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________________ खवगसे ढोए चउत्थमूलगाहाए विदियभासगाहा एत्तो अहिययराणं भवग्गहणाणं तसट्ठिदोए अब्भंतरे संभवाणुवलंभावो । कम्मट्ठधिअब्भंतरे एइंदियभवग्गहणेसु पुणो पुणो अंतराविय तसकाइ सु उत्पाइज्जमाणे असंखेज्जेसु तसभवेसु संचिवदव्यमेवम्मि लब्भदे । ण चेदमसिद्धं, जहण्णपदेसविहत्तिसामित्तसुत्ते खविदकम्मंसियलक्खणे भण्गमाणे एइदिएहितो आगंतूण संजमासंजमादिगुण से ढिणिज्जरा करणटुं तसकाइएस उप्पण्णभववारा पलिदोषमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता लब्भंति' त्ति परूविदत्तादो । तम्हा असंखेज्जे सु तसकाइयभवग्गहणेसु कम्मद्विदोए अब्भंतरे लब्भमाणेसु तेसि संखेज्जभवपमाणत्ताव हारणमेदं कथं घडवित्त ? ण एस दोसो, एगादिएगुत्तरकमेण निरंतरमुवलब्भमाणाणं तसभवग्गणाणं सुत् विवषिखयत्तादो | १२५ ६३३६. संपहि एवं विहो एविस्से गाहाए अत्यो सुगमो त्ति काढूण सिस्साणमत्यसमध्पणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एदिस्से गाहाए विहासा चैव कायव्वा । ९ ३३७. एदिस्से गाहाए अत्यविहासा समुक्कित्तगाए चेव साहेयूण भाणियग्वा सुबोहत्तादो । तदो ण तत्थ विहासंतरमाढवेयव्वं, जाणिदजाणावणे फलाभावादो त्ति वृत्तं होइ । एवमेदिस्से क्षपक के प्राप्त होते हैं, अधिक नहीं यह इस सूत्र के अर्थका निश्चय है, क्योंकि इनसे अधिक मवग्रहणोंको त्रसस्थिति के भीतर सम्भावना नहीं पायी जाती है । शंका-कर्मस्थितिके भीतर एकेन्द्रिय भवग्रहणों का पुनः पुनः अन्तर कराकर त्रसकायिकों में उत्पन्न करानेपर असंख्यात त्रसभवों में संचित हुआ द्रव्य इस क्षपकके पाया जाता है । और यह कथन असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि जघन्य प्रदेशविभकिके स्वामित्वविषयक सूत्र में क्षपित कर्माशिक लक्षणका कथन करनेपर एकेन्द्रियोंमेंसे आकर संयमासंयमादि गुणश्रेणिनिर्जराको करनेके लिए कायिकों में उत्पन्न होने के भवबार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होते हैं ऐसा प्ररूपण किया गया है। इसलिए जब कि असंख्यात त्रसकायिकसम्बन्धो भवग्रहण कर्मस्थितिके भीतर प्राप्त होते हैं ऐसी अवस्था में यहाँपर उनके संख्यात भवोंका यह अवधारण करना कैसे घटित होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एकसे लेकर एक-एक अधिक के क्रमसे निरन्तर उपलभ्यमान त्रससम्बन्धी भवग्रहणोंको यहाँ सूत्र में विवक्षित किया है । विशेषार्थ - यद्यपि पूरे कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर अन्तर देकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रस भव प्राप्त होते हैं । परन्तु यहां गाथासूत्र में 'एगादिए गुत्त रकमेण' पद होने से एक साथ क्रमसे यदि हों तो त्रतोंके संख्यात भव ही होंगे यह स्पष्ट किया गया है, इसलिए प्रदेशविभक्ति के स्वामित्वविषयक सूत्रसे इस कथनमें कोई विरोध नहीं आता । शेष कथन सुगम है । $ ३३६. अब इस गाथाका इस प्रकारका अर्थ सुगम है ऐसा निश्चय करके शिष्यों को अर्थका समर्पण करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * इस गाथासूत्र के अर्थको समुत्कीर्तनाको ही विभाषा कर लेनी चाहिए । § ३३७. इस गाथासूत्रकी अर्थविभाषा समुत्कीर्तनासे ही साधकर कहनी चाहिए, क्योंकि वह सुबोध है । इसलिए उस विषय में दूसरी विभाषा आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसका ज्ञान करा दिया गया है उसका पुनः ज्ञान कराने में फलका अभाव है यह उक्त कथनका तात्पर्य
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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