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________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहा १६१ ६ ४३६. 'कदि कदि वा एगसमएण' एसो गाहासुत्तस्स चरिमावयवो । तत्थ एगो कदिसद्दो समयपबद्धसेसाणं भवबद्धसेसाणं च विसेसणभावेण पुव्वमेव संबंधिदो । संपहि 'कदि वा एगसमयेणेत्ति' एदस्स अत्यो वुच्चदे । तं जहा - एगणिसेगट्ठिदिमाधारं काढूण तत्थ णाणेगसमयपबद्धाणं भवबद्धाणं च सेसयाणि केत्तियमेत्ताणि लब्भंति त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणटुमेदं भणिदं, एगसमयेण विसेसिदा एगगोवुच्छम्मि वट्टमाणा समयपबद्धाणं च वेदिदसेसकम्मपरमाणू कदि वा लब्भंति त्तित्तत्याहिसंबंधवसेण तत्थ तहाविहत्यस्स परिष्कुडमुवलंभादो । एत्थत्तण 'वा' सद्दो अणुत्तसमुच्चयट्ठो तिरहं पुच्छाणं पयदोवजोगिसयलविसेसपरूवणाए सूचयभावेण तस्सावद्वाणभुवगमादो । एवमेदीए मूलगाहाए तिष्णि पुच्छाओ निद्दिट्ठाओ भवंति । तं जहा - १४३७. णाणेगसमयपबद्धाणं सेसयाणि कदिसु द्विदिविसेसेसु केत्तियमेत्तानि होंति त्ति' एसो पढमो पुच्छाणिद्देसो । णाणेगभवबद्धाणं सेसयाणि कदिसु द्विदिविसेसेतु केत्तियमेत्ताणि होंति त्ति एसो विदियो पुच्छाणिद्देसो । 'कवि वा एगसमयेणेत्ति' एवम्मि चरिमावयवे एक्कम्मि द्विदिविसेसे वट्टमाणाणि केत्तियाणि णाणेगभवबद्धसमयपबद्धाणं सेसयाणि होंति त्ति तदिओ पुच्छाणिद्देसो ति । एत्थेव 'एगसम एणेत्ति' एदेण चरिमावयवेण समयपबद्ध से सभवबद्ध से साणं लक्खणणिद्देसो वि सूचिदो त्ति घेत्तव्वो । एगसमयेण जम्हि वेदिदसे सगे पदेसपिंडे णिरवसेसमोकड्डियूण उदये संछुद्धे पुणो णिरुद्धसमयपबद्धस्स भवबद्धस्स वा ण किंचि पदेसग्गमुव्वरवि तारिसंपदेसग्गं से काले जिल्लेवणपाओगं हो दूणेण्हिमुवलब्भमाणसमयपबद्धसेसयं भवबद्धसेसयं ६४३६. 'कदि कदि वा एगसमएण' यह इस गाथासूत्रका अन्तिम चरण है। उसमें जो एक 'कति' शब्द आया है उसका समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेष के विशेषणरूपसे पहले ही सम्बन्ध सूचित कर आये हैं। अब 'कदि वा एगसमएण' इस पदका अर्थ कहते हैं । वह जैसेएक निषेकसम्बन्धी स्थितिको आधार करके उसमें कितने नाना समयप्रबद्धशेष और एक समयप्रबद्धशेष प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार कितने नाना भवबद्धशेष और एक भवबद्धशेष प्राप्त होते हैं इस अर्थविशेषका निर्णय करनेके लिये यह वचन कहा गया है, क्योंकि एक समयवाले एक गोपुच्छमें विद्यमान तथा समय प्रबद्धोंके वेदे जानेसे शेष बचे कर्म परमाणु कितने प्राप्त होते हैं इस प्रकार सूत्रार्थके सम्बन्धवश वहां उस प्रकारका अर्थ स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है । इस चरण में आया हुआ 'वा' शब्द अनुक अर्थका समुच्चय करता हुआ तीन पृच्छाओं सम्बन्धी प्रकृत में उपयोगी समस्त विशेषों की प्ररूपणा के सूचकरूपसे उसका अवस्थान स्वीकार किया गया है। इस प्रकार इस मूल गाथामें तीन पृच्छाएँ निर्दिष्ट की गई हैं । वह जैसे --- $ ४३७. नाना और एक समयप्रबद्धोंके शेष कितने स्थितिविशेषों में कितने होते हैं यह प्रथम पुच्छा निर्देश है । नाना भवों और एक भवमें बद्ध कर्मोके शेष कितने स्थितिविशेषों में कितने होते हैं यह दूसरा पृच्छानिर्देश है । 'कदि वा एगसमएण' इस अन्तिम चरणमें एक स्थितिविशेष में विद्यमान नाना और एक भवबद्ध और समयप्रबद्धोंके शेष कितने होते हैं यह तीसरा पृच्छा निर्देश है । तथा इसी गाथा सूत्र में आये हुए 'एगसमएण' इस अन्तिम चरण द्वारा समयप्रबद्धशेष और भवबद्धशेषके लक्षणका निर्देश सूचित किया गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। एक समय द्वारा जिसका वेदन करने के बाद शेष बचे हुए प्रदेश पिण्डको पूरा अपकर्षित करके उदयमें निक्षिप्त करने पर पुनः विवक्षित समयप्रबद्धका या भवबद्धका किचित् मात्र प्रदेशपुंज अवशिष्ट नहीं रहता उस प्रकारका प्रदेशपुंज तदनन्तर समय में निर्लेपनके योग्य होकर इस समय उपलभ्यमान समयप्रबद्धशेष और २१
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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