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________________ खवगसेढीए तदियमूलागाहाए तदियत्थे तदियउत्थभासगाहा १०३ णिसेगादो त्ति वुत्तं होदि । पडियतलोवं कादूण सुत्ते विवियदिदिआदिपदा ति णिविद्वत्तादो। 'सुद्धं पुण उत्तरपदं होदि त' तस्स उत्तरपदं णाम विदियट्रिदिचरिमणिसेगपदेसग्गमिदि घेत्तव्यं । तं सुद्धं सोधिदं कायध्वं । एवं सोहिदे 'सेसो असंखेज्जदिमो भागों' सुद्धसेसो 'तिस्से विदियट्रिदिपढमदिदीए पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागी होदि । विदियट्टि वीए आदि टिदिपदेसग्गमसंखेज्जे भागे कादूण तत्थेयखंडमेत्तमेव सुद्धसेसदव्वस्त पमाणमिदि वुत्तं होइ । कुदो एदमिदि चे ओइण्णद्वाणमेत्ताणं चेव गोवुच्छविसेसाणमेत्य समहियत्तसणादो। एवमेसा परंपरोवणिषा विदियट्टिदिपदेसग्गविसये परूविदा होदि। अणंत वणिधा वि एदेणेव सूचिदा त्ति घेतव्वं । संपहि एवंविहमेदिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो विहासागंयमुत्तरं भणइ * विहासा। 5२७६. सुगम। * विदियाए टिठदीए उक्कस्सियाए पदेसग्गं तिस्से चेव जहणियादो टिठदीदो सुद्धं सुद्धसेसं पलिदोवमस्स असंखेजदिमागपडिभागियं । 5२७७. एत्थ सुद्धसेसं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागियं इदि वुत्ते संखेज्जावलियोवट्टिदणिसेगभागहारेग विदियट्रिदिपढमगिसेगे खंडिदे तत्थेयखंडमेतं सुद्धसेसदव्वमिदि घेत्तव्दं । एदस्स भावत्यो-विदियट्रिदिआयामो जेण वासपुषत्तपमाणो तेण तत्थतणचरिमणिसेगपदेसग्गादो पर द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेक मेंसे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'पडियत' अर्थात् विभक्तिका लोप करके माथासुत्रमें 'विदियट्रिदिनादिपदा' इस प्रकार निर्देश किया है। 'सूद्ध पूण उत्तरपदं होदि' ऐसा कहनेपर उस द्वितीय स्थितिका 'उत्तरपद' अर्थात् द्वितीय स्थितिके अन्तिम निषेकका प्रदेशपंज ग्रहण करना चाहिए उसे शुद्ध अर्थात् शोधित करना चाहिए। इस प्रकार शोधित करनेपर 'सेसो असंखेज्जदिमो मागो' शुद्ध शेष 'तिस्से' द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रथम स्थितिके प्रदेशपुंजका असंख्याता भाग होता है। द्वितीय स्थितिसम्बन्धी आदि स्थितिके असंख्यात भाग करनेपर उनमें से एक भागमात्र ही शुद्ध शेष द्रव्यका प्रमाण होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह किस कारणसे प्राप्त होता है ? समाधान-क्योंकि गोपुच्छविशेषोंका यहाँपर अधिकपना देखा जाता है। इस प्रकार यह परम्परोपनिधा द्वितीय स्थितिके प्रदेशपुंजके विषयमें कही गयो है। अनन्तपरोपनिषा भी इसीसे सूचित की गयी है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थको विभाषा करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। 5२७६. यह सूत्र सुगम है। * द्वितीय स्थितिसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थितिके प्रदेशपुंजको उसीकी जघन्य स्थितिमेसे घटावे । घटानेपर शुद्ध शेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातर्वे भागका प्रतिभागी होता है। ६२७७. यहाँपर 'सुद्धसेस पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागपडिभागियं' ऐसा कहनेपर संख्यात आवलियोंसे भाजित निषेक भागहारके द्वारा द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रथम निषेकके भाजित करनेपर वहाँ एक भागप्रमाण शुद्ध शेष द्रव्य होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसका भावार्थ-द्वितीय स्थितिका आयाम यतः वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए उसके अन्तिम निषेकसम्बन्धी
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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