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________________ १०९ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए विदियत्थे छट्ठी भासगाहा 5 २९६. सुगम। (१२८) वेदगकालो किट्टीय पच्छिमाए दुणियमसा हरस्तो। संखेजदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणधिगो॥१८१॥ $ २९७. एसा छट्ठी भासगाहा 'का च कालेणेत्ति' इममेव सत्तावयवमस्सियूण बारसण्हं संगहकिट्टीणं वेदगकालविसयप्पाबहुअपलवगट्ठमोइण्णा। तं जहा-'वेदगकालो किट्टीय पच्छि. माए दु० 'एवं भणिवे पच्छिमकिट्टी णाम लोभस तदियसंगहकिट्टी सहुमसांपराइयकिट्टीसरुवमावण्णा घेत्तव्वा, सव्वपच्छा वेदिज्जमाणत्तादो। तिस्से वेदगकालो त्ति वुत्ते जेत्तियं कालं तिस्से वेदगो होदूणच्छइ सो कालो घेत्तन्वो। सो च सहुमसांपराइयद्धामेत्तो होदूण "णियमसा' णिच्छएणेव 'हरस्सो' थोषयरो होदि त्ति वुत्तं होइ। ६२९८ 'संखेज्जविभागेण दु०' एवं भणिवे सेसिगाणं संगहकिट्टीणं वेदगकालो जहाकममेव पच्छाणुपुवीए संखेज्जविभागेगम्भहिलो द टुट्यो, हेट्ठिमकिट्टीवेकगद्धाणमुवरिमकिट्टीवेदगवाहितो संखेज्जावलियमेत्तेणब्भहियत्तसणादो। एत्थ गाहापुम्वद्ध 'तु' सद्दणिद्देसो पाव. पूरण? दटव्वो। गाहापच्छधे च ''तु' सद्दो अवहारणढे वट्टदे, संखेज्जदिभागेणेव विसेसाहिओ णाण्णहा त्ति अवहारणफलत्तादो। अधवा समुच्चयटठे दम्वो. तेण किटीकरणद्धा अस्सकण्णकरणद्धा छण्णोकसायक्खवणद्धा इत्थोवेदक्खवणद्धा णदुंसयवेदक्खवणद्धा अंतरकरणद्धा अट्ठकसायक्खवणद्धा त्ति एवासि पि अद्धाणमेत्य गहणं कायव्वं । संपहि एवासिमद्धाणमेसा संविट्ठी ६२९६. यह सूत्र सुगम है। (१२८) अन्तिम कृष्टिका वेदक काल नियमसे सबसे अल्प है। तथा शेष कृष्टियोंका क्रमसे उत्तरोत्तर संख्यातवां भाग अधिक है ॥१८॥ ६२९७. यह छठो भाष्यगाथा 'का च कालेण' सूत्रके इसी अवयवका आलम्बन लेकर बारह संग्रह कृष्टियोंके वेदक कालविषयक अल्पबहुत्वका कथन करने के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे'वेदककालो किट्टोय पच्छिमाए दु०' ऐसा कहनेपर यहां अन्तिम कृष्टिसे सूक्ष्मसाम्पराय कृष्टिस्वरूपको प्राप्त हुई लाभसंज्वलनकी तासरी संग्रहकृष्टि ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि उसका सबसे अन्तमें वेदन होता है। उसका वेदककाल ऐसा कहनेपर जितने काल तक उसका वेदक अवस्थित रहता है उस कालको ग्रहण करना चाहिए। और वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके कालप्रमाण होकर 'णियमसा' निश्चयसे हो 'हरस्सो' अल्पतर होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 5२९८. 'संखेज्जदिभागेण दु०' ऐसा कहनेपर शेष संग्रह कृष्टियोंका वेदककाल यथाक्रम ही उत्तरोत्तर पश्चादानुपूर्वीस संख्यातवां भाग अधिक जानना चाहिए, क्योंकि अधस्तन कृष्टियोंका वेदककाल, उपारम कृष्टियों के वेदककालसे संख्यात आवलि अधिक देखा जाता है, यहाँ उक्तभाष्यगाथाके पूर्वाधमे 'तु' शब्दका निर्देश पादपूरणरूप अर्थ में जानना चाहिए और गाथाके उत्तरार्धमें 'तु' शब्द अवधारणरूप अर्थमें आया है, क्योंकि उपरिम संग्रहकृष्टिसे अधस्तन प्रत्येक संग्रह कृष्टिका काल संख्यातवां भाग हो विशेष अधिक होता है, अन्य प्रकारसे अधिक नहीं होता इस प्रकार अवधारणा करना ही दूसरे 'तु' शब्दके निबद्ध करनेका फल है। अथवा यह दूसरा 'तु' शब्द समुच्चयरूप अर्थमें जानना चाहिए। उससे कृष्टिकरणकाल, अश्वकरणकाल, छहनोकपायक्षपणाकाल, स्त्रीवेदक्षपणाकाल, नपुंसकवेदक्षपणाकाल, अन्तरकरणकाल, आठ कषायक्षपणाकाल इस प्रकार इन कालोंको भी यहाँपर ग्रहण करना चाहिए। इन कालोंकी यह संदृष्टि है
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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