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________________ १२८ जयषवलासहिदे कसायपाहुडे 5३४३. एवमेत्तिएण पबंधेण चउत्थमूलगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि पंचमीए मूलगाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो उपरिमं पबंधमाह * एत्तो पंचमीए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । ६ ३४४. सुगमं। * तं जहा5 ३४५. सुगम। (१३३) पज्जत्तापज्जेत्तेण तधा त्थी-पुण्णवुसयमिस्सेण । ____सम्मत्ते मिच्छत्ते केण व जोगोवजोगेण ॥१८६॥ १३४६. एसा मूलगाहा पज्जत्तापज्जत्तावत्थासु वेद-सम्मत्त-जोग-णाण-दसणोवजोगमग्ग. णासु च पुन्वबद्धाणं कम्माणं खवगसेढीए भयणिज्जाभयणिज्जभावपचुप्पायणटुमोइण्णा। तं जहा-'पज्जत्तापज्जत्तेण०' एवं भणिवे पज्जत्तावत्याए अपज्जत्तावत्थाए च वट्टमाणेण जीवेण पुवबद्धाणि कम्माणि किमेदस्स खवगस्स अत्यि आहो त्यि ति पुश्वगाहासुत्तणिद्दिवाणं चेव गदि-इंदिय-कायमग्गणाणं पज्जत्तापज्जत्तावत्याहिं विसेसियूण पुच्छा कदा ददृव्वा । 'तधा त्थीपुण्णqसये' एवं मणिदे इत्थिवेदपुरिसवेव-णवंसयवेदपज्जाएस वट्टमाणेण पुव्यबद्धाणि किमत्थि आहो णत्थि त्ति पुच्छाहिसंबंधो कायव्यो। एवेग वेदमग्गणाविसए पुश्वबद्धाणं भयणिज्जाभयणिज्जसरूवेण अत्थित-णत्थित्तपरिक्खा पुच्छादुवारेण णिहिट्ठा बटुव्वा । $ ३४३. इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा चौथी मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त करके अब पांचवीं मूलगाथाकी अर्थविभाषा करते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * इससे आगे पांचवीं मूलगाथाको समुतकोतना करते हैं। 5 ३४४. यह सूत्र सुगम है। * वह जेसे। 5३४५.. यह सूत्र सुगम है। (१३३) पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाके साथ, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेवके साथ, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके साथ तथा किस योग और किस उपयोगके साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके पाये जाते हैं ॥१८॥ १३४६. यह मूल सूत्रगाथा पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाओं में तथा वेद, सम्यक्त्व, योग, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग मार्गणाओंमें पूर्वबद्ध कर्मके क्षपकश्रेणिमें भजनीय और अभजनीयपनेका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-'एज्जत्तापज्जत्तेण' ऐसा कहनेपर पर्याप्त अवस्था और अपर्याप्त अवस्थामें विद्यमान जोवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म क्या इस क्षपकके पाये जाते हैं या नहीं पाये जाते हैं इस प्रकार पूर्वगाथा सूत्र में जो गति, इन्द्रिय और कार्य मार्गणा कह आये हैं उन्हें ही पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थासे विशिष्ट करके यह पृच्छा को गयो जाननी चाहिए। 'तषा त्थी-पुं-णंदुसए' इस प्रकार कहनेपर स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद पर्यायोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म क्या इस क्षपकके पाये जाते हैं या नहीं पाये जाते हैं इस प्रकार पृच्छाके साथ सम्बन्ध करना चाहिए। इस प्रकार इससे वेदमार्गणामें पूर्वबद्ध कर्मोके भजनीय और अभजनीयस्वरूपसे इस क्षपकके अस्तित्वकी परीक्षा पृच्छद्वारा निर्दिष्ट की गयो जाननी चाहिए।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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