SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे $ २७१. किं कारणं ? एदेसु दोसु द्विदिविसेसेसु हेट्ठदो उवरिदो च पेक्खमाणे पदेसगास्स थूल भावेणावद्वाणदंसणा दो । संपहि एवस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवसंहारवक्कमाह * एदं तं जवमज्झं सांतरं दुसुट्ठिदीसु । ६ २७२. गाहासुत्तम्मि सांतरं दुसु द्विदीसु त्ति जं परूविदं जदमज्झं तमेदमवहारेयव्यमिदि वृत्तं होइ । १०२ ९ २७३. एवमेत्तिएण पबंधेण विदियभासगाहाए अत्यविहासणं समानिय संपहि तविय भासगाहाए जहावसरपत्तमत्यविहासणं कुणमाणो तदवसरकरणट्ठमुवरिमसुत्तमाह* एत्तो तदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । $ २७४. सुगमं । (१३५) विदियट्ठिदिआदिपदा सुद्धं पुण होदि उत्तरपदं तु । सेसो असंखेज्जदिमो भागो तिस्से पदेसग्गे ॥ १७८ ॥ २७५. एसा तदियभासगाहा विदियद्विदीए पदेसग्गस्स उत्तरसेढीए चिट्टमाणस्स परम्परोवणिघापरूवण मोइण्णा । तं जहा - 'विदियट्ठविआ विपदा' एवं भणिदे विदियट्ठिदिपढम $ २७१. शंका - इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि इन दोनों स्थितिविशेषोंको क्रमशः नीचेसे और ऊपरसे देखनेपर प्रदेश पुंजका स्थूलरूप से अवस्थान देखा जाता है । सब इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिए उपसंहारवाक्यको कहते हैं * वह यह यवमध्य दोनों स्थितियोंमें सान्तर होता है । १ २७२. गाथासूत्र में जो यबमध्य दोनों स्थितियों में सान्तर कहा है वह यह है ऐसा अवधारण करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है | विशेषार्थ — अन्तर के पूर्व प्रथम स्थिति में उदयादि गुणश्रेणिरूप निक्षेप होनेसे उसका अन्तिम निषेक नोचसे देखनेपर प्रदेशपुंजकी अपेक्षा स्थूल होता है । इसी प्रकार अन्तरके ऊपर द्वितीय स्थिति में प्रथम निषेक ऊपरसे दखनेपर यह भी प्रदेशपुंजको अपेक्षा स्थूल होता है । इस प्रकार दोनों ओरसे निषेक सन्निवेशके देखनेपर वह मध्यमें यवक मध्य भागके समान स्थूल दिखाई देता है, इसीलिए इसे यवमध्य शब्द द्वारा अभिहित किया गया है । $ २७३. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा द्वितीय भाष्यगाथाकी प्रर्थविभाषा करके अब तृतीय माष्यगाथाको अवसर प्राप्त अर्थविभाषा करते हुए उसका अवसर करनेके लिए आगे के सूत्र को कहते हैं * अब इससे आगे तीसरे भाष्यगाथा की समुत्कीर्तना करते हैं । ९ २७४. यह सूत्र सुगम है । (१३५) द्वितीय स्थिति के प्रमथ निषेकमेंसे अन्तिम निषेकको घटावें । ऐसा करनेपर द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकसम्बन्धी प्रवेशपुंजमें शुद्ध शेष असंख्यातवें भागप्रमाण होता है ॥ १७८ ॥ ६ २७५. यह तीसरी भाष्यगाथा द्वितीय स्थितिमें स्थित उत्तर श्रेणोसम्बन्धी प्रदेशपुंजकी परम्परोपनिषाकी प्ररूपणा के लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - विदियट्ठिदिआदिपदा' ऐसा कहने
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy