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________________ १२४ बघवलास हिदे कसाय पाहुडे (१३१) एइंदियभवग्गणेहि असंखेज्जेहि नियममा बद्धं । गादेगुतरियं संखेजेहि य तसभवेहिं ॥ १८४ ॥ ३३४. एसा विदियभासगाहा 'कविषु गबीसु भत्रेसु च' इच्चेदं सुत्तावयवमस्सिरण भवसंचिदस्स पदेसग्गस्स तस-यावर भवह विसेसियण परूवणट्टमोइण्णा । तं जहा - 'एइंदिय भवग्गणे । एवं भणिदे एइंदियभवग्गहणेसु असंखेज्जेसु बद्धं कम्मं गच्छयेणेव खवगम्मि अस्थि । कुवो कम्मट्ठदिअब्भंतरे जहण्णदो वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताग ने इंदियभवगहणाणवलंभादो | ण चेदमसिद्ध, णिल्लेवणकालमब्भहियतसद्विदीए परिहीणकम्म ट्ठिदिम्मि संखेज्जावलियमेतगिदिय भवग्गहणपमाणेणोवट्टिदाए पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणने - दियभवग्गहणाणमागमणदंसणा दो । उक्कस्सदा पुण संखेज्जावलियणकम्मट्टिवीए अंतोमुहुत्तेणोट्टिदाए तत्थ भागलद्धमेत्ताणि एइ दियभवग्गहणाणि कम्मट्ठिदिअन्भंतरे होंति त्ति घेत्तव्धं । तवो सिद्धमसंखेज्जेह एवं विद्यभवग्गहणोह सचिदं कम्मं नियमवो एक्स्स खगगस्स संभवदिति । ३३५. 'एगावेगुत्तरियं' एवं भणिदे थावरकायादो आगंतॄण भणुसेसुववज्जिय दवणाए अब्भुसि एगतसभवसंचिददग्वं खवासेढोए लब्भवि । एवं दो-तिण्णिआदिकमेण एगेगुत्तरवड्ढीए निरंतरं तसभवरहणाणि वड्ढावेयव्त्राणि जाव उक्कस्सेण तप्पाओग संखेज्जमेत्तेसु तसभवेस बद्धपदेपिडो खवगम्मि संचयसरूवेण लद्धो त्ति । तेण एगादिएगुत्तरकमेण निरंतरं वडिदेहि तसभवन्गहणेहि संखेज्जेहि चेव बद्धकम्ममेदस्स खवगस्स लब्भदि, णाविरित्तमिदि सुत्तस्य णिच्छओ । (१३१) असंख्यात एकेन्द्रियसम्बन्धो भवग्रहणोंके द्वारा बद्ध कर्म क्षपक जीवके दियमसे पाया जाता है। तथा एक सभवसे लेकर उत्तरोत्तर संख्यात त्रसभवोंके द्वारा बद्ध कर्म क्षपक जीवके नियम से पाया जाता है ||१८४ ॥ $ २३४. यह दूसरी भाष्यगाथा 'कदिसु गदीसु भवेसु च' इस प्रकार इस सूत्र के अवयवका आश्रय कर त्रस और स्थावर भवोंसे विशिष्ट भवसंचित प्रदेशपुंजका इस क्षपकके प्ररूपण करने के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे - 'एइंदिय भवग्गहणेहि' ऐसा कहनेपर असंख्यात एकेन्द्रिय भवग्रह्णोंमें बद्ध कर्म क्षपकके निश्चय हो है, क्योंकि कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर जघन्यसे भी पल्यापमके असंख्यातवें भाग प्रमाण एकेन्द्रियसम्बन्धो भवोंका ग्रहण उपलब्ध होता है । और यह कथन असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि निर्लेपन कालस अधिक सपर्यायसम्बन्धी स्थितिसे हीन कर्मस्थितिको संख्यात आवलिप्रमाण एकेन्द्रिय भवग्रहण के द्वारा भाजित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एकेन्द्रिय भवग्रहणोंका आगमन देखा जाता है । उत्कृष्टसे तो संख्यात आवलि कम कर्मस्थांतको अन्तर्मुहूर्तस भाजित करनेपर वहां जितना भाम लब्ध आवे उतने एकेन्द्रिय भवग्रहण कर्मस्थितिक भीतर होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए इसलिए असंख्यात एकेन्द्रिय भवग्रहणोंके द्वारा संचित कर्म इस क्षपकके नियमसे होत हैं यह सिद्ध हुआ । $ ३३५. 'एगादेगुत्तरियं' ऐसा कहनेपर स्थावरकायिकों में से आकर और मनुष्यों में उत्पन्न होकर क्षपकश्रेणिवर आरूढ़ हुए जीवके एक त्रसभवमें संचित हुआ द्रव्य क्षपकश्रेणिमें पाया जाता है। इसी प्रकार दो, तीन भव आदिके क्रमसे आगे एक-एकको वृद्धि द्वारा निरन्तर उतने त्रसभवग्रह्णों को बढ़ाना चाहिए जहाँ जाकर उत्कृष्टसे तत्प्रायोग्य संख्यात त्रसभवों में बद्ध पूर्वसंचित प्रदेशपिण्ड क्षपकके संचयरूपसे पाया जाता है । इसलिए एक से लेकर उत्तरोत्तर एकएककी वृद्धि क्रमसे निरन्तर वृद्धिको प्राप्त हुए संख्यात त्रसभवग्रहणोंके द्वारा ही बद्ध कर्म इस
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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