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खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियभासगाहा
१२७ परियत्तमाणेसु तेसि भयणिज्जत कारणाणुवलंभावो ति भणिवं होदि। संपहि एस्सेवत्यस्स फुडीकरणटुमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ
* विहासा। १३४०. सुगमं। * उक्कस्सद्विदिवद्धाणि उक्कस्सअणुभागबद्धाणि च भजिदव्वाणि । 5 ३४१. सुगम एत्थ कारणं, अणंतरमेव परूविवत्तादो। * कोह-माण-माया-डोमोवजुत्तेहिं बद्धाणि अमजियव्याणि ।
१३४२. कुवो ? अंतोमुहतेण परियत्तमाणेसु चदुकसायोवजोगेस तत्थ बवाणं कम्माणं णियमा अस्थित्तसिद्धीए विसंवावाणुवलंभावो। 'कवीस किट्टीस च टिवोस' ति एक्स्स मुलगाहारिमावयवस्स अत्थविहासा एत्थ ण परूविदा, छट्ठमूलगाहापडिबद्धविदियभास्गाहाए सव्वेसिमभयणिज्जाणमेवकवारेणेव टिदि-अणुभागेसु अवट्ठाणक्कम जाणावेमि त्ति एदेणाहिप्पाएण, तदो तत्थेव तस्स णिण्णो दव्यो।
संचित हुए कर्मों के इस क्षपकके भजनीय होनेमें कोई कारण नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
* अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६३४०. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट स्थितिबद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबद्ध पूर्वसंचित कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं।
६३४१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इस विषयमें कारणका कथन अनन्तर पूर्व ही कर बाये हैं।
* क्रोष, मान, माया और लोभमें उपयुक्त होनेसे बद्ध पूर्वसंचित कम इस क्षपकके अभजनीय है।
३४२. क्योंकि चारों कषायोंसम्बन्धी उपयोग अन्तर्मुहूर्तमें परिवर्तमान हैं, इसलिए उनके सद्भावमें बद्ध पूर्वसंचित कर्मोका अस्तित्व इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है उसमें किसी प्रकारका विसंवाद नहीं उपलब्ध होता। 'कदीसु किट्टीसु च द्विदीसु' इस प्रकार मूलगाथाके इस अन्तिम अवयवकी अर्थविभाषा यहां नहीं कही गयी है। छठी मूलगाथामें प्रतिबद्ध दूसरी भाष्यगाथा द्वारा स्थिति और अनुभागों में सभी अभजनीयोंके एक बारमें ही अवस्थानक्रमका ज्ञान करानेवाले हैं, इसलिए इस अभिप्रायसे वहींपर उसका निर्णय जान लेना चाहिए। . विशेषार्थ-जो जीव उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागसे युक्त कर्मोका बन्ध कर कर्मस्थिति कालके भीतर ही क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उस क्षपकके उक्त विधिसे पूर्वबद्ध कर्म नियमसे पाये जाते हैं। किन्तु जो कर्मस्थिति कालके भीतर अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट अनुभागसे युक्त कर्मका बन्ध कर उस कालके भीतर ही क्षपकश्रेणिपर आरोहण करता है उसके उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागसे युक्त पूर्वबद्ध कर्म नियमसे नहीं पाये जाते हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए। अब रहीं चार कषायें सो उनमेंसे प्रत्येक कषायका काल ही अन्तर्मुहूर्त है, ऐसी अवस्थामें किसी भी कषायके साथ बद्ध पूर्वसंचित कर्म इस क्षपकके नियमसे पाया जाता है, अतः इस अपेक्षासे उसे अभजनीय कहा है।