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________________ १६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे व बटुवमिदि वक्कमाहारं काढूण सुत्तत्थे वक्खाणिज्जमाणे तहाविहस्स लक्खणणिहेसस्स वि एस्थेव पडिबद्धत्तदंसणादो। एवमेवीए मूलगाहाए पुच्छामेत्तेण सूचिदाणमेदेसि तिहमत्यविसेसाणं विहासणं कुणमाणो तत्थ पडिबखभासगाहाणमियत्तावहारणमिदमाह * एत्थ चत्तारि भासगाहाओ। ६४३८. एवम्मि मूलगाहामुत्ते विहासिज्जमाणे तत्य इमाओ चत्तारि भासगाहाओ होंति त्ति वुत्तं होइ। * तासि समुक्कित्तणा। ६४३९. सुगम। (१४७) एकम्हि द्विदिविसेसे भवसेसगसमयपबद्धसेसाणि । णियमा अणुभागेसु य भवंति सेसा अर्णतेसु ॥२०॥ ६४४०. एसा पढमभासगाहा 'कवि वा एगसमयेणेत्ति' एवं मूलगाहाचरिमावयवमस्सियूण एग ठिविविसेसमाधारं काढूण तत्थ भवबद्धसेसगाणि समयपबद्धसेसयाणि च एत्तियमेत्ताणि होति त्ति जाणावणटुं, पुणो तेसि चेवाणुभागविसेसावहारणटुं च समोइण्णा । भव समयपबद्धसेसाणं लक्खणविसेसणिद्देस पि देसामासयभावेण एसा गाहा सूचेदि, सम्वेसि गाहासुत्ताणं देसामासय. भावेणावट्ठाणम्भुवगमावो। संपहि एविस्से अवयवत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा भवबद्धशेष कहलाता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार इस वाक्यका अध्याहार करके सूत्रके अर्थका व्याख्यान करनेपर उस प्रकारके लक्षणका निर्देश भी इसीमें प्रतिबद्ध देखा जाता है। इस प्रकार इस मूल सूत्र गाथामें की गयी पृच्छासामान्यके द्वारा सूचित किये गये इन तीन अर्थविशेषोंका व्याख्यान करते हुए उन अर्थोमें प्रतिबद्ध भाष्यगाथाओंकी संख्याका अवधारण करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * इस मूलगाथाके अर्थमें प्रवृत्त चार भाष्यगाथाएं हैं। $ ४३८. इस मूल गाथासूत्रके अर्थको विभाषा करनेमें प्रवृत्त प्रकृतमें ये चार भाष्यगाथाएँ हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * अब उनको समुत्कीर्तना करते हैं। ६४३९. यह सूत्र सुगम है। (१४७) एक स्थितिविशेषमें भवबशेष और समयप्रबद्धशेष नियमसे होते हैं तथा अनन्त अनुभागोंमें भवबशेष और समयप्रबद्धशेष नियमसे होते हैं ॥२००॥ ६४४०. यह प्रथम भाष्यगाथा 'कदि वा एगसमएण' इस प्रकार मूलगाथाके अन्तिम चरणका आश्रय करनेके साथ एक स्थितिविशेषको आधार बनाकर उसमें भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष इतने होते हैं इसका ज्ञान करानेके लिए तथा उन्हींके अनुभाग विशेषका अवधारण करनेके लिए आयो है। तथा भवबद्धशेषों और समयप्रबद्धशेषोंके लक्षणविशेषका निर्देश भी देशामर्षक रूपसे यह गाथा सूचित करती है, क्योंकि सभी गाथासूत्रोंका देशामर्षकभावसे अवस्थान स्वीकार किया गया है। अब इस भाष्यगाथाके अवयवोंकी अर्थप्ररूपणा करेंगे । वह जैसे
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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