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________________ खवगसेढीए तदियमूरगाहाए विदियत्थे एक्का भासगाहा $ २४२. एत्थ 'संगहकिट्टि पडुच्चेत्ति' गिद्देसो संगहकिट्टीओ अस्सियूण एदमप्पाबहुरं परूविज्जदि ति पदुप्पायणफलो। 'तदियाए संगहकिट्टीए' ति वुत्तै कारगपढमसंगहकिट्टीए गहणं कायव्वं । सेसं सुगमं। * विदियाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो । २४३. सुगमं। * पढमाए संगहकिट्टीए अणुभागो अणंतगुणो । ६२४४. सुगममेदं पि । गवरि उहयत्य वि गुणगारमभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तमिवि घेत्तव्वं । कुदो एवं गन्धवे ? सुत्ताविरुद्धपरमगुरूवएसादो। * एवं माण-माया-लोमाणं पि । ६ २४५. जहा कोहसंजलस्स तिहं संगहकिट्टिणं सत्याणप्पाबहुममेदं परूविवं तहा चेव माण-माया-लोभसंजलणाणं पिवत्तव्वं, विसेसाभावादो ति। संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदो परत्था. गप्पाबहुआलावो सुगमो। अंतरकिट्टीणं किट्टीसंतराणं च अप्पाबहुअं पुव्वमेव पवंचिदमिवि ण पुणो तप्पवंचो कोरवे, जाणिवजाणावणे फलाणुवलंभावो । एवमेवीए परूवणाए समत्ताए तदो मूलगाहाए विविओ अत्थो समत्तो। ६२४२. इस सूत्रमें 'संगहकिट्टि पडुच्च' यह निर्देश संग्रह कृष्टियोंका आलम्बन लेकर इस अल्पबहुत्वको कहते हैं यह इस कथनका फल है। 'तदियाए संगहकिट्टीए' ऐसा कहनेपर कृष्टिकारकको प्रथम संग्रहकृष्टिका ग्रहण करना चाहिए । शेष कथन सुगम है। * उससे दूसरो संग्रह कृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। ६२४३. यह सूत्र सुगम है। * उससे प्रथम संग्रहकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। ६२४४. यह सूत्र भी सुगम है। इतनी विशेषता है कि दोनों ही स्थलोंपर गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण ग्रहण करना चाहिए। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्र के अविरुद्ध परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। * इसी प्रकार मान, माया और लोभ संज्वलनके अनुभाग-सम्बन्धी अल्पबहत्वका कथन करना चाहिए। ६२४५. जिस प्रकार क्रोष संज्वलनको तीनों संग्रह कृष्टियोंका यह स्वस्थान अल्पबहुत्व कहा उसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनोंका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अब इस सूत्र द्वारा सूचित किये गये परस्थान अल्पबहुत्वका आलाप सुगम है तथा अन्तरकृष्टियों और कृष्टिअन्तरोंके अल्पबहुत्वका पहले ही विस्तारसे कथन कर आये हैं, इसलिए पुनः उनका विस्तारसे कथन नहीं करते, क्योंकि जिनका पूर्वमें ज्ञान करा दिया है उनका पुनः ज्ञान करानेमें कोई फल नहीं पाया जाता। इस प्रकार इतनी प्ररूपणाके समाप्त होने के पश्चात् मूलगायाका दूसरा अर्थ समाप्त होता है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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