी विधिके अनुसार ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संग्रह कृष्टिके नीचे निर्वर्त्यमान अपूर्वं कृष्टियोंमें पूर्वोक्त क्रमके अनुसार प्रदेशनिषेक करके वहाँसे अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टि से पूर्व जघन्य कृष्टिमें असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजको सींचता है । पुनः वहाँसे अपकर्षण उत्कर्षण भागहारमात्र अध्वान ऊपर चढ़कर वहांपर स्थित हुई पूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक असंख्यात भागहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् वहाँ कृष्टि- अन्तराल में निर्वर्त्यमान अपूवं कृष्टिमें असंख्यातगुणे प्रदेश पुंज को निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । तत्पश्चात् अनन्त भागहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है । इस प्रकार इत्यादि क्रमसे सन्धियोंको जानकर विवक्षित संग्रह कृष्टिकी समाप्ति तक ले जाना चाहिए। इससे उपरिम संग्रह कृष्टियों में भी इसी विधानके अनुसार श्रेणिप्ररूपणा करनी चाहिए । $ ६५६. अथवा सत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण नवकबन्धके प्रदेशपुंज से निर्वत्र्त्यमान पूर्व कृष्टियों की जिस प्रकार अनन्तगुणहीन- अनन्तगुणहोनके क्रमसे सूत्र में निबद्ध श्रेणिप्ररूपणा की उसी प्रकार यहाँ चिरकालीन सत्कर्मसे असंख्यातगुणहीन संक्रम्यमाण प्रदेशपुंज से निर्वर्त्यमान अपूर्व कृष्टियों की दोनों की ही सन्धियोंमें अनन्तगुणहीन अधिकके क्रमसे श्रेणिप्ररूपणा व्यामोहको छोड़कर करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र के अनुसार यही अर्थं प्रधानरूपसे उपलब्ध होता है । इस प्रकार कृष्टिवेदक के प्रथम समयकी यह सम्पूर्ण प्ररूपणा द्वितीयादि समयों में भी इसी प्रकार कहनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है । अब कृष्टिवेदक के प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक समय में विनश्यमान कृष्टियों के अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * कृष्टिवेदक के प्रथम समयमें जो क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टि है उसका असंख्यातवाँ भाग विनष्ट होता है । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे ___६६५७. विसोहिपाहम्मेण णिरुद्धसंगहकिट्ठोए अग्गकिट्टिप्पडि असंखेजदिभागमेत्तकिट्टीओ अणुसमयोवट्टणाघादेण विणासेदि ति वुत्तं होदि। एवाओ च पढमसमये विणासिज्जमाणकिट्टीओ उवरिमासेससमएसु विणासिज्जमाणकिट्टीहितो बहुगोओ ति जाणावणमिदमाह * किट्टीओ जाओ पढमसमये विणासिज्जंति ताओ बहुगीओ। 5 ६५८. कुवो ? सयलकिट्टीणमसंखेज्जविभागपमाणत्तावो। * जाओ विदियसमये विणासिन्जंति ताओ असंखेज्जगुणहीणाओ। ६६५९. जइ वि विदियसमये अणंतगुणविसोहीए वदि तो वि पढमसमये विणासिज्जमाणकिट्टीहितो असंखेज्जगुणहोणाओ चेव किट्टोओ तम्मि समये विणासेवि, घादिवसेसाणुभागघावहेदूणं विसोहीणमेत्थतणीणं तहा चेव पवुत्तिणियमदसणादो। एवं तवियादि समयेसु वि एसो चेव अणुसमयोवट्टणाकमो णेदव्यो त्ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * एवं ताव दुचरिमसमयअविणट्ठकोहपढमसंगहकिट्टि ति । ६६६०. एवमसंखेज्जगुणहोणकमेण ताव किट्टोओ सगकिट्टीवेदगकालभंतरे विणासेमाणो गच्छदि जाव सगविणासणवादुचरिमसमओ त्ति; चरिमसमए अविणटुकोहपढमसंगहकिट्टीणवकबंधुच्छिटावलियवज्जाणमणुप्पादाणुच्छेवसरूवेण विणासवंसणादों। संपहि किट्टीवेदगपढमसमय ६६५७. विशुद्धिके माहात्म्यवश विवक्षित संग्रह कृष्टिको अग्र कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको अनुसमय अपवर्तनाघात द्वारा विनष्ट करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और प्रथम समयमें विनश्यमान ये कृष्टियां अगले समयोंमें विनश्यमान कृष्टियोंसे बहुत हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं ॐ जो कृष्टियां प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त होती हैं वे बहुत हैं। ६६५८. क्योंकि वे समस्त कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। * जो कृष्टियां प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त होती हैं वे असंख्यातगुणो हीन हैं। ६६५९. यद्यपि दूसरे समयमें यह क्षपक अनन्तगुणो विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है तो भी प्रथम समयमें विवश्यमान कृष्टियोंसे असंख्यातगुणी हीन कृष्टियोंको ही उस समयमें विनष्ट करता है, क्योंकि घात होनेसे शेष रहे अनुभागघातके हेतुरूप यहाँ सम्बन्धी विशुद्धियोंका उसी प्रकारसे ही प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है। इसी प्रकार तृतीय आदि समयोंमें भी इसी प्रकार अनुसमय अपवर्तनाका क्रम जानना चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * इसी प्रकार यह क्रम अविनष्ट कोषको प्रथम संग्रह कृष्टिके द्विचरम समय तक जानना चाहिए। ६६६०. इस प्रकार असंख्यातगुणहीन क्रमसे कृष्टियोंको अपने वेदक कालके भीतर विनष्ट करता हमा अपने विनाश करनेके कालके विचरम समय तक जाता है, क्योंकि चरम समयमें विनाशको नहीं प्राप्त हुए क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिसम्बन्धी नवकबन्ध उच्छिष्टावलिके सिवाय शेषका अनुत्पादानुच्छेदस्वरूपसे विनाश देखा जाता है। अब कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए विणस्समाणकिट्टोणपरूवणा २६५ प्पहुडि जाव णिरुद्धपढमसंगहकिट्टीए विणासणकालदुचरिमसमओ त्ति ताव विणासिदासेसकिट्टीओ संपिडिदाओ केत्तियमेतीओ होंति त्ति आसंकाए तप्पमाणावहारणट्ठमुत्तरसुत्तमाह ___ * एदेण सव्वेण तिचरिमसमयमेत्तीओ सव्वकिट्टीसु पढम-विदियसमयवेदगस्स कोधस्स पढमकिट्टीए अबज्झमाणियाणं किट्टीणमसंखेन्जदिमागो। 5६६१. पढमसमयकिट्टीवेदगस्स कोहपढमसंगहकिट्टीए हेटिमोवरिमासंखेज्जभागमेत्ता किट्टीओ अबज्झमाणियाओ णाम । पुणो तत्थ उवरिमाबज्झमाणकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेतीओ चेव किट्टी ओ एदेण सम्वेण वि कालेण विणासिदाओ घटुव्वाओ, दोण्हमेदासि किट्टोणमावलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताविसेसे वि एत्तो तासिमसंखेज्जगुणत्तसिद्धीए परमागमुज्जोवबलेण परिच्छिण्णत्तादो। जहा कोहपढमसंगहकिट्टीमहिकिच्च एसो किट्टीविणासणकमो परूविदो, तहा चेव सेससंगहकिटीणं समये समये अणगंतव्वोः किटीवेदगपढमसमयप्पडि जावअप्पप्पणो वेदगकालदुचरिमसमओ ति सव्वासि संगहकिट्टीणमवेदगकालस्स असंखेज्जविभागमेत्तकिट्टीओ अणुसमयोबट्टणाघादेण घादेमाणस्स तदविरोहाभावादो। एवमेदेण विहाणेण कोहपढमसंगहकिट्टीवेदगत्तमणुभूय तिस्से चरिमसमयवेदगभावेण पयट्टमाणस्स तववत्थाए जो पख्वणाभेदो तण्णिद्देसकरण?मुवरिमों सुत्तपबंधोलेकर विवक्षित प्रथम संग्रह कृष्टिके विनाश होनेके द्विचरम समय तक विनष्ट हुई अशेष कृष्टियां मिलाकर कितनी होती हैं ऐसी अशंका होनेपर उनके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस सब कालके द्वारा जो त्रिचरम समयमात्र कृष्टियाँ विनाशको प्राप्त होती हैं वे सम्पूर्ण कृष्टियोंमें प्रथम समय वेदकके और द्वितीय समय वेदकके कोषसंज्वलनको प्रथम कृष्टिसम्बन्धी अबध्यमान कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। ६६६१. प्रथम समयसम्बन्धी कृष्टिवेदकके क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियां अबध्यमान होती हैं। पुनः उनमें उपरिम अबध्यमान कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियां ही इस सब कालके द्वारा विनष्ट होती हुई जाननी चाहिए, क्योंकि इन दोनों प्रकारको कृष्टियोंमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाणकी अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी इनसे उनके असंख्यातगुणेपनेकी सिद्धि परमागमरूप उद्योतके बलसे जानी जाती है। जिस प्रकार क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिको अधिकृत कर यह कृष्टियोंके विनाश होनेका क्रम कहा है उसी प्रकार शेष संग्रह कृष्टियोंका प्रत्येक समयमें जानना चाहिए, क्योंकि कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर अपने-अपने वेदककालके द्विचरम समय तक सम्पूर्ण संग्रह कृष्टियोंके अवेदक कालके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंका अनुसमय अपवर्तनाघातके द्वारा घात करते हए वैसे होने में विरोधका अभाव है। इस प्रकार इस विधानसे क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदनका अनुभव करके उसका अन्तिम समयमें वेदन करने में प्रवृत्त हुए क्षपकके उस अवस्थामें जो प्ररूपणाभेद है उसका निर्देश करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध गाया है कोषसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकके जो प्रथम स्थिति होती है उस प्रथम स्थितिके एक समय अधिक एक आवलि शेष रहनेपर इस समय जो विधि होती है उस विधिको बतलायेंगे। ३४ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे * कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्ठिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए एदम्हि समये जो विही तं विहिं वत्तइस्सामो | २६६ ६६६२. पढमसमय किट्टीवेदगो कोहसंजलणपढमसंगह किट्टीए अवयव किट्टीओ ओकड्डियूण पढमट्ठिदि कुणमाणो तत्तोप्पहूडि जो कोहवेदगद्धा तिस्से सादिरेयतिभागमेत्तमावलियम्भहियं पढमट्ठिदि करेदि । एवं निविखत्ता जा कोहपढमट्ठिदी कोहपढमकिट्टि वेदेमाणस्स पढपट्टिदी सा कमेण वेदिज्जमाणा जाधे समयाहियावलियमेत्ता परिसेसा ताधे कोहपढमसंगह किट्टीए चरिमसमयवेदगो जायदे | एदम्मि अवत्थंतरे वट्टमाणस्सेदस्स जो परूवणाभेदो तमिदाणि वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होइ । * तं जहा । ६६६३. सुगमं । * ताधे चेव कोहस्स जहण्णगो द्विदिउदीरगो । ६६४. समयाहियावलियमेत्तणिरुद्ध पढमद्विदीए चरिमट्ठिदिमोकड्डियूण उदये संछुहमा - णस्स तस्स तम्मि समये कोहसंजलणस्स जहणिया ट्ठिदिउदीरणा जादा त्ति एसो एदस्स भावत्यो । ण च एत्थ विदियट्ठिदीए उदीरणासंभवो हेट्ठा चेव आवलिय-पडिआवलिय से सपढमद्विदीए माण आगाल पडिआगालवोच्छेदवसेण तहा विहसं भवाणु वलं भादो । * कोहपढमकिट्टीए चरिमसमयवेदगो जादो | $ ६६२. प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक जीव क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियों का अपवर्तन करके प्रथम स्थितिको करता हुआ वहाँसे लेकर जो क्रोध-वेदककाल है उसकी एक आवल अधिक कालको साधिक त्रिभागमात्र करके प्रथम स्थिति करता है । इस प्रकार निक्षिप्त हुई जो क्रोध की प्रथम स्थिति है अर्थात् क्रोधको प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाले की प्रथम स्थिति है। वह क्रमसे वेदन में आती हुई जिस समय एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण शेष रहती है उस समय क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है । और इस अवस्थाके मध्य विद्यमान इसकी प्ररूपणा में जो भेद होता है उसे इस समय बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * वह जैसे । ६ ६६३. यह सूत्र सुगम * उसी समय यह क्षपक क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्थिति उदीरक होता है । ६ ६६४. एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण वित्रक्षित प्रथम स्थितिकी अन्तिम स्थितिका अपकर्षण करके उदय में निक्षिप्त करनेवाले उस क्षपत्रके उस समय क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थिति - उदीरणा होती है यह इस सूत्र का भावार्थ है । किन्तु यहाँपर द्वितीय स्थितिको उदीरणा सम्भव नहीं है, क्योंकि इसके पहले ही आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण प्रथम स्थितिमें विद्यमान इस क्षपकके आगाल और प्रत्यगालकी व्युच्छित्ति हो जानेके कारण उस प्रकारका होना सम्भव नहीं है। * तथा उस समय क्रोधको प्रथम कृष्टिका अन्तिम समयवर्ती वेवक होता है। 1 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए संजलणसंतकम्मस्स अणुसमयोवट्टणा २६७ ६६६५. से कालप्पहुडि कोहविदियसंगहकिट्टीवेदगभावेण परिणमणसणादो त्ति वुत्तं होइ [२] * जा पुवपवत्ता संजलणाणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयमोवट्टणा सा तहा चेव[३] ६६६६. किट्टीवेदगपढमसमयप्पहुडि जा पुवपवत्ता चदुसंजलणाणुभागस्स अणुसमयोवट्टणा सा तहा चेव एण्हि पि पयट्टदे, ण तत्थ किंचि जाणत्तथि त्ति भणिदं होदि। एत्थ सुत्तसमत्तीए तिहमंकविण्णासो कदो, तदिओ एसो परूवणाभेदो एत्थ जाणेयव्वो त्ति पदुप्पायणटुं। * चदुसंजलणाणं हिदिबंधो बे मासा, चत्तालीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तणा [४] ६६६७. पुढवं किट्टीवेदगपढमसमये संपुण्णचत्तारिमासमेतो एदेसि टिदिबंधो, तत्तो जहाकम संखेज्जसहस्समेत्तेहि ठिदिबंधोसरणेहि ओहट्टियूण एण्हिमंतोमुहुत्तूणचत्तालीसदिवसाहियबे-मासमेत्तो संवुत्तो त्ति वुत्तं होइ। एत्थ चत्तारिमासमेत्तपुश्वुत्तसंधिविसटिदिबंधादो परिहोणासेदिदिपमाणं वीसदिवसा अंतोमुत्त भहिया ति दट्टव्वं; तिण्हं कोहसंगहकिट्टीणं वेदगकालेण जदि दोण्हं मासाणं परिहाणी लादि, तो एक्किस्से पढमसंगहकिट्टोए वेदगकालम्मि केत्तियं ठिदिबंधपरिहाणि पेच्छामो ति तेरासियकमेण पयटिदिबंधपरिहाणी साहेयव्वा । तदो चउत्थमेदमावासयमिहावगंतव्वमिदि सिद्धं । * संजलणाणं द्विदिसंतकम्म छ वस्साणि अट्ठ च मासा अंतोमुहुत्तणा [५] ६६६५. तथा तदनन्तर समयसे लेकर क्रोधको द्वितीय संग्रह कृष्टिके वेदकरूपसे परिणमन देखा जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। २। * संज्वलनचतुष्कके अनुभागसत्कर्मको जो अनुसमय अपवर्तना पहले प्रवृत्त हुई थी वह उसी प्रकारसे प्रवृत्त रहती है । ३।। ६६६६. कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर चारों संज्वलनोंके अनुभागकी जो अनुसमय अपवर्तना पहले प्रवृत्त हुई थी वह इस समय भी उसी प्रकार प्रवृत्त रहती है। उसमें कुछ भी नानापना ( भेद ) नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहांपर सूत्र की समाप्तिमें तीन अंकका विन्यास किया है, उससे यह तीसरा प्ररूपणाभेद है ऐसा जानना चाहिए इस प्रकार * चारों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध दो महीना और अन्तर्मुहूर्त कम चालीस दिनप्रमाण होता है। ४। ६६६७. पहले कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें इन कर्मोंका सम्पूर्ण चार माहप्रमाण जो स्थितिबन्ध होता था, उससे संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरणोंके द्वारा घटकर इस समय वह अन्तर्मुहूर्त कम चालीस दिन अधिक दो माहप्रमाण हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहांपर चार माहप्रमाण पूर्वोक्त सन्धिविषयक स्थितिबन्धसे घटी हुई सम्पूर्ण स्थितिका प्रमाण अन्तर्मुहुर्त अधिक बोस दिन होता है ऐसा जानना चाहिए । तीन क्रोधसम्बन्धी संग्रह कृष्टियोंकी स्थिति यदि वेदककालके द्वारा दो महीना कम होती है तो एक प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदककालमें स्थितिबन्धको कितनी हानि देखेंगे इस प्रकार त्रैराशिक क्रमसे प्रकृत स्थितिबन्धकी हानि साध लेना चाहिए। इसलिए यह चौथा आवश्यक यहां जानना चाहिए यह सिद्ध हुआ। * चारों संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म छह वर्ष और अन्तर्महूर्त कम आठ महीना होता है। ५। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे ६६६८. किट्टीवेदगपढमसमये अटुवस्समेत्तमेदेसि ठिदिसंतकम्मं होदूण तत्तो कमेण परिहाइदूण एदम्मि समये छवस्साणि अंतोमुहतूणट्टमासब्भहियाणि होदूण परिसिद्धमिदि वुत्तं होदि । एत्थ अटुवस्समेतपुस्विल्लटिविसंतादो परिहीणा सेसट्रिदिप्पमाणमंतोमुत्ताहियचत्तारिमासेहि सादिरेयवस्समेत्तमिदि घेत्तन्वं । तिण्हं संगहकिट्टीणं वेदगकालभंतरे जवि चण्हं वस्साणं परिहाणी लब्भदि, तो पढमसंगहकिट्टीवेदगकालम्मि केतियं लभामो ति तेरासियं कादूण सादिरेयतिभागभहियएगवस्समेत्तढिदिसंतपरिहाणो सिस्साणमेत्य वरिसेयव्वा । * तिण्हं धादिकम्माणं ठिदिबंधो दस वस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि [६] ६६६९. पुग्विल्लसंधिविसये संखेज्जवस्ससहस्समेतो तिण्हं घादिकम्माणं ट्रिविबंधो तत्तो संखेज्जगुणहाणोए जहाकम परिहाइदूण अंतोमुहत्तणवसवस्सपमाणो एवम्मि समये संजादो' त्ति वुत्तं होइ। * घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्साणि [७] ६६७०. पुव्वुत्तसंघीए संखेज्जवस्ससहस्समेंत्तमेदेसि ठिदिसंतकम्म संखेजेहि दिदिखंडयसहस्सेहि संखेज्जगुणहाणीए तत्तो सुठु ओहट्टिदूण तप्पाओग्गसंखेज्जवस्सपमाणेणेण्हि पयट्टदि त्ति भणिदं होइ। * सेसाणं कम्माणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि [८] ६६७१. किं कारणं ? अघादिकम्माणं दिदिसंतकम्मस्स असंखेज्जगुणहाणीए जहाकम १६६८. कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें इन कर्मोका स्थितिसत्कर्म आठ वर्षप्रमाण होकर उससे क्रमसे घटकर इस समय छह वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम आठ माह अधिक होकर निश्चित होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर आठ वर्षप्रमाण पहलेके स्थितिसत्कर्मसे घटी हुई समस्त स्थितिका प्रमाण सान्तर्मुहुर्त चार माह अधिक एक वर्षप्रमाण होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । तीन संग्रह कृष्टियोंकी यदि वेदककालके भीतर चार वर्षप्रमाण स्थितिकी हानि प्राप्त होती है तो प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदककालमें कितनी स्थिति प्राप्त करेंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके साधिक तृतीय भाग अधिक एक वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मको हानि शिष्योंको यहांपर दिखलानी चाहिए। * तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम वस वर्षप्रमाण होता है ।। ६६६९. पिछछी सन्धिमें तीन घातिकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता था, उससे संख्यात गुणहानि द्वारा क्रमसे घटकर इस समय अन्तर्मुहूर्त कम दस वर्षप्रमाण हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात वर्षप्रमाण होता है । ६६७०. पूर्वोक्त सन्धिमें इन कर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता था वह संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों द्वारा संख्यात गुणहानि होकर उससे पर्याप्त घटकर इस समय तत्प्रायाग्य संख्यात वर्षप्रमाण प्रवृत्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * शेष कर्मोंका स्थितिसत्कम असंख्यात वर्षप्रमाण होता है। ३६७१. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-अघाति कोका स्थितिसत्कर्म असंख्यात गुणहानि द्वारा क्रमसे घटता हुआ भी Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेहोए कोहस्स विदियकिट्टीकरणपरूवणा २६९ मोवट्टिन्जमाणस्स वि एदम्मि विसये असंखेज्जवस्सपमाणेणेवावट्ठाणणियमदंसणादो। ठिदिबंधो पुण एदेसि तक्कालभाविओ संखेज्जवस्ससहस्समेत्तो सुगमो त्ति ण तण्णिद्देसो सुत्तयारेण कदो। एवं कोहपढमसंगहकिट्टीए चरिमसमयवेदगभावमणुपालिय एत्तो से काले कोहसंजलणविदियसंगहकिट्टीए वेवगभावेण परिणममाणस्स परूवणापबंधमुरिमचुण्णिसुत्ताणुसारेण वक्खाणयिस्सामो। * से काले कोहस्स विदियकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण कोहस्स पढमहिदि करेदि। ६६७२. पुग्विल्लपढमट्टिदीए उच्छिटावलियमेत्तसेसाए पढमसंगहकिट्टीवेदगद्धा समप्पवि। . ताधे चेव कोहस्स विदियसंगहकिट्टीवो पदेसग्गं विदियट्टिवीए समवटिवमोड्डियूण उवयादिगुणसेढीए सगवेवगद्धादो आवलियब्भहियं कादूण पढमट्टिविमेसो कुणदि ति वुत्तं होइ। एवमोकड्डियूण विवियसंगहकिट्टीए पढमद्धिविमुप्पाएमाणस्स तम्मि समये कोहपढमसंगहकिट्टीए किमवसिटुं कि वा विणटुमिवि आसंकाए णिण्णयविहांणद्वमुत्तरसुत्तारंभो * ताधे कोधस्स पढमसंगहकिट्टीए संतकम्मं दो आवलियबंधा दुसमयूणा सेसा, जं च उदयावलियं पविढं तं च सेसं । ६७३. पढमकिट्टीए' दुसमयूणदोआवलियमेत्तणवकबंधपदेसग्गमुच्छिटावलियं च मोत्तण सेसासेसकोहपढमसंगहकिट्टीपदेसगं तत्कालमेव विदियसंगहकिट्टीए उवरि संकेतमिदि भणिवं इस स्थानपर उसके असंख्यात वर्षप्रमाणरूपसे अवस्थानका नियम देखा जाता है। परन्तु इन कर्मोका तत्काल भावो स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता हुआ सुगम है, इसलिए सूत्रकारने उसका निर्देश नहीं किया है। इस प्रकार प्रथम संग्रह कृष्टिक अन्तिम समयमें वेदकभावका अनुपालन करके इससे तदनन्तर समयमें क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिके वेदकभावसे परिणमन करते हुए प्ररूपणाप्रबन्धका उपरिम चूर्णिसूत्रके अनुसार व्याख्यान करेंगे। * तदनन्तर समयमें क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिके प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके क्रोधको प्रथम स्थिति करता है। ६६७२. पहलेके प्रथम स्थितिके उच्छिष्टावलिमात्र शेष रहनेपर प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदककाल समाप्त होता है । तथा उसो समय क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे, द्वितीय स्थितिमें स्थित प्रदेशजको अपकर्षित कर उदयादि गुणश्रेणिरूपसे अपने वेदककालसे एक आवलि अधिक करके यह क्षपक जीव प्रथम स्थितिको करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार षण करके दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थितिको उत्पन्न करनेवाले इस क्षपक जीवके उस समय क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थितिका क्या कुछ भाग अवशिष्ट रहता है या पूरा विनष्ट हो जाता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णयका विधान करने के लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं उस समय क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका सत्कर्म दो समय कम दो आवलिप्रमाण बन्ध शेष रहता है और जो उदयावलि प्रविष्ट द्रव्य है वह शेष रहता है। ६६७३. प्रथम कृष्टिके दो समय कम दो मावलिप्रमाण नवकबन्धसम्बन्धो प्रदेशपंज और उच्छिष्टावलिको छोड़कर क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका शेष रहा समस्त प्रदेशपुंज तत्काल १. ता प्रतौ पढमकिट्टीए इति पाठः सूत्रांशरूपेणोपलभ्यते । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे होदि । संपहि कोहविदियसंगहकिट्टोदो तेरसगुणायामा होवूण द्विदपढ मसंगह किट्टी विदियसंगहकिट्टीए ट्ठा अनंत गुणहाणीए परिणमिय तिस्से चेव अपुष्व किट्टी होण पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं । ता सेससंग हकिट्टीणं पुध पुध जोइज्जमाणाणमायामादो एदिस्से आयामो चोद्दसगुणमेत्तो होदित्ति दट्ठम्बो, पढमसंगह किट्टी दव्व पडिग्गहमाहप्पेण तत्थ तहाभावोववत्तीए बाहाणुवलं भादो । णवकबंधु च्छाव लियपदेसग्गं च जहाकममेव विदियसंगहकि ट्टीए समयाविरोहेण संकर्मादि त्ति घेत्तव्वं । * ता कोहस्स विदिकिडीवेदगो । ६ ६७४ सुगमं । संपहि एवं कोहविदियसंगह किट्टोवेदगभावेण परिणदस्स पढमसमयप्पहूडि जाव सगवेगकालच रिमसमओ त्ति ताव परूवणाणुगमे कीरमाणे जो कोहपढम संगह किट्टो वेदगस्स ही दूसरी संग्रह कृष्टि ऊपर संक्रान्त हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । मन क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे तेरहगुणे आयामवाली होकर स्थित हुई प्रथम संग्रह कृष्टि दूमरी संग्रह कृष्टि नीचे अनन्तगुणी हानिरूपसे परिणमकर उसीको अपूर्व कृष्टि होकर प्रवृत्त होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। उस समय पृथक्-पृथक् योज्यमान शेष संग्रह कृष्टियोंके आयामसे इसका आयाम चौदह गुणा होता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि प्रथम संग्रह कृष्टिके द्रव्यको ग्रहण करनेसे जो अधिकता आ जाती है उस कारण उसमें उस रूपसे व्यवस्था बनने में कोई बाधा नहीं पायी जाती । नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिका प्रदेशपुंज क्रमसे दूसरी संग्रह कृष्टिमें समय के अविरोधपूर्वक संक्रमित होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - प्रतिसमय जो कर्मबन्ध होता है उसका उत्तरोत्तर विभाग करनेपर जो चारित्रमोहनीयको द्रव्य प्राप्त होता है उसमेंसे साधिक आधा द्रव्य तो कषायसम्बन्धी द्रव्य है और कुछ कम आधा द्रव्य नोकषायसम्बन्धी है। उदाहरणार्थ अंकसंदृष्टिको अपेक्षा चारित्रमोहनीयका कुल द्रव्य ४९ मान लेनेपर असंख्यातवां भाग अधिक आधा २५ कषायसम्बन्धी द्रव्य होता है । शेष असंख्यातवां भागहीन आधा २४ नोकषायसम्बन्धी द्रव्य होता है । यहाँ चारों संज्वलनोंकी संग्रह कृष्टियां १२ हैं, अतः कषायसम्बन्धी पूरे द्रव्यको इन १२ संग्रह कृष्टियों में विभाजित करनेपर क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिको साधिक २ अंकप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है । इसी विधिसे शेष ११ संग्रह कृष्टियों में से प्रत्येकको भी साधिक २ अंकप्रमाण द्रव्य प्राप्त हुआ । पुनः नोकषाय समस्त द्रव्य क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होनेपर उसका कुलप्रमाण साधिक २ + २४ = २६ अंकप्रमाण प्राप्त होता है। जो कि इसी की दूसरी संग्रह कृष्टिसे साधिक १३ गुणा अधिक है । पुनः क्रोधसंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिके कुल द्रव्य साधिक २६ में द्वितीय संग्रह कृष्टिके २ अंक प्रमाण द्रव्यके मिलानेपर २६ + २ = २८ होता है जिसे क्रोधसंज्जनको तीसरी संग्रहकृष्टि आदिको तुलनामें देखनेपर साधिक १४ भाग अधिक होता है । यही मूल टोका में स्पष्ट किया गया है । * उस समय क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदक होता है । ६ ६७४. यह सूत्र सुगम है। अब इस प्रकार क्रोधसंज्वलनकी द्वितीय संग्रह कृष्टिके वेदकभावसे परिणत हुए क्षपकके प्रथम समयसे लेकर अपने वेदन करनेके अन्तिम समय तककी प्ररूपणाका अनुगम करनेपर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदकको जो विधि कह आये हैं। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए कोहविदियकिट्टीवेदगरस सो चेव विही २७१ विधी परूविदो, सो चेव गिरवसेसमेत्थ कायव्वो, पत्थि किंचि णाणत्तमिदि अत्यसमप्पणं. कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ___* जो कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स विधी सो चेव कोहस्स विदियकिदि वेदयमाणस्स विधी कायव्वो । ६६७५. जहा कोहपढमसंगहकिट्रीमहिकिच्च पुवुत्तासेसपरूवणा बंधोदयजहण्णुक्कस्स णिव्वग्गणादिकरणपडिबद्धा सवित्थरमणुमग्गिदा तहा चेव एत्थ वि परवेयव्वा त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। संपहि को सो पुवुत्तो विधी, कदमेसु वा आवासएसु पडिबद्धो ति आसंकाए पुव्वुत्तस्सेव अत्यविसेसस्स संभालणट्ठमुत्तरं पबंधमाह * तं जहा। ६ ६७६ सुगममेदं पुच्छावक्कं । * उदिण्णाणं किट्टीणं बज्झमाणीणं किट्टीणं विणासिज्जमाणीणं अप्पुव्वाणं णिव्वत्तिज्जमाणियाणं बज्झमाणेण च पदेसग्गेण संछुब्भमाणेण च पदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जयाणियाणं । ६६७७. एदेसि सम्वेसि आवासयाणं पढमसंगहकिट्टीपरूवणाए जो विधी परूविवो सो चेव वही पूरी यहाँपर करनी चाहिए। उससे इसमें कुछ भेद नहीं है इस प्रकार इस अर्थका समर्पण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * जो क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवको विधि प्ररूपित कर आये हैं वही विधि कोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका वेवन करनेवाले क्षपक जीवकी करनी चाहिए। ६६७५. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिको अधिकृत करके बन्ध, उदय, जघन्य और उत्कृष्ट निर्वर्गणा आदि करणसे सम्बन्ध रखनेवालो पूर्वोक्त सम्पूर्ण प्ररूपणा विस्तारके साथ कर आये हैं उसी प्रकार यहाँपर भो कहनो चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब वह पूर्वोक्त विधि क्या है अथवा किनने आवश्यकोंमें वह प्रतिबद्ध है ऐसी आशंका होनेपर पूर्वोक्त अर्थविशेषकी ही सम्हाल करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * वह जैसे। ६ ६७६. यह पृच्छावाक्य सुगम है। * उवीणं कृष्टियोंकी, बध्यमान कृष्टियोंकी, विनश्यमान कृष्टियोंकी, बध्यमान प्रदेशपंजसे निवर्त्यमान अपूर्व कृष्टियोंकी और संक्रम्यमाण प्रवेशपुंजसे निवत्यमान अपूर्व कृष्टियोंको विधिको प्रथम संग्रह कृष्टिके समान करना चाहिए। ६६७७. इन सब आवश्यकोंकी प्रथम संग्रह कृष्टिको प्ररूपणाके समय जो विधि प्ररूपित कर आये हैं वह सभी विधि पूरी यहां जानना चाहिए, क्योंकि उसकी प्ररूपणासे इसकी प्ररूपणामें Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे णिरवसेस मणुगंतव्यो; विसेसाभावादो त्ति वृत्तं होइ । संपहि एत्थुद्देसे किट्टीसु पदेससंकमो क यदि ति एवस अत्थविसेसस्स निण्णयकरणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो * एत्थ संकममाणयस्स पदेसग्गस्स विधिं वत्तइस्लामो । ६६७८. कदमादो संगह किट्टोदो पदेसग्गं काय संकमदि, किमविसेसेण सभ्यं सव्वत्थ कमद, आहो अस्थि को वि विसेसनियमो त्ति एदस्स निण्णयविहाणटुमेंत्तो किट्टीसु संकममाणस्स पदेसग्गस्स क्खिवणमेत्थ कस्सामो त्ति पइण्णाववकमेदं । * तं जहा । ६ ६७९. सुगमं । * कोधविदियकट्टीदो पदेसग्गं कोहतदियं च माणपढमं च गच्छदि । $६८०. कोधस्स विदियसंगहकिट्टीदो पवेसग्गं कोधत विय संगहकिट्टीए माणपढम संगह किट्टीए च संकमवि, ण सेसासु । कुदो ? एवम्मि विसये आणुपुथ्वीसंकमवसेण संकममाणस्स तप्पदुप्पायणतप्पसंगावो । वु दो ? तदो कोहविदियकिट्टी अप्पणो तदियकिट्टीए ओकडुणावसेण संकमदि, माणपढमसंगह किट्टीए च अघापवत्तसंकमेण संकमात्र त्ति घेत्तव्वं । * कोइस्स तदियादो किट्टीदो माणस्स पढमं चैव गच्छदि । कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इस स्थल पर कृष्टियों में प्रदेशोंका संक्रम किस प्रकार प्रवृत्त होता है इस प्रकार इस अर्थविशेषका निर्णय करनेके लिए आंगेका सूत्रप्रबन्ध आया है - * आगे यहाँ संक्रम्यमाण प्रवेशपुंजको विधिको बतलावेंगे । $ ६७८. किस संग्रह कृष्टिसे प्रदेशपुंज किस संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है, क्या सामान्यसे सब सबमें संक्रमित होता है या कोई विशेष नियम है, इस प्रकार इस बात के निर्णयका कथन करनेके लिए आगे कृष्टियोंमें संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजके निष्क्रमणको यहाँपर बतलावेंगे इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है । * वह जैसे । ६ ६७९. यह सूत्र सुगम है । * क्रोधको दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रवेशपुंज क्रोधसंज्वलनकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें और मानसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिमें प्राप्त होता है । § ६८०. क्रोधसंज्जलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे प्रदेशपुंज क्रोधसंज्वलनकी तीसरी संग्रह - कृष्टिमें और मानसंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है शेष में नहीं, क्योंकि रसस्थान पर आनुपूर्वी संक्रमके कारण संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजको उसी प्रकारसे व्यवस्थाका प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि इस कारण क्रोधको दूसरी संग्रह कृष्टि अपकर्षण के कारण अपनी तीसरी संग्रह कृष्टिमें और अधःप्रवृत्त संक्रमके कारण मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । * क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिसे प्रवेशपुंज मानको प्रथम संग्रह कृष्टिको ही प्राप्त होता है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए संकममाणपदेसग्गस्स विही २७३ १६८१. कोहतदिय संगह किट्टीए पदेसग्गं सेसासेससंगहकिट्टीपरिहारेण माणस्स पढमसंगहकिट्टीए चेव संकमदित्ति घेत्तव्वं, तत्थ पयारंतरासंभवादो । एसो च अधापवत्तसंकमो बज्झमाणकिट्टी सरूवेण बज्झमाणाबज्झमाण किट्टीणमधापवत्तेणेव संकंतिणियमदंसणादो । * माणस्स पढमादो किट्टीदो माणस्स विदियं तदियं मायाए पढमं च गच्छदि । $ ६८२. एत्थ वि अपणो विदिय-तदियसंगहकिट्टीसु ओकडुणासंकमो, मायाए पढमसंगहकिट्टीए अधापवत्तसंकमो ति णिच्छेयव्वं । सेसं सुगमं । माणस्स विदियकिट्टीदो माणस्स तदियं च मायाए पढमं च गच्छदि । * माणस्स तदियकिट्टीदो मायाए पढमं गच्छदि । * मायाए पढमादो पदेसग्गं मायाए विदियं तदियं च लोभस्स पढमकिट्टि च गच्छदि । * मायाए विदियादो किट्टीदो पदेसग्गं मायाए तदियं लोभस्स पढमं च गच्छदि । * मायाए तदियादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स पढमं गच्छदि । ६ ६८१. क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिका प्रदेशपुंज शेष समस्त संग्रह कृष्टियोंका परिहार करके मानकी प्रथम संग्रह कृष्टि में ही संक्रमित होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसमें दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । और यह अधःप्रवृत्त संक्रम है, क्योंकि बध्यमान और अबध्यमान कृष्टियोंके अधःप्रवृत्त संक्रमरूपसे ही संक्रमका नियम देखा जाता है । * मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे प्रदेशपुंज मानकी दूसरी और तीसरी संग्रहकृष्टिको तथा मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है | ६६८२. यहाँ पर भी अपनी दूसरी और तीसरो संग्रहकृष्टियों में अपकर्षण संक्रम और मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें अधःप्रवृत्त संक्रम प्रवृत्त होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए । शेष कथन - सुगम है । * मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे प्रवेशपुंज मानकी तीसरी संग्रहकृष्टिको और मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है। * मानको तीसरी संग्रहकृष्टिसे प्रवेशपंज मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है । * मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिसे प्रदेशपंज मायाकी दूसरी और तीसरी संग्रहकृष्टिको और लोकी प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है । मायाकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे प्रवेशपुंज मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टिको और लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है। * मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टिसे प्रवेशपुंज लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है। ३५ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * लोभस्स पढमादो किट्टीदो पदे मग लोभस्स विदियं च तदियं च गच्छदि । * लोभस्म विदियादो पदेसग्गं लोभस्स तदियं गच्छदि । ६६८३. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि त्ति ण एत्थ किंचि वक्खाणेयध्वमत्थि। कोहपढमसंगहकिट्टीवेदगद्धाए वि एसा संकमपरिवाडी अणुगंतव्वा । णवरि कोहपढमसंगहकिट्टोदो पदेसग्गमप्पणो विदिय दियसंगहकिट्टीओ च गच्छदि माणपढमं च, तमादि कादूण संगहकिट्टीणं जहा णिहिट्ठाए परिवाडीए संकमणियमदसणादो। एसो अत्यविसेसो संकामिज्जमाणेण पदेसग्गेण णिवत्तिज्ज. माणकिट्टीणं साहणटुं परूविदो ददृव्वो। संपहि कोहविदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो कि सम्वेसि कसायाणं विदियसंगहकिट्टीओ चेव बंधाद आहो कोहस्स विदियसंगहकिट्टिसेसाणं च पढमसंगहकिट्टिमेव बंधदि ति आसंकाए णि ण्णयविहाणं कुणमाणो पुच्छावक्कमाह * जहा कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणो चदुण्हं कसायाणं पढमकिट्टीओ बंधदि किमेवं चैव कोधस्स विदियकिट्टि वेदेमाणो चदुण्हं कमायाणं विदियकिट्टीओ बंधदि आहो ण वत्तव्यं । ६६८४ जहा कोहस्स पढमसंगहकिट्टि वेदेमाणो णियमा चदुहं कसायाणं पढमसंगहकिट्टीओ चेव बंधाद किमेवं चेव कोहविदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो एसो चदुण्हं कसायाणं विदियसंगहकिट्टि * लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे प्रदेशपुंज लोभको दूसरो और तीसरी संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है। कई लोभको दूसरी संग्रहकृष्टिसे प्रदेशपुंज लोभको तीसरी संग्रहकृष्टिको प्राप्त होता है। ६६८३. ये सूत्र सुगम हैं, इसलिए यहाँपर कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है। क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकको भी यही संक्रम विषयक परिपाटो जाननी चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे प्रदेशज क्रोधकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टिको तथा मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिको प्राप्त होता है, क्योंकि उससे लेकर संग्रह कृष्टियोंके यथानिर्दिष्ट परिपाटीके अनुसार संक्रमका नियम देखा जाता है। यह अर्थ विशेष संक्रम्यमाण प्रदेशपंजसे निर्वर्त्यमान कृष्टियोंका साधन करनेके लिए प्ररूपित किया हुआ जानना चाहिए। अब क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक जीव क्या सभी कषायोंको दूसरी संग्रह कृष्टियोंको ही बांधता है या क्रोध को दूसरी संग्रह कृष्टियोंके अतिरिक्त शेष कषायोंको प्रथम संग्रह कृष्टिको ही बांधता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णयका विधान करते हुए पृच्छा वाक्यको कहते हैं * जिस प्रकार क्रोथको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक जीव चारों कषायोंको प्रथम संग्रह कृष्टियोंको बाँधता है क्या इसी प्रकार क्रोधको दूसरो संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक जीद चारों कषायोंको दूसरो संग्रह कृष्टिको बाँधता है या नहीं बांधता है, कहिए? ६६८४. जिस प्रकार क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक जीव नियमसे चारों कषायोंकी प्रथम संग्रह कृष्टियोंको ही बांधता है क्या इसी प्रकार क्रोधको दूसरो संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाला यह क्षपक जोव चारों कषायोंको दूसरी संग्रह कृष्टियोंको ही बांधता है Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेडीए संगहकिट्टिबंधविमयपरूवणा २७५ चेव बंधवि त्ति णियमो, उदाहो ण तहा, वत्तव्वमिदि एदेण पुच्छा कदा होइ। संपहि एदस्सेव पुच्छाणिद्देसस्स फुडीकरण?मिदमाह * किय खु। ६६८५. कथं खलु स्यात्, को न्वत्र निर्णय इति पूर्वोक्तस्यैव प्रश्नस्य स्फुटीकरणपरमेतद्वाक्यम्। * समासलक्खणं भणिस्सामो। $ ६८६ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं निर्णयविधानमित्यर्थः, तत्संक्षेपत एव व्याकरिष्याम इत्युक्तं भवति । * जस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स कसायस्स तं किट्टि बंधदि, सेसाणं कमायाणं पढमकिट्टीआ बंधदि। ६६८७. जस्स कसायस्स जं किट्टि वेदयदि पढमं विदियं तदियं वा, तस्स तमेव बंधदि, सेसाणं पुण कसायाणमेण्हिमवेदिज्जमाणाणं पढमसंगहकिट्टीओ चेव बंधदि तत्थ पयारंतरासंभवादो त्ति वुत्तं होइ। तदो कोहविदियकिट्टि वेदेमाणो एसो कोहस्स विदियकिट्टि बंधदि, माण-मायालोभाणं पुण पढमसंगहकिट्टीओ चेव बंधदि । एवमुवरिकिट्टीओ वि वेदेमाणस्स पयदत्थजोजणा कायव्वा ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। संपहि कोहविदिकिट्टीवेदगस्स पढमसमये दिस्स ammar यह नियम है या उक्त प्रकारका नियम नहीं है, यह कहना चाहिए इस प्रकार इस सूत्र द्वारा पृच्छा की गयो है। अब इसी पृच्छाके निर्देशको स्पष्ट करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * इस विषयमें किस प्रकार है ? ६६८५. इस विषयमें किस प्रकार है-इस विषयमें क्या निर्णय है इस प्रकार पूर्वोक्त प्रश्नका ही स्पष्टीकरणपरक यह वाक्य है। * आगे संक्षेपमें इसका लक्षण कहेंगे। १६८६. जिस द्वारा कोई भी वस्तु लक्षित की जाती है वह लक्षण कहलाता है, विवक्षित वस्तुके निर्णयका विधान करना यह इसका भावार्थ है, उसका संक्षेपमें ही व्याख्यान करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * जिस कषायको जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस कषायको उस संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है तथा शेष कषायोंकी प्रथम संग्रहकृष्टिका बन्ध करता है। ६६८७. जिस कषायकी प्रथम, द्वितीय या तृतीय जिस संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उस कषायको उसी संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है, किन्तु जिन कषायोंका इस समय वेदन नहीं करता उन कषायोंकी तो प्रथम संग्रह कृष्टियोंको ही बांधता है, क्योंकि उनमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करता हुआ यह क्षपक जोव क्रोधको दूसरी संग्रह कृष्टिको बांधता है, परन्तु मान, माया और लोभको प्रथम संग्रह कृष्टियोंको ही बांधता है। इसी प्रकार उपरिम कृष्टियोंका भी वेदन करनेवाले इस जीवके प्रकृत अर्थकी योजना कर लेनी चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब क्रोध संज्वलनकी दूसरी कृष्टि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय धवलासं हिंदे कसायपाहुर्डे माणाणमेक्कारसहं संगहकिट्टीणमंतरकिट्टीसु कदमाओ थोवाओ कदमाओ च बहुगोओ त्ति एवस अर्थावसेसस्स विद्धारणट्ठमुवरिमपबंधमाढवेदि २७६ * कोधविदियकिट्टीए पढमसमये वेदगस्स एक्कारससु संगह किट्टीसु अंतर किट्टीणमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । ६ ६८८. सुगमं । * त जहा । ६८९. सुगमं । * सव्वत्थोवाओ माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ । $ ६९०. एत्थ पढमसंगह किट्टि त्ति भणिदे वेदगपढमसंगहकिट्टीए गहणं काय, किट्टिवेवगेण पयदत्तादो । तदो माणम्स पढमसंगहकिट्टीए अवयव किट्टीओ अभवसिद्धिएहि अनंतगुण-सिद्धाणंतभागमेत्तीओ होवूण सव्वत्थोवाओ जादाओ, कुदो एदास थोवभावो परिच्छिज्जदे ? थोवयरदग्वेण णिवत्तिदत्तादो । * विदिया संगह किट्टीए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । ६९१. कुदो ? दव्वविसेसादो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागिओ, सत्थाणविसेसस्स पुण्यं तहाभावेण समत्थियत्तादो । वेदक के प्रथम समय में दृश्यमान ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी अन्तर कृष्टियों में कौन सो या कितनी कृष्टियां थोड़ी हैं और कितनी कृष्टियां बहुत हैं इस प्रकार इस अर्थविशेषका निर्धारण करनेके लिए आगे प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * क्रोधसंज्वलनकी दूसरी कृष्टिके प्रथम समय में वेदकको ग्यारह संग्रह कृष्टियों में अन्तर कृष्टियोंके अल्पबहुत्वको बतलावेंगे । ९ ६८८. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । $ ६८९. यह सूत्र सुगम है । * मान संज्वलनकी प्रथम समय में संग्रह कृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ सबसे थोड़ी हैं । $ ६९०. यहाँ सूत्र में 'पढमसंग किट्टीए' ऐसा कहनेपर वेदककी प्रथम संग्रह कृष्टिका ग्रहण करना चाहिए. क्योंकि कृष्टिवेदक प्रकृत है । अतः मान संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियाँ अभव्योंसे अनन्तगुणो या सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण होकर सबसे थोड़ी हो गयी हैं । शंका- इनका स्तोकपना कैसे जाना जाता है ? समाधान - क्योंकि इनको स्तोकतर द्रव्यसे रचना हुई है। * दूसरे समय में संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । $ ६९१. क्योंकि इनमें द्रव्यविशेषका निक्षेप हुआ है । शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान - विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागरूप है, क्योंकि स्वस्थान विशेषका पहले उसीरूपमें समर्थन कर आये हैं । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगढीए अंतर किट्टिअप्पा बहुअपरूवणा * तदियाए संग किट्टीए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । ६ ६९२. एत्थ वि विसेसपमाणं पुरुषं व वत्तव्वं । * कोहस्स तदियाए संगह किट्टीए अंतर किट्टीओ विसे साहियाओ । ९ ६९३. कुदो ? दव्य विसेसादो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेयखंडमेत्तो, परत्थाणविसेसस्स दव्वविसेसाणुसारेण तहाभावेण दंसणादो। एवमुवरिमपदेसुं वि परत्थाणविसेसो एवं चैव वत्तव्वो । * मायाए पढमाए संगह किट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । * विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ | * तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । * लोभस्स पढमाए सगह किट्टोए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । * विदियाए संगकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । * तदियाए संगह किट्टीए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । २७७ ६ ६९४. एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * कोहस्स विदियाए सगह किट्टीए अंतर किट्टीओ संखेज्जगुणाओ । ६ ६९५. को एत्थ गुणगारो ? चोद्दसख्वाणि । तं जहा - मायातदियसंगहकिट्टीए दबं * तीसरी संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । $ ६९२. यहाँपर भी विशेषका प्रमाण पहले के समान कहना चाहिए । क्रोध संज्वलनकी तीसरी संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । ६ ६९३ . क्योंकि इसमें द्रव्यविशेष पाया जाता है । शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान – आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित एक भागप्रमाण है, क्योंकि परस्थानविशेष द्रव्यविशेष के अनुसार उसी प्रकारसे देखा जाता है । इस प्रकार उपरिम पदोंमें भी परस्थानविशेष इसी प्रकारसे कहना चाहिए । * मायासंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । * दूसरी संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । * तीसरी संग्रह कृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । * लोभसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । * दूसरी संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । * तीसरी संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । $ ६९४. ये सूत्र सुगम है । * क्रोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ संख्यातगुणी हैं । ६९५. शंका - यहाँ पर गुणकार क्या है ? समाधान - चौदह संख्या गुणकार है । वह जैसे -माया संज्वलनको तोसरी संग्रह कृष्टिका Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मोहणीयसयलदव्वस्स चउवीसभागमेतं होइ। कोहविदियसंगहकिट्टीए वि अप्पणो मूलदव्वं मोहणीयसयलदव्वं पेक्खिविय चउवीसभागमेतं चेव भवदि । पुणो एक्स्सुवरि कोहपढमसंगहकिट्टीए तेरसचउवीसभागमेतदव्वं च पविट्टमत्थि; दव्वाणुसारेणेव अंतरकिट्टोणमायामो होवि ति एदेण कारणेण हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओवट्टिदे चोद्दसरूवमेत्तगुणगारसमुप्पत्ती ण विरुज्झदे। ६६९६. जहा अंतरकिट्टोणमेदमप्पाबहुअमणुमग्गिदं एवं तत्थतणपदेसपिंडस्स वि थोवबहुः त्ताणुगमो कायस्वो त्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * पदेसग्गस्स वि एवं चेव अप्पाबहुअं। ६६९७. 'कायब्वं' इदि वक्कसेसो एत्थ कायव्वो। सेसं सुगम। एवमेदेण विहाणेण कोह. विदियसंगहकिट्टि वेदेमाणस्स पढमट्टिदो कमेण परिहीयमाणा जाधे आवलिय-पडिआवलियमेत्तोओ सेसा ताधे जो परूवणाभेदो तण्णिद्देसकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो - द्रव्य मोहनीयके समस्त द्रव्यके चौबीसवें भागप्रमाण होता है। क्राधसंज्वलनको दूसरो संग्रह कृष्टिका अपना मूल द्रव्य भी मोहनीयके समस्त द्रव्यको देखते हुए चौबीसवें भागप्रमाण ही होता है । पुनः इसके ऊपर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें तेरह बटे चौबीस भागप्रमाण द्रव्य प्रविष्ट है, क्योंकि द्रव्यके अनुसार ही अन्तर कृष्टियोंका आयाम होता है। इस कारण अधस्तन राशिसे उपरिम राशिके भाजित करनेपर चौदह संख्याप्रमाण गुणकारकी उत्पत्ति विरोधको प्राप्त नहीं होती। विशेषार्थ-यह तो हम पहले ही सूचित कर आये हैं कि अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा मोहनीयका समस्त द्रव्य ४९ अंक प्रमाण कल्पित करनेपर नो नोकषायोंको जितना द्रव्य मिलता है उससे कुछ अधिक द्रव्य अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंको मिलता है, इस नियमके अनुसार नौ नोकषायोंका कुल द्रव्य २४ अंकप्रमाण और कषायोंका समस्त द्रव्य २५ अंकप्रमाण मान लेनेपर मोहनीयका समस्त द्रव्य ४९ अंकप्रमाण प्राप्त हो जाता है। पुनः कषायोंके द्रव्यको १२ संग्रह कृष्टियोंमें विभक्त करनेपर प्रत्येक संग्रह कृष्टिको साधिक दोभागप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है। चूंकि क्षपणाकालमें नोकषायोंके द्रव्यका कषायोंमें संक्रमित होनेपर क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका कूल द्रव्य २४ + २ = २६ अंकप्रमाण होता है जो क्रोधसंज्वलनको द्वितीय संग्रह कृष्टिको अपेक्षा समस्त द्रव्य के १३ भागप्रमाण होता है। पूनः इसमें क्रोधको द्वितीय संग्रह कृष्टिका द्रव्य प्रविष्ट होनेपर वह १४ भागप्रमाण हो जाता है। कारण स्पष्ट है। इसी प्रकार आगे भी सब संग्रह कृष्टियोंके द्रव्यके प्रविष्ट होनेपर अन्तमें पूरे, द्रव्यका प्रमाण आ जाता है। इसी तथ्यको यहां स्पष्ट किया गया है ऐसा समझना चाहिए। 5६९६. जिस प्रकार अन्तर कृष्टियोंके भेदोंके अल्पबहुत्वका अनुगम किया उसी प्रकार उनमें अवस्थित प्रदेशपिण्डका अनुगम करना चाहिए इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * अन्तर कृष्टियोंके प्रदेशपुंजका भी इसी प्रकार अल्पबहुत्व करना चाहिए। ६९७. सूत्र में 'कायव्वं' यह वाक्य शेष है। आशय यह है कि 'अल्पबहुत्व करना चाहिए' ऐसा अर्थ कर लेना। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार इस विधिसे क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकके प्रथम स्थिति क्रमसे होन होती हुई जब आवलि और प्रतिआवलिप्रमाण शेष रहती है उस समय जो प्ररूपणा भेद होता है उसका निर्देश करने के लिए आगेके सूत्रको बारम्भ करते हैं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए आगाल-पडिआगालणियमपरूवणा २७९ * कोहस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस जा पढमद्विदी तिस्से पढमद्विदीए आवलियपडिआवलियाए सेसाए आगाल-पडियागालो वोच्छिण्णो। ६६९८. जइ वि एत्थ किट्टीकरणद्धपारंभप्पहुडि मोहणीयस्स उक्कड्डणाभावेण पढमट्टिवीदो विदियटिदिम्मि पदेससंगरो णस्थि तो वि विदियटिदीदो पढमदिदीए ओकडिज्जमाणपदेसग्गस्स एण्हिमणागमणं पेक्खियणागालपडिआगालवोंच्छेदो णिहिदो । एवमागालपडिआगालवोच्छेदं कादूण पुणो वि समयूणावलियमेत्तकाले गालिदे पढमट्टिदी समयाहियावलियमेत्ती सेसा होदि ताधे कोहसंजलणस्स जहणिया टिदिउदीरणा, ताधे चेव विदियसंगहकिट्टीए चरिमसमयवेदगभावेण परिणमदि त्ति जाणावणफलो उत्तरसुत्तारंभो। * तिस्से चेव पढमट्ठिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए ताहे कोहस्स विदियकिट्टीए चरिमसमयवेदगो। ६९९. गयत्थमेदं सुत्तं । एवं च कोहविदियसंगहकिट्टीए चरिमसमयवेवगभावेण पयट्टमाणस्स तक्कालभाविओ जो परूवणाभेदो तण्णिद्धारणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो * ताधे संजलणाणं द्विदिबंधो बेमासा वीसं च दिवसा देसूणा । ६७००. एत्थ पुव्वुत्तसंधिविसदिदिबंधादो टिदिबंधपरिहाणी पुव्वं व तेरासियकमेणाणेयठवा। * क्रोषसंज्वलनकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवालेके जो प्रथम स्थिति होती है उस प्रथम स्थितिको आवलि और प्रतिमावलिके शेष रहनेपर आगाल और प्रतिआगालको व्युच्छित्ति हो जाती है। ६६९८. यद्यपि यहाँपर कृष्टिकरण कालके प्रारम्भ होनेसे लेकर मोहनीय कर्मका प्रथम स्थितिमें से उत्कर्षण होकर द्वितीय स्थितिमें प्रदेश संचार नहीं होता तो भी द्वितीय स्थितिमें से प्रथम स्थिति में अपकृष्यमाण प्रदेशपुंजका नहीं आना देखकर इस समय आगाल और प्रत्यागालकी व्यच्छित्ति कही है। इस प्रकार आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति करके फिर भी एक समय कम आवलि प्रमाण कालके गालित होनेपर प्रथम स्थिति एक समय अधिक आवलिप्रमाण शेष रहती है। उस समय क्रोधसंज्वलनको जघन्य स्थिति उदीरणा होती है तथा उसी सम संग्रह कृष्टिका अन्तिम समयमें वेदकरूपसे परिणमन होता है इस बातके ज्ञान करानेके फलस्वरूप आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * उसी प्रथम स्थितिके एक समय अधिक एक आवलिमात्र शेष रहनेपर उस समय क्षपक जीव क्रोधको द्वितीय संग्रह कृष्टिका अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है। ६६९९. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार क्रोधको दूसरी संग्रह कृष्टिका अन्तिम समयमें वेदकरूपसे प्रवर्तमान क्षपकके तत्कालभावो जो प्ररूपणाभेद है उसका निर्धारण करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * उस समय संज्वलनोंका स्थितिबन्ध दो महीना और कुछ कम बोस दिन होता है। ६७.०. यहाँपर पूर्वोक्त सन्धिविषयक स्थितिबन्धसे स्थितिबन्धको हानि पहलेके समान राशिक क्रमसे ले आनो चाहिए। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यघवलासहिदे कसायपाहुडे * तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिबंधो वासपुधत्तं । ६७०१. पढमसंगह किट्टी वेदगस्स चरिमसमये दसवस्सस हस्तमेत्तो होंतो तिरहं धाविकम्माणं द्विदिबंध तत्तो कमेण परिहाइदूण एहिं तिन्हं वस्साणमुवरि जिणविट्ठभावेण पयट्टवि त्ति वृत्तं होइ । * सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २८० १७०२ सुगममेदं सुतं । * संजलणाणं ट्ठिदिसंतकम्मं पंच वस्साणि चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तणा । ६ ७०३. एत्थ पुग्विल्लसंधिविसयट्टिदिसंतकम्मादो अट्ठमासाहियछवस्सपमाणादो ठिदिसंतपरिहाणीसु ससत्तिभागेगवत्समेत्ता तेरासियक्रमेण साहेयव्वा । * तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६ ७०४. सुगमं । * णामागोदवेदणीयाणं ठिदिसंतकम्ममसंखेजाणि वस्साणि । ७०५. सुगममेदं पि सुत्तं । एवं कोहकिट्टोवेदगद्धाए विदिद्यतिभागे विविध संगहकिट्टीdaगत्तमणुभूय तदद्धा परिसमत्ताए तदो से काले तदियसंगहकिट्टी वेदग भावेण परिणममाणो तिस्से पदेसगं बिदियट्ठिदीदो ओकड्डियूण पढमट्ठिदिमुदया विगुणसेढोए सगवेदगद्धावो आवलियन्भहियं कावूण णिसिंचदित्ति पटुप्पाएमाणो इदमाह * तदो से काले कोहस्स तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । * तीन घातिकमका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व प्रमाण होता है । $ ७०१. प्रथम संग्रह कृष्टि वेदकके अन्तिम समय में दस हजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता हुआ इस समय तीन घातिकमौका आगे जैसा जिनदेवने देखा है उसके अनुसार प्रवृत्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। $ ७०२. यह सूत्र सुगम है । * संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म पाँच वर्ष और अन्तर्मुहूतं कम चार माहप्रमाण होता है। $ ७४३. यहां पर पहले के सन्धिविषयक आठ माह अधिक छह वर्षप्रमाण स्थितिसत्कमंसे स्थितिसत्कर्म की हानि तीन भाग अधिक एक वर्षप्रमाण त्रैराशिक विधिसे साध ले आनी चाहिए । * तीन घातिकमा स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । $ ७०४. यह सूत्र सुगम है । * नाम गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण है । § ७०५. यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार क्रोध कृष्टि वेदक कालके दूसरे त्रिभागमें दूसरी संग्रह कृष्टिकी वेदकताका अनुभव करके उसके काल के समाप्त हो जानेपर उसके बाद अनन्तर समय में तोसरी संग्रहकृष्टिके वेदकरूपसे परिणमन करनेवाला क्षपक जीव उसके प्रदेशपुंजको दूसरी स्थिति में से अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको उदयादि गुणश्रेणोरूपसे अपने वेदक कालसे एक आवलि अधिक करके सिंचन करता है इस बातका कथन करते हुए इस सूत्र को कहते हैं उसके बाद अनन्तर समयमें क्रोधको तीसरो कृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए कोषतदियकिट्टी विसयकपरूवणा २८१ ९७०६. सुगममेदं सुत्तं । णवरि एदम्मि समये विदियसंगहकिट्टीए दुसमपूणदो आवलियत्वक बंधु च्छिाव लियवज्जं सव्वमेव पदेसग्गं तदियसंग हकिट्टी सरूवेण परिणमिय सगसरूवेण टुमिदि वटुव्वं, तदियसंगहकिट्टी च सगपुविल्लायामादो पण्णा रसगुणमेत्तायामा विदियसंगह किट्टीदव्यपदिच्छण्ण माहप्पेण संजादा त्ति दट्टव्या । एवं च कोहतदियसंगहकिट्टी वेदगभावेण परिणवस्स पढमसमये तिस्से तदियसंगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा वेदिज्जंति, तिस्से चेव असंखेज्जा भागा बति त्ति इममत्यविसेसं फुडीकरेमाणो सुत्तनिद्देसमुत्तरं कुणइ * ताधे कोहस्स तदियसंगह किट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । * तासि चेव असंखेज्जा भागा बज्नंति । ७०७. सुगममेदं सुत्तद्दयं । णवरि उदिष्णाहितो विसेसहोणाओ बज्झमाणियाओ होंतित्ति एसो विसेसणिद्देसो पुग्वृत्तबंधोदय णिव्वग्गणापरूवणादो अणुगंतव्वो; सव्वासि चेव वेदिज्जमाणकिट्टीणं साहारणभावेण तिस्से पयट्टत्तादो । * जो विदियकिट्टिं वेदयमाणस्स विधी सो चेव विधी तदियकिट्टि वेदयमाणस्स वि काव्वो । ६७०८. विदियसंगहकिट्ट वेदयमाणस्स जो विधी पुव्वं परुविदो सो चेव निरवसेसमेत्थ ६ ७०६. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि इस समय दूसरी संग्रहकृष्टिके दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध उच्छिष्टावलिको छोड़कर सम्पूर्ण ही प्रदेशपुंजको तीसरी संग्रहकृष्टिरूपसे परिणमाकर अपने रूपसे नष्ट कर देता है ऐसा जानना चाहिए तथा तीसरी संग्रहकृष्टि अपने पहिले के आयामसे पन्द्रहगुणो आयामवाली दूसरी संग्रहकृष्टिके प्राप्त हुए माहात्म्यवश हो जाती है ऐसा जानना चाहिए, इस प्रकार क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिके वेदकभावसे परिणत हुए क्षपक जीवके प्रथम समय में उस तीसरी संग्रहकृष्टिका असंख्यात बहुभाग प्रदेशपुंज वेदा जाता है और उसीका असंख्यात बहुभाग प्रदेशपुंज बँधता है इस प्रकार इस अर्थविशेषको स्पष्ट करते हुए आगे के सूत्रका निर्देश करते हैं * उस समय क्रोधको तीसरी संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंका असंख्यात बहुभाग उदीर्ण हो जाता है । * तथा उन्हींका असंख्यात बहुभाग बांधता है । $ ७०७. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इतनी विशेषता है कि उदीर्ण हुए प्रदेशपुंज से बँधनेवाले प्रदेशपुंज विशेष हीन होते हैं। यहाँ 'विशेष' का निर्देश पूर्वोक बन्ध और उदय निर्वर्गेणाकी प्ररूपणासे जान लेना चाहिए, क्योंकि सभी वेदी जानेवाली कृष्टियोंके साधारणरूपसे उसकी प्रवृत्ति होती है । दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवालेकी जो विधि है वही विधि तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवालेकी भी करनी चाहिए । ६७०८. दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके जो विधि पहिले कह आये हैं। ३६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वि कायम्वो, विसेसाभावादो त्ति भणिदं होदि। एवमेदेण विहाणेण कोहतदियकिट्रि वेदेमाणस्स पढमदिदीए कमेण परिहीयमाणाए जाधे आवलिय-पडिआवलियाओ सेसाओ ताधे आगालपडिगालबोच्छेद कादूण तदो पुणो वि समयूणावलियं गालिय समयाहियावलियमेतपढमट्टिर्षि घरेदूणावट्टिदस्स तम्मि समये कोधवेदगद्धा समप्पदि ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तदिकिट्टि वेदेमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्ठिदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए चरिमसमयकोधवेदगो । ६७०९. गयत्थमेदं सुत्तं। * जहण्णगो ठिदिउदीरगो। $ ७१०. ताधे कोहसंजलणस्स जहण्णढिदिउदीरगो च होदि, किं कारणं ? एविकस्से चेव दिदीए तत्थुदीरणदसणादो। संपहि एत्थेव संधिविसये सब कम्मा टिदिबंध-टिदिसंतकम्मपमाणावहारण?मुत्तरसुत्तकलावमाह-- * ताधे द्विदिबंधो संजलणाणं दोमासा पडिवुण्णा । ६७११. पुवुत्तसंधिविसटिदिबंधादो अंतोमुहत्तणवीसदिवसमेतदिदिबंधपरिहाणीए कमेण जादाए संपुण्णबेमासमेतट्ठिदिधसिद्धीए णिव्विसंवादमेत्थ सगुवलंभादो। वही पूरी विधि यहाँपर भी करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस विधिसे क्रोधको तोसरो संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले झपक जीवके प्रथम स्थितिके क्रमसे हीन होनेपर जिस समय आवलि और प्रत्यावलि शेष रह जाती है उस समय आगाल और प्रत्यागालको व्युच्छित्ति करके तदनन्तर फिर भी एक समय कम एक आवलिप्रमाण कालको गलाकर एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिको रखकर अवस्थित हुए क्षपक जीवके उस समय क्रोधका वेदककाल समाप्त होता है ऐसा कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं तीसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवको जो प्रथम स्थिति है उस प्रथम स्थितिके एक समय अधिक आवलिप्रमाण शेष रहनेपर वह क्षपक जीव अन्तिम समयवर्ती क्रोध संज्वलनका वेदक होता है। ६७.९. यह सूत्र गतार्थ है। * तथा उसी समय जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। ६७१०. उस समय क्रोध संज्वलन की जघन्य स्थितिका उदोरक होता है, क्योंकि वहाँपर एक ही स्थितिकी उदारणा देखी जाती है। अब यहीं सन्धिके विषयमें सभी कर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म के प्रमाणका अवधारण करने के लिए आगेके सूत्रसमूहको कहते हैं के उस समय संज्वलनोंका स्थितिबन्य पूरा दो माहप्रमाण होता है। ६७११. पूर्वोक्त सन्धिविषयक स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्त कम बोस दिवसप्रमाण स्थितिबन्धको क्रमसे हानि होनेपर सम्पूर्ण दो माहप्रमाण स्थितिबन्धको सिद्धि विसंवादरहित होकर यहाँपर उपलब्ध हो जाती है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए माणपढमकिट्टीविसयकपरूवणा २८३ * संतकम्मं चत्तारि वस्साणि पुण्णाणि । ६७१२. एत्थ सतिभागवस्समेतदिविसंतपरिहाणोए पुव्वं व तेरासियकमेणाणयणं कादूण पयटिदिसंतपमाणसिद्धी परूवेयवा । एत्थ सेसकम्माणं दिदिबंध-टिदिसंतकम्मपमाणपरिक्खा सुगमा त्ति णाढत्ता। एवमेत्तिएण परूवगापबंधेण कोहवेदगद्धं समाणिय संपहि एतो से काले जहावसरपत्तं माणपढमसंगहकिट्टिमोकड्डियूण पढदिदिविण्णासमेदेण विहाणेण कादूण वेदेवि त्ति पदुप्पाएमाणो उरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * से काले माणस्स पढमकिट्टिमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । ६७१३. एत्थ कारगतदियसंगहकिट्टी चेव वेदगपढमसंगहकिट्टीभावेण गिट्टिा दटुव्वा । सेसं सुगमं । संपहि एदिस्से पढमट्टिदीए पमाणावहारण?मुत्तरसुत्तमाह * जा एत्थ सव्वमाणवेदगद्धा तिस्से वेदगद्धाए तिभागमेत्ता पढमहिदी । ६७१४. कोहकिट्टीवेदगद्धादो विसेसहीणा अंतोमुत्तमेत्ती। एत्थतणसम्वमाणवेदगडा होदि । पुणो एदिस्से तिभागमेती पढमसंगहकिट्टीवेदगद्धा होदि । तत्तो आवलियम्भहिया होदूण कोरमाणी एसा पढमट्टिदी. सव्वमाणवेदगडाए तिभागमेत्ती होवि ति णिहिट्ठा । जइ वि * उसी समय संज्वलनोंका स्थिति सत्कर्म पूरा चार वर्षप्रमाण होता है। $७१२ यहांपर तृतीय भाग अधिक वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मकी हानि होनेपर पहिलेके समान राशिक क्रमसे लाकर प्रकृतस्थितिसत्कर्मके प्रमाणको सिद्ध प्ररूपित कर लेनी चाहिए। यहांपर शेष कर्मों के स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मके प्रमाणको परोक्षा सगम है. इसलिए उनका आरम्भ नहीं किया है। इस प्रकार इतने प्ररूपणासम्बन्धी प्रबन्ध द्वारा क्रोधके वेदक कालको समाप्त करके अब इसके बाद तदनन्तर समयमें यथावसर प्राप्त मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके और प्रथम स्थितिकी रचना इस विधिसे करके वेदन करता है इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धका आरम्भ करते हैं * तदनन्तर समयमें मानको प्रथम कृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। ६७१३. यहाँपर कारककी तीसरी संग्रह कृष्टि ही वेदककी प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे निर्दिष्ट की गयी है। शेष कथन सुगम है। अब इस प्रथम स्थितिके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं के यहांपर मानवेदकका जो सम्पूर्ण काल है उस वेदककालके तृतीय भागप्रमाण प्रथम स्थिति होती है। ६७१४. क्रोधके वेदक कालसे वह प्रथम स्थितिविशेष हीन होती है। यहाँपर मानका सम्पूर्ण वेदककाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । पुनः इसका तृतीय भागप्रमाण प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदककाल होता है। इसलिए एक आवलिसे अधिक होकर को जानेवाली यह प्रथम स्थिति सम्पूर्ण मान १.ता. प्रती किटोवेदगभावेण इति पाठः । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवला सहिदे कसायपाहुडे माणवेदगद्धाए सादिरेयतिभागमेती एसा पढमट्टिवी तो वि' विसेसाहियत्तमजोएदूण तत्तिभागमेती एसा पढमट्ठिदी होदिति सुत्ते भणिदं । * तदो माणस्स पढमकिटिं वेदेमाणो तिस्से पढमकिट्टीए अंतर किट्टीणमसंखेजे भागे वेदयदि । २८४ ६७१५. सुगममेवं सुतं । * तदो उदिण्णाहितो विसेसहीणाओ बंधदि । ७१६. कुदो ? वेदिज्जमाण किट्टीणं हेट्टिमोवरिमासंखेज्ज विभाग विसय किट्टीओ मोत्तूण सेसमज्झिमबहुभाग सरूवेण बंधस्स पवृत्तिदंसणावो । संपहि एदम्मि चेव माणवेदगपढमसमए कहतदियसंग किट्टीए वकबंधमुच्छिट्टावलियं च मोत्तूण सेसासेसचिराणसंतकम्मदव्वं माणपढमसंगह किट्टी हवेण परिणमइ, आणुपुव्वीसंक्रमणियमवसेण संकमंतस्स तस्स तदविरोहावो । एवं कोहादो आगंतून माणसरूवेण परिणमिय हिदि-पवेससंतकम्मं जाव संकमणावलिया दिक्कतं ण होइ ताव उदयादिकिरियाणं नागच्छदि ति णिच्छेयध्वं । कोहपदेसबंधो माणसरूवेण परिणममाणो कि माणपढमसंगह किट्टीए उवरिमभागे तिस्से चेव अठव किट्टोओ होवूण चेट्ठदि आहो तिस्से ट्ठा वित्तिज्जमाणापुण्य किट्टीसरूवेण परिणमदि, किं वा पुव्वकिट्टोसु चैव सरिसधणियसरूवेण वेदककालके त्रिभागप्रमाण होती है यह निर्देश किया है। यद्यपि मानवेदकालके साधिक तृतीय भागप्रमाण यह प्रथम स्थिति है तो भी विशेष अधिकको न गिनकर यह प्रथम स्थिति तृतीय भागप्रमाण होती है यह सूत्र में कहा गया है । * तदनन्तर मानकी प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक जीव उस मानकी प्रथम कृष्टिको अन्तरकृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन करता है । ६७१५. यह सूत्र सुगम है । * तथा उदीर्ण हुई कृष्टियोंसे विशेष होन कृष्टियोंका बन्ध करता है । $ ७१६. क्योकि वेदी जानेवाली कृष्टियोंके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागविषयक कृष्टियोंको छोड़कर शेष मध्यम बहुभागरूपसे ही बन्धकी प्रवृत्ति देखो जाती है। अब मानवेदक के इसी प्रथम समय में क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिके नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर शेष समस्त पुराना सत्कर्म द्रव्य मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे परिणमन करता है, क्योंकि आनुपूर्वीसंक्रमके नियमके कारण उस संक्रम करनेवाले कर्मका उस तरहसे प्रवृत्त होनेमें विरोधका अभाव है । और इस प्रकार क्रोधमेंसे आकर तथा मानरूपसे परिणमन करके स्थिति और प्रदेशसत्कर्मकी जबतक संक्रमणावलि समाप्त नहीं होती है तबतक वह द्रव्य उदयादि क्रियाओंको नहीं प्राप्त होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए। शंका — क्रोधकषायका प्रदेशबन्ध मानरूपसे परिणमन करता हुआ क्या मानसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टि उपरिम भाग में उसीको अपूर्व कृष्टियां होकर अवस्थित रहता है या उसकी नीचे १. आ. प्रतो द्विदि सा तो वि इति पाठः । २. आ. प्रतौ सुत्ते णिद्दिट्ठ भणिदं इति पाठः । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए माणपढमकिट्टीविसयकपरूवणा २८६ विहंजिदूण णिवददि ति पुच्छिदे ण ताव माणपढमसंगहकिट्टीए उवरिमभागे अपुर्वकिट्टोओ होदूण परिणमदि। किं कारणं ? जेण 'वेदिज्जमाणपढमसंगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा बसंति' त्ति भणिदं तेण कारणेण पुस्विल्लाए माणपढमसंगहकिट्टीए उवरि अपुवकिट्टीसरूवं होदूण णो चिटदि, तहा संते कोहवेदगचरिमसमम्मि विट्ठमाणउक्कस्सबंधकिट्टीदो पढमसमयमाणवेदगस्स बंधे उक्कस्समाणकिट्टीए अणंतगुणाए होवव्वं । ण चेदमिच्छिज्जदे; समयं पडि संजलणाणुभागबंधोदयाणमणंतगुणहाणिपरिणामं मोतूण पयारंतरासंभवादो। तदो तिस्से पुवकिट्टीसु सरिसधणियसरूवेण तत्तों हेटा च अपुवकिट्टोसरूवेण कोहपदेसग्गस्स परिणामो होदि त्ति घेत्तव्वं । तत्थ वि पुवकिट्टीसहवेण थोवयरं चेव दव्वं परिणमइ अपुवकिट्टीसहवेणेव बहुअं दव्वं परिणमइ, कोहतदियसंगहकिट्टीआयामस्स अविणट्टसरूवेणेव माणपढमसंगहकिट्टीए हेटा अपुवकिट्टीआयारेण परिणमियूण समयाविरोहेणावट्ठाणणियमदंसणादो। अदो चेव पुग्विल्लसमये माणपढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीहितो संपहियमाणपढमसंगहकिट्टीए संतरकिट्टिअद्धाणं सोलसगुणमेतं होदूण चिट्ठदि ति बटुवं । एस विही उवरि वि जत्थ संभवइ तत्थ जोजेयव्यो। ७१७. एवं च सोलसगुणमेत्तायाम पत्तमाणपढमसंगहकिट्टीए हेढा उरिं च असंखेज्जविभागं मोरूण पुणो मज्झिमकिट्टीसरूवेण असंखेज्जे भागे उदीरेदि । उविण्णाणं पि हेट्टिमोवरिमासंखेज्जदि निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टिरूपसे परिणमन करता है या क्या पूर्व कृष्टियोंमें ही सदृश धनरूपसे विभक्त होकर पतित होता है ? समाधान-ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैं कि मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके उपरिम भागमें अपूर्व कृष्टियां होकर तो परिणमन नहीं करता है। क्योंकि जिस कारण 'वेदी जानेवाली मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुभागरूपसे बंधती है' ऐसा कहा है उस कारण पहिलेको मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके ऊपर अपूर्व कृष्टिस्वरूप होकर स्थित नहीं होती है, क्योंकि वैसा होनेपर क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें दिखनेवाली उत्कृष्ट बन्धकृष्टिसे प्रथम समयवर्ती मानवेदकके बन्धमें उत्कृष्ट मानकृष्टिको अनन्तगुणी होनी चाहिए, परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि प्रत्येक समयमें संज्वलन कषायोंका अनुभागबन्ध और अनुभागउदयके अनन्तगुणहानिरूप परिणामको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। इसलिए उसकी पूर्व कृष्टियोंमें सदृश धनरूपसे और उसके नीचे अपूर्व कृष्टिरूपसे क्रोधके प्रदेशपुंजका परिणाम होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। उसमें भी पूर्वकृष्टिरूपसे स्तोकतर ही द्रव्य परिणमन करता है तथा अपूर्वकृष्टिरूपसे बहुत द्रव्य परिणमन करता है, क्योंकि क्रोधको तृतीय संग्रहकृष्टिसम्बन्धी आयामके अविनष्ट स्वरूपसे हो मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टिके आकारसे परिणमन करके समयके अविरोधपूर्वक, अवस्थानका नियम देखा जाता है और इसीलिए पहिले समयमें मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तराष्टियोंसे वर्तमान मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंका आयाम सोलहगुणा हो जाता है ऐसा जानना चाहिए। यही विधि ऊपर भी जहाँ सम्भव है वहाँ योजित कर लेनी चाहिए। ७१७. और इस प्रकार सोलहगुणी प्रमाण आयामको प्राप्त मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे असंख्यात बहुभागको उदीरित करता है। उदोरित किये गये असंख्यात बहुभागके भो नीचे और ऊपर असंख्यात बहभागको Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे भागं मोत्तूण सेसमज्झिमकिट्टीसहवेण असंखेज्जे भागे बंधदि त्ति एसो एदस्स सुत्तद्दयस्स समुदायत्यो। णवरि संकमणावलियमेत्तकालं पुवकिट्टीणं चेव पदेसग्गमोड्डियूण सोलसगुणकिट्टोणमसंखेज्जाभागसरूवेणे वेदेदि तदणुसारेणेव च बंधदि त्ति घेत्तध्वं । संपहि सेसकसायेसु अणुभागबंधपवुत्ती केरिसी होदि त्ति आसकाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * सेसाणं कसायाणं पढमसंगहकिटटीओ बंधदि । ६७१८. सुगमं। * जेणेव विहिणा कोधस्स पढमकिटी वेदिदा तेणेव विधिणा माणस्स पढमकिट्टि वेदयदि । ६७१९. समये समये अग्गकिट्टिप्पहुडि उवरिमासंखेज्जभागविसयाओ किट्टीओ अणुसमयओवट्टणाघादेण घादेमाणो "वकबंधपदेसग्गेण संकामिज्जमाणपदेसग्गेण च किट्टीअंतरेसु संगहकिट्टीअंतरेसु च जहासंभवमपुवाओ किट्टीओ णिवत्तेमाणो अणुसमयमणंतगुणहाणीए बंधोदयजहण्णुक्कस्सणिव्वग्गणाओ च कुणमाणो जहाकोहपढप्रसंगहकिट्टीए वेदगो जादो तहा चेव माणपढमसंगहकिट्टिमेण्हि वेदेदि, ण एत्थ किंचि णाणत्तमत्थि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो। संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडोकरण?मुत्तरसुत्तमाह छोड़कर शेष मध्यम कृष्टिरूपसे असंख्यात बहुभागको बांधता है। इस प्रकार इन दो सूत्रोंका यह समुच्चयरूप अर्थ है। इतनी विशेषता है कि संक्रमणावलिप्रमाण काल तक पूर्व कृष्टियोंके हो प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके सोलहगुणी प्रमाण कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागरूपसे वेदन करता है और उसके अनुसार ही बन्ध करता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। अब शेष कषायोंमें अनुभागबन्धकी प्रवृत्ति कैसी होती है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * शेष कषायोंकी प्रथम संग्रहकृष्टियोंको बांधता है। ६७१८. यह सूत्र सुगम है। * जिस हो विधिसे क्रोधको प्रथम कृष्टिका वेदन किया है उसी विधिसे मानकी प्रथम कृष्टिका वेदन करता है। ६.१९. प्रत्येक समय में अग्र कृष्टि से लेकर उपरिम असंख्यात भागविषयक कृष्टियोंका अनुसमय अपवर्तनाघातके द्वारा घात करता हुआ तथा नवकबंध प्रदेशपुंजरूपसे और संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजरूपसे कृष्टियोके अन्तरालोंमें और संग्रहकृष्टियोंके अन्तरालोंमें यथासम्भव अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता हुआ अनुसमय अनन्तगुणहानिरूपसे बन्ध और उदयरूप जघन्य और उत्कृष्ट निर्वर्गणाओंको करता हुआ जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदक हुआ था उसी प्रकार मानकी प्रथम संग्रहकष्टिका इस समय वेदन करता है, इसमें कुछ भी नानापन ( भेद ) नहीं है यह यहाँपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं १. ता. प्रतो मसंखेज्जभागसरूवेण इति पाठः Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए माणपढमकिट्टीविसयकपरूवणा २८७ * किट्टीविणासणे बज्झमाणयेण संकामिज्जमाणयेण च पदेसग्गेण अपुव्वाणं किट्टीणं करणे किट्टीणं बंधोदयणिव्वग्गणकरणे एदेसु करणेसु त्थि जाणत्तं, अण्णेसु च अभणिदेसु । ६७२०. 'किट्टोविणासणे णस्थि णाणतं' एवं भणिदे समयं पडि णिरुद्धसंगहकिट्टीए अग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं खंडेदि त्ति तेण तत्थ विसेसो गस्थि त्ति भणिदं होदि । एवं सुत्ताणु. सारेण णेदवं । णवरि 'अण्णेसु च अभणिदेसु' एवं वुत्ते जाण अण्णाणि अभणिदाणि करणाणि तेसु वि करणेसु पत्थि विसेसो, कोहपढमसंगहकिट्टीए बंधसंतकम्मपदेसेहिं णिसेगादिपरूवणाओ जाओ भणिदाओ तासि पि परूवणे एत्थ कीरमाणे सो चेव भंगो, ण तत्थ को वि विसेससंभवो त्ति भणिदं होदि । एवमेदेण विहाणेण माणपढमसंगहकिट्टि वेदेमाणस्स कमेण पढमदिदीए ज्झीयमाणाए समयाहियावलियमेत्तपढमट्टिदि घरेदूणावट्टिदस्स तक्कालभाविओ जो परूवणाविसेसो तमुवरिमसुत्ताणुसारेण वत्तइस्सामो-- * एदेण कमेण माणपढमकिट्टि वेदयमाणस्स जो पढमट्ठिी तिस्से पढमद्विदीए जाधे समयाहियावलियसेसा ताधे तिण्हं संजलणाणं ठिदिबंधो मासो वीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तूणा । 5७२१. पुव्वुत्तकोहवेदगचरिमसमयविसयट्टिदिबंधो दोमासमेत्तो जादो। तत्तो जहाकम परिहाइदूणेण्डिं संजलणाणं ठिदिबंधो अंतोमहत्तूणवीसदिवसाहियमासमेत्तो माणपढमसंगहकिट्टी. * कृष्टियोंके विनाश करनेमें तथा बध्यमान और संक्रमाण प्रदेशपुंजरूपसे अपूर्व कृष्टियोंके करने में तथा कृष्टियोंके बन्ध और उदयरूप निवर्गणाकरणमें इन करणों में कोई भेद नहीं है तथा जो करण यहाँ नहीं कहे गये हैं उन करणोंमें भो कोई भेद नहीं है। ६७२०. 'कृष्टियों के विनाश करने में कोई भेद नहीं है' ऐसा कहनेपर प्रत्येक समय में विवक्षित संग्रहकृष्टिके अग्रभागसे असंख्यातवें भागका खण्डन करता है इस रूपसे उसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार सूत्रके अनुसार कथन कर लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि 'अण्णेसु च अभणिदेसु' ऐसा कहनेपर जो अन्य करण नहीं कहे गये हैं, उन करणोंमें भी कोई विशेष नहीं है, क्योंकि क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिके बन्ध और सत्कर्मप्रदेशोंको अपेक्षा जो निषेकादि प्ररूपणाएं कह आये हैं उनको भी प्ररूपणा यहाँपर करनेपर वह उसी प्रकार होती है उसमें कोई विशेष सम्भव नहीं है यह सूत्रका तात्पर्य है। इस विधिसे भावकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले जीवको क्रमसे प्रथम स्थितिके क्षीण होनेपर तथा एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण प्रयम स्थितिको रखकर अवस्थित हुए उसके उस काल में जो प्ररूपणाभेद होता है उसे उपरिम सूत्रके अनुमार बतलावेंगे * इस क्रमसे मानको प्रथम कृष्टिका वेदन करते हुए जो प्रथम स्थिति होती है उस प्रथम स्थितिका जब एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष रहता है तब इन संज्वलनोंका स्थितिबन्ध एक माह और अन्तर्मुहूर्त कम बीस दिनप्रमाण होता है। ७२१. पूर्वोक्त क्रोधकषायका वेदन करते हुए अन्तिम समयमें जो स्थितिबन्ध दो माहप्रमाण था वह उससे क्रमसे घटकर इस समय संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम बीस दिन Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वेदगचरिमसमये जादो त्ति वुत्तं होदि । एत्थ दिदिबंधपरिहाणिपमाणमंतीमुहत्ताहियवसदिवसमेत्तं तेरासियकमेण साहेयव्वं । जइ एवं, दसदिवसमेती चेव टिदिबंधपरिहाणो होदु, अंतोमुहत्ताहियत्त. मेत्थ कत्तो समुवलद्धमिदि णासंकणिज्ज, अद्धाविसेसमस्सियूण तदुवलद्धीए विरोहाभावादो। * संतकम्मं तिण्णि वस्साणि चत्तारि मासा च अंतोमुहुत्तणा । ६७२२. कोहवेदगचरिमसंधीए चत्तारि वस्समेत्तं संजलणाणं द्विदिसंतकम्मं जादं, तत्तो जहाकममतोमुहत्ताहियअट्टमासमेतदिदिसंतपरिहाणोए जादाओ अंतोमहत्तूणचत्तारिमाससमहियाणि तिण्णि वस्साणि तिण्हं संजलणाणं टिदिसंतकम्ममेण्डिं संजादमिदि एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्यो। एवमेदीए परूवणाए माणपढमसंगहकिट्टीवेदगद्धमणुपालिय पुणो जहावसरपत्ताए माणविवियसंगहकिट्टीए पढमट्टिदिसमुप्पायणपुरस्सरं वेदगभावेण परिणमदि ति परूवणट्ठमुवरिमो सुत्तपबंधो * से काले माणस्स विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमद्विदि करेदि । ६७२३. सुगर्म । णवरि उदयादिगुणसेढिसरूवेण पढमदिदिमेसो णिक्खिवमाणो सगवेवगकालादो आवलियब्भहियं कादूण पढमट्ठिदिविण्णासं कुणदि ति घेत्तव्वं । * तेणेव विहिणा संपत्तो माणस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से समयाहियावलियसेसा ति । अधिक एक माहप्रमाण मानसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदन करनेके अन्तिम समयमें हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर स्थितिबन्धकी हानिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त अधिक दस दिन मात्र त्रैराशिक क्रमसे साथ लेना चाहिए। शंका-यदि ऐसा है तो अन्तर्मुहूर्त अधिक यहांपर किस कारणसे उपलब्ध होता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए क्योंकि कालविशेषका आश्रय लेकर उसकी उपलब्धि होनेमें विरोध नहीं पाया जाता।। * उन कर्मोका सत्कर्म तीन वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार माहप्रमाण होता है। ६७२२. क्रोधवेदकको अन्तिम सन्धिमें संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म चार वर्षप्रमाण था, उससे यथाक्रम अन्तर्मुहुर्त अधिक आठ माह स्थितिसत्कर्मको हानि होनेपर अन्तर्मुहूते कम चार माह अधिक तीन वर्ष तीन संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म इस समय हो गया है यह इस सूत्रका भावार्थ है। इस प्रकार इस प्ररूपणा द्वारा मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदक कालका पालन करके पुनः यथावसर प्राप्त मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिको प्रथम स्थितिके उत्पादनपूर्वक वेदकरूपसे क्षपक जीव परिणमता है इस बातका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * तदनन्तर समयमें मानको द्वितीय कृष्टिमेंसे प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति को करता है। ६७२३. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि उदयादि गुणश्रेणीरूपसे प्रथम स्थितिकी यह क्षपक जीव रचना करता हुआ अपने वेदककालसे एक आवलि अधिक करके प्रथम स्थितिकी रचना करता है। * उसी विधिसे मानकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकको जो मानकी प्रथम स्थिति है उसमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल शेष प्राप्त होता है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए माणवेदकपरूवणा २८९ 5७२४. माणपढमसंगहकिट्टिमहिकिच्च पुव्वं परविदो जो विही तेणेव विहिणा अणूणाहियेण संजुत्तो एसो सगकिट्टोवेदगद्धाए चरिमसमयसंपत्तो। ताधे अप्पणो पढमदिदी समयाहियावलियमेत्ती, सेसासेसपढमहिदीए सगवेदगकालभंतरे णिज्जिण्णत्तादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थविणिण्णओ। संपहि एदम्मि उद्देसे वट्टमाणस्सेवस्स तिण्हं संजलणाणं ठिदिबंध-ट्ठिविसंतकम्मपमाणावहारण?मुत्तरो सुत्तपबंधो * ताघे संजलणाणं द्विदिबंधो मासो दस च दिवसा देसूणा । 5७२५. पुश्वुत्तसंधिविसयटिदिबंधादो जहाकममतोमुहत्ताहियवसदिवसपरिहाणिवसेण पयददिविबंधसिद्धीए णिव्विसंवादमुवलंभादो। * संतकम्मं दो वस्साणि अट्ठ च मासा देसूणा । ६७२६. एत्थ वि दिविसंतपरिहाणी सादिरेयअट्टमासमेता तेरासियकमेण साहेयव्या। सेसं सुगमं। * से काले माणतदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्टिदि करेदि । * तेणेव विहिणा संपत्तो माणस्स तदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमद्विदी तिस्से आवलिया समयाहियमेती सेसा ति । * ताघे माणस्स चरिमसमयवेदगो । ६७२४. मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अधिकृत करके पहले जो विधि कह आये हैं न्यूनाधिकतासे रहित उसी विधिसे संयुक्त होकर यह क्षपक जीव अपनी कृष्टिवेदक कालके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । उस समय अपनी प्रथम स्थिति एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण शेष रहती है, क्योंकि शेष सम्पूर्ण प्रथम स्थिति अपने वेदककालके भीतर ही निर्जीर्ण हो यहाँपर यह सूत्रार्थका निर्णय है। अब इस स्थानपर विद्यमान इस क्षपक जीवके तीन संज्वलनोंके. स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * इस समय संचालनोंका स्थितिबन्ध एक माह और कुछ कम दस दिवसप्रमाण होता है। ७२५. पूर्वोक्त सन्धिविषयक स्थितिबन्धके यथाक्रम अन्तर्मुहूर्त अधिक दस दिवसको हानिवश प्रकृत स्थितिबन्धकी सिद्धि विसंवादरहित होकर पायो जाती है। * उन कर्मोका सत्कर्म दो वर्ष कुछ कम आठ माहप्रमाण होता है। ६७२६. यहाँपर भी स्थितिसत्कर्मकी हानि साधिक आठ माहप्रमाण त्रैराशिक क्रमसे साथ लेनी चाहिए । शेष कथन सुगम है।। * तदनन्तर समयमें मानको तृतीय कृष्टिमेंसे प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। * तथा उसी विषिसे मानको तृतीय कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके जो प्रथम स्थिति प्राप्त होती है उसके एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल जब शेष रहता है। * तब मानका अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * ताधे तिण्हं संजलणाणं द्विदिबंधो मासो पडिवुण्णो। * संतकम्मं वे वस्साणि पडिवुण्णाणि । 5 ७२७. एत्थ माणवेवगवाए परिहोणासेसटिविसंतकम्मपमाणं वेवस्समेत्तमिदि वटव्वं । अवसेसं सुगमं । * तदो से काले मायाए पढमकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण पढमद्विदि करेदि । * तेणेव विहिणी संपत्तो मायापढमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से समयाहियावलिया सेसा त्ति । * ताधे ठिदिबंधो दोण्हं संजलणाणं पणुववीस दिवसा देखणा। * द्विदिसंतकम्मं वस्समट्ट च मासा देसूणा । * से काले मायाए विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमढिदि करेदि । * सो वि मायाए विदियकिटटीवेदगो तेणेव विहिणा संपत्तो मायाए विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पढमहिदीए आवलिया समयाहिया सेसा ति। * ताधे डिदिबंधो बीसं दिवसा देसूणा । * उस समय तीन संज्वलनोंका स्थितिबन्ध पूरा एक माहप्रमाण होता है। * तथा उनका स्थितिसत्कर्म पूरा दो वर्षप्रमाण होता है। ६७२७. यहाँपर मानवेदककालसे हीन समस्त स्थितिसत्कर्मका प्रमाण दो वर्षप्रमाण होता है ऐसा जानना चाहिए । शेष कथन सुगम है। * तवनन्तर समयमें मायासंज्वलनकी प्रथम कृष्टिके प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। तथा उसी विषिसे मायाको प्रथम कृष्टिका वेवन करनेवाले क्षपक जीवके जो प्रथम स्थिति है उसका जब एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहता है। * तब वो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध कुछ कम पच्चीस दिवस प्रमाण होता है। * तथा स्थितिसत्कर्म एक वर्ष और कुछ कम आठ माहप्रमाण होता है। * तदनन्तर समयमें मायासंज्वलनको द्वितीय कृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। * मायांकी दूसरी कृष्टिका वेवक वह जीव भी उसी विधिसे मायाको दूसरो कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकको जो प्रथम स्थिति है उस प्रथम स्थितिका जब एक समय अधिक एक प्रावलि काल शेष रहता है। ॐ तब उसका स्थितिबन्ध कुछ कम बीस दिवसप्रमाण होता है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ खवगसेढीए मायावेदगपरूवणा * डिदिसंतकम्मं सोलस मासा देसूणा । * से काले मायाए तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमद्विदि करेंदि । * तेणेव विहिणा संपत्तो मायाए तदियकिट्टि वेदगस्स पढमद्विदीए समयाहियावलिया ससा त्ति । * ताधे मायाए चरिमसमयवेदगो । * ताधे दोण्हं संजलणाणं डिदिबंधो अद्धमासो पडिवुण्णो । * ठिदिसंतकम्ममेक्कं वस्सं पडिवुण्णं । * तिण्हं धादिकम्माणं ठिदिबंधो मासपुधत्तं । * तिण्हं घादिकम्माणं हिदिसंतकम्मं संखेजाणि वस्ससहस्साणि । * इदरेसि कम्माणं ठिदिसंतकम्मं असंखेजाणि वस्साणि । ६७२८. सुगमो च एसो सम्बो सुत्तपबंधो त्ति ण एत्थ वक्खाणायरो, सुगमत्थपरूवणाए गंथगउरवं मोत्तण फलविसेसाणुवलंभादो। णवरि मायावेदगस्स तिण्हं संगहकिट्टोणं तिसु चरिमसंघीसु संजलणाणं ठिविबंधपरिहाणी ट्ठिविसंतपरिहाणो च तेरासियकमेणाणेयव्वा । सव्वासु च * तथा स्थितिसत्कर्म कुछ कम सोलह माहप्रमाण होता है। * तदनन्तर समयमें मायाको तीसरी कृष्टिमेंसे प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। * तथा उसी विधिसे मायाको तीसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके प्रथम स्थितिमें जब एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहता है । * तब वह मायाका अन्तिम समयवर्ती वेदक होता है। * उसमें दोनों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध पूरा आधा माहप्रमाण होता है। * तथा स्थितिसत्कर्म पूरा एक माहप्रमाण होता है। * तीन घातिकर्मोका स्थितिबन्ध एक माह पृथक्त्वप्रमाण होता है। * तथा उन्हीं तीन घातिकर्मीका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। * तथा इतर कर्मोका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है।' $ ७२८. यह समस्त सूत्र सुगम है, , इसलिए यहाँपर हमने व्याख्यान नहीं किया है। क्योंकि सुगम अर्थको प्ररूपणा करने में ग्रन्थकी गुरुताको छोड़कर कोई फलविशेष नहीं पाया पाता है। इतनी विशेषता है कि मायावेदकको तोनों संग्रह कृष्टियोंकी तीनों अन्तिम सन्धियोंमें संज्वलनोंकी स्थितिबन्धकी हानि और स्थितिसत्कर्मकी हानि त्रैराशिक क्रमसे ले आनी चाहिए १. यहाँ इतर कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात वर्ष प्रमाण होता है इस आशयका सूत्र मूलमें नहीं पाया है। मात्र कसायपाहुबसूत्रमें ब्रेकेटमें इसका निर्देश किया गया है । देखो पृ. ८६१ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे संघीसु णाणावरणाविकम्माणं लिविबंध-ट्रिविसंतकम्मपमाणाणुगमो सुगमो ति ण परूविदो । एवम्मि पुण मायावेदगचरिमसंघीए तिण्हं धादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो वासपुधत्तमेत्ता, दोपुव्वुत्तसंधिविसर्टिदिबंधादो जहाकममोवट्टिदूण मासपुषत्तमेतो संवुत्तो। अघादिकम्माणं पि तप्पाओग्गसंखेज्जवस्सपमाणो जइ वि सुत्ते मुत्तकंठमणुवइट्टो तो वि देसामासयभावेण सूचिदो बटव्यो। उभयेसि पि कम्माणं ट्ठिविसंतपमाणपरिक्खा सुत्तणिहिट्ठा सुगमा। एवमेत्तिएण परूवणापबधेण मायावेवगद्धमणुपालिय से काले लोभवेदगभावेण परिणममाणस्स जो परूवणापबंधो तण्णिणयकरणटुमुवरिमपबंधमाह * तदो से काले लोमस्स पढमकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । ६७२९. मायासंजलणस्स तिव्हं संगहकिट्टीणं वेदगद्धासु जहाकम परिसमत्तासु तदणंतरसमये लोभसंजलणकिट्टीओ वेवेदुमाढवेमाणो पुज्वमेव ताव पढमसंगहकिट्टीए पदेसग्गमोड्डियूण सगवेदगकालादो आवलियम्भहियं कादूण उदयादिगुणसेढिकमेण पढमट्ठिदिमेसो करेवि त्ति वुत्तं होदि। एसो पढमट्टिवी सयलवेदगडाए सादिरेयतिभागमेत्ती बादरलोभवेदगद्धाए च सादिरेयदुभागमेत्ता त्ति घेत्तव्वा । एवमेवीए पढमट्टिवीएलोभसंजलणपढमसंगहकिट्टि वेदेमाणस्स सव्वावासयेसु पुवुत्तो चेव विषो गिरवसेसमणुगंतव्यो ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ तथा सब सन्धियोंमें ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थितिसत्कर्मोके प्रमाणका अनुगम सुगम है, इसलिए उनका यहाँ प्ररूपण नहीं किया है। परन्तु इस मायावेदकके अन्तिम सन्धिमें तीन घातिकर्मोका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है जो दो पूर्वोत सन्धि-विषयक स्थितिबन्धसे क्रमसे घटकर मासपृथक्त्वप्रमाण हो गया है तथा अघाति कर्मोका भो तत्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण यद्यपि सूत्र में मक्तकण्ठ नहीं कहा गया है तो भी देशामर्षकरूपसे सूचित किया गया जान लेना चाहिए। दोनों ही कर्मोके स्थितिसत्कर्मके प्रमाणको परीक्षा सूत्रनिर्दिष्ट और सुगम है इस प्रकार इतने प्ररूपणा प्रबन्धके द्वारा मायावेदक कालका पालन करके तदनन्तर समयमें लोभवेदक कालरूपसे परिणमन करनेवाले क्षपक जीवका जो प्ररूपणाप्रबन्ध है उसका निर्णय करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * उसके बाद अनन्तर समयमें लोभको प्रथम कृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। 5७२९. मायासंज्वलनको तीनों संग्रहकृष्टियोंके वेदककालोंके क्रमसे समाप्त होनेपर तदनन्तर समय में लोभसंज्वलनकी कृष्टियोंका वेदन करनेके लिए आरम्भ करता हुआ पहले ही सर्व-प्रथम प्रथम संग्रहकृष्टिके प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके तथा अपने वेदक कालसे एक आवलि अधिक करके उदयादि गुणश्रेणीरूपसे यह क्षपक जीव प्रथम स्थितिको करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यह प्रथम स्थिति सम्पूर्ण वेदक कालके साधिक तीसरे भागप्रमाण होती है और बादर लोभवेदक कालके साधिक द्वितीय भागप्रमाण होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार इस प्रथम स्थितिको लोभसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम सग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके सभी आवासकोंमें पूरी पूर्वोक्त विधि हो जाननी चाहिए इस बातका कथन करते हए आगेके सूत्रको कहते हैं Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवंगसेढीए लोभवेदगपरूवणा २९३ * तेणेव विहिणा संपत्तो लोमस्स पढमकिट्टिं वेदयमाणस्स पढमट्ठिदीए समयाहियावलिया सेसा ति । ६७३०. तेणेव पुत्त्रेण विहिणा एविस्से संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदेमाणो उविष्णाहितो विसेसहीणाओ बंषमाणो समये समये बंधोदयजहण्णुवकस्सणिव्वग्गणाओ च तहा चैव कुणमाणो संताणुभागस्स अणुसमयोवट्टणाघादं च तहा चेवाणुपालेमाणो अपुष्याओ च किट्टीओ बज्झमाणसंकामिज्जमाणपवेसग्ग संबंधिणीओ किट्टीअंतरेसु संगहकिट्टीणं च हेट्ठा जहासंभवं पुण्यभंगेणेव निव्वत्तंमाणो एसो अप्पणो वेदिज्जमाणपढमट्ठिदीए तमुद्देसं संपत्तो जम्नि उद्देसे वट्टमाणस्स पिढदीए वे दिवसेसा समयाहियावलिया सेसा त्ति एसो एक्स्स सुत्तस्स समुदायत्यो । संपहि एवम्मि संधिविसेसे वट्टमाणस्स सर्व्वेसि कम्माणं ठिदिबंधादिपमाणावहारणट्ठमुवरिमं सुत्तपधमाह * ताधे लोभसंजणस्स द्विदिबंधो अंतोमुहुतं । ६७३१. पुव्विल्लमाया वेदगचरिम संधिविसये द्विदिबंधादो जहाकमं परिहाइदूण अंतोमुहुत्तपमाणो लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो एवम्मि विसये संवृत्तोत्ति भणिदं होदि । * द्विदिसंतकम्मं पि अंतोमुहुत्तं । ६७३२. पुब्विल्लसंधिविसये संपुष्णवत्समेत्तं लोभसंजलर्णाट्ठदिसंतकम्मं तत्तो कमेण परिहाइ * उसी विधिसे लोभसंज्वलनको प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके जब प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवल काल शेष रहता है । $ ७३०. उसी पूर्वोक्त विधिसे इस संग्रहकृष्टिकी अंतरकृष्टियों के असंख्यात बहुभागका वेदन करनेवाला और उदोर्ण अंतरकृष्टियोंसे विशेष हीन अंतरकृष्टियोंको बांधनेवाला तथा समयसमय में बंध और उदयरूप जघन्य और उत्कृष्ट निर्वगंणाओंको उसी प्रकार करनेवाला ओर सत्कर्मो के अनुभागका अनुसमय अपवर्तना घातको उसी प्रकार पालन करनेवाला तथा बध्यमान और संक्रम्यमान प्रदेशपुंजसम्बन्धी अपूर्वं कृष्टियोंको कृष्टि- अन्तरालोंमे तथा संग्रहकृष्टियों के नीचे यथासम्भव पूर्व विधिके अनुसार ही रखता हुआ यह क्षपक जीव अपनी वेदो जानेवाली प्रथम स्थितिके उस स्थानको प्राप्त होता है जिस स्थानपर विद्यमान उसके विवक्षित प्रथम स्थितिके वेदी जानेसे शेष एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहती है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब इस सन्धिविशेषमें विद्यमान इस क्षपक जायके सब कर्मों के स्थितिबन्धादि प्रमाणोंका अवधारण करनेके लिए उपरिम सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * उस समय लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूतं प्रमाण होता है । $ ७३१. पूर्वोक्त मायावेदकको अन्तिम सन्धिविषयक स्थितिबन्धसे यथाक्रम घटकर इस स्थानपर लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हो गया है यह उक कथनका तात्पर्य है । * तथा उसका स्थितिसत्कर्म भी अन्त मुंहर्तप्रमाण होता है । ६७३२. पूर्वोक सन्धिमें लोभ संज्वलनका स्थितिसत्कर्म सम्पूर्ण वर्षप्रमाण रहा था । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जयधवासहिदे कसायपाहुरे दूण अंतोमुहत्तपमाणेणेदम्मि विसये पयवि त्ति वुत्तं होई। गवरि एत्थतणढिविबंधादो दिदि संतकम्मं संखेज्जगुणमिदि वटव्वं । * तिण्हं घादिकम्माणं डिदिबंधो दिवसपुधत्तं । ६७३३. पुठिवल्लसंधिविसये मासपुषत्तमेतो घाविकम्माणं दिविबंधो तत्तो कमेण परिहोय. माणो दिवसपुषत्तमेत्तो एत्थ जादो ति वुत्तं होइ। * सेसाणं कम्माणं वासपुधत्तं ।। ६७३४. पुग्विल्लसंधिविसये तप्पाओग्गसंखेज्जवस्सपमाणो होतो तिहमघादिकम्माणे ट्रिविबंधो वासपुधत्तमेत्तो एहि संजावो त्ति भणिवं होदि। * घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६७३५. सुगम। * सेसाणं कम्माणं असंखेज्जाणि वस्साणि । ६ ७३६. सुगममेदं पि सुत्तं। * तत्तो से काले लोभस्स विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकट्टियूण पढमहिदि करेदि। पुनः उससे यथाक्रम घटकर इस स्थानमें वह अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रवृत्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इतनी विशेषता है कि यहाँके स्थितिबन्धसे स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा होता है ऐसा जानना चाहिए। के इन घातिकोका स्थितिबन्ध विवसपृथक्त्वप्रमाण होता है। ६७३३. पूर्वोक्त सन्धिमें घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वप्रमाण था उससे क्रमसे घटकर इस स्थानपर दिवसपृथक्त्वप्रमाण हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * तथा शेष कर्मोका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण होता है। ६७३४. पूर्वोक्त सन्धिमें तत्प्रायोग्य संख्यात वर्षप्रमाण होकर तीनों अघातिकर्मोका स्थितिबन्ध इस समय वर्षपृथक्त्वप्रमाण हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * घातिकर्मोका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। ६७३५. यह सूत्र सुगम है। * तथा शेष कोका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है। ६७३६. यह सूत्र भी सुगम है। ॐ तदनन्तर लोभको दूसरो कृष्टि से प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए सुहुमसांपराइयकिट्टीकरणपरूवणा २९५ ६७३७. लोभवेदगद्धाए पढमतिभागे पढमसंगहकिट्टिमणंतरपरूविदेण कमेण वेदिदूण तदो से काले तित्से चेव बिदिय-तिभागपढमसमये वट्टमाणो विदियसंगहकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण सगवेवगकालादो आवलियम्भहियं कादूण उदयादिगुणसेढोए लोभविदियसंगहकिट्टीए पढमदिदि समुप्पाएदि ति वुत्तं होइ । एवं च पढमट्टिदि कादूण विदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो तप्पढमसमये चेव सहुमसांपराइयकिट्टोओ कादुमाढवेदि त्ति जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ___ * ताधे चेव लोभस्स विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकडियूण सुहुमसापराइयकिटीओ पाम करेदि । ६७३८. तम्मि चेव लोभवेदगद्धा विदियतिभागपढमसमये लोभविदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो लोभविदियं च तदियसंगहकिट्टीहितो पदेसग्गस्सासंखेज्जविभागमोकड्डियूण सहुमसांपराइयकिट्टीओ णाम करेदि, विदियतिभागम्मि सुहमसांपराइयकिट्टीओ अकुणमाणस्स तदितिभागे सहमकिट्टीवेदग. भावेण परिणममाणाणुववत्तोदो ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ। ण च तदियवारकिट्टीवेदगद्धाए सुहमसांपराइयकिट्टीणं कारगत्तमासंकणिज्ज; सहमकिट्टीपरिणामेण विणा सगसहवेणेव तिस्से उदयपरिणामाणवलंभादो । सुहमसापराइयकिट्टीणं किं लक्खणमिदि चे बावरसांपराइयकिट्टोहितो अणंतगुणहाणीए परिणमिय लोभसंजलणाणुभागस्सावट्ठाणं सुहुमसांपराइयकिट्टोणं लक्खणमवहारे. ६७३७. लोभ संज्वलन वेदककालके प्रथम तीसरे भागमें प्रथम संग्रहकृष्टिका अनन्तर कहे गये क्रम के अनुसार वेदन करके उसके बाद तदनन्तर समयमें उसीके दूसरे विभागके प्रथम समय में विद्यमान यह क्षपक जीव दूसरी संग्रह कृष्टिके प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके तथा उसे अपने वेदक कालसे एक आवलि अधिक करके उदयादि गुणश्रेणीरूपसे लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिको प्रथम स्थितिको उत्पन्न करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और इस प्रकार प्रथम स्थिति करके दूसरी संग्रह कृष्टिको वेदन करनेवाला वह क्षपक जीव उसके प्रथम समयमें ही सुक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको करनेके लिए आरम्भ करता है इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * तथा उसी समय लोभ संज्वलनकी दूसरी कृष्टिमेंसे और तीसरी कृष्टिमेंसे प्रदेशपंजका अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिक नामक कृष्टियोंको करता है। -६७३८. उसी लोभ वेदक कालके दूसरे विभागके प्रथम समयमें लोमकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला जीव लोमकी द्वितीय संग्रहकृष्टिका और तृतीय संग्रहकृष्टिमें-से प्रदेशपंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिक नामवाली कृष्टियोंको करता है, क्योंकि द्वितीय त्रिभागमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको नहीं करनेवाले जोवके तृतीय त्रिभागमें सूक्ष्म कृष्टियों के वेदकरूपसे परिणमनको उत्पत्ति होती है यह सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। यहाँपर तीसरी बार कृष्टिके वेदक काल में सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों के कारकपनेकी आशंका नहीं कर चाहिए, क्योंकि सूक्ष्मकृष्टियोंके परिणामके बिना अपने रूपसे ही उसके उदयका परिणाम नहीं उपलब्ध होता। शंका-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका क्या लक्षण है ? Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे यव्वं सव्वजण्णबादरकिट्टीवो वि हेढा सुठ्ठ अणंतगुणहाणोए ओहट्टिदण सव्वुक्कस्ससुहुमसांपराइय. किट्टीए समवट्ठाणणियमदंसणादो। 5७३९. संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडोकरणट्ठमुवरिमो सत्तपबंधो* तासिं सुहुमसांपरोइयकिट्टीणं कम्हि ठाणं । $ ७४०. किं विविय तदियबादरसांपराइयकमेण हेढा पादेक्कमेदाहिमवढाणं होवि आहो तदियसंगहकिट्टीदो हेट्ठा चेद तदवट्ठाणणियमो त्ति पुच्छा कदा होदि । * तासिं ठाणं लोभस तदियाए संगहकिट्टीए हेदो । 5७४१. तासि सुहुमसांपराइयकिट्टीणं ठाणमवढाणं णियमा तदियबादरसांपराइयकिट्टीए हेढा दृढव्वं; तत्तो अणंतगुणहाणीए अपरिणदाए सहुमसांपराइयकिट्टित्तविरोहादो ति एसो एक्स्स सत्तस्स भावत्थो। संपहि एवमवहारिदद्वाणविसेसाणं सहुमसांपराइयकिट्रोणं परवणाणुगमे कीरमाणे तत्थ ताव सुहुमसांपराइयकिट्टीणमायामविसेसस्स पदुप्पायणटुं तल्लक्खणविसेसावहारणटुं च सुत्तपबंधमुत्तरमाढवेइ * जारिसी कोहस्स पढमसंगहकिट्टी तारिसी एसा सुहुमसांपराइयकिट्टी। समाधान-बादरसाम्परायिक कृष्टियोंसे अनन्तगुणहानिरूपसे परिणमनकर लोभ संज्वलनके अनुभागके अवस्थानको सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका लक्षण जानना चाहिए, क्योंकि सबसे जघन्य बादर कृष्टिसे भी नीचे अच्छी तरह अनन्तगुणहानिरूपसे घटकर सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिके अवस्थानका नियम देखा जाता है। ७३९. अब इसी अर्थके स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया हैके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका कहाँ स्थान है ? 5७४०. क्या द्वितीय तृतीय बादर साम्परायिकके क्रमसे प्रत्येक इनके नीचे अवस्थान है या तृतीय संग्रहकृष्टिसे नीचे हो उनके अवस्थानका नियम है, उक्त सूत्र द्वारा यह पृच्छा की गयी है। ॐ उन सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका लोभको तीसरो संग्रहकृष्टिसे नोचे स्थान है। ६७४१. उन सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका स्थान अर्थात् अवस्थान नियमसे तीसरी बादरसाम्परायिक कृष्टिसे नीचे जानना चाहिए, क्योंकि उससे. अनन्तगुणहानिरूपसे परिणत नहीं होनेपर सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिपनेका विरोध आता है यह इस सूत्रका भावाथ है। अब इस प्रकार जिनके उत्थानविशेषोंका अवधारण किया है ऐसी सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको प्ररूपणाका अनुभव करनेपर वहाँपर सर्वप्रथम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके आयामविशेषका कथन करनेके लिए और उनके लक्षणविशेषका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं___* जिस प्रकारको कोषको प्रथम संग्रहकृष्टि है उसी प्रकारको यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि होती है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए किट्टोणं अप्पाबहुअपरूवणा २९७ ६७४२. एवं भणंतस्साहिप्पाओ-जहाकोहस्स पढमसंगहकिट्टी सगायामेण सेंससंगहकिट्टीणमायाम पेक्खियूण दव्वमाहप्पेण संखेज्जगुणा जावा एवमेसा वि सुहमसांपराइयकिट्टो कोहपढमसंगहकिट्टि मोत्तूण संसासेससंगहकिट्टोणं किट्टीकरणखाए समुवलखायामावो संखेज्जगुणायामा बटुव्वा, सयलस्सेव मोहणीयदव्वस्साहारभावेणेविस्से परिणमिस्समाणत्तावों त्ति। ६७४३ अघवा, 'जारिसी कोहस्स पढमसंगहकिट्टी' एवं भणिजे जारिसलक्खणा कोहपढमसंगहकिट्टी अपुव्वफद्दयाणं हेहा अणंतगुणहीणा होदूण कदा, तारिसलक्खणा चेव एसा सहमसांपराइयकिट्टी लोभस्स तवियबादरसांपराइयकिट्टीदो हेट्ठा अणंतगुणहीणा होदूण कीरवि ति भणिवं होदि। ___ अहवा जहा कोहपढमसंगहकिट्टो जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव उक्कस्सकिट्टि त्ति ताव अणंतगुणा होदूण गदा तहा चेव एसा सुहुमसांपराइयकिट्टो वि अप्पणो जहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव सगुक्कस्सकिट्टी त्ति ताव अणंतगुणा होदूण गच्छवि त्ति भणिदं होदि। जइ एवं किट्टीलक्खणेण बारसण्हं संगहकिट्टीणमण्णदरकिट्टीए एसा सुहुमसांपराइयकिट्टी सरिसा ति अभणिदूण जारिसी कोहस्स पढमसंगहकिट्टी तारिसी एसा सुहमसांपराइयकिट्टी त्ति विसेसियूण भणंतस्स को अभिप्पाओ ति णासंकणिज्जं, जस्स वा तस्स वा कसायस्स जाए वा ताए वा किट्टीए एसा सुहुमसांपराइयकिट्टी सरिसा ति भण्णमाणे सम्ममत्थपडिबोहो आयामविसेसणिच्छओ च ण होवि त्ति कादूण तत्य सुहप्पबोहजणणटुं पढमकसायस्स पढमसंगहकिट्टि चेव घेतण सुत्ते तहा णिहिट्ठत्तादो। संपहि ६७४२. इस प्रकार कहनेवालेका अभिप्राय है कि जिस प्रकारको अपने आयामसे क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टि शेष संग्रह कृष्टियोंके आयामको देखते हुए द्रव्यके माहात्म्यवश संख्यातगुणो हो जाती है उसी प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी कोषको प्रथम संग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष समस्त संग्रहकृष्टियोंके कृष्टिकरण कालके प्राप्त होनेवाले आयामसे संख्यातगुणे आयामवाणे जाननी चाहिए, क्योंकि पूरे ही मोहनीयके द्रव्यके आधाररूपसे इसका परिणमन होता है। ६७४३. अथवा 'क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि जिस प्रकारकी होती है। ऐसा कहनेपर क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टि जिस लक्षणवाली होकर अपूर्व स्पर्धकोंके नीचे अनन्तगुणो हीन होकर की गयी है, उसी प्रकारके लक्षणवाली यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि लोभको तीसरी बादर साम्परायिक कृष्टिसे नीचे अनन्तगुणो हीन होकर की गयी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-अथवा जिस प्रकार क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टि जघन्य कृष्टिसे लेकर उत्कृष्ट कृष्टि तक अनन्तगुणो हीन होकर गयो है उसो प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी अपनो बघन्य कृष्टिसे लेकर अपनी उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्तगुणी होन होकर गयी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यद्यपि ऐसा है तो भी यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिके लक्षणकी अपेक्षा बारह संग्रह कृष्टियोंमें-से अन्यतर कृष्टिके सदृश होती है ऐसा न कहकर जैसी क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि होती है वैसी यह सूक्ष्यसाम्परायिक कृष्टि है ऐसा विशेषरूपसे कहनेवाले आचार्यका क्या अभिप्राय है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस किसी कषायको जिस किसो कृष्टिके साथ यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि सदृश होती है ऐसा कथन करनेपर सम्यक् प्रकारसे अर्थका ज्ञान और आयामविशेषका निश्चय नहीं होता है ऐसा समझकर सुखपूर्वक ज्ञान करनेके लिए प्रथम कषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिको ही ग्रहण करके सूत्र में उस प्रकारसे निर्देश किया है। ३८ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पुणो वि एदिस्से चेव सुहुमसांपराइयकिट्टीए आयामविसेसजणिदमाहप्पपदंसणट्ठमुवरिममप्पाबहुमपबंधमाढवेइ * कोहस्स पढमसंगहकिटीए अंतरकिटीओ थोवाओ। ६७४४. कोहपढमसंगहकिट्टीए जाओ अवयकिट्टीओ ताओ उरिमपदावेक्खाए थोवाओ त्ति भणिदं होदि । एदासिमायामपमाणं केत्तियादि भणिदे तेरसखंडमेत्तमिदि भणामो। ताणि तेरस खंडाणि कधमुप्पण्णाणि ति पुच्छिदे मोहणीयसयलपदेसपिंडस्स अट्ठमभागमेतं दव्वं कोहसंजलणो लहइ। पुणो एवमट्ठमभागदव्वमप्पणो तिसु वि संगहकिट्टीसु समयाविरोहेण विहंजिण चिदि त्ति पढमसंगहकिट्टीए मूलदवं मोहणीयसयलदवावेवखाए चउवीसभागमेत्तं होदि। संपहि णोकसायदव्वं पि सम्वं तीए चेव समुवलद्धमिदि तेण सह तेरस-चउवीसभागा जादा। तेसिमेसा ठवणा १३। जदो एवं दवविसेसो, तदो तदणुसारेणेव पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टोअद्धाणं पि तेरस-चउवीसभागमेत्तं चेव होदि त्ति सिद्धं । * कोहे संछुद्धमाणस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टोओ विससाहियाओ। ६७४१. तेरस-चउवीसभागमेत्तायामकोहपढमसंगहकिट्टी जाधे कोहविदियसंगहकिट्टीए उरि पक्खित्ता होदि ताधे तिस्से अंतर्राकट्टीआयामो चोदस-चउवीसभागमेत्तो होदि । पुणो विवियसंगहकिट्टिम्मि तदियसंगहकिट्टीए उरि संपविखत्ताए तिस्से आयामो पण्णारसचउवीस ___ अब फिर भी इसी सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टिके आयामविशेषरूप उत्पन्न हुए माहात्म्यको दिखलानेके लिए आगेके अल्पबहुत्वप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियां सबसे थोड़ी हैं। ६७४४. क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको जो अवयव कृष्टियाँ हैं वे उपरिम कृष्टियोंको अपेक्षा थोड़ी हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इनके आयामका प्रमाण कितना है ऐसा कहनेपर वह तेरह खण्ड ( भाग) प्रमाण है ऐसा हम कहते हैं। शंका-वे तेरह खण्ड कैसे उत्पन्न होते हैं ? समाधान-ऐसी पृच्छा होनेपर उत्तर देते हैं-मोहनीयके सम्पूर्ण प्रदेशपिण्डका आठवें भागप्रमाण द्रव्यको संज्वलन प्राप्त करता है। पुनः इस आठवा भागप्रमाण द्रव्य अपनी तीनों ही संग्रह कृष्टियों में समयके अविरोधपूर्वक विभक्त हो करके अवस्थित रहता है इस प्रकार प्रथम संग्रहकृष्टिका मूल द्रव्य मोहनोय कर्मके समस्त द्रव्यको अपेक्षा चोबीस भागप्रमाण होता है। अब नोकषायका भी समस्त द्रव्य उसीमें उपलब्ध हो गया है, इसलिए उसके साथ क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिका सम्पूर्ण द्रव्य ३१ (तेरह बटे चौबीस) भागप्रमाण हो गया है। उसकी यह स्थापना२१ है, चूंकि द्रव्यविशेष इस प्रकार है, इसलिए उसके अनुसार ही प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तर. कृष्टियोंका आयाम भी ३ भागप्रमाण ही होता है यह सिद्ध हुआ। * कोषमें संक्रमित होनेवाली प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक हैं। ६०४५.११ भागप्रमाण आयामवाली क्रोषकी प्रथम संग्रहकृष्टि जब क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिके ऊपर प्रक्षिप्त होती है तब उसको अन्तरकृष्टियोंका आयाम भागप्रमाण होता है। पूनः दूसरी संग्रह कृष्टिके तीसरी संग्रहकृष्टिके ऊपर प्रक्षिप्त होनेपर उसका आयाम ३५ भाग Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए किट्टीणं अप्पाबहुअपरूवणा २९९ भागमेत्तो होदि । पुणो कोहतदियसंगहकिट्टीए माणपढमसंगहकिट्टिम्मि पक्खित्ताए सोलसचउवोसभागा होति । एवं होदि ति कादूण तेरस-चउवीसभागमेत्तायामकोहपढमसंगहकिट्टीदो सोलसचवीसभागमेत्तायामा माणपढमसंगहकिट्टी विसेसाहिया जादा; तिण्हं चउवीसभागाणं पुनमसंताणमत्थपरिप्फुडमेव पदेसदसणादो-४। * माणे संछुद्धे मायाए पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। ६७४६. इमाओ एगूणवीसखंडमेत्तायामाओं भवंति, पुटिवल्लायामम्मि माणविदिय-तदिय. संगहकिट्टोआयामेहि सह अप्पणो मूलायामस्स जहाकममेव पवेसदसणादो। तेण कारणेणेदाओ विसेसाहियाओ जादाओ३४। * मायाए संछुद्धाए लोभस्स पढमसंमहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसे साहियाओ। ६७४७. एदाओ वावीसखंडमेत्तिओ भवंति, पुचिल्लायामम्मि पुस्वमसंताणं तिण्हं खंडाणमेत्थ पविट्ठाणमुवलंभादो। तेण कारणेण मायापढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टोणमायामो विसेसाहियो जादो ३३। * सुहमसांपगइयकिट्टीओ जाओ पढमसमये कदाओ ताओ विसेसाहियाओ। ६७४८. एवाणि चउवीसखंडाणि भवंति । तेण कारणेण लोभपढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीण प्रमाण होता है। पुनः क्रोधको तीसरी संग्रहकृष्टि के मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि में प्रक्षिप्त होनेपर उसका आयाम १ भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार होता है ऐसा समझकर २४ भागप्रमाण आयामवाली क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिसे ३४ भागप्रमाण आयामवाली मानकी प्रथम संग्रहकष्टि विशेष अधिक हो गयी है। यहाँपर पहिल असत्स्वरूप ४ भागका स्पष्टरूपसे प्रवेश देखा जाता है-४। * मानके मायामें संक्रमित होनेपर उसकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक हैं। 5७४६. ये ३१ भागप्रमाण आयामवाली होती हैं, क्योंकि पहिलेके आयाममें मानकी दूसरी व तीसरी संग्रहकृष्टियोंके आयामके साथ यहाँपर अपने मूल आयामका क्रमानुसार हो प्रवेश देखा जाता है । इस कारण ये विशेष अधिक हो गयो हैं-३१। * मायाको लोभको प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमित होनेपर उसको अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक हैं। ६७४७. ये बावीस ( २२ ) भागप्रमाण होती हैं, क्योंकि पहिले असत्स्वरूप प्रविष्ट तीन भाग यहां पहिलेके आयाममें उपलब्ध होते हैं इस कारण मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंका आयाम विशेष अधिक हो गया है-३३ । जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां प्रथम समयमें की गयी हैं वे विशेष अधिक हैं। 5७४८. ये २४ (चौबीस ) भागप्रमाण होती हैं। इस कारण लोभ संज्वलनको प्रथम Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे कारभागमेत्तो विसेसो एत्थ दट्ठव्वो । संपहि एदस्सेव विसेसाहिय भावस्स फुडीकरण टुमुत्तरसुतावयारो * एसो विसेसो अनंतराणंतरेण संखेज्जदिभागो । ६ ७४९. सुगमं । एवमेदेणायामविसेसेण परिच्छिण्णपमाणाणं सुहुमसांपराइय किट्टीण मंतोमुहुत्तकालमे देणप्पा बहुअविहाणेण सब्वणिव्यत्ती होवि त्ति जाणावणफलो उत्तरसुत्तणिद्देसो* सुहुमसांपराइय किट्टीओ जाओ पढमसमये कदाओ ताओ बहुगाओ । ३०० § ७५०. सुगमं । * विदियसमये अपुव्वाओ कीरंति असंखेज्जगुणहीणाओ । ७५१. सुगमं । * अणंतरवोणिधाए सव्विस्से सुहुमसांपराइय किट्टीकरणद्धाए अपुव्वाओ सुहुमसांपराइय किट्टीओ असंखेज्जगुणहीणाए सढीए कीरति । $ ७५२. सुगममेदं पि सुत्तं । एवमं तो मुहुत्तमेत्तकालमसंखेज्जगुण होणाए सेंढीए अपुण्यापुवाओ सुमसांपराइय किट्टीए णिव्वतेमाणो सुहुमसांपराइयकिट्टीकरणद्धाए पढमसमय पडि पॅडसमयमणं गुणा विसोहीए वडमाणो असंखेज्जगुण मसंखेज्जगुणं पदेसग्गमोकड्डिय'ग तत्थ निसिचदित्ति जाणावणटुमुत्तरसत्तमाह कृष्टिकी अन्तरकृष्टियां ग्यारह ( ११ ) भागप्रमाण अधिक इसमें जाननी चाहिए। अब इसी विशेष अधिकपने का स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है * यह विशेष अनन्तर- अनन्तर विधिसे संख्यातवां भाग है । § ७४९. यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार इस आयामविशेष के द्वारा ज्ञात प्रमाणवाली सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंकी अन्तर्मुहूर्त काल तक इस अल्पबहुत्व विधिसे स्वरूप निष्पत्ति होती है यह ज्ञान कराने के फलस्वरूप आगेक सूत्रका निर्देश करते हैं * जो सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियां प्रथम समय में की गयी हैं वे बहुत होती हैं । ६ ७५०. यह सूत्र सुगम है । * दूसरे समय में जो अपूर्व कृष्टियों की जाती हैं वे असंख्यातगुणी होन होती हैं। ६ ७५१. यह सूत्र सुगम है । * इस प्रकार अनन्तरोपनिधाको अपेक्षा समस्त सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकरण कालमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां असंख्यातगुणहीन श्रेणीरूपसे की जाती हैं । ६ ७५२. यह सूत्र भी सुगम है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणहीन श्रेणीरूपसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकी अपूर्व-अपूर्व कृष्टियोंकी रचना करता हुआ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकरण कालके प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ असंख्यातगुणे - असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके उसमें सिंचन करता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ taarate किट्टी अप्पाबहुअपह्वेवणां * सुहुमसां पराइय किट्टीसु पढमसमये पदेसग्गं दिज्जदि तं थोवं । ६ ७५३. सुगमं । * विदियसमये असंखेज्जगुणं । ७५४. सुगमं । * एवं जाव चरिमसमयादो त्ति असंखेज्जगुणं । ७५५. सुगममेदं वित्तं । एवं च ओकट्टिज्जमाण पर्देसग्गस्स सुहुमसांपराइयकिट्टीसु णिसेगविसेसजाणावणट्टमुवरिमं सुत्तपबंधमाह ३०१ * सुहुमसांपराइय किट्टीसु पढमसमये दिजमाणगस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं वसामो । ६ ७५६. सुगमं । * तं जहा । ६ ७५७. सुगमं । * जहण्णियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं । विदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । त दिया विसेसहीणं । एवमणंतरोवणिधाए गंतूण चरिमाए सुहुमसांपराइय किट्टीए पदेसग्गं विससहीणं । * प्रथम समय में सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें जो प्रदेशपुंज दिया जाता है वह थोड़ा है । $ ७५३. यह सूत्र सुगम है । * दूसरे समय में असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज दिया जाता है। ६ ७५४. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार अन्तिम समयके प्राप्त होने तक प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणा प्रवेशपुंज दिया जाता है । १७५५. यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार अपवर्त्यमान प्रदेशपुंजके सूक्ष्मसाम्परायिक कष्टियों में निषेकविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में प्रथम समयमें दिये जानेवाले प्रवेशपुंजको श्र ेणिप्ररूपणाको बतलायेंगे । $ ७५६. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । ६ ७५७. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य कृष्टिमें प्रवेशपुंज बहुत हैं। दूसरी कृष्टिमें अनन्तवें भाग विशेष हीन हैं। तीसरी कृष्टिमें विशेष हीन हैं। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाके क्रमसे जाकर अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें प्रवेशपुंज विशेष होन हैं । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जयचंवलासहिदै कसायपाहुडे $७५८. सुगममेदं पि सुतं । एवं च सुहमसांपराइयकिट्टीसु मिसित्तासेसदव्वं तत्कालीकट्टिदसयलदस्वस्सासंखेज्जभागमेत्तमिदि घेत्तव्वं । संपहि एत्तो उवरि बादरकिट्टीसु सेसमसंखेज्जदिभागमेत्तदव्वमेदेण कमेण णिसिंचदि त्ति जाणावण?मत्तरसुत्तमोइण्णं * चरिमादो सुहुमसांपराइयकिट्टीदो जहणियाए बादरसांपराइयकिट्टीएं दिज्जमाणगं पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं । ६७५९. चरिमाए सुहुमसांपराइयकिट्टीए अणंतरपरूविदबहुभागदव्वं सुहमसांपराइयकिट्टी. अद्धाणेण खंडिदेयखंडं चडिदद्धाणद्धामेत्तविसेसेहि परिहोणं काढूण णिसिंचति । पुणो सेसमसंखेज्जविभागमेत्तदव्वं बादरकिट्टीअद्धाणेण खंडिदेयखंडमेत्तं विसेसाहियं कादण जहणियाए बादरसांपराइयकिट्टीए णिसिंचदि। सरिसं च बादरसुहुमसापराइयकिट्टीणमद्धाणमणंतरपरूविदेण णायेण । एदेण कारणेण चरिमादो सुहुमसांपराइयकिट्टीदो उपरि जहणियाए बादरसांपराइयकिट्टीए णिसिंचमाणदव्वं पयारंतरपरिहारेणासंखेज्जगुणहीणमिति होवि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्यो। * तदो विसेसहीणं । ६७६०. एतो उवरि सम्वत्थेव विसेसहीणं णिसिंचदि अणंतभागेण जाव चरिमबावर. सांपराइकिट्टि ति। एवं सुहुमसांपरराइयकिट्टीकारयस्स पढमसमये दिज्जमाणपदेसग्गस्स सेढि $ ७५८. यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें निक्षिप्त हुआ सम्पूर्ण द्रव्य तत्काल अपकर्षित हुए समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अब इसके आगे बादर कृष्टियोंमें शेष असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको इस क्रमसे सींचता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है * अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि से जघन्य बादर साम्परायिक कृष्टि में दिया जानेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होन. है। ६७५९. अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिके अनन्तर पूर्व कहे गये बहुभाग द्रव्यको सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिके काल द्वारा एक भागप्रमाण द्रव्यको जितने स्थान आगे गये हैं उतने कालप्रमाण विशेषोंके द्वारा होन करके सिंचन करता है । पुनः शेष असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको बादर कटिके आयाम द्वारा भाजित करके एक भागप्रमाण द्रव्यको विशेष अधिक करके जघन्य बादर साम्परायिक कृष्टिमें सींचता है और इस प्रकार अनन्तर कहे गये न्यायके अनुसार बादर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका आयाम समान होता है इस कारण अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिसे ऊपर जघन्य बादर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें सींचा जानेवाला द्रव्य अन्य प्रकारसे सम्भव न होनेके कारण संख्यातगुणा हीन है यह इस सूत्रका भावार्थ है। * उससे आगे सर्वत्र उत्तरोत्तर विशेष हीन द्रव्यका सिंचन करता है। ६७६०. इससे आगे सर्वत्र ही अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर अनन्तभागहीनके क्रमसे विशेष होन द्रव्यका सिंचन करता है। इस प्रकार सूक्षा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ खवगसेढोए किट्टीणं अप्पाबहुअपरूवणा परूवणं काढूण संपहि एत्तो विदियसमये जो पवृत्तिविसेसो सुहुमसांपराइयकिट्टीकरणपडिबद्धो तणिग्णयकरणट्ठमुवरिमो सुत्तपबधो * सुहुमसांपराइयकिट्टीकारगो विदियसमये अपुवाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाओ । * ताओ दोसु ठाणेसु करेदि । * तं तहा* पढसमये कदाणं हेट्ठा च अंतरे च । * हेट्ठा थोवाओ। * अंतरेसु असंखेज्जगुणाओ। $ ७६१. एदाणि मुत्ताणि सुगमाणि। एवं विदियसमये सुहृमसांपराइयकिट्टीओ णिव्वत्ते. माणस्स पुवापुटवसुहुमसांपराइयकिट्टीसु बादरसांपराइयकिट्टीसु च तक्कालोकाड्डदपदेसग्गस्स केरिसो सेढिपरूवणा होदि त्ति आसंकाए पिण्णयविहाणहमुरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * विदियसमये दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स-सेढिपरूवणा । ६७६२. सुगम। . . www साम्परायिक कृष्टिकारकके प्रथम समय में दिये जानेवाले प्रदेशपंजकी श्रेणोप्ररूपणा करके अब इससे दूसरे समयमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारकसे सम्बन्ध रखनेवाली जो प्रवृत्तिविशेष होती है उसका निर्णय करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारक क्षपक जीव दूसरे समयमें धसंख्यातगुणी होन अपूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको करता है। * उन कृष्टियोंको दो स्थानोंमें करता है। * वह जैसे। * प्रथम समयमें की गयी कृष्टियोंके नीचे करता है, अन्तरालमें करता है। के नीचे थोड़ो कृष्टियोंको करता है। * तथा अन्तरालोंमें असंख्यातगुणी कृष्टियोंको करता है। ६७६१. ये सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार दूसरे समयमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको रचना करनेवाले क्षपक जीवके पूर्व और अपूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें तथा बादरसाम्परायिक कृष्टियों में तत्काल अपकर्षित होनेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा केसो होती है ऐसो आशंकाके निर्णयका विधान करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * अब दूसरे समयमें दिये जानेवाले प्रवेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा कहते हैं। 5७६२. यह सूत्र सुगम है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ पयधवलासहिदे कसायपाहुडे * जा विदियसमये जहणिया सुहुमसांपराइयकिट्टो तिस्से पदेसग्गं दिज्जदि बहुअं। ६७६३. पढमसमयोकड्डिददव्वावो असंखेज्जगुणं पदेसग्गमोकड्डियूण विवियसमये पुव्वा. पुवकिट्टीसु जहापविभागं णिसिंचमाणो तत्थ जा विदियसमये जहणिया सुहमसांपराइयकिट्टी तक्कालमेव णिवत्तिज्जमाणा तिस्से बहुसं पदेसरगं णिसिंचदि ति सुत्तत्थो । सेसं सुगमं । * विदियाए किट्टीए अणंतमागहोणं । ६७६४. सुगमं। * एवं गंतूण पढमसमये जा जहणिया सुहुमसांपराइयकिट्टी तत्थ असंखेन्जदिभागहीणं । ६७६५. एत्य कारणं जहा किट्टोकरणद्धाए पुव्वापुवकिट्टीणं संधिविसये परूविवं तहा चेव परवेयव्वं; विसेसाभावादो। * तत्तो अणंतभागहीणं जाव अपुव्वं णिव्वत्तिज्जमाणगं ण पावदि । ७६६. तत्तो परमणंतराणंतरादो अणंतभागहीणं कादूण णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव ओकड्डणभागहारमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण तम्मि उद्देसे किट्टी अंतरे णिव्वत्तिज्जमाणमपुवकिट्टो * जो दूसरे समयमें जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंज दिया जाता है। ६७६३. प्रथम समयमें अपकर्षित हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके दूसरे समय में पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंमें यथाविभाग सिंचन करता हुआ क्षपक जीव वहां जो दूसरे समयमें जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि उसी समय निर्वर्त्यमान कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंजको सिंचित करता है यह इस सूत्रका अर्थ है । शेष कथन सुगम है। * दूसरी कृष्टिमें अनन्तभागहीन प्रवेशपुंजका सिंचन करता है। ६७६४. यह सूत्र सुगम है। * इस प्रकार जाकर प्रथम समयमें जो जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है उसमें असंख्यातवें भागहीन द्रव्यको सींचता है। ६७६५. यहाँपर कृष्टिकरण कालसम्बन्धी पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंको सन्धियोंमें जिस प्रकार कारणका कथन किया है उसी प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * उसके आगे निवयंमान अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्तभागहीन द्रव्यका सिंचन करता है। ६७६६. उससे आगे अनन्तर-अनन्तर क्रमसे अनन्तभागहीन करके सिंचन करता हुआ यह क्षपक जीव तबतक जाता है जब जाकर अपकर्षणभागहारप्रमाण अध्वान ऊपर जाकर उस स्थानपर कृष्टि अंतरालमें निर्वय॑मान अपूर्व कृष्टिको प्राप्त करके तदनन्तर अधस्तन पूर्व कृष्टि Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए सुहुभसांपरायियविसयकपरूवणा पावेदूण तदणंतरहेटिमपुवकिष्टि पत्तो त्ति एदम्मि अखाणे अणंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरा. संभवाणुवलंभादो । पुणो एदम्मि संधिविसये जो परूवणाविसेसो तण्णिद्देसकरण?मुत्तरसुत्तारंभो * अपुव्वाए णिव्वत्तिज्जमाणिगाए किट्टोए असंखेज्जदिमागुत्तरं । ६७६७. जहा किट्टीकरणद्धाए पुवकिट्टीणं चरिमादो अपुम्वकिट्टीए णिसिंचमाणपदेसग्गस्स कारणं भणिदं तहा चेव एत्थ वि वत्तव्वं, विसेसाभावादो। एत्तो उार पुवकिट्टोए असंखेज्जदि. भागहोणं पदेसणिसेगं कुणदि, तत्थ पुग्वावट्ठिदपदेसग्गस्स परिहाणीए विणा दोण्हमेयगोवुच्छायाराणुप्पत्तीदो त्ति जाणावणमुत्तरसुत्तावयारो - * पुव्वणिव्वत्तिदं पडिवज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स असंखेज्जदिमागहीणं। ६७६८. सुगम। एवमुवरि वि जत्य जत्थ पुवापुवकिट्टीणं संधिविसयो होदि तत्थ तत्थ एसो चेव अत्थो परूवेयव्वो। संपहि एत्तो उवरि पुवकिट्टीसु अणंतभागहीणो चेव पदेसविण्णासो सम्वत्थ बटुव्वो, तत्थ पयारंतरासंभवादो ति पदुप्पायणद्वमुत्तरसुत्तं भणइ * परं परं पडिवज्जमाणगस्स अणंतभागहीणं ।। ६७६९. पुवकिट्टीदो अपुध्वकिट्टिमपृथ्वकिट्टीदो च पुवकिट्टि पडिवज्जमाणस्स संघि. विसये अणंतरपरूविदो असंखेज्जविभागुत्तरो असंखेज्जविभागहीणो च पदेसणिसेगो होदि । पुणो प्राप्त नहीं हो जाती, क्योंकि इस स्थानमें अनन्त भागहानिको छोड़ कर प्रकारान्तर सम्भव नहीं है। पुनः इस सन्धिमें जो प्ररूपणा भेद है उसका निर्देश करने के लिए आगेके सूत्रको आरम्भ करते हैं * आगे निर्वय॑मान अपूर्व कृष्टिमें असंख्यातभाग अधिक प्रदेशपुंजका सिंचन करता है। ६७६७. जिस प्रकार कृष्टिकरण काल में पूर्व कृष्टियों से लेकर अपूर्व कृष्टिके अन्तिम समय तक सींचे जानेवाले प्रदेशपुंजके कारणका कथन किया है उसी प्रकार यहाँ भा कथन करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इससे आगे पूर्व कृष्टि में असख्यातवें भागहीन प्रदेशपजको देता है, क्योकि उसमें पहले से अवस्थित प्रदेशजकी हानिके बिना दोनों कृष्टियोंकी एक पुच्छाकारकी उत्पत्ति हो नहीं सकती है इस बातका ज्ञान कराने के लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है . * पहले निर्वतित कृष्टिमें प्रतिपद्यमान प्रदेशपुंजका असंख्यातवां भागहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है। ७६८. यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार आगे भी जहां-जहां पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंका सन्धिविषयक स्थान होता है वहाँ-वहाँ इसी अर्थका कथन करना चाहिए। अब इससे आगे पूर्व कृष्टियोंमें अनन्त भागहीन हो प्रदेशपुंजको सर्वत्र जानना चाहिए, क्योंकि वहाँपर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है इस बातका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * इससे आगे उत्तरोत्तर प्रतिपद्यमान कृष्टिसम्बन्धी सन्धिमें अनन्तभागहीन द्रव्य प्रवेशपुंज दिया जाता है। ६७६९. पूर्व कृष्टिसे अपूर्व कृष्टिको और अपूर्व कृष्टिसे पूर्व कृष्टिको प्राप्त होनेवालेकी सन्धिमें अनन्तर कहा गया असंख्यातवा भाग अधिक और असंख्यातवां भागहीन प्रदेशनिषेक ३९ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जयघवला सहिदे कसायपाहुडे इमं विस मोत्तूण सेसेसु सब्वेसु ट्ठाणेसु ुव्व किट्टीदो पुण्य किट्टि पडिवज्जमाणस्स अनंतभागहीणो चेव पदेसविण्णासो दट्ठन्त्रो, तत्थ संभवंत राणुत्रलंभादो त्ति वृत्तं होइ । एवमेदेग बीजपदेण संधीओ जाणिदूण दव्वं जाव चरिमसमय सुहुमसां । इयकिट्टि ति । चरिमादो सुहुमसां पराइय किट्टीदो जहणियाए बादरसांप इयकिट्टीए दिज्जमानपदेसग्गगमसंखेज्जगुणहीणं होदि । कारणं पुण्वं व वत्तब्वं । एवमेसो कमो ताव णेदव्वो जाव चरिमसमयबादरसां पराइयो त्ति । संपहि इममेव अत्यविसेसं फुडीकरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जो विदियसमये दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स विधी सो चेव विधी सेसेसु विसमयेसु जाव चरिमसमयबादरसपराइयो त्ति । $ ७७०. गयत्थमेदं सुतं । एवमेत्तिएण पबंधेण सुहुमसांपराइयकिट्टीसु दिज्जमानयस्स पवेसग्गस्स सेढिपरूवणं समाजिय संपहि तत्थेव पढमसमय पहुडि दिस्समाणपदेसग्गमेवेण सरूवेण चिट्ठदित्ति जाणावणट्ठमुवरिमं पबंधमाढवेह * सुहुमसांपराइय किट्टीकारगस्स किट्टीसु दिस्समानपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं । .६ ७७१. सुगमं । * तं जहा । १७७२. सुगमं । - होता है, पुन: इस विषय को छोड़कर शेष सम्पूर्ण स्थानों में पूर्व कृष्टिसे पूर्व कृष्टिको प्राप्त होनेवाले अनन्तभागहीन ही प्रदेशपुंजविन्यास जानना चाहिए, क्योंकि वहाँपर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इस बीज पदके द्वारा सन्धियोंको जानकर अन्तिम समयवर्ती कृष्टि प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। पुनः अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिसे जघन्य बादरसाम्परायिक कृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा हीन होता है । कारणका कथन पहले के समान करना चाहिए। इस प्रकार यह क्रम बादरसाम्परायिकके अन्तिम समय तक जाना चाहिए | अब इसी अर्थविशेषको स्पष्ट करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं - * जो दूसरे समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी विधि है वही विधि बादरसाम्परायिक के अन्तिम समयके प्राप्त होने तक सब समयों में जाननी चाहिए। ६ ७७० यह सूत्र गतार्थं है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक सम्बन्धी कृष्टियों में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा करके अब वहींपर प्रथम समयसे लेकर दिखनेवाला प्रदेशपुंज इस रूपसे अवस्थित रहता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगे प्रबन्धको आरम्भ करते हैं. * आगे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारकके कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा करते हैं । ७७१. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । ३७७२. यह सूत्र सुगम है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए सुहुमसांपरायियविसयकपरूवणा ३०७ * जहणियाए सुहुमसांपराइयकिट्टीए पदेसग्गं बहुगं तत्तो अणंतभागहीणं जाव चरिमसुहुमसांपराइयकिट्टि त्ति । $ ७७३. सुगमं। * तदो जहणियाए बादरसांपराइयकिट्टीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । $ ७७४. किं कारणं ? बादरकिट्टीहितो पदेसग्गस्स संखेज्जदिभागं चेव ओकड्डियूण सहुमकिट्टीओ णिवत्तेमाणस्स तत्थ दिस्समाणयपदेसग्गादो बादरकिट्टीस दिस्समाणपदेसग्गस्सासंखेज्ज. गुणत्तसिद्धोए बाहाणुवलंभादो। एतो उवरि बादरसांपराइयकिट्टीसु अणंतरोबणिधाए विसेसहीण. मणंतभागेण दिस्समाणपदेसग्गं दटुवं; तत्थ पयारंतरासंभवादो। एसा च दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा सुहुमसांपराइयकिट्टोकारगस्स पढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमयबादरसांपराइओ त्ति ताव अप्पडिसिद्धा वटुब्वा चि पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भगइ * एसा सेढिपस्वणा जाव चरिमसमयबादरसांपराइओ त्ति । 5 ७७५. गयत्थमेदं सुत्तं। संपहि सुहुमसांपराइयगुणढाणं पविठुस्स पढमसमये सुहुमकिट्टीसु दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढीपरूवणा केरिसी होदि ति जादारेषस्स सिस्सस्स णिरारेगीकरण?मुत्तरसुत्तमोइण्णं * पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स वि किट्टीसु दिस्समाणपदेसगस्स सा चेव सेढिपरूवणा। * जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें दिखनेदाला प्रदेशपुंज बहुत है उससे आगे सूक्ष्मसाम्परायिकको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक दिखनेवाला प्रदेशपुंज अनन्त भागहीन होता है। 5७७३. यह सूत्र सुगम है। * तनदन्तर जघन्य बावर साम्परायिककृष्टिमें विखनेवाला प्रदेशज असंख्यातगुणा होन है। ६७७४. क्योंकि बादर कृष्टिसे प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका ही अपकर्षण करके सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियोंकी रचना करनेवालेके वहां दिखनेवाले प्रदेशपुंजसे बादर कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपंजके असंख्यातगुणेकी सिद्धि में बाधा नहीं पायी जाती। इसके आगे बादरसाम्परायिक कृष्टियों में अनन्तरोपनिधाको अपेक्षा अनन्तभागरूपसे विशेष होन दिखनेवाला प्रदेशपंज जानना चाहिए, क्योंकि उसमें दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। और वह दिखनेवाले प्रदेशपंजकी श्रेणिप्ररूपणा सूक्ष्मसाम्यरायिकके अन्तिम समय तक बिना रुकावटके जाननी चाहिये इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं श्रेणीप्ररूपणा बादरसाम्परायिकके अन्तिम समय तक जाननी चाहिए। ७७५. यह सूत्र गतार्थ है। अब सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में प्रवेश करनेवाले जीवके प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशजकी श्रेणिप्ररूपणा कैसी होती है ऐसी जिसे आशंका हुई है ऐसे शिष्यको आशंकारहित करने के लिये आगेका सूत्र आया है * प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके भी कृष्टियों में दिखनेवाले प्रवेशपूलको वही णिप्ररूपणा होती है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे ७७६. जा एसा चरिमसमय बाद रसांपराइयमर्वाह काढूण सुहुमकिट्टीसु दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिवरूत्रणा अणंतरमेव परूविदा सा चेव पढमसमये सुहुमसांपराइयस्स वि वत्तब्वा, विसेसाभावादो सिवुत्तं होइ । णवरि तत्थ बादरसांप इय किट्टीणं पि संभवो अस्थि त्ति तासु दिस्समाणपदेसग्गमसंखेज्जगुणं होण भिण्णगोवुच्छायारेण निद्दिट्ठ. एत्थ पुण बादरसांपराइय किट्टीस समर्वादपदेसग्गं सव्वमेव णवक बंधु च्छिद्वावलियवज्जं सुहुमसांपराइय किट्टीसरूवेण परिणमिय एयगोवच्छायारेण दट्ठव्वमिदि एदस्स विसेसस्स जाणावणद्वमुत्तरसुत्तारंभी ३०८ * णवरि सेचीयादो जदि बादरसांपराइय किट्टीओ धरेदि तत्थ पदेसग्गं विसेसही हो । $ ७७७. सेचीयादो से चीय संभवमस्सियूण जड़ किह वि एसो पढमसमयसुहुमसांपराओ बादरसांपराइयकट्टीओ धरेदि तो तत्थ विस्समाणपवेसग्गं विसेसहीणमेव होज्ज ति सुत्तत्थसंबंधो। एवं च भणहस्सायमहिपाओ - अणिर्याट्टिकरणचरिमसमए बादरकिट्टीसु दीसमानपदेसपिडो सुहुमपराइको दोसमानपदेस पडादो' असंखेज्जगुणमेत्तो अत्थि । पुणो से काले पढमसमयसुमसांपराइयभावे वट्टमाणस्म बादरकिट्टोगदं सव्वमेव पवेसग्गं सुहुमकिट्टीसरूवेणेव परिणमियण चिदि । एवं च सुमकिट्टीसरूवेण परिणदपदेस संतकम्मं बादरकिट्टीसरूवेण तदवस्थाए णत्थि ७७६ अन्तिम समयवन बादरसाम्परायिकको मर्यादा करके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपुंजकी जो यह श्रेणिप्ररूपणा अनन्तरपूर्व ही कह आये हैं वही श्रेणिप्ररूपणा सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम समय में भी करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इतनी विशेषता है कि वहाँपर बादरसाम्परायिक कृष्टियों का भी सम्भव है, इसलिए उनमें दिखनेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होकर भिन्न गोपुच्छाकाररूपसे निर्दिष्ट किया गया है, परन्तु यहांपर बादरसाम्परायिक कृष्टियों में अवस्थित हुआ पूरा ही प्रदेशपुंज नवबन्ध उच्छिष्टावलिको छोड़कर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणमनकर एक गोपुच्छाकाररूपसे होता है ऐसा जानना चाहिए, इस प्रकार इस विशेषका ज्ञान करानेके लिये आगे के सूत्रको आरम्भ करते हैं * इतनी विशेषता है कि से बीयरूपसे यदि बादरसाम्परायिक कृष्टियों को धरता है तो वहाँ पर प्रवेशपुंज विशेष हीन होता है । १७७७. से चीयरूपसे अर्थात् सेचीय सम्भवका आश्रय करके यदि किसी प्रकार यह प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीव बादरसाम्परायिक कृष्टियोंको धरता है तो वहाँपर दिखनेवाला प्रदेश पुंज विशेष हीन ही होता यह इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । और इस प्रकार कहनेवाले आचार्यका अभिप्राय है- अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में बादर कृष्टियों में दिखनेवाला प्रदेश पिण्ड सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपिण्ड से असंख्यातगुणा होता है । पुनः तदनन्तर समय प्रथम समवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक भावमें विद्यमान क्षपक जीवके बादर कृष्टिगत समस्त प्रदेशपुंज सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे ही परिणमकर अवस्थित रहता है। और इस प्रकार सूक्ष्म कृष्टिरूपसे परिणत हुआ प्रदेशसत्कर्म उस अवस्था में बादरकुष्टिरूपसे नहीं ही है । वहाँपर यद्यपि सूक्ष्म १. वा. प्रती दीसमाणपदेस पिंडो इति पाठः । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगढीए सुहुमसांपरा यियविसयकपरूवणा ३०९ चैव, तत्थ जइ वि पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स बादरकिट्टीणमच्चंताभावो चैव तो वि सेचीयसंभवमस्तियूण तासिमत्थित्तं बुद्धीए परिकप्पिय तव्विसया सेढिपरूवणा किह वि पयट्टाविज्जदि । तो वि तत्थ दिस्समाणपदेसग्गं सुहुमकिट्टीसु दिस्समानपदेसग्गादी दिसेसहीणमेव होज्ज, ण तत्तो असंखेज्जगुणं, एयगोवुच्छसरूवेण तक्कालमेव किट्टीगदसयलदव्यस्स परिणामणियमदंसणादो त्ति । तम्हा संभवसच्चमस्सियूण पयट्टत्तादो ण सुत्तमेदमसंभवदोसदूसियमिदि पडिवज्जेयत्वं । एवमेत्तिएण पबंधेण सुहुमसां पराइयकिट्टीकारयस्स तत्थ दिज्जमाणदिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं काढूण संपहि सुमसांप इय किट्टीओ णिव्वत्तेमाणस्स तदवत्थाए लोभविदिय-तदियबादरसां पराइय किट्टीहितोपदेस संतकम्मस्स पवृत्तिविसेसावहारणद्वमुवरिमप्पा बहुअपबंघमाढवेइ * सुहुममांपराइयकिट्टीसु कीरमाणीसु लोभस्स चरिमादो बादरसांपराइय किट्टीदो सुहुमसांपराइय किट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । ६ ७७८. सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेमाणो लोभस्स विदिय-तवियसांपराइय किट्टी हितो पदेसग्गस्सासंखेजवभाग मोकडुणासंकमेण सहुमसांपराइय किट्टीसु संकामेदि । एवं च संकामे माणस• तत्थ चरिमादो बावरसांपरा इय किट्टीवो सहुमसांपराइय किट्टीस जं पदेसग्ग मोकडुणावसेण संकम दि तं थोवमिदि वृत्तं होइ । * लोभस्स विदियकिट्टीदो चरिमबादरसपराइय किट्टीए संकमदि पदेसग्गं संजगुणं । साम्परायिक के प्रथम समयमें बादर कृष्टियोंका अत्यन्त अभाव ही है तो भी सेचीय सम्भवका आश्रय करके बुद्धिमें उनके अस्तित्वकी परिकल्पना करके तद्विषयक श्रेणिप्ररूपणा कथमपि प्रवर्त करायी गयी है तो भी वहाँपर दिखनेवाला प्रदेशपुंज सूक्ष्म कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपुंज से विशेष होन हो होवे, उससे असंख्यातगुणा नहीं होवे, क्योकि एक गोपुच्छारूपसे उसी समय कृष्टिगत समस्त द्रव्यके परिणामका नियम देखा जाता है । इसलिये सम्भव सत्यका आश्रय लेकर इस सूत्र के प्रवर्त होनेसे यह सूत्र असम्भव दोषसे दूषित नहीं होता यह निश्चय करना चाहिए । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारकके उस अवस्था में दिये जानेवाले और दिखनेवाले प्रदेशपुंज की श्रेणिप्ररूपणा करके अब सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको निर्वर्त्यमान क्षपक जीवके उस अवस्था में लोभकी दूसरी ओर तीसरी बादर साम्परायिक कृष्टियों में से प्रदेश सत्कर्मको प्रवृतिविशेषका अवधारण करनेके लिए अल्पबहुत्व प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके किये जानेपर लोभको अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें स्तोक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है । ६ ७७८ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों को करनेवाला क्षपक जीव लोभकी दूसरी व तीसरी साम्परायिक कृष्टियों में से प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागको अपकर्षण संक्रम द्वारा सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियों में संक्रमित करता है । और इस प्रकार संक्रम करनेवाले क्षपकके वहाँपर अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिसे सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियों में जो प्रदेशपुंज अपकर्षणवश संक्रमित होता है वह थोड़ा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * लोभकी दूसरी कृष्टिसे अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिमें संख्यातगुणे प्रवेशपुंजको संक्रमित करता है । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे _F ७७९. किं कारणं ? लोभतवियसंगहकिट्टीपदेसादो विवियसंगहकिट्टोपदेसग्गस्स संखेज्जगुणत्तादो। ___ * लोभस्स विदियकिट्टीदो सुहुमसांपराइयकिट्टीए संकमादे पदेसग्गं संखेज्जगुणं । 5७८०. लोभस तदियसंगहकिट्टीआयामादो सुहुमसांपराइयकिट्टीआयामो संखेज्जगुणो भवदि, एदेण कारणेण संखेज्जगुणायामाणुसारेण तत्थ संकामिज्जमाणपदेपग्गं पि संखेज्ज. गुणमेवेत्ति णिच्छेयव्वं, पडिग्गहमाहप्पाणुसारेणेव पडिगेज्झसंकममाणदग्वस्स पवुत्तिअब्भुवगमादो। संपहि एदस्सेव सहुमसांपराइयकिट्टीविसयस्स पवेससंकमप्पाबहुअस्स फुडीकरण?मेत्य संबंधागयं बादरसापराइयकिट्टीविसयं पदेससंकमप्पाबहुसं बादरकिट्टीवेदगपढमसमयप्पहुडि परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाढवेइ * पढमसमयकिट्टीवेदगस्स कोहस्स विदियकिट्टीदो माणस्स पढमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । ६७८१. किट्टीकरणद्धाए णिदिदाए से काले कोहपढमसंगहकिट्टीमोड्डियूण वेदेमाणो पढमसमयकिट्टोवेदगो णाम । तस्त कोहविदियसंगहकिट्टीदो माणस्स पढमसंगहकिट्टीए जं पदेसग्गमधापवत्तसंकमेण संकमदि तं सम्वत्थोवं, एतो अण्णस्त संकमदब्वस्स थोवयरस्स पपवविसये संभवाणुवलंभादो। ६७७९. क्योंकि लाभको तृतीय संग्रहकृष्टिके प्रदेशमुजसे दूसरी संग्रहकृष्टिका प्रदेशपुंज संख्यातगुणा है। * लोभको दूसरी कृष्टिसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें संख्यातगुणे प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है। ६७८० क्योंकि लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिके आयामसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका आयाम संख्यातगुणा होता है, इस कारण संख्यातगुणे आयामके अनुसार उसमें संक्रामित होनेवाला प्रदेशपंज भी संख्यातगुणा ही होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि प्रतिग्रहके माहात्म्यके अनुसार ही प्रतिग्रह्य संक्रममाण द्रव्यको प्रवत्ति स्वीकार की गयी है। अब इसी सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्वका स्पष्टीकरण करनेके लिए यहाँपर सम्बन्धवश प्राप्त बादरसाम्परायिक कृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्वका बादर कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रको आरम्भ करते हैं *. कृष्टिवेदकके प्रथम समय में क्रोधकी दूसरी कृष्टिसे मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें अल्प प्रदेशपुंजको संक्रमण करता है। ६५८१. कष्टकरणकालके समाप्त होनेपर तदनन्तर समयमें क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करनेवाला जीव प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक कहलाता है। क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें जो प्रदेशपुंज अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रमित होता है वह सबसे स्तोक है, क्योंकि प्रकत विषयमें इससे अन्य संक्रम द्रव्य स्तोकतर नहीं उपलब्ध होता। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए सुहुमसांपरायियविसयकपरूवणा * कोहस्स तदियकिट्टीदो माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । १७८२. एत्थ कारणं बुच्चदे-जा अणुभागेण थोवा संगहकिट्टी तिस्से पदेसगं बहुअं होइ, बहुगादो च पदेसादो संकामिज्जमाणपदेसगं पि बहुअं चेव होदि ति एदेण कारणेण पुसिल्ल. संकमदव्वादो एदं संकमदव्वं विसेसाहियं जादं । केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भागेण खंडिदेयखंडमेत्तो। * माणस्स पढमादो किट्टीदो मायाए पढमकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । 5७८३. एत्य चोदओ भणइ-किट्टीकरणद्धाए एक्कारस मूलगाहा पडिबद्धाओ। तत्थ जा तदियमूलगाहा सा तिणि अत्थे भणइ। तत्थ जो पढमो अत्यो तम्मि विहासिज्जमाणे बारसहं संगहकिट्टीणं पदेसग्गेण अप्पाबहुअं भणिदं । तं कधं ? माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं थोवं । विदियसंगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेससाहियं । तदियसंगहकिट्टीए पदेसग्गं विसे पाहियं, कोहस्स विवियसंगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं, तस्सेव तदियसंगहाकट्टीए पदेसग्गं विसेसा हयं । पुणो माया-लोभाणं तिण्हं संगहकिट्टोणं पदेसग्गं जहाकममेव विसेसाहियं होदूण णिवविदं । एत्थ पुण पदेससंकमे भण्णमाणे माणतदिकिट्टीपदेसादो विसेसाहियभावेण टिदकोहविदियसंगहकिट्टीदो माणपढममंगहकिट्टीए अधापवत्तसंकमेण संकममाणपदेसग्गं थोवं भणिदं। तत्तो माण * क्रोधको तीसरी कृष्टिसे मानको प्रथम संग्रह कृष्टि में विशेष अधिक प्रवेशपंजको संक्रमित करता है। ६७८२. यहाँपर कारणका कथन करते हैं जो अनुभागको अपेक्षा स्तोक संग्रहकृष्टि है उसका प्रदेशपुंज बहुत होता है, और बहुत प्रदेशोंसे संक्रम्यमाण प्रदेशपुंज भी बहुत ही होता है। इस कारण पहलेके संक्रम द्रव्यसे यह संक्रम द्रव्य विशेष अधिक हो गया है। शंका-कियन्मात्र विशेष अधिक हो गया है ? समाधान-पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर जो एक भागप्रमाण प्रदेशपुंज प्राप्त होता है तन्मात्र विशेष अधिक हो गया है। . * मानको प्रथम कृष्टिसे मायाको प्रथम कृष्टिमें विशेष अधिक प्रवेशपुंजको संक्रमित करता है। ६७८३. शंका-यहाँपर शंकाकार कहता है-कृष्टिकरणकालमें ग्यारह मूल गाथायें प्रतिबद्ध हैं। उनमें जो तीसरी मूलगाथा है वह तीन अर्थोका कथन करती है। उनमें जो प्रथम अर्थ है उसका विशेष व्याख्यान करनेपर वहाँपर बारह संग्रह कृष्टियोंका प्रदेशपंजको अपेक्षा अल्पबहत्व कह आये हैं। वह कैसे ? इसका उत्तर करते हुए कहा है-'मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें स्तोक प्रदेशपुंज होता है। दूसरी संग्रह कृष्टिमें उससे विशेष अधिक प्रदेशपुंज होता है। उसोको तोसरी संग्रह कृष्टिमें उससे विशेष अधिक प्रदेशपुंज होता है। क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिमें उससे विशेष अधिक प्रदेशपंज होता है। तीसरी संग्रहकृष्टिमें उससेविशेष अधिक प्रदेशपुंज होता है। पुनः माया और लोभकी तीनों संग्रह कृष्टियोंका प्रदेशपुंज यथाक्रम विशेष अधिक हो करके प्राप्त होता है। परन्तु यहांपर प्रदेशसंक्रमका कथन करनेपर मानकी तीसरी कृष्टिके प्रदेशपंजसे विशेष अधिकरूपसे स्थित क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रमित होनेवाला प्रदेश Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे पढमसंगह किट्टीए कोहतदियसंगह किट्टीदो अघापवत्तसंकमेणेव संकममाणपदेसग्गं विसेसाहियमिदि भणिण पुणो एदस्सुवरि माणस्स पढमसंगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगह किट्टीए अधापवत्तसंक्रमेण संकममाणयं पदेसग्गं विसेसाहियमिदि णिद्दिट्ठ । एदं च ण समंजसं थोवपदेसपिंडादो बहुदरं संकामेदि बहुगादो च योवयरं संकामेदित्ति एवंविहत्यस्स जुतिविरुद्धत्तादोत्ति ? ३१२ एत्थ परिहारो वुच्चदे - एसो पदेससंकमो कत्थ वि आधारपधाणो, कत्थ वि आधेयपहाणो, कत्थ वि तदुभयपहाणो होदूण पट्टदे । एत्थ वुण आहारपहाणत्तविवक्खाए पडिग्गनहद व्वाणुसारेण संकमपवृत्ती जेणावलंबिदो तेण कोहर्तादियसंगह किट्टीपदेससंकमस्स पडिग्गहभूदमाणपढमसंगहकिट्टिपदेसग्गादो माणपढमसंग हकिट्टिपदेस संक मस्स पडिग्गहभावेण द्विदमायापढमसंगह किट्टीपदेसग्गस्स विसेसाहियत्तादो तदाधारभूदपदेससंकमो विसेसाहियो जादो । विसेसपमाणमेत्थ डिग्गदव्वाणुसारेण आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागिय मदि गर्हयध्वं । *माणस्स विदियादो संगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । थोड़ा कहा गया है । पुनः उसके बाद मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिअधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रमित होनेवाला प्रदेशपुंज विशेष अधिक है ऐसा कहकर पुन: इसके ऊपर मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिले मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें अधःप्रवृत्त संक्रपके द्वारा संक्रमित होनेवाला प्रदेशपुंज विशेष अधिक है' ऐसा निर्देश किया गया है । परन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'स्तोक प्रदेश पिण्ड बहुत अधिक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है और बहुत प्रदेश पुंजसे स्तीकतर प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है 'इस प्रकारका अर्थ युक्तिविरुद्ध है' । समाधान - अब इस शंकाका परिहार करते हैं - यह प्रदेशसंक्रम कहींपर आधारप्रधान, कहीं पर आधेयप्रधान और कहींपर सदुभयप्रधान होकर प्रवृत्त होता है, परन्तु यहाँपर आधारप्रधानकी विवक्षा में प्रतिग्रह द्रव्यके अनुसार यतः संक्रमकी प्रवृत्तिका अवलम्ब लिया गया है, इस कारण क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिके प्रदेशसंक्रमका प्रतिग्रहभूत मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके प्रदेशपुंज - से तथा मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि के प्रदेशसंक्रमका प्रतिग्रहरूपसे स्थित मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टके प्रदेशपुंजके विशेष अधिक होनेसे उसका आधारभूत प्रदेशसंक्रम विशेष अधिक हो जाता है । यहाँपर विशेषका प्रमाण प्रतिग्रह द्रव्यके अनुसार आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ —- कृष्टिकरणकालके प्रसंगसे जो तीसरी मूलगाथा १६९ है उसके तीन अर्थोंमें से प्रथम अर्थके व्याख्यानके प्रसंगसे भाष्यगाथा ( ११७ - १७० ) में १२ संग्रहकृष्टियों के प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए वहीं जो क्रम स्वीकार किया गया है उससे यहाँ स्वीकार किये गये प्रदेशक्रम में जा अन्तर है उसको लक्ष्य में रखकर जो समाधान किया गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि यहां न तो आधेयप्रधान संक्रम विवक्षित है और न ही तदुभयप्रधान संक्रमविवक्षित है । किन्तु आधारप्रधान प्रदेशसंक्रम यहाँपर विवक्षित है। इसी कारण पूर्व कथनसे इस कथनमें थोड़ा अन्तर हो गया है । * मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aar से ढोए संक्रमणियमपरूवणा ३१३ * माणस्स तदियादो संगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । * मायाए पढमसंगहकिट्टीदो लोभस्स पढमसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसे साहियं । * मायाए विदियादो संगह किट्टीदो लोभस्स पढमाए संगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । * मायाए तदियादो संगह किट्टीदो लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए संकम दि पदेसग्गं विसेसाहियं । $ ७८४. एत्थ सम्वत्थ संतकम्माणुसारेणेव विसेसाहियत्तं जावमिदि बटुव्वं । सेसं सुगमं । * लोभस्स पढमकिट्टीदो लोभस्स चैव विदियसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसगं विसेसाहियं । ६७८५ एत्थ वि संतकम् माणुसारेणेव विसेसाहियत्तं जादमिदि घेत्तव्यं । एत्थ चोदओ भइ - कोहविदिय संगह किट्टिप्पहूडि हेट्ठा णिवदिदासेससंक मदव्यमधापवत्तसंक मेणेव गहिदं; तत्थ पयारंतरासंभवादो । एसो पुण ओकडणासंकमो, तदो पुव्विल्लसकमदब्वादो असंखेज्जगुणेण देण * मानकी तीसरी संग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि में विशेष अधिक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है । मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिसे लोभको प्रथम संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रवेशपुंजको संक्रमित करता है । * मायाकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे लोभको प्रथम संग्रहकृष्टि में विशेष अधिक प्रवेशपुंजको संक्रमित करता है । * मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टिसे लोभको प्रथम संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रवेशपुंजको संक्रमित करता है । ६ ७८४. यहाँ सर्वत्र सत्कर्मके अनुसार ही विशेष अधिकपना हो जाता है ऐसा जानना चाहिए । शेष कथन सुगम है । * लोभकी प्रथम कृष्टिसे लोभकी ही दूसरी संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशपंजको संक्रमित करता है । $ ७८५. यहाँ पर भी सत्कर्मके अनुसार ही विशेष अधिकपना हो गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । शंका- यहाँपर शंकाकार कहता है - क्रोध की दूसरी संग्रहकुष्टिसे लेकर नीचे पतित होनेवाला सम्पूर्ण संक्रम द्रव्य अधःप्रवृत्त संक्रमके क्रमसे ही ग्रहण किया जाता है, क्योंकि वहाँपर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । परन्तु यह अपकर्षण संक्रम है, असंख्यातगुणा होना चाहिए, क्योंकि अधःप्रवृत्त भागहारसे असंख्यातगुणा होता है । ऐसा उपदेश है ? ४० इसलिए पहिलेके संक्रम द्रव्यसे यह अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार सर्वत्र Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे होदध्वं अधापवत्तभागहारादो ओकड्डुक्कडुणभागहारस्स सव्वत्थासंखेज्जगुणहीण त्तोवएसादो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे - सच्च मेदं भागहारविसेसे जोइज्जमाणे तहा चेव होदिति । किंतु भागहारविसेसो एत्थ णत्थि, परिणाममाहप्पमस्सियूण' अधापवत्तभागहारस्स, ओकडुणभागहाराणुसारेणेव एवम्मि विसये पवृत्तिणियमावलंबणा दो। ण चेदमसिद्धं, एदम्हादो चेव सुत्तादो पयवस्थ सिद्धिसमवलंबणादो | ण च सव्वत्थेव ओकड्डुक्कडुणभागहारादो अधापवत्तभागहा रस्सा संखेज्जगुणत्तनियमो अत्थि, अववादविसय मेदं मोत्तूणण्णत्थ तस्स तहाभावान्भुवगमादो । तम्हा एदम्मि विसये अधापवत्तसंकमादो ओकडुणसंकमस्स भागहारविसेसो णत्थि त्ति सिद्धमेदस्स दव्वविसेसमस्सियूण विसेसाहियत्तं । * लोभस्स चेव पढमसंगहकिट्टीदो तस्स चैव तदियसंगह किट्टीए संकमदि पदेसगं विसेसाहियं । $ ७८६. एसो वि ओकडुणसंकमो चेव । किंतु पुविल्लप डिग्गहादो संपहियप डिग्गहो बिसेसाहिलो, तेण तव्विसयसंकमो वि विसेसा हिमो जादो । * कोहस्स पढमसंगह किट्टीदो माणस्स पढमसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । ६७८७ लोभपढ म संगह किट्टीपदेस संतकम्मादो कोहपढम संगहकिट्टीए पदेस संतकम्मं तेरसगुणं होइ, तेण तत्तो संका मिज्जमाणपदेसग्गं पि संखेज्जगुणं चैव जादं । सेसं सुगमं । समाधान - यहां पर उक्त शंकाका परिहार करते हैं - यह सच है, भागहार विशेषके देखनेपर उसी प्रकार है । किन्तु यहाँपर भागहार विशेष नहीं है, क्योंकि परिणामके माहात्म्यका आश्रय करके अधःप्रवृत्त भागहारको अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार के अनुसार हो इस विषय में प्रवृत्तिके नियमका अवलम्बन लिया गया है । और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे प्रकृत अर्थ की सिद्धिका अवलम्बन हो जाता है परन्तु सर्वत्र ही अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार से अधःप्रवृत्त भागहारके असंख्यातगुणेपनेका नियम नहीं है, क्योंकि इस अपवाद के विषयको छोड़कर अन्यत्र उसे उसी प्रकारसे स्वीकार किया गया है। इसलिए इस विषय में अधःप्रवृत्त संक्रमसे अपकर्षण संक्रमकी अपेक्षा भागहार विशेष नहीं है । इसलिए इसके द्रव्यविशेषका आश्रय करके विशेषाधिकपना सिद्ध हो जाता है । * लोभकी। प्रथम संग्रहकृष्टिसे उसीकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है । ६ ७८६. यह भी अपकर्षण संक्रम ही है। किन्तु पहिले के प्रतिग्रहसे साम्प्रतिक प्रतिग्रह विशेष अधिक है । इसलिए उसको विषय करनेवाला संक्रम भी विशेष अधिक हो जाता है । * क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संख्यातगुणे प्रदेश पुंजको संक्रम करता है । ६७८७. लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिके प्रदेश सत्कर्मसे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेश सत्कर्म तेरहगुणा है, इसलिए उससे संक्रामत होनेवाला प्रदेशपुंज भी संख्यातगुणा ही हो जाता है । शेष कथन सुगम है । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढीए किट्टोणं संकमणियमपस्वणा ३१५ * कोहस्स चेव पढमसंगहकिट्टीदो कोहस्स चेव तदियसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । ६७८८. पुग्विल्लपडिग्गहादो एसो पडिम्गहो विसेसाहिओ, तेण कारणेण संकमवव्वमेवं विसेसाहियमिदि णिहिट। * कोहस्स पढमकिट्टीदो कोहस्स चेव विदियसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । ६७८९. उदीरिज्जमाणकिट्टीदो तदणंतरहेट्ठिमकिट्टीए गच्छमाणपदेसगं सम्वेहितो बहुगं होदि, तदायारेण तस्स सव्वस्सेव पच्चासण्णकालेण परिणमणणियमदंसणादो। तेण पुग्विल्लपडिग्गहादो जइ वि एसो पडिग्गहो विसेसहोणो तो वि एत्थतणसंकमवन्वं संखेज्जगुणमेवेत्ति घेत्तव्वं । ____ * एसो पदेससंकमो अइकतो वि उक्खेदिदो सुहुमसापराइयकिट्टीसु कीरमाणीसु आसओ त्ति कादण । ६७९०. एदस्सत्थो वुच्चदे-एसो पदेससंकमो बादरकिट्टीविसयो 'अइक्कतो वि उक्खेदिवों' अइक्कंतावसरो वि संतो पुणरुक्विविदूण भणियो। किमट्ठमेवं भणिज्जदि ति चे ? 'सुहमसांपराइयकिट्टोसु कीरमाणीसु आसो ति कादूण' सुहमसापराइयकिट्टीसु कीरमाणीसु जो पदेस. संकमो पदिदो तस्स कारणभूवो ति कादूण अइक्कंतावसरो वि होतो एसों पदेससंकमो पुणरुच्चइदूण भणिदो त्ति वुत्तं होइ। कधमेसो बादरकिट्टीविसयो पदेससंकमो सुहमसांपराइय * क्रोधको ही प्रथम संग्रहकृष्टिसे क्रोधको ही तीसरी संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशपुंजको संक्रम करता है। ६७८८. पहलेके प्रतिग्रहसे यह प्रतिग्रह विशेष अधिक है। इस कारण यह संक्रम द्रव्य विशेष अधिक है ऐसा निर्देश किया है। * क्रोधको प्रथम कृष्टिसे क्रोधको ही दूसरी संग्रह कृष्टिमें संख्यातगुणे प्रदेशपुंजको संक्रम करता है। ६७८९. उदीयमान कृष्टिसे तदनन्तर अधस्तन कृष्टिमें संक्रमित होनेवाला प्रदेशपुंज सबसे अधिक होता है, क्योंकि तदाकार-रूपसे उस सबके ही प्रत्यासन्न कालके साथ परिणमनका नियम देखा जाता है। इस कारण पहलेके प्रतिग्रहसे यद्यपि यह प्रतिग्रह विशेष हीन है तो भी यहांका संक्रम द्रव्य संख्यातगुणा ही है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। ॐ यह प्रदेशसंक्रम यद्यपि अतिक्रान्त हो गया है तो भी सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंका बाश्रयभूत है ऐसा समझकर पुन: उठाकर कहा गया है। ६७९०. अब इसका अर्थ कहते हैं-बादरकृष्टिका विषयभूत यह प्रदेशसंक्रम यद्यपि 'अइक्कतो वि पखेदि दो' अतिक्रान्त अवसरको प्राप्त होता हुआ भी पुनः उठाकर कहा गया है। शंका-ऐसा किस लिए कहा जाता है? समाधान-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके किये जानेमें आश्रयभूत है ऐसा समझकर अर्थात् समसाम्परायिक कृष्टियोंके किये जाने में जो प्रदेशसंक्रम प्राप्त होता है उसका कारणभूत है ऐसा Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे किट्टीविसयस्स पदेससंकमस्स आसयभूदो तिचे ? वुच्चदे-सुहमसांपराइयकिट्टोसु कोरमाणोसु तव्विसयस्स पदेससंकमस्स गुणगारो भणिदो; लोभबिदियबादरसांपराइयकिट्टीदो तस्सेव चरिमबादरसांपराइयकिट्टीए संकममाणपदेसम्गादो सुहमकिट्टीसु संक्रममाणं पदेसग्गं संखेज्जगुणं होदि त्ति। एवंविहो च पदेससंकमगुणगारो ण केवलमिवाणि चेव पयट्टदे, किंतु पुव्वं पि बादरकिट्टी. विसये संखेज्जगुणपदेसग्गादो पच्चासत्तिविसेसमस्सियूण संखेज्जगुणो चेव पदेससंकमो जहासंभवं पयट्टमाणो तदणुसारेणेव एत्थ वि तहा पयट्टो त्ति एवंविहत्थविसेसजाणावणद्वारेण सुहमसांपराइयकिट्टीसु कोरमाणीसु एस पदेससंकमो आसयभूदो जादो। .६७९१ अण्णं च पुव्वमेदीए पणालीए जहाकममागंतूण लोभविदियबादरसांपराइयकिट्टीसहवेण परिणमिय पुणो तत्तो सुहमसापराइयकिट्टीसरूवेण परिणममाणो पदेसपिंडो एवं परिणमदि ति जाणावण मुहेण एसो बादराकट्टीविसयो पदेससंकमो सुहुमसांपराइयकिट्टोसु कोरमाणीसु आसयभूवो जादो, अण्णहा पयददव्वमाहप्पविणिण्णयोवायाभावादो। ७९२. अधवा पुव्वं बादरकिट्टीविसयस पदेससंकमस्स आणुपुत्वीविसेसो चेव कोहविवियकिट्टीवेदगावसरे भणिदो, ण पुणो तत्थ तस्विसयत्थोवबहुत्तपरिक्खा आढत्ता, तदो तत्थ परूवणाजोग्गो एसो पदेससकमप्पाबहुअविही अइक्कतावसरो वि एण्हिमुक्खेदिदो सुहुमसांपराइयकिट्टीसु समझकर अतिक्रान्त अवसरको प्राप्त होता हुआ भी यह प्रदेशसंक्रम पुनः उठाकर कहा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह बादरकृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रमका आश्रयभूत कैसे है ? समाधान-कहते हैं-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके किये जाने में तद्विषयक प्रदेशसंक्रमका गुणकार कहा। लोभकी दूसरी बादरसाम्परायिक कृष्टिसे उसीकी अन्तिम बादरसाम्पगयिक कृष्टिमें संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे सूक्ष्मभाम्परायिक कृष्टियों में संक्रमित होनेवाला प्रदेशपंज संख्यातगुणा होता है। और इस प्रकारका प्रदेशसंक्रमका गुणकार केवल इसी समय नहीं प्रवृत्त हुआ है, किन्तु पहले भी बादर कृष्टिके विषय में संख्यातगुणे प्रदेशपुंजसे प्रत्यासत्तिविशेषका आश्रय करके संख्यातगणा ही प्रदेससंक्रम यथासम्भव प्रवर्तमान होता हआ उसके अनुसार ही यहाँपर भी उस प्रकारसे प्रवृत्त हुआ है, इस प्रकार इस अर्थविशेषका ज्ञान करानेके द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके किये जानेमें यह प्रदेशसंक्रम आश्रयभूत हो गया है। 5७९१. दूसरी बात यह है कि पहले इस प्रणाली द्वारा क्रमसे आकर लोमकी दूसरी बादरसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणमन करके पुनः उससे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणमन करनेवाला प्रदेशपिण्ड इस प्रकार परिणमन करता है, इस प्रकारका ज्ञान कराने के द्वारा यह बादरकृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके किये जानेमें आश्रयभूत हो गया है, क्योंकि अन्यथा प्रकृति द्रव्यके माहात्म्यके निर्णयके उपायका अभाव है। ६७९२. अथवा पहले बादरकृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रमका आनुपूर्वीविशेष ही क्रोधकी दूसरी कृष्टिवेदकके अवसरपर कह आये हैं, परन्तु वहाँपर तद्विषयक अल्पबहुत्वको परीक्षा आरम्भ नहीं को गयो है, इसलिये वहाँपर प्ररूपणाके योग्य यह प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्वको विधि अतिक्रान्तरूप अवसरवाली होकर भी इस समय उसकी प्ररूपणा अपेक्षित है। सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके किये Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaree सुमकिट्टी दिज्जमानपदेसपरूवणा ३१७ कोरमाणीसु कि कारणं पृथ्वपरुविदत्थविसये विसेसणिष्णयहे उत्तणा सयभूदो त्ति काढूण, तम्हा हम सांप इय किट्टी विसयपदेस संकमपरूवणापसंगेण बादर सांप। इय किट्टीविसओ वि पदेससंकमबहुअ वही परुविदो त्ति एसो एत्य सुत्तत्यसन्भावो । एवमेदं पदेससंकमध्याबहुवर्वािह जाणाविय संपहि सुमसांप इयकिट्टीकरणद्धाविसयं परूवणाविसेसं पुणो वि परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरमाढवेइ– * सुहुमसांपराइय किट्टीसु पढमसमये दिज्जदि पदेसगं थोवं । * विदियसमये असंखेज्जगुणं जाव चरिमसमयादो ति ताव असंखेज्जगुणं । $ ७९३ समये समये अनंतगुणवडिदेहि परिणार्मेह वडमाणो एसो पडिसमयमसंखेज्जगुणं पदेसग्ग मोक ड्डियूण जाव बादरसां पराइयचरिमसमयो त्ति ताव सुहुमसांपराइप किट्टी सरूवेण परिणमेदित्ति भणिदं होदि । * एदेण कमेण लोभस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमदिए आवलिया समयाहिया सेसा तितम्हि समये चरिमसमयबादरसपराइओ । $ ७९४. गयत्थमेदं सुत्तं । एवं चरिमसमयबादर सांपरराइयभावे वट्टमाणस्स तक्कालभाविओ जो परूवणा विसेसो तण्णिष्णयकरणट्टमुवरिमो सुत्तपबंधो जानेमें पहले कहे गये अर्थके विषय में किस कारणसे विशेष निर्णय में हेतुरूपसे आश्रयभूत है ऐसा समझकर उससे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रमकी प्ररूपणा के प्रसंगसे बादर साम्परायिक कृष्टिविषयक प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्वविधि कही गयी है यह यहाँपर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार इस प्रदेशसंक्रम अल्पबहुत्व विधिका ज्ञान कराकर अब सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकरण कालविषयक प्ररूपणाविशेषका फिर भी प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * प्रथम समयसम्बन्धी सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में अल्प प्रदेशपुंजको देता है । * दूसरे समयसम्बन्धी सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें अन्तिम समयके प्राप्त होने तक असंख्यातगुणे प्रदेश पुंजको देता है । $ ७९३. समय-समय में अनन्तगुणवृद्धिरूप परिणामोंके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता हुआ वह क्षपक जीव प्रतिसमय असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके बादर साम्परायिकके अन्तिम समय तक सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणमाता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । * इस क्रमसे लोभकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके उसकी जो प्रथम स्थिति होती है उसकी एक समय अधिक जब एक आवलि शेष रह जाती है उस समय जीव अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है । $ ७९४. यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिकभाव में विद्यमान इस क्षपक जीवके तत्काल होनेवाला जो प्ररूपणा भेद है उसका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ वयषवलासहिदे कसायपाहुडै ___* तम्हि चेव समये लोभस्स चरिमसमयवादरसांपराइयकिट्टी संछुब्भमाणा संछुद्धा । ६७९५. तम्हि चेवाणियट्टिचरिमसमये लोभस्स चरिमबादरसांपराइयकिट्टी पुव्वमेवाढविय जहाकम संछुब्भमाणा गिरवसेसं सहुमसांपराइयकिट्टोसु संसुद्धा त्ति वुतं होइ। एदं च उप्पादा. णुच्छेदमस्सियूण परविदं, अण्णहा से काले पढमसमयसुहमसांपराइयभावे वट्टमाणस्स णिरुद्धबादरसांपराइयकिट्टीए सहमकिट्टीस णिरवसेसं संछोहयभावदसणादो। ण केवलं तदियबादरसांपराइय. किट्टी चेव ताधे सुहमसांपराइयकिट्टीस संछुद्धा, किंतु लोभविदियबादरसांपराइयकिट्टीए वि णवकबंधुच्छिट्टावलियवज्ज सव्वमेव पदेसग्गं तत्य संछुद्धमिदि जाणावेमाणो इदमाह * लोभस्स विदियकिट्टीए वि दोआवलियबंधे समयूणे मोत्तण उदयावलियपविट्ठ च मोत्तूण सेसाओ बिदियकिट्टीए अंतरकिट्टीओ संछुब्भमाणीओ संछुद्धाओ। 5 ७९६. गयत्थमेवं सुत्तं । संपहि एत्थेव समये सव्वेसि कम्माणं द्विविबंध-टिदिसंतकम्मपमाणावहारणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाह___ * तम्हि चेव लोभसंजलणस्स डिदिबंधो अंतोमुहुत्तं । ६७९७. अणियट्टि०चरिमसमयजहणदिदिबंधस्स लोभसंजलणविसयस्स तप्पमाणत्ताण * उसी समय लोभको अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिककृष्टिको संक्रमणको प्राप्त होती हुई संक्रमित हो जाती है। ६७९५. अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें लोमको अन्तिम बादरसाम्परायिककृष्टि पहले हो आरम्भ होकर क्रमसे संक्र मत होती हुई पूरी सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंमें संक्रमित हो जाती है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। किन्तु यह कथन उत्पादानुच्छेदका आश्रय लेकर कहा है, अन्यथा तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकभावमें विद्यमान इस क्षपक जीवके विवक्षित बादरसाम्परायि कृष्टिके सूक्ष्मकृष्टियोंमें पूरा संक्रमणभाव देखा जाता है। केवल तीसरी बादरसाम्परायिककृष्टि ही उस समय सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंमें संक्रमित नहीं हुई है, किन्तु लोभकी दूसरी बादर साम्परायिककृष्टिके भी नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर पूरा ही प्रदेशपुंज उसमें संक्रमित हुआ है इस बातका ज्ञान कराते हुए इस सूत्रको कहते हैं ___लोभकी दूसरी कृष्टिके भी एक समय कम दो ओवलिप्रमाण नवकबन्धको छोड़कर और उदयावलिमें प्रविष्ट हुए द्रव्यको छोड़कर शेष सब दूसरी कृष्टिको अन्तरकृष्टियाँ संक्रम्यमाण होती हुई संक्रमित हो जाती हैं। ६७९६. यह सूत्र गतार्थ है । अब इसी समयमें सब कर्मोके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * उसी समय लोभ संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। ६७९७. अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें लोभ संज्वलनविषयक जघन्य स्थितिबन्धके Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए दसमगुणटाणसंपत्तिपरूवणा इक्कमादो एत्थेव मोहणीयस्स बंधबोच्छेदो टुव्वो, एतो उवरि तब्बंधकारणपरिणामाण.' मसंभवादो। * तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिबंधो अहोरत्तस्स अंतो। ६७९८ पुग्विल्लसंधिविसये दिवसपुत्तमेत्तो एवेसि टिदिबंधो तत्तो जहाकम परिहाइदूण अहोरत्तस्सतो मुहत्तपुत्तिओ होदूण पयट्टदि त्ति वुत्तं होइ। *णामागोदवेदणीयाणं बादरसांपराइयस्स जो चरिमो द्विदिबंधो सो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहिं हाइदण वस्सस्स अंतो जादो। ६७९९. सुगममेवं सत्तं। * चरिमसमयबादरसापराइयस्स मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्ममंतोमुहुत्तं । * तिण्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । * णामागोदवेदणीयाणं डिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । 5८०० एदाणि सत्ताणि । सुगमाणि एवमणियट्टिकरणद्धं समाणिय संपहि एत्तो से काले जहावसरपत्तं सुहमसांपराइयगुणट्ठाणं पडिवज्जमाणस्स जो परूवणापबंधो तण्णिद्देसकरणट्ठमुत्तरसूत्तारंभो * से काले पढमसमयसुहुमसांपराइयो जादो । तत्प्रमाणपनेका अतिक्रम न होने के कारण यहींपर मोहनीयको बन्धव्युच्छित्ति जाननी चाहिए, क्योंकि इसके आगे उसके बन्धके कारणभूत परिणामोंका होना असम्भव है।' * तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध कुछ कम दिन-रात प्रमाण होता है। ६७९८. पूर्वोक्त सन्धिस्थानमें दिवसप्रथक्त्वप्रमाण कर्मोंका स्थितिबन्ध होता था पुनः उससे क्रमशः घटकर कुछ कम दिनरातके भीतर मुहूर्तप्रथक्त्वप्रमाण होकर प्रवृत्त रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मोका बादरसाम्परायिक क्षपक जीवके जो अन्तिम स्थिति- . बन्ध होता है वह संख्यात हजार वर्षसे घटकर एक वर्षके भीतर हो जाता है। ६७९९. यह सूत्र सुगम है । * अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक क्षपक जीवके मोहनीयकर्मका स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है।। * तीन घातिकर्मो का स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। * नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है। ६८००. ये सूत्र सुगम हैं। इस प्रकार अनिवृत्तिकरणके कालको समाप्त करके अब इसके आगे तदनन्तर समयम यथावसर प्राप्त सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले क्षपक जीवका जो प्ररूपणाप्रबन्ध है उसका निर्देश करनेके लिए आगेके सूत्रको आरम्भ करते हैं * तदनन्तर समयमें यह क्षपक जीव प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हो जाता है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जयषवलासहिदे कसायपाहुडे 5८०१. बादरकिट्टीवेदगद्धासमत्तिसमणंतरमेव सुहुमकिट्टीओ ओकड्डियूण वेदेमाणो ताधे पढमसमयसुहुमसांपराइयभावेणेसो परिणदो त्ति वुत्तं होइ। * ताधे चेव सुहुमसांपराइयकिट्टीणं जाआ द्विदीओ तदो द्विदिखंडयमागाइदं । ६८०२. तम्मि चेव सुहमसांपराइयपढमसमए लोभसंजलणसहुट्टिीणं जाओ द्विदीओ अंतोमुहत्तपमाणाओ तत्तो संखेज्जविभागमेत्तं टिदिखंडयं गहेदुमाढत्तमिाद वुत्तं होइ। मोहणोयाणुभागस्स किटीगदस्स जा अणसमयोवद्रणा व्यपरूविदा सा तहा चेव पयदि त्ति दवा, तत्थ णाणत्ताभावादो। णाणावरणादिकम्माणं पि दिदि-अणुभागघादा पुव्वं व पयर्टेति त्ति ण तत्य वि परूवणाभेदो आढत्तो। संपहि तत्थतणपदेसग्गमोकट्टियूण कधं णिसिंचदि ति आसंकाए णिग्णयविहाणट्टमुवरिमसुत्तारंभो * तदो पदेसग्गमोकट्टियूण उदये थोवं दिण्णं । ६८०३. सहुमसांपराइयकिट्टीणमुक्कीरिज्जमाणाणुक्कीरिज्जमाणदिदीहितो पदेसग्गस्सासंखेज्जदिभागमोकड्डियूण पुणो ओकड्डिक्सयलवव्वस्सासंखेज्जे भागे पुध टुविय तदसंखेज्जदिभागमेत्तपदेसग्गं गुणसेढोए गिसिंचमाणो उदयट्टिवीए थोवयरमेव पदेसग्गमसंखेज्जसमयपबद्धपमाणं णिसिंचदि त्ति वुत्तं होदि। ६८०१. बादरकृष्टियोंके वेदककालके समाप्त होनेके समनन्तर हो सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंको अपकर्षित करके वेदन करता हुआ यह क्षपक जीव उस समय प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकभावसे परिणत हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * उसी समय सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंकी जो स्थितियां हैं उनमेंसे स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता है। ६८०२. उसी सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समयमें लोभ संज्वलनसम्बन्धी सूक्ष्मकृष्टियोंकी अन्तर्मुहर्त प्रमाण जो स्थितियां हैं उनमें से संख्यातवें भागप्रमाण स्थिातकाण्डकको ग्रहण करनेके लिए आरम्भ करता है। कृष्टिगत मोहनीयके अनुभागकी जो अनुसमय अपवर्तना पहले कह आये हैं वह उसी प्रकार प्रवृत्त रहती है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि उसमें नानापने का अभाव है। इसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोका भी स्थितिघात और अनुभागघात पहलेके समान प्रवृत्त रहता है, उसमें भी प्ररूपणाभेद नहीं आरम्भ होता है। अब वहाँसम्बन्धी प्रदेशपंजका अपकर्षण करके किस प्रकार सिंचन करता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णयका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको आरम्भ करते हैं * उसके बाद प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके उवयमें अल्प द्रव्य दिया गया है। ६८०३. सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंको उत्कीर्यमाण और अनुत्कीर्यमाण स्थितियोंमेंसे प्रदेशपंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके पुनः अपकर्षित समस्त द्रव्यके असंख्यात बहुभागप्रमाण प्रदेशपंजको पृथक् स्थापित करके उसके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशजको गुणश्रेणिरूपसे सिंचन करता हुआ उदय स्थितिमें स्तोतर ही असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशपुंजका सिंचन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए गुणसे ढिपमाणपरूवणा * अंतोमुहुत्तद्धमेत्तमसंखेज्जगुणाए सेढीए देदि । ६८०४. उदयद्वदीए णिसित्तपदेस पडादो असंखेज्जगुणं पदेसग्गं तत्तो अनंत रोव रिमट्ठिदीए सिचदि । तत्तो वि असंखेज्जगुणं पदेसग्गं तदुवरि द्विदीए णिसिचदि । एवमणंतराणंत सदो असंखेज्जगुणं पदेसग्गं णिसिंचमाणो गच्छदि जाव अंतोमुहुत्तमेत्तद्वाणमुवरि गंतणेत्थतणगुणसे दसोसयं जावं ति । एवं च गुण से ढिअद्धाणमेत्थतणसयलंतरायामस्स संखेज्जदिभागमेत्तमिदि घेतव्वं । पहिएदसेव गुण से ढिणिक्खेवायामस्स फुडीकरणट्ठमुत्तरमुत्तणिद्देसो * गुणसेढिणिक्खेवो सुहुमसांपराइयद्धादो विसेसुत्तरो । ३२१ ६ ८०५. सुहुमसां पराइयद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ती होदि । तत्तो विसेसुत्तरो एसो गुण से ढिणिक्खेवायामो वो, तत्तो संखेज्जभागढ महियत्तेणेदस्स गुणसेढिणिवखेवायामस्स पवृत्तिदंसणादो । णाणावरणादिकम्माणं पितक्कालभाविओ गलिदगुणसेढिणिक्खेवायामो सुहुमसांपराइयद्वादो विसेसुत्तरो होण पयट्टमाणो एत्तो अंतोमुहुत्तद्वाणमुवरि चडिण वट्ठदित्ति ददुव्वो; खोणकसायाणं पि पि बोलेयूण तस्सावद्वाणनियमदंसणादो । एवमेदम्मि अद्धाणे ओकडिदसयलदव्यस्सा संखेज्जदिभागं गुणसेढीए णिविखविय पुणो से सबहुभागदव्वमेत्तो उवरिमासु द्विदीसु णिसिंचमाणो कधं निसिचदित्ति आसंकाए णिरेगीकरणट्ठमुत्तरसुतारंभी * गुणसेढीसी सगादो जा अणंतरट्ठिदी तत्थ असंखेज्जगुणं । * उसे अन्तर्मुहूर्तकाल तक असंख्यातगुणे श्रेणीरूपसे देता है । $ ८०४ उदय स्थिति में निक्षिप्त किये गये प्रदेशपुंजसे संख्यातगुणे प्रदेशपुंजको उससे अनन्तर उपरिम स्थितिमें सींचता है । फिर उससे भी असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको उससे ऊपरको स्थिति में सिंचन करता है । इस प्रकार अनन्तर अनन्तररूपसे असख्यातगुणे प्रदेशपुंजका सिंचन करता हुआ तबतक जाता है जब अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयाम ऊपर जाकर यहाँसम्बन्धी गुणश्रेणिशोषं प्राप्त हो जाता है, परन्तु यह गुणश्रेणि आयाम यहाँसम्बन्धी समस्त अन्तर आयामके संख्यातवें भागप्रमाण होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इसो गुणश्रेणिनिक्षेपके आयामको स्पष्ट करने के लिए आगे के सूत्रका निर्देष करते हैं • वह गुणश्रेणिनिक्षेप सूक्ष्मसाम्परायिक के कालसे विशेष अधिक होता है । $ ८०५. सूक्ष्मसाम्परायिककाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है, अतः उससे विशेष अधिक यह गुण निक्षेपका आयाम जानना चाहिए, क्योंकि उससे इस गुणश्रेणि निक्षेपके आयामकी संख्यातवें भाग अधिक प्रवृत्ति देखी जाती है। ज्ञानावरणादि कर्मोंका भी तत्कालभावी गलित गुणश्रेणि निक्षेपसम्बन्धी आयाम सूक्ष्मसाम्परायिक के कालसे विशेष अधिक प्रवृत्त होता हुआ इससे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयाम ऊपर जाकर अवस्थित रहता हैं ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि क्षोणकषायके कालको बिताकर उसके अवस्थानका नियम देखा जाता है। इस प्रकार इस आयाममें अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्य के असंख्यातवें भागको गुणश्रेणिमें निक्षिप्त करके पुनः शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको इससे ऊपरकी स्थितियों में सिंचन करता हुआ किस प्रकार सिंचन करता है ऐसी आशंका के होनेपर निःशंक करनेके लिए आगे के सूत्रको आरम्भ करते हैं— * गुणश्र ेणि शीर्षसे जो तदनन्तर स्थिति है उसमें असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है । ४१ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६८०६ अंतरद्धाणस्स संखेज्जदिभागे चेव पयदगुणसेढीसीसगे संजादे तत्तो अणंतरोवरिमा जा अणंतरटिदी तत्थ गुणसेढिसोसये णिसित्तपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसग्गं णिसिंचदि त्ति भणिदं होदि । ण चेदस्स दव्वस्स गुणसेढिसीसयदव्वादो असंखेज्जगुणत्तमसिद्धं, ओड्डिदसयलदव्वस्सासंखेज्जेसु भागेसु तप्पाओग्गसंखेज्जरवेहि खंडिदेसु तत्थेयखंडं विदिदिदीए णिवददि त्ति पुध टुविय तत्थतणसंखेज्जे भागे घेतूण अंतरट्टिदोसु समयाविरोहेण णिसिंचमाणस्स परिप्फुडमेव पयददध्वस्स गुणसेढिसोसयदव्वादो असंखेज्जगुणत्तसिद्धिदसणादो। एत्तो परमंतराहदीसु अणंतराणंतरादो एगेगगोवुच्छविसेसहाणीए पदेसविण्णासं कुणदि जाव अंतरचरिमदिदि ति इममत्थविसेसं पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तत्तो बिसेसहीणं ताव जाव पुव्वसमये अंतरमासी तस्स अंतरस्स चरिमादो अंतरद्विदिदो त्ति। 5८०७. कुदो ? संतरदिदीस ओकड्डिदसयलदव्वस्स संखेज्जे भागे घेतूण सत्थाणे एयगोवुच्छायारेण णिसिंचमाणस्स पयारंतरासंभवादो। तम्हा एवंविहेण पदेसविण्णासेण अंतरमावूरेवि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसम्भावो। एवमंतरदिदीस पदेसविण्णासं कादूण पुणो एत्तो परं विदियदिदीए जा आदिट्टिदो तत्थ केरिसं पदेसविण्णासं कुणदि त्ति आसंकाए णिरारेगोकरणट्ठमुत्तरसुत्तमाह ६८०६. अन्तरके आयामके संख्यातवें भागमें ही प्रकृत गुणश्रेणिशोर्षके हो जानेपर उससे अनन्तर जो उपरिम अनन्तर स्थिति है वहां गुणश्रेणिशीर्षमें निक्षिप्त किये गये प्रशशजसे असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका सिंचन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और यह द्रव्य गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यात भागोंमें तत्प्रायोग्य असंख्यातरूपोंके द्वारा भाजित करनेपर उनमें से एक भागप्रमाण द्रव्य दूसरी स्थितिमें पतित होता है इस प्रकार इस द्रव्यको पृथक् स्थापित करके वहांसम्बन्धी संख्यात बहुभाग द्रव्यको ग्रहण करके अन्तरस्थितियोंमें समयके अविरोधपूर्वक सिंचन करनेवाले क्षपक जीवके स्पष्ट हो प्रकत व्यकी गणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे असंख्यातगणपनेकी सिद्धि देखी जाती है। इससे आगे अन्तरसम्बन्धो स्थितियोंमें अनन्तर-अनन्तर क्रमसे एक-एक गोपुच्छा विशेषकी हानि द्वारा अन्तरकी अन्तिम स्थितिके प्राप्त होनेतक प्रदेशोंकी रचना करता है, इस प्रकार इस अर्थ विशेषका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * उसके आगे, पूर्व समयमें जो अन्तर था उस अन्तरको अन्तिम अन्तरस्थितिके प्राप्त होनेतक एक-एक विशेषहीन द्रव्यको देता है। ६८०७. क्योंकि अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंमें अपकर्षित हुए समस्त द्रव्यके संख्यात बहुभागको ग्रहण करके स्वस्थानमें एक गोपुच्छाकाररूपसे सिंचन करनेवाले क्षपक जीवके अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। इसलिए इस प्रकारके प्रदेशविन्यासके द्वारा अन्तरको भरता है यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। इस प्रकार अन्तरसम्बन्धो स्थितियोंमें प्रदेशविन्यास करके पुनः इससे आगे द्वितीय स्थिति में जो आदि स्थिति है उसमें किस प्रकारके प्रदेशविन्यासको करता है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aar ढोए तत्थ दिज्जमानपदेर ग्गपरूवणा ३२३ * चरिमादो अंतरष्ट्ठिदीदो पुव्वसमये जा विदियट्ठिदी तिस्से आदि हिदीए दिज्ज माणगं पदेसगं संखेज्जगुणहीणं । ६८०८. कुदो ? अंतरद्विदीसु पुव्वुत्तदव्वस्स संखेज्जे भागे णिसिंचियूण पुणो सेस खेज्जदिभागमेत्तदव्वमंतरायामादो संखेज्जगुणविदियट्ठिदीए जहापदिभागं णिसिवमाणस्स परिप्फुडमेवेदम्म संधिविसये दिज्जमानपदेसग्गस्स संखेज्जगुण होणत्तदंसणादो। एत्थ जइ वि सुहुमसांपराइयकिट्टीणं द्विदी अंतरापुरणवसेण एक्का चेवेज ादा तो वि अणियचिरिमसमयावेक्ख ए पढम-विदयद्विदिभेदं काढूण अंतरचरिमट्ठिदी विदियट्ठिदी आदिट्टिदो च घेत्तव्वा त्ति जाणावणट्टं दोसु वि एदेसु सत्तेसु पुव्वसमयणिद्दे सो कओ दट्ठव्वो । जइ वि एत्थ अंतरट्ठिदीसु ओकड्डिदसयलदव्वस्स संखेज्जविभागमेत्तमेव दव्वं णिसिचदि, विदियट्टिदीए च संखेज्जे भागे णिसिचदि त्ति घेप्पइ तो वि पय सिद्धी त्थि पडिबंधो; अंतरायामादो विदियट्ठिदिआयामस्सा संखेज्जगुणत्तमस्सियण तस्स सिद्धीए बाहाणुवलंभादो । एवमेवम्मि संधिविसये संखेज्जगुणहीणं पदेसणिसेगं काढूण संपहि एत्तो उवरिमेट्ठिदिविसेसेस पदेसणिसेगमेवं कुणदि त्ति पटुप्पायणट्ठ मुत्तरसुत्तमोइण्णं - * तत्तो विसेसहीणं । $ ८०९. एत्तो परमेगेगगोवुच्छविसे सहाणीए विसेसहीणं पदेसणिक्खेवं कुणमाणो गच्छदि जव सुमसां पराइय किट्टीण मुक्कस्सट्ठिदीदो समयाहियावलियमेत्तं हेट्ठा ओसरि दिदि * अन्तिम अन्तरसम्बन्धी स्थितिसे पूर्व समय में जो द्वितीय स्थिति है उसको आदि स्थिति में जो प्रदेशपुंज दिया जाता है वह संख्यातगुणा हीन होता है । $ ८० ८. क्योंकि अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में पूर्वोक्त द्रव्यके संख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यको सिंचन करके पुनः शेष असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको अन्तर आयाम से संख्यातगुणी द्वितीय स्थिति में विभाग के अनुसार सिंचन करनेवाले क्षपक जोवके स्पष्ट ही इस सन्धिस्थान में दिया जानेवाला प्रदेशपुंज संख्यातगुणा हीन देखा जाता है । यहाँपर यद्यपि सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों को स्थिति अन्तरके भर देनेके कारण एक ही हो गयी है तो भी अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीय स्थितिका भेद करके अन्तरकी अन्तिम स्थिति और द्वितीय स्थितिकी आदि स्थिति ग्रहण करनी चाहिए इस बातका ज्ञान करानेके लिए इन दोनों ही सूत्रों में पूर्व समयका निर्देश किया गया जानना चाहिए । यद्यपि यहाँपर अन्तरस्थितियों में अपकर्षित समस्त द्रव्यके संख्यातवें भागप्रमाण ही द्रव्यका सिंचन करता है और द्वितीय स्थिति में संख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यका सिंचन करता है ऐसा ग्रहण करते हैं तो भी प्रकृत अर्थसिद्धि कोई प्रतिबन्ध नहीं है, क्योंकि अन्तरके आयामसे द्वितीय स्थितिके आयामके संख्यातगुणपनेका आश्रय करके उसकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं पायी जाती। इस प्रकार इस सन्धिस्थान में संख्यातगुणहीन प्रदेशनिषेकको करके अब इससे उपरिम स्थितिविशेषों में प्रदेश - निषेकको इस प्रकार करता है इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * उससे आगे विशेषहीन द्रव्यको देता है । $ ८०९. इसके आगे एक एक गोपुच्छा विशेष की हारिद्वारा विशेषहीन प्रदेशनिक्षेप करता हुआ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति १. आ प्रती एक्को चेव इति पाठः । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जयघवलास हिदे कसा पाहुडे त्ति; तत्तो परमइच्छावणाविसये णिक्खवासंभवादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसन्भावो । एवमेत्तिएण पबंधे हुमसां पराइय-पढमसमए दिज्जमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं समाणिय संपहि इममेंवत्थमुवसंहरेमाणसुत्तमुत्तरं भणइ * पढमसमयसुहुमसां पराइयस्स जमोकडिज्जदि पदेसग्गं तमेदीए सेढीए णिक्खिवदि । ६ ८१०. गद्यत्यमेदं सुत्तं । संपहि विदिवादिसमयेसु वि एसो चेव ओकडिज्जमानपदेसग्गस्स णि सेगविण्णासवकमो अणुगंतव्यो त्ति जाणावणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * विदियसमए वि एवं चैव । तदियसमये वि एवं चैव । एस कमो ओक ड्डिदूण णिसिंचमाणगस्स पदेसग्गस्स ताव जाव सुहुमसांपराइयस्स पढमडिदिखंडयं जिल्लेविदं ति । ६८११. तं जहा - विदियसमये ताव पढमसमयोकडिददव्वादो असंखेज्जगुणं पर्देसग्गमोड्डियूण निसिचमाणो उदये थोवं देदि, तत्तो विदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणं, एवं ताव असंखेज्जगुणं जाव पढमसमयगुण से ढिसोसयादो उवरिमाणंतरहिदि ति । कुदो ? एदम्मि विसये मोहणीयस्साव द्विगुण से ढिणिक्खेवदंसणादो । तदो गुणसेढिसोसयादो उवरिमाणंतरद्विदीए वि किस्से द्विदीए गुणसेढिपयत्तेण विणा वि दव्वमाहप्पेणासंखेज्जगुणं पदेसग्गं णिक्खिवदि । तत्तो विसेसहीणं जाव भूदपुवणयविसईकदा अंतरच रिमट्ठिदिति । तत्तो विदियट्ठिदीए आदिट्ठिदिम्मि नीचे सरककर स्थित हुई वहाँ की स्थिति के प्राप्त होनेतक जाता है, क्योंकि उससे आगे अतिस्थापनारूप स्थितियों में निक्षेप होना असम्भव है यह इस सूत्रका यहाँपर समोचीन अर्थ है । इस प्रकार इस प्रबन्ध द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा सम्पन्न करके अब इसी अर्थका उपसंहार करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं सूक्ष्मसाम्परायिकसे प्रथम समय में जिस प्रदेशपुंजका अपकर्षण करता है उसका इस श्रेणिके क्रमसे निक्षेप करता है । ९८१० यह सूत्र गतार्थ है । अब द्वितीय आदि समयों में भी अपकर्षित किये जानेवाले प्रदेशपुंजके निषेक विन्यासका यही क्रम जानना चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगे के प्रबन्धको कहते हैं * दूसरे समय में भी इसी क्रमसे निक्षेप करता है । तीसरे समय में भी इसी क्रमसे निक्षेप करता है । इसी प्रकार अपकर्षण करके सोंचे जानेवाले प्रदेशपुंजका सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम स्थितिकाण्डक के निर्लेपित होनेतक यही क्रम चलता रहता है। $ ८११. वह जैसे - सर्वप्रथम दूसरे समय में प्रथम समय के अपकर्षित द्रव्यसे असंख्यातगुणे प्रदेश पंजका अपकर्षण करके सिंचन करता हुआ उदयमें स्तोक प्रदेशपुंजको देता है, उससे आगे दूसरी स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है, इस प्रकार प्रथम समयसम्बन्धी गुण णि शीर्षसे उपरि अनन्तर स्थिति के प्राप्त होनेतक असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है, क्योंकि इस स्थानपर अवस्थित गुणश्रेणिनिक्षेप देखा जाता है । उसके आगे गुणणशीर्ष से उपरिम अन्तरस्थितिसम्बन्धी भी एक स्थिति में गुणश्रेणिके प्रवृत्त होने के बिना भी द्रव्य के माहात्म्यवश असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है। उससे आगे भूतपूर्वनय के विषयभूत अन्तरकी अन्तिम स्थिति के Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaraढी तत्थ दिञ्जमानपदेसग्गपरूवणा ३२५ पुग्ध व संखेज्जगुणहोणं पर्देसपिडं णिसिचदि । तत्तो परं विसेसहीणं जाव अप्पणो उक्कोरिदपदेसमावलियमेत्तकाले अपत्तो त्ति । एवं तदियादिसमएसु वि एसा सेढिपरूवणा णिव्वामोहमणुगंतव्वा जाव पढमट्ठिदिखंडयदुचरिमसमओ त्ति । ६८१२. संपहि पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीए णिवदमाणाए जो पदेस विण्णा सक्कमो तस्स किचि फुडीकरणं वत्तइस्सामा । तं जहा - विदियट्ठिदिसयलदव्वस्स संखेज्जदिभागमेत्तं चरिमफालिधं घेत्तूण उदये पदेसग्गं थोवं देवि । विदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणं देदि । एवमंतोमुहुत्तकालमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव गुणसेढिसीसये त्ति । एवं च गुणसेढीए णिवविदासेसदव्वं चरिमफालीदथ्वस्सा संखेज्जदिभागमेत्तं चैव दटुवं । तदो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणंतरा जाएगा ट्ठिदी तत्थासंखेज्जगुणं देदि । तदो उवारं विसेसहीणं णिविखवमाणो गच्छदि जाव अंतरचस्मिद्विदि भूदपुण्वणय विसयोकयं संपत्तो त्ति । गुणसेढिसीसयादो उवरि एवम्मि अंतरद्धाणे णिवदिदसयलदब्बं चरिमफालीदव्वस्स संखेज्जदिभागमेत्तमिद घेत्तव्वं । पुणो अंतरच रिमद्विदीदो जा विदियट्ठिदीए आदिट्ठिदी तिस्से पदेसमां संखेज्जगुणहोणं देदि । तदो उवरिमासु सव्वासु द्विदीसु विसेसहीणं देदि असंखेज्जदिभागमेत्तेण । ६ ८१३. संपहि एत्थ विदियट्टिदीए आदिट्ठिदिम्मि संखेज्जगुणहोणं पदेसणिसेगं कुणवित्ति एक्स्स कारणमित्यमणुगंतव्वं । तं जहा - पढमट्ठिदिखंडयस्स दुचरिमफाली जाव णिवददि ताव प्राप्त होनेतक विशेषहीन द्रव्य देता है । उससे आगे दूसरी स्थितिसम्बन्धी आदिको स्थिति में पहले के समान संख्यातगुणहीन प्रदेशपिण्डका सिंचन करता है। उससे आगे अपने उत्कीरित किये गये स्थान तक एक आवलि प्रमाणकालके द्वारा नहीं प्राप्त होता हुआ विशेष हीन प्रदेश- पिण्डका सिंचन करता है । इसी प्रकार तीसरे आदि समयों में भी यह श्रेणिप्ररूपणा व्यामोह रहित होकर प्रथम स्थितिकाण्डकके द्विचरम समयके प्राप्त होने तक जान लेनी चाहिए । ६८१२. अब प्रथम स्थितिकाण्डकको अन्तिम फालिके पतन होते समय जो प्रदेश विन्यास - का क्रम है उसे किचिद् स्पष्ट करनेके लिए बतलायेंगे । वह जैसे - द्वितीय स्थितिके समस्त द्रव्यके संख्यातवें भागप्रमाण अन्तिम फालिसम्बन्धी द्रव्यको ग्रहण करके उदय में स्तोक प्रदेशपुंजको देता है । दूसरी स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातगुणित श्रेणिद्वारा निक्षेप करता हुआ गुणश्रेणिशीर्षके अन्तिम समयतक जाता है । और यह गुणश्रेणिमें पतित हुआ समस्त द्रव्य अन्तिम फालिसम्बन्धी द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है ऐसा जानना चाहिए। उसके बाद गुणश्रेणिशीर्ष से उपरिम अनन्तर जो एक स्थिति है उसमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। उससे ऊपर विशेष होन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता हुआ भूतपूर्वं नयी विषय की गयी अन्तरकी अन्तिम स्थिति को प्राप्त होनेतक जाता है । गुणश्रेणिशीर्षसे ऊपर अन्तरसम्बन्धी इस आयाममें पतित हुआ समस्त द्रव्य अन्तिम फालिसम्बन्धी द्रव्यके संख्यातवें भागप्रमाण होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। पुनः अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थितिसे द्वितीय स्थितिकी जो आदि स्थिति है उसमें संख्यातगुणहीन प्रदेशपंजको देता है उससे उपरिम समस्त स्थितियोंमें असंख्यातवें भागप्रमाण विशेषहीन प्रदेशपुंज देता है। ६ ८१३. अब यहाँ पर दूसरी स्थितिकी आदि स्थिति में संख्यातगुणहीन प्रदेशोंका निक्षेप करता है इसका कारण इस प्रकार जानना चाहिए। वह जैसे - प्रथम स्थितिकाण्डकी द्विवरम Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे समयं पडि ओक डयूण संछ्न्भमाणदव्वं विदियट्ठिदिसयल पदे सग्गस्सा संखेज्ज दिभागमेत्तं चैव होदि, भागहाण खंडिदेयखंडपमाणत्तादो । तेण गुणसेढि मोत्तूण उवरिमअंतर द्विदोसु पिसित्त पदेपिडमेयगो+छासरूवं होदूण तत्थावट्ठिदं दट्ठध्वं । विदियट्ठिदीए वि पढमणिसेगप्पहुडि वरिमसम्वद्विदी पदेसग्गमेयगोवुच्छायारेण अंतरच रिमद्विवीए णि'सत्तदव्वादो असंखेज्जगुणं होण चिट्ठदि । कारणं - जाव दुचरिमफाली णिवददि ताव समयं पडि ओक डियूग अंतर दी निसिचमाणपदेपिडं विदियट्ठि दिसयल पदे सग्गस्सा संखेज्जदिभागमेत्तं चेत्र होदि । होतं पि तक्कालोक दिसपल दव्वस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं संखेज्जदिभागमेत्तं वा होदि । तेण कारणेण अंतरद्विदी विदिद्विदोए च भिण्णगोवुच्छाओ तत्थ जादाओ । ८१४. संपहि पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीए णिवदिदाए दोण्हमेंयगोवुच्छासेढी जायदि त्ति पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीदव्वस्त संखेज्जदिभागमेत्तो पदेसपिंडों अंतरष्ट्ठिदीस तक्काले णिवददित्ति घेत्तव्वं । पुणो तिस्से चरिमफालीए पदेसपिंडस्सा संखेज्जा भागा पढमद्विविखंड• यायामेणूण विदियट्ठिदीए अवयवट्ठदोसु पढमट्ठिदिखंडयादो संखेज्जगुणासु णिवदति । तक्काले चरिमफालीए एगेगट्ठिदिपदेसग्गस्स संखेज्जदिभागमेत्तो पदेर्सापडो एक्केवक द्विदिविसे सम्मि णिवददि । अंतरर्राद्वदी पुण पादेककमेत्तो संखेज्जगुणमेत्तो पदेस पडो णिवददि, अण्णा दोहमेय फालिके प्राप्त होनेतक प्रत्येक समय में अपकर्षित होकर संक्रमित हुआ जो द्रव्य पतित होता है। वह द्वितीय स्थितिसम्बन्धी समस्त प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, क्योंकि वह अपकर्षण भागहारके द्वारा भाजित करनेपर एक भाग प्रमाण है । इस कारण गुणश्रेणिको छोड़कर उपरिम अनन्तर स्थितियों में निक्षिप्त हुआ प्रदेशपिण्ड एक गोपुच्छास्वरूप होकर वहाँ अवस्थित जानना चाहिए। द्वितीय स्थिति में भी प्रथम निषेकसे लेकर उपरिम सब स्थितियों में प्रदेश पुंज एक गोपुच्छाकाररूपसे अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थितिमें निक्षिप्त हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणा होकर अवस्थित होता है। इसका कारण - जबतक द्विचरम फालिका पतन होता है तबतक प्रत्येक समय में अपकर्षित होकर अन्तरस्थितियों में सिंचित होनेवाला प्रदेशपिण्ड द्वितीय स्थितिसम्बन्धी समस्त प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । ऐसा होता हुआ भी तत्काल अपकर्षित समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अथवा संख्यातवें भागप्रमाण होता है । इस कारण अन्तर-स्थितियोंमें और द्वितीय स्थितिमें वहां अलग-अलग गोपुच्छायें हो जाती हैं । ६८१४. अब प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन होनेपर दोनों की एक गोपुच्छा श्रेणि हो जाती है, इसलिए प्रथम स्थितिकाण्डकसम्बन्धी अन्तिम फालिके द्रव्यका संख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशपिण्ड अन्तरस्थितियों में तत्काल पतित होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । पुन: उस अन्तिम फालिके प्रदेशपिण्डका असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य प्रथम स्थितिकाण्डक आयामसे कम द्वितीय स्थितिको प्रथम स्थितिकाण्डकसे संख्यातगुणी अवयव स्थितियों में पतित होता है । उस समय अन्तिम फालिकी एक-एक स्थितिसम्बन्धो प्रदेशपुंजका संख्यातवाँ भागप्रमाण प्रदेश पिण्ड एक-एक स्थितिविशेष में पतित होता है । परन्तु अन्तर स्थितियों में से प्रत्येक स्थिति में इससे संख्यातगुणा प्रदेशपिण्ड पतित होता है, अन्यथा दोनों की एक गोपुच्छारूपसे उत्पत्ति नहीं १. आ० प्रती तत्थावट्ठिददव्वं इति पाठः । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए गुणसेढीए दिज्जमानपदेसग्गपरूवणा गोवच्छभावाणुप्पत्तदो । तेण कारणेण अंतरचरिमट्ठिदिम्मि णिसित्तपदेसादो विदियद्विदीए आदिट्ठिदिम्मि णिसिचमाणपदेसपिडो संखेज्जगुणहीणो जादो । ३२७ ६८१५. अथवा अंतरच रिमट्ठिदिम्मि णिसित्तपदेस पिंडादो विदियट्ठिदिपढमणिसे गम्मि निसिचमाणदव्वं संखेज्जगुणहोणं होदि त्ति एदस्स कारणमेवं वा वत्तव्वं । तं कथं ? अंतरष्ट्ठिदीहि पढमट्ठिदिखंडयायामे भागे हिदे भागलद्धं संखेज्जरुवाणि विरलिय पढमट्ठिदिखंडयायामं समखंडं काण दिणे तत्थेक्क्कस्स रूवस्स अंतरायामपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेतून तक्कालिय गुण सेढिसोसयादो उवरिमअंतर द्विदीसु ठविदे अंतरर्राट्ठदिपदेसग्गं विदियट्ठिदिपदेसग्गं च दो वि थोरुच्चयेण एयगोवुच्छाणि जादाणि । पुणो तत्थ विदियरूवधरिदमेगखंडं घेत्तूण संखेज्जफालीओ कादव्धाओ । ताअ केत्तियाओ त्ति भणिदे अंतर द्विदिआयामेण गुणसेढ मोत्तूण सेससव्वद्विदीसु भाजिदासु भागलद्धमेत्तीओ फालीओ कादव्वाओ । एवं च काढूण तत्थेगफालि घेत्तण अंतर पुवं विदखंडस्स पासे ट्ठविध पुणो सेसफालीओ जहाकमं विदियट्ठिदीए ठवेदव्त्राओ । एवं सेसवधरिदखंडाणि वि काढूण समयाविरोहेण ढोएदव्वाणि । एवं काढूण जोइदे अतरचरिमद्विदीए पदिदन्वादो विदियट्ठिदीए आदिट्ठिदिम्मि णिवदिदपदेसग्गं संखेज्जगुणहोणं होदित्ति णिच्छओ कायो । एवमेत्तिएण पबंधेण पढनट्ठिदिखंडयचरिमफालिमवह काढूण सहुमसांपराइयेकड्डियूण णिचिमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं काढूण संपहि विदियादो ट्ठिदिखंडयादो ओड्डियूण से द्वितीय स्थिति हो सकती । इस कारण अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थिति में निक्षिप्त हुए प्रदेश सम्बन्धी आदि स्थिति में निः सिंचमान प्रदेशपिण्ड संख्यातगुणा हीन हो जाता है । $ ८१५. अथवा अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थिति में निक्षिप्त हुए प्रदेश पिण्ड से द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेक में निसिच्यमान द्रव्य संख्यातगुणा हीन होता है इस प्रकार इसका कारण इस प्रकार कहना चाहिए । शंका- वह कैसे ? समाधान - अन्तर स्थितियोंके द्वारा प्रथमस्थितिकाण्डकके आयाममें भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उससम्बन्धी संख्यात अंकों को विरलित करके विरलित प्रत्येक अंकके प्रति प्रथम स्थितिकाण्डक के आयाम को समान खण्ड करके देयरूप से देने पर वहां एक-एक अंकके प्रति अन्तरायामका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहाँ पर एक अंकके प्रति प्राप्त आयामको ग्रहण करके उस समय के गुणश्रेणिशीषं से उपरिम अन्तर स्थितियों में स्थापित कर देनेपर अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशपंज और द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रदेशपुंज दोनों ही एकरूप होकर एक गोपुच्छारूप हो जाते हैं। पुनः वहां पर द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त एक खण्डको ग्रहण करके उसकी संख्यात फालियां करनी चाहिए। वे कितनी होती हैं ऐसा पूछनेपर गुणश्रेणिको छोड़कर अन्तरस्थितिके आयाम द्वारा शेष सब स्थितियोंको भाजित करनेपर जो भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण फालियाँ करनी चाहिए। और ऐसा करके तथा वहां एक फालिको ग्रहण करके अन्तर स्थितियों में पहले स्थापित खण्ड के पास स्थापित करके पुनः शेष फालियोंको यथाक्रम द्वितोय स्थिति में स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार शेष अंकोंके प्रति प्राप्त खण्डों को भी करके समय के अविरोधपूर्वक स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार करके देखनेपर अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थिति में पतित द्रव्यसे द्वितीय स्थितिसम्बन्धी आदि स्थिति में पतित प्रदेशपुंज संख्यातगुणा हीन होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिकी मर्यादा करके सूक्ष्मसाम्परायिक के द्वारा अपकर्षित करके सींचे जानेवाले प्रदेशपुंज की श्रेणिप्ररूपणा Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे णिसिच्चमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा केरिसी होदित्ति आसंकाए तणिण्णय विहाणट्ट मुवरिमं पबंधमाढवेइ - ३२८ * विदियादो ठिदिखंडयादो ओकड्डियूण पदेसग्गमुदये दिज्जदि तं थोवं । $ ८१६. पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीए णिवदिदाए पुणो से काले विदियट्ठिदिखंडय मागाएमाणो पढमट्ठदिखंडयादो विसेसहोणायामेण खंडयमागाएदि । एवमागादपढमसमये तत्तो पदेसग्गस्सा संखेज्जदिभागमोर्काड्डियूण उदयादिगुणसेढोए णिक्खिवमाणो उदयद्वदीए ताव थोवयरं पदेसग्गं णिसिचदि, तस्स थोवभावेण विणा उवरिमट्ठिदीसु निसिचमाणपदेसग्गस्स गुणसे ढिआयारेण समवद्वाणाणुववत्तदो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । * तदो दिजदि असंखेज्जगुणाए सेढीए ताव जाब गुणसेढिसीसयादो उवरिमातरा एक्का द्विदित्ति । ८१७. तो उदये जिसित्तपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसग्गं तत्तो अनंत रोवरमाए विद या ट्टिदीए णिसिचदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिसिचमाणो ताव गच्छदि जाव अंतो मुहुत्त - वरगंतून अवदिगुगसेढिसीसयं पत्तो त्ति; ओकडिदसयल दव्वस्सा संखेज्जदिभागमेत्तदव्वमेदम्मि अद्धाणे गुणसेढियारेण निसिचमाणस्स परिष्फुडमेव तहाभावदंसणादो । पुणो गुणसेढिसोसयादो करके अद्वितीय स्थितिकाण्डकसे अपकर्षित करके सींचे जानेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा कैसी होती है ऐसी आशंका होनेपर उसके निर्णयका कथन करने के लिए आगे के प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * द्वितीय स्थितिकाण्डकसे अपकर्षित करके उदय में जितना प्रदेशपुंज देता है वह सबसे थोड़ा है। ९८१६. प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतित होनेपर पुनः तदनन्तर समय में द्वितीय स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ प्रथम स्थितिकाण्डकसे विशेष होन आयामके द्वारा उस काण्डकको ग्रहण करता है। इस प्रकार ग्रहण किये जाने के प्रथम समय में उसमें से प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका अपवर्षंण करके उदयादि गुणश्रेणिरूप से निक्षेप करता हुआ सर्वप्रथम उदयस्थिति में स्तोकतर प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है, क्योंकि उसके स्तोकपनेके बिना उपरिमस्थितियों में सींचे जानेवाले प्रदेशपुंजका गुणश्रेणिके आकार से सम्यक् अवस्थान नहीं बन सकता, यहाँ यह इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । * उसके बाद गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तर एक स्थितिके प्राप्त होनेतक असंख्यात गुणश्रेणिरूपसे प्रदेशपुंजको देता है । § ८१७. उसके बाद उदयमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे उपरिम अनन्तर द्वितीय स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। इस प्रकार असंख्यातगुणित श्रेणिरूप से अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर अवस्थित गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक सिंचन करता हुआ जाता है, क्योंकि अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको इस आयाममें गुणश्रेणि आकारके द्वारा सिंचन करनेवाले क्षपक जोवके स्पष्ट हो उस प्रकारका काम होता हुआ देखा जाता है । पुनः गुणश्रेणी से उपरम अनन्तर एक स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका सिंचन करता है, क्योंकि Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खवगसेढोए दसमगुणट्ठाणसंपत्तिपरूवणा ३२९ उवरिमाणतराए एविकस्से द्विदीए असंखेज्जगुणं पदेसगं निसिचदि । गुणसेढिपयत्तेण विणा वि दवमाहपमस्सियूण तत्थ णिसिंचमाणपदेसग्गस्स उहाभावोवलंभादो । * दो विसेसहीणं । $ ८१८. किं कारणं ? तत्तोप्पहूडि ओकडिदसयलदव्वस्सा संखेज्जे भागे एगो च्छायारेण निसिचमाणस्स पयारंतरासंभवादो। एत्तो बिदियादिसमयेसु वि एसा चेव सेढिपरूवणा जाव निरुद्ध दिखंडयं समत्तं त्ति । एवभुवरिमट्ठिदिखंडएसु वि एसो चेव दिज्जमानपदेसग्गस्स णिसेगविष्णाक्कमो अणुगंतव्वो जाव दु चरिमट्ठिदिखंडयचरिमफालि त्ति । णवरि सम्वट्ठिदिखंडएस जाव चरिमफाली ण णिवददि ताव ओोकडुिज्जमाणदव्वं सयलद व्दस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं चेव होदि । चरिमफालीए णिवदमाणाए पुण ट्ठिदिखंडयादो आगच्छमाणदव्वं सयलदव्वस्स संखेज्जदिभागमेत्तं चैव होदित्ति घेत्तव्वं । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिममप्पणा सुत्तमाह तो पासप रायस्स जाव मोहणीयस्स ट्ठिदिघादो ताव एस कमो । ६. १९. यत्थमेदं सुतं । णवरि चरिमट्ठिदिखंडयविसये को विविसेससंभवो अत्थि तस्स फुणीकरणट्ठमुवरि कस्सामो । एदमेत्तिएण सुत्तपबंधेण सुहुमसांपराइयपढमसमय पहुडि दिज्जमानपसग्गस्स सेढिपरूवणं काढूण संपहि तत्थेव दिस्समाणपदेसग्गस्स केरिसमवद्वाणं होदित्ति काणिकरणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाह - प्रवृत्त हुए बिना भी द्रव्यके भाहात्म्यका आश्रय करके उसमें सींचे जानेवाले प्रदेशपुंजका उस प्रकारका कार्य होता हुआ उपलब्ध होता है । उसके बाद विशेषहीन द्रव्य होता है । 8 ८१८. शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि उससे लेकर अपकर्षित हुए समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागमें एक गोपुच्छाके आकारसे सिंचन करनेवाले क्षपक जीवके प्रकारान्तर सम्भव नहीं है । इससे द्वितीयादि समयोंमें भी विवक्षित स्थितिकाण्डक के समाप्त होनेपर यही श्रेणिप्ररूपणा होती है, इस प्रकार उपरिम स्थितिकाण्डकों में भी यही दीप्यमान प्रदेशपुंजके निषेक विन्यासका क्रम अन्तिमस्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके प्राप्त होने तक जानलेना चाहिए। इतनी विशेषता है सब स्थितिकाण्डकों में जबतक अन्तिमफालि पतित नहीं होती है तबतक अपकर्षित होनेवाला द्रव्य समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है । किन्तु अन्तिमफालिके पतित होनेपर पुनः स्थितिकाण्ड से आनेवाला द्रव्यं समस्त द्रव्यके संख्यातवें भागप्रमाण ही होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए अगले अर्पणासूत्रको कहते हैं— * यहाँसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके जबतक मोहनीय कर्मका स्थितिघात होता है तबतक यही क्रम प्रवृत्त रहता है। $ ८१९. यह सूत्र गतार्थ है । इतनी विशेषता है कि अन्तिम स्थितिकाण्डकके विषयमें जो कुछ भी विशेष सम्भव है उसको स्पष्ट करने के लिए आगे कहेंगे । इसप्रकार इतने सूत्र प्रबन्ध द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके प्रथम समयसे लेकर दिप्यमान प्रदेशपुजकी श्रेणिप्ररूपणा करके अब वहीं पर दीप्ययान प्रदेशपुंजका किस प्रकारका अवस्थान होता है ऐसा आशंकाका निर्णय करनेके लिए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं ४२ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स जं दिस्सदि पदेसग्गं तस्य सेढिपरूवणं वसामो | $ ८२०. सुगमं । ३३० * तं जहा । ९ ८२१. सुगमं । * पढमसमय सुहुमसांपराइयस्स उदये दिस्सदि पदेसग्गं थोवं । बिदियाए fare असंखेज्जणं दीसदि । एवं ताव जाव गुणसेटिसीसयं ति गुणसेटिसीसयादो अण्णा च एक्का द्विदीति । १८२२. किं कारणं; एदम्मि अद्धाणे दिज्जमाणस्सेव दिस्समाणस्स वि पदेसग्गस्स असंखेगुणा सेढी समवाणदंसणादो । * तत्तो विसेसहीणं ताव जाव चरिमअंतरट्ठिदिति । ९८२३. दिज्जमानपदेसग्गरसानुसारेणेवत्थ दिस्समाणपदेसग्गरस वि विसेसहाणीए समयठास परिफुडवलं भादो । * तत्तो असंखेज्जगुणं । ९ ८२४. सुगमं । * तत्तो विसेसहीणं । * प्रथम समय में सूक्ष्मसाम्परायिक क्षेपकके जो प्रवेशपुंन दिखाई देता है उसकी श्रेणिप्ररूपणाको बतलायेंगे । ९८२०. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । ९८२१. यह सूत्र सुगम है । * प्रथम समय में सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके उदयमें स्तोक प्रदेशपुंज दिखाई देता है । दूसरी स्थिति में असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज दिखाई देता है । इसी प्रकार गुणश्रेणिशीषं और गुणश्रेणिशीर्ष से अन्य एक स्थितिके प्राप्त होनेतक यही क्रम चालू रहता है। ९ ८२२. शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान - इस स्थानपर दीप्यमान प्रदेशपुंजके समान ही दीखनेवाले प्रदेशपुंजका भी असंख्यात गुणश्रेणिरूपसे अवस्थान देखा जाता है | * उसके आगे अन्तिम अन्तरस्थितिके प्राप्त होने तक विशेष हीन ग्रन्थ दिखाई देता है । ९ ८२३. दीप्यमान प्रदेशपुंजके अनुसार ही दीखनेवाले प्रदेशपुंजका भी विशेष हामिरूपसे अवस्थान स्पष्ट उपलब्ध होता है । * उससे आगे असंख्यातगुणा प्रदेशपुंज दिखाई देता है । ६ ८२४. यह सूत्र सुगम है । * उससे आगे विशेष हीन प्रदेशपुंज दिखाई देता है। Page #364 --------------------------------------------------------------------------  Page #365 --------------------------------------------------------------------------  Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ परिसिट्ठाणि १५ चारित्तमोहक्खबणा-अत्याहियारो सुत्तगाहा-चुण्णिसुत्ताणि 'एत्तो से काले प्पहुडि किट्टीकरणद्धा । छसु कम्मेसु संतेसु संच्छुद्ध सु जा कोधवेदगद्धा तिस्से कोधवेदगद्धाए तिण्णि भागा। जो तत्थ पढमतिभागो अस्सकण्णकरणद्धा, विदियो तिभागो किट्टीकरणद्धा, तदियतिभागो किट्टीवेदगद्धा । अस्सकण्णकरणे णिट्ठिदे तदो से काले अण्णो टिदिबंथो। अण्णमणुभागखंडयमस्सकण्णकरणेणेव आगाइदं । अण्णं ट्ठिदिखंडयं चदुण्हं धादिकम्माणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णामागोदवेदणीयाणमसंखेज्जा भागा। पढमसमयकिट्ठीकारगो कोधादो पुग्वफद्दएहितो च अपुव्वफद्दऐहितो च पदेसग्गमोकडियूण कोहकिट्टीओ करेदि । माणादो ओकड्डियण माणकिट्टीओ करेदि । मायादो ओकड्डियूण मायकिट्टोओ करेदि । लोभादो ओकड्डि यूण लोभकिट्टीओ करेदि । एदाओ सव्वाओ वि चउविहाओ किट्टीओ एयफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो। "पढमसमीए णिन्वत्तिदाणं किट्टीणं तिब्वमंददाए अप्पाबहुमं बत्तइस्सामो । तं जहा । लोहस्स जहणिया किट्टी थोवा। विदया किट्टी अणंतगुणा। एवमणंतगुणाए सेढीए जाव पढमाए संगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । तदो वियियाए संगहकिट्टीए जहणिया किट्टी अणंतगुणा । एस गुणगारो वारसण्हं पि संगहकिट्टीणं सत्थाणगुणगारेहिं अणंतगुणो । विदियाए संगहकिट्टीए सो चेव कमो जो पढमाए संगहकिट्टीए । 'तदो पुण विदियाए च तदियाए च संगहकिठ्ठीणमंतरं तारिसं चेव । एवमेदाओ लोभस्स तिण्णिं संगहकिट्टीओ । लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमा किट्टी तदो मायाए जहण्णकिट्टी अणंतगुणा । मायाए. वि तेणेव कमेण तिणि संगहकिट्टीओ। 'मायाए जा तदिया ‘संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो माणस्स जहणिया किट्ठी अणंतगुणा । माणस्स वि तेणेव कमेण तिणि संगहकिटीओ। माणस्स जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चेरिमादो किट्रीदो कोहस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा। कोहस्स वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टिओ। कोधस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमकिट्टी तदो लोभस्स अपुब्बफद्दयाणमादिवग्गणा अणंतगुणा । १°किट्टीअंतराणमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। "अप्पाबहुअस्स लहुआलावसंखेवपदस्थसण्णाणिक्खेवो ताव कायन्वो । तं जहा। एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किडीओ। तासिं अंतराणि वि अणंताणि । तेसिमंतराणं सण्णा किट्टी-अंतराइ णाम । संगहकिट्टीए च संगहकिट्टीए च अंतराणि एक्कारस । तेसि सण्णा संगहकिट्टीअंतराइ णाम । 'एदीए णामसण्णाए किट्टीअंतराणं संगहकिट्टीअंतराणं च अप्पाबहुअ वत्तइस्सामो। तं जहा । लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए जहण्णय किट्टीअंतरं थोवं । विदियं किट्टीअंतरमणंतगुणं । एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । लोभस्स चेव विदियाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । १. पृ० १। २. पृ० २। ३. पृ० ३। ४. पृ० ४। ५. पृ० ५। ६. पृ० ६ । ७. पृ० ७ । ८. पृ० ८। ९. पृ० ९ । १०. पृ० १० । ११. पृ० ११ । १२. पृ० १२ । १३. पृ० १३। . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जयधवला 'एवमणंतराणंतरेण जाव चरिमादो त्ति अणंतगणं । लोभस्स चेव तदियाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । एत्तो मायाए पढमसंगहकिट्टीए पढमकिट्टीअंतरमणंतगुणं । २एवमणंतराणंतरंण मायाए वि तिण्हं संगहकिट्टीणं किट्टीअंतराणि जहाकमेण अणंतगुणाए सेढीए णेदव्वाणि । एत्तो माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए पढमकिट्टोअंतरमणंतगुणं । माणस्स वि तिण्हं संगहकिटोणमंतराणि जहाकमेण अणंतगुणाए सेढीए णेदव्वाणि । एत्तो कोधस्स पढमसंगहकिट्टीए पढमकिटटीअंतरमणंतगणं । कोहस्स वि तिण्हं संगहकिटीणमंतराणि जहाकमेण जाव चरिमादो अंतरादो त्ति अणंतगुणाए सेढीए णेदव्वाणि । तदो लोभस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरम तगुणं । विदियसंगहकिट्टीअंतरमणतगुणं । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । "लोभस्स मायाए च अंतरमणंतगुणं । मायाए पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । मायाए माणस्स च अंतरमणंतगुणं । 'माणस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । बिदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । माणस्स च कोहस्स च अंतरमणंतगुणं । कोहस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । कोषस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अंतरमणंतगणं । पढमसमए किट्टीसु पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं बत्तइस्सामो। तं जहा। लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं । विदियाए किट्टीए विसेसहीणं । एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण जाव कोहस्स चरिमकिटि ति । 'परंपरोवणिधाए जहणियादो लोभकिट्टीदो उक्कस्सियाए कोधकिटटीए पदेसगं विसेसहीणमणंतभागेण । १°विदियसमए अण्णाओ अपव्वाओ किटटीओ करेदि पढमसमये णिव्वत्तिदकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ। "एक्कक्किसे संगहकिट्टीए हेवा अपुवाओ किट्टीओ करेदि । १२विदियसमए दिज्जमाणस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा । लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि । १३विदियाए किटटीए विसेसहीणमणंतभागेण । ताव अणंतभागहीणं जाव अपव्वाणं चरिमादो त्ति । तदो पढमसमए णिवत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज्जदिभागेण । १४तदो विदियाए अणंतभागहीणं । तेण परं पढमसमयणिवत्तिदासु लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए किट्टीसु अणंताराणंतरेण अणंतभागहीणं दिज्जमाणगं जाव पढमसंगहकिट्टीए चरिभकिट्टि ति । १५लोभस्स चेव विदियसमए विदियसंगहकिट्टीए तिस्से जहणियाए किट्टीए दिज्जमाणगं विसेसाहियमसंखेज्जदिभागेण । तेण परमणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो त्ति । तदो पढमसमयणिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज्जदिभागेण । तेण परं विसेसहीणमणंतभागेण जाव विदियसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । तदो जहा विदियसंगहकिट्टीए विधी तहा चेव तदियसंगहकिट्टीए विधी च। तदो लोभस्स चरिमादो किट्टीदो मायाए जा विदियसमए जहणिया किट्टी तिस्से दिज्जदि पदेसग्गं विसेसाहियमसंखेज्जदिभागेण । तदो पुण अणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादो त्ति । एवं जम्हि जम्हि अपुव्वाणं जहणिया किट्टी तम्हि तम्हि विससाहियमसंखेज्जदिभागेण अपुव्वाणं चरिमादो असंखेज्जदिभागहीणं । १"एदेण कमेण विदियसमए णि विखवमाणगस्स पदेसग्गस्स बारससु किट्ठिाणेसु असंखेज्जदिभागहीणं । एक्कारससु किट्टिट्ठाणेसु असंखेज्जदिभागुत्तरं दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स । १ सेसेसु किट्टिाणेसु अणंतभागहीणं दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स । विदियसमए दिज्जमाणयस्स पदेसग्गस्स एसा उट्टकूडसेढी । २०जं पुण विदियसमए दीसदि किट्टीसु पदेसग्गं १. पृ० १४ । २. पृ० १५ । ३. पृ० १६ । ४. पृ० १७ । ५. पृ० २० । ६. पृ० २१ । ७. पृ० २२ । ८. पृ० २२.। ९. पृ० २४ । १०. पृ० २५ । ११. पृ० २६ । १२. पृ० २७ । १३. पृ० २८ । १४. पृ० २९ । १५. पृ० ३० । १६. पृ० ३१ । १७. पृ० ३२। १८. पृ० ३३ । १९.१० ३४ । २०. पृ. ३५ । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि ३३५ तं जहणियाए बहुअं, सेसासु सव्वासु अणंतरोवणिधाए अणंतभागहीणं । जहा विदियसमए किट्टीसु पदेसग्गं तहा सव्विस्से किट्टीकरणद्धाए दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स तेवीसमुटकूडाणि । 'दिस्समाणयं सव्वम्हि अणंतभागहीणं । जं पदेसग्गं सब्वसमासेण पढमसमए किट्टीसु दिज्जदि तं थोवं । विदियसए असंखेज्जगुणं । तदियसमये असंखेज्जगुणं । एवं जाव चरिमादो त्ति असंखेज्जगुणं । किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए संजलणाणं छिदिबंधो चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तब्भहिया । सेसाणं कम्माणं ट्ठिदिबंधो संखेज्तणि वस्ससहस्साणि । तम्हि चेव किट्टीकरणद्धाए चरिमसमए मोहणीयस्स छिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि हाइदूण अवस्सिगमंतोमुहत्तम्भहियं जादं । तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णामा-गोद-वेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । किट्ठीओ करेंतो पुन्वफद्दयाणि अपुव्वफयाणि च वेदेदि, किट्टीओ ण वेदयदि । किट्ठीकरणद्धा णिट्रायदि पठमट्रिदीए आवलियाए सेसाए। से काले किटीओ पवेसेदि। "ताधे संजलणाणं दिदिबंधो चत्तारि मासा । द्विदिसंतकम्ममवस्साणि । तिण्हं धादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो ट्टिदिसंतकम्मं च संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । 'णामागोदवेदणीयाणं टिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ढिदिर्सतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अनुभागसंतकम्म कोहसंजलणस्स जं संतकम्म समयूणाए उदयावलियाए च्छट्टिदल्लिगाए तं सम्वघादी। संजलणाण जे दोआवलियबंधा दुसमयणा ते देसघादी। तं पुण फद्दयगदं । सेसं किटीगदं । 'तम्हि चेव पढमसमए कोहस्स पढमसंगहकिट्टीदो पदेसम्गमोकड्डियूण पढमदिदि करेदि । ताहे कोहस्स पढमाए संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा उदिण्णा । एदिस्से चेव कोहस्स पढमाए संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा वज्झति । 'सेसाओ दोसंगहकिट्रीओ ण वज्झंति ण वेदिज्जंति । पढमाए संगहकिट्टीए हे?दो जाओ किट्टीओ ण वज्झंति ण वेदिज्जति ताओ थोवाओ। जाओ किट्रीओ वेदेज्जति ण बझंति ताओ विसेसाहियाओ। तिस्से चेव पढमाए संगहकिट्टीए उवरि जाओ किट्टीओ ण वझंति ण वेदिज्जति ताओ विसेसाहियाओ। १°उवरि जाओ वेदिज्जति ण बसंति ताओ विसेसाहियाओ । मज्झे जाओ किट्टीओ वझंति च वेदिज्जति च ताओ असंखेज्जगुणाओ। किट्टीवेदगद्धा ताव थवणिज्जा। किट्टीकरणद्धाए ताव सुत्तफासो। 'तत्थ एक्कारस मूलगाहाओ । पढमाए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । (१०९) केवदिया किट्टीओ कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ। किट्टीए कि करणं लक्खणमध किं च किट्टीए ॥१६२।। १२एदिस्से गाहाए चत्तारि अत्था। ३तिण्णि भासगाहाओ। पढमभासगाहा वेसु अत्थेसु णिबद्धा। तिस्से समुक्कित्तणा। (११०) बारस णव छ तिण्णि य किट्टीओ होंति अध व अणंताओ । एक्केक्कम्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ ॥१६३॥ १४विहासा । जइ कोहेण उवट्ठायदि तदो बारस संगहकिट्टओ होंसि ।१५ माणेण उवट्टिदस्स णव संगहकिट्टीओ । मायाए उवट्ठिदस्स छ संगहकिट्टीओ । लोभेण उवट्ठिदस्स तिण्णि संगहकिट्टीओ । एवं बारस णव छ तिण्णि च । १६एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ त्ति एदेण कारणेण 'अधवा अणंताओ' त्ति । केवडियाओ किट्टीओ त्ति अत्थो समत्तो । कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ त्ति एवं सुत्तं । एक्केक्कम्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ त्ति विहासा। एक्केक्कम्हि कसाये तिण्णि तिणि संगहकिट्टिीओ त्ति एवं किदा १. पृ० ३६ । २. पृ० ३७। ३. पृ० ३८ । ४. पृ० ३९ । ५. पृ० ४० । ६. पृ० ४१ । ७. पृ० ४३ । ८. पृ० ४४। ९. पृ० ४५। १०. पृ० ४६। ११. पृ. ४७ । १२. पू० ४८ । १३. पृ० ४९ । १४. पृ० ५० । १५. ५० ५१ । १६. पृ० ५३ । १७. पृ० ५३ ।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जयधवला 'तिग तिग। एक्के किस्से संगहकिट्टीए अणंताओ किट्टीओ।त्ति एदेण'अधवा अणंताओ' जादा । २किट्टीए किं करणं ति एत्थ एक्का भासगाहा । तिस्से समुक्कित्तणा। (१११) किट्टी करेदि णियमा ओवटेंतो ठिदी य अणुभागे । वड्ढेतो किट्टीए अकारगो होदि बोद्धदव्वो ॥१६४॥ विहासा । जहा। जो किट्टीकारगो सो पदेसग्गं ठिदीहिं वा अणुभागेहिं वा ओकहुवि, ण उक्कड्ड दि । खवगो किट्टीकरणप्पहुडि जाव संकमो ताव ओकड्डगो पदेसगस्स ण उक्कडगो । उवसासगो पुण पढमसमयकारगमादि कादूण जाव चरिमसमयसकसायो ताव ओकड्डगो, ण पुण उक्कड्डगो । 'पडिवदमाणगो पुण पढमसमयसकसायप्यहुडि ओकड्डगो वि उक्कड्डगो वि । "लक्खणमध किं च किट्टीए” त्ति एत्थ एक्का भासगाहा । तिस्से समुक्कित्तणा। (११२) गुणसेढि अणंतगुणा लोभादी कोधपच्छिमपदादो। __ कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए लक्खणं एवं ॥१६५॥ "विहासा । लोभस्स जहणिया किट्टी अणुभागेहि थोवा । विदियकिट्टी अणुभामेहि अणंतगुणा । तदिया किट्टी अणुभागेहिं अणंतगुणा। एवमणंतराणंतरेण सव्वत्थ अणंतगुणा जाव कोधस्स चरिमकिट्टि त्ति । उक्कस्सिया वि किट्टी आदिफद्द यआदिवग्गणाए अणंतभागो । ‘एवं किट्टीसु थोवो अणुभागो । किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा किट्टी। एदं लक्खणं । एत्तो विदियमलगाहा । तं जहा। (११३) कदिसु च अणुभागेसु च ट्ठिदीसु वा केत्तियासु का किट्टी। सव्वासु वा ट्ठिदीसु च आहो सम्वासु पत्तेयं ।।१६६।। एदिस्से वे भासगाहाओ । १°मूलगाहापुरिमद्धे एक्का भासगाहा । तिस्से समुक्कित्तणा । (११४) किट्टी च ठिदिविसेसेसु असंखेज्जेसु णियमसा होदि । __ . णियमा अणुभागेसु च होदि हु किट्टी अर्णतेसु ॥१६७।। १'विहासा। कोधस्स पढमसंगहकिट्टि वेदेंतस्स तिस्से संगहकिट्टीए एक्केक्का किट्टी विदियट्ठिदीसु । सम्वासु पढमठ्ठिदीसु च उदयवज्जासु एक्केक्का किट्टी सव्वासु ट्ठिदीसु । १२उदयट्ठिदीए पुण वेदिज्जमाणियाए संगहकिट्टीए जाओ किट्टीओ तासिमसंखेज्जा भागा । सेसाणमवेदिज्जमाणिगाणं संगहकिट्टीणमेक्के क्का किट्टी सव्वासु विदियट्ठिदीसु, पढमट्ठिदीसु णस्थि । १३एक्केक्का किट्टी अणुभागेसु अणं तेसु । जेसु पुण एक्का ण तेसु विदिया। विदियाए नासगाहाए समुक्कित्तणा। (११५) सव्वाओ किट्टीओ विदियट्ठिदीए दु होंति सविस्से । जं किट्टि वेदयदे. तिस्से अंसो च पढमाए ॥१६७।। १५एदिस्से विहासा वत्ता चेव पढमभासगाहाए । १९एत्तो तदियाए मुलगाहाए समुक्कित्तणा । (११६) किट्टी च पदेसग्गेणणुभागग्गेण का च कालेण । अधिगा समा व हीणा गुणेण किं वा विसेसेण ॥१६८।। १"एदिस्से तिणि अत्था। किट्टी च पदेसग्गेणेत्ति पढमो अत्थो। एदम्मि पंच भासगाहाओ। १ अणुभागग्गेणेत्ति विदियो अत्थो । एत्थ एक्का भासगाहा । का च कालेणेत्ति ददिओ अत्थो । एत्थ छतब्भासगाहाओ। पढमे अत्थे भासगाहाणं समुक्कित्तणा। १. पृ० ५३ । २. पृ० ५४ । ३ पृ० ५५ । ४. पृ० ५६ । ५. पृ० ५७ । ६. पृ० ५८ । ७. पृ० ६१। ८. पृ० ६२ । ९. पृ० ६३। १०. पृ० ६४। ११. पृ० ६५। १२. पृ० ६६ । १३. पृ० ६७ । १४. पृ० ६८ १५. पृ० ६९ । १६. पृ० ७० । १७. पृ. ७१। १८. पृ० ७२ । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिठ्ठाणि ३३७ (११७)-'विदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा भवे पदेसग्गे । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥१७०॥ विहासा । तं जहा । कोहस्स विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं थोवं। पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं तेरसगुणमेत्तं । माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं थोवं । "विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागो। कोहस्स विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । मायाए पढमसंगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसे साहियं । तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसगं विसेसाहियं । 'विदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं त्रिसेसाहियं । 'कोहस्स पढमाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं । विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा। (११०) विदियादो पुण पढमा संखेज्जगुणा दु वग्गणग्गेण । विदियादो पुण तदिया कमेण सेसा विसेसहिया ॥१७॥ 'विहासा। जहा पदेसग्गेण विहासिदं तहा वग्गणग्गेण विहासिदव्वं । एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कितणा । तं जहा। (११९) जा हीणा अणुभागेणहिया सा बग्गणा पदेसग्गे । भागेणणंतिमेण दु अधिगा हीणा च बोद्धन्वा ॥१७२।। 'विहासा । तं जहा। जहाणियाए वग्गणाए पदेसग्गं बहुअं। "विदियाए वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । एवमणंतराणंतरेण विसेसहीणं सव्वत्थ । एत्तो चउत्थी भासगाहा । (१२०) १२कोधादिवग्गणादो सुध्दं कोधस्स उत्तरपदं . तु । सेसो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥१७३।। १३विहासा । एदीए गाहाए परंपरोवणिधाए सेढीए भणिदं होदि । कोहस्स जहण्णियादो वग्गणादो उक्कस्सियाए वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । एत्तो पंचमीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । "तं जहा । (१२१) एसो कमो च कोघे माणे णियमा च होदि मायाए । __ लोभम्हि च किट्टीए पत्तेगं होदि बोद्धव्वो ॥१७४॥ विहासा। जहा कोहे चउत्योए गाहात् विहासा तहा माण-माया-लोभाणं पि णेदव्वा । माणादिवग्गणादो सद्ध माणस्स उत्तरपदं तु। सेसो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥ १५एवं चेव मायादिवग्गणादो० । लोभादिवग्गणादो० । मूलगाहाए विदियपदमणुभागग्गेणेत्ति । एत्थ एक्का भासगाहा । तं जहा । (१२२) पढमा च अणंतगुणा विदियादो णियमसा दु अणुभागो । तदियादो पुण विदिया कमेण सेसा गुणेणहिया ॥१७५।। 'विहासा । संगहकिट्टि पडुच्च कोहस्स तदियाए संगहकिट्रीए अणुभागो थोवो । विदियाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो । पढमाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो। एवं माण-माया-लोभाणं पि । "मूलगाहाए तदियपदं 'का च कालणेत्ति । एत्थ छन्भासगाडाओ ।''तासिं समुक्कित्तणा च विहासा च । १. पृ० ७३ । २. पृ० ७४ । ३. पृ० ७७ । ४. पृ० ७८ । ५. पृ० ७९ । ६. पृ० ८० । ७. पृ० ८१ । ८. पृ० ८२। ९. पृ० ८३ । १०. पृ० ८४ । ११. पृ० ८५। १२. पृ० ८६ । १३. पृ० ८७ । १४. पृ० ८८ । १५. पृ० ८९ । १६. पृ० ९०। १७. पृ० ९१ । १८. पृ० ९२। १९. पृ० ९३ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जयधवला (१२३) पढमसमय किट्टीणं कलो वस्सं व दो व चत्तारि । अट्ठ च वस्साणि हिंदी विदियट्ठिदीए समा होदि ।। १७६ ।। "विहासा । जदि कोण उवट्ठिदो किट्टीओ वेदेदि तदो तस्स पढमसमए वेदगस्स मोहणीयस्स द्विदित कम्ममट्टवस्साणि । माणेण उवद्विदस्स पढमसमय किट्टीवेदगस्स द्विदिसंतकम्मं चत्तारि वस्साणि । मायाए उर्वादिस्स पढमसमय किट्टी वेदगस्स वेवस्साणि मोहणीयस्स ट्ठिसिसंतकम्मं । लोभेण उवट्ठिदस्स पढमसमयकिट्टीवेदगस्स मोहणीयस्स ट्ठिदिसंतकम्ममेक्कं वस्सं । "एतो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१२४) जं किंट्टि वेदयदे जवमज्झं सांतरं दुसु हिंदीसु । पढमा जं गुणसेढी उत्तरसेढी य विदिया दु || १७७ ॥ विहासा । जहा । जं किट्टि वेदयदे तिस्से उदयट्ठिदीए पदेसग्गं थोवं । विदियाए द्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगुणं जाव पढमट्टिदीए चरिमट्ठिदिति । तदो विदियट्ठिदीए जा आदिट्ठिदी तिस्से असंखेज्जगुणं । तो सव्वत्थ विसेसहीणं । जवमज्झं पढमट्टिदीए चरिमट्टिदीए च विदियट्टिदीए आदिट्ठिदीए च । 'एदं तं जवमज्झं सांतरं दुसु द्विदीसु । एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१२५) विदियट्ठिदिआदिपदा सुद्ध पुण होदि उत्तरपदं तु । सेसो असंखेज्जदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ।। १७८ ॥ विहासा । विदिया ट्रिट्ठदीए उक्कसियाए पदेसग्गं तिस्से चेव जहणियादो द्विदीदो सुद्ध सुद्धसेसं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागियं । एतो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा । (१२६) उदयादि या ट्ठिदीओ निरंतरं तासु होइ गुणसेढी । उदयादिपदेसगं गुणेण गणणा दियंतेण ॥ १७९ ॥ ११ विहासा । उदयट्ठिदिपदेसग्गं थोवं । विदियाए ट्ठिदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । १२एवं सब्विस्से पढमट्ठिी । एतो पंचमीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा । (१२७) उदयादिसुट्ठिदीसु य जं कम्मं नियमसा दु तं हरस्सं । पविसदि ट्ठिदिक्खएण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥ १९०॥ । १३ विहासा । तं जहा । जं अस्सि समए उदिष्णं पदेसग्गं तं थोवं । से काले ट्ठिदिक्खएण उदयं पविसदि पदेसग्गं तमसंखेज्जगुणं । १४ एवं सव्वत्य किट्टीवेदगद्धाए । एत्तो छट्ठीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा । (१२८) वेदगकालो किट्टीय पच्छिमाए दु नियमसा हरस्सो । संखेज्जदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणाधिगो ॥ १८९ ॥ १ विहासा । पच्छिमकिट्टीमंतोमुहुत्तं वेदयदि, तिस्से वेदगकालो थोवो । एक्कारसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । दसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । नवमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । age किट्टी वेदकालो विसेसाहिओ । सत्तमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । छट्ठीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । पंचमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । चउत्थीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । तदियाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । विदियाए किट्टीए वेदगकालो सिसेसाहिओ । पढमाए किट्टीए वेदकालो विसेसाहिओ । विसेसो संखेज्जदिभागो । " एतो चउत्थीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा । (१२९) दिसु गदि भवेसु य दिट्ठदि अणुभागेसु वा कसाए । कम्माणि पुव्ववद्धाणि कदिसु किट्टीसु च ट्ठिदीसु ।। १८२ ॥ पु० ९८ । १०५ । ६. पृ० १०० । १२. पृ०१०६ । ११२ । १८. पृ० ११३ । १. पृ० ९४ । २. पृ० ९५ । ३. पृ० ९६ । ४. पृ० ९७ । ५. ७. पृ० १०१ । ८. पृ० १०२ । ९. पृ० १०३ । १०. पृ० १०४ । ११. पृ० १३. पृ० १०७ । १४. पू० १०८ । १५. पृ० १०९१६. ० १११ । १७. पृ० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि ३३९ 'एदीस्से तिण्णि भासगाहो । तं जहा । (१३०) दोसु गदीसु अभज्जाणि दोसु मज्जाणि पुन्वबद्धाणि । एइंदियकाएसु च पंचसु भज्जा ण च तसेसु ।।१८३।। विहासा । एदस्स खवगस्स दुगदिसमज्जिदं कम्मणियमा अस्थि । तं जहा-तिरिक्खगदिसमज्जिदं च मणुसगदिसमज्जिदं च । देवगदिसमज्जिदं च णिरयगदिसमज्जिदं च भजियव्वं । 'पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिकाइएसु तत्तो एक्केक्केण काएण समज्जिदं भजियव्वं । "तसकाइयं समज्जिदं णियमा अस्थि । एत्तो एक्केक्काए गदीए कायेहिं च समज्जिदल्लग्गस्स जहण्णुक्कस्सपदेसग्गस्स पमाणाणुगमो च अप्पाबहुअं च कायग्वं । "एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१३१) 'एइंदियभवग्गहणेहिं असंखज्जेहिं णियमसा बद्ध। एगादेगुत्तरियं संखेजेहिं य तसभवेहिं ।।१८४॥ 'एदिस्से गाहाए विहामा चेव कायव्वा । "एत्तो तदियाए भासागाहाए समूक्कित्तणा॥ (१३२) उक्कस्सयअणुभागे ट्ठिदिउक्कस्साणि पुवबद्धाणि । ___ भजियव्वाणि अभज्जाणि होति णियमा कसाएसु ॥१८५॥ ११विहासा । उक्कस्सट्ठिदिबद्धाणि उक्कस्सअणुभागबद्धाणि च भजिदव्वाणि । कोह-माण-माया-लोभोवजुत्तेहिं बद्धाणि अभजियव्वाणि । १२एत्तो पंचमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा। (१३३) पज्जत्तापज्जेत्तेण तधा त्थी-पुण्णवू सयमिस्सेण । सम्मत्ते मिच्छत्ते केण व जोगोवजोगेण ।।१८६।। १३एत्थ चत्तारि भासगाहाओ । तं जहा। (१३४) पज्जत्तापज्जत्ते मिच्छत्त गसए च सम्मत्ते । कम्माणि अभज्जाणि दु थी पुरिसे मिस्सगे भज्जा ॥१८७॥ १४विहासा । पज्जत्तेण अपज्जत्तेण मिच्छाइट्ठिणा सम्माइट्ठिणा णवुसयवेदेण च एवंभावभूदेण बद्धाणि णियमा अस्थि । इत्थीए पुरिसेण सम्मामिच्छाइट्ठिणा च एवंभावभूदेण बद्धाणि भज्जाणि । "एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । तं जहा । (१३५) ओरालिये सरीरे ओरालियमिस्सए च जोगे दु । चदुविधमण-वचिजोगे च अभज्जगा सेसगे भज्जा ।।१८८।। . विहासा। १ ओरालिएण ओरालियमिस्सएण चउश्विहेण मणजोगेण चउम्विहेण वचिजोगेण बद्धाणि अभज्जाणि । सेसजोगेसु बद्धाणि भज्जाणि । एत्तो तदियभासगाहा । तं जहा । (१३६) अध सुद-मदिउवजोगे होंति अभज्जाणि पुव्वबद्धाणि । भज्जाणि च पच्चक्खे सु दोसु छदुमत्थणाणेसु ॥१८९।। "विहासा । सुदणाणे अण्णाणे मदिणाणे अण्णाणे एदेसु चदुसु उवजोगेसु पुव्वबद्धाणि णियमा अस्थि । ओहिणाणे अण्णाणे मणपज्जवणाणे एदेसु तिसु उवजोगेसु पुन्वबद्धाणि भजियव्वाणि । एत्यो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा। 'कम्माणि अभज्जाणि दु अणगार-अचक्खुदंसणुवजोगे। अध ओहिदसणे पुण उवजोगे होंति भज्जाणि ॥१९०॥ १. पृ० ११५। २. पृ० ११८ । ३. पृ० ११९ । ४. पृ० १२० । ५. पृ० १२१ । ६. पृ० १२२ । ७. पृ० १२३ । ८. पृ० १२४ । ९. पृ० १२५ । १०. पृ. १२६ । ११. पृ० १२७ । १२. पृ० १२८ । १३. पृ० १२९ । १४. पृ० १३१ । १५. पृ० १३२ । १६. पृ० १३३ । १७. प.० १३४ । १८. पृ० १३५ । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जयधवला विहासा एसा । एत्तो छट्ठी मूलगाहा । (१३८) किं लेस्साए बद्धाणि केसु कम्मेसु वट्टमाणेण । सादेण असादेण च लिंगेण च कम्हि खेतम्हि ।।१९१॥ एदिस्से दो भासगाहाओ । तासिं समुक्कित्तणा । (१३९) लेस्सा साद असादे च अभज्जा कम्म सिप्प लिंगे च । खेत्तम्हि च भज्जाणि दु समाविभागे अभज्जाणि ॥१९२।। "विहासा । तं जहा । छसु लेस्सासु सादेण असादेण च बद्धाणि अभज्जाणि। कम्म सिप्पेसु भज्जाणि । कम्माणि जहा - अंगारकम्मं वण्णकम्मं पव्वदकम्ममेदेसु कम्मेसु भज्जाणि। सवलिंगेसु च भज्जाणि । "खेतम्हि सिया अधोलोगिगं सिया उडढलोगिगं णियमा तिरियलोगिगं । अधोलोगमड्ढलोगिगं च सुद्ध पत्थि । 'ओसप्पिणीए च उस्सप्पिणीए च सद्धणत्थि । एत्तो विदियाए भासगाए समुक्कित्तणा। (१४०) एदाणि पुन्वबढाणि होति सव्वेसु ट्ठिदिविसेसेसु । सम्वेसु चाणुभागेसु णियमसा सव्वकिट्ठीसु ॥१९३॥ "विहासा। जाणि अभज्जाणि पुव्वबद्धाणि ताणि णियमा सव्वेसु ट्ठिदिविसेसेसु णियमा सम्वासु किट्टीसु । "एत्तो सत्तमीए मुलगाहाए समुक्कित्तणा । (१४१) एगसमयपबद्धा पुण अच्छुत्ता केत्तिगा कहिं ट्ठिदीसु । भवबदा अच्छुत्ता ट्ठिदीसु कहिं केत्तिया होंति ॥१९४॥ 'एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ। तासिं समुक्कित्तणा। (१४२) छण्हमावलियाणं अच्छुत्ता णियमसा समयपबद्धा । सन्वेसु ठिदिषिसेसाणुभागेसु च चउण्हं पि ॥१९५।। "विहासा । जत्तो पाए अंतरं कदं तत्तो पाए समयपबद्धो छसु आवलियासु गदासु उदीरिज्जदि । "अंतरादो कदादो तत्तो छस आवलियास गदास तेण परं छण्हमावलियाणं समयपबद्धा उदये अच्छुद्धा भवंति । भवबद्धा पुण णियमा सब्वे उदये संछुद्धा भवंति । एत्तो विदियभासगाहा । (१४३) 3जा चावि बज्झमाणी आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुवावलिया णियमा अणंतरा चदुसु किट्टीस ।। "विहासा। जं पदेसग्गं बज्झमाणयं कोधस्स तं पदेसग्गं सव्वं बंधावलियं कोहस्स पढमसंगहकिट्टीए दिस्सइ । तदो आवलियादिक्कत तिसु वि कोहकिट्टीसु दीसइ माणस्स च पढमकिट्टीए ।'एवं विदियावलिया चदुसु किट्टीसु दीसइ । तदो जं पदेसग्गं कोहादो माणस्स पढमकिट्टीए गदं तं पदेसग्गं तदो आवलियाए पुण्णाए माणस्स विदिय-तदियासु मायाए च पढमसंगहकिट्टीए संकमदि । एवं तदिया आवलिया सत्तसु किट्टीसु त्ति भण्णइ । १ कोहपदेसग्गं संछन्भमाणयं मायाए पढमकिटीए संपत्तं तं पदेसग्गं तत्तो आवलियादिक्कत मायाए विदिय-तदियासु च किट्री लोभस्स च पढमकिटीए संकमदि । एवं चउत्थी आवलिया दससु किट्टीसु . ति भण्णइ । जं कोहपदेसग्गं संछब्भमाणं लोभस्स पढमकिट्टीए संपत्तं तदो आवलियादिक्कतं लोभस्स विदियतदियासु किट्टीसु दीसइ । "एवं पंचमी आवलिया सम्वासु किट्टीसु त्ति भण्णइ। तदियाए वि भासगाहाए अत्थो एत्येव परूविदो। णवरि समुक्कित्तणा कायव्वा । तं जहा । (१४४) तदिया सत्तसु किट्टीसु चउत्थी दससु होइ किटीसु । तेण परं सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥१९७॥ १. पृ० १३६ । २. पृ०.१३७ । ३. पृ० १४० । ४. पृ० १४१ । ५. पृ० १४२ । ६. पृ० १४३ । ७. ९४५ । ८. पृ० १४६ । ९. पृ० १४८। १०. पृ० १५० । ११. पृ० १५१ । १२. पृ० १५२ । १३. ११५३ । १४. पृ० १५४ । १५. पृ० १५५ । १६. पृ० १५६ । १७. पृ० १५७ । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि 'एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ३४१ ( १४५) एदे समयबद्धा अच्छुत्ता नियमसा इह भवम्मि । सेसा भवबद्धा खलु संछुद्धा होंति बोद्धव्वा ॥ १९८ ॥ एदिस्से गाहाए अत्यो पढमभासगाहाए चैव परुविदो । एत्तो अट्ठमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । (१४६) एगसमयबद्धाणं सेसाणि च कदिमु द्विदिविसेसेसु । भवसे सगाणि कदिसु च कदि कदि वा एगसमएण ॥ १९९ ॥ एत्थ चत्तारि भावगाहाओ । तासि समुक्कित्तणा । ट्ठिदिवि से से भवसेस गसमयपबद्ध सेसाणि । (१४७) एक म्हि नियमा अणुभागेसु य भवंति सेसा अनंतेसु ।। २०० ।। विहासा । "समयपबद्धसेसयं णाम कि । जं समयपबद्धस्स वेदिदसंसगं पदेसग्गं दिस्सइ तम्मि अपरिसेसिदम्मि एगसमयेण उदय मागदम्मि तस्स समयपबद्धस्स अण्णो कम्मपदेसो वा णत्थि तं समयपबद्ध से सगं णाम । एवं चैव भवबद्ध से सयं । एदीए सण्णापरूवणाए पढमाए भासगाहाए विहासा । तं जहा । एक्कस्हि ट्ठिदिविसेसे कदिण्हं समयपबद्धाणं से साणि होज्जासु ? एक्क्स्स वा समयपबद्धस्स दोण्हं वा तिन्हं वा, एवं गंतूण उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं । 'भवबद्ध सेसयाणि वि एवक म्हि द्विदिवि से से एक्कस्स वा भवबद्धस्स दोन्हं वा तिन्हं वा, एवं गंतूण उवकसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं भवबद्धागं । 'णियमा अनंतेसु अणुभागेसु भवबद्धसे सगं वा समयपबद्धसे सगं वा । एतो विदियाए भासगाहाए समुत्तिणा । तं जहा । (१४८) द्विदिउत्तर सेढीए गुत्तरमे गादी भवसे ससमयपबद्ध सेसाणि । उत्तरसेढो असंखेज्जा || २०१ ॥ १० विहासा । तं जहा । समयपबद्धससयमेक्कम्मि ट्ठिदिविसेसे दोसु वा तीसु वा एगादिएगुत्तरमुक्कस्सेण विसिवादीसु पढमद्विदीए च समयाहिय उदयावलियं मोत्त्ण सेसासु सव्वासु ठिदीसु णाणासमयपबद्धसेसाणं णाणेगभवबद्धसेसयागं च । ११ एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१४९) एक्ट्ठदिविसेसे सेसाणि ण जत्थ होंति सामण्णा । आवलिंगासंखेज्जदिभागो तहि तारिसो समयो ॥ २०२ ॥ १२ विहासा । सामण्णसण्णा ताव । एकम्मि ठिदिविसेसे जम्हि समयपबद्ध सेसयमत्थि सा ट्टिदी सामण्णा त्तिणादन्वा । जम्मि णत्थि सा द्विदी असामण्णा त्ति णादव्वा । १३ एवमसामण्णाओ द्विदीओ एक्का वा दो वा उक्क़स्सेण अणुत्रद्धाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ । एक्केक्केण असामण्णाओ थोवाओ । दुगेण विसेसाहियाओ । तिगण विसेसाहियाओ । आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणाओ । " आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमज्झं । १६ समयपबद्धस्स एक्केक्कस्स सेसगमे विकस्स द्विदीए तं समयपबद्धा थोवा । जे दोसुट्ठिदीसुते समयबद्धा विसेसाहिया । " आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणा । " आवलियाए असंखेज्जदिभागे जवमज्झ । दो हीयमाणट्टणाणि वासपुधत्तं । १९ एत्तो चउत्थाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१५०) एदेण अंतरेण दु अपच्छिमाए दु पच्छिमे समए । भवसमय सगाणि दु पियमा तम्हि उत्तरपदाणि ॥ २०३ ॥ १. पृ० १५८ । २. पृ० १५९ । ३. पृ० १६२ । ७. पृ० १६७ । ८. पृ० १६८ । ९. पू० १६९ । १०. पृ० १७१ । १३. पृ० १७६ । १४. पृ० १७७ । १५. पृ० १७८ । १६. पृ० १८१ १९. ० १८४ । ४. पृ० १६३ । ५. १६४ । ६. पृ० १६६ । ११. पृ० १७३ । १२. पू० । १७. पू० १८२ । १८. पृ० १७५ । १८३ । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला "विहासा । समयपबद्धसेसयं जिससे हिंदीए णत्थि तदो विदियाए द्विदीए ण होज्ज, तदियाए ठिदीए ण होज्ज, तदो चउत्थीए ण होज्ज । एवमुवकस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीसु द्विदीसु ण होज्ज समयबद्धसेस । आवलियाए असंखेज्जदिभागं गंतूण नियमा समयपबद्ध से सएण अविरहिदाओ द्विदीओ । ओ ओ अविरहिदद्विदीओ ताओ एगसमयपबद्ध सेसएण अविरहिदाओ थोत्राओ । अणेगाणं समयपबद्धाणं सण अविरहिदाओ असंखेज्जगुणाओ । पलिदोवमस्स अस्खेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धाणं सेसएण अविरहिदाओ असंखेज्जा भागा। एसा सव्वा चदुहिं गाहाहिं खवगस्स परूवणा कदा । एदाओ चेव चत्तारि वि गाहाओ अभवसिद्धियपाओगे णेदव्वाओ । " तत्थ पुग्वं गमणिज्जा जिल्लवणद्वाणाण मुव देसपरूवणा । एत्थ दुविहो उवसो । एक्केण उवदेसेण कम्मट्टिदीए असंखज्जा भागा पिल्लेवणट्टाणाणि । एक्केण उवएसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । जो पवाइज्जइ उवएसो तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि वग्गमूलाणि पिल्लेवणट्टाणाणि । 'अदीदे काले एगजीवस्स जहण्णए पिल्लेवणट्टाणे पिल्लेविदपुव्वाणं समयपबद्धाणमेसो कालो थोवो । 'समयुत्तरे विसेसाहिओ । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते दुगुणो । 'ठाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमज्झं । ११ णाणागुणहाणिद्वाणंतराणि थोवाणि । एयगुणहाणि द्राणंतरमसंखेज्जगुणं । १२ एकहि द्विदिविसेसे एक्कस्स वा समयपबद्धस्स सेसयं दोहं वा तिन्हं वा उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं समयपबद्धानं । एवं चैव भवबद्धसे साणि । पढमाए गाहाए अत्यो समत्तो भवदि । १३ जव मझं कायव्वं विस्सरिदं लिहिदुं । ३४२ १० १४ विदिया भागाहाए अत्यो जहावसरपत्तो । तं जहा । समयपबद्ध से सय मे विकसे द्विदीए होज्ज, दोस्ती वा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेसु । १५ णिल्लेवणट्टाणाणमसंखेज्जदिभागे समयपबद्ध सयाणि । समयपबद्धसेसयाणि एक्कम्हि ट्ठिदिविसेसे जाणि ताणि योवाणि । दोसु द्विदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । तिट्ठिदिविसेसेसु विसेसाहियाणि । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे जवमज्झं । णाणंतराणि थोवाणि । " एयमंतरमसंखेज्जगुणं । एवं भत्रबद्ध सेसयाणि । १" विदियाए गाहाए अत्यो समत्तो भवदि । दिया गाहाए अत्थो । असामण्णाओ द्विदीओ एक्को वा दो वा तिष्णि वा एवमणुबद्धाओ उक्कण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । १९ एवं तदियाए गाहाए अत्यो समत्तो। एत्तो चउत्थीए गाहाए अस्यो । मामण्णद्विदीओ एक्कंतरिदाओ थोवाओ। २० दुअंतरिदा विसेसाहिया । एवं गंतूण पलिदोवमस्स अमंखेज्जदिभागे जवमज्झं । २१ णाणागुणहाणि सलागाणि थोवाणि । एक्कंतरमसंखेज्जगुणं । एदमक्ख व गस्स णादव्वं । २२ खवगस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागो अंतरं । इमस्स पुण सामण्णाणं द्विदीण मंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । जहा समयपबद्धसेसयाणि तहा भवबद्ध सेसाणि कादव्वाणि । एवं च उत्थी गाहाए त्यो समत्तो भवदि । अट्ठमीए मूलगाहाए विहासा समत्ता भवदि । अण्णा अभवसिद्धियपाओगे परूवणा । २४ तं जहा । भवबद्धाणं णिल्लेवणद्वाणं जहण्णगं समयपबद्धस्स णिल्लेवणट्ठाणाणं जहष्णयादो असंखेज्जाओ ट्ठिदीओ अब्भुस्सरिण । २५ तदो जवमज्झं कायभ्वं । जम्हि चैव समयपबद्धणि हलेवणट्ठाण ाणं जवमज्झं तम्हि चेव भवबद्धणिल्लेवण ट्ठाणाणं जवमज्झं । २६अदीदे काले जे समयपबद्धा एक्केण पदेसग्गेण पिल्लेविदा ते थोवा । वहि पदेसेहि विसेसाहिया । एवमणं तवणिधाए अनंताणि ट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । २७ ठाणाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपढिभागे जवमज्झं । १. पृ० १८५ । २. पृ० १८६ । ३. पृ० १८७ । ४. पृ० १८९ । ५. पृ० १९० । ६. पृ० १९१ । ७. पृ० १९२ । ८. पृ० १९३ । ९. पृ० १९४ । १०. पृ० १९५ । ११. पृ० १९६ । १२. पृ० १९७ । १३. पृ० १९८ । १४. पृ० २०० १५. पृ० २०१ । १६. पृ० २०२ । १७. पृ० २०३ । १८. पृ० २०४ । १९. पृ० २०५ । २० पृ० २०६ । २१. पृ० २०७ । २२. २०८ । २३. पृ० २१० । २४. पृ० २११ | २५. पृ० २१३ । २६. पृ० २१५ । २७. पृ० २१६ । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाण ३४३ 'णाणंतरं श्रोवं । एगंतरमणंतगुणं | अंतराणि अंतरष्ट्ठिदाए पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिभागो । तराणि योवाणि । एकांत रमणंतगुणं । खवगस्स वा अक्खवगस्स वा समयपबद्धाणं वा भवबद्धाणं वा अणुसमय णिल्लेव कालो एगसमइओ बहुगो । * दुसमइओ विसेसहीणो । एवं गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणहोणो । उक अणुसमय जिल्लेवणकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागो । "अक्खवगस्स एगसमइयेण अंतरेण निल्लेविदा समयबद्धा वा भवबद्धा वा थोवा । दुममएण अंतरेण जिल्लेविदा विसेसाहिया । एवं गंतून पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे दुगुणा । द्वाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमज्झ । उक्कस्यं पि णिल्लेवणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । 'एक्केण समयेण पिल्लेविज्जति समयपबद्धा वा भवबद्धा वा एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा; उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेण वि जवमज्झं । एक्केक्केण णिल्लेविज्जति ते थोवा । 'दोणि पिल्लेविज्जति विसेसाहिया । तिष्णि पिल्लेविज्जति विसेसाहिया । एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखे दिभागे दुगुणा । १° णाणंतराणि थोवाणि । एक्कंतरछेदणाणि वि असंखेज्जगुणाणि । अप्पा बहुअं । ११ सव्वथोवमणुसमय णिल्ले वणकंडयमुक्कस्सयं । जे एगगमएण पिल्लेविज्जंति भवबद्धा ते असंखेज्जगुणा । समयपबद्धा एगसमयेण जिल्लेविज्जति असंखेज्जगुणा । समयपबद्धसेसएण विरहिदाओ णिरंतराओ द्विदीओ असंखेज्जगुणाओ । १२वालिदोवमवग्गमूलम संखेज्जगुणं । णिसेगगुणहाणिट्ठाणंत रमसंखेज्जगुणं । भवबद्धाणं णिल्लेवणट्ठाणि असंखेज्जगुणाणि । समयपबद्धाणं णिल्लेवणद्वाणाणि विसेसाहियाणि । १३ समयपबद्धस्स कम्मट्ठिदीए अंतो अणुसमयअवेदगकालो असंखेज्जगुणो । समयपबद्धस्स कम्मद्विदीए अंतो अणुसमयवेदगकालो असंखेज्जगुणो । १४ सन्वो अवेदगकालो असंखेज्जगुणो । सव्वो वेदगकालो असंखेज्जगुणो । कम्मट्टिदी विसेसाहिया । "नवमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । (१५१) किट्टीकदम्मि कम्मे ट्ठिदि अणुभागेसु केसु सेसाणि । कम्माणि पुव्वबद्धाणि झादिणाणि ॥ २०४ ॥ १६ दिसे दो भासगाहाओ । तासि समुक्कित्तणा । (१५२) किट्टीकदम्मि कम्मे णामागोदाणि वेदणीयं च । वस्सेसु असंखेज्जेसु सेसगा होंति संखेज्जा ॥ २०५ ॥ विहासा । १८ किट्टीकरणे निट्टिदे किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेजाणिवाणि | मोहणीयस्स ट्ठिदिसंतकम्ममट्टवस्साणि । तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । एत्तो विदियाए भासागाहाए समुक्कित्तणा । (१५३) किट्टीकदम्मि कम्मे सादं सुहणाममुच्चगोदं च । बंध दि च सदसहस्से द्विदिअणुभागे सुदुक्कसं । । २०६ ॥ १९ विहासा । किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । णामागोदवेदिणी याणं तिष्णं चेव घादिकम्माणं ट्ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । नामागोदवेदणीयाणमणुभागबंधो तस्समयउक्कस्सगो । २० एत्तो ताव दो मूलगाहाओ थवणिज्जाओ। " किट्टीवेदगस्स ताव परूवणा कायव्वा । तं जहा । किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं द्विदिसंतकम्ममट्ठ वस्साणि । तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिसंत क्रम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णामागोदवेदणीयाणं ट्टिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । संजलगाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २२ किट्टीणं पढमसमयवेदग पहुडि मोहणीयस्स अणुभागाणमणुसमयोवट्टणा । श्वढमसमय किट्टी वेदगस्स को किट्टी १. पृ० २१७ । २. पृ० २१८ । ३. ० २१९ । ४. ० २२० । ५. ० २२१ । ६. पृ० २२२ । ७. पृ० २२३ । ८. पृ० २२४ । ९० २२५ । १०. ० २२६ । ११. ० २२७ । १२. पृ० २२८ । १३. ० २२९ । १४. पृ० २३० । १५. पृ० २३१ । १६. पृ० २३२ । १७. १० २३३ । १८. ५० २३४ । १९. ० २३६ । २० पृ० २३७ । २१. पृ० २३८ । २२. पृ० २३९ । २३. पू० २४० । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जयधवला उदये उक्कस्सिया बहुगी । बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा । बिदियसमये उदये उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा । बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा । 'एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । पढमसमये बंधे जहणिया किट्टी तिव्वाणुभागा । उदये जहणिया मिट्टो अणंतगुणहीणा । विविणसमये बंधा (वद्धा) जहणिया किट्टी अणंत गुणहीणा उदये जहणिया अणंतगुणहीणा । एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । समये समये णिव्वग्गणाओ जहणियाओ वि य। एसा कोहकिट्टीए परूवणा। किट्टीणं पढमसमये वेदगस्स माणस्स पढमाए संगह किट्टीए किट्टीणमसंखेज्जा भागा बज्झंति । सेसाओ संगहक्ट्रिीओ ण बझंति । एवं मायाए । एवं लोभस्स वि । किट्टीणं पढमसमयरेदगो बारसण्हं पि संगहकिट्टीणमग्गकिट्रिमादि कादूण एक्के किस्से संगहकिट्टीए असंखेज्जदिभागं विणासे दि । “कोहस्स पढमसंगहकिदि मोत्तण सेसाणमेकारसण्डं संगहकिट्रीणं अण्णाओ अव्याओ विडीओ णिवत्तदि। 'ताओ अपवाओ किटीओ कदभादो पदेसग्गादो णिवत्तेदि । बज्झमाणयादो च संकामिज्जमाणयादो च पदेसग्गादो णिवत्तेदि । "बज्झमाणियादो धोवाओ णिवत्तेदि । संकामिज्जमाणयादो असंखेज्जगुणाओ। जाओ ताओ बज्झमाणयादो पदेसग्गादो णिव्वत्तिज्जति ताओ चदुसु पढमसंगहकिट्टीसु । 'ताओ कदमम्मि ओगासे ? एक्केक्किस्से संगहकिट्टीए किट्टीअंतरेसु । किं सम्वेसु किट्टीअंतरेसु आहो ण सम्वेसु ? ण सव्वेसु । जइ ण सब्वेसु कदमेसू अंतरेसु अपुवाओ णिवत्तयदि । उवसंदरिसणा। बज्झमणियाणं जं पढमं किट्टीअंतरं तत्थ पत्थि । एवं असंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि अविच्छिदूण । किट्टीअंतराणि अंतरट्टदाए असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । "एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिवत्तिज्जदि। पुणो वि एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिवत्तिज्जदि । १२बज्झमाणयस्स पदेसग्गस्स मो। तत्थ जहणियाए किट्टीए बज्झमाणियाए बहुअं। विदियाए किट्रीए विसेसहीणमणंतभागेण ।। १३तदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । चउत्यीए विसेसहीणं । एवमणतरोवणिधाए ताव विसेसहीणं जाव अयुवकिट्टिमपत्तो त्ति । "अपुवाए किट्टीए अणंतगुणं । अपुव्वादो किट्टीदो जा अणंतरकिट्टी तत्थ अणंत गुणहीणं । १५तदो पुणो अणंतभागहीणं । एवं सेसासु सव्वासु । जाओ संकामिज्जमाणियादो पदेसग्गादो अपुवाओ किट्टोओ णिव्वत्तिज्जंति ताओ दुसु ओगासेसु । १६तं जहा। किट्टीअंतरेसु च संगहकिट्टीअंतरेसु च। जाओ संगहकिट्टीअंतरेसु ताओ थोवाओ। १ जाओ किट्टीअंतरेसु ताओअसंखेज्जगुणाओ। जाओ संगहकिट्टीअंतरेसु तासि जहा किट्टीकरणे अपुन्वाणं णिवत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा काययो । “जाओ किट्टीअंतरेसु तासि जहा बज्झमाणयेण पदेसग्गेण अपुव्वाणं णिव्वत्ति जजमाणियाणं किठीणं विधी तहा काययो। णवरि थोवदरगाणि किटीअंतराणि गंतण संछनमाणपदेसग्गेण अपुव्वा किट्टी णिवत्तिज्जमाणिगा दिस्सदि । ताणि किट्टीअंतराणि पगणणादी पलिपोपमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो। २°पढमसमयकिट्टीवेदगस्स जा कोहपढमसंगहकिट्री तिस्से असंणेज्जदिभागी विणासिज्जदि । २१किट्टीओ जाओ पढमसमये विणासिज्जति ताओ बहुगीओ। जाओ विदियसमये विणासिज्जति ताओ असंखेज्जगुणहीणाओ। एवं ताव दुचरिमसमयअविणट्ठकोहपढमसंगपकिट्टि त्ति । २२एदेण सव्वेण तिचरिमसमयमेत्तीओ सव्वकिट्टीसु पढमविदियसमयवेदगस्स कोधस्स पढमकिट्टीए अवज्झमाणियाणं किट्टीणमसंखेज्जदिभागो। २३कोहस्स पढमकिट्टि वेददयमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्ठिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए एदम्हि समये जो विही तं विहिं वत्तइस्सासो । १. पृ० २४१ । २. पृ० २४२ । ३. पृ० २४३ १.४. पृ० २४४ । ५. पृ० २४५ । ६. पृ० २४६ । ७. पृ० २४७ । ८. पृ० २४८ । ९. पृ० २४९ । १०. पृ० २५० । ११. पृ० २५१ । १२. पृ० २५२ । १३. पृ० २५३ । १४. पृ० २५४ । १५. पृ० २५५ । १६. पृ० २५६ । १७. पृ० २५७ । १८. पृ०२६० । १९. पृ० २६२ । २०. पृ० २६३ । २१. पृ० २६४ । २२. पृ० २६५ । २३. पृ० २६६ । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्टाणि ३४५ तं जहा । ताधे चेव कोहस्स जहण्णगो दिदि उदीरगो। कोहपढमकिट्रीए चरिमसमयवेदगो जादो। 'जा पुवपवत्ता संजलणाणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयमोवट्टणा सा तहा चेव [३]। चदुसंजलणाणं दिदिबंधो वे मासा, चत्तालीसं च दिवसा अंतोमुत्तुणा [४] । संजलणाणं द्विदिसंतकम्म छ वस्साणि अटू च मासा मंतोमहतणा [५] । तिहूं घादिकम्माणं ठिदिबंधो दसवस्साणि अंतोमहत्तणाणि [६] । घादिकम्माणं ट्रिदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्साणि[७] । सेसाणं कम्माणं द्विदिसंतसम्मममंखेज्जाणि वस्साणि [८]। उसे काले कोहस्स . विदियकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण कोहस्स पढमदिदि करेदि । ताधे कोधस्स पढमसंगहकिट्रीए संतकम्मं दो आवलियबंधा दुसमयूणा सेमा, जं च उदयावलियं पविटुं तं च सेसं । ताधे कोहस्स विदियकिट्टीवेदगो। जो कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्त विधी सो चेव कोहस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स विधी कायव्वो । तं जहा। उदिषगाणं किट्टीणं बज्झमाणीणं किट्टीणं विणासिज्जमाणीणं अप्पुव्वाणं णिव्वत्तिज्जमाणियाण बज्झमाणेण च पदेसग्गेण संछुभमाणेण च पदेसग्गेण णिवत्तिज्जमाणियाणं । एत्थ संकममाणयस्स पदेसग्गस्स विधि वत्तइस्सामो। तं जहा। कोधविदिय किट्रीदो पदेसग्गं कोहत दियं च माणपढमं च गच्छदि । कोहस्स तदियादो किट्रीदो माणस्स पढमं चेक गच्छदि । माणस्स पढमादो किट्टीदो माणस्स विदियं तदियं मायाए पढमं च गच्छदि । माणस्स विदियविट्टीदो माणस्स तदियं च मायाए पढमं च गच्छदि । माणस्स तदियकिट्टीदो मायाए पढमं गच्छदि । मायाए पढमादो पदेसग्गं मायाए विदियं तदियं च लोभस्स पढमकिट्टि च गच्छदि । मायाए विदियादो किट्टीदो पदेसग्गं मायाए तदियं लोभस्स पढमं च गच्छदि । मायाए तदियादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स पढमं गच्छदि। लोभस्स पढमादो किट्टीदो पदेसग्गं लोभस्स विदियं च तदियं च गच्छदि । लोभस्स विदियादो पदेसगं लोभस्रा तदियं गच्छदि । जहां कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणो चदुहं कसायाणं पढमकिट्टीओ बंधदि । किमेवं चेव कोधस्स विदियकिट्टि वेदेमाणो चदुण्हं कसायाणं विदियकिट्टीओ बंधदि, आहो ण, वत्तब्वं । किथ खु । समासलवखणं भणिस्सामो । जस्म जं किट्टि वेदयदि तस्स कसायस्स तं किट्टि बंघदि, सेसाणं कसायाणं पढमकिट्टाओ बंधदि । १०कोधविदियकिट्टीए पढमसमए वेदगस्स एक्कारससु संगहकिट्टीसु अंतरविट्टीणमप्पाबहुवं वत्तइस्सामो। तं जहा । सम्वत्थोवाओ माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ। विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। "तदियाए संगहकिद्रीए अंतरक्ट्रिीओ विसेसाहियाओ। कोहस्स तदियाए संगहकिटीए अंतरकिटीओ विसेसाहियाओ । मायाए पढमाए संगहकिट्रीए अंतरकिट्रीओ विसेसाहियाओ। विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसे साहियाओ। तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसे साहियाओ । विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। कोहस्स विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ संखैज्जगुणाओ । १२पदेसग्गस्स वि एवं चेव अप्पाबह। ___१३कोहस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पडमदिदी तिस्से पडमट्ठिदीए आवलिय-पडिआवलियाए सेसाए आगालपडिआगालो वोच्छिण्णो। तिस्से चेव पढमट्रिदीए समयाहियाए आवलियाए संसाए ताहे कोहस्स विदियकिट्टीए चरिमसमयवेदगो। ताधे संजलणाणं टिदिबंधो वे मासा बीसं च दिवसा देसूणा । १४तिण्हं घादिकम्माणं दिदिबंधो वासपधत्तं । सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । संजलणाणं ट्रिदिसंतकम्मं पंच वस्साणि चत्तारि मासा अंतोमुहत्तणा । तिण्डं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णामागोदवेदणीयाणं ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । १.५० २६७ । २. पृ० २६८ । ३. पृ० २६९ । ४. पृ० २७० । ५. पृ० २७१ । ६. पृ० २७२ । ७. पृ० २७३ । ८. पृ० २७४ । ९. पृ० २७५ । १०. पृ० २७६ । ११. पृ० २७७ । १२. पृ० २७८ । १३. पृ० २७९ । १४. पृ० २८० । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला तदो से काले कोहस्स तदियकिट्टीदो पदेसग्ग मोकड्डियूण पढमट्टिदि करेदि । 'ताधे कोहस्स तदियसंगहकिट्टीए अंतर किट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । तासि चैव असंखेज्जा भागा बण्झति । जो विदियकिट्टि वेदयमाणस्स विधी सो चेव विधी तदियकिट्टि वेदयमाणस्स वि कायव्वो । तदिकिट्टि वैमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्टिदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए चरिमसमयको वेदगो । जहण्णगो ठिदिउदीरगो । ताधे द्विदिबंधो संजलणाणं दो मासा पडिवण्णा । संतकम्मं चत्तारि वाणि पुष्णाणि । ३४६ से काले माणस पढमकिट्टिमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । जा एत्थ सव्वमाणवेदगद्धा तिस्से वेदगद्धाए तिभागमेत्ता पडमट्टिदी | तदो माणस्स पढमकिट्टि वेदेमाणो तिस्से पढमकिट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदयदि । तदो उदिष्णाहितो विसेसहीणाओ बंधदि । "सेसाणं कसायाणं पढमसंगहविट्टीओ बंधदि । अश्व विहिणा को पढमकिट्टी वेदिदा तेणेत्र विधिणा माणस्स पढमकिट्टि वेदयदि । किट्टीविणासणे बज्झमाणसंकामिज्जमाएण च पदेसग्गेण अपुव्वाणं किट्टीणं करणे विट्टीणं बंधोदय णिव्वग्गण करणे एदेसु करणेसु णत्थि णाणत्तं, अण्णेसु च अभणिदेसु । एदेण कमेण माणपढमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से पढमद्विदीए जाधे समयाहियावलिया सेसा ताचे तिन्हं संजलणाणं ठिदिबंधो मासो वीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तूणा । संतकम्मं तिष्णि वस्त्राणि चत्तारि मासा च अंतोमुहुत्तूणा । से काले माणस विदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । तेणेव विहिणा संपत्तो माणस वियि किट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से समया हिवालियसेसा त्ति । 'ताधे संजलणाणं द्विदिबंधो मासो' दस च दिवसा देणा । संतकम्भं दो वस्साणि अट्ट च मासा देसूणा । सेकाले मातदिकिट्टीदो पदेसग्ग मोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । तेणेव विहिणा संपत्तो माणस दियट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्सेआवलिया समयहियाभेत्ती सेसा त्ति । ताधे माणस्स चरिमसमयवेदगो | ता तिन्हं संजलणाणं ट्टिदिबंधो मासो पडिपुण्णो । संतकम्मं वे वस्साणि पडिपुण्णाणि । दो से काले माया पढमकिट्टीए पदेसग्ग मोकड्डियूण पढमट्टिदि करेदि । तेणेव विहिणा संपत्तो मायापट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से समयाहिया वलिया सेसा त्ति । ताथे ठिदिबंधो दोन्हं संजगाणं पणुवीस दिवसा देसुणा । ट्ठिदिसंतक्रम्मं वस्समट्ट च मासा देसूणा । से काले मायाए विदियकिट्टीदो पदेसग्ग मोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । सो वि मायाए दिदियकिट्टीवेदगो व विहिणा संपत्तो मायाए विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से पढमट्टिदीए आवलिया समग्राहिया सेसाति । ताधे ट्ठिदिबंधो वीस दिवसा देसूणा । १° द्विदिसंतकम्मं सोलस मासा देसूणा । सेकाले माया तदिकिट्टीदो पदेसग्ग मोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । तेणेव विहिणा संपत्तो एतदिकिट्टि वेदगस्स पढमद्विदीए समयाहियावलिया सेसा त्ति । ताधे मायाए चरिमसमयवेदगो । ता दोन्हं संजलणाणं द्विदिबंधो अद्धमासो पडिवण्णो । ट्ठिदिसंतकम्ममेक्कं वस्सं पडिवुण्णं । तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो मासपुधत्तं । तिन्हं धादिकम्माणं द्विदिसंसकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । इदरेसि कम्माणं [ट्ठिदिबंधो संखज्जाणि वस्साणि । ] ट्ठिदिसंतकम्मं असंखेज्जाणि वस्त्राणि । "दो से काले लोभस्स पढमकिट्टीदो पदेसग्ग मोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । १२ तेणेव विहिणा संपत्तो लोभस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स पढमद्विदीए समयाहियावलिया सेसा त्ति । ताधे लोभसंजलणस्स ट्ठिदिबंधो अंतोमुत्तं । द्विदिसंतकम्मं पि अंतोमुहुत्तं । १३ तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो दिवसपुधत्तं । सेसाणं कम्माणं १. पु० २८१ । २. पु० २८२ । ३. पृ० २८३ । ४. पु० २८४ । ५. पृ० २८६ । ६. पृ० २८७ । ७. पृ० २८८ । ८. पृ० २८९ । ९ ० २९० । १०. पृ० २९१ । ११. पृ० २९२ । १२. पृ० २९३ । १३. पु० २९४ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ठाणि ३४७ वासपुधत्तं । धादिकम्माणं टिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि। सेसाणं कम्माणं असंखेज्जाणि वस्साणि । तत्तो से काले लोभस्स विदियकिट्टीदो पदेससमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । ताधे चेव लोभस्स . विदियकिट्टीदो च तदियकिट्टीदो च पदेसग्गमोकड्डियूण सुहुमसांपराइयकिट्टीओ णाम करेदि । 'तासिं सुहुमसांपराइयकिट्टीणं कम्हि ठाणं? तासिं ढाणं लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए हेट्टदो। जारिमी कोहस्स पढमसंगहविट्टी, तारिसी एसा सुहुमंसांपराइयकिट्टी। कोहस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ थोवाओ। कोहे संछुढे माणस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसे साहियाओ। माणे संछुद्धे मायाए पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । मायाए संछुद्धाए लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्रीओ विमेसाहियाओ। सुहमसांपराइयकिटीओ जाओ पढमसमये कदाओ ताओ विसेसाहियाओ। "एसो विसेसो अणंतराणंतरेण संखेजदिभागो।। सुहुमसांपराइयकिट्टीओ जाओ पढमसमये कदाओ ताओ बहुगाओ । विदियसमए अपुवाओ कीरंति असंखेज्जगुणहीणाओ । अणंत रोवणिधाए सव्विस्से सुहुमसांपराइयकिट्टीकरणद्धाए अपुवाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ असंखेज गुणहीणाए सेढीए कोरंति । "सुहुमसांपराइयकिट्टीसु जं पढमसमये पदेसग्गं दिज्जदि तं थो । विदियसमये असंखेज्जगणं । एवं जाव चरिमसमयादो त्ति असंखेज्जगणं । सूहमसांपराइयकिट्टीसु पढमसमये दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स से ढिपरूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा। जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं । विदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । तदियाए विसेसहीणं । 'एवमणंतरोवणिधाए गंतूण चरिमाए सुहुसतांपराइयकिट्टीए पदेसग्गं विगेसहोणं । चरिमादो सुहुमसांपराइयकिट्टीदो जहणियाए बादरंसांपराइयकिट्टीए दिज्जमाणगं पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं । तदो विसेसहीणं । "सुहमसांपराइयकिट्टीकारगो विदियसमये अपुवाओ सुहमसांपराइयकिट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाओ। ताओ दोसु ठाणेसु करेदि । तं जहा । पढमसमये कदाणं हेट्ठा च अंतरे च । हेट्ठा थोवाओ । अंतरेसु असंखेज्जगुणाओ। 'विदियसमये दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूग्वणा । जा विदियसमए जहणिया सुहमसांपराइयकिट्टी तिस्से पदेसग्गं दिज्जदि बहुअं । विदियाए किटीए अणंतभागहीणं । एवं गंतूण पढमसमये जा जहणिया सुहुमसांपराइयकिट्टी तत्थ असंखेज्जदिभागहीणं । तत्तो अणंतभागहीणं जाव अपुव्वं णिव्वत्तिज्जमाणगं ण पावदि । 'अपुवाए णिवत्तिज्जमाणिगाए किट्टीए असंखेज्जदिभामुत्तरं । पुवणिब्वत्तिदं पडिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागहीण । परं परं पडिवज्जमाणगस्स अणंतभागहीणं । जो विदियसमये दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स विधी सो चेव विधी सेसेसु वि समए सु जाव चरिमसमयबादरसांपराइयो त्ति । सुहमसांपराइयकिट्रीकारगस्स किट्रीसु दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं । तं जहा। "जहणियाए सुहमसांपराइयकिट्टीए पदेसग्गं बहुगं । तत्तो अणंतभागहीणं जाव चरिमसुहमसांपराइयकिट्रि ति । तदो जहणियाए बादरंसांपराइयकिट्टीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । एसा से ढिपरूवणा जाव चरिमसमयबादरसांपराइओ त्ति । पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स वि किट्टीसु दिस्समाणपदेसग्गस्स सा चेव सेढिपरूवणा । १२णवरि सेचीयादो जदि बादरसांपराइयपिट्टीओ धरेदि तत्थ पदेसगं विसेसहीणं होज्ज । सुहुमंशांपराइयकिट्टीसु कीरमाणीस लोभस्स चरिमादो बादरसांपराइयकिट्रीदो सुहमसांपराइयकिट्रीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । लोभस्स विदियकिटीदो चरिमबादरसांपराइयकिट्टीए संकमदि पदेसगं संखेज्जगुणं । "लोभस्स विदियकिट्टीदो सुहुमसांपराइयकिट्रीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । १. पृ० २९६ । २. पृ० २९८ । ३. पृ० २९९ । ४. पृ० ३०० । ५. पृ० ३०१ । ६. पृ० ३०२ । ७. पृ० ३०३ । ८. पृ० ३०४ । ९. पृ० ३०५ । १०. पृ० ३०६ । ११. पृ० ३०७ । १२. पृ० ३०८ । १३. पृ० ३०९। १४. पृ० ३१० । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला पढसमय किट्टी वेदगस्स कोहस्स विदियकिट्टीदो माणस्स पढमसंगहकिट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । "कोहस्स तदिय कट्टीदो माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए संकम दिपदेसग्गं विसेसाहियं । माणस्स पढमादो संगहfaghat मायाए पढमकिट्टीए संकमणदि पदेसग्गं विसेसाहियं । माणस्स विदियादो संगहकिट्टीदो मायाए पढमसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । माणस्स तदियादो संगह किट्टीदो मायाए पढमसंगह किट्टीए संक्रमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । मायाए पढमसंगह किट्टीदो लोभस्स पढममाए संगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । मायाए विदियादो संगह किट्टीदो लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीय संकमढि पदेसग्गं विसेसाहियं । मायाए तदियादो संगह किट्टोदो लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए संकमदि पदेसगं विसे साहियं । लोभस्स पढमकिट्टीदो लोभस्स चेव विदियसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । लोभस्स चेव पढमसंगह किट्टीदो तस्स चेव तदियसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । कोहस्स पढमसंग किट्टीदो माणस्स पढमसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । कोहस्स चेव पढमसंगह किट्टी दो कोहस्स चैव तदियसंगह किट्टीए संकमदि पदेसग्गं विसेसाहियं । कोहस्स पढमसंग हविट्टीदो कोहस्स चेव विदियसंगट्टिए संक्रमदि पदेसग्गं संखेज्जगुणं । एसो पदेससंकमो अइक्कंतो वि उक्खेदिदो सुहुमसांपराइय किट्टी की रमाणीसु आसओ त्ति कादूण | सुमसां पराइ कट्टी पढमसमये दिज्जदि पदेसग्गं थोवं । विदियसमये असंखेज्जगुगं जाव चरिमसमयादो त्ति ताव असंखेज्जगुणं । एदेण कमेण लोहस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टि दी " तिस्से पढमदी आवा समयाहिया सेसा त्ति तम्हि समये चरिमसमयबादरसांपराइओ । तम्हि चेव समये लोभस्स चरिमसमयबादर सांपराइयकिट्टी संकुब्भमाणा संछुद्धा । लोभस्स विदियकिट्टीए वि दोआवलियबंधे समयूर्ण मोत्तूण उदयावलियपवि च मोत्तूण सेसाओ विदियकिट्टीए अंतर किट्टीओ संछुब्भमाणीओ संछुद्राओ ! तम्हि चेव लोभसंजलणस्स द्विदिबंधो अंतोमुत्तं । 'तिरहं घादिकम्माणं ट्टिदिबंधो अहोरत्तस्स अंतो । नामा- गोद-वेदणीयाणं बादरमांपराइयस्स जो चरिमो द्विदिबंधो सो संखेज्जेहि वस्ससहम्मेहिं हाइदूण वस्सस्स अंतो जादो । चरिभसमयबादरमां पराइयस्स मोहणीयस्स ट्टि दिसंतकम्ममंतोमृहुत्तं । तिन्हं घादिकम्माणं ट्टिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । णामा- गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्मम संखंज्जाणि वस्साणि । ३४८ सेकाले पढसमय हुमसांपराइयो जादो । 'ताधे चेव सुहुमसांपराइय किट्टीणं जाओ द्विदीओ तदो ट्टि दिखंडयमागाइदं । तदो पदेसग्ग मोकड्डियूण उदये थोवं दिष्णं । १० अंतोमुहुत्तद्धमेत्तमसंखेज्जगुणाए ढोए । गुणसे ढिणिक्खेवो सुमसांपराइयद्वादो विसेसुत्तरो । गुणसेढिसीसगादो जा अणंतरद्विदी तत्थ असंखेज्जगुणं । ११ तत्तो विगहीणं ताव जाव पुव्वसमये अंतरमासी, तस्स अंतरस्स चरिमादो अंतरर्राष्ट्ठिदीदो त्ति | १२ चरिमादो अंतरद्विदीदो पुव्वसमये जा विदियट्टिदी तिस्से आदिट्टिदीए दिज्जमाणगे पदेसग्गं संखेज्जगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं । पडमसमय सुहुमसां पराइयस्स जमोकड्डिज्जदि पदेसग्गं तमेदीए सेढीए णिविखवदि । विदियसमए वि एवं चेव । तदियसमए वि एवं चेव । एस कमो ओकडिदूण णिसिंचमाणगस्स पदेसग्गस्स ताव जाव सुहुमसांपराइयस्म पढमट्टिदिखंडयं णिस्सेविदं ति । १४ विदियादो ठिदिखंडयादो ओकड्डियूण जं पदेसग्गमुदवे दिज्जदि तं थोत्रं । तदो दिज्जदि असंखेज्जगुणाए सेढीए ताव जाव गुण सेढिलीसयादो उपरिमाणंतरा एक्का द्विदि त्ति । तदो विसेसहीणं । एत्तो पाए सुहुमसांपराइयस्स जाव मोहणीयस्स द्विदिवादो ताव एस कमो । १. पृ० ३११ । २. पृ० ३१२ । ३. पृ० ७. पृ० ३१८ । ८. पृ० ३१९ । ९. पृ० ३२० । १३. पृ० ३२४ । १४ पृ० ३२५ । ३१३ । ४. पृ० ३१४ । ५. पृ० ३१५ | ६. पृ० ३१७ ! १० पृ० ३२१ । ११. पू० ३२२ । १२. पृ० ३२३ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिद्वाणि ३४९ पडमसमयसुहु मसां पराइयस्स जं दिस्सदि पदैसग्गं तस्स सेढिपरूपणं वत्तइस्सामी । तं जहा । पढमसमयसुहुमसां पराइयस्स उदये दिस्सदि पदेसग्गं थोवं । विदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणं दीसदि । एवं ताव जाव गुणसे ढिसीसति । गुणसे ढिसीसयादो अण्णा च एक्का ट्टिदि ति । तत्तो विसेसहीणं ताव जाव चरिमअंतरद्विदिति । तत्तो असंखेज्जगुणं । तत्तो विसेसहीणं । एस कमो ताव जाव सुहुमसांपराइयस्स पढमट्टिदिखंडयं चरिमसमयअणिल्लेविदं त्ति । पढमे द्विदिखंडए गिल्लेविदे जं उदये पदेसग्गं दिस्सदि तं थोवं । विदिया द्विदीए असंखेज्जगुणं । एवं ताव जाव गुणसेढिसीसयं । गुणसेढिसीसयादो अण्णा च एक्का ट्ठिदित्ति असंखेज्जगुणं दिस्सदि । तत्तो विसेसहीणं जाव उक्कस्सिया मोहणीयस्स द्विदित्ति । सुमसां पराइयस्स पढमट्ठिदिखंडए पढमसमयणिल्लेविदे गुण सेढि मोत्तूण केण कारणेण सेसिगासु ट्ठिदी एयगोवुच्छा सेढी जादा त्ति ? एदस्स साहणट्ठमिमाणि अप्पाबहुअपदाणि । तं जहा । सव्वत्थोवा सुहुमसांपराइयद्धा । पढमसमय सुहुमसां पराइयस्स मोहणीयस्स गुणसे ढिणिक्खेवो विसेसाहिओ । अंतरट्ठदीओ संखेज्जगुणाओ । सुहुमसांपराइयस पढमट्ठिदिखंडयं मोहणीये संखेज्जगुणं । पढमसमय सुहुमसांप इस मोहणीयस्स ट्ठिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । लोभस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्टिदीए जाव तिणि आवलियाओ सेसाओ ताव लोभस्स विदियकिट्टीढ़ो लोभस्स तदियकिट्टीए संछुब्भदि पदेसग्गं, तेण परं ण संछुब्भदि; सव्वं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संछुन्भदि । लोभस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से पढमट्टिदीए अवलियाए समयाहियाए सेसाए ताधे जा लोभस्स तदियकिट्टी सां सव्वा निरवयवा हुमसां पराइयकिट्टीसु संकंता । जा विदियकिट्टी तिस्से दो आवलिया मोत्तूण समयूणं उदयावलियपविच से सज्यं सुहुमसांपराइयकिट्टीसु संकंतं । ताधे चरिमसमयबादरसांपराइओ मोहणीयस्स चरिमसमयबंधगो । सेकाले पढसमयहुमसांपराइओ । ताधे सुहुमसांप राइ य किट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । हेट्ठा अणुदिष्णाओ थोवाओ । उवरि अणुदिष्णाओ विसेसाहिओ । मज्झे उदिष्णाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ असंखेज्जगुणाओ । सुहुमसां पराइयस्स खेज्जेसु ट्ठिदिखंडय सहस्सेसु गदेसु जमपच्छिमं द्विदिखंडयं मोहणीयस्स तम्हि ट्ठिदिखंडये उक्कीरमाणे जो मोहणीयस्स गुणसेढिणिवखेवो तस्स गुणसेढिणिवखेवस्स अग्गग्गादो संखेज्जदिभागो आगाइदो । तम्हि ट्ठिदिखंडाए उक्किण्णे तदो पहुडि मोहणीयस्स णत्थि द्विदिधादो । जत्तियं सुमसां पराइयद्धाए सेसं तत्तियं मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्मं सेसं । एत्तिगे । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० अ व च अण्णाइरिय वक्खाणाइरिय चुणसुत चुणिपुत्त वक्खाणदो विसेसपडिवत्ती होइ २ ऐतिहासिक नामसूची पृ० २५ १९९ १ अण्णे पुण आइरिया किट्टीसु फट्एस च एसा चैव गोपुच्छा होदित्ति भत २ तत्थ पुव्वं भमणिज्जा जिल्लेवट्ठाणाणमुवदेस परूवणा एक्त्रेण उवदेसेण कम्मट्टिदीए असंखेज्जा भागा पिल्लेवणट्टणाणि एक्केण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्ज दि भागो अच्छु अणगार ३ ग्रन्थनामोल्लेख अणुबद्ध अणुभाग अणुभागग्ग १९२ २१० ४ न्यायोक्ति १६५ २५ उपदेशभेद १९० १९० १९१ ५४ २१८, २२१ १४० १३५ १४६, १४८, १५१ १३५ १७६, २०४ ६७ सुत्तयार सुत्तयार सूत्रकार चूलिया पवाइज्जमाण उवदेस ७०,७२,८९ ४ ३ जो पवाइज्जइ उवएसो तेण उवदेसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि पिल्लेवण ठाणाणि विचित्रा शैली सूत्रकाराणां इति न्यायात् १९८ अथवा एवमेत्थ जवमज्झं कायव्यमिदि अण्णे वक्खाणारिया मणंति ....ण समीचीनामेदं वक्खाणं, एगट्ठदिविसयाणं समयपवद्धसेसयाणं जवमज्झपरूणावसरे णाणाट्टिदिविसयाणं तेसि जवमज्झपरूवणाए असंबद्धत्तादो | १९१ ६ मूलगाथा चूर्णि सूत्रगत शब्दसूची इस सूची में जो पारिभाषिक शब्द अनेक बार आये हैं उन्हें अधिकसे अधिक चार बार तक संगृहीत किया है तथा इसमें संख्यावाची, कालविशेषको सूचित करनेवाले और कर्मपर्यायवाची शब्दों को संगृहीत किया गया है। अ अकारग अक्खवग अगारकम्म अचक्खुदंसण अणुमणिवण (काण्डक 21 "1 अणुव अनंतर अतरोपणधा अण्णाण अंतर पृ० १९८ ३०५ १९८ २१० १९३ अत्थ अत्यसण्णा १९२ १९९ १९९ २१९, २१० २२७ २३९ १५३ ३५, २५३ १३४ १५०, १५१, १८४, २०८ ४८, ५२, ५३ ११ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगाथा चूणिसूत्रगत शब्दसूची ३५१ २४९ १४३ १२४ २०३, २०७, २१७ २२६ अधोलोगिग १४२ अपच्छिम १८४ अपज्जत्त १२८, १२९, १३१ अपुव्व २५, २८, ३२, ३३ अपुवकिट्टी २८७ अपुव्वफद्दय ४, ९, ३७ अवज्झमाणिय २६५ अभज्ज ११५, १२६, १२९, १३३ अभज्जय १३२ अभवसिद्धियपाओग्ग १८९, २१० अविरहिद १८६, १८७ अविरहिदहिदि असाद १३६, १४० असामण्ण १७५, १७६ अंगारकम्म १४० अंस अस्सकण्णकरण अस्सकण्णकरणद्धा आ आउकाइय १२० आदिहिदि आदिपद आदिफद्दय आदिवग्गणा ९, २२, ६१, ८५ आवलिय १४८ १८७ उवसंदरिसणी उवसंदरिसणा उस्सप्पिणी ए एइंदिय एइंदियभव ग्रहण एगतर एगंतरछेदण एयगुणहाणिट्ठाणंतर ओ ओकड्डण ओगास ओरालिय ओरालियमिस्स ओरालिय सरीर ओसप्पिणी ओहिणाण ओहिदसण करण कम्म कसाय काय किट्री किट्टीअंतर किट्टीकरण किटीकरणद्धा किट्टीवेदग किट्टीकरणद्धा किट्टीलक्खण ५५, ५६, ५७ २४८, २५५ १३३ १३२, १३३ १३२ १४३ १३४ ४७, ५४, १८७ ६२, १३६, १३७, १४० १०१ १०२ ११५, १२०, १२२ ५, ६, ३७, ५८, ५९, ६२ १०, ११, १२ ४, ५५ ९६, ९७, २३८ १४६, २४१ इ इत्थी ५८ किथ २७५ किस कोधपच्चिमपद कोह उक्कड्डग उखेदिद उट्टकडसेढि उड्ढलोगिग उत्तरपद उत्तरसेढि उदयट्टिदि उवजोग उवट्टिद उवदेस उवदेसपरूवणा ५५, ५६, ५७ ३१५ ३४, ३५ १४२ ८६, ८८ ९८, १६९ ६६, १००, १०५ १२८, १३४ ५१, ९५, ९६ १९०, १९१, १९२ १९० कोहकिट्टी ख खवग खु खेत्त ग गदि गणणादियंत गाहा १५, १८९, २०८ २७५ १३६, १३७ ११३, ११५, २२५ १०४, १०६ ११५, १९४, २०४ ५८, ९८, १०४ उवसामग गुणसे ढि Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ गुणविखेव गुढी च चरिमकिट्टी रिमकिट्टी अंतर चरिमट्ठदि छ छट्ठदल्लिग छदुमत्थणाण जवमज्झ जहण किट्टी जोग ज ट ण त थ ठिदिउत्तर से ि ट्ठिदि उदीरणा ट्ठिक्खिय सय वेद णाणागुणहाणिद्वाणंतर गुणहाणि सलागा हातिर णानंतर णिक्खेव णिरयगदि पिल्लेवणट्टाण पिल्लेवणंतर पिल्ले विद णिश्वग्गणकरण णिश्वत्तिज्जमाणिय णिसेगसेढिपरूवणा तस तसकाइय तसभव तिरिक्खगदि तिरियलोगिग तिब्वमंददा त्थी तेउकाइय रसगुण थी जयधवला ३२८ ७, ८, २३ १३ १०१ ४० १३३ ९८, १०१, १०२ १२८, १३२ १६९ २६६ १०७ १२८, १२९ १३१ १९६ २०७ १९५ २०२, २०७, २१७ ११ ११९ २०१, २११ २२३ २१५, २२१ २८७ २५७, २७१ २५२ १.१५ १२१ १२४ ११८ १४२ ५ १२८ १२० ७४ १२९ द प ब दिज्जमाणंय दिज्जमाणय देवगदि पदेसरंग पच्चत्रख पच्छिम पच्छिमकिट्टी पच्छिमपद पज्जत्त डिआवलिय पडिवदमाणग पट्ट किट्टी अंतर पढमट्टिदि पदेसग्ग परंपरोवणिधा पलिदोवमच्छेदण पव्वदकम्म पाऐ पुढविकाइय पुव्वफद्दय पुण्वबद्ध पुरिस पुण्वालविया पुं बज्झमाणय बज्झमाणिय बज्झमाणी बादरसां पराइय किट्टी भ भज्ज भव भवबद्ध भवबद्ध सेस भवबद्धसेसग भवबद्धसेसण भवसेसग भवसेसय भासगाहा २९, ३०, ३६ २७, ३३ ११९ ७० १३३ १०९, १८४ १११ ५८ १२८, १२९, १३१ २७९ ५७ १५३ १३, १४ ४१, ६५, ६६ २२, २७, ३३, ७७ ८७ १९५ १४० १५० १२० ४, ३७ ११३, ११५, १२६ १२९, १३१ १५३ १२८ २४६, २५०, २५२ २४७, २५० २७१ ३०८, ३०९ ११५, १२९, १३२ १५८ १४६, १५२, १६५ ९७ १६९ १६६, १६८, २०३ १५९, १६२ १६९ ४९, ५८, ६३, ६८ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ १२०, १२१ १२२ १४६, १४८, १५० १६९ १६२ १६४, १७१ १७३ २७५ G ५८,६४,८३ १२८, १२९ १४१ मूलंगाथा चूंणिसूत्रगत शब्दसूची १३२, १३३ समज्जिद ३४ .४.समज्जिदलग्ग ११८ समयपबद्ध समयपबद्धसेस समयपवद्धसेसग १२७ समयपबद्धसेसय ४ समाविभाग समासलक्खण १२७ समुक्कित्तणा १२८,१२९ सम्मत्त सम्माइट्रि सम्मामिच्छाइट्टि १२९ सम्वलिंग ४७, ४८ सव्वसमास साद १३६, १३७ सामण्ण १३६, १३७, १४० सासण्णदिदि १२७ सामण्णसण्णा सिप्प ८१, ८२ सुत्तफास ८३, ८५, ८६ सुदउवजोग १३२, १३३ सुद्ध १२० सुद्धसेस १४० सेचीय १२० २७१ सेढिपरूवण __६५, ६८, १०१ १९८ सेसग ५०, ५१, ५५, ६१ संकामिज्जमाणय ८२ संखेवपद १०९, १११, ११२ संगहकिट्टी संगहकिट्टीअंतर म मणजोग मणज्जवणाण मणुसगदि मदिउवजोग मदिणाण माण माणकिट्टी मायकिट्टी माया मिच्छत्त मिच्छाइट्रि मिस्सग लक्खण लहआलाव लिंग लेस्सा लोभ लोभकिट्टी वग्गणग्ग वग्गणा वचिजोग वणप्फदिकाइय वण्णम्म वाउकाइय विणासिज्जमाणी विदियट्ठिदिय विस्सरिद विहासा विहास्सगंथ विहासिद वेदगकाल वेदिदसेसग वण्णकम्म स सण्णपरूवणा १३६, १३७, १४० १७३, १७५ २०५, २०८ ४ १३७, १४१ १३३, १३४ ८६, ८८, १०२, १०३ सेढि ३०८ १५, ८७. २७ सेस ७३ सेसय १८१ १८७ २४६, २४७ ६, ७, ९, २७८ १४० संछुछ १५२, १५८ संछुडमाणय ७. जयधवलाटीकागत विशेष शब्दसूची अभवसिद्धियपाभोग अवंतरकिट्टी २७२, २७३ अवयवकिट्टी भसामण्ण ८३ १८९ अ अणुभाग अणुभागग्ग अधापवत्तसंकम अपुवकिट्टी ९० ६२ १७४, १७७ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जयधवला ७, १९ १९२, १९३ ५९ १६२, १६६ ४९ १४१ ५९ असामण्णटिदि अंतर आ आणुपुव्विसंकम उक्कड्डग उक्कड्डणा उच्छिट्ठावलि उट्टकडसरिसी उवसंदरिसणा ओ भोकडणा ओकड्डमाण ओवटणाघाद क कदिसद्द कम्मट्टि दिमत्त कालजवमज्झ किट्टीअंतर किट्टीकरणद्धा किट्टीगुणगार किट्टीलक्षण ग गुण से ढिसीसग जवमज्झ ट दिदिउत्तरसेढि ण णिग्गंथलिंग पिल्लेवणट्टाण १८९ त० तापसादिवेस २१७ प परत्थाणगुणगार १५३, १७२ पवाइज्जमाण ४० फ फद्दयलक्षण ब बादरकिट्टी भवबद्धसेस ३४ भासगाहा २७८ म मूलगाहा २७२ ल लहुआलाव ५४, ५६ व वग्ग २४४ वग्गणा सत्थाणगुणगार ११९ समयबद्धसेस २१४ समासलक्खण सव्वघादि सामण्ण सामण्णठ्ठिदि ५८, ६०, ६२ सिया ३२२ १७८, १८३, १९० संगहकिट्टीअंतर १७० संगहकिट्टीगुणगार १३८ संधिविसय १९० - संधिविसेस ७, १६, १९ १६३, १६४ २७५ ४० १७४ २०४ ११७ ९३ सुद्ध ११, २५६ ३२३ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ शुद्धिपत्र - V तस्स १०२ कर्म १३३ अशुद्धि शुद्धि सेडीए सेढीए पविसमाणगुणगारो पविसमाणगुणगारो तन्स अणंतणत्त अणंत्तगुणत्तणदेण णेदेण सतकम्ममटू बस्साणि संतकम्ममट्ट लम्साणि उच्छिट्ठा उच्छिट्टाभागग्गण भागग्गेण पदसगं पदेसग्गं (१३२) (१२२) (१३४) (१२४) (१३५) (१२५) १०४ (१२६) १०६ कम्म १०६ (१९०) (१८०) १०८ मासगाहाए भासगाहाए ॥२३१॥ ॥२०१ १७३ भागप्रमाण काल तक निरन्तर भागप्रमाण १८९ गाहाआ गाहाओ २०५ गाहा गाहाए थोवाआ थोवाओ महाप्रमाण माहप्रमाण संगह किट्टीसु संगहक्ट्ठिीसु णिवत्तिज्जयाणियाणं णिवत्तिज्जमाणियाणं किय २८७ संक्रमाण संक्रयमाण ३०१ किट्टीसु पढम किट्टीसु जं पढम३२१ ३२२ अंतढि दिसु अंतरट्ठिदीसु चेवज दा चेव जादा ३२५ कालम खे कालमसंखेसूचना-यहाँ जितना भी शुद्ध पाठ यहाँ दिया गया है उसे देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें संशोधन-सम्बन्धी दोष नहीं के बराबर हुआ है । किन्तु प्रेस को असावधानी अधिक है । प्रूफ जिस प्रकारका दिया गया है उतनी मुद्रण में सावधानी नहीं बरती गई है । मात्राओंकी अशुद्धि बहुत है। हिन्दी अनुवादोंमें तो इन मात्राओंका मुद्रित न होना पद-पदपर दृष्टिगोचर होता है । २३५ २४७ २७१ २७५ किथ x २२३ Page #389 --------------------------------------------------------------------------  Page #390 -------------------------------------------------------------------------- _