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________________ ९२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5२४६. संपहि मूलगाहाए तदियावयवमस्सियूण तत्थ पडिबद्धस्स तदियस्स अत्थस्स विहासणं कुणमाणो उवरिमसुत्तपबंधमाढवेइ * मूलगाहाए तदियपदं 'का च कालेणेत्ति । ६२४७. जं मूलगाहाए तदियमत्थपदं तस्सेदाणिमत्थविहासणं कस्सापो त्ति वुत्तं होइ। संपहि एत्थ पडिबद्धाणं भासगाहाणं पमाणावहारण?मुत्तरसुत्तमाह * एत्थ छन्भासगाहाओ। 5२४८. एवम्हि पदे पडिबद्धस्स अत्थस्स विहासण?मेत्थ छडभासगाहाओ णादवाओ त्ति भणिदं होइ। जइ एवं, णाढवेयव्वमिदं सुत्तं, पुव्वमेव तत्थ छण्हं भासगाहाणमत्यित्तस्स परूवि. दत्तादो ? ण एस दोसो, तासिमेण्हि विहासणटुं पुव्वुत्तस्सेवत्थस्स संभालणे दोसाभावादो। संपहि बहाकममेव तासि समुक्कित्तणं विहासणं च कुणमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाह विशेषार्थ-प्रकृतमें क्रोधसंज्वलनको तीनों संग्रह कृष्टियोंका अनुभागको अपेक्षा स्वस्थान अल्पबहुत्व कहा है। उसके क्रमका निर्देश मूल में किया ही है। तथा मान, माया और लोभसंज्वलनमेंसे प्रत्येकको तीनों संग्रहकृष्टियोके अनुभागसम्बन्धी स्वस्थान अल्पबहुत्वको इसी प्रकार जाननेको सूचना को है । यद्यपि यहाँपर परस्थान अल्पबहुत्वका निर्देश नहीं किया है फिर भी उसे उसी प्रकारसे जान लेना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्वमें गुणकारका प्रमाण अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धांके अनन्तवें भागप्रमाण होता है वैसे ही परस्थान अल्पबहुत्व में भी सामान्यरूपसे गुणकारका यही प्रमाण जानना चाहिए। अन्तरकृष्टियों के मध्य एक अन्तरकृष्टिसे दूसरी अन्तरकृष्टि कितनी बड़ी या छोटी है तथा अन्तरकृष्टियोंके मध्य परस्पर जो अन्तराल है वह कितना है इसको प्राप्त करने के लिए भो गुणकारका सामान्यरूपसे यही प्रमाण जानना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है। २४६. अब मूलगाथाके तीसरे अवयवका आलम्बन लेकर उसमें प्रतिबद्ध तीसरे अर्थको विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रवन्धका आरम्भ करते हैं * मूलगाथाका तीसरा पद है-'का च कालेण'। ६२४७. जो मूलगाथाका तीसरा अर्थपद है उसकी इस समय अर्थसम्बन्धी विभाषा करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस अर्थमें प्रतिबद्ध भाष्यगाथाओंके प्रमाणका अवधारण करने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस अर्थमें छह भाष्यगाथाएं हैं। ६२४८. इस पदमें प्रतिबद्ध अर्थको विभाषा करनेके लिए प्रकृतमें छह भाष्यगाथाएं जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यदि ऐसा है तो इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके पूर्व ही इस अर्थमें छह भाष्यगाथाओंका अस्तित्व कह आये हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उनकी यहाँपर विभाषा करनेके लिए पूर्वोक्त अर्थकी सम्हाल की गयी है, इसलिए कोई दोष नहीं है। अब क्रमसे ही उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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