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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे विभागाहाए अत्यविहासणं समानिय संपहि 'द्विदि - अणुभागेसु वा कसायेसु' त्ति एवं मूलगा हावयवमस्तियूण तदियभासगाहाए विहासणं कुणमाणो तदवसरकरणट्टमुवरिभं सुत्तमाह* एसो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । १२६ ६ ३३८. सुगमं । (१३२) उक्कस्य अणुभागे द्विदिउक्कस्साणि पुव्वबद्धाणि । भजियव्वाणि अमजाणि होंति णियमा कसारसु ॥ १८५ ॥ $ ३३९. एसा गाहा उवकस्सट्ठिदि अनुभाग विसे सिवाणं पुण्यबद्धाणं खवगम्मि भयणिज्जतपरायण पुणो कोह- माण- माया-लोभकसाएहि पुत्रबद्वाणमभयणिज्जभावपतुप्पायणटुं च समोइण्णा । तं जहा - 'उक्कस्सय अणुभागे० ' एवं भणिवे उक्कस्साणु भागविसे सिवाणि उक्कस्तद्विविविसेसिवाणि च पुण्यबद्धाणि एवम्मि खवगम्मि सिया अत्थि सिया णत्थि त्ति भजियव्वाणि । किं कारणं ? उक्कस्सट्ठिदिमुक्कस्साणुभागं च बंधियूण कम्मद्विविअन्तरे चैव खवगसेढि चढिवस्स तव्विसे सिदाणं कम्मपदेसाणं संभवदंसणावो, कम्मट्ठिदिअब्भंतरे सम्वत्येव अणुक्कस्स द्विविमणुभागं चबंधिदूणागदस्स खवगस्स उक्कस्सट्ठिदिअणुभागविसेसिदाणं पुण्यबद्धाणं संभवाणुवलंभावो च । 'अभज्जाणि होति णियमा कसायसु, एवं भणिदे कोह- माण- माया-लोभकसाए पुग्वबद्धाणि एक्स्स खवगस्स णियमा अत्थि, तदो ण ताणि भयणिज्जाणि, अंतोमुहुत्तेण चदुकसायोवजोगेसु है । इस प्रकार इस दूसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त करके अब 'ट्ठिदि - अणुभागेसु वा कसायेसु' इस मूलगाथा के अवयवका आलम्बन लेकर तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए उसका अवसर करने के लिए आगे सूत्रको कहते हैं * इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं । ९३३८. यह सूत्र सुगम है । (१३२) उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट और उत्कृष्ट स्थिति विशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं । परन्तु क्रोधादि चारों कषायों द्वारा बद्ध पूर्व संचित कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं ॥ १८५ ॥ ६ ३३९. यह भाष्यगाथा उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म क्षपकके भजनीय हैं इस बातका कथन करनेके लिए तथा क्रोध, मान, माया और लोभकषायों द्वारा बद्ध पूर्वसंचित कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं इस बातका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - ' उक्कसय अणुभागे० ' ऐसा कहनेपर उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट और उत्कृष्ट स्थितिविशिष्ट पूर्व कर्म इस क्षपके स्यात् हैं और स्थात् नहीं हैं, इसलिए भजनीय हैं। शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान – क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर कर्मस्थितिके भीतर ही क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके तद्विशिष्ट कर्मप्रदेश इस क्षपकके सम्भव देखे जाते हैं । किन्तु कर्मस्थिति के भीतर सर्वत्र ही अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुभागको बांधकर आये हुए क्षपकके उत्कृष्ट स्थिति और अनुभागविशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नहीं पाये जाते । 'अभज्जाणि होंति णियमा कसायेसु' ऐसा कहनेपर क्रोध, मान, माया और लोभकषायों में बन्धको प्राप्त हुए पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं, इसलिए वे इस क्षपकके भजनीय नहीं हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा चारों कषायोंस्वरूप उपयोगोंके परिवर्तमान होनेपर उनमें
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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