SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवगसेढोए तदियमूलगाहाए तदियत्थे विदियभासगाहा १०१ * तदो सव्वत्थ विसेसहीणं । 5 २६९. तदो विदियट्टिदियपढमणिसेगादो उवरि सव्वत्थ जाव विदियविदिचरिमणिसेगो त्ति ताव एगेगगोवुच्छविसेसहाणीए दिस्समाणपदेसग्गस्सावट्ठाणं होइ, गाण्णहा त्ति भणिदं होदि । एवं चेव दिज्जमाणपदेसग्गस्स वि सेढिपरूवणा कायव्वा । णवरि विदिदिदीए विसेसहीणं० पदेसगं णिसिंचमाणो गच्छदि जाव समपाहियावलिय अपत्ता विदिदिदीए अग्गदिदि ति। तत्तो परमइच्छावणावलियम्भंतरे दिज्जमाणपदेसग्गस्स संभवाणुवलंभावो। ६२७०. जदो एवं पढमविवियट्टिदोसु पदेसग्गस्स कमवडिहाणीहि अवटाणणियमो तदो पढमविदियट्टिविविसए जवमज्झमेदं जादमिदि जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * जवमझं पढमहिदीए चरिमहिदीए च विदियहिदीए आदिह्रिदीए च । * उस द्वितीय स्थितिकी प्रथम स्थितिसम्बन्धी द्रव्यसे आगे सर्वत्र प्रदेशपुंज उत्तरोत्तर विशेषहीन होता है। ६२६९. 'तदो' अर्थात् द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकसे ऊपर सर्वन द्वितीय स्थितिके अन्तिम निषेकके प्राप्त होने तक एक-एक गोपुच्छाविशेषकी हानि होनेसे उसरूप में दिखनेवाले प्रदेशपुंजका अवस्थान होता है, अन्य प्रकारसे नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। तथा इसी प्रकार दीयमान प्रदेशपुंजकी भी श्रेणिप्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि द्वितीय स्थितिमें विशेष हीन प्रदेशपुंजका सिंचन करता हुआ, द्वितीय स्थितिकी अग्र स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण निषेक शेष रहनेके पूर्व तक सिंचन करता है क्योंकि उससे आगे अतिस्थापनावलिके भीतर दीयमान प्रदेशजको सम्भावना नहीं पायो जाती। विशेषार्थ-यह प्रत्येक कृष्टिका वेदन करते समय उसमें दीयमान और दृश्यमान प्रदेशपंजको अपेक्षा किस प्रकार यवमध्य बनता है इसे स्पष्ट किया गया है। वेद्यमान कृष्टिको द्वितीय स्थितिमें स्थित जो अन्तिम निषेक है उसमेसे प्रत्येक समयमें अपकर्षणके योग्य प्रदेशजको अपेक्षा द्वितीय स्थितिमेसे एक समय कम किया गया है और उसके नीचे एक आवलिप्रमाण निषेकोको अतिस्थापनावलिमें रखा गया है। इस प्रकार एक स्थितिकाण्डकके पतन होनेतक अन्तिम निषेकमेंसे प्रतिसमय विवक्षित प्रदेशपुंजका अपकर्षण होनेपर उसका उदयनिषेकसे लेकर प्रथम और द्वितीय स्थितिमें उपरितन एक निषेक अधिक एक आवलिप्रमाण निषेकोंको छोड़कर अन्तरके अतिरिक्त शेष सत्त्वस्थितिके सब निषेकोंमें यथाविधि निक्षेप हाता है। यह अन्तिम निषेकमेंसे प्रदेशपंजके अपकर्षणकी अपेक्षा कथन किया है। इसी प्रकार उपान्त्य आदि निषेकको अपेक्षा भो अपकर्षणके नियमको ध्यान में रखकर कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता हैक विक्षित जिस निषेकमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण इष्ट हो उसे और उससे नाचे एक मावालप्रमाण निषेकों को छोड़कर शेष सत्त्वस्थितिमें अपकर्षित प्रदेशपुंजका निक्षेप होता है ऐसा यहां समझना चाहिए। २७०. यतः इस प्रकार प्रथम और द्वितीय स्थितिमें प्रदेशजके क्रमवृद्धि और क्रमहानिरूपसे अवस्थानका नियम है, अतः प्रथम और द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रदेशजमें यह यवमध्य घटित हो जाता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * प्रथम स्थितिको अन्तिम स्थितिमें और द्वितीय स्थितिको आवि स्थितिमें यह यवमध्य होता है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy