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________________ बषगसेढीए छट्ठमूलगाहाए पठमभासगाहा १४१ जो सुवण्णसंभारणाविवावारो' सो वि अंगारकम्ममिवि घेत्तन्वं । षण्णकम्मं णाम चित्तकम्मं वत्यरंजणावि घेत्तव्वं, हरियाल-हिंगुलमाविवण्णाणमण्णोण्णसंजोगजणिदवण्णभेदेहि पड-कुड्डादिस विचित्तचित्तकम्मसंपादणेण खोमंसम-दुगुलादिवत्थविसेसरंजणेण च जीवंताणं बहुआणमुवलंभादो। 'पव्वदकम्म' इवि वुत्ते लयण-खणण-सिलायंभघडण-तलउब्भसमारणादिसेलकम्मस्स गहणं कायव्वं । एवंपयारा अण्णे वि कम्मविसेसा मूसाकम्मादयो' एदेण देसामासयसुत्तेण णिहिट्ठा बटुव्वा । तदो एदेसु कम्मभेदेस वट्टमाणेण पुष्वबढाणि कम्माणि एवस्स खवगस्स भजिदवाणि, सम्वेसु जोवेस एदेसिमवस्संभाविणियमाभावादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ। एदेणेव वेसामासयसुत्तेण सिप्पभेदाणं पि पत्तछेवावीणं संगहो कायव्यो, 'हस्तनैपुण्यं शिल्पमिति' वचनात्। * सवलिंगेसु च मज्जाणि । ६३८६. णिग्गंलिंगवविरित्तसेसाणं सलिंगग्गहणेसु वट्टमाणेण पुण्यबद्वाणि कम्माणि एक्स्स खवगस्स भयणिज्जाणि त्ति वुत्तं होई। किं कारणं? तावसादिवेसग्गहणाणं सव्वजोवेस संभवणियमाणुवलंभावो । तबो सिद्धमेदेसि भयणिज्जतं । निष्पन्न किये जाते हैं उनसे जो स्वर्णका संस्कृत करना आदि व्यापार किया जाता है वह भी अंगारकर्म है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । वर्णकमसे वस्त्रका रंगना आदि चित्रकर्मको ग्रहण करना चाहिए। हरताल, हिगुल बादि रंगोंके परस्पर संयोगसे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके रंगोंद्वारा वन, दोवाल आदि पर नाना प्रकारके चित्रकर्मसम्पादन द्वारा तथा कपाससे बना हुआ वस्त्र और वृक्षकी छालसे बना हुआ वस्त्र आदि वस्त्रविशेषके रंगने द्वारा जीविका करनेवाले बहुत प्रकारके मनुष्य पाये जाते हैं। 'पव्वदकम्म' ऐसा कहनेपर गुफाका खोदना, शिला व स्तम्भका घड़ना ओर तलगृहका निर्माण करना आदि शैठकर्मका ग्रहण करना चाहिए। तथा इसी प्रकारके मूसाकर्म (धातु गलानेका कर्म) आदि और भी कर्मविशेष इस पदद्वारा देशामर्षकरूपसे निर्दिष्ट किये गये जानने चाहिए। इसलिए कर्म के इन भेदोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय होते हैं। क्योंकि जो वीव क्षपकवेणिपर चढ़ते हैं उन सबके ये कर्म अवश्य ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है। इस प्रकार यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। तथा इसी सूत्र द्वारा ही देशामर्षकभावसे शिल्पकर्मके भेद पत्रच्छेदन आदि कोका भी संग्रह करना चाहिए, क्योंकि हस्तकी निपुणताका नाम ही शिल्प है ऐसा वचन है। * सब लिंगोंमें पूर्व बद्धकर्म इस क्षपकके भजनीय हैं। ६३८६. निर्ग्रन्थ लिंगके अतिरिक्त शेष सब लिंगग्रहणोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि तापस आदि वेशोंका ग्रहण सब जीवोंमें सम्भव हो ऐसा नियम नहीं पाया जाता । इसलिए इन लिंगोंमें पूर्वबद्ध कर्मोकी भजनीयता सिद्ध हो जाती है। * क्षेत्रको अपेक्षा अधोलोक और ऊध्वंलोकमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके स्यात् पाये जाते हैं। किन्तु तियंग्लोकमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। १. ता० प्रती समारणादिवावारो इति पाठः । २. वा० प्रती मासा (मसि) कम्मादयो।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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