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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे $ २३९. कोहसंजलणस्स पढमसंगह किट्टी तस्सेव विवियानो संगह किट्टीयो णिच्छ एणेव अणुभागग्गेण अनंतगुणा होदि ति गाहापुग्वद्धे सुत्तत्यसमुच्चओ । 'तवियादो पुण विविया' एवं भणिदे कोहसंजणस्स तदियसंगह किट्टीदो विदियसंगह किट्टी अणुभागग्गेण णियमा अनंतगुणा agar त्ति भणिदं होदि । एदस्स भावत्थो - कोधवेदगत दियसंगह किट्टीए सव्वा विभागपडिच्छेपुंजादो विदियसंगह किट्टीए सम्वाविभागपडिच्छेद पुंजो अनंतगुणो । तत्तो पुण पढमसंगह किट्टी ए सवा विभागपडिच्छेदपुंजो अनंतगुणो । गुणगारो अभवसिद्धिएहितो अनंतगुणमेत्तो, सत्यागपरत्थाणेसु अविभागपरिच्छेदगुणगाराणं तहाभावसिद्धीए बाहाणुवलंभादो त्ति । $ २४०. 'कमेण सेसा गुणेणहिया' एवं भणिवे माण- माया लोभाणं पि तिष्णि संगह किट्टीओ पण तसिंग हट्टिमादि काढूण जहाकममणंतगुणस हवेण अहिया होंति त्ति भणिदं होदि । एवमेदेण गाहासुतेण कोह- माण- माया - लोभाणमप्पप्पणो तिरहं संगह किट्टीणमप्पाबहुअं उवहट्ठ age | एदम्हादो चैव परस्याणप्पाबहुअ मंतर किट्टी अप्पा बहुअं किट्टोअंतर प्याबहुअं च सूचिदमिदि गवं । संपहि एवं विमेदिस्से गाहाए अत्थे विहासमाणो चुण्णिसुत्तयारो विहासागंथमुत्तरमाढवेइ * विहासा । २४१. सुगमं । * संगहकिट्ट पहुच कोहस्स तदियाए संगह किट्टीए अणुभागो थोवो । $ २३९. क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टि उसीकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे अनुभागपिडकी अपेक्षा निश्चयसे ही अनन्तगुणी होती है यह इस भाष्यगाथाके पूर्वार्ध में सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । 'तदिया दो पुण विदिया' ऐसा कहनेपर क्रोधसंज्वलनको तीसरी संग्रहकृष्टिसे दूसरी संग्रहकृष्टि अनुभागपिण्डकी अपेक्षा नियमसे अनन्तगुणो जाननी चाहिए यह उक्त कथनका ताल है । इसका भावार्थ - क्रोधवेदक के तीसरी संग्रह कृष्टिके समस्त अविभागप्रतिच्छेदपुंजसे दूसरी संग्रह - कृष्टिका समस्त विभाग प्रतिच्छेदपुंज अनन्तगुणा है । पुनः उससे प्रथम संग्रह कृष्टिका अविभागप्रतिच्छेदपुंज अनन्तगुणा है । गुणकार अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा है, क्योंकि स्वस्थान और परस्थानमें अविभागप्रतिच्छेदके गुणकारकी उसरूपसे सिद्धि होने में बाधा नहीं पायी जाती । २४०. 'कमेण सेसा गुणेणहिया' ऐसा कहनेपर मान, माया और लोभसंज्वलन प्रत्येककी ये तीनों ही संग्रह कृष्टियां अपनी-अपनी तीसरी संग्रह कृष्टिसे लेकर दूसरी ओर दूमरीसे पहली संग्रह कृष्टियाँ क्रमसे अनन्तगुणस्वरूपसे अधिक अधिक होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इस गाथा सूत्र द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी अपनी-अपनी तीनों संग्रह कृष्टियोंका अल्पबहुत्व कहा हुआ जानना चाहिए। तथा इसी भाष्यगाथासे ही परस्थान अल्पबहुत्व, अन्तरकृष्टि अल्पबहुत्व और कृष्टि अन्तर अल्पबहुत्व सूचित किया गया है ऐसा जानना चाहिए। अब इस प्रकार इस गाथाके अर्थकी विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगे के विभाषा ग्रन्थको कहते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । $ २४१. यह सूत्र सुगम है । * संग्रहकृष्टिको अपेक्षा क्रोधसंज्वलनकी तीसरी संग्रह कृष्टिका अनुभाग सबसे स्तोक है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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